Chamatkar Chintamani Braj Bihari Lal Sharma

Chamatkar Chintamani Braj Bihari Lal Sharma

भदुनारायणकृतः चमत्कारचिन्तामणिः

अदुनारायणकरुतः

चमत्कारयचिन्तापणिः

[ अन्वयार्थप्रबोधप्रदीपसंस्कृतरीकासमेतः, टिप्पण्यादिभिः समलङ्कृतश्च ]

टीकाकारः मालवीय-दैवन्न-धर्मर्वरः

रिप्पणीकारः सम्पादकर्च ब्रजविहारीलाल शर्मा

मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई, कोलकाता, बंगलोर, | वाराणसी, पुणे, पटना

पुनर्युणः दिल्ली, १९८९, १९८ १९८९, १९९२, १९९ १९९८, ₹००९, २००५, २००८, ₹० १ £ प्रथम संस्करण : वाराणसी १९.७५

© मोतीलाल बनारसीदास

158: 978-81-208-24977-3 (सजिल्द) 1587: 978-81-208-2498-0 (अजिल्द)

मोतीलाल बनारसीदास ४१ यू०ए० बंगलो रोड, जवाहर नगर, दिल्ली ११० ००७ ८ महालक्ष्मी चैम्बर, २२ भुलाभाई देसाई रोड, मुम्बई ४०० ०२६ २३६ नाईंथ मेना ब्लाक, जयनगर, बंगलौर ५६० ०११ सनाज प्लाजा, १३०२ बाजीराव रोड, पुणे ४१९१९ ००२ २०३ रायपेद्धा हाई रोड, मैलापुर, चेन्नई ६०० ००४ ८ केमेक स्ट्रीट, कोलकाता ७०० ०१७ अशोक राजपथ, पटना ८०० ००४ चौक), वाराणसी २२१ ००९१

नरेनद्रप्रकाश जैन, मोतीलाल बनारसीदास, बंगलो रोड, दिल्ली ११० ००७ द्वारा प्रकाशित तथा जैनेन्दरप्रकाश जेन, श्री जैनेन्द्र प्रेस, ए-४५ नारायणा, फेज-९, नई दिल्ली ११० ०२८ द्वारा मुद्रित

भूमिका-

उयोतिषश्चाख्र के तीन स्कन्ध है– संहिता, तंन भौर होरा इनमें होरा स्कन्ध अनन्तपार सागर है। इसमे जातक-ताजिक-मुहूतं-प्रक्न-पचांगनिर्माण- नष्टजातक सम्बन्धी अनेक ग्रन्थर्है। इनमेसे भमी मुख्यता जातक फलादेश की है। “नज्योतिःशाखर फलादेश का सागर हैः एेसा कथन कोई अतिशयोक्ति नहीं है। फलादेश सुगम हो जाए, इस प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए वराहमिहिर आदि भवार्यो ने अपने-अपने अन्य च्लि है। बाहुबक से समुद्र को पार कर ठेना सहज तो क्या, अत्यन्त कठिन है आर पारङ्गत होने के लिए जहाजों की आवदयकता होती है । अतएव जहाजों का निमोण होता दै। इसी प्रकार फलदेरा सागर को पार करने के ल्एि भावचार्योने प्वरूपी फलादेश्च ग्रन्थ च्चि है। इन भ्रन्थोंमें बृहजातक की मुख्यता ह । यह ग्रन्थ संक्षि है, दुरूह है भौर सव॑विषयपूणै भी दै चसा वराहजीने

स्वयं कहा दै-होरातन्त्रमहाणंवप्रतरणे भग्नोद्यमानामहं खस्परं इत्तविचित्रमथेबहुं शाल्वं प्रासे ॥ ° २॥

नारायणभहजी ने इसी भाव को स्पष्ट करने के लिए चमत्कारचिन्तामणि का उपोद्घातरूप तीसरा शक छ्ला रै–“चतुर्लश्चञयोतिर्महाम्बोषिमुेः प्रमथ्यैव-‘ । नारायणम त्रिसकन्धवेत्ता-ज्योतिविंद्‌ थे । अत्व उन्होने चार लख फटितज्योतिष के मन्थोका मार्मिक स्वाध्याय क्रिया, मार्मिक परिशीलन किया, तदनन्तर इन प्रन्थों का पृणतया विरोडन भी किया ओर अमूल्य फठरूपी रतो का संग्रह किया । एक-एक शोक मे एक-एक भावस्य ग्रहों का फर युजंग-

प्रयात छन्द द्वारा मनोहर शब्दों मे वर्णित कियाद ॥ एकदहीशछोकमें एक भाव का फल वर्णित करना महान्‌ कठिन कार्यं है जेसे कुम्भ मे समुद्र को बन्द

करना है । तो भी नारायणमड ने अपने बुद्धि-वैभव से-भपने प्रकाण्ड पाण्डित्य से, भपने काव्यरचनाकोशस्य से इस अत्यन्त कठिन कायं को मूर्तिमान कर दिखाया है । अतएव ज्योतिष के जातक प्रकरण में भावस्थित ग्रहों का फल कहने के किष चमत्कारचिन्तामणि ग्रन्थ कौ सवत्र मान्यता है । फलादेश करने मे यद ग्रन्थ बहुत ही उपयोगी है । इस मन्थ द्वारा फलादेश करनेवाङे दैवज्ञ सवंत विजयी हो सकते है । इसमें प्रमाणरूप चमत्कारचिन्तामणि का अन्तिम शोक है । “4चमत्कारचिन्तामणो यत्‌ खगानां फलकं कीतिंतं भटनारायणेन ।

पठेवयो द्वि जस्तस्य राज्ञः समक्ष प्रवत्तं न चान्ये समथा भवेयुः ॥ नारायणमदने किस देर को अलक्त किया, किस ग्राम को अपने जन्म से विभूषित किया भौर किस वंश को यशस्वी बनाया-आदि-भादि विषयों का

( “1 )

परिचय प्राप्त करने के किए पाठकां का मनमयूर्‌ अवद्य नाच उठता दहै) किन्तु खेद्‌ है कि नारायणभद्रने पुस्तक कठेवर मं ऊपर चि प्रश्नां पर कोई प्रकारा नदीं डाक हे । प्रद्युत मोनावलम्बन से काम लिया है । अपने नाम का परिचय मात्र अवदय द्विया दहे) प्रव्यन्न प्रमाण क अमाव मं अनुमान का याश्रय लेना पट्तादै। नाम के साथ म्र शब्द देने से अनुमान किया जाता है कि भट्रजी दाक्चिणास्य महारा ब्राह्मण हारो । “अजा तस्व माता परिता वाह्ुरेवः इस शेक से किसीएक क्रा अनुमान दैक इस तरह का वणन करनवाटे उ्योतिष्री दक्षिणमंदह्ीहएःर्दै– पीर यह टेखक मसूर~राञ्य का हाना चादि | चमत्कारचिन्तामणि का नाम भावचिन्तामणि भी प्रसिद्ध दै ।

“यह ग्रन्थ क्रिस दातान्डीमं च्लि गया दै” इस विषयमे भी कोई प्रत्यक्ष एेतिद्ासिक प्रमाण उपलन्ध नहीं दहोग्हादहै। यह्‌ म्रन्थ १५बीं शताब्दी मं लिला गया दोगा, एेसा अनुमान है।

यह ग्रन्थ फलकथन मं बहुत उपयोगी दै आओौर इसका तुलनातमक स्वाध्याय ओर परिशीलन देवज्ञं को करना चादहिए-इस माव को मन मे रखते दए इसका सम्पादन क्रिया गयादे। वह सम्पादन देवज्ञो को गगं आदि प्रसुख आचार्यो के मतां का परिरीलन करने का अवसर देगा यौर साथ ही मनोरंजन मी होगा, एेसी सपादक की विश्वासभरी धारणाद । इस तुलनासमक संपादने निम्नलिखित आचार्यो ओर अर्वाचीन दैवज्नां क मत प्रज्ञादष्टि मे आर्णैगेः-

१ वराहमिहिर, गर्गाचार्य, पराशर, वसिष्ठ, कल्याणवर्मा, वैयनाथ, जातक- कटानिधिकार, वृहदूयवनजातक्कार) काशीनाथः जयदेव, जागेश्वर, पुंजराज, मतरेश्वर;, नारायण, हरिटंश, तच्रप्रदीपजातक्रकार; कटयप, ग्वरगुसूत्तकार, नारद्‌, गोरीजातक, जातकमुक्तावली) दुण्टिराज; जीवनाथ, व्यंकटश्माी, जातका- टंकारकार आदि-भादि । सम्पादक ने यवनमत आर प्ाश्वाव्वमतमभी दिया है । उपयोगी स्थलों पर विस्तरत . रिप्पणमी च्चिगएदहं। उपयोगी समञ्चकर ग्रहो का गण-स्वभाव-स्वर्प भादि तथा कारकव्व आदि का कहीं समास सेओौर कदं व्यास से वणन क्रियागयादहे | ग्रहों का राशिफ, दष्टिफल-यौर युतिफल मीचल्िखिा गवादहै। इस तरद दैवज्ञा के लामाथं पूणं प्रयास क्रिया गया है।

अआशादहेकि सभी प्रकारक पाटक इस सम्पादनसे गुणग्राही होकर पूरा-पूरया लाम उटार्येगे । अन्तमं सम्पादक प्राचीन-अर्वाचीन ग्रन्थकार्सँ के प्रति तथा अन्य टेखकों के प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता है जिनक साहाय्य से यह सम्पादन सम्पूणं हा दहै । इति शम्‌ ।

विनीते व्रजविहारीराल

विषय-सूचो

सूय-विष्वार सूयं-फल

चन्द्र-विचार र ०. ७२ प्च ००० ० ८६ भौम फल ४ ध १३७ बुध-विष्वार ध ध २०३ बुध फल ४ ग ६

बृहस्पति-विनार र ००, २५६ बृहस्पति-फर | क २६१ श्ुक्र-विचार “°” क २१

टुक्र-फट °“ ६ २८ शनि-विचार क वा 0 रामि-फ़क ६ ००० ३९८ राहूु-केतु-विचार “°” ध श शा ि नी ४.७१ वेःतु-फट “°” १.४; ६

वंशपरिचय : उपाध्यायाभिधाधारि-सुस्वरान्वयजन्मनाम्‌ । रयामचौरासीग्रामे वे मैत्रेयाणां शिरोमणिः ॥ पौराणिकेषु व्यासो वै सभाचातुर्येवान्‌ सुधीर । रामनाथाभिधो विप्रः सुकेतुराञ्यपूजितः ॥ तस्य पुत्रो महायोगो देवीपूजनतत्परः 1 उयोतिर्विदां िरोरलं वेद्य विद्याविदारदः ॥ ह्रिक्रष्णाह्वयस्यस्य सूनुः िदट्रद्‌ जनप्रियः । ब्रजयपूर्वो बिहारी हि खालखांतो दविजसेरकः ॥ मंडीनरे पादानां प्रसिद्धो धर्मडिक्षकः। दिक्षाध्यक्षः (दाश्री” संज्ञा न्यायाधीडाश्च कमठः ॥ श्रोवेदांतरल्लवियासागरोपाधिम्युतः । चितामणेस्तु व्याख्यां वे कृतवान्‌ सुमनोरमाम्‌ ॥

नी ति मंगलाचरणम्‌ वंदे कय्यस्यं गौरीजं वाग्देवीजानि चिन्नेराम्‌ । दतुं स्वप्रत्यृहध्वान्तं याचे नैमेस्यं मेधायाः | प्रणौमीश्वरीं भारतीं वारिजाक्षी स्वजासञ्य॑विहातुं विरात मति वे॥ प्रणमाभि सरोजमुखीं मतिदां ुनिवृन्दजुतां कमलासनजाम्‌ । कटरष्वानयुता करकंजतले । सुधृता वद्ट्की सुरमा हि यया॥ न कृतज्ञताप्रकाश्चनम्‌ गुसब्रह्या गुरुविष्णुः गुरुः साश्नाद्‌ महेश्वरः गुरुरेव परं तरह तस्मे श्रीगुरवे नमः॥ सम्पादक ने निःसंकोच इस सम्पादन मं प्राचीन तथा अर्वाचोन फलित- उयोतिष के म्रन्थकारों तथा ठेखकों के ग्रन्थो ओर लेखों का सदुपयोग किया है । अतः प्रस्तत चमत्कारचिन्तामणि एकः संग्रहग्रन्थ-सा बन गयादहै । सम्पादक इन सभी ग्रन्थकारो ौर चेखकोंका ऋणी है। आौर विनशन शब्दों से उनके प्रति अपनी दार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता है। स्वान्तःसुखाय किया गया यह्‌ व॒रनात्मक स्वाध्याय सभी को लामद्रायक दो, सम्पादक की यह चट कामना है| विनीत

व्रजपिहारीलक

चमत्का7ल्चन्तागणि क? तुलनात्मक स्वाध्याय

सूये-विचार :–

सूय के पयोयनाम :-रवि, सूर्य, ेटी, भानुमान्‌ , दीसरद्मि, विकर्तन, भास्करः) इन, अहस्कर, तपन, पूषा; अरुण, अकं, अद्रि) वनजवनपति, दिनमणि, नलिनीविखसी, पद्चिनीर, पद्विनीप्राणनाथ, दिवाकर, मात॑ण्ड, उष्णरदिमि, उष्णां, प्रभाकरः, विभावसु, तीष्णांश्च, तीक्णरदिमि, नग, नभेश्वर, ध्वांतध्वंसी, चंडभान, प्वेडदीक्षिति, चित्ररथ ।

सूये का सामान्य विदोषवर्णन- स्वरूप वणेन :–

““मधुपिगर्टक्‌ चतुरखतनुः पिन्तप्रकृतिः सविताऽत्पकचः ।> शूरः स्तब्धः विकल्तनयनः निषणः अकं तनुस्थे |>

“कालात्मा दिनङ्कत्‌ , राजानोरविः, रक्त स्यामो भास्करो वण॑स्ताम्रः, देवता वद्धिः, प्रागाद्या ॥ ( वराह मिहिर )

अथे :-रविरृष्टि- शद के समान लाल रंग– कंडी धूप को देखो तो एेसादही प्रतीत होता है। यदि सृष्ष्मटष्टिसे धूपको देखें तो यह कुछ पीले लालरगकी दिखती दहै। अतएव जिन मनुष्यों का रवि मुख्य होता है उनकी दृष्टि बहुत तीक्ष्णे होती है, खों के कोनों मे लखल-त्मल रेखा अभिक होती है । शरीर ष्वौकोर होता हे ।

रवि रूखा ओर उष्ण है अतः पिप्तप्रकरति होना स्वामाविक है । अल्पकचः– दारीर पर केश बहुत कमहोतेर्है। खरीराशिमें सू्यहोतो केरा नहीं होते। परन्तु पुरुष राशि मे होतो केश होतेह

स्थान :-देवगरह-रवि तो पूणब्रह्म है अतः इसका निवास स्थान मन्धिर, वा देवयह ही हो सकता है।

रवि का धात तांबा है किन्तु इसका धातु सुवणं उचित है ।

ऋतु :- ग्रीष्म ।

बलवत्ता -रवि उम्तरायण में बल्वान्‌ होता है ।

आत्मा -काट्पुरुष का आत्मा रविं हे ।

राजा :- रवि राजा है ।

रक्तरयाम :– ति के समान कालिमा लिए हुए लल रंगकाहै।

देवता-वबह्ि -रवि की देवता अचि है

दिहा :-रवि पूव॑दिशा का स्वामी है।

२ चमस्कारचिन्तामणि का तुरखनात्मक स्वाध्याय

वणे :-इसका वण॑ क्षत्रिय है । यह पुरुष ग्रह है । सत्वगुणी है । तत्व :-रवि तेज तत्व है । रवि पाप फर भीदेता दै अतः इसे रजोगुणी भी मानना होगा । रवि शौयप्रधान गह है–इसके जातक टीठ, निदंयी भी होते रै। ओर नेत्र रोगी भी होते ह| ““पिष्तास्थिसारोऽल्पकववश्वरक्तद्वामाकरतिः स्यात्‌ मधुर्धिगखाक्नः | कौसुम्बवासाः चतुरखदेहः छूरः प्रचण्डः प्रथुबाहूुरकः ॥ मेते्वर अथं ;–रवि पित्तप्रधान है–यह अस्थियों से वख्वान्‌ है । इसके केरा कम होते ह । इसका रंग काञ्मिा लिए हुए खल दै–इसकी असखि शहद के समान लठरग की है इसके वम्त्र लाखरग क्र ह । इसका देह प्वोकोर हे | रवि चूर, तीष्ण ओौर कूर, दै–इसकी युजार्ए चवरीमोटी ै। एेसासूर्थका स्वरूप हे । ‘्यूरोगभीरः ष्वतुरः सुरूपः इयामारुणः चातस्पक कुतश्च । सुदम्तगात्रः मधुर्पिगनेचः मित्रो हि पित्तास्थ्यकरिधो न तंगः ॥ दुण्डिराञ् अथे :- सूय, यर, गंभीर, चतुर, सुन्दर ओौर थोडे केशां वाख होता है । इसका वणं (रंग) कालिमा लिए हुए ल्ल हे। इसका शरीर गोर है। इसके नेत्र शहद के समान पीठे हँ । इसकी दड्ो मं शक्ति दे–यह पित्तप्रधान है । ॥ का जातक साधारणतया ऊचादहोतादै। किंत बहुत ही ऊँचा नदीं ट

“प्सू नृपो वा चतरखमध्यं चिनेन्द्रद क्‌ स्वणं चतुष्पदोऽग्रः | , सत्वं स्थिरं तिक्तपश्ुश्षितिर्तु पित्त जरन्‌ पाटल्मूख्वन्यः ॥ मानसार अथं :-सूर्य क्षत्रिय ईै-वह राजा हे-यह पुरुषग्रह है । यदह चतुरस आकार का, मध्या मं वली, पूर॑तरिशा का स्वामी, सुवणं द्रव्य का अभरिप;, चौपायोंका स्वामी, उग्र, पाप, सत्वरुणी, स्थिर, तिक्तरसप्रिय, पञ्चओं की भूमि मं रहनेवाखा, पित्तप्रधानग्रङृति; वृद्धपाटल (-श्रैतरक्त मिल हु ) वण, मूल-धान्य आदि का स्वामी तथा वनष्वरां कास्वाप्री ई। धसूर्यः सपित्िः तनुकायकशः शदयामशोणः तुरस्तदे हः । शुरोऽस्थिसारः मदुर्पिगलक्षः प्रथः सुवणः दद कायवान्‌ चः? ॥ जयदेव अभर – सुं पित्तप्रधान है इसके शरीर के केशा बहुत छे होते & । इसका रंग कालिमा लिए हुए लल हे। इसका देह चौकोर है। यह्‌ स्यूर्‌ द । इसकी वल्वन्ता अखियां मं हे, इसकी ओखां का रंग शहद के समान पीला दे । इसका शरीर द्‌ ओर मजबूत ह । यह स्थूल हे । ““मानुः ्यामरलादितयुतितनुः ॥ “कालस्यात्मा भास्करः । दिनेशोराजा । “भानु; इयामलोहितः” । प्रकाशकौ शीतकरक्षपाकरौः | %रविः पृष्ठेनोदेति सर्वदा ।

सूर्यविचार ।

विहगस्वरूपो वासरेशो भवति । शेखाय्वी संचारी । ‘ताम्रधातुस्वरूपः । य॒ष्वरौ अरुणौ । देवता बहिः । भाणिक्यं दिन नायकस्यः | स्थूरणम्बरम्‌ । प्रागादिको भानुः । करोडस्थाने देव्हम्‌ । सत्वप्रधानः। ^नराकारोमानुः । अस्थि, कटु, द्िणायनबटी । स्थिरः । वैद्यनाथ ` अथं :- कार का आत्मा भास्कर ( रवि 9) है। सूयं राजा है। सू्य॑का प्ग॒काल्मा लिए हए खाल है। सूयं मौर चन्द्र॒ प्रकाश देनेवाले है + रवि सदा पृष्ठमाग से उद्य होता है । दिवसेश्वर सूर्यं पक्वी जेता है, क्योकि इसका मतिदिन का भ्रमग आकारा मे से होता है । बनं अर परवतो पर चलता रहता हे । इसका रंग तोवि जैसा है । इसका देवता अगि है। माणिक नाम का रलरविकाहे। इसके कपड़े मोटे-मोटे दै। इसकी रा पराची है। इसका क्रीडा-स्थान देवमन्दिर है । यह सत्वयुणप्रधान है। इसका आकार मनुष्यों जेसा है । यह इड्यं के समान बहुत देर यिकाऊ है । इसकी रुचि कडकपदार्थो मे हे । यह दक्षिणायन मे भी बलो है । उत्तरायण मे तो बल्वान्‌ . दोतादहीहै। यह स्थिर है-्रथ्वी इसकी परिमा करती ३ । सूयं॑स्थिर होकर भी गतिमान्‌ है । सारी ग्रहमात्र को एकसूत्र मे नियमबद गति से अपने चारों ओर घुमाता है ओौर खरे ग्रहौ को एक-एक बार अपने तेजसे अस्तंगत कर देता हे ।

अकण मन्द शनि रवि के द्वारा पराजित होता दै । ेखा वैयनाथ का मत हे । किन्तु अनुभव इसके उल्ट है |

सूये कव बख्वान्‌ होता है – ए

“.स्वोचस्वकीयभवने स्वहगाण के च, होरावारांशकोदयगणेषु दिनस्यमध्ये ।

रारिप्रवेश समये सुधदंशकादौ मेषेरणे रिनिमणिबैल्वानजस्रम्‌ ॥

अथे :–रविं अपनी उचरारि मेष मे, बलवान्‌ होता है । सिहराशि मे वरी होता है । अपने द्रेष्काण ओौर होरा मं; अपने वार मे ( रविवार को ) दिनि के मध्यमाग मं अर्थात्‌ दोपहर को, रारि में प्रवेश करते समय, अर्थात्‌ एक राशिसे दुसरी रारि मं प्रवेश करते समय, मित्रके अंशोंमे ओर दशम मं होते हुए बल्वान्‌ होता है । उत्तरायण मे वी होता है किन्तु दक्षिणायन में भी बली होता हे । बडे-बड़े राजनीतिज्ञ नेता, कूटनीतिज्ञ डाक्टर, सजनं, वेज्ञानिक-कवियों आदि का जन्मप्रायः दक्षिणायन मे हुमा है, अतः सूय दक्षिणायन मेः मी बली होता है-ठेसा मानना होगा ।

रविकेरोगः-

“सदा रिरोरुग्ज्वरबरद्धिदीपनः - क्षयातिसारादिक रीगसंकुरैः । ` चरपाल्देवावनिदेवकिंकरेः करोति चिप्त व्यसनं दिवाकरः ॥*

अथ :-रविप्रभावान्वित जातक को मुख्यतया निम्नख्खित रोग होते

ह :-सदैव शिरपीडा, बुखार की वृद्धि ओौर तीक्ष्णता, क्षय, अतिसार आदि-भादि ।

प चमत्कारचिन्तामणि का तुरख्नात्मक स्वाध्याय

राजदण्डसे चित्तम विकार, किंसीदेव की अप्रतिष्ठ करने से चिमप्तविकार, भू-देव ब्राह्यणो के गापसे चित्त मं विकार आदि-आदि।

म्रहन ये रोग किंस स्थानमें ओर किस ख्नमें होते रह

उत्तर :- मेष; सिह, धनु; ख्मनों मं जव रवि धन-स्थान मं हो, मिथुन, तुला; कुम ख्गनों मे जव रवि व्ययस्थान मं हो, वष, कन्या, मकर, ट्ग्नांमं. जव रवि अष्टममं हो, कक, वृश्चिक; मीन लग्नां मं जव रवि दरमवा प्रमं होतो ऊपर ल्खिरोग होतेह ।

अको व्रुवतेऽरण्यचारिणःः–

रवि आत्मन्ञान का कारक है, अतः रविप्रधान व्यक्ति परमार्थं योगप्राप्त करने के लिए जंगल मे एकान्तवास करते ह-यह भाव है|

अकौँं व्योमदर्दिनो :-

प्रातः उदयकारक मं ओर संध्या को अस्त होते समय सूयंके किरण ऊपर आकाश मं दिखते दै अतएव श्योमददिीनोः कहना संगत हे ।

रवि का रारिफर :-

मेष-वुरा; दृष-सामान्य, मिथुन-यच्छा मी; बुरा भी, कक-अच्छा, सिह्‌- बुरा, कन्या-सामान्य; तुख-बहुत अच्छा; वृधिक-अच्छा भी बुरा मी; धनु-अच्छा, मकर-साध्ारण; कुम-वुरा, मीन-साधारण ।

ऊपर छ्खिा राशिफल स्व. ज्यो० कायवेका है–इनका मत है कि मेष का सूयं उच होकर तापदायी होता है इसलिए बुरा-एेसा फल छ्खिा है । इसी तरह. नीष्वराशि वला का सूयं हितकारक होता दहै। सिद्धांत यह निकटा कि उच्चपद्‌ को प्राप्तकर व्यक्ति नीचता की ओर कने ख्गता है । अति उच्पदं पाकर तो व्यक्ति वहत ही हानिकर दोता दै– यदी सत्य प्रच्येक मरह के विषय मे देखने मे आतादहे। इसी सिद्धांत को मनमें रखकर काटवेजी ने रािफल चिं ।

रवि का कारक :–

“धित प्रतापायोग्य मनः शछषिरचि ज्ञानोदय कारकः रविः ] वैद्यनाथ

अथे :-पिता का पराक्रम, रोगों के प्रतिकार कौ शक्ति, मन की पवित्रता, रुचि, ज्ञान का उद्गम, आत्मकल्याण इत्यादि विंषरयां का विवार रविं पर से करना होता है ।

नाध, सिह; पर्व॑त, ऊनी कपडे, सोना; शाख, विष से शरीर का दाह, ओषध, राजा, म्लेच्छ, महासागर, मोती; वन; क्कड़ी; मत्र आदि का विष्वार सूर्यं से करना होता है । यह मत सारावरीकार का है ।

धृहुत्पाराशरीः कार ने निम्नङ्खित का कारकत्व सूयं का माना है :- “राज्य, प्रवाल, स्ल्व्ल, माणिक; शिकार खेलने के जंगल, पवेत, क्षत्रियां के कमं आदि-आदि |

सूयंविचार ष्च

विद्यारण्य का मत है किं आत्मप्रभाव, शक्ते; पिता की पिता आदि विषयों का विष्वार सूयं से कतव्य होता है ।

कालिदास के अनुसार निम्नछिखित का कारकत्व सूयं का है आत्मा; राक्ति, अतिदुष्ट, किख, अच्छी शक्ते, उष्णता, प्रभाव, अग्नि, शिव की उपासना; धेयं, कटिदार वृक्ष, राजकृपा, कटता, बद्धता, गाय-भेस आदि पञ्च, दुष्टता; जमीन; पिता, खचि, आत्मपत्यय; ऊष्चीनजर, डरपोक मो का बचा, मृत्युलोक, प्वौकोन; अस्थि, पराक्रम; घास; कोख, दीघंप्रयतन, जंग, अयन, ओंख, वन म घूमना, ष्वौपाए-पञ्च, राजा, प्रवास, व्यवहार, पित्त; तपस्या, गोलाई, नेजरोग, रारीर, कड़ी, मनःपवित्रता, सर्वाधिकारित्व ! रोगो से मोक्ष, सोराषरदेदा का राजा, अक्का, मस्तिष्क के रोग, मोती, आकाश का आधिपत्य; नायपनः; पूवं- दिशास्वामित्व, तबा, रक्त, राज्य, खरुकपड़ा । अंगूटी मे क्गनेवाङे नग । खनिज के पत्थर, रोकसेवा, नदीतट;, प्रवा, मध्याह्न बख्वप्ता, पूर्वे, मुख; दीघंकोप, शात्रु-बिजय, सत्य, केशर, रात्रुता, मोटी रस्सी ।

रारिर्यो द्वारा सूयं का कारकत्व :-

मेष :–श्ाजकम, संघटक, फोरमैन, तबा, माणिक, प्रवाल, ऊनीकपडे ।

वृष :–दवादर्यो, पञ्च, घास, रुकडी, किसान; नाचना-नाय्यग्रह ।

भिथुन :-स्कूढ मास्टर, जवाहरात, कोटं की माषा ।

ककं :–बिजली, बिजलीपर चल्नेवाठे धंधे, ने्वैद्यक ।

सिह :-जोहरी, केदार, डिक्टेटर, राजा ।

कन्या :-मेने जर, गिख्ट, अनाज, साव॑ंजनिक कार्यालय ।

तुला :–सिविर आफिसर, ष्ेटिनम, राजदूत ।

वृश्चिक :- पत्थर, लखख््वंदन, चंदन, कचचारेरम, शखर, रारीरयास्नी ।

धनु सोना, रेडियम, ज्यूरसं, ध्म॑गुरु, कानून बनानेवाखे ।

मकर :-नगराध्यक्ष, कोसिलर, असेम्बली, नगरपालिका, जिल वा खोकल- ओड-सेक्रेटेरियय्‌ › कोसि आफ रुटेट ।

–मोरी रस्सी बनानेवाले । . मीन -एक्सरे फोटोग्राफर, मोती, प्रददिनी । जयदेव कविं के अनुसार सूयं का रारिफर निम्नलिखित है - मेष मे–विंख्यात, भ्रमणशीर, चतुर, अस्प द्रव्यवाला, अख्रधारी ।

वृष मे–सुगंधित द्रव्य के व्र के व्यवहार से आजीविका करनेवाला, सियो के साथ विवाद करनेवाला, गायन भँ रुचि रखनेवाद ।

मिथुन मे- सुंदर, विद्वान्‌ , धनी, ज्योतिःशाखवेत्ता ।

, ककं मे-उग्रस्वभाव, परकार्यकरणतत्पर, रोगी, अस्पविदयावान्‌ । सिह मे- मूख, एकान्तवाखी, बख्वान्‌ , पवतवास मे रुचि रखनेवाल्म ।

कन्या मे– चित्रकार, पुस्तक ठेखन द्वारा आजीविका करनेवाला, विच्ा- चान्‌ , स्री के समान शरीरवाला ।

& वसत्कारचिन्तामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

तुख मे-मयविक्रेता, नीषचकर्मकर्ता, सुनार, संष्वारशीट ।

चृद्धिक मे-असमीक्षित कर्मकारी, अस्रधारी, उग्रस्वभाव, विष ८ अफीम आदि ) के क्रय-विक्रय से धनोपाजंन करनेवाला ।

धनु मे–धनान्य, ठेखनकर्मकुराल, सजन तथः मान्य, उग्रस्वभाव, वैद

मकर मे- मूर्खं, अस्पधनी, वणिक्‌ , कुल्मनुषितकर्म॑कर्ता, रोमी, परसंपत्ति- भोक्ता ।

कम मे-पुत्रसुखरदित; निर्धन, कुटीन होकर भी नीष्वकर्म करनेवाला ।

मीन मे–मूंगा आदि मणियों के करय-विक्रय से लभ उठानेवाल, स्री-व्छम ।

कल्याणवर्मा के अनुसार सूयं का रारिफल-

मेष- सूर्यं मेषरारि स्थित हो तो शशाखराथं करने मे, ओर विद्वत्‌ कलाओं म विख्यात; युद्धपिय; उग्र, कार्यो मं उद्यत, भ्रमणरीट, मजवूत-हड़ीवाला, साहससाध्यकायं मं लीन, पित्त तथा रक्तव्याधि से युक्तः कांतिमान्‌ तथा बलवान्‌ होता है । यदि सूयं अपने उ््वांशमेंद्ोतो जातक राजा होता है।

रिप्पणी– व्यापक अथंमं राजा शब्द केना चाहिए । रराजृदीसौः से वना हुभा राजन्‌ शब्द्‌ चमत्कारातिदाय का ॒ब्योतक है, कीं उच्चाधिकार का प्वमत्कार, कर्द भूमिपति होने का चमत्कार भौर कीं पर धनाल्यता चमत्कार

होता है ।

वृष- सूयं वष्र राशिमं होतो जातक सुख ओौर नेच रोगों से पीडित, क्रे सहिष्णु योग्य, व्यवहारपड्‌, मतिमान्‌ , बन्ध्यास्नी का देषी, भोजन, माला, गध तथा वलन से पूण, गीत-वाद्र-चरत्य जाननेवाला, जर से भीत होता दै ।

मिथ्ुन-मिथुनमें सूर्य॑ दहो तो जातक मेधावी, मघुरभाषी, वात्सल्य- गुणयुक्त, सदाष्वारी, विज्ञान ओर शाख मे निपुणः बहुधनवान्‌ ; उदार, निपुण उ्योतिविंद्‌ ; मध्यमरूप, दो माताओं वाख, सन्दर ओर विनीत होता है ।

कक–कक गत सूर्यं हो तो जातक काम में चं, राजा के समान गुणों से विख्यात; अपने पक्ष का देषी, दुमंगा स्त्री का पतिं, सुरूप, कफ ओौर पित्त से पीडित, भ्रमसे दुःखी; मदिराप्रियः, ध्माता; मानी; मधुरवाक्‌ , देश-काल- दिशावेन्ता, स्थिर, मात्र-पिवर द्वेषी होता दे ।

सिंह- सिंहस्थ सूयं हो तो जातक शतुहंता, कोधी, विरोष चेष्टायुक्त वन-पर्व॑त ओर दुगं मे धूमनेवाला । उत्साही; श्र, तेजस्वी; मांसाशी, मयानकः, गंभीर, स्थिरवटी, वा्वाल, भूमिपाक्क, धनाढ्य ओर विख्यात होता हे ।

कन्या-कन्या रारिमें सूर्य॑दह्ो तो जातक सख्री के समान देहवाल, टजायुक्त; छेखक, दुर्बल, प्रियभाषी, मेधावी; अस्पनली; विद्धान्‌ › देव-पिता आदि गुरुजनों का सेवक, वैर दबाना आदि कामों मे कुरा, वेद-गान; वाद्य मे निपुण, कोमल ओर दीनतायुक्तं वष्वन बोलनेवाला दोता है।

सूयंवि चार ७

तुलखा– ठस रारि स्थित सूयं हो तो जातक पराजय, दानि ओर खर्वंसे पीडित, विदेश ओर मागं मे धूमनेवाला, दुष्ट-नीच, प्रीतिहीन, स्वर्ण-लोहा सादि बे्कर आजीविका करनेवास्, द्वेषी, परकार्यरत, परली पट, मलिन, राजा से अनाहत ओर टीट होता है ।

वृश्चिक सूयं वृश्चिक में - हो तो जातक ल्डाई-ञ्गडे मे रोकने पर भीन ख्कनेवात्मरः वेदमागं बाह्य, इटा; मूख, सखीहीन वा दुष्टा स्रौ का पति, खट,

` दश्चरििाखीवशवततीं, क्रोधी, नीषवर्ति, रोमी, कह प्रिय, मिथ्याभाषी-शख्र-अथि

वा विष से आहतः माता-पिता की आज्ञा न माननेवाला ओौर कुरूप होता दै ।

धनु–धनु रादि का सूयं हो तो जातक धनी; राजपरिय, प्राज्ञ, देव-बराह्मण- भक्तः शाखर-अख्र तथा हस्तिरिक्षा मं निपुण, व्यवहारण्वतुर; सजनपूञ्य, सात, विशार, स्थूल ओर सुंदर दारीरवाद्य, वंघुहितकारी ौर बल्वान्‌ होता है । `

मकर मकरगत सूयं हो तो जातक लभी, परिहीन खी मे आसक्त, नीष्वकमकर्ता, व्रष्णावान्‌ , बहुत कामों मे व्यग्र, भीर, बन्धुहीन, प्व॑चर- भङ्कति, भ्रमणीर, निषेक, आत्मीयजनों के विक्षोम से सर्वनाश करनेवाला, भोजनमड्‌ होता है | | |

कभ–कुभस्थ सूयं हो तो जातक हृदयरोगी, बली, सजन-निदित, अति- क्रोधी, परसख्ीरत, काय॑बुशल, परायः दुःखी रहनेवाला, अस्यधनी, शठ, मित्रता मं अविश्वसनीय, मलिन, चुरु, अनुचित प्रप करनेवाला होता है ।

मीन- मीन म सूयं हो तो जातक बहुत मित्रो से युक्त, ख्ीके गेमसे सखी, पीडित, बहुरानरु-विजयी, धनी, यदस्वी भौर विजयी होता है । आन्ञा- कारी पुत्रों से सुखी? नौकरों से सुखी, जर के व्यापार से धनी, मीटा ड बोलने- वाला; गुसरोगी,; तथा बहुत भादयों से युक्त होता है ।

सूयपर ग्रहो की दष्ट का फल–

मेष वा बृश्िक- में सूर्यं हो ओर उसपर चन्द्रमा की दृष्टि हो तो जातक दानी; बहुतनौकर रखनेवाला, मनोहर, सरीप्रिय तथा कोमख्दारीर होता है ।

भौम- की दृष्टि हो तो युद्ध मे अतिवल्वान्‌ , करः रक्तनेच ओर लालरङ्ग के हाथ ओर पैरवाल्म ओर तेजस्वी होता है । `

बुध-की दृष्टिहो तो अत्य, दूसयों के कामकरनेवाला, अल्पधनवान्‌ निब, दुःखी तथा मल्िनिशरीर होता है । |

गुर्कीदृष्टि हो तो धनान्य, दाता, राजी, न्यायाधीया ओर शठ

होता हे!

राक्र की दृष्टि होतो चरि्रहीनख्री का पति, बहुत शत्रुओं से युक्त; सत्पबधुत्राख, दीन ओर कोटी होता है ।

दानि-की दृष्टि हो तो कष्टयुक्त शरीरवाखा, काम मे उन्मत्त; बुद्धिदीन ओौर मूखं होता है ।

८ चमत्कारचिन्तामणि का तुरखनात्मक स्वाध्याय

वृष वा तुखा पर– स्थित सूयं हो ओर उसपर चन्द्रमा कौ दष्टिदहोतो जातक वैद्यागामी, प्रियभाषी; बहुत चियोँका पोषक, जठ से आजीविका करनेवाला होता है ।

मंगटकीदृष्टिहो तो जातक वीर, सम्रामपरिय, तेजस्वी, साहससे धन ओर य पानेवाख ओर विकल होता है |

बुध-कौदष्टिहोतो चित्र; ठेख, काव्य; गायन आदिमं निपुण अौर सुंदर होता है ।

गुरु-कीदष्टि हो तो बहुतमित्र ओर बहुत रत्रुओं वाखा, राजमंत्री, सुंदर ने््रोवाखा; कान्तिमान्‌ ; वष्ट राजा होता हे ।

शुक-कौदटषटिदहोतो राजा वा राजमंत्री, स्री-धन-ओौर मोग युक्त होता हे । बुद्धिमान्‌ ओर भीरु होता है ।

दानि-की दृष्टि दहो तो जातक नीच, आलसी, दसि, बरद्धाख्रीपेमी, स्वभाव ते ऋरर ओर रोगों से पीडित दोता है ।

मिशन ओर कन्या-मे स्थित सूर्यं पर यदि चन्द्रदष्टि होतो जातक रातु ओर वंघु्यों से कष्ट पानेवाख, विदेरायात्रा से पीडित ओर बहुत विलाप करनेवाला होता है|

मोमचष्ि-होतोरात्रु से भव, कल्दप्रिय, रण म अपयश आदि से दुःखी, दीन ओौर ख्जायुक्त होता है ।

बुधदृष्टि–दो तो राजा के समान आचरण, विख्यात, जन्धुवान्‌ , शनुहीन ओर नेत्ररोगी होता दै । गुरुटष्टि-दो तो बहुशाख राजदूत, विदेशगामी, उग्र, उन्मादी होता है।

शुक्रटष्टि– हो तो धन-स्री-पुत्रयुक्त, अल्पसनेही, नीरोग, सुखी ओर ्व॑चल होता है ।

दानिदृष्टि-हो तो बहुभरत्यवान्‌, उद्विद्रहदय, बन्धुपारुक यौर धूतं होता हे ।

ककेस्थ सूर्य पर॒ चन्द्रहृष्ि- हो तो जातक राजा के समान, जटख्व्यापार से धनी ओर कूर होता है ।

भोमदृष्टि- दहो तो शोकयुक्त, भगंदर रोग पीडित, बन्धुओं से विरक्त अौर चुगुख्खोर होता है ।

वुधदृष्टि–हो तो विद्वान्‌ › यशस्वी, राजप्रियः का्य॑कुश ओौर शत्रुहोन होता हे ।

गुरुदृष्टि- हो तो शरेष्ठ, राजमंत्री वा सेनापति, प्रसिद्ध तथा कलाभिज्ञ होता हे ।

शुक्रदृष्टि–हो तो खरीभक्तः स्रौ के द्वारा धनी, परोपकारी, रणञ्यूर ओर मधुरभाषी होता है ।

[4 -

सूयंविचार ९

रानिटषटि- दहो तो कफवातपीडित; परधनापदारी, विपरीतमतिं; विपरीत चे्टाओं वाखा तथा चुगुर होता हे । |

सिह राशिस्थ सुर्यं पर चन्द्ररृष्टि दो तो-जातक मेधावी, सुखीखाख्री का पति, कफरोगपीडित तथा राजप्रिय होता है ¦

भोमदृष्टि-हो तो जातक परनारीरत, खर, साहसी, उ्योगी; उग्र ओर प्रधान पुरुष होता दै ।

बुधरृष्टि-दो तो जातक विद्वान्‌ , ठेखक, धूतंसंगी; भ्रमणशी, परिजन- रहित ओर निर्ब॑र होता हे ।

गुरुटृष्टि–हो तो मंदिर, उन्मान, जल्शय बनवानेवाखा, एकान्तग्रिय अर महाबुद्धिमान्‌ होता है ।

शकटषि-हो तो कुष्ठादि रोगों से पीडित, निदंयी तथा निर्न होता है ।

दरानिदृष्टि-हो तो स्वकायंनाशकः, नपुंसक, दूसरों को दुःखी करनेवाखा होता हे।

धनु वा मीन- पर सूयं स्थित हो ओर उस पर चन्द्रकी दष्टिहो तो जातक वाक्यबुद्धिवेभवयुक्तः, पु्रयुक्त, राजतुल्य, रोकटीन ओर सुद्रशरीर वाटा होता हे ।

भोमरष्टि-हो तो संप्रामविजेता, स्पषटवक्ता, धनसखखयुक्त तथा उग्र होता है ।

बुधदृष्टि–हो तो प्रियभाषी, ठेखक; काम्यकर्ता-सभासद, धातुज्ञाता ओर ङोकप्रिय होता हे ।

गुरुदृष्टि-दो तो राजा का संबेधी वा राजा, दाथी-घोड़ा-धनवाल्ा; विद्वान्‌ होता हे ।

शुक्ररष्टि-हो तो दिव्यस्री तथा गेधादि का भोक्ता ओर शांत होता है ।

दानिटष्ि- दो तो अपवित्र परान्नभोजी; नीष्वानुरक्त तथा ष्वतुष्पदपारूक होता हे। |

मकर ओर कुंभ मे स्थित- सू्॑पर चन्द्रद्टि दो तो छखिया, चंचरूमति, सख्रीरति से धनी तथा सुखनारक होता है ।

भोमदृष्टि- हो तो रोग तथा शत्नुपीडित, शतरुकर्हजन्यक्षतदे हवाला आओौर विकट होता है ।

बुधदृष्टि–हो तो नपुंसकस्वभाव, परधनहतौ, नि्बैख्शरीरवाखा होता हे ।

गुरुदृष्टि–डो तो पुण्यकर्मकर्त, मतिमान्‌ ; सर्वाश्रयः, विख्यातकीतिं यर मनस्वी होता हे ।

शाकटष्टि- हो तो शंख, भुंगा-मणि का व्यापारी, वैश्या तथा लियं द्वारा धनी ओर सखी होता हे ।

। १ तो `दात्रुजयी; राजा के सम्मान से वर्धितञश्वासनवासा

होता हे ।

१० चमत्कारचिन्तामणि का तुरखुनाव्मक स्वाध्याय

स्वण्ह आदि-

रादि :-मे° बर° मि० क० सिं० कण त° चू०° ध० म० कु° मी

स्वामी –म० द्ु° वु० प्व सू० वु० शु म० व° रा० शभ बु°

मूलत्रिकोण ग्रह-सू० व° म० बु° बु० श्यु०° शण

| 4” ~ ~… 4. “3 2 उच – सू9 प मं वु ब ¢ श्ु9 रा० ०।९१० १।३ ९।२८ ५।१५ ३1५4 ११।२७ ६।२०

नीच -३।१९० ७।३ ३।२८ ११।१५ ९।५ ५।२६ ०।२०

सू-ढ–श के रारियों मं २८० अंडातक मूटत्रिकोण, बाद २६५ अयसे ३० अंदातक उनकी वे स्वणह राशियाँ । इष का ३ अरा चन्द्र का उच्च दै- इसके वाद्‌ मूलत्रिकोण हे । मंगर का मेषराि के १२ अंशपर्य॑न्त मूलत्रिकोण है । वाद्‌ स्वह है । कन्या का १५ अंश बुध का उच दै, बाद्‌ १० अंश मूलत्रिकोण है बाद्‌ ^ अंश स्वह है ।

राहु का मूलत्रिकोण कुंभ हे, मिथुन उ है । कन्या स्वण्ह है । राहु-केतु के स्वण्ह मूलखत्रिकोण के विषय में म्रंथकारों मे मतभेद है । .

स्वगृह आदि का प्रयोजन-भगवान्‌ गार्गिः- ` “स्वोचगो रविशीतांञ्ू जनयेतां नराधिपम्‌ , उ्वस्थौ धनिनं ख्यातं स्वत्रिकोणगतावपि। अधं दिगम्बरं मूखं परपिंडोपजीविनम्‌ , कुर्याता मतिनीचस्थौ पुरषे शरिभास्करौ ॥»

सूयं योग–यदि सूर्यं से १२ वेंस्थानमें, चंद्रमा को छोड़कर ओर कोई ग्रहदो तो वोशियोगदहोतादहै। द्वितीय स्थानमें प्रह दो तो वेदियोग होता है । दूसरे ओौर वारहवें दोनों चन्द्र को छोड़कर, अन्य कोई ्रहहोतो उभयम्वरी नामक योग होता है ।

सूयं का पीड़ाकरण प्रकार :– सूं अश्चभ हो तो सदा अग्निरेग, ज्वरबृद्धि, जलन, क्षय, अतिसार, आदि रोगो से, एवं राजा, देव; ब्राह्मण ओौर नोकयो से चिष्त मे व्यसन उत्पन्न करता है ।

सूये की दृष्टि –२।१० एकपाद्‌, ५।९ द्िपाद. ४1८ त्रिपाद, ७ संपूणं दृष्टि.

सूयं के मित्र-चं०-मं०-गु° उचबल्– ४ सम– बु स्वखहबल– २ रात्ु-श्यु° शा० मित्रनख्- १

तात्कालिकमित्र-बु° गु° श्चु° श० सम- २

तात्काछिक रात्नु–चं-मं° रातु- ्

सूयं का नैसर्गिक बल ६० अस्त- ०

मूटत्रिकोण– ३ नीष्व– ०

यमक

जओंसर्वंविघ्ठहन्रे श्रीगणेक्षायनमः । श्रीसु्यादिनवम्रहेभ्योनमः । अथ मार्वीयदेवज्ञधरमेश्वरङृत अन्वयाथप्रनोधप्रदीपटीकासदित शभ्रीनारयायणभट-कऊत

चमत्काट-चिन्तारमाणः

[ श्रीदुगौशरणास्या मणिप्रभारीका-दिप्पणी संपादकीया

अथ म्रन्थकतुः मटनारायणस्य मंगला्रणम्‌-

““टसत्‌ पीतपद्राम्बरं छृष्णचन्द्रं सुदाराधयाऽऽखि्खितं विदयते ।

घनं संप्रणम्यात्र नारायणाख्यः चमत्कारचिन्तामणि संप्रवक््ये ॥ १॥

अथ मालवीय दैवज्ञधर्मश्वरस्य टीकाकठुः मगलम्‌-

“गणेशं शिवं भास्करं रामचन्द्रं भवानीं प्रणम्याथ टीकां सुरम्याम्‌ ।

प्वमत्कारचिन्तामणेः दैववेदिपबोधाय धर्मेश्चटः संग्रवीति ॥

अथ अन्वयाथं प्रबोधप्रदीपरीका प्रारभ्यते-‘लसत्‌” इति-

सं० टी<-अथ छगनक्रुंडलिकायां जातकोक्तमाव-फल-ज्ञानाय चमत्कार चिन्तामणि विवक्षुः नारायणाचायैः प्रारीप्सित निर्विध्नपरिविमाप्त्यथं श्रीकृष्ण प्रणाम रूपं मंगल्माष्वरन्‌ रिष्यरिश्ताये निबध्नाति-ल्सत्पीतादिः–

अत्रमस्मिन्‌प्रन्थप्रारंभसमये नारायणनामा आष्वायः अहं सत्‌ शोभितं पीतवणे पद्म्बरं यस्य तं विदुताघनंमेघमिव राधया आटिगितं ङष्ण्वन्द्र ष्वन्द्रमिव ` आस्हादकं श्रीकृष्णं संप्रणम्य कायवाङ््‌ मनोभिः नत्वा चमत्कारणिन्तामणि नामानं

न्थ संप्रवक्षये सम्यक्‌ प्रकारेण रष्वयामि इत्यथः ॥ १ ॥

अथं ॒दुर्गाशरणाख्या मणिप्रभाहिन्दीरीका-हिन्दी-रिप्पणीकतः संपाद क॑स्य

मगलष्वरणम्‌- ्दुरगैव शरणं रोके दुर्गेव शरणं मम । दुगे ! देवि ! नमस्तुभ्यं देदि मे प्रलगं धियम्‌ ॥

दुगौशरणाख्यामणिप्रभा हिन्दीटीका–

मै नारायणम चमत्कारचिन्तामणि नामक फटितग्रन्थ के प्रारम्भ मे, इस ग्रन्थ की निर्विष्न समासि के लिए श्रीकृष्णचन्द्रजी के ष्वरणों मे काय-वाणी तथा मनसे प्रणाम करता हूँ । श्रीराधाजी श्रीङृष्णचन्द्रजी को जब अपना आगन देतीदहैतो एेसा प्रसीत होता है किं जैसे विचत्‌ भौर नील्वणं वर्षा-क्तु के बादल का परस्पर आगन हआ हो । वाकार मे जब नील्वणे के जलभरे हुए बादर आकाश मे कैरते है ओर उनमें रद -रहकर बिजली चमकती है तो एक अद्भत दद्यदृष्टि गोष्वर होता है ।

१२ चमत्कारच्िन्तामणि का तुखुनात्मक स्वाध्याय

इसभाव का मूर्तिमान्‌. चित्रणं करने के लिए कवि ने श्रीकृष्णजी को घन से उपमित क्रिया है ओर श्रीराधिकाजी को ष्वमकती हई बिजली से उपमित किया है । श्रीङ्ृष्णजी के स्वरूप के विषय मेँ नीख्वणे बादलों का साद्य है ओर श्रीराधिक्राजी की अनुपम मुखकान्ति को व्योतित करने के छिएः पीतवर्णां बिजली का साहश्य वताया हे । ओौर यह शब्दचित्र भक्तों के मन मं असीमित आनन्द ओर आस्हाद का जनक है। इस नमस्कारात्मक-मंगखष्वरण से भटजी ने अपने को युगल्मूर्तिं श्रीराधाङृष्णजी का उपासक स्पष्टतया सूचित किया है। “मुदा शब्द से भटरजी ने श्रीराधिकाजी की ‘आष्हादिनीः शक्ति कां स्मरण किया है । सत्चित्‌-ानन्द-स्वरूप परब्रह्म श्रीकृष्णजी का सम्मिखन-अघटित घ्ना परीवसी मायाखूपा आह्वादिनी शक्ति श्रीराधिकाजी से त्रिकालाबाधित तथा नित्य है– यह (आिङ्गनः शाब्द से सूचित किया है ॥ १॥

चमत्कारचिन्तामणि ग्रन्थ के टीकाकार दैवक्त धर्मश्वर ्ै। इन्होने अपनी ‘अन्वयाथं प्रनोधप्रदीप नामक अव्यत संपत रीका की निर्विन्न परिसिमासि के किए नमस्कारात्मकं मङ्गलाप्वरण “गणेशमित्यादिः शोक से किया हे:ः-

मैने ८ धर्मश्वर ने >) दैवज्ञो को ष्वमत्कारचिन्तामणि मन्थ का यथावत्‌ अर्थं समन्नाने के किए यदह मनोरम टीका छी है । इस टीका की समापि निर्विघ्रतया हो–दस निमित्त मे इस स्वना के प्रारम्भ मेँ श्रीगणेशजी; श्रीरिवजी श्रीसूर्य नारायणजी, श्रीरामचन्द्रजी तथा श्रीभवानीजी को प्रणाम करता हू ।

दुगोदयरणाख्यामणिभ्रभा हिन्दी रिप्पणी-

प्राचीनकालसे ग्रन्थ के प्रारम्भ मे मङ्गलाष्वरणात्मक श्टोक छ्खिने की परिपाटी चटी आ रदी दै । इस मङ्कगलाग्वरण का पयोजन ग्रन्थ की निर्विन्न समाधि तथा रिष्टाचार है । न्यायसिद्धान्तसुक्तावटी के प्रारम्भ मे इस विषय पर बहुत ऊहापोह के साथ यृह निर्णय किया गया है किं मङ्कलाप्बरण आवस्यक तथा कतव्य है |

श्रीपतं जचिक्रित महाभाष्य के प्रारम्भ में मङ्गलाप्वरण की कतंव्यतां परं भारी बढ दरिया गया है। अतएव अन्थकर्ता, टीकाकर्तां तथा संपादनकर्ता ने शि्टाचारयानुसार मङ्गखाचरणात्मक शोक च्खिर्हु।

श्रीभट्जी ने अपने मङ्गलाष्वरणात्मक छोकद्ारा श्रीराघाङृष्णमूतिं का दान्दचित्रण किया है । जब नवनीरद्‌ बादलों मेँ नजिजटी कोधती है तो काले नटे बादर एक अनूठा दस्य उपस्थित करते ्दै। इसी तरह जबर श्रीराधाजी प्रेमवरा सवंभक्तजन चित्ताह्वादक श्रीकृष्णजी को आलिङ्गन देती है तो प्रकृति- पुरुष कै मिलाप को देखकर भक्तजनों का चित्त आनन्द से नाष्व उठता है । यहो पर श्रीराधाजी की उपमा विद्यत्‌ सेकी गई है आर श्यैकृष्णजी को नूतन जलधर से उपमित किया गया है । चमत्कार ओौर पीतता साधारण धमं है |

मंगखाचरण १३

पुनः बा्गोबिन्द भजनपूवंकं पूवोक्तं मुकुन्दं प्रकय्यति-कणदिति– ‘“कणत्‌ किकिंणीजार कोटाहटस्यं सत्‌ पीतवासोवसानं चर्तम्‌ । यदोदांग्णे योगिनामप्यगम्यं भजेऽहं मुङ्कन्दं घनद्‌यामवणेम्‌? ॥२॥ सं० टी<-क्रणतः शब्दायमानस्य किर्विणीजारस्य कचिबद्धक्षु्रधटिकासम्‌- हस्य कोलाहलेन श्चणत्‌कारेण आब्यं युतं तद्राब्देन तद्मानसं वा, टसत्‌ पीत- वासो वसानं शोभमानं पीताम्बरं धारयन्त, योगिनां अपि अगम्यं प्रासं अशक्यं अपि, यशोदांगणे वन्तं गच्छतं घनवत्‌ इयामवर्णं कष्णरूप, स॒ कुन्दं अहं भजे; योगिभिः अप्राप्ये यशोदांगणे पयंटन्तं श्रीङष्णं मनसा स्मरयमि–इति स्वमहद्धा- ग्यातिरयोक्तिः ॥ २ ॥ हि टी<–योगिजन कठिन तपस्या तथा हय्योग-भक्तियोग, ज्ञानयोग आदि से ब्रह्मप्रापि के लिए-्रह्म को आत्मसात्‌ करने के छिए सतत यल्लशीट रहते है– ओर यह इनका योगाभ्यास शतान्दियों तक चरता रहता है तो भी परमब्रह्य प्राति मे असफल प्रयल रहते हँ । किन्तु वही परब्रह्म भगवान्‌ भक्तं मेमवीभूत होकर माता यशोदा के आंगन मे पीताम्बर पिरे हुए ओर पामोंमं कणे मनोहर शाब्द करनेवाटी ्षुद्रधंटिका पिर कर इधर-उधर दौड़ते फिरते है एेसे भगवान्‌ कृष्ण का मानसिक स्मरण मै करता दह–यह स्मरण मेरे माग्यातिशय का सुष्वक है। | . इस तरह नारायणमट् ने दूसरा नमस्कारात्मक मंगलाचरण किया हे । रिषप्पणी- मंगलाचरण तीन प्रकार का हैः-( १) वस्त॒निदंशात्मकः; ( २ ) आसीवादात्मकः; .८ ३ ) नमस्कारात्मक । प्रस्व॒त पुस्तक मं भट्रजीने नमस्कारामक मंगलाष्वरण किया है । दृसरे शोक से ग्रन्थकार ने श्रीकृष्णजी के बार्भाव का शब्द-चित्रण प्रस्तुत कियादै। मेरा विश्वासदहै कि श्रीक्ृष्णजी का रंग काला नहींथा; प्रत्युत इयाम था, जिसका अथं है ववर्षा देने के किए तयार, पानीवाटे कालिमा ओर नीलिमा लिए हुए वर्षात के बादल । कवियों ओर भक्तों ने श्रीकरप्णजी की मुखच्छवि का वणन करते हुए “नवनीरुदाभम्‌? ॥ “नूतनजलधर सुष्वये? आदि-आपरि विरोष्रणां का उपयोग किया हे । अथ प्रयोजनं विरिनष्टि–भ्वत्क्षेति :- ““चतुरक्षज्योतिर्मंहांबोधिसुच्चैः प्रमथ्यैव विद्रद्‌ जनानन्दहेतोः । परं युक्तिरम्यं सुसंक्षिप्रङाब्दं जुजंगप्रयातेः प्रबन्धं करोमि” ॥ ३॥ सं< टी<- महान्‌ बोधः शानं यस्मात्‌ तत्‌ चतलक्षमितं ज्योतिःशास्त्र उच्चैरेव प्रमथ्यैव सम्यग्‌ विचायं विद्वदूजनानां देवज्ञानां आनन्द देतोः सुखाय परं श्रेष्ठं युक्तिभिः पदलाच्ि्यिः च रम्यं सुरं सक्षिप्तशब्दं अवहूुविस्तरं भुजगः प्रयातैः । ‘भृजगप्रयातो भवेद्‌ यैः पचतुभिः 9 इति लक्षणकः भुजंगप्रयातास्य छन्दोभिः प्रबन्धं चमत्कारचिन्तामणिरूपं करोमि । “ल्ह जीहापरे सो विलहुःः

१४७ ‘वमस्कारचिन्तामणि का तुरनाप्मक स्वाध्याय

इति पिंगलोक्तत्वात्‌ आच्पादेदोमंगः शंकनीयः । “वतुछक्षिकं ज्योतिषं भूरि भेदम्‌?” । इत्येवं वा प्रथमः पादः पठनीयः ॥ ३ ॥ ॑

हि< दी तीसरे शोक से भटडजी ने अपने नए प्रबन्ध के रष्वने का प्रयोजन बतलाया है । उयोतिःशाख्र चारलाख है –यह एक ज्ञान का अनंतपार समुद्र है-इस समुद्र को तैरकर पार कर केना असंभव नहीं तो कठिन अवद्य है | जेसे देव ओौर असुरो ने समुद्र का मंथन करके ष्वौदहरल्न निकाले थे जिनमें एक अम्रत भी था-इसी भोति चतुरछक्षमित य्योतिःशाख्ररूपी महाणव का खु मंथन ` करके व्वमत्कारचिन्तामणि नामक परन॑ध रत्न निकाल गया ईहै– अर्थात्‌ ष्वमत्कारचिन्तामणि नामक प्रघ की स्चनाकी ग्द है। इसकी स्वना मं व्यास ओर विस्तार नदीं किया गया प्रत्युत समास ओर राब्द संक्षेप से काम ल्या गया हे। संशित होता हा भी यह प्रन॑ध गंभीराथंक है–रुकितखब्दों से तथा युक्तयो से इस प्रघ को अ्थंगौरवान्वित किया गया है । ताकि इसके स्वाध्याय से दैवन्न खोगों का चित्त आनन्दित ओर अन्तः, सुखित हो । इस संक्षिप्त प्रव॑ध की रष्वना मे युजंगप्रयात छन्द को उपयोग मे लाया गयां रै । प्ारत्मख ज्योतिःशाख्र से १०८ शोको दवारा संपूणं भावफठ को बतला देना- भट्रजी की बुद्धि का महान्‌ वैमवरहै॥३॥

रिष्पणी–श्री नारायणमट्ध कब ओर कटौ हुए ओौर इन्दोने चमत्कार- चिन्तामणिं प्रव॑ध का निमाण कहँ पर किया, इस विंषय मँ कोई प्रत्यक्ष प्रमाण तो दृष्टिगोचर नदीं होता है क्योकि भटजी ने प्रचंध के आदि वा अन्त मे अपने नारे मेँ कोई संकेत नहीं दिया हे। नाम के साथ “भद्कः शब्द्‌ का प्रयोग किया गया है । इससे कई एक का अनुमान है किं म्रन्थकर्तां दाक्षिणात्य महाराघ्र ब्राह्मण है । समय के विषय में भी अनुमान है किं मन्थकर्तां मेसूर राज्य का होना चादिए । ओर ष्वमत्कारचिन्तामणि प्रत्र॑ध का ठेखन १४ वों शताब्दि में होना चाहिए |

अव प्रश्रयडदहैकि क्या १४ वीं शतान्दि मेँ ष्वारखख पाठ के ज्योतिः- शास्र म्रन्थ उपक्न्ध ये, जिनक्रा सतत स्वाध्याय द्वारा मंथन क्रिया गया ओौर प्वमत्कारचिन्तामणि नामक ग्रन्थ स्वा गया, आओौर देवज्ञ जनता के उपयोग में लने के दिए प्रस्तुत किया गया । इद समय प्रकारित तथा अप्रकारित अथां का-विदोषतः फठितविषयक मन्थो का कितना मूलपाठ है, इसका अन्वेषण किसी एक प्रकाण्ड उ्योतिःशास््रवेष्ता के सपुर्दं होना चादिए, अथवा उयोतिर्विदों की समा के सपूर्दं होना चादिएः ताकि (चतुरक्चमितं शाखम्‌? यदह जो प्रायोवाद उयोतिःशाछ्र के विग्रय मेँ प्रसिद्ध रै इसकी प्रामाणिकता भी प्रमाण की कसौरी पर चट्‌ जाए ।

यह तो प्रसिद्ध ही है कि यवनं भै अपनी राज्यसत्ता के उन्भाद्‌ मे आओौर अपने धर्मोन्माद्‌ के वशीभूत होकर आर्यसंस्कृति को, हिन्दुसभ्यता को, आयं-

मंगलाचरण १८५

ग्रन्थों को नष्ट-्रष्ट करने के किए एड़ी-वोरी का जोर ख्गाया था ओौर राज्य- सत्ता का दुरुपयोग करते हुए ` आयंग्रन्थों को अगिसात्‌ क्रिया था । क्या रेसी परिस्थितिं मं भी ज्योतिः्चाख्र के पचारल्मख पाठ के म्रन्थ व्व गए ये १ इसमें क्या प्रमाण है । मेरा तासयं सन्देह उत्यन्न करने का नदीं है । प्रत्युत प्रायो- वाद की मूलमित्ति प्रामाणिक है–यदह निशित करने की दिशामें है। आदा है अन्वेषक खोग इस ओर भी कुर ध्यान दंगे ।

अथ म्रहभावफल कथयामीति प्रतिजानीते– नन चेत्‌ इत्यादिः “न चेत्‌ खेचराः स्थापिताः किं भचक्रे न चेत्‌ स्पष्टगाः स्थापिताः किं महेन्द्रः अभावोदिता स्पष्टताकोऽब्रहेतुः फङेरेवपूर्वं॑जवे तानि तस्मात्‌” ॥ ४ ॥

सं० टी<-न चेदिति-मक्रस्थाः खेचराः ग्रहाः न चेत्‌ स्थापिताः भवचक्र रारिमण्डठे कि, न किंचित्‌ - फलमित्यथंः। तथा महाः अपि स्पष्गाः दगुगणितसापिताः न चेत्‌ , स्थापितः मदेन्द्रैः किम्‌ १ अभावोदिताः भावसपष्टी कृतं विना साधिताः ग्रहस्पष्टतापि काष्बन किंचित्कराः इत्यथः । तस्मात्‌ आदौ स्पष्टाः खेष्वराः तत्वादिमावाश्च साध्या इतिभावः | अथ ्रह-भाव-स्पष्टीकरणे हेतुः प्रयोजनं च उच्यते इति रोषः । अतः फठैः एव जंतोः स्वँ ज्ञायते तस्मात्‌ तानिग्रहभावफटखानि ब्रुवे कथयामि ॥ ४ ॥

हि० ठी<-मदजी ने प॑चमश्छोक द्वारा प्रहस्पष्ट तथा भावस्पष्ट अव्य ही करने चाहिए, क्योकि ठेसा किए विना फलादेश करिया गया दीक नहीं उतरेगा ओौर च्योतिःशाख्र पर (असत्यताः का आरोप किया जावेगा- यह बात कही हे । भट्जी के कथन का तात्पर्यं है–किं जन्मपत्र मँ केवल जन्मकुण्डली ओर रारिकुण्डली का ठ्गाना ही कापी नहीं होगा-प्रत्युत दैवज्ञ को षाहिए कि म्रहस्पष्ट ओर भावस्पष्ट मी ल्गाए ओर तदनन्तर फलठकथन की ओर अपना ध्यान दे । अत्यथां मविष्यकथन मिथ्या होगा जिससे दैवन्ञ के व्यक्तित्व पर ओर ज्योतिःशास्र पर मिथ्या होने का दोषारोपण होगा-जिसका परिणाम अस्यन्तं अवांकछनीय होगा ॥ ४ ॥

रिप्पणी- कुक समय से ज्योति्रीखोग जन्मपत्र बनाते समय आवश्यक गणित से व्वने की इच्छा से जन्मकुण्डली ओर चन्द्रकुण्डली इी लगाते ईदै– भोर यदं आवद्यक हुआ तो विंशोत्तरीदशा भी ख्गा देतेर्दै। इसी के सारे जातक का भविष्य सूनरित करते ह । किन्तु यह परिपाटी भ्रान्तिग्रस्तदै। प्रहों कारष्ट करना भावों का स्पष्ट करना अव्यन्त आवद्यक है। इन सबके सहारे पर ही भविष्य का कथन कियाजा सकता है। अतः फलकथनं करने वाङ दैवज्ञो को भद्जी के कथन पर ध्यान देना वचादिए । अन्यथा उ्योतिष- दास्र पर से विश्वास उठ जाएगा-इस समय भी रोग ज्योतिष ओर उयोतिषियों को शठा समन्ते दै, इस अवांछनीय परिस्थिति की जिम्मेदारी ज्योतिषियों ¦ पर है।

१६ चमत्कारचिन्तामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

श्रीभद्भनारायणजी ने अ्रहफल ओर भावफल को प्रधानता दी है, अरहर ओर भाव १२ है । चमत्कारचचिन्तामणि परवंध की स्वना भावफल-व्णन के छि की गई दै नवग्रहों मेंस प्रथम ग्रह सूर्यं है। अतः सूये के भावफर द्वारा भ्रन्थ का प्रारंभ किया जा रहा दै “तनुस्थः’’ इस शोक से। सयेफलम्‌– ““तनुस्थो रविः तुंगयष्टं विधत्ते मनः संतपेत्‌ दारदायाद्वगौत्‌ । वपु; पीड्यते बातपित्तेन निव्यं स वे पयेटन्‌ हासबृद्धि प्रयाति ॥॥ अन्वय :–“तनुस्थः रविः तुंगयष्टि विधम्ते, दारदायादवर्गात्‌ मनः संतपेत्‌ । निव्यं वपुः वातपितेन पीञ्यते, सः वै पर्यटन्‌ हास-वृद्धि पयाति ॥ २॥ सं० टी<-यस्य तनुस्थः ल्मस्थः रविः तस्य तुंगय्टिं उच्रूपं विघम्ते | दारदायाद्‌ वगात्‌ ख्री-पुत्रादि समूहात्‌ मनः संतपेत्‌ संतापं प्राप्नुयात्‌ । वातपिन्तेन वायुयुतपित्तेन वपुः शरीरं पीड्यते । तथा सः पुरुषः पयन्‌ देशान्तरं गच्छन्‌ नित्यं निधितं हास-बरदधिः धनन्यूनाधिकत्वे प्रयाति प्रामोति ॥ १ ॥ हि० दी जिस मनुष्य के जन्मल्यमेंसूयंद्ो वह ख्म्बे ऊचेकदका होता दै । ख्री-पुतर-बन्धु आदियों से उसका मन दुःखी रहता है । सर्वदा उसका शारीर वातपि्तरोग से पौडित रहता दै । वह परदेश में जाता है ओर इसे धन का सुख कभी उन्तम रहता रै ओर कभी धन का कष्ट भी बदृकर रहता है ॥ १ ॥ ` तुखुना- “यदा ल्यस्थानं गतवति रवौ यस्य जनने; तपेत्‌ कांतावर्गात्‌ निजसहजवगादपि मनः । वपुः कष्टं पित्तानिकरूधिररोगेण परम, विदेशबव्यापाराद्‌ व्रजति धनमस्पत्वममितः ।* जोवनाय अथे– जिस मनुष्य कै जन्म समय मे सूर्यं तनुमाव मेहो वह लियो से तथा भाई-जन्धुओं से संतप्त होता है। पित्त; वायु ओर रक्तविकरारके रोगसे’ दारीर मं कष्ट; तथा विदेश मं व्यापार से धन की क्षति होती है) “भमातण्डोयदरि ठद्यगोऽव्पतनयो जातः सुखी निर्घृणः, स्वत्पारी विकटेश्चणो रणतकश्छाधौ सुशीखो नटः । ज्ञानाचाररतः सुलोचनयशः स्वातन्यकस्तूचगे, मीने स्रीजनसेवितः हरिगते रात्यंधको वीर्यवान्‌ |” वनाथ अथे–रवि व्यम होतो संतति कम हदोतीहै। जन्म से ही सुखी, निर्दय, कम खानेवात्म, चक्षुरोगी; युद्ध मेँ भागे होकर ल्डनेवाखा, सुशील, नट, ज्ञान ओर आचार में म, सुहावनी ओंखोवाल, सब कामों मे यशस्वी, स्वतंचता से ऊष्वी जगह पानेवालर होता है यह सूयं मीन मेहो तो बहुत श्ियोंसे न्न दै। सिहं हौ तोस्तौधी रोग होता है। जातक वलवान्‌ होता हं ।

२ सूयंफरः १७

रिष्पणी- “अस्प संतान का दोना यह फर रवि पुरुषराशि मे होतो अनुभव मे आता है। यह रवि ख्रीराशि में हो संतति अच्छी संख्या में होती है। रवि स्रीरारिमें दो तो जातकं सुखी रहता रै । यदि पुरुषराि का रविं होतो कोईन कोई दुःख ट्गारहतादहै। यातो खतति का अमाव, अथवा रारीरमे कष्ट रहता दै । लख्रीरारिका रवि दहो तो जातक अल्पारी होता है। मेष, सिह ओर धनु मे रविं हो तो जातक विकलेक्षण होता दहै । युद्ध मे अग्रणी होना ओर खुशी होना, ये फर भी इन्दी रारिर्यो के है ।

यदि रविं मिथुन, ककं, सिह, तखा, धनु, मकर, कुंभ ओौर मीन मंदोतो जातक नट हो सकता है, यदि रवि ककं, बधिक, धनुओर मीनमेंहोतो जातक ज्ञानी आओौर सदाष्वारी होता है। लख्रीराशि का रवि सुरोचनतादायक होता है । यदि रविं मेष, ककं, सिंह, बृध्िक वा धनु में हो तो जातक यशस्वी होता है । यदि रवि कर्क, बृ्चिक वा मीन मे दो तो जातक स्वतन्तता से ऊ्ी जगह अधिकता से पाता रै । मेष, मिथुन, सिह, वुखा; धनु वा कुभ में रवि हो तो साधारण तौरपर स्वतन्त्रता से ऊँग्वी जगह पाता दै । वृष, कन्या तथा मकर मे रवि, हो तो प्रायः एेसा बहुत ही कम होता है। पुरुषराशि का रविहोतो जातक आरभ से दी स्वतन्त्र रहता है । लखरीराशि का रवि हो तो जातक प्रथम नौकरी करता है ओर तदनन्तर स्वत होता है। यदि रविं अक्ेखछाहोतो जातक अनेक लियो का उपभोक्ता नदीं दोता-यदि इसके साथ श्युक्रहोतो एेसा होता है । “मेष, सिह ओौर धनु मे रविं हो तो जातक को प्रवर कामेच्छा होती है ओर यह दिनिमेंभीदहोतीहै। मिथुन, ठा ओर कुम मं साधारण कामवासना होती है । वीयवान्‌ होने का मतल्व यदी है ।

सवितरि तनुसंस्ये रौशवे व्याधियुक्तो नयनगदसुदुःखी नीष्वसेवानुरक्तः । न भवति द मेधी दैवयुक्तो मनुष्यो भ्रमति विकल्मूर्तिः पुत्रपौत्रेः विहीनः ॥ मानसागर

अथे- जिसके जन्मसमय मे सूर्यं लद्मभाव ( तनुभाव ) मे हो वह बाल अवस्था मं रोगी होता है । इसे ओंखों के विकार होते है । यह नीष् लोगों की नोकरी करता है । यह एकजगह घर बसाकर नहीं रहता है । ओर हमेदा भटकता फिरता है । दैववशात्‌ इसे पुत्र भौर पौत्र नहीं होते ।

रिप्पणी- मेष, सिंह वा धनु में रवि हो तो बष्वपन मे शीतल आदि रोग होते है । बषः, कन्या ओौर मकरमें रविदहो तो नेत्ररोग होते है। मिथुन, वला ओर कुम म मरेरिया, सखा ओर भूतवाधा होना ` संभवित है । ककं, धिक ओर मीन में रवि केदहोने से प्रदर, खोसी, संग्रहणी आदि रोग होते है । इष, कन्या वा मकर में रवि हो,तो जातक नीग्वोँ की नौकरी करता दै ।

““लम्नेऽकंऽत्पकष्वः क्रियाल्सतमः क्रोधी प्रषण्डोन्नतः, मानी लोचनरूक्चकः करातनुः धूरोऽ्वमो निर्धणः |

१८ चमत्कारचिन्तामणि का तुख्नात्मक स्वाध्याय

स्फोटाक्षः शदिमे क्रिये सतिमिरः सिदे निशान्धः पुमान्‌ , दाखियोपहतः विनष्टतनयः जातः तुलायां भवेत्‌ ॥ मंत्रेश्वर

अथ–यदि जन्म के समय सूर्यं ट्यमेहोतो जातक बहुत थोड़े केशोवाला, कार्यं करने मं आलसी, क्रोधी, प्रचण्ड, टम्बा, मानी, चूर, ऋूर ओर क्षमा न करने वाला होतादहै। इसकेनेत्र र्खे होते दैँ। यदि जन्मट्य कक हो ओर इसमं सूयं हो तो जातक स्फोटाक्ष होता है । यदि मेषस्थ सू्व॑ल्यमेहोतो.भी इसे नेत्ररोग होते द । अर्थात्‌ तिभिर रोग होता हे। यदि सिंह रादि का सूर्य ल्प्रमं होतो जातक को रताधी रोग होता दै अर्थात्‌ इसे रा्रिमें कुछ नज्ञर नदीं आता । यदि तुला राशिका सूर्यल्य्मंदो तो बहुत बुरेफल अनुभव में आते द । जातक दख होता है ओर इसके पुत्र नष्ट हो जाते है ।

रिप्पणी- महेश ओौर मंत्र्वर के फट एक जेसे है अतः मदेश का फट ठेखनीवद्ध नदीं किया गया हे ।

““टग्रगः सम्दाखेटस्तदा लगरः कामिनीदूषरितो दुष्प्रजो वै यदा| पण्यरामारतो राशिमीजान्‌ गतो मानदीनोऽथ हीर्षौ विदष्टिः पुमान्‌ ॥ खानखाना

अथं–जिसके जन्मल्य मं सूर्य॑ हो वह जातक शरीर से दुवा, च्ियों से दूषित; दुष्टसतानवाला;, वाजार ओौर वारिका मं रहल्नेवाला ओौर वेद्या में आसक्त रहनेवाखा होता है |

यह सूयं यदि अपनी नीचरादि वला मं होतो जातक ईर्प्या ओर खराब नजरवाला होता है |

रिप्पणी- मू श्छरेक मं वुगयष्टिः? विरोपण का अर्थं टीकाकार ने (उच्च रूपः किया है । वुंगयष्टिः’ के स्थान मं (तुगदेहःः भी हो सकता था, किन्त भट्रजीने किसी बिरोष्र अथे की प्रकट करनेके छिए तुंगयष्टिःः ही विरोपण दरियाहे। वुंगका अथं ऊंचाः ओर व्यष्टिः का साधारा अर्थं द्ददः होता है, उच्चस्थान को धुंगः कहा जाता है-उचग्रह को तुंगीः कहा जाता है | यष्ट ( कड़ी ) सीधी ओौर टद्‌ ( मजवूत ) होती दहै। इस तरह समुचित अर्थ “लम्बा, ऊचा ओर इद्‌ दरी वाटाः यह अर्थं सुसंगत दै । केवल धना रूपः अथं ठीक प्रतीत नहीं दहोता है! स्थं कीङऊँवाई को देखकर व्वुंगः शब्द का प्रयोग कियागयाहे। एेसा अनुमान दै। मतरेश्वरजी ने कृशतनुः विष का उपयोग क्रया दे । सूयं अतितजस्वी, अभितघप्रधान, तीष्णकिरण अह हे । अभ्रतत्वप्रधान व्यक्ति प्रायः स्थूटकाय नहीं होते, प्रत्युत अस्थिसार छरहरे रीर के. होते ह । अतः छ@शतनः विदोप्ण उपयुक्त है । शासबृदधि प्रयातिः का अथ घटजाना ओर बदृजाना ठीक है। विदेदामें जाकर व्यापार करनेवासे व्यापारी कौ आर्थिक परिस्थिति सदेव एक जेसी नहीं रह सकती । व्यापार में सदा लाम हो नहीं होता प्रत्युत आर्थिक दीनता, आर्थिकह्टास के अवसर भी आत दै । क्योकि व्यापार तो बाजार की ऊँची-नीची परिस्थिति पर पाट्‌ रहता है।

सूयंफर १९

विदेश में व्यापारी का स्वास्थ्य भी एक जैसा नदीं रहता, जल्वायु-मादहार- विहार की अनुकूकता तथा प्रतिकूकता पर॒ निभेर रदनेवाख स्वास्थ्य कभी उपम्वय मँ आएगा ओर कभी अनुपम्बय में जाएगा-इसी कारण परदेश में भ्रमण करनेवाला व्यापारी सौदागर शारीर मे हास भौर बृद्धि को प्राप्त होता रहता है ओर होता रहेगा । क्म्स्थसू्यं के प्रभाव मेँ आया हया ओर परदेश मे पर्यटन करता हया जातक एक स्थान में धर बसाकर रहनेवाखा तो होता नदीं है, तो इसका स्वास्थ्य एक जैसा सदैव नैरोग्यवान्‌ क्योकर रह सकता है । अतएव इसे कभी वायु के रोग ओर कभी पिति के रोग होते रहते है । इस तरह इसका शरीर कमी नीरोग तो कभी वात-पित्त के रोगों से पीडित होता है।

मूल मे दार दायाद वर्गात्‌ सन्तपेत्‌” णेखा पार है-दार दारा का अर्थं खरी ओर दायाद का अथं श्युत ओर बान्धवः ष्दायादौ सुतबान्धवौ यमरकोरा । लग्मस्थसूर्यं का जातक स्रीसुख, पुत्रसुख तथा बन्धुसुख से वञ्चित रहता दै । उग्रस्वभाव की कटड़माषिणी खरी गहस्थ-सुख होने नदीं देती । सौमनस्यदीन, वैमनस्ययुक्तः आज्ञा का पारन न करनेवाठे पुत्र भी जीवन को कण्टकमय बना- देते ्ै। इसी तरह बान्धवलरोग भी विपत्तिमं सहायक न होकर जीवनं को दुःखपू्ं कर देते ै-इस कारण ठग्रव्तौं सूयं के ्रभाव मे आया हा जातक सदेव सन्तप्त रहता है ।

प्रस्थित रविफल-श्रगुसृन्न–आरोग्यभवति, पिचप्रकृतिः, नेचरोगी, मेधावी, सदाष्वारी वा उष्णोदरवान्‌ । मूखैः, पुत्रहीनः, ती्णबुद्धिः, अस्पभाषी, प्रवासरीरः, सुखी; स्वोचे कीर्तिमान्‌ ; बलिनिरीक्षितेविद्वान्‌ , नीचेप्रतापवान्‌ , जञानद्वेषी; दख, अन्धकः श्चभदष्टे न दोषः। सिंहे स्वांरोनाथः, कुटीरे ्ञानवान्‌। रोगी, बुद्बुदाक्षः, मकरे हृद्रोगी । मीने खरीजनसेवी । कन्यायां रवौ कन्याप्रजः । दारदीनः, कृतघ्नश्च, क्षेत्री, श्भयुक्तः, आरोग्यवान्‌ । पापयुते, साभरु-नीषवक्षतर तृतीये वषं ज्वरपीडा; श्चभदृष्टे न दोषः ।

अथे– जिस जातक के जन्मसमय मे लग्र में सूरं हो वह्‌ नीरोग होता दै- वह पित्तमरकृति का होता हे । वह नेत्ररोगी, मेधावी, स्दा्ारी होता है । इसका उद्र उष्ण रहता है । जातक मूख, पु्रहीन, तीक्ुद्धि, अल्पभाषी, सुखी, तथा परदेश मे जानेवाला होता हे । यदि यह ठग्नस्थ सूर्यं अपनी उच्राशि (मेष ) मे हो तो जातक यशस्वी होता है । यदि इस सूर्यं पर किंसी बल्वान्‌ ग्रह कीदृष्टिदहो तो जातक विद्वान्‌ होता हँ । यदि यह सूर्य॑ अपनी नीचराशि ( ठा ) मेदो तो जातक प्रतापी होता है । जातक ज्ञानवान्‌ से द्वेष करनेवाला दरिद्री तथा अंधक होता दहै। किन्तु ्युभग्रह-दष्टिदहो तोये बुरे फर नहीं होते र्द। स्वराशि सिहमं यदि सूयं होतो जातक प्रथुत्व प्रात करता है। लग्नस्थ सूयं यदि ककंरादि का हो तो जातक ज्ञानी भौर रोगी होता है । इसके आंखों मे फोटा पड़ता है । सूयं यदि मकश्यांशिभ होतो जातक को हदय

[ मीर

२० चमत्कारचिन्तामणि का तुरख्नात्मक स्वाध्याय

रेग होता है। सूर्यं यदि मीनरारि का होतो जातक स्यो मे आसक्त रहता है । सूर्यं यदि कन्यारारिका होतो जातक को कन्या सन्तति होती है । जातकः खरीदीन, कृतघ्न ओौर भूमिपति होता है । यदि इस सूर्य॑का योग श्भग्रह के साथ दहो तो जातक नीरोग रहता ह । यदि पापग्रह के साथ सम्बन्ध हो, अथवा सूर्यं शचुक्षे्री वा नौचक्ेत्री हो तो जातक को तीसरे व ज्वरपीडा होती दै। यदि इस सूयंपर ययभग्रह की दष्टिदहोतो ज्वरपीडा नर्य होती ।

टिप्पणी- भ्रगासूच यह बात सष्टतया वतल्ते ह कि रारिमेद से, स्वयरह- उच्च-नवांदा आदि के मेद्‌ से शमग्रहदष्टि-यञ्युभग्रहदष्टिके भेद से राचु्षेत्र- मिचक्षेच्र-नीष्वांशा-तथा अस्तंगत आदि के येद्‌ से-द्यभग्रह-यद्यभग्रह्‌-सम्बन्ध के मेद से भावप मं तारतम्य होता है । इसी प्रकार यहोँ के बल तारतम्यसेमभी भावफल में तारतम्य होता हे । |

यवनमत- ख्द्यस्थित सूयं का जातक अराक्तः च्ियों से दूषितः; वाग-बगीष्वों का शौकीन होता दै। किन्त तुखा में नीचराशिका रविदहोतो मानदानि, अविग्वारितकर्मकर्त, दर्प्यालं तथा व्वपन में दुब दोता ह ।

टिम्पणी–चियों से दूषितः जातक तभी हो सकता हे यदि वह च्या के साथ कटोरता से वर्ताव करता है-विदोषतः वख ओौर धनु ख्यमें रवि के होने से शीघ्र स्वलितवीर्यता आदि दोषों के कारण जातक स्री को सन्तुष्ट नहीं कर सकता अतएव स्रीजाति उसके व्यवहार की चर््बा करती ह ओर अपनी अप्रसन्नता मरकर करती है |

रवि ल्य मंदो तो जातक आत्मविश्वास, दट्निश्वयवाला, उदार, ऊचा, ऊचे विष्वारों का, स्वामिमानी, उदारहृदय का, हर्के कामों का तिरस्कार करनेवाला, कटोर, न्यायी ौर प्रामाणिक होता है ।

अथिराशिमे रविंदहोतो मंहत्वाकांक्षी-शीघक्रोध मे अआनेवाला;, सब पर अधिकार जमाने की इच्छा रखनेवाखख, गंभीर ओर कम बोटनेवाला होता हे ।

[क क. ~

रवि प्रथ्वीराशि मेँ हो तो घमण्डी; दुराप्रही ओर सनकी होता दै ।

वायुराशि मे हौ तो न्यायपरायण अच्छे दिर का; कलाकौशर मे ओौर दशादलीय विषयों मेँ रुचि रखनेवाखा होता दं ।

जल्राशि मेदो तों चियों मे अधिक आसक्त होता है। जिससे अपने नाश का भी, विचार भूल जाताहै। ककम रवि दहो तो अपनी घरग्हस्थी मं म्र रहता दै । वृश्चिक मे रवि द्योतो जातक अच्छा डाक्टर, वा दवाई बनाने- वाला होता दै । इससे जगत मे प्रसिद्ध होता हे। साधारणतया ल््र का रवि प्रगति वा भाग्योदय का पोषकं होता दहै | एकमत ।

सूयंफर २१

रिष्पणी-अथि आदि तत्वों की प्रधानता से राशियों के चार भेद है- अथि-तत्वप्रधान राशिः- मेष, सिह; धनु । भू-तत्वप्रधान राशिः- उषः कन्या, मकर । वायु-तत्वप्रधान राशिः- मिथुन, वल, कुभ । जल-तत्वप्रधान राशिः-ककं-इक्चिक-मीन । विचार ओर अनुभव- खरी राशि का रवि रुन मेँ हो तो संसार मे ख्ख- दायी होता दै। पुरुषरारिका रविकल्पं दहो तो थोडा दुःखदायक भी होता हे। धनुराशि म रवि हो तो जातक विद्वान्‌-धमंशाखरज्ञ, वैरिस्टर, हदाईकोर्टंजज आदि ऊचे अधिकार पाता है। किन्तु स्री-युख से वंचित रहता है, अनेक सियो होने पर भी सन्तति नदीं होती है । इस तरह कोई न कोई दुःख ख्गा रहता है । | ककराशि मे रविं रो तो साधारण धनी, स्रीयुखयुक्त तथा सन्तति सम्पन्न होता है, किन्तु यशस्वी नहीं होता । क्योकि ऊँचा अधिकारी नदीं होता है। ककं से धनु रारितक ( दक्षिणायन ) मे रवि मनुष्य को भाग्यवान्‌ बनाता है । उत्तरायण का रवि-र्डाईै-्षगडे, अपना स्वत्वकायम करने की प्रदृत्ति आदि स्वाथ॑ता को बदावा देता है। दक्षिणायन रविं मे दैवी उत्तियो बदौत्री पाती है। साधारण तौर पर ल्य्रका रवि अच्छा है मनुष्य को उन्नत करता है । धनभाव- “धने यस्य भानुः स॒ भाग्याधिकः स्यात्‌, चतुष्पात्‌ सुखं सद्व्यये स्वं च याति॥ कुट्म्बे कटिः जायया जायतेऽपि, रिया निष्फला याति खाभस्य हेतोः ॥ २॥ अन्वय :-यस्य धने भानुः स्यात्‌; खः भाग्याधिकः स्यात्‌, ( तस्य) चतुष्पात्‌ सुखं स्यात्‌ › ( तस्य ) स्वं च सदव्यय याति, जायया कुटुम्बे अपि कडि; जायते । खाभस्य हेतोः ( तस्य ) क्रियां निष्फल याति ॥ २॥ सं दी०-अथद्वितीय भावस्थ रविंफर शनेः इति– यस्य नरस्य लय्मभाव कुण्डलिकायां धने लग्नात्‌ द्वितीयेस्थाने भानुः सूयः. खः पुरुषः भाग्याधिकः श्रेष्ठ भाग्यः स्यात्‌ । चतुष्पात्‌ युखं गजाश्वादि सौख्यं लेत्‌ इति रोषः । ष पुनः द्रग्यं सद्व्यये यातिगच्छति, धमादि विषये व्ययं कुर्यात्‌ इतिभावः । जायया निमित्तमूतया कुटुम्बे स्वमंधुविषये किः कटः जायते भवेत्‌ इत्यर्थः । तथा राभस्य हेतोः प्रागरभ्या क्रिया अपि निष्फल याति; तोऽपि यत्नात्‌ उद्यम स्वाहंकारेण निष्फट स्यात्‌ इत्यर्थः ॥ २॥ अथे :–जिस मनुष्य के जन्मलग् से दूसरे स्थान मं सूर्यं हो वह भाग्यवान्‌

(3. चम स्कारचिन्तामणि खा नुखुनात्मक्‌ स्वाध्याय

होता है । इसे चष्पात्‌ अर्थात्‌ माय-मंस-बकरी सादि का सुख रहता है । इसका द्रव्य अच्छे कामों मे चं होता है। स्री के निमित्त से अपने कुटम्न मेँ मे मी कलठह-क्रेश होता दै। द्रव्यलाभ के निमित्त जातक जो काम करतादहै यह इसका व्यथं होता ह । | रिप्पणी-“मूलपाठ में श्ववष्पात्‌ सुखम्‌? एेसा कहा है । साधारण अक्षर कम्य अर्थं व्चौपाए से खखः एेसा है । संस्कृत टदीकाकार ने गजाश्वादि सौख्यम्‌? एेसा अथं क्रिया है। धनभाव स्थित सय॑ तो बवहूतेरे जन्मपत्रों मं पाया जाता है । परन्तु प्रत्येक जातक को हाथी-घोडा आदिका सुख होना अनुभवमें आता नहीं दहै। तो क्या अर्थं मंतव्यदहै यह प्रश्च उपस्थित होता हे । देवज्ञ के लिए आवदयक है कि वह अपनी प्रज्ञा से, जाति-कुट, देश आदि का विचार करता हा फलदेश करे ।

किसी भूमिपति धनान्य का जन्मपत्र हो तो हाथी-घोड़ा आदि पौपाये का सुख संभव दै। किंसी खेतीवाडी करनेवाठे कपरक का जन्मपत्र दहो ओर धनभावमें सूय॑दहोतो ष्वेटीं की जोडी से सुख होगा एेसा कहना होगा । यदि कोड दूध के कऋरय-विक्रयसे आजीविका चलता हो तो उसके धनभाव के सूयं का फल शगाय-भंस-वकरी आदि दूध देनेवाटे चौपाये जानवरों से लाभ होगा । एेसा फक वताना होगा ।

““अर्हिंसक ओौर हिंसक” दोनों प्रकार के ष्वौपाये जानवर दहै । शिकारी को रोर मार कर सुख होता दे। कत्तांकी मदद से शिकार खेख्नेवाले व्यक्ति को क्षुद्र जीव शराक आदि चौपाये जानवयेँ को मारकर सुख मिक्ता है । बडे जानवर दरोर-चीता आदिं हिंसक जानवरों को मारकर आौर उनकी खाल को वेष्वकर शिकारी को सुख मिक्ता है । जो छोग ऊंट, खचर-गघे आदि द्वारा बोद्ध टौोकर अपना जीवन चलाते हँ उन्हँ इन्हीं जानवरों से सुख मिक्ता हे ।

इस तरह ‘चतुष्पात्‌ सुखम्‌? आपाततः एकाथंक होता हुभा मी वदू थक हो जाता है । एेसी परिस्थितियों में देवज्ञ को स्वतकं कुर्ता से, स्वबुद्धि-वेमव से कामलेना होगा| कहनान होगा कि इस तरह फटदेर करना सहज नही हे । तुखना–“जनुः काटे वित्तं गतवति यदा वासर मणौ | तदा भाग्यं तस्य प्रसरति कुडम्बैः कलिरपि । य॒मे विन्तापायो द्यपि पथितुरंगध्वनिरटं । यह द्वारे, दंमाद्‌ व्रजति श्युभङृव्यं न परमम्‌ ॥ जीवनाय अथं- जिस मनुष्य के जन्म समय में सूर्यं घनमावमें दो बडा भाग्यशाटी होता है । बन्धुं के साथ कलह रहता है । इसका धनव्यय दयुम कामों मं होता हे । इसके घर के दरवाजे पर घोडे हिनहिनाते है । किन्तु यह दांमिक होता है अतः अहंकारवद् कोई स्थायी श्चुम कायं नदीं होता दै ।

सूयंफर रद

रिप्पणी-भाजकल के भारत में धन काव्ययतो खज ता दिखाई दे

रहा है, किन्त यह व्यय, सद्ग्यय है वा असद्‌. व्यय है-एेसी परीक्षा का विष्वार किए बिना दही कियाजा रहा है। प्राचीन भारत के छोक आसिक येइ आर्थगन्थो मे श्रद्धा थी इष्टपूर्वकामों में विद्वास ओौर श्रद्धा थी । ये छोग स्वाथ- परायण न होकर परार्थघरक होते ये । अपनी गादी कमाई से लोगों के आराम के छिए पथिकरालएे ८ सराय ) बनवाते ये कुंए ओर बावली क्गवाते ये- ताला बनवाते ये, विद्यादान के लिए पाठ्ालर्ं चलाते ये; मन्दिर बनवाते ये–इस तरह साधारण जनता के आराम कौ खातिर अपना धन खं करते थे । स्वयं यज्ञ करते ये, इस तरह न्यायोपार्जित धन का सदुपयोग करते ये । इस भाव को टेकर जीवनाथ ने श्रमे विन्तापायः एेसा कहा है । नारायणम ने “सदव्यय स्वं च याति? रेता कहा है । सत्कर्म में व्यय करना– द्वितीयभाव- स्थित सूर्यं का ञयुम फल है । यह ममं हे ।

८’धनगतदिननाथे पुत्रदरः विदीनः।

करदातनु रतिदीनोर्तने्नः कुकेशः ॥

भवति च धनयुक्तः लोह ताम्रेण सत्यं ।

नभवति गृहमेधी मानवो दुःखभागी ॥ मानसागर

अर्थ- जिस मनुष्य के जन्मसमय में धनभावमेसुयंहोतो उसे खरी सुख ओर पुच्र-सुख नहीं मिक्ता है । यह दुबल्म-पतख दारीर का होता है । इसे . रतिसुख नहीं होता, इसकी आंखे सल होती ह । इसके केश बुरे होते है । यह धनवान्‌ होता है । यह खोदे ओौर तौ बे से सम्पन्न होता है । यह हस्थी होकर, कहीं एक स्थान मे घर बनाकर नहीं रहता है अतएव दुःखी होता हे ।

रिप्पणी–यदि रवि मिथुन, धनु ओर मीन राशिका होतो मनुष्यको स्रीसुख ओर पुत्रसुख नदीं मिक्ता है । इषः धनु ओर मिथुन में रविददोतो “रतिसुख-अमावः यह फर मिलता है । वस्तस्थिति देखी जावे तो खरीसुख के अभाव मे ^तिसुख का अभावः तो होगा ही । रवि मेष सिह, धनुमें होतो अखि लल होती ह ¦ पुरुषरराशि कारविंहो तो मनुष्य सोना आदि से सम्पन्न होता है। यदि ल्ब वृथिक, धनु, मकरवा कुभमकाहोतो घर-गहस्थीकान होना एेसा फल मिक्ता है । | मेष, मिथुन, सिह, वुल, धन॒ ओर कुम्भ पुरुषरारि्यों ह । वरृष-कक, कन्या, वृश्चिक, मकर ओर मीन ख्रीरारिरयों ई । “द्विपद ष्वतुष्पदभागी मुखरोगी नष्टविभव सोख्यश्च । दप चोर सुषिजसारः कुटम्बगे स्याद्‌ रवौ पुरुषः ॥ कल्याणवर्मा अ्थ- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे सूर्यं कुटम्बभाव ( धनभाव ) में हो उसके घरपर नौकर-चाकर होते है–हाथी-घोड़ा-गाय, भस-बकरी आदि चौपाये

२४ चमव्कारचिन्तामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

जानवर भी इसके घरपर होते) इसे मुखके रोग होते इसका विभव ओर सुख नष्ट हो जाता है। इसका धन राजदंड से ओर षोयों से अपहत हो जाता दे ।

रिप्पणी-कस्याणवर्मा के अनुसार धनभाव का सूय॑श्चुभफल की यपेश्वा से अञ्भफल अधिक देता है। पौपाये जानवरों का सुख ओौर नौकरों का सुखः, यह श॒भफर हे पूववतौं घन का नाड, तथा खुख का नाश मुख के रोग, राजा-द्वाराः वचोरोंदवारा धन का अपहरण;,ये सभी अश्युभफलर्है। यदि इस फट कं ठल्ना नारायणम के दियेहुए फलों से ठल्ना कौ जावेतो दोनों मे भारी मतभेद है |

“शविगतविद्या विनय वित्तं स्खलित वाचं धनगतः > मंतरेश्वर

अथं- जिस मनुष्य के धनमावमें सूर्यहोतो वह विद्वान्‌ न हीं होता है । इसे विनयभाव नदीं होता, अर्थात्‌ यह उद्धत ओौर घमंडी होता है। इसे धन नहीं होता–अर्थात्‌ यह निधन होता दहै । इसकी वाणी स्पष्ट नदीं दोती–अथात्‌ यह अरक-अटक कर बोख्ता है आर अपने भाव को दूसरे के प्रति कष्ट से प्रकट कर सकता है |

टिप्पणी मंतरशवर के अनुसार धनमाव का सूर्यं सर्वथा अनिष्टकारक दै ।

६६-

त्यागी धातु द्रग्यवान्‌ इष्टतः वाग्मी वित्तस्थानगे चित्रभानो ; वंचनाथ

अथे–जिस मनुष्य के जन्मस्मय मे धनस्थान मेँ सूर्य हो तो वह त्यागी ( दानी 9 मृल्यवान धाठ-सोना्वौदी आदि का स्वामी ओर धनवान्‌ होता दै । यह अपने व्यवहार तथा वर्ताव से अपने रातं को भी अपने अनुकूल कर ठेनेवाखा होता है । इसका भाषण मधुर ओौर तकनुकूर होता है ।

रिष्पणी- मेष, सिंह अओौर धनुमेंरवि हो तो मनुष्य त्यामी होता हे । जिसका ल्य मकर, कन्या, दृष वा बरधिक हो ओर रवि धनस्थान सें हो उसे मूल्यवान धाठु सोना-चदौ मादि मिरूते है ओर नकदी पैसे आदि भी प्रास होते हं । यदि ख्रीराशिकाल्य्रदहो तो व्यक्ति “इ ष्टरतरुः ओर ववाग्मी’ होता है|

““धन-सुतोत्तमवाहन वजितो इतमतिः सुजनोज्ितसौषदः ।

परग्रहो पगतो हि नरो भवेत्‌ दिनमणे द्रविणे यदि संस्थितिः ॥ दुण्डिराज

अथे– जिसके जन्मसमय म सूर्यं धनभाव मे हो तो उसे धन, पुत्र, उप्तमवाहन धोडा-गाड़ी-पारुकी आदि का सुख नहीं मिल्ता है । यह बुद्धिहीन मखं होता दे । इसके अपने सजन बन्धु-बान्धव अौर इसके मित इसे छोडकर चटे जाते है । यह दूसरों के घर में रहता है।

टिच्पणी- किसी प्रकार की सवारी कान होना भौर अपने धरकान

होना यह द्वंतीयभावके सूं का फल विदोषतः अश्चुभ है। रेसी पाचीन धारणा है ।

सूर्यफर २५

<भभूरि द्रव्यः भूम्यधीक्षाहतस्वः द्रव्यस्थाने वतमाने खगोरो 12 अपदे

अथै- जिसके धनस्थान मे सूर्यं हो वह॒ धनाघ्य होता है, किन्त इसके धन का अपहरण भूमिपति अर्थात्‌ राजा कर ङेता हे | जनुः काठे वित्तंगतवतियदावासरमणों तदा भाग्येप्रसरति कुटम्बैः कलिरपि । “यमे वित्तापायः ह्यपि पथि वरंगध्वनिररं गह द्वारे, दंभाद्‌ बजति श्चभङत्यं न परम्‌ ॥

भावप्रकाहा

अर्थ–यदि जन्मसमय मे मनुष्य के द्वितीयभाव मं सूर्यं हो तो वह भाग्य- खाली होता है । किन्तु उसका अपने कुटुम्ब के रोगों से वैमनस्य ओर ञ्गडा ` रहता दहै। यह अपने द्रव्य का ञ्भ मागं मे-श्यभकमं मे खष्वं करता हे इसके गृह द्वार पर घोडे बंषे रहते हैँ ओर वे अपने शब्द से इसके धर को युरोमित करते है । यह दम्भपूर्वक काम करता है अतः इससे कोई महान्‌ श्म कमं नदी दोता है अर्थात्‌ यह शभकमं करने का दिखावा करता है इसलिए इससे कोई चिरस्थायी शुभकर्म नदी होपाताजो इसकी कीर्तिष्वजा को फहराता रदे । छोटे-छोटे श्चभकममं कुछ काठ मे अनन्तर नष्ट-म्रष्ट हो जाते ह ।

“धन सुतोत्तम वाहन वर्जितो हतमतिः सुजनोन्ज्ितसोददः । परण्होपगतो दिनरोभवेत्‌ दिनमणेः द्रविणे यदि संस्थितिः ॥ महेश्च

अर्थ- जच सूर्यं धनभाव मेँ स्थित हो तो जातक धनदहीन, पुत्रहीन, तथा उन्तमवाहनदीन होता दै । यह मंदबुद्धि अर्थात्‌ मूखं होता है । यह सौजन्य तथा सोदार्दहीन होता है अतएव इसके अपनेखोग ओर इसका मित्रवगं इसे छोडकर प्वले जाते र । यदह दूसरे के घर मे निवास करता दै ।

“य॒दा चदमखाने भवेदाफताबस्तदा ज्ानदीनोऽथगुस्सवमदाम्‌ ।

सदा तंगदिर शख्तगो द्रव्यदहानिः कुवेषो गदास्याद्‌ वेहोरो दिवासाम्‌ ।

खानखाना

अ्थ- यदि सूर्यं धनभाव में हो तो जातक ज्ञानीन, अत्यन्त क्रोधी, सदा तङ्गदिर, कपण, द्रव्यद्ीन, कुरूप; रोगी ओौर बेहोश ( चेष्टादीन ) सबकुछ भूलजाने वाखा होता हे ।

भ्रगुसुत्र–मुखरोगी । पञ्चविंशति वषे राजदंडन द्रभ्यच्छेदः । उच्चे स्वक्षेत्रे वानदोषः । पापयुते नेत्ररोगी । स्वस्पविद्वान्‌, रोगी । श्चुभवीक्षितेधनवान्‌ दोषादीन्‌ व्यपहरति । नैचरसौख्यम्‌ । स्वोच्च स्वक्षेत्रे वा वहु धनवान्‌, बुधयुते पवनवाक्‌ । धनाधिपः । स्वोचे वाग्मी । शाखरक्लः, जानवान्‌ । नेत्रसौख्यम्‌ । राजयोगश्च ।

अ्थ– यदि धनभाव मे सूं हो तो मनुष्य को मुख केरोग होते है । २५ वे वपं मे राजदण्डद्रारा धनानि होती है । यदि यह धनभावस्थ सूयं अपनी उच्च राहि ८ मेष ) मे हो, अथवा अपने क्षेत्र ( सिंह ) में हो धनहानि नदीं होती । यदि इसमभाव के सूर्यं के साथ कोई पापग्रह युति करे तो नेत्रविकार होते ह ।

२६ चमत्कारचिन्तामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

ममुष्य रोगी रहता है–इसकी क्िक्चा अधूरी रह जाती है । यदि इस सूर्यं॑पर किसी चमग्रह की दृष्टि हो तो मनुष्य धनी होता है पहिले कदे हए दोष दूर हो जाते द । ओंखों का सुख होता है । यह सूयं यदि उच्चमेंहो वां स्वक्षे्री हो तो मनुष्य धनाढ्य होता ह । यदि सूयं के साथ बुधमी हो तो मनुष्य अटक- भटक कर, धीरे-धीरे बोक्ता हे । धन का स्वामी मी होता दै। अपने उच्च में सूयं हो तो मनुष्य प्रशस्तवाणी बोटनेवादा होता हे यह राखज्ञाता, ज्ञानवान्‌ ओर नेच खखवान्‌ होता दहै । धनभाव का सूयं राजयोग करता हे । | यवनमत–धनस्थान का रविंहो तो मनुष्य बुद्धिहीन, क्रोधी, कंजूस, निधन, करर, कुरूप, रोगी ओर गाफिर रहता है ।

पाश्चात्यमत–धनस्थान मं रवि हो तो मनुष्य उदार, पेसा बहत जल्दी खप्चं करनेवाला, वेफिक्र ओर संपत्ति खतम करदेनेवाटा होता है ।

विचार ओर अलुभव-धनस्थान का सूर्यं वृष, कन्या वा मकर रादि मं होतो धन का संचय नहीं होता चाहे कोई भी यत्न क्रिया जावे, विफल प्रयता पल्य नहीं छोडती । मनुष्य स्वतंत्र धन्धा करना चाहता है- नौकरी पसन्द नहीं करता दै–इस प्रकार की इच्छा ततर पूरी होती है ज धने टवान्‌ हो, अथात्‌ वक्री, अस्तंगत, मदगामी, अतिचारी न दह्ये ओर किसी पापग्रह से युक्तमीनदहदो। कुडम्नियां की मृत्यु इस मनुष्यके देखतेही होती है । धनस्थानगत सूं के प्रभाव में उत्पन्न मनुष्य के पिताका भाग्योदय तो होता है किन्तु यदह भाग्योदय पिता पर ही अवटवित रहता है। स्वयं नौकरी वा कोद धन्धा नहीं कर सकतादहै। वाप-वेटे मं परस्पर सौमनस्य नहीं रहता हे ।

वकीटों ओर डाक्यौँ को धनस्थान का रवि अनुकूल रहता है ।

उ्योतिषियोँ के लिए धनभावस्थ रविं अनुकूल नहीं होता हे। इनके वतलखए हुए अश्चमफल शीघ्र ही अनुभवमें आते छभफलों का अनुभव देर से होता है–अतः परिणाम अपया होता है ।

मिथुन, वला वाकुमका सूदो तो मनुष्य स्वयं रुपया खूर कमाता है। चूकिं खच के विषय में कृपण होता है छोगों की सहानुभूति से वंचित रहता दै ।

धनस्थान का रविं यदि ककं, बृधिक ओौर मीन रारिका होतो मनुष्य अधिकारी होता हे । यदि किसी फर्म में नौकरी करे तो अच्छा पैसा पैदा करता दै । मेष; सिह; धनुराशि में रवि हो तो मनुष्य बहुत स्वार्थी होता दै। अपने आपको बडा बनाने की अदम्य इच्छा रहतीदहै, किन्तु कामकरने सेजी चुराता है |

धन स्थानस्य सूयं के साधारणफलठ निम्नलिखित रै-

हमेशा उष्णता का रहना, ओंखों का, हाथों का भौर पावों का हमेशा ग्म

सू्ंफल - २७

रहना, नंज की बिनाई का कमज्ञोर पड़ञामा, उत्तम-उन्तम अन्न खाने में विरोष मनि, कपड़ो की उत्तमता-इन्दे साफ रखने की ओर विरोष ध्यानः रहता है । | । यदि इध्िक, धनु, मकर वा कुम लग्र हो, रवि धनस्थान मेँ हो, धनस्थान का स्वामी गुरु वा शनि वक्री हो ओर ये २-४-६-८-१२ वँ स्थान में हां तो यद्‌ योग महान्‌ दस्ता का योग है । जिन मनुष्यो को यह योग पड़ता दे तो इन अभागों को अन्न खाने को नहीं मिल्ता आठ-आठ दिन भूखे पड़े रहना होता है । अन्न के लिए तड़पना पडता है । तृतीय भाव फट– ^तृतीये यदाऽह्मणिजैन्मकाले प्रतापाधिकं विक्रमं चाऽऽतनोति । तदा सोदरेस्तप्यते तीथैचारी सदाऽरिश्चयः संगरे शां नरेशात्‌ ।॥३॥। अन्वय :- जन्मकाले यदा ८ यस्य ) अदर्भगिः व्रतीये भवेत्‌ तदा ( तस्य ) प्रतापाधिकं विक्रम आतनोति । सः सोदरैः तप्यते, तीर्थचारी ( जायते संगरे सदा । (तस्य) अरिश्चयः स्यात्‌ , नरे्ात्‌ (तस्य) शं स्यात्‌ ॥ २ ॥ सं० टी<- जन्मकाले वतीये यदा अह्म॑णिः सूयः तदा सः पुरुषः प्रतापाधिकः प्रतापः अधिकः यस्मिन्‌ एतादश विक्रमं पराक्रमं आतनोति । च पुनः सौदरः भ्रातरभिः तप्यते संतापं आप्नुयात्‌ , तीथचारी तीथंगमनञ्चीकः भवेत्‌ › संगरे संग्रामे सदा अरिक्चयः शत्रुनाशः तथा नरेशात्‌ शपात्‌ शं कल्याण स्यात्‌ ॥ ३॥ अथ :- जिस मनुष्य के जन्म से तीसरे स्थान म सूं हो तो मनुष्य बड़ा प्रतापी तथा पराक्रमी होता है । यदह सगे मायो से कष्ट पाता हे । परदेश भ्रमण करके तीर्थयात्रा करता है । युद्ध मे सवदा उसके गातुं का नाद होता है । राजा से इसे खुखप्राप्त दोता है ॥ ३ ॥ तुखना–“^तृतीये चंडांशौ भवतिजनने क्क्रिमकलाऽ विस्तारो यस्यातुख्बख्मलं तीथंगमनम्‌ । विपक्षाणांक्षोभः सपदि समरे भूपङ्पया प्रतापस्याधिक्यं सहजगणतो दुःखमनिराम्‌ ॥ जीवनाथ अर्थ- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे सूर्यं वरतीयभाव मे होतो उसके पराक्रम का विस्तार होता रै। यह बली, तीर्थयात्रा करनेवाल्म; संग्राम में दात्रुभं को शीघ जीतनेवात्म ओर राजा की कृपा से अधिक प्रतापी दोता हे । किन्तु इसे सगे भाईयों से सदा दुःख प्राप्त होता है । (सहृजभुवनसंस्थे भास्करे श्राव्रनाशः . प्रियजन हितकारी पुत्रदारामियुक्तः। भवति ष्व धनयुक्तो वैरययुक्तः सहिष्णुः विपुर धनविहारी नागरीप्रीतिकारी ॥ | भानसागर

२८ -चमत्कारचिन्तामणि का तुखनात्मक स्वाध्याय

अथे- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे, सूर्यं तीसरेस्थानमे हो तो उसके भायां का नार होता हं । यद्‌ अपने प्रिय जनों का हित चाहनेवाला होता है । इसे स्रीयुख तथा पुच्रयुख मिक्ता दै । यह धनवान्‌ , धैयंवान्‌ तथा दूसरों का उत्कषं देखकर प्रसन्न होनेवाटा होता है । यह बहुत पेखा खर्वनेवाखा होता है, अर्थात्‌ यह लाखों मं खेलनेवाटा होता है | यह नगर मं रहनेवाटी खुन्दर लियो का प्यारा होता है। अर्थात्‌ यदह सोदर्यवान्‌ ओर आकषक होता दै! अतएव नगर कौ सुन्दरी स्िर्योँ स्वयं ही इसकी ओर चिष्वी चटीं आती है। नगर की चर्यो हाव-माक्-कटाक्च यादि में, श्रज्ञार करने में विरोष चतुर होती ह अतएव इनमं आकषण ओौर मोह कदराक्ति अधिक रहती है, अतः नगरवाटी षचतुर- नारियाँ का प्रेमपा्र होना पुरुष के छिए विरोष गौरव दे ।

“अग्रेजातं रविः हन्ति । बृहतारश्षरीकार

अथे– वरृतीयभावस्थ रविं बड़े भाई के छिए मारक होता है ।

“सरक शौर्यं श्रिय मुदारं स्वजनशत्रुं सहजगः ।*> मंतरेश्वर

अथे–यदि जन्मकुंडली मेँ ठृतीयभाव में सूर्यं हो तो मनुष्य बली, चूर ओर श्रीयुक्त होता है । यदह उदार ओर अपने पक्ष के रोगों का शत्रु होता रै । अर्थात्‌ अपने भाई-जन्धुयं के साथ इसका वर्ताव शत्रु जसा होता है ।

“रः दुजंन सेवितोऽतिधनवान्‌ त्यागी तरतीये रवौ ।* वदनाय

अथे- जिस मनुष्य के जन्मसमय म सूर्थं तीसरे स्थान मे हो वह श्यूर, दुज॑नों से सेवा ग्रहण करनेवाला, धनाल्य तथा त्यागी होता है ।

विक्रांतो बल्युक्तो विनष्ट सहजः व्रतीयगेसूरयं । लोके मतोऽभिरामः प्राज्ञो जित दुष्ट पक्चश्च | कल्याणवर्मा

अथे–जिस मनुष्य के जन्म समय मेँ सूर्यं तीसरे स्थान मे हो तो वह्‌ पराक्रमी, वल्वान्‌; श्राव्रहीन, सवंजनप्रिय;, सन्दर आओौर प्राज्ञ होता ै। यह अपने पश्च के विरोध मे चल्नेवाङे दुष्टों को जीतनेवाटा होता है ।

^ प्रियंवदः स्याद्‌ धनवाहनाब्या कर्म चिप्तेऽनुष्वरान्वितश्च ।

मितानुजः स्याद्‌ मनुजो वलीयान्‌ दिनाधिनाये सहजे.ऽधिसंस्थे “° दु डिराज

अथे–जिस मनुष्य के जन्मसमय मे सूर्यं त्रतीयभावमे होतो वह मीठा ओर प्यारा बो बोल्नेवाखा होता दै । यह धनसम्पन्न होता है-इसे वाहनखुख गर्त होता है। इसका चिष्त श्युभ कर्म करने मे लगता है। इसके धर पर नौकर-चाकर होते है । इसके छोटे भाई थोडे होते दै । यह शारीरिक शक्ति- सम्पन्न होता है |

“मति विक्रमवान्‌ व्रुतीयगेऽकँ ।।2 आाचायंवराहभिहिर

अथे- जिस मनुष्य के जन्मकाल मे सूर्य॑ तरतीयभाव मेँ हो वह बुद्धिमान्‌ तथा पराक्रमी होता है ।

सूर्यफर २९

“भूरिप्राज्ञँ ूरिसत्सादयुक्तो भ्राताऽसौख्यः श्राव्रभावेदिनेरो 1 लयदेव

अथे– जिसके वृतीयभाव मे सूर्यं हो वह विरोषं बुद्धिवान्‌ होता है। इसे काम करने मं भारी उत्साह होता रहै । इसे भाई का युख नहीं मिलता है ।

^^तृतीयस्ये दिवानाथे प्रसिद्धो रोग व्जितः। भूपतिश्च सुरीलश्च दयाद्श्च मवेन्नरः ।> काशिनाथ

अथे- जिसके ठृतीयभाव में सूर्यं हो तो वह विख्यात, नीरोग, सुशीलः

दयां ओौर भूपति होता है । श्रियवद्‌ः स्याद्धनवाहनान्यः सुकमं चि्तोऽनुष्वरान्वितश्च । मितान॒जः स्यात्‌ मनुजोवटीयान्‌ दिनाधिनाथे सहजाधिसंस्थे |” महेशः

अ्थ- जिस मनुष्य के जन्मलग्न से तीसरेभावमें सूर्यं स्थित होतो वह मधुरभाषी, धनवान्‌ , वाहनयुक्त तथा नौकरों से युक्त होता है| इसका चिम्त दुभ कर्मो कीओर आकृष्ट होता है। इसके छोटे माई संख्या मं थोडे होते ह । यह बलवान्‌ होता है ।

““यदा शमसखेटस्वरतीयास्थितो नेककदानिरोगोहि शीरींसखन्‌ ।

सद्‌ा मोदते रम्यसीमन्तिनीमिः सवारो धनाम्यो हि निः कोपरान्‌॥ खानखाना

अर्थ- यदि सूर्यं तृतीयमाव में दो तो मनुष्य नामवर, करिफायतशार, नीरोग, मीठा बोलनेवाला होता है । यदह सुन्दर च्ियँं का उपभोग केनेवात्य , सवारीपर चलनेवाला, धनवान्‌ ओर क्रोधहीन होता हे ।

भ्रगुसूत्र– “बुद्धिमान्‌, अन॒जरदिंतः, च्येष्टनाशः । प्चमेवषे षतुरष्ट- दराद्शवषे वा किचित्‌ पीड़ा । पापयुते ऋूरकतां । द्विभ्राठमान्‌ पराक्रमी । युद दयूरश्च, कीर्तिमान्‌ । निजधनमोगी । छमयुते सोदरलृद्धिः । भावाधिपे ब्युते भ्रात्रदीर्घायुः । पापयुते पापेक्षणवच्ान्‌ नाशः । ञयमवीक्षणवद्ाद्‌ धनवान्‌? भोगी सुखी च ।

अ्थ– यदि सूर्यं तीसरेभाव में होतो मनुष्य बुद्धिमान्‌ होता है। इसे छोटे भाई नद्यं होते । बडे भाई की मृघ्यु होती है। चोये, पंचम में, आयवे वा बारहवें वर्षं कुछ पीडा होती है । यदि वरतीयभावके सूयं के साथ कोई पापग्रह युति करे तो मनुष्यक्रूर होताहै। इसकेदो माई होतेह । यह पराक्रमी, रणद्यूर, यडास्वी तथा अपने धन का उपभोग करनेवाला होता हे । इस भाव के सूर्यके साथ किसी श्यभग्रह कीयुति होतो मादइयों की बदोत्री होती है । यदि व्रतीयेश बलवान्‌ दो तो इसके भाई दीर्घायु होते ह । यदि। कोई पापीग्रह साथमे हो, अथवा पापीग्रहकी द्ष्टिहो तो भायां कानाश होता है । यदि इस भावके सू्यंपर श्भग्रह की दृष्टि दो तो मनुष्य धनवान्‌; भोगलेनेवाला ओर सुखी होता है ।

यवनमत-यह पदवीधर, ख्यातनामा, नीसेग, मीठा बोलनेवाला) सुन्दरच्िर्यो

३.० चमत्कारचिन्तामणि का तुरख्नात्मक स्वाध्याय

का भोक्ता, विवसी, चनी, घोडे की सवारी मं कुशल, निश्चयी, धनवान्‌ ओौर दान्त होता है । इत्ति बहुत गम्मीर होती है । भाई-बन्धुओं का सौख्य इसको नहीं मिलता । किन्तु यह सवको सुख देने के प्रयल् करता हे

रिप्पणी-घनवान्‌ ओर रान्तच्रन्ति होना, ये फठ स््रीरारि के ह अन्यफट
पुरुषरारियों मं मिख्ते है  

पाञ्चात्यमत- स्थिर ओर निश्चयी, विज्ञान ओर कटा का प्रेमी, निवास- स्थान क्रचित्‌ ही वद्लनेवाला । जल वा चरराशि मं बहुत से छोटे प्रवास हो सकते हं | ।

रिप्पणी–ऊपर के फठ पुरुषरारि के है ।

विचार ओर अलुभव- तव्रतीयस्थान में मेष रादि कारविदहो तो मनुष्य ` दुब विष्वारों का, आल्सी, शरीर को कष्ट न देनेवाला, वातूनी, बडे भाई को मारक, निख्यमी ओौर उपद्रवकारी होता दै) रोष पुरुषरादियोँमं रविदहोतो यान्त; वि्वारदीट, बुद्धिमान्‌ , सामाजिक, शिक्षासम्बन्धी तथा राजकीय काम मं भाग ठकेनेवाला, नेता, स्थानीय स्वराज्यसंस्था, टोकल्बोडं आदि मे चुनाव ख्डनेवाला, अध्यक्ष वा उपाध्यक्च का पद, बड्ी-बडी कम्पनिर्यो का डादरैक्टर, इस तरद किसी भी स्थान पर अपनी सम्ता रखनेवाला होता है । यह बात अधिकारपूणं अधिकारसे करता हे। इसके नीचे के रोग काम प्रमपूर्वक करते दै । मिथुन, ठला वा धनु मं रवि हो तो मनुष्य ठेखक, प्रकाशकः; प्रोफेर(र र वकील आदि व्यवसायों मं अग्रणी होता है |

पुरूषराशि का रवि बड़ माई को मारक होता है । बड़े भाई की मृत्यु ररव वं तक हो जाती दै-यदि नदीं हई तो वह विभक्त होता दै । विभाजन के समय रान्ति रहती है । ्ग्डा-फिंसाद्‌ नदीं होता । दोनों माई एक दही स्थान पर नदीं रह सकते, यदि रहे तो बड़े भाई का काम नदीं चल्ता ! वचो की मौत होती हे ओर भी कई एक कष्ट होते है ।

खीरागि का रवि हो तो विभाजन सम्बन्धी ज्षगडे कोर मे चलते हैः । जिसके तृतीय मं रवि हो उसे माद के साथ नदीं रहना वा्िए अन्यथा एकं दूसरे के माग्योदय मं कई एक विघ्र उपस्थित होगे ।

जिसके वरृतीवस्थान मे पुरुषराशि का रवि हो वद मनुष्य अपने पिता का कलोता वचा होता दै । यदि कोई भाई रहे भी तो उससे कोई लाभ नदीं होता, कोद मदद्‌ नहीं मिलती । यह मनुष्य या तो सवसे बडा होता है या सबसे छोटा दोता हे । ख्ीराशि का रवि हो तो माह-बहिन दो सकते है । खीरासि के रवि के 9.५ की दष्ट से अच्छे मिटते हँ । मनुष्य धन-वाहन सम्प होता है । यह राव्‌ सतात क लिट मी अच्छ” है । जिनकी ऊुण्डटी मे व्रतीयस्थान मे रवि होता देवे दानदयूर होतेरहै। |

सू्यफल ३१ चतुथेभावफरख- तुरीये दिनेदोऽतिङोभाधिकारी जनः संछभेत्‌ विग्रहे बंधुतोऽपि । म्रवासी विपक्षाहवे मानभङ्गं कदाचिन्न शान्तं भवेत्‌ तस्य चेतः ॥४॥ अन्वयः- दिनेश ठरीये ८ सति ) जनः अतिदोभाधिकारी ( स्यात्‌ ) बधु- तोऽपि विरहं संहछमेत्‌ । प्रवासी ( स्यात्‌ ) विपक्चाहवे मानभङ्गं ( प्राप्नुयात्‌) तस्य चेतः कदाचित्‌ रातं न भवेत्‌ ॥ ४ ॥ सं< ठी<- तुरीये सुखभावे दिने सूयं विद्यमाने जनः मनुष्यः अतिखोभा- धिकारी अतिदोभाधिकारोयो अधिकारः द्रव्य-संपत्‌ एकमान्यतारूपः तस्मात्‌ हेतोः बन्धुतः स्वजनेभ्यः किमुत अन्येभ्यः विग्रहं कलहं तथा विप्षाहवे रानरु- संग्रामे मानभगं अद॒ल्मेदं आमनोति; प्रवासी विदेशगमनरीटः भवेत्‌ । तस्य चेतः मानसं कदाचित्‌ न शान्तं मवेत्‌-कदाचित्‌ न शान्ति भजेत्‌-खदा व्याकर स्यात्‌ ॥ ४ ॥ अथं :- जिस मनुष्य के जन्मल्य से चौयेस्थान मे सूर्यं दो तो उसे अति- रोभायुक्त अधिकार प्रास्त होता है। भाईै-बंधुओं से भी उसका विग्रह अर्थात्‌ लड़ाई -क्लगड़ा रहता है । वह परदेश मे निवास करता दै । युद्ध मे शत्रुओं दारा इसका मानभंग होता है । किंसी समय भी इसका चिष्त शान्त नहीं रहता है । अथात्‌ इसके चिप्त मेँ घबराहट सदैव रहती दहै ॥ ४ ॥ रिप्पणी-“अतिशोभाधिकारी इसके अर्थं मेँ टीकाकारो मेँ परस्पर मतभेद है । एक टीकाकार ने “यह अत्यंत सुन्दर होता है” ेखा अर्थ किया है । किसी एक टीकाकार ने “वतुथभावस्थसू्यं का जातक स्वतः ही शोभायुक्त तथा अधिकारी होता दै” ेसा अथं किया है । मेरे विचार में ष्वतुर्थसूर्थं मनुष्य को एेसा अधि- कार दिखाता है जिससे मनष्य की अनुपम शोभा बद्‌ जाती है-खोगो की दृष्टि में यह भनुष्य बहुत ऊगचा उठ जाता ह । खोग इसे एक प्रतिष्ठित व्यक्ति मानते दै- राज्यसन्ता पाकर यह मनुष्य सभी प्रकार से धन-यरा-मान-परतिष्ठा आदि से सम्पन्न हो जाता है| मट्रजी ने यदी एकमात्र श्चमफल चतुथसूयं का बतलाया है शेष सभी फल अद्युभ के है ।

संस्कृत टीकाकार (मानभङ्गः का पयाय अतुलमेदं” छ्खिा है । इस पर्याय का अथं स्पष्ट नहीं हे । भवाः मूर णविडौजाः दीकावाटी बात पाई जाती है | अथं को स्पष्ट करने के लिट पयय उपयोग मँ लए जाते है ।

  • सदेव चित्त का अशान्त रहना । चतुर्थरवि का महान्‌ अश्चम फल है । इसके विपत्तिजनक परिणाम देखने मे आसकते है-दान-तप-यक् आदि चमकम चित्त- शान्तिके लिए दी किए जाते है । पाश्चात्य देरों मे वाञ्छनीय सभी पदार्थं उप- न्धं है, केवर (मनःशान्तिः “7०००८ ० पण7व्‌” ही उपलन्ध नहीं है- रेवा ` श्रुतिगोषर हो रहा हे ।

३२ चमत्कारचिन्तामणि का तुखनात्मक स्वाध्याय

तुखना- “तुरीये मार्तण्डे नरपतिकुटादथनिवहो ; भवेत्‌ माननातः कलिरपिष्व बन्धोः प्रसरति ॥ विपक्षाणां युद्रे भवति विजयो जातु न मवेत्‌), तथा चिप्त पुंसां व्रजति नदि गांतिखलजनात्‌ |> जौवनाथ अ्थ- जिस मनुष्य के जन्मसमय में सूर्य॑ चठथंभावमें हो उसे राजकुलः से धन ओौर मान की प्रापि होती है। किन्तु मादय से कलह, युद्ध में पराजय ओौर दुज॑नों से सदाचित्त अशान्त ओर उदधि रदता हे । रिप्पणी-जीवनाथ के मत में चवुर्थभावस्थ सूयं के शुभफल केवल्मात्र धन ओर मानप्रापि है, अन्य सभी फल अञ्युम है । इनके अनुसार !उस्वाधि कार प्राप्तिः चुथंरवि का फल नदीं है यदि नरपतिकुर से मानप्राप्ि का निहित अथं अधिकार प्राति होतो दूसरी बात दै । ग्रहों का राजा सूयं है । अतः सूर्य राजा से उच्चाधिकार प्राति करवा सकता है-ठेसा मेरा विष्वार है । शुभफल ग्रह्‌ की तारकराक्ति के ह ओौर अद्युभफल ग्रह की मारकराक्ति के ह । ““सुखार्भदीनः चल्वासधीश्च द्यद्‌विद्मचित्तः सुखगे दिनेरो 1? जपदेव अथे- जिसके सुखभाव अर्थात्‌ चतुर्थभाव में सूर्यं हो उस मनुष्य को धन का सुख नदीं होता हे । यह सुखसे भी वंचित रहता है । इसकी बुद्धि स्थिर नीं होती है । अर्थात्‌ यह अस्थिर विषारों का प्राणी होता दहै । इसके व्र भी बहुत देर चल्नेवाठे नहीं होते। दूसरा अर्थं यह ॒एकस्थान पर टिककर नदीं रहता हे परदेश में भटकता फिरता है ¡ इसका चित्त अद्ान्त रहता है अर्थात्‌ इसे मानसिक शान्ति मी नहीं मिरती है । टिप्पणी-जयदेव के मत में वचतुर्थसू्य अञ्चुभफल दाता है। फलित ज्यौतिष ग्रन्थों में शुख’ दाब्दं का प्रयोग बार-बार क्या गया दै। दुःखाभाव को सुख का है । दुःख तीन प्रकार केर्है–(६) आध्यासिक (२) आधिमौतिक (३) आधि- दैविक । अथात्‌ जिस मनुष्य को तीनों प्रकारके दुभखखठन हों उसे ही सुखी कहा जा सक्ता है । एसे कितने मनुष्य है जिन्है एेसा सुख प्रास है यह विषय अनुभवगम्य हे | “चतुथे सूर्यं दुवुंद्धिः छलांग: सुखवर्जितः । अप्रभावो निष्ठस्थ दुष्ट संगो भवेन्नरः ॥°? कक्लिनाय अथे- जिसके चतुर्थस्थान मे सूर्य हो वह मरंष्य मूख, दुर्ट, सुखदीन, निष्टुर तथा बुरों कौ संगति में रहनेवादय होता है– यह प्रभावराटी नदीं होता दै– अथात्‌ यद्‌ अपने व्यक्तित्व से किसी को प्रभावित नहीं कर सकता है । ‘जनयतीयं सुहृदि सूयो विसुख बन्ध क्षिति सुद । भवन मुक्तं पत्ति सेवाजनकसम्पद्‌ व्ययकरम्‌ ॥ मंत्रेश्वर

३ सू्यंफ ।&।

अर्थ-यदि जन्मल्य्र से ष्वतुर्थभाव में सूयं हो तो मनुष्य सुखहीनः, बन्धुदीनः भूमिदीन, मिजरदित तथा भवनद्ीन होता है ! इसे राजसेवा प्राप्त होती है । यदह सम्पत्ति को न्ट करनेवाल्य होता है । रिप्पणी- म॑तरश्वर के मत मे भी चतुर्भाव का सूर्यं प्रायः अञ्चमहीहे। ५हद्रोगी धन-धान्य-बुदधि रहितः ूरः खस्थे रवौ ॥ वनाय अ्थ- जिसके जन्मलय्र से चतर्थभाव मे सूर्य॑दहो उसे हदय के रोग ( विक्रार ) होते द। यह मनुष्य धनदीनः धान्यद्धीन-ुद्धिहीन तथा करर होता दै । रिप्पणी- वैयनाथ मत मे मी षतुर्थसू्यं अश्चभफल्दाता है । (“सौख्येन यानेन धनेनदीनं तातस्य चित्तोफहतप्रवृत्तम्‌ । प्लन्निवासं कुरुते पुभांसं पाताल्णाटी नलिनी विलासी । महेश अर्ध–यदि जन्मलग्न से चतुर्थस्थाने सूयं दो तो मनुष्य शुखदीन, वाहनरहित, धनदहीन ओर पितासे विरोध करनेवासख होता है। यह अपने घर मे. स्थायीरूपेण रने नदीं पाता दै-अर्थात्‌ देश-विदेश घूञ्नता-भरकता फिरता है । अतः गृहसुखदहीन भीः होता है । “यदा मादरागारगः सम्डखेटः सुखी नो हि शंसः परेशानकः स्यात्‌। सदा म्खानविष्तोऽथ वेदयारतो बा तदा जायते बेखुशी हिर्जगरः ।।° ख।भस।ना अथै- यदि सूर्य्य से प्ुथ॑भाव मे हो तो मनुष्य खुखी नदीं होता रै 1 यह स्व॑दा सन्दे हयुक्त भौर परेशान रहता है । यह प्रसन्नवित्त नहीं र्ता दै वेद्याओं मे आसक्त, निरानन्दं तथा व्यथं धूमनेवाला होता रै । रिष्पणी-साहित्य के अन्यो मे इस प्रकरण में परकीयानायिकां के वणन के अनन्तर पण्यवनिताके रूपमे वेद्या काभी वर्णन किया मया है–किन्तु ये वेद्यार्ण शरष्ठकल्कार होती थी । चोंसठकलयओं की जानकारी रखती थीं ये रूपाजीवा नहीं होती ्थी- प्रत्युत संयमरीर होती थीं ये भ्रांत तथा भ्रष्ट युवकों की कामानच्छ्यान्ति का साधन नहीं होती थीं । उदाहरण मे वसन्तसेना, चारुदत्त की प्रेमिका, देखो मृच्छकरिकनाटक । अतन भारत की वेद्याओं की परिस्थिति कुर भीर ही है । चतुथंभाव का सूर्यं मनुष्य को वेद्यागामी भी बनाता है-यह महान्‌ अनर्थकारी अञ्यभफट है । विसुखः पीडितमानसः वचठथं ।॥” आ चायंवराहमिहिर अ्थ–चुथंभावस्थ सूर्यं हो तो मनुष्य खुखहयीन तथा अान्तचित्त होता है। | “वाहनवन्धुविद्यीनः पीडितहदयः ष्तुरथ॑के सूरय । पिचर-ण्ह-धन-नाद(करः भवति नरः कुरपसेवी ॥ कत्यागवमां अ्थै–जिस मनुष्य के जन्मसमय मे चतुर्थभाव सूर हो तो वह बन्धु-

३.४ चमत्कारचिन्तामणि का तुरनात्मक स्वाध्याय

बान्धवो के सुख से वञ्चित रहता दे- इसे सवारी का सुख नहीं होता है। यह दयम दुःख का अनुभव करता दहै। यह पिता का विरोधी, धर-गहस्थी ओर धन को उजाडनेवाला होता है । यह चर्तिहीन राजा के आश्रय में रहता दहै। “धविविधजनविहदारी बन्धुसंस्थः दिनशो भवति च ग्रदुचेताः गीतवाद्यानुरक्तः । समरदिरसि युद्धे नास्ति भंगः कदाचित्‌ प्रचुरधनकलट्ची; पार्थिवानां पियश्च मावसागर अ्थे– यदि सूर्यं बन्धुभाव (चतुथैभाव) मेहो तो मनुष्य लोकप्रिय तथा सर्वजनप्रिय होता दै। यह कोमट्हदयदोता दै) इसका प्रेम गीत ओर वाद्रकलाओं मं डोता हे यह युद्ध में आगे होकर र्डता दहै कभी प्रीठ नहीं दिखाता दहै । इसे खीसुख तथा विपुल्धन-सुख मिलता है | यह राजप्रिय

  • होता है। रिप्पणी-मानसागर के अनुसार चतर्थंभावका सूर्यं सर्वथा शुभ तथा कल्याणकारी दे । भ्रगुसत्र-दीनंगः, अदहंकारी, जनविरोधी; उष्णदेही, मनःपीड़ावान्‌ । दवाविशद्वप्र॑सवकर्मानुकूट्वान्‌ । वहुप्रतिष्ठासिद्धिः । सप्ता-पदवी-ज्ञान रोर्य॑सम्पच्नः। धनधान्यहीनः | भावधिपे वट्युते सक्षेत्रे, चिकोणे केन्द्रे लक्चणावेक्षया आंदोलिका प्रातिः । पापयुते पापवीक्षणवराद्‌ दुष्टस्थाने दुर्बाहनसिद्धिः । क्षे्रहीनः । परदे एववासः । अथ- जिसके जन्मसमय मे चतुर्थमावमें सूर्यं हो वह मनुष्य दीनांग होता है, अर्थात्‌ उसके रारौरमे कोड अंग विकलवा कम होता दै। यह्‌ अहंकारी ( घमण्डी ) होता है। यह प्रायः आमटरोगों ते कडार ञ्चगड़ा करता रहता है । इसका रारीर गमं रहता दहै। इसके मन मे पीडा रहती दै। २२्वे वधं मं इसपर सभी काम टीक हो जाते है यह सुप्रतिष्ठित हो जाता है। इसे राञ्यसत्ता-कोई पदवी ( अधिकार ) ज्ञान-बहादुरी मिलते है । यह धनदहीन ओर धान्यदहीन होता दै । वदि चतधंश्च बल्वान्‌ हो, अपनी रारि में, जरिकोण मवा क्न्द्रमंद्ोतो इते सवारी क लिए पालकी मिख्ती है । यदि चतुर्थशक साथ कोड पापग्रह हो अथवा पापग्रदरकीदटि दो | अथवा चतुथंश कसी दुष्स्थानमं स्थित दहो तौ इसे अच्छी सवारी नदी मिल्ती। इसके पास जमीन नदीं दती । इसे दूसरे के घर पर निवास करना हाता ह । यवनमत- यद सुख नदीं देता । संशयी, म॒रस्चाए चरे का, वदयासेवी, सौर शतरुयुक्त होता दै । पागल जेसी मंदवुद्धि होती है । पाश्चात्यसमत-रवि वल्यान वा ध॒मग्रहोंसे दष्टदहोतो अच्छी स्थिति पराप्त होती है। आयु के अन्तिमि भागम यश की प्रापि होती दहे। पिता को भी सुख देतादहै।

सूर्यफल ३.५

विचार ओर अलुभव-चदुथ॑भावस्थित सूर्य॑ मानसागर के इष्टिकोण से शभ फलदाता है । अन्य सब प्राचीन ग्रन्थकारो ने इसके फट बुरे बताए ह । स््रयं को सुख नही, हृदय में पीड़ा, वाहनों का सुख नही, भाई-जन्धुों सेसुलकान होना, पिताका, धर काओौर धन का नाश, बुद्धिमां, ऋूरता युद्ध से भागजाना बहुत पर्ि्यो का होना, पिता से विरोध, धर मे वैमनस्य, सगड़ा; दुष्टां के कारण मानसिक विता, अस्थिर विष्वार, रोगों पर॒ प्रभावन पड़ना । ये सभी फल तब मिर्ते है जब सूर्य-दृष, सिह, इृधिक वा कुंभ म हो | यदी रवि यदि मेष या कक मेँ हो तो मनुष्य संशयी, म्खान चेहरे का, ओर वेद्यागामी होता दै ।

मानसागरी के बताए हुए ॒श्चभफल तब मिलते है जब सूर्यं मिथुन, कन्या, तुला; धनु, मकर ओर मीन में हो। रवि जिस स्थान में होता है उसका फल नष्ट होता है यद किसी अन्थकार का मतपीरे कहा है । इसके अनुसार ्वौयेस्थान मे रवि हो तो ब्वपन में माता व पिताकीम्रत्युह्ोभै है। व्वपन में कई एक ओर भी कष्ट होते &। किन्तु ९२८ से ५० वषं मे स्थिति भच्छी रहती दै । मनुष्य अपनी कमाई से घर आदि बना केता है । एकस्री, संतति भी थोड़ी-नौकरी अच्छी, मध्यायु मे वादनसुख । उत्तरवय फिर से कष्टमय बीतता है । किन्तु मृत्यु शांति से ओौर शीघ्र यह बात स्मरण रखने योग्य हँ कि शाञ्जकारो ने जो फट बताए वे अकेठे रवि के नदीं प्र्युत इसरविं के साथ मंगल, शानि ओर राह का संबेघ भी रहता हे । चतुथं रवि का सामान्यफल निम्न है :- पहिली अवस्था में दुःख; मध्य मेँ सुख, बृद्धावस्था मं पुनः दुःख । पंचमभाव- “सुतस्थानगे पूवंजापत्यतापी कराभ्रामतिः भास्करे मंत्रविद्या । रतिः वंचने संचकोऽपि प्रमादी मृतिः कोडरोगादिजा भावनीयाः? ॥ ५॥

अन्वयः–भास्करे सुतस्थानगे ( नरः ) पूवंजापत्यतापी ( स्यात्‌ >) ८ तस्य ) मतिः कुराग्रा ( भवति ) तस्य मंत्रविया ( स्यात्‌ ) ८ तस्य ) रतिः कंचने ( स्यात्‌ ) (सः) सकः ८ स्यात्‌) प्रमादी ( स्यात्‌ ) ८ तस्य) मृतिः क्रोडरोगादिजा भावनीया ॥ ५ ॥ |

सं: टी अथसुतमावफल्म्‌- भास्करे युतस्थानगे प्॑वमे सति नरः पूवंजापव्यताप्री पूरवंजस्य प्रथमजातस्य अपत्यस्य पुत्रस्यतापी तापवान्‌ , तन्मरणात्‌ दोक ततो दुःखं प्राप्नुयात्‌ इत्यथः | मंत्रविद्या यस्य इति सः आगमवेत्ता नीतिद्याखरज्ता वा; प्रमादी असावधानः, संचकः द्रव्यसं्वयकरत्‌ भवेत्‌ इत्यथः । तथा तस्य मतिः बुद्धिः कुद्रा अतिसृष्ष्मवस्तु विचारणी । वंचने पुरुषप्रतारणे रतिः प्रीतिः, मृतिः क्रोडरोगादिजा कुक्षिमवरोगादिजा भावनीया ॥ ५ ॥

` ३.६ चसत्कारचिन्तामणि रा कुरुनाव्मक <नाध्याय

अथैः- जिस मनुष्य के जन्मल््र से पंष्वमस्थान में सूर्यं हो वह प्रथमयपुत्र से कष्ट पाता है। इसकी बुद्धि सृष्ष्मातिसूक्ष्म पदाथ को भी समन लेनेवाटी होती दै । यह मनुष्य मजार का पंडित होता है | दूसर्रोको ठगने में इसे भारी आनन्द आता दहै । यद द्रव्य का संग्रह करनेवाला होता है । यह प्रमादी होता दै अर्थात्‌ असावधान भौर बेिक्र अथवा वेपरवाह भौर मस्त रहता हे । इसकी मौत का कारण क्टेजे की पीड़ा दोती दे ॥ ५ ॥

रिष्यणी–्येष्टपुत्र के साथ वैमनस्य, अनवन तथा निव्यग्रति कख्ह्‌ घरों मै प्रायः रहती है । यह प्रतिदिन का अनुभवदहै। एेसाक्यां होतादहै इसके कारण ग्रतिव्यक्ति-प्रतिकुडम्ब भिन्न-मिन्न होते द । किन्तु प्रधान कारण सास का पुत्रवधू के साथ परस्पर मतभेद्‌ होता दै । इस मतभेद का अवांछनीय परिणाम पितापर पड़ता दै पिता निष्पक्च रहने का बहुतेरा यतन करता हेतौ भी उसे मानचिक संताप वना रहता है । कई स्थानों मं पुत्र धर छोडकर अन्यत्र निवास करता है । पंचमस्थान के सूयं का यह फट महान्‌ अमगटकारी दै । संसत शीकाकार ते तो व्ये्ठपुत्र मरण संताप का कारण निर्दिष्ट किया हे। जये्ठपुत्र पिता को वहुतप्रिय होता है, उसका मरण तो पिता के लिए अपना दी मरण होता दै |

ंत्रविद्या-कोरा के अनुसार मंत्रशब्द के कर्दएक अथं है–वेद गुस्तमापण, किसी देवता आदि की सिद्धि प्रास् करने के छिए उपयोग मं लाया गया मत्र, मं्रमाग-एकान्त म किया गया कोई निश्चय प्रकत मं मच्रराख्र का ज्ञान तथा मत्रगाखनज्ञ विद्धान्‌ मंतव्य हो सकता है ।

कोडरोगादिजा- क्रोडरोग के कईएक अर्थं है–कुक्षिरोग-वक्चःस्थलरोग जटररोग-फेफडोँ का रोग, हृदयरोग ।

आजकर हृदयरोग से प्रायः मोतं दो रही है । प्दार-अटैकः मंतव्य हो सक्ताहे। क्याउनसभीके प्ममे सूर्य॑हैजो हृदयरोग के दिकार दहो रदे हं १ यदह वात विष्वारणीय है– केवल पंचमरवि दी हृदयरोग कारक दै, एेसा नही हे 1 वैनाथ कै अनुसार ्वतुथंसू्यं मी दृदयरोगकारक है ।

उल्ना–“यदादित्येऽपव्येग्रथमतनयो याति विख्यं । ऊुगाग्रा वेबुद्धिः कपटपटताऽतीववितता ॥ प्रसक्तेः मंनाणां प्रभवति रतिः वंष्वनपरा । तथातस्य क्रोडाभय निवहः भोगेन निधनम्‌ ॥” जीवलाथ अथे- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे सूयं प॑चममाव मे दो उसका स्थेष्ठ पुत्र खलु पाता दै । मनुष्य कुाग्रदुद्धि, कपट करने मँ अत्यन्त चतुर, मन््रविदा का भु | दूसरों को ठगने मै पूर्णतया तत्पर तथा हृद्‌ रोगसे मल्यु प्राप्त करता

सूर्यकफल ३७

रिप्पणी- नारायणम ने “अपत्यः शब्द्‌ ब्रयुक्त किया है-अपत्य का अथं पुत्र भी दो सकता दै प्पु्रीः भी दो सकता है–अतः पश्चममाव का सूर्य जेठापुत्र-जटीपुत्री दोनों के छिए मारकं है-रेसा अथं खसंगत है, नारायणभड़ के टीकाकार ने “अपत्यः का अर्थं श्व्येष्ठपुत्रः ही किया है। मेरा विष्वार संकुचित अथं के ग्रहण करने के विरोध में है । किन्तु जीवनाथ ने स्पष्ट शब्दों से “उ्येष्ठतनयः श्येष्ठपुत्र दी प्रतिपादित किया है। अर्थात्‌ पञ्चमभाव का सूयं ज्येष्ठपुत्र’ वा ““्येष्ठापुन्री के लिए तो मारक है किन्तु “अनुजः भौर “अनुजा के पञ्चम रवि से कोरे भय नदीं है यह्‌ मम है ।

'”वि-सत्‌ क्रिया पत्यधनोवनेगो दिनाधिनाथे सुतभावयाते ॥ जयदेव

अर्थ- जिस मनुष्य के जन्मलय्म से पञ्चमभाव मे सूर्यं हो तो वह श्चभकरमं नदीं करता दै । यह संतानदहीन ओर धनष्टीन दहोतादै। ओर यह वन में भटकता फिरता है ।

‘“सुख-सुत-वित्तविंहीनः कषंणगिरिदुगंसेवकः्वपटः | मेधावी बररदहितः स्वल्पायुः पञ्चमे तपने ॥› कल्याणवर्भा

अथे- जिस मनुष्य के जन्मकाल से पञ्चमस्थान में सूयं हो तो इसे सुख-संतान ८ सुत ) ओर धन नहीं मिर्ते ह । यह पहाड़ ` ओौर किलो पर धूमता-फिरता है । यह चञ्चछ, मेधा सम्पन्न, निल भौर थोड़ी यायु भोगने वाला होता है। “तनयगतदिनेशे शेरावे दुःखभागी न भवति धनभागी यौवने म्याधियुक्तः । जनयति सुतमेकं च्रान्यगे दश्च रः चपल्यतिर्विलरसी करूरकमा कुनेताः ॥ मानलागर

अथ–जिसके प्॑मभाव मेँ सूयं हो तो ब्रह वपन मे दुःखी रहता है- इसे धनपापि नहीं होती है । इसे जवानी में रोग होते है| इते एक ही पुत्र ोता है। इसे दूसरों के घर मँ रहना होता है । यद यूर, ्वचट्ुद्धिः ओर विखसी होता है ।

यह बुरे काम करता रै भौर यह बुरी षलह देता है। कुचेताः’ का दूसरा अथं– इसके चित्त की भावना बुरी होती है ।› अर्थात्‌ यदह मातरदुष् होता है । |

“सुख धनायुस्तनयदहीनं छखमतिमात्यन्पट विगम्‌ ॥? भन्त्रे्वर

अथै- जिस मनुष्य के जन्मकाल मे सूयं पञ्चमस्थान मेँ दीतो यह सुखहीन, धनदीन, अस्पायु तथा पुत्रहीन होता हे । इसकी बुद्धि अच्छी ती है । यह पहाड़ मे घूमता रहता हे ।

“राजप्रियः, ‘वञ्चलबुद्धियुक्तः प्रवासशीलः सुतंगेदिनेरो ॥” वंदताथ

अथं-जिसके प्वमभाव मे सूर्य॑ हो वटं राजा कौ प्यारा, पञ्चरबुद्धि तथा परदेश जानेवाला, होता है ।

३८ ष्वमत्कारचिन्तासणि का तुखनात्मक स्वाध्याय

‘“अदुतः धनवर्जितः त्रिकोणे ॥ > ल्ाचायंवराहुमिहिर

अ्थ- जिसके पंचम मेंसूर्यं हो तो यदह पुत्ररहित, तथा धनदहौन होता दै । “स्वस्यापत्यं यैव्टुगेरामक्तं सौख्यैः युक्तं सक्रियार्थैः वियुक्तम्‌ । श्रातं स्वांतं मानवं हि प्रकुर्यात्‌ सृ नस्थाने भानुमान वत॑मानः ॥» दुडिराज अथे-जिस मनुष्य के जन्मसमय में सूर्यं पञ्चममाष में हो तो इसे थोडी सन्तान होती दै । यह पहाड़ों यओौर किलं मं घूमता रहता दै । यदह रिवभक्त होता है। यह रखुखी होता है। यह धनहीन ओौर अश्चभकमं करनेवाला होता ह] यह भ्रान्त रहता दै अर्थात्‌ इनकी मति स्थिर ओौर निश्चयात्मक नहीं होती हे | “स्वल्पापत्यं रोल्दुर्गेदाभक्तं सौख्यः युक्तं सत्‌ क्रियार्थैः विसुक्तम्‌ । भ्रात स्वांतं मानवं दहि प्रकुर्यात्‌ सुनस्थाने भानुमान्‌ वतमानः ॥ » भहेश्च अथं- जिसके पञ्चमभाव में सूर्य हो तो इसे सन्तान थोडी होती है । यदह वनो मे, किये पर धूमता रहता है–यह दिवमक्ति करता है। किन्तु इसे सुख पदीं होता ह । यदह एेते श्चुभकम- निष्काम कमं नहीं करता दहै जिनके करने से खत्‌ अर्थात्‌ परब्रह्म की प्राप्ति हो । यह निधन होता है ओर इसका अन्तःकरण श्रान्त रदता ई । टिप्यणी–^सत्‌ त्रियायंः विमुक्तम्‌? यदौ पर॒ “सत्‌? का अथ “सत्यस्वरूप परब्रह्म करना उचित होगा; क्योकि परब्रह्म को छोड़कर ओौर कोई पदाथं सत्य नदीं है । पख्रद्य की सत्ता से ही सभी पदार्थ यह दद्यमान जगत्‌ सत्य प्रतीत होता है, क्योकि समी पदार्थं पारमार्थिक सन्ता से रदित है, ओर इनकी सत्ता केवल प्रतीति मार है । क्रिया कार्थ कर्म, अर्थात्‌ निष्कामकमेः करना उचित होगा । रेसे शभ तथा निष्काम कर्म, जिनका अथ अर्थात्‌ “प्रयोजन -सत्‌’ अथात्‌ त्रिकार्सत्य परब्रह्म की प्राति हो । जिस मनुष्य के पञ्चमभाव मं सूयं हो उसके सभी कर्म॑परब्रह्मप्रासि की ओर छे जानेवाले नदीं होते है, मर्थात्‌ यदह ॒मोक्षमाति की इच्छा से श्चभक्मं नहीं करता है-मरत्युत इसके कमं सषसारसागर मं इबोनेवाठे होते ई । यह म्म है। “अङ्कखाने यदा शम्दाखेटः तदा मानवो मानीनः सदा जादिलः । स्वल्पसगप्रजश्चौयंचिन्ताधियुग्‌ रुस्स्वरों धमकार्ये सर्दा काटिटः |; खनखाना अथे–यदि सूर्य॑ पञ्चमभाव मँ हो तो मनुष्य मानदीन, मखं, थोडी खी- संग मौर थोड़ी सन्तानवाला होता है । यह धिता तथा व्यथा से युक्त, चोरी करनेवाला; अत्यन्त क्रोधी ओौर धमं के कामीं मे आलस करनेवाटा होता हे । श्रगुसूत्र- निधनः । स्थू्देदी । सप्तमे वपं पितर-अरिषटवान्‌ । मेघावी, अस्पप्ः; बुद्धिमान्‌ । भावाधिपे बख्युते प्रसिद्धिः । राहु-केवयुते सपंशापात्‌

सूयंफलः ३९

सुतक्षयः । कुजयुते शतुयुते मूलात्‌ । शमदृषटयुते न दोषः। सूयंशरभादिषु भक्तः । बलयुते पुत्र समृद्धिः ।

अथे-जिस मनुष्य के जन्मसमय मे सूयं पञ्चमभावमे दो तो वह निधंन होता है । यह स्थूल देह होता है । सातवें वषं में इसके पिता को अरिष्ट होता है । यह मेधा सम्पन्न ओर बुद्धिमान्‌ होता है ।› शसे पुत्र-संतान थोड़ी होती है । यदि पञ्चमभावेश बल्वान्‌ हो तो पुत्र-सन्तान होती है । यदि पञ्चमेश के साथ राहु-केठु का सम्बन्धदोतो सपंशापसे पुत्र नष्ट होते ै। यदि मङ्गल युति करे अथवा शततुग्रह के साथ सम्बन्ध होतो मूर से स॒ुत्षय होता है । यदि श्चभग्रह का सम्बन्ध हो, अथवा शुभग्रह की दृष्टि हो तो सुतक्षय नदीं होता है । सूर्य, शरभ आदि का भक्त होता है । यदि पञ्चमेश बख्वान्‌ हो तो पुत्र होते ई ।

यवनमत-मानदहीन, सन्तति कम, मृखं, क्रोधी, नास्तिक ओर धार्मिक कार्यो मेँ विश्न करनेवाला होता है ।

पाश्चात्यसमत-जलख्राशि से भिन्नरारियों में दो तो सन्तति नदीं होती । जल- राशि म हो तो बच्चे कमजोर ओर बीमार होते है। ष्न्द्र, गुरु वा श्रु वदँ साथमेनदहोंवा रवि पर उनकीदृष्टिनदहदोतोमर भी जाते है । विलस आओौर खरीसङ्ग मँ खुशा र्ता है । पेसे बहुत खप्वे करता है ।

विचार ओर अनुभव–शाख्रकारों का प्रायः मतभूयस्त्व है किं अस्प- सन्तति, सन्तति का न होना वा होकर मरजाना, ये फल पञ्चमभावस्थित रवि के | रविं पुरुषराशि का हो तो ये फठ मिर्ते ह ।

कक, वृश्चिक ओौर मीन मे रवि दो तो शारीरिक कष्ट ओौर दुःख होता दै । बुरी बुद्धि, बुरे कम, क्रोधी; ऊुरूपः कुशीक; बुरी सङ्गति मँ रहना ये फट तम मिरूते ई जब रविं दृष, कन्या वा मकर मे हो । यवनमत का अनुभव मिथुन, ठला भौर कम्भरारियोँ मे मिख्ता हे ।

मेष, सिह, धनुरारियो मे पञ्चमभाव का रवि होतो शिश्चा पूरी मिलती है । मेष के सूर्यं मे सन्तान नदीं होती । सिहमेंरविदहदोतो सन्तान ष्टोती दै किन्तु शीघ्र ही मृष्युभ्रस्त होती है । यदि जीवित रहेतोबापभौर मोँके दपः लाभकारी नदीं होती । इस सन्तान का भाग्योदय मोँ-नापके वाद होता हे। रिक्षा ५ होनेपर भी व्यवदारकुशठ्ता होती हे । धनु का रवि रिक्षाके षि अच्छा है।

यदि पञ्चमरवि इष, कन्या, मकर, ककं, बृधिक आर मीन में हो तो मनुष्य स्वा्थपरायण, कंजूस, दुखरों के खुख-दुःख की पर्वाह न करनेवाला होता है ।

व्यापार अच्छा रहता है । सन्तति होकर जीवित रहती है । चैसा भी होता है।

मिथुन; ठट ओौर कुम्भ में रवि हो तो मनुष्य विच्याव्यासङ्खी, ठेखकः प्रका-

० चमत्कारचिन्तामणि का तुखनात्मक स्वाध्याय

दाक, आदि व्यवसायी होते है। दो पलियां मी सम्भव हैँ । ऊपर छिखा राशियों का रवि प्रसिद्धिदायक होता है) अधिकारीवृत्ति दोती दै | किन्तु सन्तति नहीं होती ¦ पत्नी सन्तति प्रतिबन्धक रोगो से प्रस्त रहती दहै। पूवंजोंकेरापसे या तो सन्तति होती नदीं वा होकर नष्ट हो जाती है । तीन वषं कठोर साधना- उपासना की आवदयक्ता दै इससे सन्तति होगी ओर जीवित रहेगी ।

किसी भी रारि में पञ्चमरवि–पुत्र कम, कन्यार्प अधिक देता हे । षष्ट माव-

“भिपुध्वंसक्रद्‌ भास्करो यस्य षष्ठे तनोति व्ययं राजतो मित्रतोऽपि । कुरे मातुरापद्‌ चतुष्पादतोवा प्रयाणे निषादैः विषादं करोतिः ॥६॥

अन्वय :-मास्करः यस्य॒ षष्ठे ( स्यात्‌ ) ( सः ) रिपुष्वंसक्रत्‌ ( भवतिं ) राजतः; मित्रतो वा ( स्वकीयं ) व्ययं तनोति । ( तस्य) मावः कुठे आपत्‌ ( स्यात्‌ ) वा चव॒ष्पादतः आपत्‌ ( स्यात्‌ ) प्रयाणे निषादैः विषादं करोति ॥६॥

सं° टी<-अथ परष्ठ्ावस्थ रविफटं–यस्य षष्टे रिपुभवने भास्करः सः रिपुष्वंसक्रत्‌ रच्रुघाती स्यात्‌ । तथा राजतः राजदण्ड निमित्तात्‌, मित्रतः मित्र- कायं हेतोः वा व्ययं द्रव्यव्ययं तनोति कुर्यात्‌ । तथा प्रयाणे यात्रायां निषदे भिष्छः देठमिः विषाद्‌ दुःखं करोति । मागं चौरकृत डंठनवशात्‌ दुःखं प्राप्नुयात्‌ इत्यथः । मातुः कुठे मात्रवेयौ तथा चवुष्पादतः अश्वादिष्ु आपत्‌ विपत्तिः अथवा मातरकुलत्‌ वाहनपतनात्‌ श्रं गिषद्धातात्‌ वा दुःखं भवेत्‌ । अस्मिन्‌ व्याख्याने कुलात्‌? इतिपाठः ॥ £ ॥

अथे :- जिस मनुष्य के जन्मलग्न से छ्टेस्थान मेँ सूयं हो तो वह अपने नुं का नाद करता है । यदह राजदण्ड देने के निमित्त से, अथवा विपत्ति मं फंसे हुए मित्र को विपत्ति से दछुटकारा दिखाने की खातिर, अपने धन का खव करता हे । यह स्वयं चाहे सर्वथा मितव्ययी हो इसके धन का खर्वं राजदण्ड का अुगतान करने के लिए ओौर अपने मिरकी सहायता करने के लिए बद्‌ जाता हे । जिसका परिणाम निर्धनता दती है । इसके माता के कुर मे आपत्ति रहती हे अर्थात्‌ छठेभाव का सूर्यं मामा, मामी आदि के लिए अनिष्ट तथा भम- ङ्ट्कारी होता है । इसे गाय-भस आदि चौपाए जानवरों से हानि पर्हैचती हे । कीमती गाय॒-भ॑स आदि पर्युओं के मरण से इसे आर्थिक हानि पर्हचती हे। अ वा किसी तीखे सींगों वाले चौपाए पञ्च के अपघातसे मार्मिक चोट आजाने से शारीरिक हानि परहुचती है । यह परदेश जाता दै रास्ते मे भील से, अथवां अन्य म्लेच्छ वा जङ्गटी जातियों से, अथवा चोरों से लट जाने के कारण इसे भारी कष्ट भोगना पड़ता है। इस तगह छठेमाव का सूर्य अश्चभफ देता हे ॥ ६ ॥

सूयंफ़र ७१

तुखना–“दिवाभता षष्ठे प्रनख्रिपुहतां ग्ययष्वयै, धराभत॑ः दण्डात्‌हितजन वश्ाच्ापि कुरुते | जनन्या गोतरार्तिः गजब़षतुरङ्गादिषु विपत्‌, ` प्रयाणे भिस्खा्येः बहुतर विवादो जनिमताम्‌ ॥:› जोवनाथ अर्थ–जिस मनुष्य के जन्मसमय मे सूयं छ्ठेभाव मे हो तो यह अपने रात्रुओं का नाशा करता है चाहे ये रात्रु कितने ही दात्तिराटी क्योनहो।. राजदण्ड देने के लिए तथा अपने मित्र की सहायता करने के निमित्त यह अपने धन को भारी मात्रा मे खच करता है । इसके माघ्रकुर मे कष्ट होता ३ । हाथौ-घोडा-बेक आदि चौपाए पश्चओं की मृत्यु होती है अथवा इन पञ्च को रोग होते ह जिनसे कष्ट होता है । परदेश की यारा मे भिस्छ आदि जातियों से विवाद होता है। रिष्पणी-भट्रनारायण तथा जीवनाथ के मतम छटेभाव मे स्थित सूर्य का श्युभफलषएक दही है ओर वह॒ प्रबख्यतु नारा । रोष सम्पूर्णं फर अञ्युभ जेसे अधिक धनव्ययः, मातरङ्कल मे विपत्ति, हाथी-घोड़ा-गाय-भसख आदि मूल्यवान्‌ पञ्चओं की हानि, चोरो से डर जाना, जङ्खटी खोगों से सुठभंड़-ख्डाई सगड़ा होना । “सत्व-सौख्य-धनवान्‌. रिपुदंता यान-मानसदितोऽरिगेऽके ॥* जयदेव अथे- जिसके शत्रुभाव (छ्टेमाव) मे सूयं हो वह मनुष्य सत्ववान्‌ अर्थात्‌ बख्वान्‌ होता है । यह सुखी, धनवान्‌ तथा शतुओं का नादश्च करनेवाला होता है । इसे सवारी का सुख मिक्ता रै, रोगों मेँ यह एक मान्य्यक्ति द्योता है । “षे सूय क्षतारिश ख्यातनामा खखी षिः । दयूरोऽनुरागी भूपाल सम्पतश्च भवेन्नरः |> कोाश्चिनाथ अ्थं- जिस मनुष्य के जन्मकाल में सूर्यं छ्टेभाव मे हो वह शत्रुओं का नाश करनेवाखा होता है । यष्ट विख्यात; सुखी तथा पवित्रात्मा होता ह । यह बहादुर, परेममय स्वभाव का तथा यजमान्य होता हे । “शश्वत्‌ सौख्येनान्वितः रातुहंता सत्वोपेतः चारख्यानः महौजाः । पृथ्वीभतः स्यादमात्योहिमर््यः शचुक्षेत्रे मित्रसंस्थः यदि स्यात्‌ ॥? दुंडिराज अर्थ–जिसके जन्मकाल मे सूर्यं छटेभाव में हो वह बली, सुखी, शातरु- विजेता, उत्तम वाहनों से युक्त, तेजस्वी भौर राजा का मन्त्री होता हे । रिप्पणी–दरंदिराज के मत मेँ छ्ठेभाव का सूयं अतीव श्चभफल दाता है । ““प्रचल्मदनोद्रा्निः बख्वान्‌ षष्ठ समाश्रिते भानौ । श्रीमान्‌ विख्यातगुणः वपति दण्डनेता वा ॥ कल्याणवर्मा अथे- जिसके सूर्यं छटठेभावमें हदो तो उसकी जठराभ्नि भौर कामाग्नि

७२ चमर्कारचिन्तामणि का तुरुनात्मकू स्वाध्याय

तीव्र होती ई । अर्थात्‌ मनुष्य भोजनभड तथा प्रव कामुक होता दहै । यह बल्वान्‌ , श्रीमान्‌ , अपने गुणों से प्रसिद्ध होता है, यह यातो राजा होता दहै अथवा सेनापति-वा न्यायाधीरा होता है । “वलवान्‌ शात्रुजितश्च शत्रुजाते ॥2 भाचायं वराहमिहिर अथे– जिसके छठेमाव मेँ सूयं हो वह्‌ वलवान्‌ तथा राघ्तुविजयी होता है । दिष्पणी-वराहजी तथा कल्याणवर्मा के अनुसार छठासूर्यं ञ्यभफल दाता है । “ग्रथित सूर्वोपतिमरिस्थः सुगुणसंपद्‌ विजयगम्‌ ॥» भन्त्रेश्चर

अथे–यदि चछ्टेमावमें सूर्यं होतो मनुष्य विख्यात तथा यशस्वी राजा होता है । यह गुणसम्पन्न, संपत्तिवान्‌ तथा विजयी होता दै ।

“अरिद्हगतभानौ योगरीखोमतिस्थो निजजन हितकारी ज्ञातिवगंप्रमोदी। कररातनुः गृहमेधी चास्मूर्तिः विलासी, भवति ष्व रिपुजेता कमंपूज्यो दृदांगः ॥ मानसानर

अथे–जिख मनुष्य के जन्मसमय मेँ सूर्यं छ्ठेमावमें दो वह योगी, मतिमान; अपने पक्ष के कोगों का दहित चाहनेवाला, अपने भाई-वंदों को खुश रखनेवाखा, दुवला-पतला शरीर, सदा धर बनाकर खहस्थी चलानेवाला, अन्दर तथा विली होता दे।

टिष्पणी-मानसागरके मतम छ्टेभाव का सूर्यं श्चभफल्द होता है। यवनो के मतम छटेभाव में स्थित पापग्रह अनिष्टफल्दायक होते ्है। इस मतको स्वीकार करते हुए वराहजी ने “शत्रुजितः’ “शत्तुभिः पराजितः एसा अश्युभफक भी बताया है। वख्वान्‌ दोना श्युभ फलक है । यह किसी एक का मत है। संपादक ने “शत्रवः जिताः येन सः शत्तुजितः” एेखा विग्रह करिया हे । “’ष्ठाश्रितोऽकं विष-राखर-दादक्षद्रोगरतरुव्यखनोपतसान्‌ , ` काष्टादमपाताच विद्ीणेदंता-न्यूनेऽय्वीदंधिनखिक्षतांश्च । कुजोगतस्तत्र परिश्वतांगं दग्‌ व्याधितं धिकूकृति कितं च, सौरः रिरोऽदमनिपातवात द्विमुष्टिघातोपहतं च कुर्यात्‌ ।” स्पुलि्वलः

अथ- जिस मनुष्य के जन्मसमय में सूयं छ्ठेभावमें हो तो इसे विष से, शच से, अभ्रिदाह से, श्वुत्रोग से, शत्रुओं से तथा व्यसनों से उपताप होता है । इसके दांत खकड़ी अथवा पत्थर केः ऊपर पड़ने से टूट जाते है । यह जंगलो मं मारा-मारा फिरता है । इसके जा्धों ौर पार्थो पर नाखूनो से व्रण होते रहै ।

यह छटेभाव का सूयं शिर या पत्थर पर गिर पड़ने से, वायुरोग से, परस्पर मुक्राबाजी से दुःखित करता है ।

सूयंफर ७३

(“शश्वत्‌ सौख्येनान्वितः शाततुदंता सत्वोपेतश्चाख्यानो महौजाः 1 परथ्वीमर्व॑ः स्यादमात्यो हि मत्यः शनुकषेत्े मिन्रसंस्थो यदि स्यात्‌ ।।*› अहेश अथै– यदि छ्ठेभाव मे सूर्यं हो तो मनुष्य निरन्तर सुखी रहता दहै । इसे दात्रुबाधा नदीं होती । प्रत्युत यदह शत्रुओं को मार गिराता है । यद पराक्रमी पुरुष होता है । इसके सवारी के वाहन उत्तमे .होते ई । यदह महान्‌ तेजस्वी होता दै । भौर राजा का मन्त्री दोता है ५ टिष्पणी- स्फुजिष्वज के अनुसार छटासूयं मान अनर्थकारी ओर कष्ट कारी है । किन्त महेश के अनुसार छुटसूयं अत्युतम फल का देनेवाला दे । “यदा मज॑खाने भवेदाफताबो जलीटोगनी सखलूरोदं अवाष्वः । सदा मातृपक्षोद्धृतस्यायलग्धिः निरोगो नरः शततुमदी तदा स्यात्‌ ॥> खानखाना अथ-यदिं सूयं छटेभाव मे हो तो मनुष्य अत्यन्त धनी, अत्यन्त सुन्दर,

कम बोलनेवाला, मात्रपक्ष से (मामा के धर से ) सव॑दा धनप्रासि करनेवाला; नीरोग भौर शत्रुं को जीतनेवाला होता हे ।

श्गुसूत्र-अस्प्ञातिः; रानुडद्धिः, धनधान्यसमद्धिः । विंद्यतिवषं ने्- वैपरीत्यम्‌ । श्चभदष्ट-युते न दोषः । अहिकानन पारङृत्‌ मन्नसेवी, कीर्विमान्‌ , शोकरोगी, महोष्णदेही । श्चभयुते भावाधिपे देहारोग्यम्‌ । श्ाति-शत्ु बाहूस्यम्‌ । भावापिपे दुर्बले शत्तुनाशःः, पितृदुर्बलः |

अथं–जिस मनुष्य के जन्मकाल मेँ सूयं छ्ठेभाव में दो तो इसके भाई- बन्धु संख्याम कमहोतेर्दै। इसके शत्रु भारी संख्यामें होते है। इसे धन ओर धान्य का सुख मिख्ता हे । वीसर्वे वधं मे ओंखों मेँ भारी उल्ट-फेर होता है ।

यदिं शस भाव के सूयं के साथ श्चुभग्रह युति करे, अथवा इस पर श्ुम-मह कीदष्टि्ोतो ओखिं ठीक रहती ्दै। सोप से, जंगल से कष्ट नहीं होता है। यष्ट॒मंत्रराख्र को जाननेवाखा होतारहै। यह कीर्तिमान्‌ होता रै। इसे किखी के मरण से शोक होता रै भौर इसे रोग होते ई । इसका देह खूब ग्म सहता है । यदि कोड श्चभग्रह षष्टेश के साथ सम्बन्ध करे तो देदह नीरोग रहता है । भाई-बान्धव ओर शत्रु अधिक संख्या मे होते है ।

यदि षष्ठे दुब॑टहोतो शत्रु नष्टदहोतेरैओौरपिताको कष्ट होता है)

यवनमत– यह धनवान्‌; सुन्दर, नीरोग, श्रयं पर तजय पानेवाल, ओौर मामा का सुख परानेवाल होता है।

पाश्चत्यमत- तबीयत अच्छी नहीं रहती । रवि दूषितिहोतो बहुत अर लम्बी बीमारियों होतौ है । स्थिर राशियों मे हो तो गले के रोग-जैते किन्सी डिपथीरिया, ब्राङ्काइरिस, अस्थमा-होते ई ।

हदय के रोग, पीठ ओौर कुक्षि का निवे होना, मूत्तरोग,ये फल होते ह । साधारण राशियों मे ओौर खासकर कन्या ओौर मौनमेक्षयका डर होता

४ चमत्कारचिन्तामणि का तुरनात्मक स्वाध्याय

दे । फेफड़ं मे बाधा पर्हु्वती दै । चर रारियों में यक्त के रोग, निरत्साह । छाती का दुव होना; पेट के रोग, सन्धिवात, कोई बड़ा जख्म इन रोगां की सम्भावना रहती है | विचार ओर अलुभव– श्री वराहमिहिरने छ्ठेमाव के सूर्य॑का फुल अथ्यम बतलाया हे । यरो तक शत्र का सम्बन्ध है । आष्वा्यं जी के अनुसार षष्ठस्य सूयं से मनुष्य शत्रुओं द्वारा पराजित होता है । मन्य मरन्यकातसें न सूयं का फल ‘रिपुहन्ता, शातुहन्ता शक्षतारिः आदि बताया है । दूसरे गन्द में अथम्‌ स्थानस्थित पाप वाक्रूख्रह सूर्यं शत्रुविजयरूपी श्यभफलक का दाता होता ह । रिपुमाव का फट रिपुदरद्धि होता दै । इसका नादा रात्रुनार ही हो सकता दे । इस प्रसङ्ग में मद्चोत्यल्जी ने स्पष्टतया बताया है कि रिपुभाव के विषय में वराहजी ने यवनेश्वरमत का अनुसरण क्रिया दै । यवनेश्वरमत है कि षष्ठस्थान- स्थित पाप्रह अनिष्टफल ही देते है । सत्याचार्यजी कामतहै किं यदि सूयं छ्ठेभाव मं हो तो शत्रुनाशक, रोगनाशक, शोकनाद्क, तथा त्ऋणनादाक होता है| | इसके विरुद्ध यवनमत है करि छटासूयं विष-राख्र-भगरिदाद-मूख-शतरु-भदि से मनुष्य को दुख का अनुभव करवाता है । स्फुजिष्वज के अनुसार प्ष्ठस्थरत्रि क प्रभाव मं आए हुए मनुष्यके दत, जमीन पर गिरजानेसे वा राटी के आध्ातसे द्ूट जाते है । यह परदेश मेँ धूमता-फिरता है । यात्रा मे इसे जङ्गल के ईदिसकपञ्युर्थं से उर होता है। हिंसकजीवों के आधात से शरीर मं त्रण होते है । यदि मङ्गलसाथमे होतो शारीरिक इन्द्रियो मे तरण होते है। नानाविध चश्चुरोग होते ह । यदि शनि साथमे हो तो मनुष्य पत्थर पर गिरता दे । विजली गिरने से प्राणों कामय होताहै। पेटमें वायुरोगसे दुःख होता दे । इसी सन्दर्भ मे ऊपर छ्िखा पाश्चात्यमत मी पठनीय तथा विष्वारणीय दै । प्स्थसुयं से मनुष्य सुखी होता दै, प्रेमी यौर पवित्र होता है । घ्ष्ठस्थ सूयं मात्रपक्च के लिए यभ नहीं । चुखी होना, प्रेभी भौर पवित्र होना-छ्रीरारि के फठ हं । सरकार से राएबहादुर आदि पदवियोँ ओर उपाधियों की मराति, अभि- कारी होना, तथा योगाभ्यासी होना आदि-आदि फल पुरुषरारियौं के है । पा्चा्यमत मं वर्णित फल सख्रीरारियींकेरै। यदि रवि पुरुषरारि मं हो तो मनुष्य कामुक, धमण्डी, क्रोधी, भोजनमभड््‌, पहली उमर मे उपदंश, प्रमेह आदि रोगों से प्रस्त होकर उत्तर भायुमे कष्ट पाता है, इसके मामा का पक्ष नष्ट होता दे । मौसी विधवा होती दै । अथवा यह पुत्रहीन रहती है इसके नौकर बुरे होते ह । स्वयं नोकरी करे तो यह अपने से ऊपर के अधिकारियों सेव्डताहे। यह रवि स््रीराशि का हो तो मनुष्य रमँहतोड़ जवाब नहीं देता मीरा बोलता है ओौर अपना कामबनाकेतादै। खीराशिके रविम सभी श्चभफल

सूय॑षरु ७५

मिरूते ई । मामा-मौसी के िए भी श्म है। मामा, मौसी बहुत होते है इनसे भी सम्बन्ध अच्छे रहते ्है। इस तरह छ्टेसूयं के श्भ-अश्चभ । दोनों पकार के फट मिरूते है | | सप्तमभाव- ‘द्युनाथो यद्‌ा दयूनजातो नरस्य प्रियातापनं पिंडपीडा च चिन्ता । भवेत्‌ तुच्छरुन्धिः कयेविक्रयेऽपि प्रतिस्पधेया नेति निद्रां कदाचित्‌?” ॥ ७ ॥ अन्वयः–नुनाथः यदा नरस्य यूनजातो भवेत्‌ ( तदा) (तस्य) प्रियातापनं पिंडपीडा, चिता च भवेत्‌ । क्रये-विक्रये अपि ( तस्य ) ठव॒च्छलन्धिः भवेत्‌ । प्रतिस्पधेया कदाचित्‌ ८ अपि ) निद्रां न एति ॥ ७॥ सं टी०-अथं खतमरविफल्म्‌-यदा द्युनाथः सूरयः चूनजातः सत्तमगः; तदा नरस्य प्रियातापनं ख्रीकेशः, पिण्डपीडा, शरीरकष्टं च, तथा चिन्ता तत्पदार्था लाभे मनो व्याङर्त्वं । क्रये वस्वसंग्रहे, विक्रये गृहीतवस्तु विनिमये तुच्छरन्धिः स्वल्पलाभो भवेत्‌, तथा प्रतिस्पधंया प्रतिवादीदष्यया कदाचित्‌ न निद्रां एति रमेत्‌ इत्यर्थः ॥ ७ ॥ अथं :- जिस भनुष्य के जन्मलग्न से सातवेंस्थान में सूर्यं हो उसे खी केश, शरीरपीडा ओर मानसिक चिन्ता होती है। व्यापारमे उसे बहुत थोडा लाभ होता है। मन मे सव॑दा रोगों का डाह रहने से खख से नीद मौ नदीं ` आती है ॥ ७॥ | | तुखना–““प्रचडांञ्चः कामे जननसमये यस्यभवतिं , प्रियायाः संतापं सपदि कुरुते तस्य सततम्‌ । तथा कष्टं ॑देहे हदि परमचिन्तामपिखत्णद्‌ 5 अनस्प व्यापारादपि च परमायाति न धनम्‌ ॥ भीवत्ाथ अथे–जिस मनुष्य के जन्मसखमय मे जन्मल्य्र से सातवे स्थान मे सूर्य होतोदइसकीख्रीको कष्ट, इसके शरीरमें कष्ट, तथा दुष्टौ के कारण इसके मन मेँ चिन्ताहोती हे | चाद कितना ही क्रय-विक्रयरूपी व्यापार से धन कमाने कायत करे तौ भी इसे परचुरमाच्रा मे धनप्राप्त नदीं होता रै । ““ल्रीकृत स्वविख्यो तरपमीतो सुग्युतो रिपुतोऽस्तगतेऽकं ।।> जयदेव अथे- जिस मनुष्य का जन्म सततमभावस्थ सूर्य॑के प्रभावमे होता है उसके छिए खरी ही सवसव होती है वह अपने अस्तित्व को खो चैठता है ओर स्री म अपना विलय कर देता है । इसे राजासे भय होता है। इसे रोग होते है । इसे दात्रुनाधा भी रहती है । ये सम्पूणं अ्चभफल सत्तमसूयं के ई । “न्त्री द्वेषी मवनस्थिते दिनकरेऽतीव प्रकोपी खलः ॥* व॑घ्यनाथ अथ– जिस मनुष्य के जन्मलग्न से सातवें स्थान में सूर्॑दहोतो इसका लियो से वैमनस्य रहता है अर्थात्‌ यदह लियो का तिरस्कार करता है) यह

४६ चमत्कारचिन्तामणि का तुरखनात्मक स्वाध्याय

अत्यन्त क्रोधी ओर खल अर्थात्‌ दुर्जन होता दहै । अर्थात्‌ सस्तमभाव का सू पतिपत्ती मे अनवन-छडा-माखठवां रखता है-षेसा होना दोपत्य सुख का बाधकं ह । “श्रीभिः गतः परिभवं मदगे पतंगे? | बाचार्यंवराहमिहिर अथं-जिसके जन्मसमय में ट्म से सप्तमसूर्धं हो तो इसे ल्यं से तिरस्कार अर्थात्‌ अनादर प्रात होता है । अर्थात्‌ सिय इसकी ओर नजर उठाकर भी नदीं देखती हँ । अर्थात्‌ यह च्िर्यो का ध्रणापात्र होता हे । ““नरपविसद्धं कुतनु यस्तेऽध्वगमद्‌ारं ह्यवमतम्‌ ।।2 मंत्रेश्वर अथे– जिसके जन्मल्य से सातवे स्थानम सूर्यहो तो यह राजा से विरोध रखता हे । अर्थात्‌ इसके आष्वरण से राजा इसके विरुद्ध होता है ओर इसे दण्डित करने के लिए को न कोद निमित्त द्वंटृता दै ओर अन्ततः दण्ड रेता हे । भाव यह है कि राजा द्वारा दण्डित होने के कारण इसका मान इसकी प्रतिष्ठा धूल में मिल जाती दै, ओौर यह सवत्र अपमानित होता दहै । यदह शरीर से दानीय नदीं होता है। यदं पैदल चठ्ता है क्योकि इसे सवारी का सुख नदीं होता दै । यदह खरीहीन होता है । घर-णहस्थी तभी चलती है यदिस्रीका सहयोग प्राप्त हो । खरी के अभाव में पुरूष धर्म-अथं ओौर काम से वञ्चित रद जाता है । “भार्या त्रिवगं करणम्‌? एेसा वष्वन है । यद्‌ सर्वत्र अपमानित होता हे । मन्तेश्वरजी के अनुसार सप्तमरत नेष्ट दै | ‘सतमेऽके कुदार दुष्टप्रीतोऽल्पपुत्रकः | गुह्यरोगी सपापश्च जातको हि प्रजायते 12 काशिनाथ

अथं– जिसके जन्मकालमे ल्यसे सूर्यं सप्तमस्थानमेदहो तो मनुष्य को सच्छीखरीके साय संसारयात्रा करने का सौभाग्य नहीं मिल्ता है । अर्थात्‌ इसकी स्री दुश्रसिा होती है। प्राचीन भारतमें खी का सर्वोत्तमगुण उसकी सचरित्रिता थी । पातित्रत्य इसका भूषण था । ठ्जा इसका “अल्छ्ारः था । यह्‌ पतिप्रिया ओर भ्रियवादिनी होती थी। जिस मनुष्य के सूर्य सक्तममें हो उसे एेसीचखीं का सहयोग प्राप्त नद्धं होता है व्यहं गूटुतात्पर्यः कुदारः? विदोषणका दै |

इस मनुष्य के प्रेमपात्र दुष्ट खेग दोते दँ । इसे पुत्रसुख थोड़ा मिक्ता हे । यह गुसरोगों से दुःखी रहता दै–अर्थात्‌ इसे उपर्द॑श, प्रमेह आदि रोग होते ह । यह पापी-पापकर्मा होता दै । ‘“उुवतिभवन संस्थे ास्करे ल्लीषिखसी, न भवति सुखभागी व्व॑चलः पापशीलः । उद्रसमदारीरो नातिदीर्घो न हस्वः, कपिलनयनरूपः पिगकेशः कुमूर्तिः ॥

. लानसायर

अथ यदि मनुष्य के जन्मसमय में जन्मल्य से सूर्यं कल्त्रस्थान में

अथात्‌ सत्तमभावमें स्थितद्ोतो मनुष्यको खरी का भोग-उपभोग मिख्ता

सूुयेफल ७

दै । किन्तु यह सुखी नहीं होता दै । यह अस्थिर स्वभाव का आर पापकमं कर्ता दहोता ३ै। उद्र ओौर देह एक बराबर होते है, यदह मनुष्यन तो बहुत लम्बा होता है ओर नदी छोय होता है। इसका रूपरंग भौर ओख कपिर होती दै । इसके केश पीठे होते दै ओौर यह कुरूप होता है । मानसागर के अनुसार सप्तमभाव का सूयं पतिपत्री का सौमनस्य कायम रखता है अन्यथा मनुष्य को स्री का उपभोग कयोकर मिल सकता है । स्रीसुख का होना सप्तमभावस्थ सूयं का श्चभफर है– यदह भावार्थं दहै । “निःश्रीकः परिभूतः कुशरीरो व्याधितः पुमान्‌ चुने । गृपबन्धनसन्तसोऽमागेरतो युवति विद्धेषी || कल्पाणयर्मा अथै–यदि सप्तमभावमे सूर्यहो तो मनुष्य, लक्ष्मी से वञ्चित रहता है, अर्थात्‌ निधन होता दै । लोग इसे प्रतिष्ठित ग्यक्ति नहीं समक्चते ई । रोगों के कारण इसका दारीर ठीक नहीं रहता है । राजा से तथा कारावास से सन्ताप होता है । यह कुमागंगामी होता है । इसे अपनी सनौ से अथवा सियो से प्यार नहीं होता है। अर्थात्‌ इसका लियो से वैमनस्य रहता है ।

“भिया विमुक्तः हतकायकांतिः भयामयाभ्यां सहितः कुशीलः । नरृपप्रकोपाऽर्विङ्शो मनुष्यः सीमन्तिनसद्मनि पद्मनीडो ॥* दुडिराज अर्थ- जिस मनुष्य के जन्मसखमय मे लप्र से सूर्यं ससम दो वह निधन होता है। इसका शरीर कांतिमान्‌ नदीं होता है, अर्थात्‌ यदह ॒रोबीे चेहरे ` का मनुष्य नदीं दोता है इसे डर ख्गा रहता है । इसे रोग होते ई । यह शुद्ध आष्वरण का मनुष्य नहीं होता है । इसका शरीर राजा के भयसे तथा दुःखों आर पीडाभों से सूखा हव्या रहता है । महेश ओर ढंदिराज का श्छोकपाठ मेँ तथा अर्थं मे अत्यन्त साम्य रहै, अतः महेश का फल नदीं छिखा है । ‘“यदासम्शखेटः स्मरस्थानगश्चितया व्याकुलो ना भवेत्‌ कामुकः । सदाक्षीयते कामिनीभिः महावष्वको युद्धभूमौ चलोजम्बरः ॥” खानसखाना अर्थ–यदि सूयं सक्तममाव मे हो तो मनुष्य सव॑दा वितायुक्त, व्याकुक, कामी, बहु-खी-उपभोग से क्षीण, ठग अौर समर मे विजयी होता हे । | श्रगुसूत्र- विवाह विलम्बनम्‌ । खरी देषी, परदाररतः, दारद्वयवान्‌ । पचर्विडातिवं देशांतरप्रवेशः। अभक्ष्यभक्षणः । विनोद्लीः। दारदरेषी | नादा तबुद्धिः । स्वक्ष बलवति एकदारवान्‌। शतुनीचवीक्षिते पापयुते वीक्षणेः बहूदारवान्‌ । अ्थै- यदि सप्तमभावका सूर्य॑ होतो विवाह देरसे होता है। मनुष्य ली से विरोध रखता है अर्थात्‌ पतिपत्ती का सौमनस्य नदं रहता हे । यद दो छि का पति होता है अर्थात्‌ प्रथमास्रीके मृदु से दितीया घरमे ल जाती है, अथवा प्रथमा के जीवित रहते ही दूसरी खी का प्रवेश होता हे ।

७८ चमत्कारचिन्तामणि का तुखनाव्मक स्वाध्याय

ठेसी परिस्थिति के अनेक कारण हो सकते है । अपनीस्नी से वैमनस्य होने से परकीयाच्िरयो मं सक्त रहता है । २५ वे वषं परदेशगमन होता दे । अभक्ष्य पदार्थो का मक्षण करता है । मनुष्य विनोदी अर्थात्‌ मजाकिया स्वभाव का होता हे । लियो के साथ विरोध रखता है । विपरीतमति तथा नाशोन्मुख होत हे । यदि सत्तभरविं स्वग्रही हो ओर वख्वान होतो मनुष्यकी पलीएकदही होती है । यदि यदह सूं शत्ुयरह वा नीचरादिगतग्रहसे दृष्ट हो अथवा किसी पापग्रह सेदच्ष्टदोतो मनुष्य की बहत ल्िर्योँ होती । टिप्पणी-आज से ४०-‘९० वपं पदे अंग्रेजी राज्य मं ओौर इससे भी बहुत पहठे का में जव यवनराञ्यसत्ता प्ूणतया शक्ति-संपन्न थी छोटी उमर मे विवाह कर देनेकी प्रथाका चलन था। हिन्दु अपनी ल्ना ओर प्रतिष्ठा को क्वान की खातिर अपनी कन्याओं का विवाह बहुत छोटी उमरमें कर देते थे, यवनराज्य में हिन्दुों की अविवादित कन्याओं का अपहरण दोता था इस यौर अनाष्वार से वष्ने की खातिर अबोध-वचियां का विवाह तभी कर दिया जाता था जव वे १०-१२ वषंकी होती थीं । इस छोरी उमर की शादियों को याय तथा धर्मशा्त्रानुचूःढ ठहराने के टिए– “अष्टवर्षा भवेद्‌ गौरी दशवष ष्व रोहिणीः आदि की दुहाई दी जाती थी। समय परितंनरीट दै विच्याध्ययन से छोगोँ मे जाखति आई । रनै-रने छोटी उमर के विवादों मे कटक दोष दृष्टिगोचर हए कदईएक कष्ट अनुभव मेँ आए परिणामतः छोटी उमर के विवाहों का चट्न बंद हो गया इसमें कानून ने भी उपयोगी सहायता की । अव विलम्ब से विवाह करने की प्रथा चल निकली है। इस समय यह प्रथा प्रौदावस्था मे है। मनपसंद शादी करने का विष्वार प्रायः जनमतानुकरल हे । बी.ए.एम-ए.बी.टी.वी.एड उपाधिप्रा् ठड्किर्यो स्वेच्छानुकूक वर-प्राप्त करने कौ अमिल्पा में प्रौटा हो जाती ह । इसी तरह मनोऽनुकूल्म ठ्डकी प्राप्त करने कणे इच्छा से ल्ड्के भी पूर्णतया यौवनारूट्‌ हो जाते दै । यह समय का पयितंन है । भ्ररुसूत के अनुसार सप्तमभावस्थित सूं विवाह में देरी करवाता है। जिनका विवाह विलम्ब से होता है क्या इनके सप्तमभावमें सूर्य हे? यह एकः विचारणीय विषय है । इस पर दैवज्ञ विष्वार करेगे | “दारदेषीः यह विदोषण उस समय की ओर संकेत करता है जब पति-पल्ती मे परस्पर नेविककल्ह ओौर ्लगड़े होते है ओौर अन्ततः ध्विवाह विच्छेदकः कानून का सहारा लिया जाता है । विवाह विन्छेद्‌ से पति-पत्ती को क्या सभ होता है इसका अनुभव तो उन्है ही होता है जो इसके पक्ष मे ई । मेरे विष्वार से तो दम्पति में कठहजन्य वैरभावना को जागत करने के छिए तथा पतित्रत अओौर एकनारीव्रत की मावनां को निसत्साहित करने के छिए ओौर विभाजन

४1 सूयंफक ४९

को प्रोत्साहन देने के टखिएः ओर आयय॑सभ्यता की जड़ को कायने के लिए यह एक सामाजिकं द्रोह हे ।

भरगुसूत्र-“एकपलीः “दो पिरयो एवं बहुपनिर्यो की कल्पना करता है । सूर्यं स्वक्षेत्र ओौर बलवान्‌ हो तो पुरुष का एक ही विवाह होता है । मेष, सिह ओौर धनुकारविदहोतोदो विवाह होतेह ।

यदि इस भाव के सूर्य॑पर रात्रुग्रह की, नीचराशि स्थितग्रहकी दृष्टि हो तो अथवा इस भाव के सूयं का सम्बन्ध किसी पापीग्रह के साथदहो तो पुरुष .. जहुत-सी लियो का पति होता हे ।

इस संदभ॑ में यह कह देना उचित होगा किं पुरुष के लिए “एकनारीवतः ही आदश दहै। प्रथमासेसंतानन हो तो पु्रप्राप्तिके छिएदो विवाह मी किए. जा सकते रै । . इस पन्त में दोनों खिरि्यो जीवित दोगी । बहूुनारीविवाह तो गरहस्थ में वैमनस्य ओर कर्ह को जन्म देता है। परिारसुख मं केटक हो सकता है.आओौर होता है । बहुनारीविवाह की जड़ मं कामवासना-वृति के धिना ओौर कोई लभ नदीं । खानखाना के अनुसार बहूुनारी भोग तो वीर्यक्षीणता का कारण होकर पुरुष के क्षय का कारण दो सकता है ।

यवनमत–चिता से प्रस्त, कामासक्त; दुब, बहुत बोखनेवाला ओर संम्राम मे जय पानेवाखा होता है । इसकी स्री दुर्बल होती है ।

पाश्चास्यमत-अमिमानी पति या पली, उच ओर भव्य आष्वरण के साथ उदारता, उ्योग सर साक्चेदारी मेँ यशप्राि, ये फल सत्तम रवि के है । किन्तु बहुत-सा फल रवि की राहि पर ओौर अन्य ग्रहों की ष्टि पर निर्भर है ।

विचार ओर अनुभव-हमारे पराचीन अ्रन्थकायो का मत है कि सत्तम- स्थान का रवि अश्भफल ही देता है । किन्तु पाश्चात्य दैवज्ञो के अनुसार रवि शुभ फल ही देता है । प्राचीन भ्रंथकायों के अञ्यभफ़ल मेष, सिह, मकर राशियों मे अनुभव में आते ह ।

सप्तमभाव का रवि यदि मिथुन, वल ओर कम्म मे हो तो मनुष्य रिष्ा- विभाग में प्रगति करता है। अधिकारी तथा कानून का विरोषक्ञ होता है । संगीत-नाय्य-रेडियो आदि आमोद-प्रमोद्‌ के साधनों मे प्रगति करता है । इसे ए्क’वादो संततिहोतीदैवा होतीदीनहीं।

४५५ सिः धनु मं यह रवि होतोदो विवाह दहोतेर्दै। एकी विवाह बहुत विल्व से अधिक आयुमे होता है। यह पुरुष स्वतं्रतापिय होता है- नौकरी करना नदीं चाहता ।

खीराशि्यो मेँ विदोषतः वृष, कन्या, मकर मे रवि होतो व्यापार में लाभ

होता दहै) मनुष्य चुनाव म सफल होता है। जनपद वा विधानसभा सें चुनाव खडकर आता है ।

९१० चम स्कारचिन्तामणि का तुखनात्मक्‌ स्वाध्याय

यदि ससमसू्यं कक, बृ्चिकवा मीनमेंदहोतो मनुष्य डाक्टर होता है, अथवा विज्ञानविषयक पदवी पातादहै। नहर का अधिकारी होता रै । ऊपर चसा फक रादिविरोष का है । सामान्यफठ; सव रादरियों मं निम्नलिखित हे -सतमरवि प्रभाव मं आद्र मनुष्यकी चरी प्रभावदालिनी, व्यवहार सौर वर्ताव मं अच्छी आपत्तिके समय पतिका साथ देनेवाटी;, अतिथि सत्कार करनेवाली दयाद्-नौकरां से अच्छा काम निकार ठेनेवाटी होती हे। किन्तु धन-प्रिया दोती दह ओर रुपए पेसे पर अपना स्वत्व रखनेवाटी होती हे । इसका रूप-रंग भी अच्छा होता हे ।

समय के परितंन से अव प्रीतिविवाह का चलन हो गया हे, ठ्डके- लडकिर्यो मनोऽनुकूक मनपसंद विवाद क लिए बहुत अधिक आयु तक कुरा रह जाना पसद करते है | म्रीतिविवाह होने पर किसी बात पर परस्पर वैमनस्य हो जाने पर विवादोच्छेदकः कानून का सहारा केने के छिरः भी उद्यत रहते है । यह परिरिथति तव होती दै जव सतमभाव का रवि मेषः, सिह, धनु ओर मीन काद्ो1 इन राचियां का रवि मनुष्य को अपमानित करवाता द-श्वश्चुर के धर पर रहने को मजवूर्‌ करता है । ओौर भी कई प्रकार से अपमान होता हे।

वृष; कन्या, मकर, कक, वृश्चिक ौर मीन का रविदह्ोतो आयु के ० वे वषं तक काम-धंधा वा नौकरी अच्छे चकते दै-तदनन्तर सभी कुछ वंद हो जातादे। पुरुषरारि के रवि में सदैव उतार-चटाव ख्ये रहते दै । ५०-५२ मेखीकीमृस्युददोती दै । कई प्रकार की कठिनादयोँदहोती रहै, तौ मौ दूसरा विवाह नदींदहो पाता।

यरा तक सन्तति का सम्बन्ध द पुरुषरारिके रवि मं सन्तति थोड़ी होती हे । किन्तु स्रीराशि क रवि में सन्तान अधिक होती है|

अ्मभाव-

“क्रिया रस्पटं स्वष्टमे कषटभाजं, विदे इीयदारान्‌ भजेद्‌ वाप्यवस्तु । चसुक्षीणता दस्यु तो वा विङभ्वाद्‌, विपद्‌ गुह्यतां भातुसुप्रां विधत्ते”! ८॥ अन्वयः-अष्टमे तु भानुः क्रियाम्पटं कष्टभाजं ( च ) ( नरं ) विधत्ते | ( सः ) विदेरीयदारान्‌, अवस्छ॒ वा अपि भजेत्‌ ( तस्य ) अविल्भ्बात्‌ दस्युतः वमु्लीणता भवेत्‌ । भानुः उग्रां विपद्‌ गुद्यतां वा विधत्ते ॥ ८ ॥

सं< टी2–यथ अषटमभावफल्म्‌-अष्टमे मृतिभावे भानुग्रदे क्रियाटम्पर व्यवहारे अतौवधूर्तं अतएव कषटमाजं, क्रितं विधत्ते करोति । तथा विदे- सीयदाराः गणिका, अथवा अवस्तु अभक्ष्यं अपि भजेत्‌ | दस्युतः विख्म्बात्‌ अर्थात्‌ जनालस्यात्‌ वा वसुश्चीणता, द्रव्थदीनता, गुह्यता, विपत्‌, परखीकृत इन्दिय विषथक बातवीजजन्यक्ठेदाः च अष्टमे रवौ स्यात्‌ इत्यन्वयः | ८ ॥

अ्थ–जिस मनुष्य के जन्मल्य से आयवे स्थान मं सूर्यं हो वह्‌ व्यवहार

सूयंफर ५५३

अतीव धूतं अर्थात्‌ चारक होता है । यह सर्वदा कष्ट भोगता ३ । यद विदेशीयसति्यो से सम्बन्ध जोड़ता है । यद अमक््य वस्तुं का सेवन भी करता हे । इसका धन बहुत शीघ्र चोरी हो जाता दै । इस पर कठिन ओर गुस विपत्ति भी आ पडतीदै॥ ८॥ रिष्पणी–अष्टम स्थान दुष्टस्थान माना गया ह | इसे. मत्युस्थान कहते हे । यह मूलतः नाशस्थान दै, भतः इस भाव के फर बुरे हौ है । इस भाव के सूयं का मनुष्य कपाटिया, ठग॒ ओर चालक होता है। इसे दूसरे रोगों को टगकर बहुत आनन्द मिक्ता हे । यह दूसरों के किए अनर्थकारी मौर कण्टकारी होता है । मतव इसे स्वयं मी सदैव कष्ट भोगना पड़ता है ¦ भ्पापौ मूलनि- कृततिः एेषा सुभाषित हे । अष्टमभाव का सूयं परदेश यारा करवाता ड । मनुष्य पर॒ यौवन कां भूत ` सवार होता हे । अतः परदेश मे परदेशीय परकीया रूपाजीवा दियो से अवैध सम्बन्ध जोड़ता दै । इन यौवनौन्मत्त युवतियों के साथ सहवास करतां है । इन्दे प्रसन्न रखने के छिएट इनके कहने पर अभक्ष्य तथा अयाह्य पदार्थो का आनन्द ठेता ह । परिणाम यह होता हे कि इसे गुह्यरोग आ घेरे है । इसके शरीर की शक्ति क्षीण हो जाती है-यदह्‌ आलस म इना रहता है ओर अपने आपकी ओर अपने धन की रक्षा करने मे असमथ होता है । इस परिस्थिति का लाम उखाति इए बोर इसकी चोरी करते दै, इसका धन लट छेते है । प्रथमत; परदेशीय धनपिपासु-रोगग्रस्ता रूपाजीवा युवतियोँ इसका धन-यौोवन टट्टती हे । तदनन्तर रदा-सहा इसका धन चोर दटटकर्‌ ठे जाते है । इस तरह इस पर सभी मकार की विपत्तियं भाक्रमण करती हँ । इसे. असाध्य , गुह्यरोग होते है, जिनसे अन्ततः यह अकाल्मृध्यु का रिकार होता है। वुखना–“खतावके ककेश्वरतनुसमा कातिविरतिः , क्रियादिः प्रभवति वसुक्ेण्यमभितः । गुदे रोगाधिक्यं खड पुरवधूमिश्च रमणं विदेशो संवासः कलिरपि जनैः यस्य जनने |” आवनाथ अथे–जिस मनुष्य के जन्मसखमय मेँ जन्मठ्य् से आस्थान मे सूरय हो तो मनुभ्य का शरीर एेसी कांतिवाल्म होता है जैसा चन्द्रमा का विम्ब काम्ति- यक्त होता है–अर्थात्‌ मन्य न्द्र शरीरवाल् होता है । यह काम करने मं तीश्ण नहीं होता प्रत्युत इसकी इद्धि इसे अकर्म॑ण्यता की आर छ जानेवाटी होती है । चारों भरसे इसके धन कानाश होताहै। इसे गुदरोग अर्थात्‌ नवासीर्‌ होता है । यद्‌ अपने पुर मे रदनेवाली परकीया लियो से सहवास करता है । यह विदेश मं वास करता है । यह लोगों से ठ्डता-क्गडता है ¦ “स्वल्पापत्यः दीनदक्‌ वित्तमांश द्वेषी रोगी कार्यवान्‌ अष्टमस्थे ॥» जयदेव अथं–जिस मनुष्य के जन्मलग्न से भावे खान में सूरय हो तो इसे खन्तान

५२ चम स्कछारचिन्तामणि का तुख्नास्मक स्वाध्याय

थोड़ी होती दै । इसकी दृष्टि ( वीनाई-नजर ) कमजोर होती है । यह धनवान्‌ होता दै । यह लोगों से विरोध करता है । यह रोगी होता हे । यह कमट होता दे अर्थात्‌ आलसी ओर चिटद्छा बैठनेवाला नदीं होता है । ““स्वत्पात्मजो निधनये विकलेक्षणश्च | आचायं बराहबिहिर अथै-चिसके अष्टममावमें सूर्यदहोतो इसे पत्र संख्याम थोडे दहोतेरहै। इसे ओखां के रोग होते है| “टत धनायुः सुद्टदमर्को विगतदष्टिः निधनगः 22 मन्त्रेश्वर अर्थ- जिसके जन्मख्य से आवें स्थानम सूर्यहोतो इसे थोड़ा धनः थोड़ी आयु, ओर थोडे मित्र होते है । इसकी नजर कमजोर होती हे । मनोमिरामः कद प्रवीणः पराभवस्थे च रवौ न वप्त: |” वद्ययनाय अथं– जिसके अष्टमस्थान में सूर्यदहोतो यद मनोहर होता है। यह क्डन-ज्गड़ने मे विदोष चतुर होता है । किन्त॒ यह कभीभी सन्तुष्ट नहीं दोता है। “नेतात्पत्वं दातुवर्गाभिद्द्धिः बुद्धिभ्रांशः प्रूरषस्यातिरोषः । अर्थात्पत्वं कादर्यमगे विंरोषादायुः स्थाने पद्यिनी प्राणनाथे ।1”2 दु टिराज अर्थ- जिसके अष्टममाव में सूर्यदहो तो इसे हष्िमान्य रोग होता है। इसके राचुओं कौ संख्या में अधिकता होती है । यह बुद्धिद्ीन तथा अव्यन्त क्रोधी होता दै। इसे धनप्रापि प्रचुरमात्रा म नदीं होती । यदह दु्रटा- पतला होता है । “धिकल्नयनोऽष्टमस्थे घन-सुख-हीनोऽव्पजीवितः पुरुषः । भवति सहखमयूखै स्वभिमतजनविरह सतस; ॥।” कल्याणवर्मा अथे–जिसके अष्टममावमें सूर्यहो तो यह नेचरोगी होता है। यद नी ओर सुखी नहीं होता है । यह अल्पायु होता है । अपने प्यारे सजन के वियोग से इसे संताप होता है । अर्थात्‌ इसका कोई प्यारा जीव मरता है जिससे इस भारी मानसिक खेद ओर सन्ताप होता है । निधनगतदिनेरो चञ्चलः त्यागरीटः किलबुधगणसेवी सर्वदारोगयुक्तः । वितथ बहूुलमाषी भाग्यहीनो विशीखों मतियुतषििरजीवी नीष्वसेवीप्रवासी |> मानघागर ९ ल =+ अ्थ- जिस मनुष्य के जन्मख्य्र से आ्वें स्थान में सूयं हो तौ वह चञ्चल स्वभावः दानी- पण्डित ओौर विद्वानों की सेवा मं रहनेवाल-सदैव रोगी-बहूत- मस्याभाषण करनेवाला, अभागा, अआरणदहीन, मतियुक्त, तथा लम्बी उमर-

वाख होता है । इसे नीष्ववृत्ति रोगों की सेवा करनी पड़ती है । यह परदेश मं वास्त करता है ।

सूयंफल पद

“नेत्रास्पत्वं शजरुवर्गाभिन्रद्धि बुद्धिभ्रंशः पूरषस्यातिरोषः ।

अ्थास्पत्वं काश्यमंगे विशेषादायुः स्थाने पद्िनी प्राणनाथे ॥> महे

अथे–जिसके अष्टमभाव मं सूर्य स्थित हो तो मनुष्य, मंददष्िवाख, बहुत रतुओं से पीडित, मूख तथा सत्यन्त कोधी होता रै । इसे बहुत धन नहीं मिर्ता हे । इसका शरीर विरोषतया दुर्बल होता है ।

““य॒दा सम्दाखेटो भवेत्‌ मौतखाने मुशाफिर्विरो श्चुततृषापीडितो दि ।

सदो्योगहीनो महाल्मगरः स्वीयदेशो विदायान्यदेरायनः स्यात्‌ ॥ खानखाना

अथं–यदि सूयं अममाव -मे हो मनुष्य भूखा-प्यासा होकर धूमता- करता ह । सवेदा उच्योगरषित, अतीव दुबल, अपने देश को छोड़ कर दूसरे देर मेँ धूमनेवाल होता दै ।

श्रगुसृच्–अस्प पुत्रः । नेचरोगी दशमे वषं रिरोत्रणी । ्यभयुत दष तत्परिहारः ¡ अस्पघनवान्‌ । गोमदहिष्यादिनाशः। देहे रोगः। ख्यातिमान्‌ । भावाधिपेबल्युते इष्टक्षे्रवान्‌ । स्वोच्चे स्वक्षेत्रे दीर्घायुः । `

अथे–यदि अष्टममाव मे सूर्यं हो तो मनुष्य को पुसख थोड़ा होता है । यह नेजरोगी होता हे । दवें वषं इसके शिर पर व्रण होता है । इस रवि का छभग्रह के साथ योगहो तो शिर पर व्रण नहीं होता है। यह अस्पधनी होता हे । इसके चौपाए जानवर गौ-भस आदि की हानि होती है । दे में रोग होते दै ¦ यह प्रसिद्ध होता हे । यदि मष्टमे् बल्वान्‌ हो तो यद अच्छी खेती-बाड़ी का मालिक होता है । यदि यह रविं अपने उच्च मेँ हो, अथवा स्वक्षेत्री हो तो मनुष्य दीर्घायु होता है|

यवनमत्‌– परदेश में भूख-प्यास से मारे-मारे फिरना पड़ता है । बहत भट्कता है ओर दुभ्खी होता है |

पाश्चात्यमत- प्रति वा पत्नी बहुत खर्वीठि होते. ह । मङ्गख की युति वा पूरी दृष्टि हो तो आकस्मिक मृत्यु की सम्भावना होती है ।

विचार ओर अनुभव–पाचीन ग्रन्थकारो ने ‹ अष्टमस्थान का रवि अञ्चम फठ् देता है” एेला कदा है क्योकि मूलतः अष्टमस्थान नाश-स्थान माना गया हे। ये बुरे फल मेष, सिंह ओर धनु मेँ मिते ई । मिथुन, वख ओर कुममं कुछ कम मिकर्ते ई । खरीरारियों मे सामान्यतया अच्छे फठ मिलते ई । | |

मिथुनः कंक, धनु ओर मीन मे सावधानता मे मोत होती है। मेष भौर सिंह मेँ क्चटके से मौत होती हे । इनसे अन्य राशियों मेँ बहुत लम्बी बीमारी के अनन्तर कष्ट से मौत होती है। | |

पुरुषरारि के रवि मे घर की गोप्य बातें नौकरों द्वारा बाहर निकल जाती दै । अथवा स्री द्वारा भी गुप्त बतं दुसरे जान रेते ई! पुरुषराशि का रवि हो

५५४ चमर्कारचिन्तामणि का तुरखुनाव्मक्‌ स्वाध्याय

तो खी स्वयं पेसे के किए, अथवा पति की पैसे के जरूरत को पूरा करने के किए; अथवा अपना कोड काम निकालने की इच्छासे परपुरुषगामिनी मी होतौ दे। अष्टपभावके रविसे खरी की मृत्युसे पिले पुरुष की सूत्यु होती हे। किन्तु धनस्थानमें रविदहो तो पुरुष की मृत्यु खरी के वाद्‌ होती है।

अष्टमभाव का रवि ब्द्धावस्थामें दखद्ितायोग करता हे | अथौत्‌ जेसे € येने अर सूयं का अस्त होतादहे वैसे दही पुरुष केभाग्य कामी अस्त हो जाता हे । एेसा ५० की आयुमें होता दै। |

खीराशि का सूयं हो तो सन्तति अधिक होती हे। पुरुषरादि कै र मे सन्ततिं वहत कम होती है । पदिली उमर मे शारीरिक कष्ट बूत होते । नवमभाव–

“दिवानायके दुष्टता कोणयाते न चाप्नोति चिता विरामोऽस्य चेतः । तप्धर्ययाऽनिच्छयाऽपि प्रयाति क्रियातुंगतां तप्यते सोदरेण” ॥\॥

अन्वयः-दिवानायके कोणयाते दुष्टता ( जायते ) अस्य चिता विरामः चेतः न च आप्रोति। अनिच्छयापि तपश्चर्यया क्रियातुंगतां याति; सोदरेण तप्यते ॥ ९॥

सं2 टी अथ नवमभावफलम्‌-दिवानायके सूर्यं कोणयाते नवमस्थे स नरः अनिच्छयामनोभावरदहितया तपश्चयंया क्रियातंगतां क्रियाश्रेष्ठत्वं ज्ञापकः व्यवहारेण तुंगतां पूज्यतां प्रयाति । दाम्भिकत्वेऽपिं लोकमान्यः स्यात्‌ इति मावः । तथा सोद्रेणभ्रात्रा देतभूतेन संतस्ः स्यात्‌ । यतः दुष्टता परद्रोहत्वं अतएव चिन्ता विरामः शांतिः अस्य चेतः नैव आप्नोति । अत्र कोण शब्देन त्रित्रिकोणं विवक्षितं वेदितव्यं इयर्थः

अथे :– जिस मनुष्य के जन्मसमय मेँ जन्मल्म्र से सूर्यं नवमस्थान में हो तो नवमस्थान सूर्यं के प्रभाव मे उत्पन्न यह दुष्ट होता है। यदि कभी इससे शमक्म॑हो भी जावे तो यह पुण्यकर्म इसकी पुण्यमूृलक इच्छा का फर नहीं होता हे । इस छ्भक्म के मूरू मे दभ दोता है-दिखावा होता रै– खगो के ठगने के छर दोग होता है । पन्त उस ॒टौग का फल भी उसकी मान-प्रतिष्ठा ओौर यश्च का कारण हो जाता है। रोग इसकी बड़ाई करते है । खग इसे धार्मिक आर सुकर्मौ मानने ख्ग जाते ह । चूँकि इसकी तपस्या छम- भावनामूलक नदीं होती, अतः इसका चित्त अशान्त द्यी रहता है । इसका व्यवहार अपने सगे भाइयों से मी दुष्टतापूणं कपटतापूणे होता है । परिणामतः इसं सगे भादयों से भी संताप दी प्राप्त होता है। चिन्ता बराबर बनी रहती है । इस तरह नवमभाव का रवि अञ्चभफल दाता होता है ॥ ९ ॥

सूयंफल प्म

तुखना-““जनुकाठे जंतोः नवमभवने वासरमणौ ` वहिर्योगेनाङं सकट जनपूञ्यत्वमभितः । तथा चिन्ताधिक्ये भवंति सहजेैरन्यमनुजैः प्वासादुद्धियं दृदयमपितप्तं कषितितठे ॥*> जीवनाय अथं– जिस मनुष्य के जन्मसमय में सूर्यं नवनभावमें दो तो यह बहि- योग के द्वारा सब रोगों मे पूजित होता है । परन्तु सहोदर भाईयों से तथा अन्य रोगों से चिन्ता बराबर बनी रहती है । परदेश मे रहने से इसका मन उद्धिय ओौर सन्त्रप्र रहता है । | रिप्पणी– यहो पर बहिर्योग से हठयोग मन्तव्य हो सकता है । योग- दशनम योग का लक्षण चित्तवृत्ति निरोधः किया गया है “्योगध्ित्तबृत्ति निरोधः । अर्थात्‌ प्राणायाम आदि से चित्तवृत्ति अहि्खी न होकर तथा अन्तमुंखी होकर आत्मा से जुड़ जावेतो योग होता है! नवममाव के सूयय के प्रभाव मे उत्पन्न मनुष्य बाह्यचृत्ति होता हुआ भी यदि योगाखन करता है तो भी द्रष्टं की दष्ट मे मानास्पद हो जाता दै। “बहिर्योग शब्द एेसे पुरुष का भी स्मरण करवा सकता है जिसका वणन नीतिकार ने निन्नक्खित किया दहै - “मनस्यन्यद्‌ वष्वस्यन्यत्‌ कमेण्यन्यद्‌ दुरात्मनाम्‌ ॥ अर्थात्‌ एेसा दांमिक मनुष्य जो हर समय, हर बात मं गिरगट की तरह शकल बदलता रहता दै । यह नवमस्थ रवि का फर नितान्त बुरा है । °नवमस्थे रवौ जातः कुकर्म भाग्यवर्जितः । वि्याविवेकहीनश्च कुशील प्रजायते ॥> क!लक्लिनाथ अर्थ– जिसके नवमभाव मे रविं हो वह बुरे काम करनेवाला, अभागा, विद्याहीन, विवेकदीन ओर आष्वारहीन होता है । ८”धन-पुत्र-मित्र-भागी द्विजदैवतपूजनेऽतिरक्तथ । पित्रू-योषिदिदवेषी नवमे तपने सुतस्ः स्यात्‌ ॥> कल्याणबर्मा अथै– जिसके नवममाव मे रविदो तोइसे धन का सुख ओौर पुत्रसुख प्राप्त होता है । यह देवताओं ओौर ब्राह्मणों का आदर करता है। इसे पितासे ओौर खी से परेम नदीं होता है अर्थात्‌ इनके साथ विरोध रखता है । भौर यह अशान्त रहता हे । न “°विजनकोऽकं ससुतबन्धुस्तपसि देवद्विजमनाः ॥”> मंतरेश्वर अथं–जिसके नवमभाव मेँ सूर्यं हो तो इसके पिता की मृत्यु होती है । से पुत्रसुख ओौर बान्धवो से सुख मिठ्ता है । यह देव-त्राह्मण-भक्त होता है । “सापत्याथः सत्सुतः सौख्यधीमान्‌ धमेभानौ मातृवरेऽखित्‌स्यात्‌ ॥° जयदेव

५५६ चमव्कछारचिन्तामणि का तुखनाव्मक स्वाध्याय

अथै–यदि मनुष्य के नवमभावमें रविदहोतो इसे सन्तान ओर धन दोनों होते है । इसके पुत्र सर्वथा योग्य होते ह । यह सुखी ओर बुद्धिमान्‌ होता दै। किन्तु इसके सम्बन्ध मात्रकरुल से यच्छे नहीं रहते प्रत्युत इसका व्यवहार ओौर बरताव मामा-मामी आदि से शत्रु जेसा होता हे। रिप्पणी– “सत्‌ सुतः– श्रेष्ठ॒सन्तान का होना परूवंजन्मकृतपुण्यों का फर होता दै-““पुण्य तीरथ कृतं येने तपः क्राप्यति दुष्करम्‌ । तस्य पुत्रौ मवेद्वद्यः समृद्धोधार्मिकः सुधी ॥ > रेता नीति उचन है । “श्वम सुताथं सुखभाक्‌ खखरोयंभाक्‌ ॥” आचायं वराहमिहिर अथे-जिसके नवममाव में सूयं हो तो इसे पुत्रसुख, धनयुख ओौर शौर्ययुख प्रास्त रहता हे । यह सुखी होता दै। ˆसाध्वाचार विरोधं रुजः प्रदो देन्यङ्रद्‌ नवमस्थः ॥> घत्याचायं अर्थ- जिसके नवमभावमें रवि होतो इसे सदाचारसे विरोध होता है। यह रोगी ओर दीन होता है | “आदित्ये नवमस्थिते पित्रू-गुस-देषरी विधर्माश्रितः |” वंद्यनाय अथ- जिसके जन्मल्य से सूयं नवमस्थानमेंदहोतो यह पिव्रविरोधी तथा गुरुविगोधी होता है । अर्थात्‌ इसका गुखुजनों से वैमनस्य रहता है । यह अपने कुल्परम्परागत धर्म को छोड़कर दूसरे के धमं को अपनाता है । अर्थात्‌ विधर्म हो जाता है| ^“ग्रहगतदिननाये सत्यवादी सुकेशी कुखजनहितकारी देवविप्रानुरक्तः । प्रथमवयसि रोगी यौवनेस्थेय॑युत्त) वहुतरधनयुक्तो दीधजीवी सुमूर्तिः ॥” मानसागर अथं- जिसके नवममाव मं सूरं हो तो यदह मनुष्य सच्यवक्ता सुन्दर केदो वाखा, कुक के लोगों का हित चाहनेवाख, देवताओं ब्राह्मणों मं श्रद्धा रखनेवाला होता है। इसे वष्वपन में रोग होते हँ । युवावस्था मे सिरता होती है–यह घनाव्य, दीर्घायु तथा रूपवान्‌ होता हे । ““घर्मकर्मविरतश्च सन्मतिः पुत्रमिच्रजसुखान्वितः सदा । मातृवर्गविषमो भवेनरः त्रित्रिकोणभवने दिवामणौ ||” दंडिराज अथे-नवमभावस्थित रवि से मनुष्य अपने ध्म मे-अपने कर्म में भरद्धा रखता है । यदह श्रेष्ठ मतिवाल-पुच्सुख तथा मित्रसुख से युक्तं होता है । थह मामा आदि के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करता है, “धर्म-कर्म-निरतश्च सन्मतिः पुत्र-मित्रजसुखान्वितः सदा । मातृवगविषमोभवेन्नरः त्रित्रिकोणमवने दिवामणौ | महै अथे- जिसके नवममाव मे सूर्यं हो तो मनुष्य कुट्परम्परा प्रात श्रौतस्मातं धम मं तथा क्रियाकाण्ड ( कर्मकाण्ड ) में रुचि र्ता है । इसकी वुद्धि अच्छी

सूयंफर ९५७

होती है अर्थात्‌ विष्वारबुद्धि इसे कुमागं से हयकर सन्मार्ग की सोर ॐ जाने- वाखीदहोतौ हे । इसे पुत्रसुख तथा मिन्सुख प्रास होता है इसका मेमवताव मामा आदि से नहीं होता है अर्थात्‌ वैमनस्य होता है। “रवो वेषखाने प्रसिद्धः सुखी मानवश्वान्यवित्तैरछं सोभते । विव्नदृन्दैः युतो माव्रपक्षात्‌ सुखं न धनाढ्यो यद्‌ जायते वोचगः ॥ ख”नखाना

अथे–यदि सूं नवमभाव में हयो तो मनुष्य संसार मेँ प्रसिद्ध दूसरों के धन सं सुखी ओर सुरोमित होता है) इसके कामे बहुत विष्न होते है | मात्रपश्च से सुख नदीं मिलता है । यदि सूर्यं अपनी उच्राशि मेषमें होतो मनुष्य धनाम्य होता है ।

गुसूत्र–सूयादि देवभक्तः । धार्मिकः । अस्पभाग्यः । पिवृदरेषी । सखत- दारवान्‌ ! स्वोच्चे स्वक्षेत्रे तस्यपिता दीर्घायुः | बहूुधनवान्‌ । तपोध्यानदीटखः । गुरुदेवताभक्तः । नीच-रिपु पापक पापैः युते दृष्टे वा पिद्रनाशः । श्चमय॒ते वीक्षण वखाद्‌ वा पिता दीर्घायुः ।

अथ–यदि सूयं नवममाव में हो तो मनुष्य सूर्य॑ मादि देवतां का भक्त अथात्‌ पूजक होता है । यह धार्मिक होता है। यह बहुत भाग्यशाली नहीं होता है। इसकी पिता से अनबन रहती ई । इसे ख्रीसुख ओर पुत्रसुख मिख्ता हे । यदि यह सूर्य उच्ररारि मे हो अथवा अपनी राशि मे हो तो इसका पिता दीर्घायु होता है । यह धनाब्य होता है । यह तपस्वी तथा ध्यानी होता दे। गुखजनों तया देवतां मे शरद्धा रखता है । ओर इनका आदरमान करता हे । यदि यह रवि नीषचराि-शतुरारि तथा पापग्रह की रारिमे हो, अथवा इस स्थान के रवि के साथ कोई पापग्रह युति करता हो अथवा किसी पापग्रह की हषटिहोतो मनुष्यकेपिताकी मृद्युदहोतीरै। यदि इस स्थान केरविके साथ श्यभग्रह का सम्बन्ध दहो अथवा इस रवि पर किसी श्चभमरह कणे दष्टिहो तो इस मनुष्यका पिता दीर्घायु होता है।.

यवनसमत- विख्यात, सुखी, देवभक्त; मामा का सुख पानेवाखा होता हे ।

पाश्चात्यमत-स्थिर, सन्माननीयः; न्यायी; ईश्वरभक्ता; बतीव मं अच्छा; जलराशि मेहो तो सागर पर्यटन करनेवाखा होता हे ।

विचार ओर अनु मव-नवमस्थान तो श्चमस्थान माना जाता दै। इस भाव में स्थित सूयं के सभी फर श्चुम होगे, एेसा नदीं है । प्राचीन ग्रन्थकारो के अनुसार नवमभाव के फल मिश्रित अर्थात्‌ मिले ज॒ठे ईदै- कुक शभ दै ओर कड एकः अश्चभ है | वेदयनाथ के मत के अनुसार नवमस्थ स्यं का फल श्धर्मान्तर कर लेनाः अत्यन्त अश्चभ दहै । वैद्यनाथ मतानुसार नवमस्थ सूर्यं की अन्तः मरणा से मनुष्य अपना परम्परागत श्रुति-स्प्रति-प्रतिपादित धमं को छोड़कर विधर्मियों के धमं को स्वीछ्कत करता है। इतिहास सक्षीरै कि यवनकाल

५९८ चमत्कारचिन्तामणि का तुखुनात्मक स्वाध्याय

मे असंख्य हिन्दुओं का धमपयित॑न हआ, तद्वार की ताकत से, प्रलोभन दे कर-चियोँ के जाल में फसाकर हिन्दुओं को स्वधर्मत्याग पर तथा विधर्मिधर्मग्रहण करने पर वाध्य किया गया। अग्रेजी राज्यम भी क्रिधिेनिटी को व्यापकधमं वनाने के किए पूर्णयत्न किए गणएट-बहत से हिन्दु सभीवर्गो के धर्मान्तर करने के लिए वाध्यहए। प्रशरहैकिंक्या यह धर्म॒ पयिर्तन नवमभावस्थित सूरय को अन्तप्रेणा से हा १ क्या इन ससंख्य धर्मपरिवर्तन करनेवाले के नवमभाव मं सूयं था १ इस जटिल ग्रश्च का उत्तर प्रकाण्ड दैवक्ञ दी दे.सर्केगे। यदि वविधर्मा्चितः का अर्थं भमिन्नधर्मावलत्रियों की नौकरी करता हैः एसा किया जावे तो परिस्थिति जटिक नहीं रहती । भारत की स्वतन्त्रता को वर्तन्नता मं बदलने के लिए वाहिरसे आए हए विधर्भियों के आश्रित होकर उनकौ सेवा में रहना तो बराबर होता चदय आया है । इन विधर्मियों के राय म हिन्दु उचाधिकारी रदे ईै- इव वात का साक्षी मी इतिहास दै । यदि स्वधमं निधनं श्रेयः परधर्मो मयावहः’ का ज्वलन्त उदाहरण वाहिए तो रिखगुखुों का जीवन खमभी वर्गो के छिए महान्‌ आदं है । आजकल विवाह के विषय में प्राचीनकाल से चठे हुए, जाति ओर धमं के बन्धन रियर, बहुत सीमा तक दीटे, पड़ गए दै । प्रीतिविवाह का बोलबाला दे । रजिस्टर विवाह के पश्च के छोगों को माता-पिता की माज्ञा मान्य नहीं हे । यह भी एक विष्वारणीय समस्या है । विवाह-विच्छेदक कानून भी माता-पिता विषद्ध चलने के छिए उनसे अनवन ओौर वैमनस्य रखने के ढिए युवक-भौर युवतियां को प्रोत्छाहन दे रहा है । ‘्पिवधेषी शुखजनदवेषीः आदि-आदि विरोषणः भन्थकारों ने नवमस्थरवि प्रभावोत्पन्न मनुष्य के छिए छ्खिरहै। यह विषय भी य हे। नवमभावस्थित सूर्यं का सामान्य फल इस प्रकार है :– पूवेवय में कष्ट, मध्यवय में सुख ओौर उत्तर आयु मं पुनः दुःख । मिथुन, तला वा कुम्भ म यदि रवि हो तो मनुष्य ठेखक, ग्रकाद(क, वा ध्यापक हो सकता है। कर्व, बृधिक ओर मीन में यह रविदहो तो कवि गरककार वा रसायन विद्या का संश्ोधक हो सकता है । दप-कन्या ओर मकरमें यह रविदह्ो तो खेतीवा व्यापार का चालक. होता हे । मेष, सिह, धनु मे यह रविं होतो मनुष्य तेना मे काम करता हे।

॥ इज्ञीनौयर होता हे । इस तरह नवमभाव का रवि कुछ न कुछ ख्यातिः ह्‌ ।

द्‌ रामभाव-

“श्रयार्तोऽद्मान्‌ यस्य मेषूरणेऽस्य श्रमः सिद्धिदो राजतुल्यो नरस्य । जनन्यास्तथा यातनामातनोतिक्टमः संक्रमेत्‌ बल्टमेः विप्रयोगः ।|१०)}

सूर्यफल ५५९

अन्वयः-अंद्यमान्‌ यस्य नरस्य मेषूरणे प्रयातः ( तस्य ) भ्रमः राजवर्यः सिद्धिदः ( स्यात्‌ ) ८ सः ) जनन्याः यातनां आप्नोति, ८ तस्य ) बहछभैः विप योगः, तथा क्लमः संक्रमेत्‌ ॥ १० ॥ सं° टी –अथ दशमभावफल्म्‌- यस्य दशमे प्रयातः स्थितः अंश्चुमान्‌ सूयः, अस्य नरस्य जनन्याः मातः यातनां रोगोद्‌भवं शं आतनोति विस्तारयति, तथा अस्य श्रमः पराक्रमः राजठस्यः सिद्धिदः चपवत्‌ सर्वाथसाधकः स्यात्‌ इत्यथः । बछ्मैः मि्नकल्न्ादिभिः विप्रयोगः ततः क्लमः ग्लानिः संक्रमेत्‌ संभवेत्‌ इतितात्पयाथः ॥ १० ॥ अथं :- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे जन्मख्यर से दशवे स्थानम सूयं होतो इसका उन्ोग राजा के समान सिद्धि देनेवाला होता है, अर्थात्‌ जैसे राजा के कायं सहज मेँ सफल हो जाते है । एेसे दी इसके कार्यं भी सफल होते ह । इसकी माताको कई प्रकारके रोग होते है इससे इसे कष्ट होता है। इसका वियोग मिन-ख्री-आदि प्रियजनोँ से होता है। इसलिए इसके चित्त में ग्लानि रहती दै ॥ १०॥ तुलखना-““दिनाधीशे राज्ये जननसमये तस्यजनके जनन्यामातिः स्यादिहनिविडायस्य सहसा । श्रमात्‌ सिद्धिः सवाँ क्षितिपति कृपाकीर्तिरवुखा , कलव्रापत्याय्रेः भवति विधुरा बुद्धिरनिशम्‌ ॥” शीवनाथ अथं- जिस मनुष्य के जन्मसमयमे सूर्यं ददयममावमें होतो इसके माता-पिता को अधिक कष्ट, परिम से सहसा का्थंसिद्धि, राजा की कपा तथा अतुलकीर्ति का खभ दहोताहै। किंत स्री-पु्ादि से अहर्निशा कटुषित बुद्धि रहती हे । “सुख-शौयं भाक्‌ रवे ॥” वराहमिहिर अथे–यदि दङ्यमभाव मे सूर्यं हो तो मनुष्य सुखी ओर बली होता दै । “’मानस्थिते दिनकरे पितरु-विम्त-शील-विव्या-यशो-वख्युतोऽवनिफट्तुस्यः” ॥ वंशनाथ अथै- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे सुय दशमभाव में हो तो इसे पिता का सुख, धन का सुख होता है। इसका आप्वरण श्चुदध, यह विद्धान्‌; यरास्वी, तथा बख्वान्‌ होता है । यह फेश्वयं आदि मेँ राजा के समान होता है, टिष्पणी- नारायण भट ओर जीवनाथ ने श्ुभ-अश्चभम मिले-जुञे फल बताए ह किन्तु वैद्यनाथ के दिए हूए फठ तथा वराहजी के सवथा शुम है । ‘द्काममुवन संस्थे तीत्रभानौ मनुष्यो गुणगणसुखभागी दान ओीरोऽमिमानी । मृदुः श्चषियुक्तो शखत्यगीतानुरागी नरपति रतिपूञ्यः रोषकाठे च रोगी ॥* मानसागर

&० चसत्कारचिन्तामणि का तुरखुनाव्मक्‌ स्वाध्याय

अथ–जिसके दछममाव मे सूर्यं हो वह मनुष्य बहुगुणी होता है, यह सुखी, दानी, अभिमानी, कोमर, पवित्र; नाषने-गाने मं मेम स्खनेवाला तथा राजा का पेमपात्र होता दै । उत्तर वयमें रोगी होता है। “(सद्बुद्धिवाहनधनागमनानि नूनं भूपप्रसादसुतसौख्यसमन्वितानि । साधृध्रकारकरणं मणिनूषणानि मेपूरणे दिनपतिः कुरते नराणाम्‌ ॥ दुंडिराज

अथे-दरमभावमे सूर्यके होने से मनुष्य श्चभकर्मो की ओर मेरि करनेवाटी बुद्धिसे युक्त होता दै। इसे वाहन खुख-तथा धन का सुख प्रास्त दोताहे। इसपर राजाकी कृपादृष्टि रदतीदहै। इसे पुतरोंका सुख प्राप्त दोता हे ¡ यह साघुस्वभावके ठोगों का उपकार करता दै । इसके घर में मणि जओौर अटेकरण ( गहने ) होते ह । अर्थात्‌ दशममावस्थरवि के प्रभाव में उतपन्न मनुष्य सवथा श्रेष्ठ-मान्य-वाहनादि से सम्पन्न होता दै । अतिमतिरतिविभववलः धनवाहनबन्धुपुत्रवान्‌ सूच । सिद्धारम्भः दूरो दशमेऽधृष्यः प्ररास्यश्च ॥?› कल्याणवर्मा अथ- यरि द्‌ रामभाव में सूयं हो तो मनुष्य की बुद्धि अच्छी धन-वैभव भी अच्छा ओौर बर भी अच्छादोतादहै। इसे धन का खख, सवारी का सुख, भरवां का खुल तथा पुत्रों से खख प्राप्त दोता है । यह जिस काम को हाय में लेता हे इसे उसमे खफ़क्ता मिल्ती दै । यद बहादुर ओर प्रशस्त व्यक्ति होता दे । उसे कोई उरा-धमका नद्यं सकता है अर्थात्‌ यह दटचिप्त होता है | ` ससुतयान स्तुति-मति-बल-यराः रवे क्षितिपतिः ॥°> मंतरेश्वर अथे–यदि सूर्यं दशमभावमे हो तो मनुष्य राजा होता है, इसे पुतो का खुख अर सवारी का सुख मिक्ता है । छोग इसकी बड़ाई करते है । यह मतिमान्‌ › वलवान्‌ तथा कीर्तिमान्‌ होता है । -धविक्रमी निगम विद्‌ भवयुक्तश्चोपकार सुखभाग्‌ गगनस्थे ॥ जषदेव अथे-दरामभाव मँ सूरय के स्थित होने से मनुष्य पराक्रमरीक, वेद-गाखर का जाननेवाल्, वैभवयुक्त, उपकार करनेवाला ओर सुखी होता है । `‘दशमेऽके बन्धुद्ीनः कुकुर्मासीख्वर्जितः । स्रीचग्वखः हीनतेजः दीनकेडाश्च जायते | काशिनाथ अथे- जिसके ददामभाव म सूर्दहो तो यदह बन्धु सुखरहित होता है । यह बुरे काम करता है इसका मारण अच्छा नहीं होता है। इसकी खी चचटन्वभाव की होती दहै। यह तेजस्वी नहीं होता है। इसके केरा अच्छे नहीं होते ह | “-सद्बुद्धिवाहन धनागमनानि नूं भूपप्रसादसुतसौख्य समन्वितानि । साधूपकारकरणं मणिभूषणानि मेपूरणे दिनपतिः कुरुते नराणाम्‌ ॥*’ महैज्ञ

सूयंफङ ६१

अ्थै–यदि सूर्यं मनुष्य के दशमभावमे हो तो इखकी बुद्धि इसे श्यभकर्मौं की ओर पेसिति करनेवाटी होती है । इसे वाहन ( सवारी ) का सुख, धन का सुख, राजा की प्रसन्नता, तथा पुत्रसुख मिख्ता है । यह साधुस्वभाव सजनो पर उपकार करता है । इसे मणियों तथा भूषणो का सुख प्रास्त होता है ।

‘ध्वौ शाहखाने धनाब्यो वफारस्तदा मोदते वाजिबरन्दैः सुखी च ।

महीपान्तिकी नेककिद युशीरो जमीर पितुः सौख्यमस्पं भवेद्‌ वै ॥>*ख’ नखाना

अ्थ- यदि सूर्यं दश्लममाव में हो तो मनुष्य धनाढ्य । सुरी तथा मुन्दर घोड़ों पर टकर सुखी रहनेवाख होता दै । यह सव॑दा सुखी, विख्यात; तथा किफायत से काम करने वाल होता दै। यदि नीषचरारि ठखा का सूयं ददाम- भावम दहो तो मनुष्य को पित्रुख पूरा नदीं होता ह।

भरगुसूत्र–अष्टाद्शवपे विन्याधिकारेण प्रसिद्धो भवति, द्रव्याजन समथश्च । टृष्टितरितः राजपियः सत्कर्मरतः राजद्यूरः ख्यातिमान्‌ । स्वोचे स्वक्षेत्रे दल्य्परः । कीर्ति प्रसिद्धः । तटाक क्षे गोपुरादि व्राह्मण प्रतिष्ठा सिद्धिः । पापक्षत्रे पापयुते पापदृष्टिवशात्‌ कर्म विन्नकरः, दु्टृतिः । अनाचारः, दुष्कर्मङत्‌ › पापी ।

अर्थ- जिसके सूर्यं दश्मभावमे हो तो वह मनुष्य पूणविद्वान्‌ होने क कारण प्रसिद्धि पाताहै। धन का संचय करने के योग्य होता है | यदि इसमाव के रवि पर तीन श्चभगरहों की दृष्टि हो तो मनुष्य राजा का पापान्न होतां हे । य्‌ श्चुभक्मौ के करने में रुषि रखता है । यह राजच्यूर भौर कीर्तिमान्‌ दोता है । यदि यदह रवि अपनी उ्रारि का हो अथवा स्वक्षेत्र हो तो मनुष्य चख्वान्‌ तथा विख्यात दता है । तालाब, कंभा, नावरी-मन्दिर आदि का निमौण करवाता है | यह ब्राह्मणो का आदर करता दहै।

यदि दशमभाव का रवि पापीग्रह की रारिमेंद्ो। अथवा कोड पापग्रह इसके साथ युति करता हो. । अथवा इस पर किसी पापग्रह की दृष्टि हो तो मनुष्य के कामों मे अडष्वनं आती ईह । यह मनुष्य बुरे काम करता है । इसका आचार शद्ध तथा पवित्र रहीं होता है । यदु पापी तथा दुष्टकमं कर्ता होता है ।

रिष्पणी– तालाब, कुआ, बावडी, मन्दिर आदि सवंसाधारण जनसमूह के दित के काम दै । इन परद्रन्यव्यय सद्न्यये है । यदि दशममावस्य सूयं की अन्तभ्मेरणा से मयुष्य इष्टापूतं पर धनव्यय करता है तो इसे मनुष्य जन्म का पूणं कम प्रास दोता है-रे्िक तथा पाररीकरिक खुख प्राप्त होते है ।

विचार ओर अलुभव–दशममाव का सूयं यदि मेष, ककं, सिंह, बृश्चिक तथा धनु में दो तो मरुष्य यदि रवीन्यू, पुट्सि, सेना वा आबकारी विभाग मे नौकर हदो तो लाभान्वित दोगा ।

य॒दि यह रवि वृष, कन्या, मकर, मीन वा मिथुन मेँ हो तो मनुष्य उचा- धिकारी होता है। इसे राञ्यपाङ, वा राष्ेपति के मन्तियो में । संसद वा

६२ षवमस्कारच्विन्तामणि का सुरखुनास्मक स्वाध्याय

विधानसभा मेँ स्थानप्रासि होती दहै। वला रारिमे दङामभावकारविदहोतो जज, मिनिष्टर आदि सन्मानास्पद्‌ पद्‌ मिखाते है|

दृश्चिक राशि कारविद्ोतो प्रसिद्ध डाक्टर हो सकता है । जैसे सूर्यं दानैः- रनः तीक्णर्किरण तथा अत्यन्त तेजस्वी होकर मध्याह्न के अनन्तर पतनोन्मुख ह।ता हुआ सन्ध्यासमय तेजोदहीन होकर अस्त दो जाता दै । इसी पकार सूर्यं के प्रभाव मं उत्पन्न मनुष्य मी शनेः-शनैः द्िक्रम से उन्नति पाते हुए शिखर चुम्बी उन्नति करते है परन्तु इनव्म अन्तिम वय अच्छा नदीं रहता, ये मनुष्य सन्त मं रोगव्रस्त होते है-धनास्पता से कष्ट पाते है । बान्धवो से कठह स्री-पुत्रादि से वेमनस्य आदि दुःख अनुमवमें आते ह । इस तरह यदि इस सूर्यं को दु भोग्य दरांक कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी |

ए्काद्‌ शभाव-

“रवौ संलभेत्‌ स्वं च टाभोपयाते नषद्वारतो राजसुद्राधिकारात्‌ । ्रतापानले इात्रवः सम्पतन्ति श्ियोऽनेकधा दु -खमङ्गोद्धवानास्‌ः | ११॥ अन्वयः–रवौ लाभोपयाते ( सति ) छप द्वारतः; राजसद्राधिकारात्‌ च अनकया श्रियः संछमेत्‌ । ( तस्य ) ग्रतापानले शत्रवः सम्पतन्ति, अङ्गोद्धवानां दुःख ( च ) ( स्यात्‌ ) ॥ ११ ॥ सं< टी<—अथेकादशस्थरविफल्म्‌- ल्भोपयाते लाममावगे रवौ सः २ दपद्वारतः स्वद्रव्यं राजदत्तं सुद्राधि कारात्‌ अनेकधा भ्रियः गजाश्चादिपदः धियः लभेत्‌ । किं च प्रतापानटे शत्रवः सम्पतन्ति तदुत्तमाधिकारदरांनेन संतप्ताः स्युः; इतिभावः । तथा अद्खोद्धवानां अपत्यानां दुम्खं ल्भेत्‌ । इत्यनेन अन्वयः | ११ ॥ अथे :–जिस मनुष्य के जन्मसमय मे जन्मल्श्रसे एकादशभावमें सूर्य होतो इसे राजा के द्वार से, अर्थात्‌ राजदसखार से, राजा कीक्रृपा से धन मिलता इसे राजा की मोहर ट्गने का मधिकार मिलता दहै अर्थात्‌ यह मनुष्य पजा क्ण पासे उच्चाधिकारी दता दै ओर इसे राजसत्ता मिर्ती है जिससे पह निग्रह-अनुमरह कर सकता है । दण्डाधिकारी दोकर-मजिष्रेट के अधिकार पाकर चोर आदि अपराधियों को, दण्डित करके, अपनी अदाल्त कौ मोहर | ख्गाकर जेर मँ मेजता है| इसी तरह जो रोग न्याया नुकूक चकर्त है-जो उमाज क दितके छि काम करते दहै यौर प्रजाके हितके छिएु कुया, बावरी ताखाव-मन्दिर-विश्रामह आदि बनवाते ई उनको राजा से भारतरलन आदि उपाधि दिल्वाता है । इख तरह राजसन्ता का राज्ययक्ति का सदुपयोगं करन से इसे भी हाथी-घोडे आदि की सवारी से तथा कड प्रकार की पद्बियों से राजा विभूषित तथा अलुङृेत करता है । यदद नहीं-इसे मासिक वेतन द्वार- तथा इनाम जादि से धन भी खूब मिलता है । इस प्रकार राजक्पा से इसका भताप-मान-प्रतिष्ठा-गौरव आदि, गगनचुम्यी होता है, जिससे इसके रातु जल

सूयेफल ६३

मरते इसकी प्रतापाभि क्ते भस्मसात्‌ हो जाते है क्योकि वे स्वयं इतने ऊचे अधिकार को प्रास्त नदीं कर सकते है । किन्त इसे सन्तानपक्च से सदैव दुःख प्राप्त होता रहता रै ॥ ११॥

तुख्ना–“यदा लाभस्थानं गतवति रवौ यस्य सततं, धनानामाधिक्य क्षितिपतिकृपातस्तनु्रतः । प्रातापाग्नौ शाश्वत्‌ पतति रिपुङ्गदं च परितः, स्वपुत्रात्‌ संतापोभवरतिबहुधा वाहनसुखम्‌ ॥” भौषघनाय अथे- जिस मनुष्य के अन्मसमय मे जन्मल्यसे एकाददाभाव मे सूर्य होतो इसे राजाकीङ्पासे पणं धन कालामदहोतादहै। इसकी प्रतापायिसे इसके रन्ुओं का नाश होतादहे। इसे वाहन ( हाथी-घोडा-मोरर-साइकङ आदि ) का विदोष सुख होता है । किन्व॒ अपने पुर से कष्ट होता है ।

टिष्पणी–““संतानपक्ष से दुःख प्राप्त होता हैः एेसा नारायणमड ने कदां है । संतान विष्य मं अनेक दुभ होते हैः-( १) सन्तान-का अभाव, (२) सन्तान का होकर मर जाना (३) सन्तान का मूखं होना, अरिक्षित रहना आज्ञाकारी न होना, बाप का रुपया हड़प कर जाने की नीयत से बापसे मुकदमे कडना । बाप को कष्वहरियों मे घसीटना, बाप से ¶थक्‌ रहना ओर कर एक कर्णकट, अवांछनीय दोष ल्गा कर सम्पत्ति का विभाजन करवाना आदि- आदि क्क शस्यरैजोपिताको असष्यक्ष्टका कारण होतेर्है। यदह अन्तर्निहित म्म है । सत्‌ पुत्र का जन्म तो प्राक्तन जन्मकृत पुण्य का फल है :- “पुण्यतीर्थं कतं येन तपः कायति दुष्करम्‌ । तस्य पुत्रो भवेद्‌ वश्यः समृद्धो धार्मिकः सुधीः ॥*› एेता नीतिवम्वन है । “खमे सू्यै समुखन्नो नाना लभसमन्वितः। ` सात्विको धार्भिको ज्ञानी रूपवानपि जायते ॥ कारिनाय अथे- जिसके जन्मलग्न से एकादश में ८ लाभभाव में ) सूर्य॑हो तो इसे कड प्रकारसेधनका लाभ होता है। यह मनुष्य साविक परङृतिप्रधान, धार्मिक कामों के करनेवाला, ज्ञानी ओर सुन्दर होता है । “गीतविद्‌ बहुधनी; शभकमाौ प्र्षिगे दिनमणौ गणनाथः ॥ यदेवं अथे- जिसके एकादशभाव मं सूर्यो तो वह मनुष्य गीतदाख्र का ज्ञाता होता है । यह धनान्य, श्चुभ कमं करनेवाला भौर जनतामें नेता तथा लोगों का मुख्य पुरुष होता है । “भानौ सभगते . वित्तविपुरः खरी-पुत्र-दास्यन्वितः ॥› येनाथ अथ–जिस मनुष्य के जन्मखमय मे जन्मल्म्र से एकादशभाव मं सूर्यं स्थित हदो तो यह मदान्‌ धनिक दोता है । इसे खरीसुख तथा पुज्सुख ग्राप्त होता

६७ चमत्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक् स्वाध्याय

है । इसके घर पर इसकी सेवा के लिए दास-दासिर्योँ उपस्थित रहते हैँ । अर्थात्‌ इसे सवविध सांसारिक रेश्व्यं भौर सुख प्राप्त रहता दहे । ““सष्यनिरतो बख्वान्‌ द्वेत्यः प्रेष्यो विषेयग्वव्यश्च | एकाददो विधेयः प्रियरदितः सिद्धक्मां च || कल्याणवर्मा अथे- भिस मनुष्य के जन्मसमय में जन्मल्य से एकादशभावमें सूर्य हो तो यह्‌ धन सख्य करने मेँ ल्गा रहता है. । यह वल्वान्‌ होता है। लोग इससे द्वेष ओर विरोध करते ह । इसके नौकर इसकी आज्ञा के अनुकूल चरतं ह । इसे क्रिसी प्यारे का वियोग सहना होता है। यह जिस काम को करता दे इसमं इसे सफल्ता मिक्ती है । अर्थात्‌ यह सिद्धारम्भ होता है । “गीतप्रीति चारुकमंप्रवृतिं चंषत्कीर्विं वि्तपूर्ति नितान्तम्‌ । भूपात्‌ प्राति नित्यमेव प्रकुर्यात्‌ प्रासतिस्थाने भानुमान्‌ मानवानाम्‌ ॥ दृढिरा् अथं– जिसके जन्मसमय मे जन्मल्य से एकादशमावमे सूर्यं स्थित हो तो उसे गायन विद्याम प्रेम होता है। इसकी रुचि भ कर्मो केकरनेमें होती दे । यह कीर्तिमान्‌ होता है । यह धनसे पूर्णं होता दै। इसे राजासे नित्यमेव धनप्रापि होती रहती है | | “लाभे प्रभूत धनवान्‌ |” भाचायं वराहमिहिर

  • अथ यदि लाभस्थान में सूर्यं हो तो मनुष्य धनान्य होता है | ““वहूतरधनमागी चायसंस्थे दिनेरो नरपति गहसेवी भोगदीनो गुणज्ञः । ङरतनु धनयुक्तः कामिनीचित्तहारी भवति चप्ममूर्तिः जातिवर्गं प्रमोदी ।। मानसागर अथे– जिसके जन्मसमय मे जन्मल्य से एकादशभावमें सूर्यं हो तो मनुष्य को बहुधनवान्‌ होने का सौभाग्य प्रा्त होता हे । यदह राजसेवक होता दे-अर्थात्‌ इसे राजकर्मचारी वनने का मौका मिलता है । यह निगंण तथा गुणवान्‌ क परीक्षा करनेवाला होता दै । अर्थात्‌ यह स्वयं गुणी होता है; सूतः यद्‌ दूसरे के गुणों की कदर करनेवाला होता है । किन्तु इते उपभोग ठ्नेका सौमाग्य नहीं मिल्तादै। यह शरीर से दुबला-पतत्म होता हे। इसके पास धन रहता है । यह इतना सुन्द्र भौर मनोहर रेता दहै कि इसे देखते ही कामिनी-किोरियां का चित्त फड़क उटता है ; सौर ये सुन्दर्या इसकी तफ चिष्वी हुई स्वयं ही चटी आती ई | दुसरे शब्दों मे यह मूर्तिमान्‌ कामदेव दही होता है| | “भवगतेऽके बहुधनायुर्विगतद्योकोजनपतिः |> मंत्रेदवर अथे–जिखके जन्मसमय मे जन्मल्म्र से एकादशमाव मँ सूर्यं हो तो यह मनुष्य धनी ओर दीर्घायु होता है। इसे अपने किसी प्यारे कौ मृत्यु का दोक दास्य सहना नहीं पड़ता है । यह राजा अथवा जनगण का मुखिया होता है ।

५ सूुयफर ६५ ‹”य॒द्‌ यापिखाने भवेत्‌ शम्पखेटः सुवेषोधनी वाह नान्यो ऽस्परीटलः । सुयोषः श्चुभौकः सिपादी सलाद सविर्गी तगानेसुने चोऽपि शिदारः ॥> ख।नसख ना

अर्भ यदि सूर्य॑ एकादश्षमाव मे हो तो मनुष्य खुवख्र तथा सुन्द्र दता हे । यह धनी होता दै । इसे सवारी का सुख प्रात रहता है, अर्थात्‌ इसके धर पर घोड़ा-गाड़ी अदि सवारियो मौजूद रहती ई । यह अच्छे स्वभावका दोता है । सिपाही यौर नेक सलाह देनेवाला दोता दै । यदह गायनविया मं प्रेम रखता ह । इसकी ओं सुन्दर होती ई । ओर यह खोगों मे सरदार होता हे !

‘गीतप्रीतिं वचारुकर्मप्रडमतिं प्वष्वत्‌ कीर्ति वित्तपूर्तिः नितान्तम्‌ । भूपात्‌ प्रासिं नित्यमेव प्रकुर्यात्‌ प्रािस्थाने भानुमान्‌ मानवानाम्‌ ।॥*› महेश

अ्थ- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे जन्मल्य से एकादशभाव में सूर्यं हो तो यह गायन-विन्ा का प्रेमी होता है । इसकी प्रहृत्ति ्चभकर्मो के करने में होती ३ । यह यशस्वी ओौर धनाढठ्य होता दै । इसे राजा से नित्यमेव धनप्रापि होती रहती है । भ्रगुसूत्र-बहुधान्यवान्‌ । पंच्विंद्तिवषं वाहनसिद्धिः । धनवाग्जाल्द्रव्याजेन समर्थः ¦ प्रमुञ्वरित श्रत्यजनस्नेदः । पापयुते धान्यम्ययः। वाहनदीनः। स्वक्ष स्वोचे अधिकप्राबल्यम्‌ । वाहनेशयुते बहु्षेत्रे वित्ताधिकारः । वाहन योगेन तु बहूुभाग्यवान्‌ । | अ जिसके जन्मल्न से एकादशमाव मेँ सूं हो तो यह मनुष्य बहुत से .धन-घान्य का स्वामी होता दै। पचीसवषं कौ आयु मे इसे सवारी का सुख मिक्ता है । यदह धन कमाने योग्य होता है। धनी होता है ओर वाक्पटु होता दै । यह बहुत से नौकरो का हाकिम होता रै ओर इसके सेवक इसे परेम करते है। यदि एकादश रवि का सम्बन्ध किसी पापीग्रहसेदहोतो इसका धान्यव्यय होता है। इसे सवारी का सुख नहीं रहता है । यदि यह रवि अपनी रारि का हो अथवा अपनी उ्रारि का दो तो मनुष्य अधिक बलवान्‌ होता है यदि इसक्रे साथ वाहनेश भी हदो तो बहुत स्थानों पर इसे पिन्ताधिकार प्राप्त होता है। इसे सवारी का सुख भी मिक्ता है । ओौर यह महान्‌ भाग्य- शाटी होता है। | ` यवनमत- धनवान, नौकर से सम्पन्न सुन्द्र-ख्री का पति, अच्छी इमारत का मालिक, अच्छे पदाथं खानेवाला, गने-वजाने का शौकीन; गुस- विष्वार करनेवाला, अच्छी ओंँलोँवाल् होता हे । पाश्चात्यमत- स्थिर भौर विश्वासयोग्य मित्र दोतेहै। रविं बलवान हो तो वे इसकी मदद करते है, किन्त दूषित या निषेक दहो तो मदद के स्थान पर नोञ्च बन जाते द । विचार ओर अनुभव- प्राचीन फलतज्योतिष पर ङिलनेवाले अन्थ-

६६ चमत्कारचिन्तामणि का तुखनात्मकर स्वाध्याय

कारोंने एकाटखभावस्थित सूं के फट उत्तम से उत्तम बतलाए रहै) इन ग्रन्थकारीं ने कौन-सा फल किस रारि मं अनुभव मं आएगा-एेसा कोई संकेत नहीं दिया है । अतः अनुभव प्राप्त करना ही आवद्यक है | अनुभव क सहारे से सुष्ष्मदष्टि से एकादशमावस्थ रवि का विचार किया जावे तो पाया जावेगा कि इसरविसे कोन कोई दुःख पीछे ल्गादी रहता हे । कमी संपत्ति का अभाव तो कभी संतति का अभाव होतादै। दोनों का एक साथ सुख तमी मिख्ता दे जब इस रवि के साथ अन्य पापग्रह युभयोग करते हां अन्यथा नहीं | एकादशस्थान से जनपद कासि, सभा-क्ट्व, बडे भाई का विष्वार भमीक्याजा सक्तादहे। पाश्चात्य ज्योतिषी इस स्थान से भिन्न-भिन्न परिवार कासुख; मित्रोंकी मदद के सुख का विष्वार करते है। यह रवि बडे भाई के लिए अच्छा नदींदहै। इस भाव कारवि यदि मेषरारिमंदहोतो संतति का अमाव होता ₹। यदि सतति होमीतोरहती नदीं दहै। यहरवि मिथुनयरिमेंदहो तो दो-तीन पुत्र होत दहै ओर मर जाते दह । यदह सूरय सिहरारिमेंद्ो तो दारिद्रययोग वनता हे। ल्डकिर्यो अधिक होती है । ठलाराशि में यह सूर्यंहोतो धन, सम्मान; कीति, सभीकुर मिल्ता हे । धनुराशि मे सू्य॑हयोतो मनुष्य कानून का विदोष्ज्ञहोताहे। कुंभकारविदहदोतो मनुष्यदद्रिहोता है, यह रवि कि कसी भी पुस्प्रररिमं होतो बडे माई का घातकः बनता है। य॒दि कसी संयोगवशा म्त्युन हो तो परस्पर कलग होत ह! परिणामतः विभाजन होता दै, प्रथक्‌ निवास होता, यदि यह रवि स्त्रीरायि का दहो संतति-संपत्ति दोनों होत द । यदि पुरुषराशिमे यह रविदहो तो संपत्ति मिलती हे अवद्य, किन्तु मेहनत से मिटती हे। स्रीरारि का रविहोतो अचानक संपत्ति मिट्ती हे | ॑ द्वाद शभाव–

“रविद्रोददो नेत्रद करोति विपश्चाहवै जायतेऽसौ जयश्रीः ।

स्थ्रातट्त्यया लीयते देदुःखं पिदृव्यापदो दानिरध्वप्रदे दो” ॥।१२॥

अन्वयः- मसो रविः द्वाद ( स्थितः सन्‌ ) नेत्रदोषं करोति, विपध्चाहवे ( तस्य ) जयश्रीः जायते, लन्धया स्थितिः ८ जायते ) देहदुःखं टीयते, पितर- व्यापदः ( स्युः ) अध्वग्रदेदो हानिः ( स्यात्‌ ) ॥ १२॥

सं टी<–अथ द्रादशस्थरविफल्म्‌- द्रादरो गतः असौ रविः नेत्रदष्ि मेदटष्टित्वं, पित्व्यापदः पित्रव्यभवक्केशान्‌ करोति । तथा विपक्चाहधे रात्रुसंगरे जयश्रीः टन्धया ठन इच्छया स्थितिः एकव्रावस्थानं । अध्वप्रदेदो मागे हानिः क्तिः जायते । तथा देहदुःखं लीयते नदयति आगत्य पतेत्‌ वा, यथानुभवं

सूयंफल ६७

व्याख्येयम्‌ । पित्व्येव्यादौ अध्वप्रदेरो पिवरव्यापदः तिवन्यमरणात्‌ तस्छंठनाद्‌ वा हानिः स्यात्‌ इव्यथेः ॥ १२ ॥ अथेः- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे जन्मल्य से द्वादशस्थान मे सूर्य होतो इसे नेत्रपीडा होती है। शत्रुओंके साथ युद्ध मं इसकी विजय होती हे । प्राति कीइच्छासे स्थिरता होतीदहै। शरीर कादुःख दूर होता हे। चाचा की तफं से आपत्तर्योँ उटती हँ । यात्रा मे इसे हानि परहूचती हे । टिप्पणी– सस्त टीकाकार ने धात्रा करने गए हुए चाचा की रास्तेमें मत्य के हो जाने से अथवा रस्तेमें चोरों द्वारा चाचा के डुटजाने से इसे हानि पर्हु्बती हेः एेसा अथं मी किया दहे। सामान्य अथ वाचा की ओरसे आपत्तियोँ उठती ई” एेसा ही किया हे । तुलना–““व्यये चेदादिव्ये जनुषि नयने कष्टमधिकं क्षतिमगेंऽकस्माद्‌ निज वपुषिपीडा च निविडा । सिपूणां संग्रामे भवति विजयश्रीस्तनुश्रतः स्थितिर्यो चांचत्यात्‌ जनकसहजारतिश्चमहतीःः || जीवनाय अथं–जिस मनुष्य के जन्मसमय मे जन्मल्य से बाहवे भावमें सूर्यं होतो इसे ओंखों मे रोग होने से अधिक कष्टं होता है। अर्थात्‌ द्वादद्ाभाव कारवि नेत्रपीड़ा करता हे। रास्तेमें चले हए इसे अकस्मात्‌ धनानि दोती दै। इसके शरीर मं विरोष व्यथा होती हे। शतुओं के साथ युद्ध में विजयलक्ष्मी इसे प्राप्त होती हे 1 यह चंचल होता है, इस कारण इसका स्वभाव अस्थिर होता है। इसके पिता कै भाई को महान्‌ कष्ट होता है। अथवा अपने चाचा से इसका वैमनस्य रहता हे । (स्वधमेहीनो द्रविणेनदहीनः सरोगनेचो वरप चौर भीतिः | विरुद्धचेष्टो भवतीहमव्यां व्ययस्थितश्ेद्‌ दिवसाविनाथः ।।> जयदेव अथे–जिस मनुष्य के द्वादशमाव मे सूर्यं होतो वह ऊुल्परम्परागत धमं से विरुद्ध चर्ता हं । अर्थात्‌ यह श्रुति-स्मृति प्रतिपादित कुख्परम्परागत स्वधमं का परित्याग करता है ओर धर्मान्तर मे चला जाता है अर्थात्‌ विधमीं ओर ध्मभ्रष्ट हो जातादहे। यह निधन होतादहै। इसे ओंखों के रोग, रात्यन्धता, मन्ददषशिता आरि रोग होतेह इसे राजासे ओर चोसें से भय रहता हे । किसी बहाने से राजा, राजदंड द्वारामेरा धनन लूट छेवे भौर प्वोर, श्वोरी करके मेरा धन न चट टे-ेसा भय सदैव बना रहता ह । इसकी चेष्टा धमंविरुद्ध तथा समाजविरुद्ध होती है । “ध्ययस्थिते पूषणि पुत्रशाली व्यंग: सुधीरः पतितोऽयनः स्यात्‌” ॥ वैद्यनाथ

अथं–जिसके बारहवे भाव में सूर्यं हो वह मनुष्य पुत्रवान्‌ तथा वैर्यवान्‌ होता है। दारीर के किसी अवयव मे यह व्यंग अर्थात्‌ विकृतांग वा अङ्गहीन

६८ चमत्कारचिन्तामणि का तुरखुनास्मक स्वाध्याय

होता है । यह धर्मपतित होता है। ओौर यह व्यर्थं इधर-उधर भटक्रनेवाटा होता दै ।

जडमतिरति कामी चान्ययोषिदूविंखसी, विहगगणविघाती दुः्टचेताः कुमूर्तिः

नरपतिधनयुक्तः द्रादरस्थेदिनेदो कथकजनविरोधी जंघ्रोगी कृशांगः ॥ 2 मानसागर

अथे- जिसके वारदर्वेभाव में सूर्यं हो वह मनुष्य मूर्खं होता है । यह बहुत कामुक व्यक्ति होता हे। यह पर-स्रीगामी होतादहे। यह पक्षिसमृह्‌ काना करतां हे । अर्थात्‌ यह आकाशम उड्ते हुए पक्षियों का दिक्रार करता दै । यह दुष्टहृदय तथा कुरूप होता है । इसे राजा से धरन मिलता हे। इसे जंघाके रोगहोतेहै। यह दुर्बल देह होता है। यह साश्रारण रोगों से विरोध रखता है ।

“¶िकर दारीरः काणः पतितः वंध्यापति पितुरमित्रः । दादशसंस्थे सूये वरूरदितो जायते क्षुद्रः | कल्याणवर्मा

अर्थ- जिसके द्वाद्भावमें सूर्यो तो वह मनुष्य काणा तथा धर्म॑ पतित अर्थात्‌ धमभ्रष्ट होता है । इसका शरीर व्याकुल रहता है अर्थात्‌ यह नीरोग नहीं योता हे । यद्‌ बन्ध्याख्री का पति होता दै; अर्थात्‌ इसकी सत्री संतान पेदा करने के अयोग्य होती है । यह सपने पिता से वैमनस्य ओर विरोध रखता हे । यह बलीन ओौर तच्छ स्वभाव का व्यक्ति होता दै। तच्छ अर्थात्‌ ओके स्वभाव का होता है ।

“पतितस्वुरिः फे आाचायंवराहुमिहिर

अ्थ- जिसके ल्यसे द्वाद्रास्थान (रिफ) में सूर्यं दो तो वह मनुष्य पतित अथात्‌ कुःल्परम्परागत धर्म से विरुद्ध चठ्नेवाला, धर्मभ्रषट प्राणी होता दै ।

“पितुरमित्रं विकलनेत्रो विधनपुत्रो व्ययगते > मंत्रेश्वर

अथे–जिस मनुष्य के जन्मल्य से द्वादशस्थान में सूर्यो तो उसका वैमनस्य जपने पिता से रहता है । भर्थात्‌ द्वाददामावगत सूर्यं के प्रभाव में उत्पन्न मनुष्य अपने पिता के साथ रात्र जैसा वर्तव करता ई। इसकी खि मन्ददष्टि भादि रोगों से युक्त होती है । यह धनहीन तथा पुत्रहीन होता ह ।

` (तेजोविहीने नयने भवेतां तातेन साकं गतचित्तदृत्तिः । विरुद्धबुद्धिः व्ययभावयाते काति नलिन्याः फल्सुक्तमारयैः “> इंडिराज

अथ–जिस मनुष्य के जन्मल्यय से द्वाद्रस्थान में सूर्थदो तो इसकी ओंखं नत्रज्योतिहीन होती है, दूसरे शब्दो मै यह मनुष्य अंधा होता है। इस मनुष्य कौ चित्तवृत्ति अपने पिता की चित्तवृत्ति से नदीं मिल्तीडहै। अर्थात्‌ यदह मनुष्य सदेव पिता से विरोध करता है । जन्मदाता होने के ख्याल से, पोप्रक तथां शिक्षक होने के ख्या से अपने पिताका मान आदर तथा प्रतिष्ठा नहीं करता है । इसकी बुद्धि विरुद्धाष्वरण की ओर ञकी रहती है ।

सूयंफल ६९

““यदाखचखाने भवेत्‌ शम्सखेटस्तदा कम्न निर्मानदीनो नरः स्यात्‌ । अहल्खचंकः सतूक्रियो वा शरारतपनाहः सदा पीञ्यर्तेऽगेषुरोगेः ॥ > खानखाना

अथे- जिस मनुष्य के द्वादशभाव मे सूर्यं हो तो इसकी ओंखं नेचज्योति- हीन हाती ह । अथात्‌ इसकी बाई ओंख अधिक कमजोर होती है । थह मानहोन, हूत खी वा उत्तम काम करनेवाखा, दुष्टों का रघ्चक ओौर अच्यन्त क्रोधी होता हे । इसके शरीर मे पीड़ा रहती दहै । कडई-एक रोग इसे कष्ट देतंर्ह|

““तेजोविदहीने ययने भवेतां तातेनसाकं गतचिप्तचत्तिः वेर्द्धबु द्धः व्ययभावयाते कांते नलिन्याः फलसुक्तमायेः || महेश्

अश– जिस मनुष्य के द्वादशमाव मे सूर्यं हो तो इसकी अखि नेत्रज्योति- रहित होती ह । वाप-वेटा दोनों मँ परस्पर सौमनस्य नदीं होता है-अर्थात्‌ परस्पर वाप-वेया मं शत्रु-षडष्टक रहता हे । यह द्वादशरवि का फट महान्‌ अश्रेयत्कर तथा अमंगर्कारी अञ्चभ फलक है । इसकी बुद्धि इसे विरुद्धाप्वरण की अर प्रेरित करनेवाटी होती हे ।

भ्रगुसूत्र–षटतरिराद्‌ वधे गुल्मरोगी । अपात्रव्ययकारी पतितः धनहानिः । गाहत्यादोषङ्कत्‌ ; परदे रावासी । भावाधिपे वल्युते वा देवतासिद्धिः। रय्या खष्टंगादि सौख्यम्‌ । पापयुते अपात्रन्ययकारी, सखखशय्याहीनः । षष्ठेशयुते कुष्ररःययुतः ¦ दभदष्टियुते निच्रत्तिः । पापी, रोगव्द्धिमान्‌ ।

अथे– जिस मनुष्य के व्ययभाव मे ( दवादशस्थान में) सूय होतो इसे छतततीसवपं की आयु में राव्मरोग (पेट का रोग-वायुगोला) होता है। यह मन॒ष्य प्रतित अर्थात्‌ स्वधमेपतित-स्वधमभ्रष्ट होता है अर्थात्‌ स्वकु परपरापाप्त श्रौत-स्मातं धमं पर विश्वासी नहीं होता है। प्रत्युत इसका आष्वरण इसके विग्रं रहता है। इसके धन का व्ययेसे कामों पर होता दै जिससे प्र्यवायहो ओौर जो व्यय असद्‌ व्ययकी कोटि में गिना जावे । यह निर्धन हःता है । इसे गोहत्या करने का दोष ठ्गता है । यह स्वदेश छोडकर परदेश मं उस करता हे ।

यदि भावे बलवान्‌ हो तो इसे देवसिद्धि प्राप्त हो सकती हे | इसे शय्या- सुख भी प्राप्त होता हे। यदि द्वादशमावस्थ रवि के साथ कोड पापग्रह युति

क्रतो इसक्र घन का खच कु.पाच्र के ऊपर किया जाता है अर्थात्‌ यह मनुष्य

पात्रापाच-विचार बुद्धिद्यल्य होता हे अतएव असद्ग्ययी होता है। यह राय्या- सुख स वंचित रहता हे । यदि इस स्थान के रविं के साथ षष्ठेरा (रोगेश) कायोगहोतो इसे कुष्टरोग होता हे। यदि इस स्थान के रवि के साथ किसी दुभम्रह क युति हो-अथवा कोद शुभग्रह इस पर अपनी श्ुभदृष्टि डाल रहाद्योतो कुटरोगदूरहो जाता है। अन्यथा यह मनुष्य पापकर्मा होता हे–दसे नानाविध रोग कष्ट देते रहते |

1

नः

७ चमव्कछारचिन्तामणि का त॒ख्नात्मक स्वाध्याय

यवनमत-यह रवि चन्द्र से युक्तन होतो अंतिम आयु में विजयी आर भाग्यवान्‌ होता है । ये लोग अजवदही होतेह । बड़े मेहनती ओर धूतं होते है; किंतु सफट्ता कम मिल्ती हे ।

पाञ्चात्यमत– जीवन मे सफलता, किंतु यह दूषितो तो कारावास

होता हे।

विचार ओर अनुभव द्रादशस्थान दुष्टस्थान व्यवस्थान रै–इसे सभी फलितज्योतिष पर टल्िखनेवाले प्राचीन म्रंथकारोंने बुरा स्थान माना दै अतः इसके समी फल बुरे है-णेसा मत प्रकट कियौदहै। किंसीएकने इन अद्ुभफलों के अपवादं से एकाध श्युभफलक भी बताया है । “नरपति धनयुक्तः? एेसा मत मानसागरी के र्वविता मानसागर का है । व्यय का अर्थ–^घनव्यय- घन का खच” हे। क्तु भ्रगुसूत्रकार ने (मपा्रव्ययकारीः रेसा कहा रहै जिससे (सत्पात्रव्ययकारी का बोध होतादहे। ध्यय अपात्रमे नहीं होना चादिए ओर सत्पात्र मे व्यय सद्ग्यय है-ेसा संकेत मिलता है । तात्पर्य यह हेकिदाताके लिए आवदयकदै किंदान देने के पूर्वं पात्र-कुपात्र का विचार करे । दान के विषय में निम्नटिखितपय का परिशीखन तथा मनन आवद्यक हे – “दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे । देरोकाे च पात्रे च तदान साचिकं विदुः | पात्रापात्र का विष्वार–पात्रव्यय?-तथा (अपा्र- ग्ययः ये दो को्िर्यो ह । दूसरे र्द मे “सद्व्ययः तथा “असद्‌ब्ययः ये दो कोर्र्यो ह । इनका विष्वार आवद्यक है ।

दादशभावस्थित सुयं यदि अश्चुभम सम्बन्धमें दहो इसकी युति यदि किसी पापग्रह के साथहोतो इस दूषित रविं के प्रभाव मे आया हुआ मनुष्य “अपात्र ग्ययकारीः होता दहे) इसी सन्दभं मे सत्‌-असत्‌ व्यय का संक्षिप्त विवेचन भी आवश्यक दै। (सत्ये ज्ञानमनन्तं ब्रह्मण एेसी श्रति है। सत्यपदार्थ- सत्‌पदाथं केवल व्रह्म ही है-इसके अतिरिक्त ओौर सभी पदार्थं असत्‌” ईै- इनकी सत्ता प्रतीतिमाच्र सत्ता है-व्यावहारिक सन्ता है-पारमा्थिक सन्ता नहीं हे । एतद्थंक सत्‌ शब्द्‌ का योग ध्यय के साथ समास द्वारा हुभादै। जिस व्यय से अन्ततः सत्‌ की प्राप्ति हो, यह व्यय्‌ सर्वश्रेष्ठ साचिक व्यय है| दष्टापूतंपर द्रव्यव्यय सदूव्यय माना गया दै । ताल्मव-कुंभ-बावली-मन्दिर- धमंशाला-विश्रामण्ह सादि पर किया गया द्रव्यव्यय सदूव्यय की कोटिमें दै, क्योकि इससे अट्टः पैदा होगा-चूंकि यदह सदूव्यय निष्कामधर्ममूलक है इससे मोक्षः की प्रासि होगी । इसके विरुद्ध-पापाष्वार को प्रोत्साहित करने के लिए सतीसाध्वीची को कुमागंगामिनी बनाने के लिए सतीत्वव्रत से पतित करने के लिए तथा मयपान अआदिपर जो धनव्यय होगा । इसे सद्‌ व्यय-अपव्यय-अपात्रव्यय कहा जावेगा, क्योकि इस व्यय के मूलमें पापहे यअसत्‌कामना है-अतः इस व्यय का परिणाम केवल्माच्र नरक ही हो सकता

सूयेफर ७१

हे इस अन्तर्निहित भाव को केकर सूत्रकार ने (अपात्र व्ययकारीः इस अश्चभ-
फल का निर्दर किया हे  

“्शाय्या खट्वा अङ्कादि सौख्यम्‌” “शय्यासुखदीनः”” इन दोना सूतरोपर कुक छिखना भी आवद्यक प्रतीत होता है । शय्या खुख से सखरी-सङ्ग सुख मन्तव्य है । यदि द्वादशभाव का स्वामी बल्वान्‌ हो तो शय्यासुख मिल्ता रै, यह सूत्रकार का सम्मत है । खीसुख तभी प्रास्त होगा यदि स्त्री पति- परायणा होगी-अन्यथा यदि खी पतित्रतान होकर पथभ्रष्टा पर-पुरूषगामिनी . हई तो शय्यासुख का मिलना स्वप्न का धन होगा ।

यदि इस स्थान के रवि के साथ करिंसी पापग्रह की युति होगी तो शय्यासुख का अभाव रहेगा | अथात्‌ यदि खी जघनष्वपल्म तथा कुख्टा हई तो शय्यासुख पतिकेरिए स्वप्नका धनी होगा सम्भवदहै यह योग पतिके छर मारकयोग॒ हो | अद्रतनप्रीति-विवाहप्रथा-मनपसन्दशादी, ` विवाहविच्छेदक न्यायाट्य का सहारा-पतिव्रताधरम का नाशक होता हभ पति का घातक हो सकता है| अतः सूत्रकार का संकेत पातित्रत्यधर्मं को प्रोत्साहन देने कौ ओर हे-एेसा प्रतीत होता है ।

दादशस्थान का रवि कर्क, बृश्चिक ओौरमीनमे होतो पुरुष खर्ीखः वेफिकर, राजनैतिक कारावास पानेवालखा;, लोकोपकारी, तथा युद्ध मं पराक्रमी होता है| वृष, कन्या, मकर में पुरुष ध्येयवादी, इसमे आनेवाठे सव संकट रान्ति से सहनेवाख-सत्कर्मकता होने से ख्याति पानेवाला; स्वतंत्र, धनेच्छुकः ओर विष्वारपू्वक काम करनेवाला होता है ।

मेष, सिह, धनु मे पुरुष कृपण, वि्वारहीन, अभिमानी, अदंमन्य बुरे कामों के करने से दंड पानेवाला होता हे ।

मिथन, तला, कुम मे खर्बीटा, अपने वगं तथा समाज मे विख्याति पाने- वाल पुरुष होता है |

परदेदावासी-आजकलके भारतम जो छोग विदेश जाते दै भौर सम॒द्रयात्रा करते है-इनका मानः इनकी प्रतिष्ठा, इनका मूल्य लोगों कौ दृष्टि मे बहुत दहै । प्राचीन मारत म समुद्रयात्रा निषिद्धकोटि मेथी गुसूत्र का सकेत भी परदेश-निवास के विरुद्ध है । सूत्रकारके मतम द्वादशरवि का यह अञ्चुभ फल है । परदेश मे मनुष्य उच्छुखल हो जाता है-खोक-परखोक भय से विसक्त होता दै। कुमागंगामीभी हो सकता है । विधर्मीभी हो सकता है अतः सूत्रकार की दृष्टि मँ परदेशवास अच्छा नदीं हे-णेसा माव प्रतीत होता है|

महामारतकालट के प्राचीन मारत में अन्रणी चाप्रवासी चः एेसा कहकर व्यासजी ने ‘स्वदेशयासः का ही अनुमोदन करिया है|

७२ चमत्कारचिन्तामणि का तुटनात्मक स्वाध्याय

| अरिष्टग्रहः इान्ति-परादार वचनम्‌- | “यस्य यश्च यदा दुम्स्थः स तं वलेन पूजयेत्‌ | | एवं धात्रा वरोदत्तः “पूजिताः पूजविष्यथःः मानवानां ग्रहाधीना उच्छायाः पतनानि च। मावा भावौ च जगतां तस्मात्‌ पूज्यतमा म्रहाः॥ इति | क चन्द्रविचार :- चन्द्रमा के पयोयनाम–चन्द्र; अन्ज, जेव, अत्रिज, ग्छौ, मरगांक) उडुपति, शीतद्रति, इन्दु, सोमः द्विजराज, शशधर, क्षपाकर, विधु, भ्रां, सीतगु, रायांक, वुहिनरुः कटेश, नेत्रयोनि; यामिनीक्ष, पाथोधिपुत्र, जलनिधि तनय, कुर्द, कुख्दिनी; अन्धिज, दहिमकर, अभिरूप, अग्रत) अम्बु, जलज, तारापि; नक्षत्रेशः ठ्हिनकरः; गीतां, राकापति; रीतरद्मि, गयी, समुद्रांगज, कुमुट बन्धु, जेवातृक;, तंगीर । चन्द्र-स्वरूपवणेन :- निरापतिः व्र्ततनुः सुनेत्रः कफानिलत्मा किक गोरवणः प्राजञोऽतिरोखो मृदुवागृघ्रणी च प्रियप्रियोऽसौ खलंगोणितौजाः ।।” जयदेव अथे–चन्द्रमाका शरीर वरल (गो) है। इसकी आधिं सुन्दर इसकी क्फ-वायु्रधान प्रकृति है । यह गोरे रगकादहे। यह्‌ बुद्धिमान्‌-चंचलठ अर मीठा वोख्नेवाख हे । यह दया ओर मित्रोंका प्यारा दहै। यह रुधिर से आज्स्ठीदहे। एेसा चन्द्रमा का स्वरूप हे। ˆसदूवाग्‌ विखास)ऽमट्धीः सुकायः रक्ताधिकः कुचितकरष्णकेशः । क्नाऽनिलात्माऽम्बुजपत्रनेत्रो नक्चच्रनाथः सुभगौऽतिगौरः ।।> दु’डिराज अथ–चन्द्रमा समयानुकूढ उचित मापण करनेवाला है । इसकी वुद्धि निमल ह ¦ इसका देह मन्दर है। यह धिक श्ुद्धरक्तवाखा है । इसके केदा काठ अर वुधराटे ह । इसकी प्रकृति कफ ओौर वायुप्रधान है] कमलपत्रवत्‌ विदाटनत्रबाल्य, सुन्दर ओौर गौरवर्णवाटा चन्द्रमा है | तनुदत्ततनुः बहुवातकफः प्रार्श्चररी मदुवाकः श्युभटक्‌” ॥ क्षाचाय वराहमिहिर अथ– चन्द्रमा का देह पतला (दुर्बर) ओौर गोढ है । यह चन्दर विरोधतः वात-कपमक्ुतिवाटया हे। यह बुद्धिमान्‌, मीटा बोख्नेवाला मौर सुन्दर ओखांवास हं | ‘^त्यूलययुवा च स्थविरः कृदाः कान्तेक्षणश्चासितसूष्षममू्धजः रत्त.कसारः मदुवाक्‌ सितांडुकः गौरःरदरी वातकफात्मकोम्रदः”” |] मन्त्रेश्वर अथ चन्द्रमा का शरीर रूट ({ ब्डा-मोया) है। यह युवावस्थावाला

चन्द्रविचार ७द.

है ओर पौटावस्थावाला है। इसका शरीर कमजोर है–इसके नेत्र सुन्दर है। इसके केश कृष्णवणं ओर वारीक ८ सुक्ष्म ) ह । इसके ररीरमें रक्त की प्रधानता है। यदह कोमटबाणी बोट्नेवाला दै । इसके व्र सफेद है यद गौर वर्णं है । यह कोमल, कफ-वातप्रधान प्रङृतिवाला हे ।

रिप्पणी- “चन्द्रमा स्यूलभीदै आओरङ्शाभी दहै । यह आपाततः विरुद्ध कथन है, क्योंकि कोड व्यक्ति एक समय में स्थूल भी मौर कश भी नहीं हो सकता है। समाधान-यदि पक्षवरु अधिकं हआ तो शरीर स्थूल होगा ओर यदि पक्षबल स्प हआ तो शरीर ङश होगा णेता अभिप्राय प्रतीत होता है । “भसंप्वाररीखोमृदुवाग्‌ विवेकी श्चुभेश्चषणञ्चारुतरः स्थिरांगः सदैव धीमान्‌ तन्‌च्रष्ठकायः कफानिरात्मा च सुधाकरः स्यात्‌ ?॥ वदनाय

अथं–यह प्रवासरीक है । यदह मधुर ओर कोमर वाणी बोख्ता है । यह विचारवान्‌ , सुन्दर ने्रोवाख, सुन्दर दारीरवाला ओौर सुददट्‌-शरीरवाला होता है । यह सदैव बुद्धिमान्‌ । शरीर गोरु भआकारवाख सौर वातकफप्रधान प्रकृतिवाख होता दै । एेसा चन्द्रमा का स्वरूप है ।

“चन्द्रः सितांगः समगात्रयष्टिः वाग्मी परिष्यग विवेकयुक्तः । कचितङ्दाः शीतल्वाक्ययुक्तः सत्वाश्रयोः वातकफानिलत्मा” ॥ व्यंकटेभ्वर

अ्थ—चन्ध्मा श्चभ्रव्णं है। इसका शारीर एक जैसा है। अर्थात्‌ ऊपर से ठेकर नीचेतक एक जेसा रै। यह अच्छा माषण करनेवाला होता है । इसके अद्धो मे विषमता नहीं है । यह विवेक-विचारवान्‌ हे । कहीं पर कृश हे । इसका भाषण शान्ति देनेवाख होता है ।

इसका दारीर दद है। इसकी प्रकृति वात ओर कफ की प्रधानता रहती है । एेसा चन्द्रमा का स्वरूप है ।

“सौम्यः कांतविलेचनः मधुरवाग्‌ गौरः कशांगः युवा ।

प्राञ्चः सृक््ममिकरुचितासितक्ष्वः प्राज्ञः मृदुः साविकः ॥

चारः बातकफात्मकः प्रियसखः रक्तेकसारः धृणी । बृद्धस्रीषुरतः षलोतिसुभगः श्भ्राम्बरः चन्द्रमा ॥ कल्यागवर्मा अथे– चन्द्रमा सौम्य अर्थात्‌ शान्तस्वभाव का होता है। इसकी ओं सुन्दर दै । वाणी मधुर होती है। यह गौर वणं है-शरीरसे कदां ओौर तरण प्रतीत होता है। यह ऊँचे कदबवादय है। इसके केश बारीक, धुंधराठे ओर काठे होतं ई । यह बुद्धिमान्‌ , ज्ञानी, कोमङ्‌ तथा साखिक होता है । इसकी प्रकृति विरोप्रतः वात भौर कफप्रधान होती है । इसे प्यारे अच्छे मित्रप्राप् दोत है । इसके शरीरम रक्तकी प्रधानता होती दहै। दृसरोंके विषयमे

७४ चमत्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

तिरस्कारभरी दृष्टि दोती है! यह बद्धाल्ियों में रममाण होता है) यह पल अओौर सुन्दर होता है । यह सफेद वस्र पहिनता है ।

टीप्पणी- प्रञ्च-ग्रहस्वरूप-वणन का प्रयोजन क्या? यह प्रश्च सभी के मनमेंपेदा होता दे । उत्तर यदि ल्समें कोई ग्रह होतादैतो इसी ग्रह के गुण ओर प्रकृति के अनुसार मनुष्य के गुण ओर प्रकृति होते है, यह प्रयोजन हे । यदि कोई ग्रह ल्य्रमंनहींदहोतो लग्नेश की तरह प्रकृति, अक्ति, गुण ओर स्वभाव मनुष्य का होता हे । अतः प्रत्येकग्रह की प्रकृति आदि का जान ठेना आवद्यक दहे । जो ग्रह लग्र को देखते है वे भी अपनी-यपनी प्रति के अनुसार मनुष्य को प्रमावित करते हँ] इसी तरह जो ग्रह मनुष्यको रोग आदि से पीड़ित करते है उनकी प्रकृति आदि के अनुसारदही रोग होते है अतः इन ग्रहों का गुण-दोष-स्वमाव का ज्ञान आवदयक है |

प्ररन– चन्द्रमा कैसा ग्रहै? श्चमदहैवा अश्म १ कब श्युभ अर कव अश्चुम ? कव वलीयान्‌ ओर कव निव हे १

उत्तर– चन्द्रमा छभग्रह है-एेसी मान्यता है । किन्तु अश्चभफर मी देता है । ओौर अपने स्थान का फल नष्ट करता है । शचु्कप्रतिपदा से दशमी तकः चन्द्रमा मध्यवली होता दे–इसके वाद्‌ दशा दिनतक अतिवल्वान्‌ ओर सतिम फलदाता होता हे । अन्तिम दश दिनों मेँ चन्द्रमा बलीन होता हे ।

बलहोन चन्द्रमा श्चभग्रहयुक्त वा श्चुमग्रहवीक्षित हो तो शुभफल मिलते है

पिले दश दिनों मे कुमार-अवस्था होती है । अतः कोई विरोध पल नहीं मिल्ता दै। वीव के दश दिनो म युवावस्था होती हे–अतः अच्छे न्युभफल मिलते है । अन्तिम दश दिनों मे बुटापा आर मरत्यु की स्थिति होती ईै- इसमें छमफुख कणं सभिखषा व्यथ हे । निराशा ओर अञ्मफल अनुभव मे मा सकते है |

॥५ ४

ककः ओर दृषराशि म, सोमवार, द्रेष्काण, होराङरुण्डली मे, स्वगृह मे, राग्यन्त मे? श्मगरहो कीद्षटिमे, रात्रि मे, चर्थस्थान मे तथा दक्षिणायन मं सन्धि छोडकर अन्यत्र ष्वन्द्रमा बलवान्‌ होता है । यदि समीग्रह चन्द्रमा पर दष्टिडाट रहे हों तो राजयोग होता है। चन्द्र्वाराध्याय-ष्टोक ३०, बृहत्संहिता मे आचाय वराहमिहिर ने चन्द्रमा किस समय सर्वथा मंगलकर्ता होता हे–इसका वर्णन किया है, वफ, कृद्‌पुष्प, कुमुद्‌ वा स्फटिक के समान अभ चन्द्रमा जगत के किए आनन्ददायक हे! तिथियों के नियमानुसार इसके क्षय-बृद्धि दो तथा बीच में को$ विकार न हो तो चन्द्रमा सबका कल्याण करता है |

गु्धपक्ष-एकादशौ से कृष्णपक्ष मे पश्चमी तक चन्द्रमा अति श्रमफल देता है ओौर बलीयान्‌ है।

चन्द्रविचार न

ऊष्णपक्ष– पञ्चमी से अमावास्या तक निर्बल ओर अद्म होता दै ओौर अद्युभफलू देता है । |

शङ्कपक्च की अष्टमी से कृष्णपक्ष की ससतमी तक पूरणं चन्द्र होता हे ।

कृष्णपक्ष की अष्टमी से श॒क्कपक्ष की स्तमी तक ॒क्षीणचन्द्र होता हे । यह वरिष्टजीका मत हे।

चन्द्रमा का विरोष विवरण–

वन्द्रमा–द्विपाद, स््रीग्रह. गुण-सत्वरुण. अवस्था– तारुण्य ओर प्रौटावस्था. तत्व–जकतत्व,. वण–गौरवण. धातु-रक्त. मणि– स्वच्छमोती, चन्द्रमणि, रस-ख्वण. देवता- जल. काल क्षण, दिरा- वायव्य, टषि-समदष्टि. उदय–पूवं वा पश्िम. बल्वत्ता–राि, त्ऋतु-वषा, समय-अपराह-सायकाल. कीडास्थान-नदौी-ताखाब, आयु-४८ या ७०, प्रदेर-वनदे श. अयन–दस्षिणायन., वणे- वेदय,

रोग-पांडरोग, जखोतपन्नरोगः- कामला पीनस, सखनीसम्बन्ध से होनेवाटे रोग, कालिका आदि देवियों से होनेवाली पीडँ तथा बाधा । चन्द्रमा का कारकत्व- बुद्धि, पू, सुगन्ध, दुगं की ओर जाना, रोग; प्राह्ण, आर्स्य, कफः, मिरगी का रोग, प्टीहा का बजाना, मानसिकमावः हृदय, खरी; पुण्य; पाप, खटाई, नीद; सुख, जलीयपदाथे, ष्वांदी, मोटागन्ना; सरदी का बुखार, यारा, कूं, ताखब, माता, समष्टि, मध्याह्न, मोती, क्षयरोग; श्वेतरज्ग, कटिसूत्र; कांसी का धातु, नमक; छोटाकद, मन, राक्ति; बावली, दीरा, शरदकऋत, दोघड़ौ का समय, मुखकान्ति, श्ेतवणै, उदर, गौरी की भक्ति, मधु, कृपा, दंसीमजाक, पुष्टि, गेह, कांति, मुख, मनकी दीघ्रगति, दही की ्वाह; तपस्वी, यशा, लावण्य; रात्रि मे बली, पश्चिमाभिमुख, विद्वान्‌, खाराः कामधन्धे की प्रसि; पधिमदिशा से प्रेम; मध्यलोक, नवरत्त, मध्यआयुजीवनः खानापीना, दुरदे शयात्रा, ट्प; कंघे की बीमारिर्योः छर तथा अन्य राजग्विह्णः अच्छाफटठ, अच्छारक्त तथा राक्ति; मछूटी तथा अन्य जलोत्पन्नजीव; सांप, सिर्क का कपड़ा, अच्छाविकास, चमकीटीवस्तु, स्फटिक; नरम कपड़ा, विद्युत- प्रवाह, चुम्कौय प्रवाह, माताका दूध, मासिक रजोदशंन, रेल्वेमधिकारी, जहाजों के कारखाने, अौषधिविक्रेता, लखोककमंविभाग, काव के कारखाने, वेधराल्, पेरैन्यदवाइ्योँ, अनाज की दुकान, किरानासामान, सिषवाश्विमाग वाटरवर्कस, साल्ट डिपार्दमेन्ट, आयात; नियात करविमाग, टकसाल |

७६ चमरकारचिन्तामणि का तुखनात्मक स्वाध्याय

नोर-छापाखाना, डरी, वनस्पति शास्र, वेग्यक, जन्तुखास्र, सृक्ष्मजीवराख्र, विमान, चाव, कपास, सकफेदवस्र, नसं, मिडवादफ इज्ञीनीयरिंग, दया, मोह, रानी, सरदारनी, उच्चगह पत्नी, जनता, प्रकाशक, घी-तेल, चामर, अरकार ।

प्राचीनग्रंथक्ार्यै कामत दहै कि पाणियों का देह जन्मट्य है-षडवर्गं इसके छः अंग | चन्द्रमा प्राण हे। अन्यप्रह धावुखूपर्दै। प्राण नष्ट होने से अंग ओर धाठ॒यों का नाद होता है । अतः सर्व॑ग्रहों में चन्द्रवक पधान है। अतः जन्मपत्र विचार करते समय चन्द्रमा का ॒विष्वार प्रधानतया कर्तव्य है। इसी भाव को केकर रारिगत चन्द्रमा का विष्वार करते है

मेप–मेषरारि का चन्द्र हो तो मनुष्य चंचटनेच, रोगी, धर्मात्मा, धनी, स्यूलजंघ; कृतज्ञ; निष्पाप, राजपूजितः, च्रीपरिय, दाता-जल्मीरु, आपाततः कटोर किन्तु पीछे गांतस्वभाव होता हे ।

वरृप–उृषराशि का ॒चन्द्रहोतो मनुष्य भोगी, दाता, ञयुद्धचिन्त, कार्य चुर, उदार, वलि, धनी, विलखासप्रिय, तेजस्वी भौर श्रेष्ठ मित्रोँवाला होता है।

मिशुन-मिथुनराशि में चन्द्रमा दो तो मन॒ष्य मधुरभाषी, चंचलनेत्र, दयालु, सुरतप्रिय; गानविन्यामिज्ञ, कण्टरोगी, यशस्वी, धनी, गुणी, गौरवर्ण, लम्बाकदवाला, चुर; उचितवक्ता; मेधावी, दटप्रतिन्ञ, कायंकुरट ओर न्यायकर्ता होता है |

कक–ककं मे चन्द्र हो तो मनुष्य उन्योगी, शिरोरोगी, घनी, दर, धर्मिष्ठ, गुख्मक्त मतिमान्‌; कशदारीर, कायकुराल, प्रवासप्रिय, क्रोधी, सरल हृदय, अच्छ मित्रोंवाटा; घर-गृहस्थी से विरक्त होता रै।

सिह-सिंहराि मं चन्द्रमा हो तो मनुष्य क्षमायुक्त, कार्यतत्पर, मच्मां- सप्रिय; ्रुमकरड, रांत; भीरु, अच्छे मित्रोंवाला, विनीत, अतिक्रोधी, माव्र-पित्र- भक्त ओर व्यसनी होता हे |

कन्या-कन्यारारि का चन्द्र हो तो मनुष्य विलासी, सजनानन्ददाता, सुंदर, धामिक; दानी, काय॑, कवि, ब्रद्धः वेैदिकधर्मनिष्ठ, लोकप्रिय, चव्यगीत- व्यसनी, प्रवासरतः चरी के िर्‌ दुःखी ओर कन्याजात होता दहै।

तुदखा-वुलागरि मं चन्द्र हो तो मनुष्य अकारण क्रोधी, दुःखी; कोमल्वाणी, दयाल, चचटनेत्र, चर संपत्तिवाटा, ग्रदेद्यर, व्यापार्वतुर, देवपूजकः, मिच्रप्रियः; ग्रवासी अं)र छोकमान्य होता है |

व्रश्िक–वृश्चिकरारि मं चन्द्र हो तो वाल्यावस्थातःप्रवासी, सर ह्यद्य, द्र, पीतनेत्र, परदारागामी, मानी, मिष्ठमाषी, साहस से अ्थाजंन करनेवाला, मात॒मक्त; संगीत-काव्य-कलाभिज्ञ होता है।

धनु–धनुरारि मं चन्द्र हो तो मनुष्य सूर, सुबुद्धि, साखिक, जनप्रिय, शिव्पज्ञ, धनाव्य, स॒न्दरस्रीपति, मानी, सच्चरित्र, मधरुरमाषी, तेजस्वी, स्थूलकाय अर कुल्धाती होता ह | |

चन्द्रविचार ७७

मकर-मकर मे ष्वन्द्र होतो मनुष्य कुलाधम; स्रीवश-स्रीजित, पंडित, परद्रेषी, गीतज्ञ, स््रीबछछछम; पुचरवान्‌, मात्रवत्सक, धनी-दानी-देमानटार नौकरो- वाला, दयाल -बहुवां घव, दूसरों द्वारा सुखपानेवाला होता हे ।

कुभ–कुमराशि मे चन्द्रमा हो तो मनुष्य दाता, आक्सी, तज्ञ, हाथी- घोडा-भौर धन का स्वामी होता है । यह सुद्रनेच, सौम्य धन ओर विद्या के अर्जन करने मे लीन, पुण्यात्मा, यशस्वी, स्व्चुजबलोपार्जित धनवाल; मंद्ूकद्र ओर निर्भीक होता दहे।

मीन–मीनरारि मे चन्द्र हो तो मनुष्य गभौर, चर, वाकूपट्‌, मानवश्रेष्ठ, क्रोधी, कृपण, ज्ञानी, गुणी, कुल्पिय, खछपसेवक, रीघ्गामी, गीतकुाल आओौर बन्धुप्रिय होता हे ।

लयन आत्मा है ओर चन्द्रमा मन है! अतः खन, कग्ननवांा ओर चन्दर तथा चन्द्रनवांश से ग्रहों का फल समञ्चना ष्वादिए । चन्द्रमा बीज है-ख्गन पुष्प है । नवांश आदि फलरूप है । ओौर भाव स्वादु फक के समान है । एेसा मत राख्रकायों का है । अतः चन्द्रविष्वार अत्यावद्यक है । अतएव च्वन्द्रकुण्डटी मं स्थित ग्रहों काफठ ख्ख जाता है :-

चन्द्रात्‌ सूयेफल–

१. ष्वन्द्रमा के साथ सूर्यदहो तो मनुष्य विदेशगामी, भोगी; कटहप्रिय होता है ।

२. ष्वन्द्रमा से द्वितीय सूर्यं हो तो बहुत नोकरोवाला; यशस्वी तथा राजमान्य होता दे ।

३. ष्वन्द्र से तृतीय सूर्यदहोतो मनष्य सोने का व्यापारी, श्॒दधचित्त आओौर वेभव मे राजा के तुल्य होता हे।

४. प्वन्द से चतार्थं सूर्यहोतो मनुष्य मातव्रूसेवक नहीं होता रहे अपितु

यकः होता हे ।

न्द्र से पचम सू्हो तो मनुष्य पुत्रियांसे दुःखी ओौर बहुत पुत्र

वाटा होता दहं ।

६. प्वन्द्रसे छल .सू्यंहो तो मन॒प्य शत्नुविजेता, शूर ओर लोकरश्ा- तत्पर होता है ।

७, च्चन्द्र से सप्तम सूर्यं हो तो मरष्य सुखी, सुशीट ओर राजमान्य होता हे ।

८. ष्वन्द्र से अष्टम सूर्यं हो तो मनुष्य सवैदाक््टयुक्त ओर अनेक कष्टौ से पीडित होता हे ।

९, चन्द्र से नवम सूर्यं हो तो मनुष्य धार्मिक, सप्यवक्ता कितु वन्धुक दायकः होता हे |

७८ चमत्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

१०. चन्द्र से दशम सूयं हो तो मनुष्य महाधनी होता है ओर इसके द्वारपर धनवान्‌ खड़े रहते ई । य्‌ © क्‌ ११. चन्द्र से एकाद सूं हो तो मनुष्य राजा से गौरवान्वित होता है, यह बहुज्ञ, प्रसिद्ध ओर कुख्नायक होता हे । १२. चन्द्र से द्वादश सूर्यदहोतो मनुष्य अधा दहोतादहै यदि इसके साथ पापरग्रह भी दहो । अन्यथा काणा होता है।

चन्द्रात्‌ भोमफट–

१, चन्द्र के साथ भौम हो तो मनुष्य रक्तनेत्र; रक्तखाव रोगयुक्त ओौर रक्त- वणं होता है |

२. चन्द्रसे द्वितीय मौम हो तो मनुष्य भूमिपति, खेती करनेवाला होता है ।

२. चन्द्र से वतीय मौम हो तो मनुष्य के चारभाई होते ै- सुशील ओर सुखी हाता है |

४. चंद्रसे चतुथं भौमदोतो मनुष्य सुखद्ीन, धनदीन ओौर चखीडंता होता दहे। ^“. चन्द्रसे पम मौमदो तो मनुष्य सन्तानद्ीन होता दै। यदिस्री क प्रम मौम हो तो वह निश्चित संतानरहित होती है ।

९ चन्द्रसे छटाभौम हो तो मनुष्य पापी, रत्र ओौर रोगसे पीडित होता हे |

<. चन्द्र से सत्तमभौम होतो मनुष्यकी खरी कुरीखा आर कटडमापिणी होती दे ।

_ <. चन्द्र से अष्टमभौम हो तो मनुष्य पलीघातक, पापी, शीङ भौर सत्य से हीन होता है, ^. चन्द्र से नवमभौम हयो तो मनुष्य धनी, बुदापे में पुत्रवान्‌ होता है । ९०. चन्द्र से दशममौम दौतो मनुष्य के द्वारपर इाथी-घोडे कौ सवारी रहती हे | | ९“ चन्द्र से एकादशभौम होतो मनुष्य राजद्वार में प्रसिद्ध, यर्‌( अौर रूप सं युक्त होता है। = ^ ६२. चन्द्र से द्वादशभोम होतो मनुष्य मावा के ठिरि कष्टकर्ती भौर स्वयं कषटभोक्ता होता है । ।

चन्द्रविचार ७९

चन्द्रात्‌ बुधफल-

६. प्रथमभाव मे चन्द्र ओौर बुध एकत्र होतो मनुष्य सुखदहीन, कुरूप, कट़माषी, भ्र्टमति ओर स्थानश्रष्ट होता है ।

२, चन्द्र से द्वितीय बुध हो तो मनुष्य धनी, द-बन्धु-जन से सुखी होता है । इसकी मृत्यु शीतसेग से होती है ।

३. चन्द्र से व्रुतीय बुध हो तो मनुष्य धन-सम्पत्तियुक्त, राज्यल्मभ ओौर महात्माओं की संगति पाता है ।

४. चन्द्र से चतुथं बुध दहो तो मनुष्य सुखी होतारै। इसे मामा के धर से धन मरता है । यर मनुष्य विख्यात होता दै । |

^. चन्द्र से पञ्चम बुध दो तो मनुष्य पण्डित, बुद्धिमान्‌, रूपवान्‌, कामातुर ओर कटभाषी होता दै |

६. ्वन्द्र से छठा बुध हो तो मनुष्य कृपण, कातर, ज्गड़ने में उरपोक, लोमश देह मौर दीर्घल्ेचन होता दै । ७. चन्द्र से सप्तम बुध हो तो मनुष्य स्रीवय, धनी, कंजूस भौर दीर्घायु होता है |

<. चन्द्र से अष्टम बुष हो तो मनुष्य शीतप्रङृति, राजद्रबार मे प्रसिद्ध, आर रानुओं को भयदायक होता दै ।

९° चन्द्र से नवम बुध हो तो मनुष्य स्वध्म-विरोधी, परधर्मपेमी भौर सत्रका विरोधी होता है ।

६०. चन्द्र से दरम बुध हो तो मनुष्य राजयोगी होता है । चन्द्रल्द्रसे दशम बुघ हो तो मनुष्य कुटुम्बनायक होता है ।

९१९. चन्द्र से एकादशबुधदहोतो मनुष्य को प्रत्येक कार्यं मे लम होता दे । इसका विवाह कष्वपन में होता है ।

१२. चन्द्र से द्वादश बुधहोतो मनुष्य कृपण होता है। ्लगडेमे हार जाता है, इसका पुत्र मी पिचरवत्‌ होता रै। चन्द्रात्‌ गुरुफर- १. चन्द्र के साथ रुरुहोतो मनुष्य दीर्घायु, व्याधिरदहित ओर सम्पन्न होता है। ९. चवन्द्र से दितीय गुर हो तो मनुष्य राजमान्य, सौवषं जीनेवारा, उग्र, प्रतापी, धर्मात्मा ओर पापहीन होता है।

र. तृतीय गुरु हो तो मरुष्य नारीवछछम होता है । १७ वें वर्षं मे इसकी पृकसम्पन्नि की उन्नति होती है ।

८० चमत्कारचिन्तामणि का तुख्नात्मक स्वाध्याय

४. चतुथं गुख होतो मनुष्य घरमे सुखी; मात्रपक्च से कष्टी ओौर दूसरे के धर में काम करनेवाला होता है । <. पञ्चम गुरं हो तो. मनुष्य द्िव्यरचश्चु, तेजस्वी; पुत्रवान्‌ उग्रस्वभाव ओर महाधनी होता है । ६. च्छमं गुरुदो तो मनुष्य उदासीन होकर घर छोड़ जाता दहे। यह ूर्णायु, अव्यवस्थित ओर भीख मांग कर जीवन चलाता है । ७. सप्तम गुर हो तो मनुष्य तिना बहुत खच किए दी बहुत देर जीता है; यह स्थूकुकाय, सदाचारी ओर घरमे नेता होता है । अष्टम गुङ् हो तो मनुष्य रोगी रहता दहै। पिता के अच्छेदहोने पर भी सुखी नहीं रहता है । ९. गुरु नवम होतो मनुष्य धार्मिक, धनी, सुमागंगामी ओर गुख-देव- भक्त होता है। १०. गुर दशमदहोतोः मनुष्य स्री-पुत्र-णृह का परित्याग कर तपस्वी होता हे। ११, गुरु एकादश हो तो मनुष्य राजतुव्य वैभव पाता है-हाथी घोडे सवारी के लिए होते है| १२. द्वादश गुरु हो तो मनुष्य अपने कुट्म्ियां से विरोध रखता हे। सदव्यय होता है । चन्द्रात्‌ गुकफट– १. चन्द्र ओर शक्र एकत्र हो तो मनुष्य की मृत्यु जर मेँ अथवा सन्निपात रोग से अथवा किसी ईदिसक जीवसे होती दहै । शक्र द्वितीयदहो तो मनुष्य महाधनी; महान्‌ ज्ञानी ओर राजतुव्य होता है । २. व्रतीय शक्र हो तो मनुष्य धर्मिष्ठ, बुद्धिमान्‌ ओौर म्ठेच्छांसे खभ उरखने वाटा होता हे । ४. प्वतुथं शुक्र हो तो मनुष्य कफ-प्रकृति, अतिंक्रगश ओर बुद्रपि में धन- हीन होता हे। ५. पप्वम शुक्र हो तो मनुष्य को कन्यासन्तान अधिक होती है । यह धनी होता हया मी बदनाम होता हे । ६. छटा द्युक्रहोतो मनुष्य अञ्यम में खवचं करता है। यह रोगदहीन ओौर विजयी होता हे । | ७. सप्तम श्युक्र हो तो मनुष्य आलसी, काम मे अभ्हड-हरसमय शोकवान्‌ रहता हे ।

६ चन्द्रविचार ८१

८. अष्टम शुक्र हो तो मनुष्य प्रसिद्ध; महान्‌ योद्धा, दाता, भोक्ता ओौर धनान्य होता हे ।

९. नवम शुक्र हो तो मनुष्य के वांधव बहुत होते है, बहुत मित्र होतेह ओर बहुत उहिने होती ह |

१०. ददाम शक्र हो तो मनुष्यको माता-पितासे सुख मिरता हे दीर्घायु होता है ।

४१. एकादश शक्र हो तो मनुष्य, शत्रु दीन, रोगहीन ओौर दीर्घायु होता है ।

५२. द्वादश शक्र हो तो मनुष्य परदारग, लम्पट ओौर रानहीन होता है। `

चन्द्रात्‌ शनिफड-

६, चन्द्रशानि एकत्र हौं तो मनुष्य रोगी, निधन आर बन्धुहीन होता है

२. द्वितीयशनि हो तो मनुष्य जन्मसमय माता को क्ष्टकारी होता है । इसका पालन बकरी के दूध से होता है । “अजा तस्य माता ॥

३, तृतीय शनि हो तो मनुष्य को बहुत कन्याएं होती है ओौर मरती भी है ।

४. व्वतुर्थं शनि दहो तो मनुष्य पुरुषार्थ ओर शत्रुनाराक होता है ।

५. पचम शनिहो तो मनुष्य की पल्ली ` सोवकेरङ्ग की ओर मधुर भाषिणी होती हे ।

६, छटा शनि हो तो मनुष्य रोगी मथवा अस्पायु होगा ।

७, सप्तम शनि हो तो मनुष्य धार्मिक किन्तु बहुत च्नरियों का पति होता है ।

८. अष्टम रानि हो तो मन॒ष्यस्री आओरपिताको क्ष्टदेताहै। जपादि कतव्य ह|

९. नवम शनि हो तो अपनी देशा ओर अन्तदंशा में हानि पर्हचाता है ।

१०. टदशम-रनि से मनुष्य धनी; पतुल्य तौभी कृपण होता है ।

११. एकाद रा-शनि मनुष्य को पञ्युधन ओर यरा दिख्वाता है

१२. द्वादश रानि हो तो मनुष्य धन-धर्मदहीन ओर भिक्ुक होता दै ।

चन्द्रात्‌ राह्‌-
१. च्वन्द्र से १-१०-५ राहु हो तो मनुष्य राजा वा धनाल्य होता है

२. चन्द्र से ६-१२ वें राहु हो तो मनुष्य राजा वा राजमन्त्री अथवा धन- घान्य सम्पन्न मनुष्य होता हे ।

३. ष्वन्द्रसे्वाऽवेंराहुदहोतो माता-पिताको कष्ट होता है। मनुष्य स्वयं भी सखदहीन होता दै ।

४, ष्वन्द्र से २-११ वँ राह हो तो धन-सन्तान-सुख ओर या मिलते रै । ५. ष्वन्द्र से पचम राहु हो तो मनुष्य पानी मेँ डूबकर मृल्यु पाता दै ।

<८र चमत्कारचिन्तामणि का तुखनात्मक स्वाध्याय

चन्द्रात्‌ केतु– राहु के समान क्तु के फल होते है| द्ष्िफट मेषरादिस्थित चन्द्र पर– रवि की दि से मनुष्य अ्यु्रराजा किन्तु नम्रजनों के प्रति अतिग्रदु, धीर ओर संग्रामप्रिय होता हे। मङ्गकक्यदष्टिसे मनुष्यर्दोँत ओर ओंखोंकेरोगोंसे पीड़ित, विष से, अचि से तथा दाख्रसे विक्त देह, जिलाधीश ओर मूत्रकरृच्छर रोग से युक्त होता है। बुधक्ेदृष्टिसे अनेक वियाओं का आचार्यं, सत्यवक्ता, मनस्वी, सुकवि ओर यशस्वी होता है । गुरु को दष्ट से धनी, बहत नौकरोवाख, राजमन्त्री वा सेनापति होता है | युक्र कण दषटि से सौभाग्यः पुत्र ओर धन से युक्तः सन्दरीमूष्रणयुक्त स्रीवाल ओर भोगी होता है । | रानि कीदष्टिसेद्धेषी, दुःखी, दसि, मलिन ओौर मिध्यामाप्री होता है। वृषरादिस्थित चन्द्र पर-रवि की दृष्टि हो तो मनुष्य खेती आदि अनेक कायं करनेवाला, नौकायों यौर चौपाए जानवरों से लाभ उठानेवाखा, अतिधनी ओर प्रयोग जाननेवाला होता है | मङ्गल कणे दृष्टि से मनुष्य अतिकामी, परस्री के कारण पल्ली व मित्रजनों ते हीनः, च्री-हद्यमनोहर, माता के लिए अञ्युभम अर्थात्‌ ल्ड़ाई-ञ्चगड़ा करने- वाला होता है । बुध क्ण दृष्टि से मनुष्य पण्डित, वचन-चतुर, प्रसन्न, सर्वहितेच्छुं ओर उ्तमगुणों से युक्त होता है | गुर के दृष्ट से मनुष्य स्थिरपुत्रोवाल्य, ख्री-तथा मिरत्रोवाला, मान्र-पितर-मक्त, परमन पुण, धार्मिक ओर विख्यात होता दै । कर को दष्ट से मनुष्य भूषण, सवारी, छह, शय्या, आसन, सुगन्ध, वस्र तथा मा का उपयोग करनेवाख होता है। गनि की ष्टि हो तो मनुष्व निर्धन, माता ओर खियों का अनिष्टकरनेवाल्, पुत्र-मित्र तथा बन्धु से युक्त होता दै) | भि्ुनरारिस्थित चन्द्र पर-सू्ंकी दष्टिहो तो मनुष्य बुद्धि, सूप, धनवाल, ख्यात, धर्मात्मा, दुःखी सौर अत्पधनवाला होता दै । भौम की दृष्टि से वीर, पण्डित, सुख, वाहन, एेश्रय यौर रूपवान्‌ होता हे । नुध की दृष्टि से मनुष्य धनोपाज॑न म निपुणः सदाविजयी, धीर, अप्रतिहत आज्ञावाला राजा होता हे ।

चन्द्रविचार ८३

गुरु की दृष्टि से मनुष्य शास्र-वि्या-भाचायं, विख्यात; सत्यवक्ता, रूपवान्‌ । वाचाल भौर मान्य होता हे |

शक्र कीदृष्टिसे सुन्दर खत्री, वाहन, भूषण ओौर रलं का भोक्ता होता हे

शनि की दृष्टि से बन्धु-खरी-घन से रहित-लछोकविरोधी होता हे ।

ककस्थचन्द्र पर-सूर्यं कौ दृष्टि से मनुष्य राजा का छोय कर्मवारी निर्धन- पत्रवाहक वा दुगंका रक्षक होता है।

मङ्गल की दृष्टि से शूर, क्षतदेह, मातृद्ेषी, ओर कार्य-चतर होता है ।

बुध कौ दषटिसे सुबुद्धि, नीतिज्ञ, धन-स्री-पु्र-युक्त, राजमन्त्री ओौर सुखी होता हे |

गुरु को दृष्टि से राजा, राजाचितगुणयुक्त, खखी, खरीलास्रीपति, नीतिज्ञ- वेनयी ओर पराक्रमी होता है।

चक्र को दष्ट से धन-खुव्ण-वस्र-सत्री ओर रलो से युक्त होत। है । वेदयागामी

सौर सन्दर होता है

रानि की दष्ट से भ्रमणशील, सखुखहीन, दस्दि-मान्े्टा, मिथ्यावादी, पापी ओर नीच होता है ।

सिहस्थचन्द्र पर- रवि की टष्टिसे राजतस्य; उत्तम गुणयुक्त, गम्भीर

ओन्दवाला; बीर, मपी सौर ख्यात होता है

मङ्गक को दृष्टि से सेनापति, प्रतापी, उत्तम स्री-पुत्र-धन-वाहनयुक्त पुरुष होता हे ।

बुध की दृष्टि से स्रीवरा, सख्रीप्रिय-घन-तथा सुखयुक्त होता हे ।

गुरु की दष्ट से कुल्रेष्ठ, ख्यात ओौर राजतुल्य होता है

स्रकीटष्टिसे खरी ओौर धन से युक्त, रोगी, स््रीसेवक, रतिकीडानिपुण ओर विद्वान्‌ होता हे। ।

शनि की दृष्टि से खेती करनेवाला, निर्धन, मिथ्याभा षी, दुर्गरश्चक, खी- सुख वचित आर क्षुद्र पुष होता दै।

कन्यारािस्थचन्द्र पर– रवि कीदृष्टिसे राजाका कोष। ध्यक्ष, ख्यात, अपनौ वात का पका, उत्तमकायकर्ता ओर स्रीहीन होता है |

मङ्गल की हष्टि से शित्पकल्रनिपुण, ख्यात,घनी, शिष्षित, धीर आओौर माव्रवैरी होता है। |

बुध कौ दष्ट ज्यौतिषर तथा काव्य का ज्ञाता, विवाद ओर युद्ध मे विजयी आओौर अतिनिपुण होता है ।

गुरु को दष्ट से बन्धु -जन-युक्त सुखो, राजकर्मचारी, प्रतिज्ञापारुक, ओर धनी होता है ।

८७ चमर्कारचिन्तामणि कां तुखनात्मक स्वाध्याय

श॒क्र की दष्ट से स््रीभूयस्त्व, भूषणभूयस्त्वयुक्त, मोग ओर धन से युक्त होता है । इसका नित्य भाग्योदय होता है ।

रानि की दष्टिसे स्मरणदक्तिहीन; दरिद्र; सुखदीन, माव्रहीन आर त्री वश्च होता है ।

तुखारा दिस्थचन्द्र पर-रवि की दष्ट हो तो मचुष्य निर्धन, रोगी, घ॒मक्छड, मानदीन; मागदहीन; पुत्रहीन ओर निवल होता है ।

मङ्गल की दष्टिसे तीक्षण स्वभाव, प्वोर द्र; परदारग, सुगन्ध भोगी, बुद्धिमान्‌ ओर नेचरोगी होता हे ।

वधकौ दृष्टि से कलाऽमिज्ञ, धनाव्य, प्रिवमाप्री, विद्वान्‌ ओौर देश ख्यात होता हं |

गुरुको दृष्टि से सवपूञ्य॒, रतनथादि मूल्यवान्‌ वस्तुओं के क्रय-विक्रय में निपुण होता हे ।

शक्र की दृष्टि से मनोहरः नीरोग, सौमाग्यवान्‌, पुष्टदेह, धनी, विद्धान्‌ , अनेक-उपायां का जाननेवाला होता हे |

रानि को दष्ट से धनी; प्रियभाषी, वाहनयुक्त, विषयी; सुखहीन सौर मातर- भक्त होता हे।

वृश्चिकरादिस्थचन्द्र पर- रविं की दृष्टि से लोकद्वेषी, भ्रमणरील-धनी, किन्तु सुखदहीन होता हे ।

मङ्गल की दृष्टि से पैयवान्‌ , राजवुव्य, एेश्व्वान्‌ , श्यूर-रणविजयी अओौर बहुभोजी होता हे |

बुध की दष्ट से मूख, कटडमाषी;, यमक्सन्तानयुक्त, योग्य; नकटी-वस्तु वनानेवाखा ओर गीतन्ञ होता है ।

गुरु की हृष्टि से कायखीन, लोकेष्टा, धनी भौर सुन्दर होता दे ।

शुक्र की दृष्टि से बहुज्ञ, अति सुन्दर; धनी, वाहनवान); स्री द्वारा न्टवल होता हे ।

रानि की दष्ट से अधम संतानवाला, कृपण, रोगी, निधन, छटा अर अधम होता है ।

धृलुरािस्थचन्द्र पर-रवि की दृषदो तो मनुष्य राजा; धनी वीर, ख्यात, बहुसुखी ओौर उत्तम वाहनयुक्त होता दै ।

मङ्गल की दृष्टि से सेनापति, धनाढ्यः, सुन्दर, पराक्रमी, उत्तम. श्रव्यवाम्‌ होता है ।

बुध की दृष्टि से बहुभत्यवान्‌, दद्‌ त्वचावान्‌ , उ्योतिष-रित्प आदि मं

णर सौर नताप्यायं होता है ।

‘वन्द्रविचार ८५

गुरु की दष्ट से खन्दर, राजमंत्री, षन-धर्म-सुखं सम्पन्न होता है ।

श॒क्र की ष्टि से खखी, ख॒न्द्र, सौभाग्यवान्‌, पुत्रवान्‌ , धनी, कामी, सुमित्रवान्‌ तथा स््रीवान्‌ होता है।

दानि की दष्ट से प्रिय; सत्यवक्ता, बहूक्ञ; सरर्स्वभाव ओर राजपुरुष होता हे।

मकरराशिस्थचन्द्र पर-रवि की दृष्टि से निधन; दुःखी, भ्रमणरील, परेभ्य; मलिन भौर शिषव्पक्ञ होता है।

मङ्खल्की दृष्टि से धनान्य; उदार, खुन्दर, खवाहनवान्‌ भौर प्रतापी होता हे।

बुध की दृष्टि से मूखं, प्रवासी, खीदीन, चञ्चल; तीक्षणस्वभाव; सुख से ओर धनसि हीन होता दहै।

गुर की दृष्टि से राजा, बली, राजगुणयुक्त, बहू-खी-पुत्र-मित्रवान्‌ होता है ।

द्युक्र की दष्ट से परदारग, धनी, भूषणयुक्तः बाहनवान्‌ , निन्दित भौर पुत्र- हीन होता है।

रानि कीदृशि से आख्सी, मछिन; धनी; कामी; परदारग ओर शटा होता है ।

कुभराशिस्थचन्द्र पर– रवि की दष्ट हो तो अतिमलिन; श्र; राजतुख्य, धार्मिक ओर खेती करनेवाला होता हे।

मङ्गल की दृष्टि दो तो सचा, मात्ृपितृहीन, धनदीन, आलसी, क्र ओर दूसरे का काम करनेवाला होता हे

बुध की दृष्टि से भोजनविधि निपुण, गीतनज्ञ, खरीपरिय; अत्पधनी भौर अस्प सुखवाख होता हं ।

गुरु की दृष्टि से खेतीवाला, उपवनवाल; उत्तम स्रीभोग करनेवाखा भौर श्रेष्ठ पुरुष होता हं ।

शुक्र की इष्टि से नीच-पुत्र-मितव्रहीनः भीर, गुख्जनतिरस्कृत, पापी, दु्टखरी- पति, तथा अस्पसुखी होता हं ।

रानि की दृष्टि से क्म्बेनाखूर्नौवालाः दीषं रोमवान्‌, मञिनि, परस्ीगामो, अधर्मी, वक्ष आदि स्थावर वस्तुओं के विक्रय से धनाब्यहोतादहै।

मीनरादिस्थचन्द्र पर-रवि की दष्ट हो तो अतिकामी, सुखी, सेनापति धनाढ्य ओर प्रसन्न स्रीवाखा होता दै।

मङ्गख कौ दृष्टि हो तो लोक म अनाहत, सुखदहीन, कुख्टापुत्र, पापी ओर

दूर होता हे ।

बुध कौ दृष्टि हो तो राजा, अतियुखी, उत्तमखीयुक्त भौर स्वाधीन होता है।

गुर की दृष्टि हो तो मनोहर, मण्डक्शों मँ श्रेष्ठ, धनान्य भौर सुकुमार ख्री- वान्‌ होता हे ।

<८& चसक्छारचिन्तामणि का तुखुनात्मक्‌ स्वाध्याय

ञुक्रकी दृष्टिद्ोतो सुशील, रतिक्रीडाचतुर, चत्त-गान-प्रेमी ओर स्रीजन मनोहारी होता हे । रानि कीदष्टिदोतो विकल, माव्रशत्रु; कामी, खत्री-पुत्र तथा बुद्धिहीन; अधम ओर ऊुरूपा खरी मं आसक्त होता हे । अय्‌ चश्द्र्षृट म्रथमस्थान का चन्द्र “’विधुर्गोङ्कखीराजगः सन्‌ वपुस्थो घनाध्यक्षटावण्यमानंद पणम्‌ । . विधत्ते धनं क्षीणदेहं दरिद्रं जडं श्रोच्रहीनं दरोपटग्ने | ५॥ अन्वय-गोकुटीराजगः (सन्‌ ) वपुस्थः विधुः घनाध्यक्षलावण्ये आनन्दपूर्णं नरं विधत्ते । दोषल्ग्ने (नरं) अधनं क्षीणदे हं टर््रिं जडं श्रोचदीनं (च) विधत्ते | २ ॥ सं< टी<–अथ चंद्रस्य तन्वादि द्वादशभावफलन्याह-विधूरिति-विधुः चंद्रः गोकुटीराजगः व्रषकव.ट मेषस्थः सन्‌ वपुस्थः खग्नगः धनाध्यक्ष धनाधिकारिणं अआनंदपूणं प्रमोदनेपुण्ययुक्त, रोषटग्ने कथितान्यराशौ अधर्म ध्मरदितं, ( अधने इतिपाटे ) धनरहिते, क्षीणदेहं मंदवी्यं॑दरिद्रं धनदीनं, जडं मूकं मतिहीनं वा श्रो्रहीनं वधिरं नरं विधत्ते करोति ॥ १॥ अथ- जिस मनुष्य के जन्मरग्न में चष, कक ओौर मेषरादि का चन्द्रमा हो तो वह कुवेर के समान धन से सुरोमित होता है | सौर पूण आनन्द को पाता हे । मिशन, सिंह, कन्या, वला, बृर्िविक, धन, मकर, कुम्भ सौर मीन राशि का होकर च्वन्द्रमा जन्मल्नमेंदहो तो मनुष्य दरिद्र, दुवंट, मूर्ख मौर हिरा वनता है ॥ १॥ | तुटना– “क्रिये तंगे स्वक्षं प्रभवति विलग्ने हिमकरो विधत्ते सव्वाव्यं नरमवुल्मोदाच्रत मपि। गदव्रातेः युक्तं जडमधनमन्य्ष॑ग उत भ्नियाहीनं नित्यं वधिर मपि सत्वैः विरहितम्‌ ॥ जोवनाय अथ–जिस मनुष्य के जन्म समय में चंद्रमा मेष, चष वा कर्वः का होकर ख्ननमंदहौ वह पूणं वली तथा धन से युक्त होकर अतुल आनन्द को प्रास्त करता हे । यदि इनके अतिर्कति मिश्रुन, सिह, कन्या, ठुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ मौर मीन रिका होकरच्न मंदो तो मनुष्य रोगी, मूखं, निधंन, वटहीन ओौर वधिर होता है | ˆ लग्ने चन्द्रे जडः शद्धः प्रसन्नः धनपूरितिः । लीवछ्मः धार्मिकश्च कृतघ्नश्च नरो भवेत्‌ ॥* काशशीनाथ अथे-ख्न मे चन्द्रमा हो तो मनुष्य जड ( मूखं वाआआटसी ) पतित,

प्रसन्न, धनी , तथा धार्मिक होताहै। यह पुरुष स्यो का प्यारा सौर कृतध्न होता है । |

खउन्द्रफटख ८ ७

““दाक्षिण्य-रूप-धन-मोग-गुणेःप्रधानः वचंदरेकुलीरबृषभाजगते विखग्ते । उन्मत्त-नीच-वधिरोविकलश्चमूकः रोषे नरो भवति कृष्णतनुः विदोषात्‌ ॥ कतल्वाणवर्भा अथे– जिस मनुष्य के जन्मसमय मे कक, वृष मौर मेष मे होकर रग्न मं चन्द्रमा हो तो वह चुर, रूपवान्‌ , धनवान्‌, माग्यवान्‌ भौर गुणवान्‌ होता दे । अन्य रारियों मिथुन आदि में होकर यदि यह चन्द्रमा में हो तो पुरुष उन्मत्त अथात्‌ अभिमानी ( गर्वीला ) नीच, वहरा, व्याकुलचित्त, गगा ओर विरोषतः कृष्णवणं देहवाटा होता दै । “जड़ोमूकोन्मत्तो विकल्हदरयोधोऽनुचितङ्ृत्‌ परपेष्योमूतों शिनि बहुशः क्षीणतपुषि । कु टीरस्थे सौख्यौमवति ब्रृषगे भूरिविभवः भवेन्‌ मेषे स्वः करव पुषि पापेषु ठवरुता॥ जण्देव अथं-्ग्न मे चन्द्रमा होतो मनुष्य मूर्ख, मूक ८ गगा ) व्याकर चित्त वाखा; अथवाधूते, नेत्रहीन ( अंधा ) अनुचित कायं करनेवाला, दूसरों का दास, दुबला-पतत्म शरीरवाला होतः है । ककंराशिका चन्द्रहोतो मनुष्य सुखी; वष का चन्द्रहोतो ब्रहुत एेश्चय वाला, यरि मेष का चन्द्रहोतो धनवान्‌ होतादहै। यदहलख्गन का चन्द्रमा यद्धि पापग्रहोंकेसाथक्षीणदहोतो पूरवाक्त फल अल्पमात्रा मं होते रह । “मूकोन्मत्त जडान्धहीन वधिरः प्रेष्या शशांकोदये सख्त जगते घनी बहुमुनः ॥” आचाय बराहसिहिर अ्थ- जिस मनुष्य के जन्मकाल्मे लनम चन्द्रमाहो तो वह गंगा, मूखं, अन्धा, निन्दित कायं करनेवाखा, बहिरा ओर दासकर्म-कर्ता होता है। यदि टगन में स्थित होकर चन्द्र ककराशि का दो तो मनुष्य धनवान होता है। यरि चन्द्र मेषराशि का होतो मनुष्य बहुत पुत्रं से युक्त होतादै। यदि उचचरारि व्रष्मेंहोतो पुरुष धनी होता दहे। “तनुगत कुसदेरो दीर्वजीवी सुखी स्याद्‌ बहुतर घनमोगी वीरयुक्तः सुदेदी । मवति च यंदि नीचः चन्द्रमा पापगो वा जडमतिरतिदीनःस्यात्‌ सदावित्तहीनः ॥ मानसागर अ्थ–यदि जातक के तनुभाव (प्रथममाव) मे चन्द्रनाहो तो वहं दीर्घायु, सुखी, धनान्य, श्रयं ओर मोग मोगनेत्ाका, बलान्‌ भौर सुन्दर होता दहै | यदि यह्‌ चन्द्रमा नीचरारिमं होतो, अथवा पापग्रहकेसाथदहो तो मनुष्य जडवुद्धि ( मूखं ) अतिदीन, यर सदेव धनदहीन होता है । रिप्पणी-मानसागर ने मेष, वृष, ककं ओौर अन्य राशियों मे चन्द्रमा हो तो क्या फल होगा-यह नदीं बताया ह ।

६८८८ ४०९ क

सिते चन्द्रे ख्ये दृद तनुरद आयुरभयः बलिष्टो लक्ष्मीवान्‌ मवति क्षयगते ।* मन्तरेश्वर

८८ चमस्कारचिन्तासणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

अथं– यदि श्ुक्रपश्च का चन्द्रमा ल्धमेंहोतो मनुष्य निर्भव, दृट्‌ शारीर वाला, वचिष्ठ, टक्ष्मीवान्‌ ओर दीर्घायु होता है । यदि कृष्णपक्ष का चन्द्रमा ख्य मेदह्ोतो इसका फट विपरीत होता दै। “व्दाक्षिण्य-रूप-घन-मोग-गुणेः वरेण्यश्वनद्रे कुटीरतरघभाजगते विल्मरे | उन्मत्त-नीष्वोवधिरो विकलोऽथमूकः रोषरेष्ु ना भवति दीनतनुः विशेप्रात्‌ 1” द डिराज अथ– जिसके जन्मकालमें कक, वृपवा मेष करा होकर चन्द्रमा च्यमे हो तो वह मनुष्य, चतुर, रूपवान्‌, धनी, गुणी ओर उत्तम मोग मोगनेवाला होता है। यदि मिथुन, सिह आदि अन्य रारयोंमे होकर चन्द्रमाल्यमें हो तो मनुष्य उन्मत्त ( पागठ वा घमंडी ) नीचरत्तिका, वभिर, व्याकुल हृदय गंगा तथा विशेषतया दुर्बल देह होता हे । | “क्षीणे रारिन्युदयगे वधिरोगहीनः प्रेष्यश्च पापसहिते तु गतायुरेव | स्वोचस्वके धन-यरोबटुरूपदाली पूर्णतनौ यदि चिरायु सुपेति विद्वान्‌ ।।> । वेययनाथ अथे– क्षीण चन्द्रमा यदिल््मेंहोतो पुरुष वधिर, अंगहीन तथा दास ओौरदूत होतादै। यद्विइख चन्द्रके साथं पापग्रह दहांतो पुरुप अस्पायु होताहे। यदिल्यका चन्द्रमा उ्वरादिकाहो वास्वक्षेच्रीहोतो पुरुष्र, धनी, यरास्वी, तथा बहुत सुन्दर होता दै। यदि पूणं चन्द्माल्यमें होतो पुरुष विद्वान्‌ भौर दीघौयु होता है । “पूण शीतकरे लग्रे सुरूपो धनवान्‌ मृदुः । अतपूरणैठमलिने मंदवीर्घोभवेत्‌ खदा । गोमेष्रककंटे लग्रे चन्दरस्येरूपवान्‌ धनी । जडता व्यावरिदारि्र ५ शोप कुःरुते राशी । श्वासः कासोहि जातस्य तनौ वातभ्रमोमवेत्‌ । अश्वादिषपञ्युघातश्च हये राजचौरतः | | गर्गाचःयं अथ- ल्मे पूर्णिमा का चन्द्रमाहो तो पुरुप सुन्दर, धनी तथा कोमल होता दहै। यही चन्द्रमा कृष्णपक्ष का अधवा ुद्कपक्च मे प्रतिपदा से छेक अषश्मीतकका होतो पुरुप मलिन भौर दुर्बलहोतादहै। च्यम मेष, ठृष वा कक रािमे यह चन्द्रहोतो पुरुष्र धनी यर सुन्दर होता है। अन्य राशियों मं पुरप मूखं, रोगी तथा निर्धन होता है। इसे खांसी, श्रासयेग, वातरोग होते दं । अश्च दि पञ्चमं से अपघात का भय होता है। यौर राजा ओर चोरों से भय होता है। “दाक्षिण्य रूप धन भोग गुणः वरेण्यः चन्द्रकुलीर व्रृषभाजगते विलये । उन्मत्तनौचवधिरोविकटोऽथमूकः दोषेषु ना मवतिहीन तनौ विदोपरात्‌ ॥” सहेश अथे-यदि लद का चन्द्रमा कक, वरप वा मेष रारिमें हो तो मनुष्य चुर, रूपतान्‌-धनी-एेश्वयं युक्त तथा भोग भोगने वाला होता है। दाक्षिण्य शाब्द का

चन्द्रफर ८९

अथ (ओदार्थगुण भी च्याजा सकतादै। यदि अन्यरारियों के ल्य्ममं चन्द्रमा हो तो मनुष्य उन्मत्त ( पगला ) नीचवृत्ति का, हदय से व्याकुल तथा वाणीहीन अर्थात्‌ गंगा होतादहै। यदि ल्य में क्षीण चन्द्रमादहोतो विरोष रूप से अश्युभ फलू देता हे |

(जवकगायं दोँगगः तवंगरः सरूपवान्‌ ।

सधीः सुखी नरसोभवेत्‌ विरोमगश्च तन्नहि ॥” खानखान।

अर्थ–यदि पूर्णवटी चन्द्रमा ल्य में हो तो मनुष्य धनी, खुन्दर बुद्धिमान्‌

ओर सखी होता है। यदि चन्द्रमा निवल, ( शतरुखह नीचराि आदिमं)

हो तो उख्या फल होता है । अर्थात्‌ मनुष्य निधन; कुरूपः मूखं ओर दुःखी होता हे। ।

भ्रगुसूत्र–’ रूपलावण्य॒ युक्तः, चपलः, व्याधिना, जलात्‌ च असौख्यः । पंचद्‌ रावं वहुया्ावान्‌ । मेष, वृषभ, ककं ट्रे चन्द्रे शाख्रपरः, धनी; सुखी; पालः) मृदुवाक्‌ › वुद्धिरहितः, ्रदुगा्रः वली । भट्टे वलवान्‌ › बुद्धिमान्‌ ; आरोग्य- वान्‌ , वाग्जाकुकः, धनी । टयेरो वलरहिते व्याधिमान्‌ । श्चुमदष्टे आरोग्यवान्‌ ।

अ्थ–ख्यमे चन्द्रमा दहो तो मनुष्य सुन्दर ओर चञ्च होता हे । इसे व्याधि से, जल से भय प्राप्त होता है। १५वे वषमे इसे बहूत सी यात्रां करनी पडती है । यदि ल्ययभाव का चग्द्र मेष, वष वा ककं राशि का हो तो पुरुष शाख्ज्ञ होता है ओर शाख्रानुकूल चरता है । यह धनी, सुखी, मनुष्यों का पालक, मधुरमापी, मूर्ख, कोमलश्चरीर ओर बलवान्‌ होता है । यदि लर भाव के चन्द्रमा पर दयुभग्रहकी दष्टिदहो तो मनुष्व बलान्‌, बुद्धिमान्‌ आयोग्यवान्‌, कपटी यौर बहुत बोखनेवाला वितंडावादी होता है। यदि रग्नेदा निच॑होतो मनुष्य रोगी रहता दै। यदि लग्नेशा परश्ुभ ग्रह की टृष्टिदहोतो शरीर नीरोग रहता है।

यवनमत–ल्य मे बल्वान्‌ चन्द्र हो तो जातक बहुत चतुर ओौर धूतं होता दै। इसे स्री-वियोग सहना होता है। च्ियों द्वारा सम्मान प्राप्त होता हे; जातक पराक्रमी ओर राजवैभव पानेवाखा होता है ।

पाश्चात्यमत-चन्द्रक्यमें होतो जातक धूमने-फिरने का शौकीन दोता हे । चन्द्र-चन्द्रयशिवा द्विस्रभाव ररि मेंहोतो ऊपर डछ्षखा फल विष रूप से मिरूता है । रेखा जातक प्रासी, अस्थिर बुद्धि, विलासी, शान्त, दयाढु, पिलनसार स्वभाव का, मोहक, उरपोक, उदार ओर सजन होता है यह्‌ स््रीवशा आओौरमित्रौका प्यारा होता है। इसे सामाजिक कार्यं कौ रुचि होती है। ओौर बहुजन समाज में, विरोषतः नीचजाति के रोगों में इसे अच्छः सम्मान प्राप्त होता हे।

ट्य का चन्द्र यदि अथितत्व राशिमंदहोतो जातक का स्वभाव साहसी

ओर महत्वाकांक्षी होता है। यरि चन्द्र मेषराशिकादहोतो स्वम।व उतावखा

९० चमत्कारचिन्तामणि का तुख्नात्मक स्वाध्याय

ओर अस्थिर होताहै। यदि इका दषंल से दष्टियोग होतो जातक कभी एक स्थान मं स्थिर नदीं रह सकतादहै। सव॑दा क्सीन क्िखी ्ंज्लयमें फसा रहता है । चन्द्र यदि मकरवावृ्चिकमें हो तो गन्दा, वीभत्स-शन्द बोलनेवाला ओर पियकड होता है । इस चन्द्र के साथ अन्य अञ्चभ-ग्रहोंका योग हो तो ऊपर छिखि फल विरोषरतया मिलते । यदि शुभग्रह का सम्बन्ध होतो इन फलां की तीव्रता कुक कमदहो जाती दै। मिथुन, कन्या-तुला, कुम राशियों मं चन्द्रहोतो जातक अभ्यासी, विद्धान्‌, शासनीय विष्यो में दचि रखनेवाला, वाचनप्रिय, फलित -उ्योतिष का ज्ञाता, विविध भाषा ज्ञानवान्‌। ठेखक ओौर वक्ता होता दै । यह चन्द्रमीनवा कक॑ंराशि काहोतो जातक का स्वभाव वात्तल्ययुक्त) सात्विकः, धार्मिक, छोकप्रि षध यर पूज्य होता है । इसे पर मं, खेती वाड मं ओौर कुटम्बमें रुचि होती है । यदह चन्द्र वृषभ रारिमेंदहोतो जातक स्थिर, गंभीर, कामको पूरी खगन से करनेवाला, उद्यमी, धीरोदात्त, भाग्यवान्‌ आओौर वैमव संपन्न होतादै। ल्के चन्द्र का सामान्यफल, प्रेम, शान्ति, सत्यप्रियता, सत्वशीक्ता, कल्ह से घृणा करना आदि दहै । जो लोग नींद मं चरते, बोलते, वा एेसे दी काम करते, उनके ख्य मे चन्द्रमा होता है ।

टिष्पणी- सम्पादक का व्यक्तिगत अनुभव एेसे पुरुष का हे जो रात केः सफर मे चता हुमा सोया रहता था-लाल्टैन केकर घोडे के भगे-आगे चलता भा नतो टोकर खाता थाभौरन मुख से कुछ बोलता था । उसके लप्र मे चन्द्र था वा न्ट था-इसके विषय मे कुछ माट्म नही-क्योक्रि उसके पास अपना जन्म पत्र नहीं था।

विचार ओर अनुभव–यह ठ का चन्द्रमा सेष, सिह ओर धनु मे हो तो मनुष्य स्थिर, मितभाषी, ओर काम करने मे निराकूस होता है। इसे कामेच्छा थोड़ी होती है । यह बहुत दट्चल पसन्द नहीं करता है । यह कोष ओर रप्ए-पैते के विष्रय मे वेकिकर होता है । यह चन्द्र घनुरारि का हो तो मनुष्य संघार-सुख अल्पमात्रा मं प्राप्त करता हे ।

चन्दर यदि वरूप, कन्यावा मकरराशिकादो तो मनुष्य अहमन्य होता है, अथात्‌ अधने आपको सर्वदाल्ननिष्णात मानता है । परन्तु इसे सभाम बोलने का साहस नहीं होता है |

चन्द्रयदिदृ ठ्य काटो तो इसे संसार-मुख बहुत कम मिल्ताहै। दका ववाह नहींहोतादहै। यदि विवाहितदहो जावेतो संसार-सुख बहुत समय तक नहा मिल्ताहै, क्योकि मध्यायु में पत्नी मर जाती है। कयो ह मकृष्य स्वभावतः दुष्ट होता हे अतः यह परनारी गामी हो जाता है।

मिथुन, ठला वा कुम्भ मेंचनद्रदोतो मनुष्य नेता बनने का इच्छुक होता हं ओर इस विषय म यल मी करता दै । आमन्त्रण पाने के ए सरै इच्छुक रहता है । गौर स्वार्थो होता है |

चन्द्रफर ९५

ककं, बृश्चिक वा मीन मे यह चन्द्र होतो यद मनुष्य निरपेश्च रहना पसंद करता है अतः किसी के काम मे हस्तक्षेप नदीं करता रै । ल्म मे चन्द्रहोनेसे मनुष्य मिथ्याभाषौी होता दहै अतः ोगोंकी दृष्टि मे यह विश्वासपात्र नदीं होता है| “मनस्यन्यद्‌ वष्वस्यन्यद्‌ कर्मण्यन्यद्‌ दुरात्मनान्‌ । रेखा इसका स्वभाव होतादहै। ल्यमें चन्द्रके होने से मनुष्य सनकी होता है। द्वितीयभाव का चन्द्र- “हिमांशौ वसुस्थानगे धान्यखाभः शरीरेऽतिसोख्यं विरारसोऽगनानाम्‌ । कुटुम्बे रतिः जायते तस्य तुच्छं बरं द्राने याति देवांगनाऽपि ॥ २॥ अन्वयः- हिमांशौ वसुस्थानगे धान्यलाभः स्यात्‌, शरीरे अतिसौख्यं स्यात्‌, ८ तस्य) अंगनानां विलखसः, ८ स्यात्‌ ) ऊुडम्बे रतिः जायते, तस्य दशने देवांगनापि वरं याति ( इति ) च्छम्‌ ॥ २॥ सं० टी०- हिमांशौ चन्द्रे वसुस्थानगे द्वितीयस्थानगे शरीरे अतिंसौख्यं स्यात्‌ , तस्य अंगनानां स्रीणां विलासः क्रीडा ( स्यात्‌ ) कुटम्बे स्वबन्धुषु ठच्छा- रतिः अल्पाप्रोतिः जायते मवेत्‌ । तथा दशने तस्मिन्‌ पुरुषे दृष्टे ( सति ) देवांगनापि वरांयाति किमुत अन्या योषित्‌ । सः अतिसुन्दरः स्यादितिभावः ॥ २॥ अर्थ–जिसके जन्म ल्म से दूसरे स्थान मे चन्द्रमा होतो इसे धान्य का ल्राभ होता है। यह शरीर से अत्यन्त सुखी होता दै! यह चखियोंकेः साथ विलास करता दहै अपने कुम्ब मे इसका प्रेम थोड़ा होता दहै । इसे देखने से अप्वरा भी मोदित हदो जाती है । क्योकि यह अत्यन्त सुन्दर होता दै अतः एेसा होना एक सामान्य बात है ॥ २॥ | तुखना–“जनुः कोशागारं गतवति शशांके तनुभृतां घनङ्किः पय्याक्षीरति रतिसुखं धान्य निवहः । भवेत्‌ प्रीतिस्वच्छा निजपरिजिने विष्णुवनिता समायाति स्वैरनिखिक मवनान्तः प्रसुदिता ॥ जीवनाय

अर्थ-जिस मनुष्य के जन्म समय मे चन्द्रमा धनभावमें होतो इसे धन की इद्धि, कमल के समान सुन्दर नेत्रं बालीस््री में प्रीति, धन-धान्यसे पूण सुख, अपने कुटम्ब मे स्वस्प-परेम, तथा इसके धर मे प्रसन्नता पूरव॑क लक्ष्मी स्वथं आकर निवास करती दहै। लक्ष्मी के पर्यीयवाष्वक शब्दों मे ्व॑चल’ (चपलाः आदि मी पर्यायवाचक शब्द है। जिससे यही निशित होता दहे करि लक्ष्मी-एक व्यक्ति मे, एक कुर मे, एक राज्य में स्थिर होकर नीं रहती है, किन्तु जिस मनुष्य के धनभाव में चन्द्रमा स्थित होता दै उसके घर में लक्ष्मी स्वयमेव आती है भौर स्थिर होकर निवास करती है, अन्यत्र जाने का कभी विचार नदीं करती है । यह अन्तर्निहितभाव प्रतीत होता रै ।

९२ चमर्छारचिन्तामणि का तुरख्नात्मक स्वाध्याय

““कुटुम्वी धने” जाचायं वराहमिहिर अर्थ– जिसके धनभाव मं चन्द्रमा होतो वह मनुष्य वहत बड़े परिवार वाला होता है। जिसके घर बहुत धन-वैभव-रिश्र्यं आदि होगे वदी मनुष्य बहुत बडे कुटम्ब का भरण-पोषण कर॒ सकता है) यह भाव दहै। वराह जी एक मुख्य फल का निदंश करते है दोष सवक देवक् की प्रज्ञा पर छोडते है अतः धन भावगत चद्रका एक दी फलहे, एेसा विवार भ्रममूकक होगा । धनगत हरिणांदो व्यागशीखो मतिज्ञो निधिरििधनपूर्णो चंचलात्मा सुदुष्टः । जनयति बहुसौख्यं कीर्तिंशाटी सहिष्णुः कमलमृदुल कांति चन्द्रतुस्यस्वरूपः?› ॥ मानक्तागर अथं–जिस मनुष्य के जन्म समय म चन्द्रमा यदि धनभावमे होतो वह दानी, बुद्धिमान्‌ ; निधि के सदश धन से परिपूर्ण, चंचल स्वभाव, मलिनात्मा, सुखी, यशस्वी, सहनशील, कमल की भोति कीर्तिमान्‌, तथा चौद जैसा सुन्दर होता है | | “सुखात्मजो द्रग्ययुतो विनीतो भवेन्नरः पूणेविधुः ददितीये | शीणेस्खलद्वाग्‌ विधनोऽव्पवुद्धिः न्यूनाधिकत्वे फठ्तारतम्यम्‌?” | । दुण्डिराज अथ जिस मनुष्य के धनभाव में पूर्णचन्द्रमा हो तो वह॒ सुखी संतान तथा धन से युक्त होता दै । क्षीण चन्द्रमा हो तो मनुष्य अटक.अटक कर बोलने बाल । निधन, तथा कमक (मूर्खं ) होता है । चन्द्रवल में न्यूनता तथा अधिकता के अनुसार फठ्में भी न्यूनाधिक्य होगा । कामी कान्तः चारुवाग्‌ इंगितज्ञः विद्याशीढो वित्तवान्‌ वित्तगेन्दौ ॥ ॥ वंयनाय ॥ अथं –यदि चन्द्रमा धनमावमं हो तो मनुष्य कामी, सुन्दर, उत्तम तथा [च वचन बालनवालः, इद्रे को समञ्ने वाला, विद्वान्‌ भौर धनवान्‌ होता दै ; | १ धनान्योऽतरवाभी विषयसुखवान्‌ वाचि विकलः? | स॑नेश्वर य ।जसक धनभाव में चन्द्रमा हो तो वह मनुष्य धनाढ्य, कोमलः तथा मीये वृ्वन बोलने वाला, सांसारिक विपां कौ भोगकर उनमें सुखास्वाद टेनवा ला | होता हे। विन्त इसकी वाणी में कुछ विकलता होती है । अर्थात्‌ साफ नह। बोक्ता हे प्रत्युत अटक-अटक कर वोता हे ।

4 ^< ~> ल तैः [क = अर -जढख्तयुखमित्रयुतो धनैश्च चन्द्रे द्वितीय राशिगते | मपूणऽतिधनेशो मवति नरोऽद्पप्रखपकरः | कल्य’णव्मा

€ ^~ “~ =+ (^~. 1९) क अ न जत मनुष्यं क जन्मसमय मं चन्द्रमा द्वितीयभावमें होतो इसे अट्ट भीर अनुपम सुख मिलता है । इसके मित्र वहत होते है । इसके पास

चन्द्रफर ९३

धनराशि भी अच्छी होती है । यदि यह चन्द्रमा पूर्णिमा का हो तो यह मनुष्य महाधनी ओौर मितमभापरौ होता हे । “घने चन्द्रे घनैः पूर्णो दरपपूज्योगुणान्वितः याचतरानुरागी सुभगो जन प्रीतिश्चजावतः । काश्िनाय अर्थ-घनभाव मे चन्द्रमा होतो मनुष्य घनसे परिषूणं होता है । इसे राजा से आदर प्रास्त होता है । ` यह गुणी, दा।्प्रेमी सुन्दर तथा जनता का प्यारा होता है | ““सुत-सौख्य -घान्य-सुकुटुम्बयतः शशिनि प्रपूणंवपुषि द्रविणे । ठघुज)ठ्याधि धनवुद्धियुतं विकले कलावति वदन्ति बुधाः ॥ जव्देव अर्थ- जिस भनुष्य के जन्म समय में पूर्णं चन्द्रमा धनभावमेंद्ो तो इसे पु्रसुख, धान्यसुख, तथा कुटम्यसुख पूरा मिक्ता है । यद चन्द्रमा श्रीण- काय दो तो मनुष्य की जाठरा मन्द रहती है-अथात्‌ अग्निमांयरोग के कारण भृख कम होती हे । इसी प्रकार बुद्धि भौर धनकीमी कमी होती हे । ““व्वन्द्रोऽपि धनस्थाने क्षीणोऽपि श्भवीक्षितः सटाकुरुते । पूर्णा्जिताथ नाशं निरोधमपि धान्य वित्तस्य ॥ विद्यारण्य अथं– धनभाव में क्षीणचन्द्र हो, चादे इस पर दयुभग्रह की दष्ट भीदहो तो भी पूवार्जित-पेतृवः सम्पत्ति का नाश होता दै । ओर नूतन धन-घान्य रूपौ सम्पत्ति के उपाजेन में रुकावट आती ह| ८“धनेष्चन्टरे धनीटखोके इष्टिभिवौविलोकिते । भमगिन्यास्तस्य कन्यायाः द्रव्यन्नाशोऽपि जायते ।2 जातकरत्न अथे–यदि मनुष्य के धनभाव मे चन्द्रमादहो तो इसे धन मिक्ता है । यदि इसकी दृष्टि हो, वा इसपर शयभग्रह अपनी शुमदष्टि डालर्हैहों तोमी मनुष्य धनवान्‌ होता है । इसकी वहिन से अथवा इसकी कन्या से धन का नाश होता दै । -भसुख। तड द्रन्ययुतो विनीतो मवेन्नरः पूणविधोः द्वितीये । क्षीणे स्खटद्रग्‌ विधनोऽत्पदुद्धिः न्यूनाधिक्वे फठ्तारतम्यम्‌ ॥ ” महेश अथं–यदि चन्द्रमा दूसरे भावम होतो मनुष्य सुखी, तथा धनी ओौर पुत्रखुख से युक्त होता हे। यह स्वभावंसे विनम्र होता है । ऊपर लिखा फट तव मिक्ता हे जन चन्द्रमा पूणं होता है । यदि क्षीणकाय चन्द्रमा हो तो मनुष्य गद्‌गद्‌ वाणी बोलनेवाला निधन ओर अस्पबुद्धि ह्येता है । एेसा फल मेँ तार तम्य चन्द्रमा के पूण॑कला, ओर हीनकला होने से अनुपात से शभ वा अश्चुभम फठ होता है । ‘तकमर्यदी धनाःल्ये धनी दमी प्रियंवदः | विदूषको नगोमवेद्‌ वल्न्वितो यकीनरः ॥’ खानखाना

९.४ चमर्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

अर्थ–यदि चन्द्रमा ठ्यसे द्वितीयभावमें होतो मनुष्य धनवान्‌ इन्द्रिय दमनरीट, मधघुरभाषी, कायं करने मे चतुर ओौर बल्वान्‌ होता दहै। यदि चन्द्रमा वटी हो तो विदोष फल अर निवल हदो तो असप फल होता है | रिप्पणी–साहिव्यदपंण के अनुसार विदूषक नायक का मित्र तथा कर्मसचिव होता दै-यौर श्रङ्गाररस सम्बन्धी चेष्टाओं मे सहायकः होता है। यदौ पर भ्िदूषकः का अर्थ (कायं निपुणः ल्या गया हे । श्रगुसूत्र-“शयोभनवान्‌, वह्ुध्रतापरी, धनवान्‌, अत्पसन्तोपी । अष्टादश वरं राजढःरेण सेनाधिपत्यरोगः। पापयुते विव्यादहीतनः। यभयुते बहुविद्या- धनवान्‌ । एकेनैव पूर्णचन्द्रेण सम्पूणं धनवान्‌, अनेक भिद्रावान्‌ 1 अथे-ल््से द्वितीयभाव मे चन्द्र हो तो मनुष्य शोभायुक्त, प्रतापी, धनी ओर सन्तुष्ट रहने वाला होता है। १८ वें वर्षमे मनष्य फौज मे राज- कृपा से सेनापति का अधिकार ग्राप्त करता है। इस भाव के चन्द्र से किसी पापग्रह का सम्बन्धद्ो तो मनुष्य विद्या से वंचित रहता है। श्चभग्रहों से सम्बन्ध हो तो मनुष्य बहत सी भाषाओं का पण्डित ओर धनवान्‌ होता है | एक दौ पूणे चन्द्रमा मनुष्य को धनान्य तथा विप्रिधविव्याओंका ज्ञाता बना देतादहे। रिप्पणी–अल्पसन्तोषीः का अन्तर्निहितभाव वही हो सकता £

जिसका वर्णन निम्नकिखित दटोकः द्वारा किया गया हेः–
(सन्तोषामरृत व्प्तानां यत्सुखं दान्त चेतसाम्‌ ।
कुतस्तद्धनढन्धानामितश्रेतश्च धावताम्‌ ॥2’
_ यवनमत–इस चन्द्र के फट स्वरूप वह व्यक्ति धनवान्‌ , मिष्टभाषी, लोक-
(भय, विजयी ओर बलवान्‌ होता है । यह मित्र मे, उच म अथवा स्वक्षेत्र
मदहोतो इसका फल बहुत उत्तम मिक्ता हे ।
बन्वात्यम॒त–यह चन्द्र वल्वान्‌ ओर श्चम सम्बन्धित हो तो सम्पत्ति सुख
“च्छा मेव्ता हे | एेसे व्यक्ति को विविध वस्तुओं के संग्रह का बहुत शौक
होता हे । वह्‌ विजयी ओर धनसंत्रह्‌ करनेवाला होता ह । यह चन्द्र॒ उच्य
॥ हो त। विपुर धरन मिल्ता है । न्नरियों से अच्छी मदद मिलती है । सार्वजनिक
याम माग केकर विजयी होता है । यह चन्दर वृश्चिकवा मकरमेहोतो
इत बरे फल मिलते हँ । इससे सम्पचिश्ुख मे व्यत्यय माता है । निस्तेज होते
। स्वभाव खर्चीला होता है । हानि के मौके बार-बार मते है । रिस्तिदा = अहुत तकलीफ उठानी पड़ती है । प्रवास में अपयश मिक्ता द । वृध्िक के चन्द्र च मपने ही हाथ से यपना नुकसान होता है। यद चन्द्र यदि अमा- स्याकाहो तो क्रितनी भौ संपत्तिदो। आयुमेकिसीन किसी समय धन क तिप्रय म तकलीफ अवदय होती हे।

चन्द्रफर ९५५

विदेश में प्रवास करने से भाग्योदय दहो सकता है । साव॑ंजनिक संस्थाओं के सम्बन्ध से भाग्योदय होता है। सांपत्तिकस्थिति मे सस॒द्रके उ्वारभाटे के समान बहुत स्थत्यन्तर होते रहते है । इसीलिए सावंजनिक हित के कार्यो मं, अथवा जन समाज को उपयोगी एेसी वस्तं के व्यवहारमे लाभ होता हे । धन स्थान के चन्द्र से विरोषतः विवाहित च्ियों से होनेवाले लाभ ओौर हानि का बोध होता दहै।

रटिप्पणी- धनभाव शब्दम आएद्ृए धन रब्द का क्या अथंहै धन शन्द्‌ किस-किस धन का बोधकहे १? क्या इससे नकद रुपये-पेपरमनी, जेवर आदि जंगमसंपत्ति का ही ग्रहण होता है, अथवा स्थावर संपत्ति काभी धनभाव से विचार कियाजा सकता है-१ये प्रन बड़े महत्वकेर्है। क्या सम्पत्ति का विचार केवल धनभावसे ही किया जाना चाहिए अथवा चतुर्थं भावसे ही, जेसे देवज्न रोग इस विषयमे चलुथंस्थान का विचार करते हें । इस विषय में पाश्चात्य देवज्ञ ““टिलीनेः अपना मत निम्नलिखित शब्दों द्वारा प्रकट किया हैः–

“इस स्थान से व्यक्ति की स्टेट अथवा धन का विवार होता हे। सम्पत्ति, माल मिल्कीयत; जंग स्टेट, ठोर्गों को दिया हभआ कजं; कानूनी व्यवहार में फायद्‌।, नफा, नुक्सान; अथवा खराबी, इन सब वातां का द्वितीय स्थान से विवार होता है । इस विचार को ध्यान मं रखते हुए यद्दी मानना ठीक होगा कि स्थावरस्टेट का आओौर पेक सम्पत्ति का विचार धनभावसे ही करना चाहिए | धनश्चन्द व्यापक अथमे प्रयुक्तं हुम दै-नकद रुपया; जेवर, रोयर आदिभी इसी मं अन्तभूत होतेह । इसका विष्वार जो लोग चतुर्थं स्थान से करते है उनके मागं मे कई रुकावट आ सकती है, अस्तु ।

विचार ओौर अनुभव- धनभाव का चन्द्रमा च्रष वाककमें होतो धन प्राप्ति होती ई । किन्तु मारी कठिनाई का सामना करना होता है, मकर ओौर कुम्भ मे कटिनाई कुक कमहोतीदहै। कन्यावाब्रध्चिक मं चन्द्र होतो कटिनाई बहुत क्म होती है। रोष रारियोंमे श्चभफल मिलते ई। पवन्द्रमा स्थान फर के लिए अच्छा नहीं । बुद्धि प्रभावके लिए यह्‌ चन्द्र अच्छा है। इससे वकील को बहुत लभ होता है । धनभाव का चन्द्रमा डाकुओं के ल्ि मी लसभदायक है। चन्द्रमा के कारकत्व में आष हुए रोगों का इलाज करके डाक्टर खोग धन-मान, तथा कीर्तिं प्राप करते ह । जेसे चन्द्रमा वग बृद्धि भौर हानि नियमितसरूपसे होती है इसी प्रकार षन्द्रप्रभावान्वित्त व्यक्तियों को भी उतार-चटाव होते ई ।

तृतीयभाव का चन्द्र-

(“विधौ विक्रमे विक्रमेणेति वित्तं तपस्वी भवेद्‌ भामिनी रजितोऽपि । कियच्‌ चितयत्‌ साहजं तस्म प्रतापोञ्ज्वरो धर्भिणो वैजयन्त्या ॥ ३॥

९६ चमट्कारचिन्तामणि का तुलनात्मक स्वाध्याय

अन्वयः- विधौ विक्रमे ( सति ) विक्रमेण वित्तंएति | (सः) भामि- निरंजितः अपि तपस्वी भवेत्‌ । (तस्य ) धर्मिणः वैजयन्त्या प्रतापोञ्जञ्वलः (स्यात्‌) तस्य क्रियत्‌ साहं शमं ( यत्‌ ) चिन्तयेत्‌ ॥ ३ ॥

सं< टी<- विधो विक्रमे वत्रतीयेन्दौ विक्रमेण उद्यमेन वित्तं धनं एति प्राप्नोति । भामिन्या सुन्दर च्रिया रनितः लभ्यमानः अपि तपस्वी, धर्मिणः वरेजयन्त्या धमष्वजित्वेन प्रतापोज्ज्वलः यदः शोभितः भवेत्‌ । तथा तस्य साहजं भ्रात्रमवं सवंसुखं कियच्‌ चिन्तयेत्‌ वहृलभवेत्‌ , इत्यर्थः ॥ ३ ॥

अथं– जिस मनुष्य के जन्म लग्न से व्रती स्थान में चन्द्रमा दहतो वह अपने पराक्रम द्वारा द्रव्य लाम कर पाता है । यह सुन्दरी रमणियोँ द्वारा लुभाये रहने पर तपस्दी होता हे । इस धर्मात्माके धर्मं के ञ्ंडेसे इसकी कीतिं उज्ज्वल होती दै। इसे भायां से अत्यन्त सुख मिलता है। अथवा यह स्वभावसे अत्यन्त सुखी होता हे ॥ ३ ॥

रिप्पणी- पुराणों मे अनेक क्था एेसी आती है जिनसे रूप खछावण्यवती च्ियों का मोहकत्व ओर चित्ताकर्पेत्व निःसंदेह स्थापित होता है, हजारों वर्षो के उृष्ककाय तपस्वी मी इनमे आसक्त होकर अपनी तपस्या को नष्ट-श्रष्ट करते दुर देखे गए हँ । रिकारमें रोये चीतोंको भूतल्रायी कर देनेवाठे वीर पुख्ष भी रमणि्यो के आगे नतमस्तक होते ए देखे गये है । परन्तु एेसी मनोरमा स॒न्द्री रमणियों का प्रभाव वतीय भावस्थित- चन्दरप्रभावान्वित मनुष्य पर नहीं होता है भौर यह तपस्वी हयी बना रहता है, यह आश्चयं जनक प्रभाव तृतीयस्य चन्द्रमा का है-यह मर्म है।

तुख्ना–“सदत्ये शीतांौ जनुषि वलिते विक्रमवशाद्‌ ,

धनान्यागच्छन्ति प्रवरवनितासगमसुखम्‌ । प्रतपद्धिः पुंसां सहजगगण्रतः सौख्यमधिकं , तपस्या संसारे बुधजननमस्य प्रमदति | जोष्नाथ अथे–जिस मनुष्य के जन्म लर से चन्द्रमा त्रतीयभाव मे हो वह अपन जवल से धनोपाजन करत। है । अर्थात्‌ इसको धनी बनाने मे इसका सपना ह] दाथ होता दै मौर दूसरे के साहाय्य से निरपेक्ष वह्‌ स्वयं उन्नत होता है । इसे रिरीषर पुष्पवत्‌ कोमलांगी मनोदाणिी स्ियोँके साथ सहवास खल प्रात दोता ह । इसके प्रताप की उत्तरोत्तर ब्रद्धि होती है। अपने भाई बनधु से अधक सुख मिलता हे । इसकी प्रतरचि धार्मिक कार्योमें होती हे । संसार में इतका आद्र सम्मान होता है । ““श्रात्र॒ जनाश्रयणीयो मुदान्वितः सहजगे बलिनि । चन्द्रे भवति च शूरो विया व्रा सयमहण सीः ॥ कल्वाणवर्मा

७ चन्द्रफर ९७

अर्थ जिसके जन्मसमय मे तृतीयभाव मे बलवान्‌ चन्द्रमा दहो तो वद्‌ ४५ मनुष्य भाई-बन्धुं को आश्रय देनेवाल दोता दै अर्थात्‌ अपने भ्रातरवग का पालन करनेवाला होता रै। यह मनुष्य श्र, सदा प्रसन्नमना विद्या-व् तथा अन्न का सं्रह करनेवाला दोता है। तृतीये च निंशानाये धन-विद्यादिमियुंतः । | कफाधिकः कामुक्श्च वंशमुख्योऽपि जायते ॥> काशिनाथ अ्थै– यदि च्वन्द्रमा व्रतीयभाव मे दो तो मनुष्य धन-विद्या आदि से .युक्त होता दै । अथात्‌ मनुष्य धनी ओर विद्वान्‌ तथा अन्य श्भश्रेयस्कर गुणों से युक्त होता है । इसे कफ सम्बन्धी रोग अधिक्तासे होते है । यह कामासक्त रहता है । यद अपने वंश मे एक मुख्य पुरुष- होता हे । | | ‘“सहोपये स्राव प्रमदबल्शोौर्योऽति कृपणः ॥ भंत्रेश्वर अर्थ-जिखके जन्मल्य से तीसरेस्थान मे चन्द्रमा होतो वह मनुष्य भाई-जन्धुभों से युक्त होता है तथा इनसे सखी होता है। यह मनुष्य मद्‌-युक्त, बलवान्‌ भौर वीर दोता है। किन्तु कपण भी होता है। भि भ्रातरगते ॥> आचायं वराहमिहिर अर्थ त्रतीयभावस्थ चन्द्रमा के प्रभाव मे उत्पन्न मनुष्य निर्दयी होता है । ““हिखः सुखोऽस्प प्रतिमः स्यादअन्ध्वा्रयोन्जे विदथस्तृतीये ॥” जषदेष अर्थ- जिसके तृतीयभाव मे चन्द्रमा हो तो वह मनुष्य जीवर्दिसकः अस्पसुखवान्‌ , स्वबन्धुपाल्क, रौर निदंयी होता ह । “वन्दे सोद्ररारिगेऽस्पधनिको बन्धुपियः साविकः ॥” वैयनाय अर्थ- जिखके व्रतीयस्थान में. चन्द्रमा हो तो वह मनुष्य अस्पधनी स्वबन्धुपारुक, अथात्‌ अपने भाद्र-बन्धुभों को चाहनेवाला ओौर सतोगुणी स्वभाव का होता ₹है। | ‘हिखः सगर्वः कृपणोऽस्पबुद्धिः भवेद्‌ जनो बेघुजनाश्नयश्च । दयाभयाभ्यां परिवर्जितश्च द्विजाधिराजे सहजे प्रसूतौ ॥ दुंडिराज अ्थ– जिसके जन्मसमय ल्म से तृतीयभाव मे चन्द्रमा हो तो वह मनुष्य; जीवरिसा -करनेवाला, घमंडी, कृपण, अल्पमति, अपने भाई-बन्धुओं को आश्रय देनेवाल, निर्दयी ओौर निर्भय होता हे । (शशिनि सहजसंस्थे पापगेदहे ष्व नित्यं न भवति बहुभाषी भ्राव्रहत, सुगेदे ।

भवतिं च सुखभोगी स्वोचगे रात्रिनाये सकल्धननिधानं शाख्रकाग्यग्रमोदी ॥ मानक्ागर

अर्थ–यदि तृतीयभाव का चन्द्रमा पापग्रह की राशिमेंदहोतो मनुष्य बहुभाषी अथात्‌ अनथक वक-वक करनेवाला, ओर अपने माईै-वंधुओं को हानि पर्हवाने वाला होता है। यह चन्द्रमा यदि श्चभग्रह कीराशिमेदहदोतो `

९८ चमर्कारचिन्तामणि का तुखनात्मक स्वाध्याय मनुष्य सुखभोत्ता होता दहै । यदियं अपनी उचचरादिमं होतो य दे । ओर श।खव्यसनी तथा

चन्द्रमा अपनी ही रारि मं हयो अथवा द मनुष्य सभी प्रकारसे धन से परिपूर्णं होता काव्यशास्ररसास्वाद्‌ ठेनेवाखा हाता है। “ध्राव्रस्थानगतेवचन्द्रे भ्रातृसौख्यं समाद्िरेत्‌ । नीरोगी भ्रातरौ द्भौच भगिनीच्रधमव च ॥2 जातकरतन अथ तीसरे स्थान मे चन्द्रमा होतो मं ईै-बहिनों का सुख अच्छा मिल्ता हे । दो माई अर तीन क हिने होती दह ओौरये सव नीरोग होते दहै । “यदा विक्रमे चन्द्रमाविक्रमेरा; सुरीटः सुटीटोभवेत्‌ तुच्छट्न्ध्या | तपस्वी समो धर्मधीरोदयाटस्तथाखीसधमं प्रवं पूरं विवे ॥ जागेश्वर अथे–वृतीवमाव मं पूषन हो तो पुष पराक्रमी, शीवन्‌ , थोड़े

हो खभसे सन्तुष्ट होने बाला, तपस्वी, समदटष्टि; धार्मिक; धैर्यवान्‌ , दया ओर धार्मिक-छीका स्वामी होता हे ।

दिः सगदः इपणोऽव्पवुद्धिः भवेत्‌ जनो वं्ुजनाश्रयश्च | -बवा्वां परिविजितश्च द्विजाधिराजे सहजे प्रसूतो ॥* महल 7 नि + ल जोव > । अथ यदि जन्मलग्न से तरतीयस्थान मे चन्द्रहो तो मनुष्य #वर्दिसा २५ वाला -घमंडी; कृपण, अत्पवुद्धि; स्ववंघुपरिपाल्क, निर्दय तथा निभेय होता हे |

`कमर्विखधराल्ये नरो हि वा मुरौवतः। तदा चटा च साविरः सुकर्मङृद्‌ या भवेत्‌ ॥ खानखाना त यृ ~> ~ 4 + भ जथ यदि चन्द्रमाच्यसे तरतीयभाव मे होतो मनुष्य मुरव्वत करने- वालाः वल्भेसत.्री तथा ज्युमकर्म करनेवाल्म होता है | रसूत्र– प गिनीसामा न्यः, रातिवघं माविरूपन ं मेधावी, सहोदरवद्धिः; |

वातररीरी, अन्नहौोनः, अव्पमाग्यः | चतुर्वि जन, द्रव्यच्छेदः। गोमदिष्यादिहानिः। पिद्यनः,

€ [क र ह धर न्‌ 1 जस मनुष्य के जन्मव्यसे तीसरे चन्द्रमादहातो वह वायुप्रधान-

दारीर बाला होता हे। इसे र्पूर अन्न नहीं मिल्तारै। यह अभागा दोता दे। ध्वं व्॑में राजंड्‌ सत धरनहानि होती दहै। इसके घरमे गाय-मँस- आदि दवन का अभाव रहता है। मनुष्य) दगुल्खोर ओौर बुद्धिमान्‌ होता दे । इसमे सगे भाई ओर बहिन होतीदहै। `

यवनमत– “ह पुरुष यख्वान, संतो

1 वस्वमत– “प्रवास की रुचि हाती है । छोटे गवास बहुत होते है । शाख्ीय यर गहनविपयों कौ रचि होती है। व्यवसाय में वार-बार परितेन होता है । मजी तरह क्ण श्चिहोती हे । अनिश्वयी स्वभाव होता हे । यह

पी ओर सदाप्वारी होता ३० ।

चर दरश ९९

चन्द्र बलवान हो तो भा-बहिनों का सुख अच्छा मिक्ता है। पड़ोसियों से सम्बन्ध अच्छे रहते है । यौर उनसे लभ दहोतादै। २८र्वै वषं के करीब बहुत प्रवास करना होता है । कीर्तिं ओर प्रसिद्धि का आरम्भ होता है, ओौर सत्छत्य किये जाते ईह । | | विचार ओर अदुभव–ठरतीय-स्थान का चन्द्रमा भ्राताओं के विषय मं अच्छा नदीं है। बहनों से सुख प्रापि करातादै। इस भाव के. चन्द्रमासे प्रवास बहुत होते है जन्तु इनमे सखप्राति बहुत थोड़ी होती है । स्रीसुख के छिए भी त्रतीय चन्द्र सामान्य है। इस तृतीय स्थान मेंरविदहो तो बहनों का वैधव्यं संभावित है-यातो गहकठद से संसारसुख नहीं मिलता; वा मृत्यु होती है अथवा बोञ्च होती है । अथ चतुथे चन्द्र फछ- | “यदा बेधुगो वान्धवैरच्रिजन्मा उृपद्वारि सवौधिकारी सदेव । वयस्यादिमे तारं नैव सौख्यं सुतद्ीगणात्‌ तोष मायाति सम्यक्‌? ॥४। अन्वयः– यदा यत्रिजन्मा बन्धुगः ८ स्यात्‌ ) ( तदाः) सनरः बान्धवैः नरपद्वारि सदैव सर्वाधिकारी ८ विधीयते )। आदिमे वयसि ८ तस्या तादशं सम्यक्‌ सौख्यं नेव ( जायते ) ( सः ) सुत-ल्रीगणात्‌ तोषं आति ॥ ४ ॥ सं: टी —जन्धुगः चवुर्थः अन्रिजन्मा चन्द्रः यदा तदा पुरुषः वान्धवः सोख्यं, सुतस््नीगणात्‌ पुत्रकलत्रसमूहात्‌ सम्यक्‌ तोषं सदैव चपद्वारि सवधिकारी राजद्रार सवंकायकर्ता, आदिमे प्रथमे वयसि ताहशं नैवयाति प्राप्नोति; साधि- कारोऽपि मदोद्‌ वेगवान्‌ इतिभावः ॥ ४ ॥ अर्थ- जिस मनुष्य कै जन्मल्गन से ष्तुर्थभाव मे ष्वन्द्रमादहो तो वह बांधवों द्रारा राज्य में सर्वदा अधिकारी बनाया जाता दहै। वाल्यावस्था में ( प्रारम्भिक अवस्था मे ) इसे उत्तम सुख नहीं मिरुता हे ! अथौत्‌ सामान्य तौर पर सुनी रहता है । पुत्र-खी आदि कुडम्बी.जनोँ से इसे पृणंखुख मिलता है। संस्कृत रीकाकारने शछोकाथं को स्पष्ट नहीं किया है, रिप्पणी-जीवन के पूर्वाधं में कष्ट ओौर उत्तराधै मे सुख मिक्ता है– इसका अनुभव मेष, सिंहः धनु, वृष, कन्या, मकर राशियों मे मिलना संभव है । तुख्ना-“खुखागारे चन्द्रो भवति सबरलोयस्यजनने ऽधिकारीमाण्डारेपरवल्वसुधामतरविरम्‌ ` । वयस्याद्ये किंचित्‌ सुखमपि ततो नूतनक्ता विलासः पुत्राणां सुखमल्मलंकारनिवरैः ॥ जो दनय अर्थ जिस मनुष्य के जन्मसमय मे बख्वान्‌ चन्द्रमा चतुर्थभावमें हो तो मनुष्य बख्वान्‌ प्रतापी भूमिपति ( राजा) का भंडारी अर्थात्‌ कोषाध्यक्ष

१०० चमत्कारचिन्तामणि का तुल्नात्मक स्वाध्याय

होता दै। इसे बाल्यावस्था मतो वहत थोडा सुख प्रास होता है किन्तु युवावस्था में खी-सुख, पु्-खुख, तथा अटंकार का पूर्णसुख प्रास्त होता दै । “धविन्यारील खुखान्वितः परवधुलोलः चतु विधौ |> वदनाय अथ–जसके चलुर्थस्थान म चन्द्रमा हो तो वह मनुष्य विद्वान्‌, आचार वान्‌ ओौर सुखी होता ह । परन्तु परख्रीरोडप भी होता हे । बहुतर वसुपूर्णा रात्रिनाथं चतुथं परियजनदितकारी योषितां प्रीतिकारी। सततमिह स रोगी मांरुमत्स्यादिमोगी गजतुरगसमेतः ऋीडते हरम्यधृषरे ॥* म’नसागर अथं–जिसके जन्भसमय में खनसे चवुर्थस्थान में चन्द्रमादहो तो वह मनुष्य बहुत धन से परिपूणं होता दै । यह अपने प्यारोंकी खूत्र सहायतां करता दे । यह च्ियों को खृ खुद रखता दै । अतएव यह सियो कां प्यारा दोता है । मास-मछली आदि अभक्ष्य पदार्थो को खानेवाला होता है। अतएव सदा बीमार रहता हे । इसे हाथी-घोडे की सवारी मिलती है । राज- मह लों जेसे अच्युत्तम मकान रहने को मिलते दै । टिप्पणी-मानसागर के मत के अनुसार चतर्थभावस्थ चन्द्रमा के प्रभाव मं उत्पन्न मनुष्य को जन्म से दी सवंविध र्य प्राप्त दो जाता है। इस मत मं “आरम्भिकवय में दुःख, उत्तरवय म अर्थात्‌ यौवन मे सुख मिलत। है” एसे फर का कोई संकेत नहीं है । इस विषय मं एकमात्र निर्णायक अनुभव हीदहो सकता है| “वन्धुपर्च्छिद वा इनसदितो दाता चठथगे चन्द्रे | जलसंम्वारानुरतः सुखात्‌ सखोत्कषपरियुक्तः | कल्या णवर्मा अथं–जिख मनुष्व के जन्मर्मन से चत॒थंस्थान मे चन्द्रमा दो तो इते वाँधरवां से सुख मिक्ता है–इसे वख्र-अन्न; सवारी सभी आवद्यक वस्तुः प्रात होती ह । यह्‌ दानशीक होता दै। यड नदी-सस॒द्र आदि सें व्यापार दारा धन कमाता दै । इवे मुख की उत्तरोत्तर ब्रद्धि होती है। किसी एक पुस्तक मं पाठ मेद्‌ पाया चाता दै-“वन्धुपरच्छेद्‌ वांधव विरोधी” रेता प्रार दे । इसका अ्थ–शवंघुवियोग ओर वन्धुविरोध होता दै” यद अश्युभफल किस अवस्था यं अनुभव सं आएगा” इसका को सकेत नदीं ट । (“जलाश्रयोतपच्चधनोपरन्धि कृष्यगनावाइ नसूनुसौख्यम्‌ । परसूतिकाठे कुरते कलावान्‌ पातालसंस्थो द्विजदेव भक्तिम्‌ ।2› ढ़ ढरिज अथे–जिस मनुष्य के जन्मन से चतुर्ध॑स्थान मै चन्द्रमा होतो वह जलोपपन्न जीव-मछली-शंख-मोती आदि कै व्यापार से धन कमाता है- समुद्री व्यापार से अर्थात्‌ जहाजँ मं मार्को जाकर दूसरे सुल्कोँ में वेचक धन पदा करता है । इसे खेतौ-वाड़ी का सुख, खी-संग का सुख, सवारी-मोटर

चन्द्रफल १०१

दि का सुख, ओर पुत्रों से सुख प्रास्त होता है। इस मनुष्य की भक्ति- अर्थात प्रेम, देवताओं ओर ब्राह्मणों में होती ह । अर्थात्‌ यह मनुष्य देवतां यौष्ग्रह्मणों में श्रद्धा रखता हे । “सुखी भोगी त्यागी सुद्धदि ससुद्धद्‌ वादनयशाः” ॥ मन्त्रेश्वर अथं–जिसके चतुर्थभाव मे चन्द्रमा दो तो वह मनुष्य सुखी रहता दै । यह दान देनेवाला होता है। इसे सभी प्रकारं के भोग प्राप्त होते्है। इसके अच्छे मित्र होतेरहै। इसे मोटर आदि सवारी का सुख मिल्तारै। . भौर कीर्तिमान होता है । ‘्वतुर्थं ष निखानाये पुत्रदारसमन्वितः। धनी, सुखी यरास्वी च विद्यावानपिजायते ॥” शाज्ञीनायथ अथं–जिसके चठुर्थस्थान मे चन्द्रमा हो तो उस मनुष्य को पु्-सुख, खरी-सुख, धन-सुख, भौर विद्रत्ता का सुख प्राप्त दोता है । यदह मनुष्य यशस्वी होता है, अर्थात्‌ रोग इसका गुणगान करते दै । | “कृष्यंगना यान सुताम्बुपातेः सौख्यं सुराप्वंः सुखगे सांशः | जयदेव अथं–यदि ष्वन्द्रभा सुखमभाव में ( चठु्थ॑भाव में ) हो तो मनुष्य को खेती- बाड़ी का सुख, स्री-सुख, सवारी का सुख, पुत्र-खख, तथा जर से उत्पन्न मछटी- शङ्ध-मोती भादि वस्त॒भं से सुल प्राप्त होता है। यह मनुष्य देवपूलकं भीदहोताहै। ` | जाश्रयोत्पन्नधनोपरन्धि कष्यंगना वाहन सूनुसौख्यम्‌ । प्रसूति काले कुरुते कलावान्‌ पातालसंश्थो द्विजदेवभक्तिम्‌ ॥2 महेश अथ–यदि जन्मसमय चन्द्रमा चवुर्थभाव मे हो तो मनुष्य को नदी- समुद्र आदि से उत्पन्न होने वाटी मछली-शंख-मोती आदि वस्तुओं के विक्रय से धन की उपर्न्धि ८ प्रापि ) होती है! अर्थात्‌ मनुष्य मछली के क्रय-विक्रय से, शद्धो के क्रय-विक्रय से ओौर मोतियों के व्यापार से, धन कमाता रहै-समुद्र मे चलने वाले जहाज के जयिये से माल विदेरा मे ठेजाकर, मर्हैगे भाव पर वेचकर रुपया कमाता है । अर्थात्‌ जिसके प्वौयेभाव में चन्द्र हो वह मनुष्य समुद्री जहाज से यातायात का व्यापार करतादहै ओर धनी हो जाता ईै। इसे खेती से-बाग-वगीचों से लभ होता है । इसे स्री-षुख, सवारी-घ)डा-गाडी- मोटर आदि का सुख ओर पुत्रां से सुख प्राप्त होता है। यह मनुष्य श्रद्धाट्ु- धार्मिकवृत्तिका तादे ओौर इसका देवताभों मे तथा ब्राह्मणां मे पेम होता है | ““कमर्यदाम्बुगेहगः सखी, मुकरवः प्रभुः भवेन्नरश्चमजिसी तदा बुधः सुमाग्यवान्‌ ॥* खानखाना अथं– जिसके जन्मलग्न से चतुर्थमे चन्द्रहो तो मनुष्य दाता, पुण्य करनेवाला; राजा के सदृश रेश्व्यैवाला, मलिनः पंडित तथा माग्यवान्‌ होता है ।

१०२ चमत्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक्‌ स्वाध्याय

शगुसू्–राय्यामिषिक्तः, अश्ववान्‌; क्षीरसमरद्धिः; धन-धान्य-समरद्धः । मावरोगी । -परलली स्तनपानकारी। मिष्टान्न सम्पन्न ¦ परखरीटोटः;, सौख्य- वान्‌ । पूर्णचन्द्र स्वक्षेत्रे बट्वान्‌ । मात्‌ दीर्घायुः । क्षीणचन्द्रे पापयुते मात्रनाशः । वाहनहीनः । बलयुते वाहनसिद्धिः । भावधिपे स्वोच्चे अनेकाश्वाटि वाहनसिद्धिः।

अर्थ-चतुर्धभावमें यदि चन्द्रमा हो तो याजकुल में उत्पन्न मन॒ष्य का राज्याभिषेक होता दहै । अर्थात्‌ इसे राजा के निग्रह-अनुग्रह करने के पूणं अधि- कार प्राप्त होतेर्दै। इसे सवारी केय्यि घोड़ा मिल्तादहे) इसकेघर दूध देनेवाठे गाय-मंस आदि पञ्चुओंके दोनेसे दूध खूव्र होतादहै। संसारमें आनेवाली आवदयकताथं का सामना करने के छिरः पर्याप्त मात्रा मे धन होता है । मोजन के ए पर्याप्त अन्न होता है। किन्तु इसकी माता रोगग्रस्त रहती हे । धाए का स्तनपान करना होतादै। मिष्टान्न कीभी कमी नही रहती । यदह परख्री ट्प होता दहै । यद सखी होता है । यदि चन्द्रमा पूर्णिमा कादो यथवा स्वक्षे्री (ककंका) होतो मनुष्य बल्वान्‌ होता है। इसकी मातामी दीघायुषी होतीदहै। इसभाव का चन्द्रमा यदि क्षीणकाय दहो, ओौर पापग्रहों के साथ इसकी युतिद्ोतो इसकी माता की मृल्यु होतीदहै। इसे सवारी का सुख नहीं होता है | इस भाव का चन्द्रमा यदि वल्वान्‌ होतो इसकी सवारी के दिए घोडा-गाड़ी मोटर आदि होते है। मावेशा यदि स्वक्षेत्री हो अथवा अपनी उ्चरारिमं होतो इसके पास्र घोडा-गाडी-मोटर आदि अनेक वाहन होते ह ।

यवनमत– “यदह पुण्यवान्‌, उदार, सत्ताधीश, मलिनिचित्त, विदान्‌ , पण्डित, मौर भाग्यवान्‌ होता है 1

पाश्चात्यमत–इस चन्द्र से घर, जमीन; खेती आदि विषयों मे सुख प्राप्त होता हे । ष्वरराशिका चन्द्रहो तो बार-बार घर वदल्ना पडतादहै। माता स विरासत मं सम्पत्ति मिलने का योगदहोतादै। माता के कारण भाग्योदय होताहे | माता पर भक्ति मौ दोती है । इस व्यक्ति के जीवन का उत्तरार्थः बहुत खखपृण हता हे । इसे चौपाए वाहनों का सौख्य अच्छा मिख्तादहै। इसे सुख कगे अभिलाषा बहुत होती है । ओौर शरीर को हृष्ट-पुष्ट रखना चाहता है । खानों ( कानों ) से अच्छी आमदनी होती है । चन्द्र वख्वान्‌ हो तो विवाह से धनप्राि-माग्योदय, आर स्टेट मिलने का योग होता है।

विचार ओर अतुभव- सभी म्रन्थकायें ने चतुर्थभावस्थित चन्द्रमा के फट प्रायः युम ही वतलए ईै।

ˆ“वन्धु वियोग” । यह फट वृष ओर मकर म चन्द्रमा दो तो अनमवमें आता दहे। (जीवनके पूर्वाधंमे कष्ट, गौर उत्तरार्ध॑मे सुख इस फलका अनुभव, मेष, सिह, धनु, वृष, कन्या सौर मकर राशियों में चन्द्रमा द्योतो, आता हे । पुरुषराशि का चन्द्रमा होतो (नया घर वनवाता है” इस फठ का

चन्द्रफल १०३

मिलना सम्भव है। माता से सम्पत्ति कौ प्रापि “भाता दारा भाग्योदय विवाह के बाद भाग्योदयः इन फलों का अनुभव चन्द्रमा के पुरुषपरियों में होने से आता दहै

साधारणतः चदठथंचन्द्र का फर यह्‌ है कि वष्वपन मे माता-पिता कौ मृत्यु होती है । ओरं कोई सुख प्रापि नदीं दोती। यदि माता-पिता जीवित रहै तो उनसे मनमुटाव रहतादहै । ३२ वें वप्रं तक र्थिरत। नहीं होती, तदनन्तर भाग्योदय होता है । विवाह के वाद्‌ कुछ स्थिरता होती हे।

जद तक व्वापार का प्रश्न दै-पेटैट दवाइयों का व्यापार, पौउडर, इत्र तेर आदि सुगन्धित वस्त॒ओं का निर्माण, वा व्यापार कामदायक हो सकता है ।

यदि चलुर्थभाव का चन्द्र मेष, सिंह वाधनुमेंदहोतो पूवंजाजित सम्पत्ति का त्याग करना पड़ता दै । माता जीवित तो रहती हे, परन्तु उसके प्रति मन मे मेक रहती रै । दृष, कन्या, मक्र) बृश्चिक रारियोँ मे चन्द्रमाहो तोन ूर्वजार्जित स्टेट मिती दै, ओर नादं मनुष्य स्वयं उपार्जित कर सकता दै । कुम्भ राशि का चन्द्रमा होतो अपने परिश्रम से स्टेट प्रप्ततो होती देः: किन्तु स्थायी नद्यं रहती । कर्क, वला ओर मीनरशि मे चन्द्रमाहोतो स्टेट मिल्तीभी है ओौर इसकी बृद्धि भी होती हे। अथ पस्छम चन्द्र फट

“यदा पचसे यस्य नक्षत्रनाथो ददातीह संतानसंतोषमेव ।

मतिनिर्सलां रन्नलाभं च भूमि कुसीदेन नानाप्तयो व्यावसायात्‌।। ९॥

अन्वयः- यदा नक्षच्रनाथः यस्य पञ्चमे ( स्यात्‌) ( तदातस्य) इह

सन्तानसन्तोषमेव ददाति । निर्मखांमति रललामं भूमि च ( दद्राति ) व्यावसायात्‌

कुसीदेन नानाप्तयः ( भवन्ति )॥ “^ ॥

सं< टी यस्य जन्मनि पञ्चमे यदा नक्षत्रनाथः विधुः, अस्मै सन्तान सन्तो, निर्मलं मतिं रललामं भूमीश इव क्षितिं अपि ददाति | तथा कुीदेन कालान्तर व्यवहारेण । यो व्यवसायः एव व्यावसायः उद्यमः तस्मात्‌ । नानातयः बहुवस्तुलाभा स्युः इति रोषः ॥ ^ ॥

अर्थ- जिस मनष्य के जन्मख्यसे पञ्चममावमें चन्द्रमादो तो इसे निश्चय दी उत्तम सन्तानका सुच प्राप्त होता है। इसकी बुद्धि निर्मल होती है। इसे रत्नो कालखामहोताहै। इसे मूमिलाभमी होतादहै। इसे व्यापार ते, व्याज पर रुपया उधारदेनेसे, तथा कई एक अन्य प्रकारो से द्रव्यलाम होता हे ॥ “^ ॥

तुरना – “जनुः काले चन्द्रो भवति यदि सन्तानभवने तदा पुंसः कान्तासुतसुखमच्छ्कार निकरः |

१०४ चमत्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

सदा द्या विदा नरपति कुलदेव वसुधा , दुकूलाथौः स्वैरं धनमपि कुसीदेन नितराम्‌ ॥ अथे– जिस मनुष्य के जन्मखमय में चन्द्रमा पञ्चममावमे होतो इसे अक्छ्धारो से युक्त स्री, पृत्रकासुख होता दहै। इस्की विद्या हृदयग्राहिणी होती ह । अर्थात्‌ वह उत्तम विद्वान्‌ होता है। इसे राजकुलं से भूमि; उत्तम वृर, अौर धन का खभहोतादै। इसी प्रकार सूद्से भीधन का टा होता हे। रिप्पणी-व्याज पर र्पया उधार देकर रुपया दुगना-चौगुना वसृ करना;. यह भी धन इकट्ठा करनेका एक उपायदहै। परन्तु इस उपाय के विरोधमं एक नीतिवचन भी दे–“कुसीदाद्‌ दारिच्यम्‌”” यकि जो व्याज पर रुपया उधार देते उनकी अपनी रहन-सहन कंगाल-मिख।रियों से भी अधिक शोचनीय होती ई । “श्चन्द्रे मवति न श्यूरः विद्यावस्रा्न संग्रहणशीलः | वहुतनय सोम्यमित्रो मेधावी प॑ञ्चमे तीक्णः |> कल्पाणदर्मा अथे पञ्चमभाव मं चन्द्रमा हो हो मनुष्य डर्पोक दोता है । यद्‌ विद न्‌ तथा वस्र से युक्त होता दै। यह अन्न का संग्रह करता है। इसके बहुत से पुत्र, ओर सुखी मित्र होते ह । यह तेजस्वी होता ३ । ““सुपुच्रोमेधावी म्रदुगतिरमाव्यः सुतगते |> मंच्रश्वर अथं–यदि चन्द्रमा पञ्चमभाव में होतो मनुष्य की गति ( चाल ) कोमल होती दहै। यद मेधावी होता है । इसकी सन्तान उत्तमकोटि की होती हे । यह्‌ राजमन्त्री होता है । टिप्पणी– कवल पञ्चमभावमें चन््रवेः होने से दयी राजमन्त्री होना तो सम्भव न हो-दो यदि गौर श्चमग्रह भी सभस्थानगत हों तो रेसा होना सम्भव हो सकता है । सतनये ततूप्रोक्त भावान्वितः ।|2 आचाय वराहमिहिर अथ–यदि पञ्चमभाव मे अर्थात्‌ पुत्रभावमें चन्द्रमादहो तो मनुष्य को पुत्रवान्‌ होने का सौभाग्य प्राप्त होता है| “सत्यः प्रसन्नः सयुताथधीमान्‌ जितेन्द्रियः संग्रदवान्‌ सृतेऽव्जे | जगदेव अथ– जिस मनुष्य के जन्मलन्न से पचचमस्थान मे चन््रमाहो तो बह सत्यतत्त1; तन्नमन; पुनयुक्त;, धनयुक्त) बुद्धियुक्त, इन्द्रियदमनरील ओौर सवेविध वस्तुओं का सग्रह करनेवाद्य होता है । सुते चन्द्रे सुताव्यश्च रोगो कामी मयनकवः। कृषीमयेः गमेः युक्तः विनयी न भवेन्नरः | कालोनाय अथ-पञ्चममावस्थित चमव्रमा का मनुष्य; पुत्-सन्ततियुक्त; रोगी, कायुक, भवजनक मृुखवाला, खेती मेँ उसन्न रसो से युक्त, तथा विनम्र खमाव

चन्द्रफल १०९

वाला होता है । पाठान्तर ‘क्रत्रिमेः पौरैः युक्तः यदि स्वीट्कत हो तो मनुष्य बनावरी पौरषरवाला;’ एेसा अथं होगा | जितेन्द्रियः सत्यवचाः प्रसन्नो धनात्मजावाप्त समस्तसौख्यः । सुसंग्रही स्यान्‌ मनुजः सुशीलः प्रसूतिकाले तनयाय्येऽन्जे ॥* दृण्डिराज अथे– जिस मनुष्य केः जन्मसमय मे चन्द्रमा पच्मभावमें स्थितदहो तो मनुष्य जितेन्द्रिय, सत्यवक्ता; प्रसन्न रहनेवाला, सग्रह करनेवाला, तथा सरीर होता हे। इसे धन का सुख, पुत्रका सुख आओौर नाना विध सुख प्रात होता है। (तनयगतदाशांको विम्बपूणः सुखीस्यात्‌ बहुतरसुतयुक्तः वश्यनारी समेतः यदं मवतिशशां कः क्षीणकायोऽरिगेहे युवति सुख समेतः पुत्रपौत्रेः विदीनः ॥” मानसागर अथे–यदि पूर्णं बल्वान्‌ होकर चन्द्रमा पञ्चमभाव में दो तो मनुष्य सुखी होतादहै। इसके बहूतसे पुत्रहोतेद। इसकौ खी पतिवशावर्तिनी आर पतिपरायण होती है । यदि हीनबटी तथा शातुक्षे्ती होकर यद ष्वन्द्र पञ्चमभाव मेदहोतो मनुष्य को खरीसुख तो मिल्ता है किन्तु यदह मेष्य पुत्रसुख रदित तथा पौच्रयुख से वञ्चित रहता दै । पुतं के भावम पौचोंका अभावतो आवद्यक ही है । यह भाव है।

“पञ्चमे रजनीनाथः कन्यापत्यमपुत्रकम्‌ । क्षीणः पापयुतोवापि जनयेत्‌ -चंषवखांसुताम्‌ ॥ गगं अंथं- यदि पञ्चमभाव का चन्द्रमाहोतो कन्वार्पै होती है । पुत्र नदीं होते । पञ्मभाव स्थित यह चन्द्रमा यदि क्चीणकाय हो, अथवा पापग्रहौसे युक्त हो तो कन्या चंचल होती है| “जितेन्द्रियः सत्यवम्वाः प्रसन्नो धनात्ममजावाप्न समस्तसौख्यः । सुसंग्रही स्यान्‌ मनुजः स्षीलः प्रसूतिकाठेतनयाल्यान्जे ॥*> भटे अ्थ– जिस मनुष्य के जन्मसमय मे ल्य से पञ्चमस्थान मे चन्द्रमा होता है, वह मनुष्य जितेन्द्रिय, सत्यवचन भमाषणकर्ता, सदैव प्रसन्न रहने वाखा, सुरीर तथा विविध वस्तुभों का संग्रह करनेवाला होतादहै। इसे धन का सुख, तथा पुत्रं से सभी प्रकारका सुख प्राप्त होता दहै।

रिप्पणी-जितेन्द्रय शब्द्‌ से पोच कर्मेन्द्रिय तथा पौचज्ञानेद्िय ओौर एकादश मन पर पूणे अधिकार वाला ेसा अथं ग्राह्य है । दशन्द्रिय ओर ग्यारहवे मन पर जिसका पूणं अधिकार हो वह विषयगतं मे नदीं पड़ताहे ओर संसारसागर से उत्ती्णं हो जाता है।

'”कमयदेन्नगेहगः स गुर्फरू भवेन्नरः। वखान्वितो हि पादकी न दिद्िशमकानगः ॥° खानखाना

१०६ चमस्कारचिन्तामणि का तुख्नात्मक स्वाध्याय

अर्थ–यदि च॑द्रमाख्यसे पञ्चपमावमें होतो मनुष्य विदौप तेजस्वी; वख्वान्‌ , सवारी पर चख्नेवः’; सव कामों मं सावधान रहनेवाला सौर ञ्यभ आचारवाल दोता दै ।

श्रगुसूच- ची देवता सिद्धिः । मार्या रूपवती ¦ कचित्‌ कोपवती । स्तन- मध्येलंछ्नं मवति ! चतुष्पाद्‌ कंभः} स्रीद्वधम्‌ | वहुश्चरखाधः | सत्वयुक्तः वदश्रमोखन्नः । चिन्तावान्‌ । एक पुत्रवान्‌ | स््रीप्रजावान्‌ । स्री देत्रतोपासना- यान्‌ । शुभयुते वीक्षणवज्लाद्‌ अनुग्रह समथः । पापयुतं दैश्णक्णाद निग्रह समर्थः । पूर्णचन्द्र वलवान्‌ । अन्नदान प्रीतः। अनेकव्रिधप्रसादे घ्व सस्पन्नः | सत्कमंक्रत्‌ । भाग्यसमृद्धः । राजयोगी । ज्ञानवान्‌ ।

अथे- जिस मनुष्य के जन्धसमय पञ्चमनाव मे वन्द्रमाहो तोडइते स्री देवता-चण्डी.दुर्गां आदि की उपासना करने से मनोवांछित पर्थ कीमपि होती है । अर्थात्‌ चन्द्रमा खी-ग्रह है | अतः स्-जाति के देवता शीघ्र वरदायक हो जाते ह| इसी सखी रूप-लावण्यवती होती है । कभी-कभी यह क्रुद्धा मीदहो जाती है अर्थात्‌ मानलीलामे कोप करने का नायक करती है। इसके दोनों स्तनो के मध्यमे चिन्ह होतादै। चौपार जानवरंदूव देनेवाठे गाय-मैस आदि सैखमदहोतादै। इस्केषरमंदोच्िर्णे होतो हे; अर्थात्‌ यह टो चखियोंका पति होता हे । गाय-भंस यादि दूध देनेवाटे पश्यं की समृद्धिसे इसे दूध के व्यापारसे मारी लाम होता है। यह बल्वान्‌ होता है। इसको जन्म देते समय इकः माताको भारी फष्ट उठाना पड़तादहै। इसका स्वभाव चिन्ता करनेवाखा होता. है। इषे कन्य होतीर्है, एक पुत्र भीहोता है । यह क्रिसी खी-जाति के देवता का उपासक होतादहे। यदि इस भाव के ष्वन्द्रमा के साथ कोड श्युभग्रह थुति करे, अथवा इपर शिसी श्चुभग्रहकी दषिहो तो यह मनुष्य दूसरे पर अनुग्रह करने की शक्ति रखता है। यदि इस भाव केः चन्द्र के साथ कोई पापर्रह स्थितिं करे, अथवा किसी पापम्रहकीदष्टि हो तो मतुष्य सिसी दूसरे कानिग्रह करनेमे समर्थं होता रहै) यदि चन्द्र पूण्वित्र हो तो मनुष्य वख्वान्‌ होता हं) इसी रुचि अन्न का दान करने की आर रहती है; अथात्‌ अकारक पड़ने परजो लोग निर्धन होने से अन्नखरीद करके उदरपूण नहीं कर सक्ते । उनकीष्षुभ्रा निचरति के किए. यह मोजेनाख्य वाट्‌ करता है। इस तरह यह अपने धनका सदुपयोग करता दहै । इसे क प्रकार के रेश्वर्यं प्राप्त होते रै । यह श्चन कमं करनेवाखा होता है । इसका भाग्य अच्छा होता है। यह ज्ञानवान्‌ राजयोगी होता है।

“सुधीरः सुशीछः स॒तित्तः सुचत्रः सुरेहः सगेहः सुनीतिः सुगीतिः | सुबुद्धिः सुद्रद्धिः सुपुत्रोनरः पुत्रगेदेऽत्रिपत्रे ॥।*2 हरिवंश

चन्दृफर १०७

अथै- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे जन्मलग्न से पञ्चमस्थान भं चन्द्रमा हो तो यह, धैर्यवान्‌ , रीख्युक्, धनी, सन्दर चिर्चोवाला, हष्ट-पुष्ट देहवाल्मः उच्छे घरवारवाखा, नीतिज्ञ, संगौतादिकलामिज्ञ, बुद्धिमान्‌ समृद्ध, सचरिि- आज्ञाकारी पुबोवाटा होता दै ।

यवनमत्त–यह व्यक्ति रूपवान्‌ - तेजस्वी, वाहनयुक्त; सावधानः, भौर सुशील होता है इसे राजनैतिक कामों मे अच्छी सफ़रता मिस्ती हे ।

पाश्चात्यमप्त- इस चन्दर से व्यक्ति चैनवाज अओौर खुशदिर होता है। इसे खरी ओौर चे वहत प्यारे होते ह । यह वैभव आओौर यानन्द्‌ से युक्त होता दै । यह ष्वन्द्र बल्वान्‌ होतो सह्य ओौर जुञ्ासे बहत छाम होता है । यह दिश्वभावराशिमें होतो जुड्वो संताने होती है । पञ्चमस्थान यह सख्रीस्थान काला स्थान दहै। इसलिए यद्य चन्द्रहोतोस्रीसे लाभम ओर भाग्योदय होता है । यह चन्द्र दूषित हो तो अनिष्ट फर देता है। णेखा व्यक्ति मलिन- चित्त का, ओर कष्टयुक्त्‌ होता दै । इसौ से असफख्ता, निरासा ओर मन की अस्थिरता, ये फर मिरूते है । इस चन्द्र पर शनि की हृष्टि हो तो वह व्यक्ति दैसमुख वित उगानेवाला होता है । बोल्ने की ्तुरता से आप्तौ को ठगकर धन प्राप्त करता है । यह चन्द्र प्रसवरारिमे होतो काफी संतति होती है। यह मंगर से युक्त हो तो साहस की भर प्रवृत्ति होती हे । यह बल्वान्‌ हो तो सन्तान भाग्यशाली होती हे ।

विचार ओर अनुभव–हरिवंश मे सब फल अच्छे से अच्छे बतलाये है । इनका अनुभव पुरुषरारियों मं मिलेगा । यवनमत का अनुभव पुरुष- राशियों कारै। पाश्चाव्यमत मे श्म-भद्यम दोनों प्रकार के फल बतलाये गये है । शुभफल का अनुभव पुरुषराशियों मे, ओौर अद्यभफलर का अनुभव ख्रीरयाशियों में होगा ।

बरृष, कन्या, मकर राचियों मँ चन्द्र हो तो कन्यायों का आधिक्य दौता है पुत्र सन्तान देरीसे होती दहै। मिथुनः वला, कुम्भ राशियों मे चन्द्रके होने से पुत्र-सन्तति का होना मुद्किलहोताहे। प्रायः कन्था होतीदहै। पुत्र नदीं होता है।

ककु, वुश्चिक; मीनः मेष; सिह; धनु राशियों मं॑चन्द्र हो तो पिरे पुत्र, फिर कन्यार्णै, तदनन्तर पुनः पुत्र, इस क्रम से सन्तति होती है |

कर्क, बृधिक भौर मीन रारिमे चनद्रहो तोतीनपुत्रोंका होनामी संभव है। मेष, सिहवाधनुमे चन्द्रहो तो रिक्षा अधूरी रह जाती है।

वृष, कन्या, मकर, मे शिक्षा अच्छी नहीं दोती। ककं, वृधिकः मीन मे चन्द हो तो मसुष्य वकीलवां डाक्टर हो सकता है; मिथुन; वला; कुम्भ म चन्द्र हो तो मनुष्य बहुत थोड़ा बोक्ता है परन्तु काम अधिक करता हे । पञ्चम चन्द्रमा उच्रराशि कावा नीचसशिका; वा दूषितहो तो एक कन्या

१०८ चमत्कारचिन्तामणि का तुखनात्मक स्वाध्याय

का संसार सुख नष्ट होता दहे विधवापन वा व्यभिष्वार दो सकता है) शारीर मंव्येगभी दो सकता है जिस कारण विवाह का होना संभव नहीं होता है। जव पञ्चमभाव से संतति का विचार करिया जावे तो पति-पली दोनों की कुडलियां का विचार एकसाथ करना चाहिए, क्योकि कई वार केवल पति की कुण्डली से बताया गया फल अनुभव में नदीं आता । अथ छठे भाव में चन्द्र का फल “रिपौ राजते विग्रहेणाऽपि राजा जितास्तेऽपि भूयो विधौ संभवन्ति । तदग्रेऽरयोर्निष्प्रभा भूयसोऽपि प्रतापोञ्वखो माचृङीरोनतद्रत्‌” ॥ £ ॥ अन्वयः विधोरिपो ( स्थिते ) राजा विग्रहेण अपि प्रतापोच्वलः (सन्‌)- राजते, ( तेन ) अरयः जिताः अपि तदे भूयसः अपि निष्प्रभाः ८ जायन्ते ) तद्वत्‌ ( सः ) माव्ररारः न मवति ॥ ६ ॥ सं० टी<- रिपौ शत्नुमवने विधौ सति राजविग्रहेण अपि प्रतापोज्वल; तेजसा कान्तियुतः सन्‌ राजते ोभते । ते अरयः शत्रवः जिताः पराजिताः अपि भूयसः तदग्रे निष्प्रमाः अप्रतिभाः अपि पुनः संभवन्ति । तथा मातरि रीर सस्य अस्ति इति सः तादृशः न स्यात्‌ इति रोषः ॥ ६ ॥ अथ–जिस मनुष्य के जन्मल्प्न से छ्टेस्थान म चन्द्रमा हो तो बह चाहे प्रवर रतुओं के साथ वेर भी रखता हो तो भी अपने प्रताप से चमकतां है । अथात्‌ छटेभावमें चन्द्रके होनेसे वादे उसके रातु प्रवातिप्रबङ भी हों ओर उनसे यहविराहुभआमीदहोतोमी जीत इसी की होती है मौर यह उनपर अपने प्रतापसे अधिकारजमाचकेतादैञौरवे मुंह की खाकर इसके आगे नतमस्तक हो जातेदह। ये शत्रु दुबारा उरते है ओौर परहिटी बार से अधिक शक्ति द्वारा आक्रपण करते है । किन्तु प्रभादीन होते है, विजय- पताका इसी कौ लहराती हे । परन्वु यह मनुष्य माव्रभक्त नहीं होता है । अर्थात्‌ इसका मन जन्मदात्री माता की ओर से मलिन रहता है ॥ ६ ॥ तुरना–““अरिस्थाने चन्द्रो भवति स-करोजन्मसमये , प्रतापा्ौरान्नुः ज्वरतिपरितस्तस्य परतः | पुनभूयादद्रासिपुरिह जितोऽपि क्षितितले, सुख मावः सस्पं प्रभवति गदान्तमतिरतिः ॥ जीवनाथ अथे- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे पूर्णवलो चन्द्रमा छठे भावमें हो तो इसकी प्रतापरूपी असि से इसका शात्रुसमूह शीघ दी भस्मदहोजातादहै। यह पृथ्वी पर महान्‌ बल्वान्‌ शत्रुओं को भी जीतता है । इसे मातृसुख बहुत थोडा होता है। “इससे माता को सुख नगण्य-सा होता है- यह अर्थभी किया जा सकता है । यह सदेव रोगाक्रान्त रहता दै । छटास्थान रोगस्थान रहै श्चमग्रह चन्द्रमा दुःस्थान स्थित होकर बीमारियों को बदूावा देता है । यह भाव है।

=चन्द्रफर १०१

^न्नैकारिः मृदुकायवहिमदनः तीक्णोऽलसश्चारिगे 1” आचायंवराहमिहिर अथे–यदि चन्द्रमा च्ठेमावमेंदहोतो मनुष्यके शत्रु अनेक होते ै। अर्थात्‌ इसे सदेव शतुभय बना रहता है । इसका शरीर कोमर होता है- इसकी जठरायि मंद रहती है। इसकी कामायि तीन नहीं होती है। यह स्वभावमे उग्र होता दहै, यह काम करते मे आल्सीदहोता है। अर्थात्‌ कार्य मे सफलता प्राप्त करने के छियि उद्यमी ओर यल्योल नहीं होता । “ष्षतेऽस्पायुश्वन्द्रेऽमतिरुदररोगी परिभवी 1 मन्त्रेश्वर अथे–यदि चन्द्रमा छ्टेमावमे हो तो मनुष्य अस्पायु, बुद्धिहीन, उदर रोग तथा अपमानित भौर पराजित होता है। रिप्पणी-मन्त्रश्वर के अनुसार चन्द्र॒ के षष्ठस्थ होने से मनुष्य शात्नुओं से पराजय पाता रै, किन्तु भट जी के अनुसार षष्ठस्थष्चन्द्र प्रभान्विति मनुष्य सदेव शत्रुओं पर विजय प्राप्न करता हे । “ष्ठे चन्द्रे वित्तहीनोग्दुकायोऽतिकट्सः । मन्दाग्निस्तीष्णदष्िश्वद्यरोऽपिमनुजोभवेत्‌ ॥> काशलीनाय अथे–यदि चन्द्रमा च्ठेभावमे हो तो मनुष्य निर्धन होता है। इसकी रारीर कोमरु होता ह। अर्थात्‌ मनुष्य नि्ब॑ल्रीर होता है। यदह अति लोभी होता हे। इसे भूख क्म होती है क्योकि इसकी जठराग्नि मन्द होता दै। इसकी ष्टि तीव्र (पेनी ) होती है । यह श्र ( बहादुर ›) होता है । ““मूद्रंगवदह्धिः सह जारिकोपोऽसोऽदयोऽस्पात्मजवान्‌ रिपुस्थे ॥” जयदेव अथे- जिसके रिपुभाव मे ( छठेमाव मे ) चन्द्रमा हो तो मनुष्य निबंल- देहवाला होता है । इसकी जठराग्नि मन्द होती रै, अर्थात्‌ इसकी पाचन- शक्ति तीत्र नदीं होती भौर बदहज्मी का रोग रहता है। इस पर इसके रातु ` करद रहते दै ओर इसे सदेव शत्रुओं का भय रहता है । यह काम मे आलसी होता है यह निदेय आर क्र होता हे । इसे पु्र-सन्तान थोडी होती है । “श्वष्धे नर ‘ उद्रभवैः रोगः संपीडितोभवति । रजनीकरेस्वस्पायुः षष्ठगते भवति संक्षीणे ॥ कल्याणवर्भा अ्थं–जिसके छ्टेभाव मे चन्द्रमादहोतो इसे उदर केरोगों से पीडा रइती दै । यदि इस भाव का चन्द्रमा क्षीणकाय हो तो मनुष्य अस्पायु होता ३ । “परिपुग्‌इ गशशांके क्षीणकायः कुगेहे न भवति बहुभोगी व्याधिदुःखस्यदाता । यदि निजय्हतुगे पूणदेहः शाको बहुतर सुखदाता स्यात्‌ तदा भानवस्य ॥* मानसागर अथं-यरि दीनवटी, शत्रुरारिगत वा नीचरारिगत चन्द्रमा छ्ठेमाव मेदो तो मनुष्य सुखहीन तथा रोगी द्योता है । ओर क प्रकार की व्याधिरयौँ इसे दुःखित करतो रहती ई} यदि छटेमाव का चन्द्रमा स्वक्षेजी हो, अथवा अपनी उच- राशिमेंहों, अथवा पूर्गिमाकादहो तो मनुष्य सभी प्रकारके सुखोंको भोगता है ।

११९० चमर्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक्‌ स्वाध्याय

“मन्दाग्निः व्यान्‌ निर्दयः क्रोर्ययुक्तोऽनव्पाऽख्स्योनिष्डुयो दु्टचित्तः । रोषावेोऽव्यन्तसंजातरात्रुः शतुक्ेत्रे रात्रिनाधे नरः स्यात्‌ ॥* दंडिराज अथं–यदि चन्द्रमा चछ्टेमावमें हो तो मनुष्य पाचनराक्तिहीन होता हे । यह दयारहित-करर, अच्यन्त अआआक्सी) निडर, पापी आर क्रोधी होता है,। यदि यह चन्द्र शवुक्षेत्र में हो तो इसके गातरु बहत होते ह| “अस्पायुः स्यात्‌ श्षीणव्नन्द्रेऽरिसंस्थे पूर्णं जातोऽतीवमोगी चिरायुः? | वैद्यनाथ अथे–यदि दीनवटी चन्द्रमा छ्टेमाव म हो तो मनुष्व मव्पायु होता है । यदि पूणवटी होकर यह चन्द्र छ्टेभाव मेँ हो तो मनुष्य अतिमोगी ओर चिरायु होता हे। | “लग्नात्‌ पष्ठस्थितेचन्द्रे म्रदुकायः स्मरानटः | अनेकारिः भवेत्‌ ती्योऽरिष्टः स्यात्‌ मृत्युरेवष्व” ॥ गं अथे–यदि ल्घ्नसे छटेस्थान मे चन्द्रमा हो तो मनुष्य निर्ज॑ल्शरीर होता दे । इसे कामेच्छा अधिक अर तीव्र दोती है । इसके अनेक रतु होते दै । यह उग्रस्वमाव होता है । इसे मृव्युतुव्य कष्ट दीता है। ६ ‘श्वन्द्रः करोति विकटं विफङ प्रयत्नम्‌?” ॥ वक्षिष्ठ अथ–छ्टेभाव का च्वन्द्रमा मनुष्य को व्याकु कर देता है| इसका किया हुभा यल व्यर्थं ओर फलदहीन होता है । ‘“यदासोमे क्रूर द्छौ न सुखं माठल्स्य च। „+ तस्य वंशोद्धवः कोऽपि गतो देशान्तरे सतः” | जातकमुक्ता बली अथ करग्रह इष्ट चन्द्रमा यदि छटेमाव मं हो तो मनुष्य को मामा का सुख नहा मिल्ता हे । इस मनुष्य के वंश मे उस्न्न को$ पुरुष विदेश मे मरता हे | “शष्ठ चन्द्रे पापवीक्षिते कन्याऽपत्योऽथ मातुलः । माच्रृस्वसा सृतापत्या रंडा देशान्तरे गताः ॥ ज्ञम्भुहो राभकाज्च अथे-पापग्रह वीक्षित चन्द्रमा यदि च्टेभाव में हो इसके मामा को या सन्तान हीं होतीहे पुत्र नदीं होते। मौषीकी संतान मर जाती है। वह विधवा होती है | ˆ वातच्टेष्मादिके चन्द्रे विद्वेषो वांधवैः सदह । चप चौरोद्धवाः पीडा षष्ठे रोग भयंकरम्‌? ॥ उयो तिषङतलपतर अथ–्टे चन्द्र से वंधुभं के साथ गडा होता है । राजा से, चोरों से कष्टे रहता हे । वायु ओर कफ की वीमि होती ईै। “भंदागनिः स्यान्‌ निर्दयः करोययुक्तोऽनव्पालस्योनिष्टुरो दुष्टचित्तः | रोषावेशोऽत्य॑त संजातशतरुः _शनकेत्रे रात्रिनाये नरः स्यात्‌ ।}2’ महेश अथ–जिस मनुष्य के छठेभाव मे चन्द्रमा हो तो इतकी पाचनशक्ति मन्द रहती है, अर्थात्‌ इसे खाया हुआ अन्न पाचन मे नहीं आता ओर बद्‌-

चन्द्रफलर १११

हजमी से पेट के रोगङ्केश देते रहते है । यह निर्बल जीवों पर दया नहीं करता प्रत्युत इनका घातक होता है। यह क्रूरस्वभाव, अत्यन्त आलसी, पापी, छोरी छोरी वातो पर क्रोध से जल उटनेवाला होता है । यदि. यह चन्द्र रत्र षेतरीहोतो इसे शत्रुओं से भय वना रहता रै ।. “काटल विपश्षपन्षपीडितो हि बद्शकल्‌ | छागरः कमभ॑वेदूरिपौ यदा नरः सरुक्‌ |» खानखान

अथ यदि चन्द्रमा छ्डेभावमं हो तो मनुष्य काट्ग्रस्त, शत्रुभों से पीडित, अत्यन्त कुरूप, निव अौर रेगी होता है | |

शृगुसूत्र-अधिक दारियदेही। षटर्िंशदूदषर विधवा संगमी । तच्रपापयुतें हीनपापकरः । राहु-केवुयुते अथदीनः । घोरः । शवुकलहवान्‌ । सहोदरदीनः | अग्नि्ाचादि रोगी । तटाककूपाव्प्रु जलादिगेडः। पापयुते रोगवान्‌ । श्षीण- प्वन्द्रेऽपूणफलानि । छभयुते बलवान्‌ मरेगी ।

अथ–जिस मनुष्य के छटेभाव म चच्रमा हयो तो उसके दारीर मँ आख्ख रहता हे । यहरे६ वे वषं मे विधवासरीसे सहवास करता है। यदि इस चद्रके साथ पापग्रह युति करे तो यह मनुष्य दीन-वृत्ति भौर नीचकर्म करने वाला होता हे । इस चन्द्र के साथ राहु ओौरक्तुका योग हो तो मनुष्य धन- दीन होता है| यह कुरूप होताहै। रत्रुओंके साथ इसका कलह-ञ्चगड़ा हेता है । इसके सहोदर भाई नहीं होते । बद्हजमो से उदर के रोग ( अनप आदि ) होत ह । तालब्करुभा आदिमं जलादिगेड होता है। पापग्रहयुक्त छ्टेमाव का चन्द्रमा हो तो मनुष्य रोगी होता है । हीनजली यह चन्द्रहोतो पूणफल्‌ नहीं देता है । छभग्रह साथमे होतो मठुष्य बल्वान्‌ भौर नीरोग होता हं ।

यवनमत-यह हमेशा परेशान; रोगी, कुरूप, अशक्त वितु कामातुर होता हे । इस चन्द्र के फल से निर्दयता, क्रोध ओर निष्ठुरता प्रात होती हे।

पाश्चात्यसत-इस चन्द्र से रारीरसौख्य अच्छा नहीं मिख्ता। इससे रोग ब्त । छ्ियोंसे दुःख पर्हुचता हे | यहं चन्द्र यदिदश्यमहोतोषोरे-मोे फायदे होतेह । यह वृध्िकमें होतो वह `पियक्कड दह्योतादहै। इसका धन बेकार खच होता दहै । ग्यवसायमें सकि बहत आतीर्है। शवर बहूत होते ह । कानूनी मामलेमे हरत्रार अपयश आतादहै। इस स्थान के भव्चद्र के फल बहुत कम मिलते द । इसे नौकरी मे सफलता मिकती ई । कुछ अधिकारपद्‌ मिल्ने कामी योग होता है। यह चन्द्र वृषभरारिमे होतो यह योग होता हे । यद चन्द्र द्विसवमाव राशिमेदहोतो फेफड़ंके रोग, कफ, श्वय आदिं होते हैँ । यह स्थिर राशि में हो तो अर, भगंद्र ओर मूत्रकृच्छ्र; इनमें से कोई विकार होता है| वृषभ का चन्द्र यर्हाहोतो कंठ का रोग, खासी, इवास- नलिका मे दाह होना, ये विकार होते ह । यदह चन्द्र चरराशि मे खासकर ककं मं होतो पेट के ओौर जठर के रोग-पचनक्रिया मेँ गङ्बड़ी होना आदि पैदा ह्यते

११२ चमत्कारचिन्तामणि का तुरखनाव्मक स्वाध्याय

है । खास कर वचपन मे ग्रङृति बहत अस्वस्थ होती है । इस चन्द्र के फल- स्वरूप नौकर से बहुत तकलीफ होती है वे कायम नहीं रह सकते |

विचार ओर अलुभव-इस स्थान का चन्द्र खीराशिका हो तो कफ, सांस कं रोग होते हं, ओर रक्त दूषित होता हं । यह दृषभ, कन्या, मकर राशिमं दहो तो रक्तं दप्रित होकर गरमी, परमा जैसे रोग होते द । इसे दिनमें एक ही नासिकासे सांस ठेना पड़तारहै। भोजन के अनन्तर रात को सांस वेद्‌ होती है । नथुनी मर जातीरहै। भारी प्रयतत न्ने थक जाने पर निराया आरामे परिणत होती दहै। जिन चियों को यह योग दहोतादैवे रोगी की सेवा अच्छा करती है| यह चन्द्र मेष, सिंह वा धनु में होतो डाक्रों के किए उत्तम- योग हे । डाक्टर गरीर्वोपर कृपा करते ै–अपने वैते से भी इनके पाण वचाना चाहते दह। इस चन्द्रसे किसी अवयवमें रोगहोतो वह बहुत देर तक स्थायी रहता है ।

मेष; सिह वा ध नुमे यह चन्द्रो तो मनुष्य दद्प्रकृति का होता है। उप्र; कन्या वा मकर क।{ यह चन्द्र होतो तापदायक होता ह | क्योकि रष में अष्मेदा, कन्या म चतुर्थे ओौर मकर मे व्ययेश होता हे । वृश्चिक का यह चन्द्र धने होताहै, मीन काहो तो दशमे होता है| एेसे योग से शारीरिक, मानसिक ओर आर्थिक कष्ट होते दै । अपमान होता है शत्रु बदृते द। इख तरह छटेभाव के चन्द्र के फल यच्छे नहीं मिते । यह चन्द्रमा पुरुषराशियो महो तो कुछ कद्र अच्छे फ मिलते है । अथ सप्रम चन्द्र फड-

द्देद्‌ दरदं सप्तमे रीतररिभः धनित्वं भवेदध्ववाणिज्यतोऽपि ।

सत सखीजने भिष्टमुक्‌ छञ्धचेताः छदाः कृष्णपक्षे विपक्षाभिमूतः ।५॥।*

अन्वयः–पत्तमे ( वतमानः ) शीतरविमिः दारं ददेत्‌; अध्व वाणिञ्यतः सप घनत्वे भवेत्‌; ( सः ) कृष्णपक्षे स्ीजने रतिं ( प्रावात्‌ ) सः मिष्टशुक) उनवचताः, कृशः विपश्चाभिभूतः ( स्यात्‌ ) ॥ ७ ॥

लस टा<– तत्रमे शीतरञ्िः दारद्यं ख्रीयुखं, अध्ववागिञ्यतः अपि विदेश न्वाषाराद्‌ सपि धनि ददे । (सः) कृष्णपक्षे तु स््रीजन-रत्तिं तद्भाषणाद्या- सक्ति नठु तत्सुखं, वा निष्टञ्चुक, छग्धरचेतताः पनिष्टशुजि चेतो यस्यसः, शः दुवखः विपक्नाभिभूतः शत्रुभिः पराजितः मवेत्‌, इति रोषः ॥

अथ–जिस मनुष्य के जन्मल्यसे सातरवेस्थान मे चन्द्रमा होतो इसे स्रीसुख मिक्ता हे; यथवा इसकी स्री स्वस्थ शरीय होती है क्योकि तन्दुरुस्त घ्री से ही रतिसुख मिल सकतादै। स्थलके व्यापारसे, यथवा विदेश में जाकर व्यापार करने से इसे घनलम होता है । कृष्णपक्च मेँ लियो मे समधिक पेम होता हं । यह मनुष्य मीटे-मीठे मोजनोंका आनन्द केतारहै। इसका

८ चन्द्र फर ११३

चित्त अत्यन्त ट्ल्चाने वाखा होता है । यह दु्व॑र देह होता हे । यद रत्तु से पराजित होता दहै ॥ ७॥ | तुखुना-““यदा कान्तागारं गतवति मृगाङ्के जनिमरतां कराक्रान्तेऽकस्य’दनमपि मवेत्‌ सख्रीजनकुखात्‌ । अनंगप्रावस्यं व्रनगरनारीरतिकलखा प्रवीणो वै धीर-ध्वनि मतिरतीव प्रमवति॥ जीवनाय

अथं–जिस मनुष्य के उन्मसमय में चन्द्रमा सप्तमभावमं हो, ओौर यदह चन्द्र॒ पूणेबटी होकर सततमभाव मे हो तो इसे अकस्मात्‌ किसी खी-कुल से धनप्रासि दोतौ हे। इसे कामेच्छा-खीसहवासेच्छा तीव्र होती दहै। यह मर्ष्य नगरमे रहनेवाटी सुन्दरी च्ियोँके साथ रतिक्रीडा करने में विरोष चतुर होता है । इसकी वाणी गम्भीर होती है । यद गम्भीर बुद्धिवाखा होता है ।

रिप्पणी–अध्ववाणिञ्यः शब्द्‌ कई एक विरोष अर्थोका बोधक दहे। रास्ते मे, बाजार मे, सड़क पर पेवमैण्यशौपः से धनमभी कमाया जाता दै- टसका नाम भी (अध्व वाणिज्य हो सकता है-गावों-गावों में चल-फिर कर; फेरी द्गाकर, धन पैदा करनेवाठे वणि भी ““अध्ववणिक्‌”» कहलाते दे । तेलो पर, खचर-खाद्‌ घोड़ों पर तैरगाडियों पर॒ मारु ल्दकर बेष्नेवाठे भणिए मी “मध्ववणिक्‌? कहलाते ह| रेल द्वारा; जहाज द्वारा, यातायात व्यापार से धन कमानेवारे व्यापारी भी “मध्ववणिक्‌ होते है । समुद्रयात्रा करके विदेश म जाकर व्यापार करनेवाले व्यापायी मी ‘अध्ववणिक्‌’ कलते ह । ८’कष्णपक्षे खीजने रतिं प्राप्नुयात्‌ इसका अभिप्राय यदह नहीं है किं इष्णपश्च न कामवासना अधिक होतो है ओर श्ङ्कपक्च मे कामेच्छा अस्प होती ह। क्योकि ष्वन्धमा तो उदीपक विभाव है-चौदनी मं खीसुख की अभिलाषा अधिक यौर तीतर होती है। श्वेताभिसारिकार्णे तो चङ्कपक्ष मं ही रतिखुख प्रास्त करती है । कृष्णपक्ष मं खरीजनरति मिरूती ह-रसका संकेत कृष्णामिसा- रिका दियो की ओर दहै। कामानल सन्तता रमणियां निविड-सूष्वीमेद्य अन्धः कार मे स्वप्रिय के वासस्थान पर स्वयं जाकर कामा्चिशान्त करती ह । यह अन्तर्निहित ताप्यं हो सकता है। मदृजी शछष्कदैवक्ञ ही नही प्रत्युत सहदय रसिक मी दै । रेखा प्रतीत होता है। इसी तरह जीवनाय देवज्ञ भी श्ृद्धारशाखनिष्णात प्रतीत होते ह। इन्होनि “वरनगरनारी रतिकला प्रवीणः इस विशोषण से यह दात साफ करदी हे। इनका हष्टिकोण है कि नगरवासि नासियां दी दाव-माव-कटक्ष आदि से खप्रिय का चित्त अपनी ओर आङ्ष्ट कर सकती है । वेदी कामसासखप्रतिपादित संभोग यसनादिं मं जानकारी रखती है, ओर रतिकुशला दोती ई । अतएव इनको प्रसन्न ओर सन्तुष्ट॒॒करना प्रत्येक पुरुष का काम नदीं दै । इनको सन्तुष्ट करनेवाला

श्र्ारशाखवेत्ता को$ विरला दी मनुष्य दोता है । एते मनुष्य को जन्म देने

११४ चमत्कारचिन्तामणि का तुखनात्मक स्वाध्याय

वाला सप्षमभाव का चन्द्रमा है । वेदयाओं को प्रसन्न करने की कला होतीदडेणेसा अधैमीदहो सकतादहै। ^दष्युः तीत्रमदो मदे” आचायं वराहमिहिर अथे- जिसके सप्तममाव मँ चन्द्रमादो वह पुरुष दर्प्याद्धु ओर अति कामी होता है। ““स्मरे दष्टः सौम्यः वरयुवतिकान्तोऽतिसुभगः।।2 मंतरेश्वर अर्थ -यदि चन्द्रमा सप्तमभावमें हो तो पति-पल्ली-दोनों सुन्दर होते है। ओौर इनका परस्पर प्रेम मी होता दै, “विमल्वपु्रि चन्द्रे सप्तमस्थे मनुष्यः -रुचिरयुवतिनाथः कांचनाव्यः सदेह | शरिनि ङरशरीरे पापगे पापदृष्टे न मवति सुखभागी रोगिपत्नीपतिः स्यात्‌ ॥2 मानस्तागर अथ--यदि पूर्णवटी होकर चन्द्रमा स्मभावमें दहो तो मनुष्य की पली रचिरा-अयात्‌ मनोहारिणी सुन्दरी होती ई । मनष्य स्वयं भी सुन्दर रूपवान्‌ दोता द । अर यह धनवान्‌ भी होता है। यदिदइस भाव का चन्द्रमा हीन- चली दो, पा्ीग्रह के साथहो, अथवा इस पर पापीम्रह की दष्टिहोतो य मनुष्य सुग भोगनेवाला नहीं होता है ओर यह्‌ सुग्णास्री का पति होता है | “चन्द्रे कामगते दयालरटनः स््रीवदयको भोगवान्‌ ॥ वैद्यनाथ जथ–सतमभाव में चन्द्रमा होतो मनुष्य दया होता है । यह भ्रमण- शील अर्थात्‌ एक स्थान प्र स्थिर रहने वाला नदीं होता दहै। यह्‌ लियो के वाअपनोस््रीके वशम रहता हे । इसे भोग प्रात होते रै । टिप्पणी–श्त्रीजितः पण्डजितःः मनुष्य के दुटक्षण माने गर है | “सौम्यो धृष्यः सुखितः सुखारीरः कामसंचुतो यूने । देन्यसूगार्दितदेदः कृष्णे संजायत शिनि |> कल्याणदर्मा ज सप्तममावमे चन्द्रमा दहो तो मनुष्य नग्र; विनयते वश मे आने-

वाला; ध यन्द्र ओौर कामुक होता है । यह चन्द्र यदि हीनवली दो तो मनुष्य >न मौर गोग होता ३ | ४5. 8

८1] 1 ~

५ इष्यः सदमोमदनातुसोऽस््रोऽनयांगहीनोऽस्तगते तुधांा ॥* जयदेव जव यदि चन्द्र सत्तमभावमें होत्तो मनुष्य ईषा, दांमिक, अत्यन्त कामी, निधनः, नोतिदीन मौर अंगहीन होता है। 4 राक = चन्त्त॒ सतमे यातेदुःखी कुष्ठी च वंचकः। ३११ _ अहुवेरीचव जायते परदारकः ॥|» काशिनाथ अथं सतम मे चन्द्रमादहोतो मनुष्य दुःखी; कोद, ठग, कजुस, बहुत रात्रुओं वादा मौर परच्रीगामी होता है । “महामिमानी मदनातुरश्च नशे भवेतक्षीणकनेवरश ! धनेन हीनो विनयेन चवं चनद्रऽगनास्थानविराजनाने ॥ दुंढिराज

चन्द्रफर ३१५

अ्थ- यदि चन्द्रमा सस्तमभावमे दो तो मनुष्यं बहुत घमंडी, -कामान्त, नि्॑लशरीर, धनदयीन ओर विनयदीन होता हे । | °“नरोभवेत्‌ श्चीणकठेवरश् धनेन हीनो विनयेनचन्द्रे | बृहद्यवन ष ५५ मे चन्द्रो तो मनुष्य निर्व, धन तथा विनय से रहित होता दै। “क्रये विक्रये वर्धंतेऽसौ विरोषात्‌ ॥” जगिश्वर अर्थ– चन्द्र यदि सप्तममे होतो मनुष्यं माल खरीदने ओौर बेष्वने.से समरद्ध होता है । “५जामितन्ने चन्द्रश्चुक्रौ च बहुपल्यो भवन्ति हि ॥° शुक्रजातक अ्थ- ससम मे चन्द्रहो भौर सतममे श्चक्र दो तो बहुभार्यायोगः होता है। ““ल्लीनाशङ्कद्‌ युग गुणे; रविरिन्दुस्ख मत्युं च ।।” बृडद्‌यवनजातक अ्थ– सप्तम चन््रहोतो १५बै वषै.-गष्युके समान कष्ट होता दहै। सप्तम चन्द्र ओर सूयं स्रीपक्च में हानिकारक ई । (शमहाभिमानी मदनावुरच नरो भवेत्‌ क्षीणकलेवरथ । ` धनेन हीनो विनयेन चन्द्रे चन्द्रानना स्थान विराजमाने ॥ महेश अ्थ–कलत्रमाव मेँ ( सत्तमभाव म ) चन्द्रमा हो तो मनुष्य भारी घमंडी ५८ । यह मनुष्य कामात्त, दुब, घनदहीन आौर नम्रतादीन अर्थात्‌ उद्धत तादहै। “जन्मकानगः कमयंदा भवेन्नरो भ्रम्‌ । गुर्फरू यशी गनी यशश करोत्यहर्निंशम्‌ ॥* खानखाना अथ- ससम चन्द्रदह्ो तो मनुष्य सुंदर, नीरोग, धनी ओौर यशस्वी होता है । भृगुसुत्र-दुभाषी) पार्वनेत्रः, द्वा्रिंशद्वषरे स््ीधुक्तः। सरीखोलः । सलरमूलेन ग्रंयिशखरादिपीडा । राजप्रसाद खाभः । भावाधिपे बख्युते खरीद्रयम्‌ । कषीणचन्दरे कलत्रनाशः । पूर्णचन्द्र बल्युते स्वोचें एकदारवान्‌ । भोगदुन्धः ॥” अर्थ- जिसके जन्मसमय मे जन्मङग्न से . सप्तमभावमे चन्द्रमाद्ोतो वह मनुष्य नम्र ओर मीठी वाणी बोल्नेवाला होता है । इसके नेत्र एक समान नदीं होते, अर्थात्‌ यदह ॒विषमनेत्र होता है। बत्तीस वर्षमे यह लीके साथ युक्त होता है अर्थात्‌ इसको ख्रीलाभ होता है । यह खी ठंपट होता हे । च्िर्योँके कारण इसे ग्रन्थि रोग होते ई ओर श्र आदि के अपघात से पीडा होती है। इसे रहने के लिट राजग्रास्ाद जैसा उत्तम मकान मिलता है। यदि भावेश बल्वान्‌ हो तो दो छिथों से सुख मिक्ता दै । यदि चन्द्रमा दीनबटी दोतोखरीकीम्रतयुदोती है। यदि इस भाव का चन्द्र पूणं बल्वान्‌ दो।वा स्वक्षत्री हो । वा अपनी उचराशि कादोएकटहीलरी होती है। मनुष्य भोगोप- भोग मे आसक्त रहता ई । ४ #

३१६ चमत्छारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

यवनमत- यह नीरोग, धनवान, रूपवान; कीर्तिमान, यशस्वी ओर विख्यात होता ह । पाश्चात्यमत-इस व्यक्ति को विवाह ते ओौरवारत की दैसियत से अच्छा धन लाभहोतादै। इस चन्द्र पर द्यभग्रहकीदृष्टिदहो, अथवा मित्र ह मं, स्वयहमेंयाउकादो तो अच्छा लाम होता है। जल्पर्ययन, व्यापार, सद्धा; पानी से उत्पन्न होनेवाले पदार्थो से इरे यदा होता है । इस व्यक्ति का विवाह र४्से २८वै वमे होतादै। इसका प्रेम अस्थिर होता है। इसे साञ्चीदारी के व्यापार मै बहुत फायदा होता है। इस चन्द्र पर अञ्चम ग्रह कोद्ष्टिहोतोष्ी के सम्बन्धसे कष्ट होते रै । विचार ओर अनुभव–यह चन्द्र वृषभरादि म होतो दो विवाह होने की विरोष संमावना होती है! एेसी स्थिति में चन्द्र भाग्येश है, अतः विवाह होते दी भाग्योदय का प्रारंभ दहोता है आओौर जब तक पल्ली जीवित रहती है तव तक उन्नति होती दहै। इसकी मृत्यु होते ही अवनति होती है । व्यवसाय, म, नोकरीमे मी स्थिरता नदीं होती । कई व्यवसाय ओर कद नौकरियों करनी पड़ती ह । कई एक परिवर्तन होते है । यह अस्थिरता ३६ वें वर्षं तक रहती हे । मेष, मिथुन वा तलाराशि दो तो पली प्रभावरील, इसका सख भी प्रभावी होता है| सिंहवाधनुमें चेदय गोर ओर सोढ होता है । कुम्भ में चेहरा साधारण होता ३ । जिसके सतम म चन्द्र होतो वह मनुष्य यदि किराने की दुकान, दुध की ईकनः द्दाद्थों की दुकान, मसडेञौर अनाजका व्यापार करेतोलाम प्टगा । होटल, वेकारी, कमीशनणएजेण्टी, इन्द्य॒रेन्स का काम करे तो भी लाम गगा । यह चन्द्र खीरादि का होतो व्यभिचारी प्रहृत्तिहोतीरै। इस भाव न चन्द्र पुरुषराशिमें होतो पली मं अधिक आसक्ती होती है। इस भाव शग चन्द्र सभी रारि्योमें व्यमिचारकी आर ले जाता हे । इस मत का सनुभव करना होगा |

अश््मभावस्थित चन्द्र का भावफट-

` सभ। विदयते भैषी तस्यगेे पचेत्‌ कर्हिचित्‌ काथमुद्गोदकानि । महाव्याधयो भीतयो

वारिभूताः दारीष्ेराछरत्‌ संकटान्यष्टमस्थः।८॥

-अन्वय–शशी ( यस्य ) अष्टमस्थः ८ स्यात्‌ ) तस्यगेहे भेषजी सभा

विदयते, कर्हिचित्‌ काथमुद्गोदकानि पचेत्‌, अरिभूताः महाव्याधयः भीतयः संकटानि वा ( भवन्ति ) ( अयं शशी ) करेरकृत्‌ भयति ॥ ८ ॥

सं°ट। >तस्य गेहे भेषजी भिषजां वैयानां इवं, सदा काथमुद्रउदकानि

पचेत्‌.। स्वरादि-अभिभूतस्वे रति ठननिव।रणाय बहवो वैद्याः यलनवन्तः स्युः

इतिभावः । कर्िचित्‌ वारिभूता जलनिदानमवा महाव्याधयो राजरोगादयः,

चन्द्रफक १९७

भीतयः जलनिमज्ञनभयानि संक्रयानि दुजंनादिजड्‌ निमित्त वेधनानि दुःखानि भवन्ति । एवं शशी, यदि अष्टमस्थः तदा क्ठेशक्ृत्‌ कष्टकारकः स्यात्‌ ॥ ८ ॥ अथं–जिस मनुष्य के जन्भसमयमे जन्मल्य्रसे आव स्थान में पन्द्रमाहो तो इसे कई प्रकारके रोगों से; अर्थात्‌ साध्यवा असाध्य रोगों से–पीड़ा रहती है–इन रोगों के निदान के रिष तथा उपचचार ओर निवारण के लिए वैच; डाक्टर ओौर दकीम बुलाए जाते ह । इस तरह इस मनुष्य के घरमे वेद्यो आदि की सभा भरी. रहती है । कोई वैय जड़ी बूयियोँ का कारा तेय्यार करवाता दहै । कोई पथ्य करवाने के लिए मूंग पकवाता है । ओर कोर अआसव-अरिष् वा शंत बनवाता है–इस तरह ये वैद्य. लोग अपने-अपने ज्ञान आओौर अनुभव के अनुसार व्याधियोंके निवारणके किए प्रयल करते है। रानुरूप वा शतुमूलक बड़ी-बड़ी व्याधि, भय ओौर आपत्तियोँ इसके पीठे सदैव लगी रहती हँ । किसी दीकाकार ने शवारिभूता भीतयः” एेसी योजना करके “जरू मे बकर मर जानेका भयमीहोता है! णेसा अर्थं कियादहै। किसी एक ने “वारिभूता महाव्याधयः |” एेसी योजना करके जखोद्र आदि जलजन्यरोगों से भय होतां है” ठेसा अथं किया. है । इस* तरह आव भाव का ष्वन्द्रमा कष्टकारी होता है ॥ ८ ॥ तुरुना– “यदा म्युस्थानं गतवतिशशांके बलयुते , महारोगातकः प्रवररिपुरंको च . भवति कचित्‌ काथ मुद्गोदकमपि प॑तीहमिषजाः › सदासद्वेद्यानां कलकलरवस्तस्य सदने ॥” जीवनाय अर्थ- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे अष्टमभावमे बली चद्रमा होतो इसे महारोगों का भय, अर्थात्‌ असाध्य राजरोगों का भय खगा रहता दै । वलवान्‌ शत्रु मुञ्चपर आक्रमणकारी न हौ-एेखा सन्देह भी इसे बना रहता दै । इसके धर मँ वेद्यं के उत्तमोत्तम अनुभवी डाक्ट्रों वा हकीमों के आदेश से जडी-बूचियों का कादा, मंगको दाल का रस, बनता रहतादहै। तथा बडेःबडे वैद्यो का जमाव भी होता रहता है । ्चूकिं इस मनुष्य को सदैव कोई न को भरीमारी ट्गी रहती है, अतः वैद्यो की सभा मी लगी रहती ३ । | रिप्पणी–दूषित ष्वन्द्र निम्नङिखित रोग करता हैः- अरुचि, मंदाभिः जदोष, रीतज्वर पांडुरोग, कमल्वायु, प्रमेह; वाताधिक्य, कफ, अतिसारः पीनस, रक्ते के विकार । ‘८अष्टमे तारकानाये दीनोऽव्पायुः सकष्टकः । . ग्रगस्मश्च कशांगश्च पापबुद्धिः भवेन्नरः ॥ काक्िनाय अर्थ- जिसके अष्टमभाव मे चन्द्रमा हो तो वह मनुष्य दीन, अस्पायुः कष्टयुत्त-प्रगस्म, दुर्वर ओर पापीहोताहै! ४सोद्धि्म चितामय कारश्यनिः स्वो भूपार चौराप्तभयोंऽष्टमेऽन्जे ॥* जयदेष

११८ चमत्कारचिन्तामणि का तुखनाव्मक स्वाध्याय

अर्थ–अष्टमभाव में चन्द्रके होने से मनुष्य उद्धियमन, चिन्ताुक्तः रोगी होने से दुटखशरीर आर निधन होता है । इसे राजा भौर चोरों से संत्रास

ओर भय होता दे    
"”बहूुमतिः व्याध्यर्दितः चाष्टमे   ` आचा्यंवराहनमिहिर

अथे- अष्टम चन्द्रमा हों तो मनुष्य. स्थिरवुद्धि नदीं होता है। यह व्याधियों से पीडित रहता है ।

“मृतो रोग्यस्पायुः |> सन्त्रे श्वर अथे– यदि चन्द्र मष्टममावमें हो तो मनुष्य सेगी भौर यस्पायु होता है। “नाना रोगेः क्षीणदेहोऽतिनिः स्व श्चोराराति क्षोणी पाटामिततः | चित्तः व्याङ्घुखो मानवः स्यादायुः स्थाने वर्तमाने दिमांरौ ॥ टुंडिराज अथ– जिसके आयुः स्थान (अष्टम ) मे च्च्हो तो यह कड प्रकार

के रोगों से पीडित रहने के कारण निर्बल देह होता है। यह अतीव निधन दोता हे। इसे चोरों से, शत्रुओं से, एवं राजा से संरा रहता हे । इसका चित्त उद्वेग के कारण व्याकु रहता है । “अतिमति रति तेजस्वी व्याधि विवध क्षपितदेहः । निधनस्ये रजनिकरे स्वस्पाुः मवति संक्षीणे ॥> कल्वाणवर्मा. ॥ किम चन्द्र के होने से मनुष्य बुद्धिमान्‌ भौर तेजस्वी होता । कड प्रकारके रोगोँके होने ण | इसकी आ थोड़ी रीका होने से यह क्षीणकायदहोतारहै। इ यु रणोत्युकः त्यागविनोदविचा शीटः शदयाके सति र्रयाते ॥» वंयनाय अथ–जिसके सष्टमभाव मे चन्द्र हो तो वह मनुष्य युद्ध करने के िए उ्खुक रहता है । यड दानी, विनोद्ील मौर विद्वान्‌ होता है । नन भवन संस्थे शीतरदमौ नराणां, निधनमचिरकाले पापगेहे ददाति। निजग्रगुगारूगेदी सौम्यगेदी च पूर्णः, जनयति बहुदुःखं श्वासकासादि रोगैः |°

। मनसागर अथ– जिसके जन्मसमय में जन्मल्य् से आसवे स्थान में चन्द्रमा पापी ग्रह भीरारिमे होतो मनुष्य अस्पायु होता है । र्द भाव का चन्द्रमा यदि स्वरही दहो बुध कौरारि में हो तो, ओर स्वय पूणवख्वान्‌ हो तो मनुष्य को श्वास-कास-. आदि नानाविध दुःख होते है मौर यह सदा दुभ्खी रहता है । “श्रुवनेत्र रोगी तथा सीतपीडा तथा वायुरोगाः शारीरे भवेयुः । क्षणं नीयते तस्य मूढौ क्षणंस्याद्‌ यदा मृप्युगः चंद्रमा वै जनानाम्‌ ॥ उदयभास्कर अथे– जिसके जन्मलद्न से आव स्थ न मं चन्द्रमाहोतो इसे ने्ोंके रोग होते हँ । शौतज्वर की पीडा होती दहै | शारीरम वायुप्रधान रोग होते हैँ । ओर इसे क्चण-श्चण में मू रोग होता है |

५ श्ुक्रवा गुरुके धरम हो मथवा

चन्द्रफर ११९

““कुष्णपक्षे दिवाजातः श्ुक्कपक्षे यदानिरि । तदा षष्ठाष्टमश्चन्द्रो मात्रवत्‌ परिपारुकः |> अयेश्रन्थ क्ता अथे-ङण्णपक्ष मे दिन में जन्म हो-भौर श॒ङ्कपक्च मे रात्रि मे जन्मद तो छटा अथवा आय्वां चन्द्रमा माता के समान मनष्य की रक्चा करता रै । टिप्पणी- कृष्णपक्ष मे जन्म दिनसेहोतो सूर्यं नवम से केकर ख्य तक क्रिसी स्थानमेंदहो सकता दहै। यदि जन्म शु्कपक्षमे रात्रिम दोतोसूथं धनस्थान से सप्तम स्थाने तक किसी स्थानमें होगा अतः इस प्रकारका योग दीर्घायु देता है। अस्यायु योग तव होगा जव चन्द्र अमावस मे हो । अथवा चन्द्र रवि के निकट हो | प्राचीन ग्रन्थकारो के अनुसार अष्टमचन्द्र का मनुष्य अतीव निधन होता हे– इस परिस्थिति मे इसे राजा से भय ओौर चोरों से भय क्योंकर हो सकता है, क्योकि राजा दंड द्वारा धनापहरण करता है ओर वोर चोरीकर के धन ट्ट ठेते ह । दोनों परिस्थितियों मे संत्रास मौर भय का मूलकारण धनसत्ता है । यह बात विष्वारयोग्य है। अष्टमभाव का चन्द्रमा धनदाता भी होता द–यदि इस पश्च को मन मे रखाजावे तो राजा ओर चोसेंसे भय होन। भी संभव हे । नानारोगओैः श्चीणदेहोऽतिनिःस्वः चौराराति क्षीणपालामितत्तः। चित्तोदधेगेः व्याकुखो मानवः स्यादायुः स्थाने वर्तमाने हिमांशौ |” महश्च अथे–यदि चन्द्रमा अष्टम हो तो मनुष्य नानाविध रोगों के कारण निर्बल दारीर होता हं” यह अतीव निर्धन होता है। इसे चोरों से, शतरुओं से ओर राजासे चास ओर भय बना रहतादहै यह मनुष्य चित्तम उद्वेग होने से व्याकु रहता ह । (“उमर्यहे कमयंदा नरो भवेत्‌ सदाऽऽमयी । व हि्जंगुर्दं गुस्सववं देशसुकू्‌ च नि्ह॑यी | खानखन। अथे–यदि षन्द्रमा अष्टमभाव में हो तो मनुष्य रोगी । बेकार धूमनेवाल, क्रोधी; अपना देशत्याग करदेनेवाटा आौर दयाहीन होता है । श्र गुसूत्र-अस्पवाहनवान्‌ । तया कादिषु गंडः । ््रीमूठेन बन्धुजनपरित्यागी । स्वक्ष स्वोच्चे दीर्घायुः । क्षीणे वा मध्यमायुः |” अथे- जिस मनुष्य के जन्मलग्न से अष्टमस्थान मे चन्द्रमादो तो इसे वाहनसुख थोड़ा मिलता है । तालाब, कुआ मारि मे इकर मर जाने का भय रहता है । यद्‌ चन्द्रमा यदि स्वक्षेत्र (ककं ) मेहो, वा अपने उच्स्थान वरृषमे होतो मनुष्य दीर्घायु होता है। हीनवटी चन्द्रके होने से मनुष्य मध्यमायु होता दहे | स्री के कारण इसे बन्धुओं का त्याग करन! पड़ता ई ।

१२० चमत्कारचिन्तामणि का तुरख्नात्मक स्वाध्याय

रिष्पणी-ज्योतिःखाख्र में, आयु तीन प्रकार की होती है-रेसा कथन हैः–अव्पायु ३२ से २५ तक, मध्यमायु-३२-३५ से ७० तकः-पूर्णायु ८० से १०० तक । १०० से १२० तक परमाय समञ्चनी चादिए ।

यवनमत- यह सदारोगी, दुःखी, क्रोधी) दुराग्रही, निदंय ओौर दुर्जनो द्वारा पीडित होता है। इसे देश त्याग करना पड़ता है । यदह चन्द्र पापग्रह्‌ मे यथवा पापग्रह से युक्त हो तत्र तो ये अद्यभफठ निश्चय से मिलते ह

पाश्चात्यमत-इस चन्द्र के फटस्वरूप म्ृप्युपत्र द्वारा अथवा वारिसि के अधिकारसे अथवा विवाह के द्वारा विरोषर खभ होता है। चन्द्रउच का, अथवा स्वगरहमे होतोये खमदहोतेर्है। पापग्रहसे युक्तदोतो ये लाभम नहीं होते । |

विचार ओर अनुभव- मेष, सिह; धनुराशियों मे अष्टमभाव का चन्द्र हो तो किंसीन किखी मागं से धन मिलता दै | मिथुन, खा, वा कुम्भ में यह चंद्र हो तो प्ली अच्छी मिलती दै किन्तु कुछ कल्हकारक होती है यह विदोष फठ इन छो रारियोँ मे चन्द्र के होने से होता रै। ककं, बृश्चिक, धनु वा मीन ल्य्रहो, ट्य से चन्द्रमा अष्टमभाव में हो त मनुष्य योगाभ्यासी, उपासक वा वेदान्ती होता है। स्रीरारिमें चन्द्रहोतोषरकी गु बतं नाँकरोंसे बाहर निकल जाती ई । आयु का ४४ व वर्षं सम्पत्ति नाशक होता दै । नवमभावस्थित चन्द्र का फटः- “तपोभावगस्तारकेदो जनस्य प्रजाश्च दविजाः वेदिनः तं स्तुवन्ति । भवत्येव भाग्याधिको यौवनादेः दारीरे सुखं चन्द्रवत्‌ साहसं च ॥ ९॥।

अन्वयः–( यस्य ) जनस्य तारकेशः तपोभावगः ( अस्ति) तं प्रजाः) द्विजाः, वन्दिनश्च स्तुवन्ति । ( सः ) यौवनादेः भाग्याधिकः मवति । ( तस्य ) शारीरे सुखं चन्द्रवत्‌ साहसं च भवति एव ॥ ९ ॥ `

सं°-दी०- यस्य जनस्य तपोभावगः नवमस्थः तारकेशः चन्द्रः; तं द्विजाः ब्राह्मण क्षत्रियविंदाः वदिनः स्वतिपाटकाः प्रजाः तदितरजनाः स्वुवन्ति गुणारोपं कुवन्ति । यतो यौवनादेः यौवनस्य प्रथमे काठे सूरत्व-धनत्व-खीलम्यवहारादि हेतोः भाग्याधिकः मवत्येव । तथा दारीरे युखं साहसं मनः प्रागस्भ्यं चन्द्रवत्‌ शोभनं, अथवा कदाचिद्‌ वद्ध॑मानं कदाचिद्‌ हीयमानं भवति, इत्यनेन एव सन्वयः ॥ ९ ॥ |

अ्थे- जिस मनुष्य के जन्मलग्न से नवमस्थान में चन्द्रमाद्ोतो इसकी स्तुति-इसका गुणगानं जनता के लोग, ब्राह्मण लोग्‌ ओर वन्दी छोग ( माटखोग ) करते हँ । यह मनुष्य वौवनावस्था के प्रारम्भसे दी माग्यवान्‌ होता है| यह शरीर से सुखी रहता है । इसका साहस-अर्थात्‌ पराक्रम चन्द्रमा के समान बदृता-घरता रहता है ॥ ९ ॥

चन्द्रफल १२१

टिप्पणी- प्राचीन भारत मे राजाओं ओर महाराजाओं के दरार मं मा लेग इनका गुणगान करते ये-इनकी स्तुतिविषयक कवित्त पठते थे ओर इनाम पातेये। ब्राह्मणलोग आशीर्वाद देने आतेये | प्ररांसात्मक शोक पटू कर सुनाते थे ओर उचित पुरस्कार भी पातेये। इसी तरह सव॑साधारण ठोग भौ इनका गुणगान करते ये क्योकि ये राजा-महाराजा प्रजाहित के काम करके प्रजा का मनोरंजन भी करते रहते ये । तुखना- तपः स्थाने राकरापतिरिह यदा जन्मसमये स्तुवंति व्यामोहात्‌ प्रवखसिश्चापि कृतिनः । तमथानामाप्िः परमकमनीयंमुखमलं सुखंम्वांगे राकापतिवदमितं तस्य॒ सततम्‌ ॥ जीदनाय अ्थे- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे चन्द्रमा नवमभावमे होतो उसके बलवान्‌ शत्नुगण किकर्तभ्य विमूट्‌ होकर तथा सन्तगण मी स्तुति करते द । उसे धन का लाभ, पूणचन्द्र के समान सुन्दर सुख ओर चन्द्रमा के समान ही शारीरिक सुख होता रै, अर्थात्‌ जिस प्रक्रार चन्द्रमा क्षीण तथा पूणं होता रहता है उसी प्रकार रारीरिक बर भी घटता बदृता-रहता हे । “जनप्रियः सात्यजबन्धुधीरः सुधर्मधीः द्रव्य युतः त्रिकोणे ॥* जयदेव अथे- नवम मे चन्द्रमा हो तो मनुष्य जनता का प्यारा, पुत्रवान्‌ ; बन्धु युक्त धीर, धर्मात्मा ओर धनवान्‌ होता है ।

“धमं चन्द्रे चारुकान्तिः स्वधमनिरतः सदा । वीतरोगः सतांश्छाध्यः पापहीनश्च जायते ॥”’ काश्ञीनः अ्थै–जिसके नवमभाव म चन्द्रमा हो तो वह मनुष्य सुन्दर, स्वधमं परायण, नीरोग, सञजनमान्य ओर निष्पाप होता हे । “तपसि श्युभधमांतसपुतवान्‌ ॥ मन्त्रेश्वर

अथे-नवमभाव में चन्द्रमा हो तो मनुष्य धार्मिक ओौर पुत्रवान्‌ होता दै । सौभाग्यात्मज मित्रवषु धनभाग्‌ धमंस्थिते शीतगौ ॥ आचायंवराहमि्िर अथं- जिसके नवमभाव मे चन्द्रमादहोतो वह मनुष्य; सोभाग्य, पुत्र; मित्र-अन्दु ओौर धन, इनसे युक्त होता हे । “कलत्र पुत्र द्रविणोपपन्नः पुराण वात श्रवणानुरक्तः । । सुकर्म सत्तीथपरो नरः स्याद्‌ यदाकलावान्‌ नवमाख्यस्थः ॥?2 दुंडि सज अथे- जिसके नवमभाव मे चन्द्रमा हौ वह मनुष्य स््ी-पुत्र ओौरधनसे युक्त होता है-इसका. अनुराग ओर पेम पुराणों की कथां श्रवण करने मं होता है । यह मनुष्य श्युभक््मकर्ता ओर उत्तम तीथं करनेवाला होता है । ‘देवतपित काय॑परः सुखधनमति पुत्र संपन्नः। युवतिजन नयन कान्तः . नवमे राशिनि प्रजायते मनुजः ॥” कल्याणदर्भा

१२२ चमत्कारचिन्तामणि का तुटनास्मक स्वाध्याय

अथं- जिसके नवम मे चन्द्र हो वह मनुष्य देवभक्त तथा पित्रभक्त होता हे । इसे सुख, धन, बुद्धि ओर पृं का सुख मिखता है । यह उन्मत्त यौवना- रूट्‌ लियो के ओंँखों का तारा होता है । “नवमभवनसंस्थे शीतररमौ प्रपूर्णं बहुतर सुख भक्तया कामिनीप्रीतिकारी । न भवति धनभागी नीचगे श्चीणदेदे विमल पथविरोधौ निरयण मूदचेताः ॥” मानक्तागर अथे- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे जन्भल्य् से नवमस्थान मे चन्द्रमा हो ओौर यह्‌ चन्द्र पूणं बल्वान्‌ हो तो यह बहुत प्रकारके सुख भोगता इ । ओर अपनी खी को सुख देनेवाला होतादै। इस भाव का च्वन्द्रमा यदि दीनवली हो । वा नीच राशिका होतो मनुष्य निधन, निर्गुण ओौर मखं होता हे ओर यह सन्मागं से विशुद्ध चलनेवाला होता दै | “श्चन्द्रे पेत्रिक देवकार्यं निरतः त्यागी गारुस्ये यदा ॥ वंद्यनाय अथे-नवमभाव मेँ चन्द्र हो तो मनुष्य तपंण-श्राद्ध-सन्ध्या-देवपूजा आदि कार्यो का करने वाला ओर दानशीठ होता है । मध्यभाग्यं भवेद्धर पित्रपक्षपरायणः । धमे पृणनिशनाये श्चीणे सवं विनाखयेत्‌ ॥ अ(चायंगगं अथे–जिखके नवम मे पूर्णवटी चन्द्रमा हो वह मध्यम वय मे भाग्यराटी होता है। यह श्राद्ध आदि पिव्रकमं मे श्रद्धा रखता है। यदि इस भाव का चन्द्रमा हीनवटी हो तो मनुष्य का सर्वनाश होता है। ““कृलत्रपुत्र॒ द्रविणोपपन्नः पुराणवातां श्रवणानुरक्तः। सुक्म॑सत्‌ तीर्थं परो नरः स्यात्‌ यदा कलावान्‌ नप्रमाल्यस्थः ॥* महेज्ञा अथे जिसके नवमभाव में चन्द्रमादोतो उस मनुष्य को ख्री-पुत्र ओौर धन प्राप्त होते ह । यह पुराणों की कथा सुनकर प्रसन्न होता है । यइ यभ कर्म॑ कर्ता होता है । यह उत्तम-उत्तम तीर्थो की यात्रा करता है। ८(नरीवखानगः कममुदैशसंज्ञकं नरम्‌ । म॒तम्म विह आमिल सिकम्युक करोति वे |] खान रान अथे–यदि चन्द्र नवमभाव मे हो तो मनुष्य तेजस्वी, अस्यन्तधनी ईश्वर को जाननेवाटा ओौर सवारियों पर चलने वाखा होता है । भरगुसूत्र-बहुश्रतवान्‌ , पुण्यवान्‌ तटाक-गोपुरादि निर्माण पुण्यक । पुत्र भाग्यवान्‌ । पूणचन्द्रे बलयुते बहभाग्यवान्‌ । पिव्रदीर्घायुः । पापयुते पाप- कषेत्रे भाग्यहीनः । नष्टपित्रमात्रकः थे–जिस मनुष्य के जन्मल्य से नवमस्थान मे चन्द्रमा होतो यह बहुश्रुत होता हे अर्थात्‌ बहुशाश्ननिष्णात होता है ओौर ज्ञानवान्‌ होता है। यह पुण्यकर्मा के करनेवालखम होता है। यह लोगोँके सुख के लिए तालाब वनवाता है । मन्दिर यौर धम॑शाला आदि बनवाता हे ओर इष्-पूतं पुण्य-

चन्द्रफरः १२३

कमं करता है । इसे पुत्रों से खुख मिर्ता है । यदि इस भाव का चन्द्रमा पूर्ण-

बली हो तो मनुष्य विदोष भाग्यवान्‌ होता है । इसका पिता दीर्घायु होता है ।

एस भाव के षन््रमा के साथ पापग्रह युति करता है अथवा यदह चन्द्र पापग्रह

कीरारिमे होतो यह मनुष्य अभागा होता है। इसके पिता ओर माता की . मृत्यु होती हे । |

“कान्ता मोगी शशांके न” ॥ हीरादीष

अथे- यह अनेक लियो का पति होता है । यहो पर “कान्तानां मोगी” एसा समास करना दोगा । ।

“चन्द्रे चतुर्विशतिः फलमिदं लभोदये संस्मृतम्‌” ॥ बहदयवनजातक अथे-नवम चन्द्र के फलस्वरूप २४ वे वर्षं मे लम होता है । यवनमत–यद भ्यक्ति तेजस्वी, धनवान्‌ , ईश्वरभक्त भौर प्रवासी होता दै । पाश्चात्यमत-यह जल्मागं से प्रवास करता है। धर्म भौर शारी का

| मी, ॥ योगी; कस्पनाशक्ति से युक्त, स्थिरवचित्त ओर अभिमानी होता है । ।

पत्ती के संबंधिरयों से ओर अपने आप्तजनों से इसे अच्छा साहाय्य मिख्ता है किन्तु यह ्वन्द्र बलवान्‌ ओौर श्चभ-संस्कारो से युक्त होना चादिए । इस पुरुष को कानूल, दिस्सेदारी शाखीयज्ञान ओर जल्पयैन से अच्छा त्रभ होता है।

विचार ओर अनुभव-नवमस्थ चन्द्र पुरुषरारि मे हो तो मनुष्य को एकन दो वा बहुत छोटे भाई होते ई । परन्तु बङ़ामाई नहीं होता दै । यदि हुआ तो अख्ग रहता है ! छोरी बहिन नदीं होती रै । सख्रीराशि मे इस भाव काच्चन्द्रहोतो ऊपर छ्खि फठसे विपरीत फल दहोता है। बड़ी बहिन नदीं होती । छोटे भाई नदीं होते । छोरी बहिन होतीर्ै।

नवमस्थ चन्दर दूषित हो; वा ख्रीरायि का हो तो पुत्र सन्तान बहुत देरसे ४८ वैँ वषं के करीब होती है । यह भी संभव है कि पुत्र सन्तान दहोहीनहीं।

सिह राशि का चन्द्रदहो तो मृत्यु के समय भाग्योदय होता है। धनुराशि काचन्द्रहो तो कुठकीर्तिं बटृती है।

मेष राशि का चन्द्र हो तो भाग्योदय मं कठिनता आती है । कर्क, बृश्चिक) मीन, मेष; सिद तथा धनुराशि का चन्द्रहो तो मनुष्य ठेखक, प्रकाशक वा मद्रक होता हे।

इष, कन्या ओर मकर का चन्द्र हो तो मनुष्य अधंरिक्षित रह जाता दै ।

मिथुन, दला ओर कुम्भ का चन्द्रमा हो तो मनुष्य पूर्णतया शिक्षित तो होता है किन्तु रास्ते में रुकावटं भौर अड्ग्वनें बहुत आती ई । -दकमभावस्थित चन्द्रफट- `

“सुखं बान्धवेभ्यः खगे धमंकमा समद्रांगजेरं नरेशादितोऽपि । नवीनांगना वैभवे सुभ्रियत्वं पुरा जातके सौख्यमर्पं करोति» ॥१०॥

१२४ चमत्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

` अन्वयः- जातके खगे ससुद्रंगजे ८ स्थिते ) धम्मकर्मा, वांधवेभ्यः सुखं, नरेशादितः अपिश, नवीनरांगना वैभवे सुप्रियत्वं ( च ) ( कमते ) पुरा अस्पं सौख्यं करोति ॥ १० ॥ “पुरा जात के अव्पं सौख्यं करोति “इत्यपि योजना चित दश्यते ॥ ५० ॥ ऋक सं<-टी<-ससद्रांगजे अन्धिसुते चन्द्रे खगे दशमे सति धर्मकर्म पुण्य- कारी सन्‌ वांधवेभ्यः सुखं, नरेशादितः राजग्रश्तिजनेभ्यः शं कल्याणं अपि, नवीनांगनानां . वैभवे प्रभुत्वे सुप्रियत्व सुतरां वह्छमव्वं, तथा पुराजातके प्रथमे सुते अत्पसौख्यं, यद्वा, पुराजायते अग्रे भवति इतिपुरगणजातकः भृत्यः, तस्मिन्‌ स्वल्पं सुखं करोति प्राप्नोति, इव्यथः ॥ १० ॥ अ्थ-जिख मनुष्य के जन्मसमय मे जन्मट्स से दशमभाव में चन्द्रमा हो तो वह धर्मात्मा होता दै। इसे बन्धु-बान्धवों से सुख प्राप्त होता दहे । राजा ते अथवा तत्समान धनी-मानी लोगों से भी सुख प्राप्त होता है । नवीन-अंगना- अर्थात्‌ नवषरिणीताखी के रेशवर्य-प्रयुत्र ओर मान को देखकर इसे बड़ी प्रसन्नता होती दै। किन्तु इसे वाव्यावस्था मं अव्पसुख मिक्ता है । अर्थात्‌ इसका बचपन कष्टमय व्यतीत होता है ओर यौवनम सवंप्रकार का सुख प्राप्त होता दै। “इस मनुष्य को च्येष्ठपुत्र से प्ूणयुख प्राप्त नदीं होता है। अर्थात्‌ इसका ओर इसके जेटेपुत्र का परस्पर वैमनस्य ( मनमुटाव ) रहता है । तुखना–“यदा कर्मस्थानं गतवति तमीरो जनिमतां ; स्ववंधुभ्यः सौख्यं नरपति ऊुखादथं निचयः । नवीनामिः नित्ये नगरवनितामिः सुरतजं + सुखं पूर्वापप्ये प्रभवति सुखं नैव सततम्‌ ॥* नीवनाथ अर्थ- जिस मन्य के जन्मसमय मे जन्मलय्य से दशमस्थान मे चन्द्रमा हो तो इसे बन्धघु-बान्धवों से सुख मिक्ता है । राज्रुकसेधनकालखाभ होता है । नित्य नवीना नगरवासिनी नारियों से रतिसुख मिल्ता हे । परन्तु अपने च्येष्ठ पुत्र से सुख नहीं होता है । रिप्पणी-्येष्ठपुत्र से सुख प्राप्त न होना-दो परिस्थितियों मे से सम्भव है–? पिता-पुत्र का परस्पर वैमनश्य, ( २) य्येषपुत्र-अर्थात्‌ अग्रजात पुत्र की मृत्यु । पश्चमस्थान से दरमश्थान छठा हे-अतः प्रथम परिस्थिति सम्भव दै। एेसे बहत से परिवार देखने मं आते है जहौ पिता ओर जेष्ठपुत्र के सम्बन्धं अच्छे नहीं होते-परस्पर अदाल्ती स्रगडों तक नौवत आती है– विभाजन ह्येता है–प्रथक्‌ -ए्रथक्‌ निवास होता है । यदि व्ययस्थान का अधिपतिं चन्द्रमा दशममावमं होतो प्रथम पुत्र की मृद्यु मी सम्भव दै–भौर यह दूरी परिस्थिति है। मनुष्यके कठेजे में चुमनेवाठे शल्य इ संसार मे बहुत द । किन्त इनम से तीश्णतम शस्य पिता के चिएि प्रथम पुत्रकी मृघ्यु होतो दहै। स्मरण रहे किं दरमस्थान तति स्थान नहीं है ।

चन्द्र फर १२९५

(निष्पत्ति सस्पेति धर्म-धन-धीशौरयः युतः कर्मगे |” चायं वराहमिहिर अर्थ–यदि दशमभाव मे चन्द्रमाहो तो मनुष्य सब कामों को निष्पन्न सम्पादन करनेवाला होता है। यह धर्मासा, धनी, बुद्धिमान्‌ ओौर शओौयं सम्पन्न होता है | “जयी सिद्धारम्भो नभसि श्चभङ्घत्‌ सत्‌ प्रियकरः ॥ मन्त्रेश्वर अर्थ–यदि दशामभाव मे चन्द्रमा होतो मनुष्य सर्वत्र विजय पातादे। यह जिस काम को हाथमे ठेता है इसमें इसे सफलता मिल्ती है । यदह शभ कमं करता है । यह सत्पुरुषो के छि लाभदायक कामों के करनेवाला हीता हे । अथवा सजनो के साथ उपकार करनेवाला होता है | “लक्ष्मी खकीर्तिः कृतकमसिद्धिः भूपेष्टता रौयपिहास्ति खेंदौ ॥* जयदेव अथं–यदि ष्न्द्र दशमभावमें होतो मनुष्य र्ष्मीवान्‌ ओर यशस्वी होता है। इसे अपने किए बुः कामों मे सफट्ता मिख्ती दै । यह राजमन्य ओर पराक्रमवान्‌ होता है । “कमस्थाने सुधारद्मौ बहूभाग्यो महाधनी । मनस्वी च मनोज्ञश्च राजमान्यश्च जायते| काशीनाथ अथ–यदि चन्द्र दशमभाव में हो तो मनुष्य बहुत भाग्यवान्‌, धनाञ्य, मनस्वी; सन्दर ओर राजमान्य होता है । “चन्द्रो यदा द्शमगो धन-धान्य-वख्मूषा वधूजनविल्सकलविलोलः ॥’ वेचनाय अथं– चन्द्रमा यदि दशमभाव में हो तो मनुष्य धन-धान्ययुक्त, वस्र ओौर अचल्ह्कार युक्त, च्ियोांसे पिस करनेवाख ओर कख का जाननेवाखा होता है। | “बहुतर खंखभागी कम॑संस्थे हिमांशौ ; विविधधननिधानं पुत्रदारादिपूणः। रिपुकुटिक रृहरथे कासरोगी कशांगः , श्वसुरकुलधनाव्य कर्महीनो मनुष्यः ॥ मानसागर अथं–जिस के जन्मल्चसे दरामस्थानमें चन्रमा होतो इसे नाना प्रकार के सुख प्रास्त होते हैः -यह ख्ी-पुत्र आदिसे भरसूर होता दै। यदि इसभाव का चन्द्रमा शतरुक्षेत्री हो, अथवा पाप्रहकेक्षे्रमेहोतो मनुष्यको कासरोग होता है । यह निव॑ख देहवाला होता है । यह श्वसुरण्ह से श्राप धन से धनाल्य होता है क्योकि यह स्वयं अकमण्य होता हे | रिप्पणी–“्रतिदयायादयो कासः कासात्‌ संजायतेक्षयः ॥* यह व्यक का नियम दै। अतः कास से उत्पन्न होनेवाला क्षय भी अन्तर्भूत समञ्चना रोगा । कास का मूल प्रतिर्याय ( जुकाम-नजला ) दै–क्षय से शरीर का बलहीन हो जानामी स्वाभाविक है। इस तरह दूषित चन्द्रमा कदे एकः हानिकर रोगों को जन्म देता है ।

१२६ चमत्कारचिन्तामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

श्सुरह-से प्राप्‌ हए धनसे धनीवेदी होते द जो स्वयं निकम्मे ओर मूस होते ह किन्तु रूप आर यौवन सम्पन्न होते हें ओौर प्रार्तनजन्म कुत शुभकर्म का फलस्वरूप इनका विवाह धनाब्य कुक्में होता दहै। स्मरण रदे कि अकर्मण्यः होना दुषित चन्द्रां का दुष्ट फल दै । “धछविषादी - कर्म॑परः सिद्धारस्मश्च धनसमृद्धश्च । यचिरतिवलोऽथ दशमे श्रो दाता भवेद्‌ शशिनि” | कल्याणवर्मा अथ- जिसके जन्मल्यसे दशमभावमें चन्द्रहो तो वह मनुष्य विषाद- हीन; तत्पर होकर कामों को करनेवाखा, धनी, सम्रद्ध; पवित्रात्मा, बटी ओर टानशीक तथा चुर होता है। यह जिस कामको करता है उस काममें इसे सफठ्ता मिख्ती ~्षोणीपालादथंलन्धिर्विंशाख कीर्तिमूर्तिः सत्वसंतोषयुक्तः वष्वठ लक्ष्मीः रीट संदा लिनीस्याद्‌ मानस्थाने यामिनीनायकश्चेत्‌ || दंडिराज अथे-दरामभाव मं चन्द्रमा के होने सं मनुष्य कोराजासे धनप्राप्त होती है । इसका यश दूर-दूर तक फैरूता है । यदह सतोगुणी होता है । यह सन्तुष्ट रहनेवाखा व्यक्ति होता है । यह लक्ष्मीवान्‌ ओौर शीलवान्‌ होता है । किसी एक विद्वान्‌ ने “चंचल लष्ट्मीः इस विरोपण का अथं “दशम चन्द्र से सम्पति मे चटाव ओर उतार होते रहते ईै-स्थिरता नहीं होती | एेसाकिया है क्याकि रश्मी १ स्वभाव से चंचल है-एक पुरुष में, एक कुल में, एक राज्यमें बहुत देर तक स्थायी नदीं रहती । कोश में इसे “श्वंचखा चपला चलाः एेसा कहा है । | “शस चन्द्रे च वेद्यस्य वृत्तिः प्रकर्प्याःः ॥ जागेश्वर अथे–दराममाव मेँ चन्द्रमा होतो मनुष्य को वैर्यवृत्तिसे व्यापारमें धन प्राप्त होता है | स्मरणरहे कि चन्द्रमा को वेश्य भी माना गया है॥ “व्वंचल टक्ष्मीः? | तुह्‌द य वनजातक अथं- जिसके दशम मे चन्द्रमा हो तो इसकी सम्पत्ति सदैव एक-सी नदीं रहती अरहट कौ रिडां की तरह कमी धन से पूण ओर कमी धन से खाखी | ‘‘अरषट्षरीषटोपमाः ॥ प्राक्तन जन्म मे “जिन खोगों ने अनन्त शुभकर्म किए होते है, इनके पास कुट्परपरा से रश्मी स्थायी होकर रहती है” एेसा भी अनुभव है । कृमयदा गृहाश्रितो हि हम्जवारक नरम्‌ | तवगरं च कामिल करोति वै च साविरम्‌? ॥ खानखाना अथ– यदि चन्द्रमा दशमभावमें होतो मनुष्य अपने परिवार का पार्क होता. है । मनुष्व पित्रमक्त, धनाल्य, प्रकांड पंडित; शान्तप्रकृति ओर संतोषी होता दहै | “’क्षोणीपाल्रदथलन्धिः विशाल कीर्तिमूर्तिः सत्व संतोषयुक्तः चचल्‌-लक्ष्मीः शीलसंश्ाटिनीस्यात्‌ मानस्थानेयामिनीनायकश्चेत्‌ ॥” बहे

चन्द्रफर १२७

अथे–जिस मनुष्य के जन्मसमय मे जन्मच्य्र से दशामस्थान मे चन्द्रमा हो तो मनुष्य राजासे धन मौर मान पाता है। यह बहुत यदयस्वी होता है । यह परक्रमी ओर शूर होता है। यह यथालाभ संतुष्ट रहने वाख होता है । यह शोभायमान लक्ष्मी से युक्त होता है जिससे इस मनुष्य का व्यक्तित्व चमक उठता हे । यह मनुभ्य शीलवान्‌ ओौर सचसिि होता है ।

श्गुसूत्र– “विद्यावान्‌ पापयुते। सपरविंद्यति वं विधवा सं गमेनजन विरोधी । अतिमेधावी ¦ सत्क्म॑निरतः । कीर्तिमान्‌ । दयावान्‌ । भावाधिपे बल्ुते विरोष सत्‌कमं सिद्धिः । पाप निरीक्षिते पापयुते वा दुष्कृतिः । कर्मविभ्नकरः ।»

अथं- जिसके ष्न्द्रमा दशमभाव मेँ हो तो मनुष्य विद्यावान्‌ होता है । यदिं इस भाव के चन्द्रमा के साय पापप्रह होतो सत्ताईसव वर्ष मे मनुष्य विधवास्री के साथ रमण करता है अतएव जनता के लोग इसके साथ विरोध करते है । यह महान्‌ मतिमान्‌ होता है । यद सत्कर्म परायण, यशस्वी, ओर दया होता दहै । यदि भावेश बल्वान्‌ हो तो इख मनुप्य को अच्छे कामों मे व्रिरोषर सफलता मिलती है । यदि भावेरा पर पापग्रह की दृष्ट हो, अथवा पाप- ग्रह साथमे होतो मनुष्य बुरे कामों के करनेवाला होता है । इसके कामों मे विध्न पड़ते दै–रुकावर आती रै । | |

यवनमत– यह पित्रभक्त ओर कुटम्बवत्सरु होता. है। थह धनी, विद्धान्‌ , चतुर, संतोप्री ओर शान्त होता है ।

पाश्चात्यमत– मनुष्य को विजय ओौर सम्पत्ति प्रास्त होती है । ऊँचे घराने

की लियो से जभ होता है । लोकोपयोगी वस्तुओं के व्यापार से लभ होता है । खोकप्रिय होता है । यदि चन्द्र नीषरारिमें होतो अपमान भौर अपकीरतिं होती दहै । स्थिरराशि के चन्द्र मे स्वभावहद्‌ होता है। द्विस्वभाव राशिमें चन्द्र हो तो अस्पभाग्य होता है । चरराशि में चन्द्र हो तो व्यापार मे अस्थिरता होती दे । मंगल की युति मे भारी नुकसान होता है। शनि की युति में चन्द्र हो तो व्यवसाय मे कठिनाद्यौ भाती रै ।

विचार ओर अनुभव–दशमभाव स्थित चन्द्रमा, यदि मेष, कर्क, तुला वामकर रा्िर्मेहोतो बचपनमे दी माता-प्तिका वियोग होता है| इस भाव के चन्द्र से चुनाव मे यद्य मिक्ता है । नेत्र प्राप्त होता है।

रष; कन्या वा वृश्चिक में चन्द्रहोतो पिता का कर्जा इस मनुष्य को देना होता हे । :८ वैँ वधर में कुछ स्थिरता प्रास होती है । |

मेषः ककं वा मकर में चन्द्रहोतो आयु भर स्थिरता बहुत कम मिरती है । नोकरी मं हमेशा परिवर्तन होते रहते है |

वृश्चिक रारि को छोड़ कर भन्य किसी राशिमें चन्द्रहोतो माता-पिता कासुखनष्ट होतादहे। यदि इन दोनों में कोद एक जीवित रहे तो परस्पर अच्छे सम्बन्ध नहीं रह खकते ।

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५२८ च मत्कारचिन्तामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

एकाद इाभावरस्थित चन्द्रफछ– ^ल्मेद्‌ भूमिपार्दिदुना लामगेन प्रतिष्ठाधिकाराम्बराणि क्रमेण| श्रियोऽथच्रियोऽन्तःपुरे विश्रमन्ति क्रिया वेकृती कन्यका वस्तुलाभः ॥१९॥ अन्वयः- खाभगेन इन्दुना भूमिपात्‌ करमेण प्रतिष्ठधिकाराम्ब्राणि र्मेद्‌ । अथ ( तस्य ) अन्तःपुरे श्रियः खियः (च) विश्चमन्ति। ( तस्य) क्रिया वैकृती जायते कन्यका ( उत्पद्यते ), वस्व॒लामः ( भवति ) । सं<~-टी<–लभगेन एकादशस्थेन इन्दुना चन्द्रेण मूमिपात्‌ राज्ञः सका- दात्‌ क्रमेण प्रतिष्ठाधिकाराम्बराणि मान्यताऽध्यक्षत्वं वश्राणि च ल्मेत्‌ । अथ अन्तःपुरे हमध्ये श्रियः धनानि लिः वनिता । च विश्रमन्ति स्थिरा भवन्ति । तथा. वस्तुभ्यः नानापदार्थभ्यः लमः, क्रिययावेकृेती करूरा कन्यका च भवेत्‌ इतिरोषः ॥ ११ ॥ अ्थ- जिस मनुष्य के जन्मसमय में जन्मन से एकादशभाव मे चन्द्रमा होतो इसे क्रमशः राजद्वार से प्रतिष्ठा-अधिकार ओर बह्भुमूल्यवान्‌ वचख्र का टाम होता दै। इसवेः अन्तःपुर ८ हम्य॑सराय-जनानामहल ) भे लक्ष्मी ओर उत्तम च्ियोँ निवासत करती है । इसके किए हुए काम विगड़ जाते हं । अर्थात्‌ . इसका किया दभा उद्यम अओौर यल ॒विफर रहता हे । इपे कन्या सन्तति होती है । इसे नानाप्रकार के पदार्थो के व्यापारसे टाम होता हे। रिप्पणी- संस्कृतटीकाकार ने शक्रिया वैकृती कौ कन्याका विशोषण माना है ओर “ूराकन्या” एेसा अथं क्रिया । संसकृतटीकाकार के मत मे कुरत करनेवाटी ( अर्थात्‌ ्रटाचारा कन्या पेदा होती है” । एेसा सुचित अर्थरै। किन्त यदह अर्थं सुसंगत नहीं है । विक्रेत शब्द्‌ कास्त्री लिङ्ग शब्द्‌ “वैक्रतीः दै । इसका विगड़ जाना-विगाड़ पड़ जान।’ ) अर्थं सुसंगत है । लक्ष्मी को च॑ष्ट भौर चपला माना दै कव्ोकि यह एकत्र स्थिर नहीं रहती । अथात्‌ ख्स्मी का कृपापाच्र मनुष्य जीवन मे सदेव एक-सा नहीं रहता- इसकी सम्पत्ति मे उतार-चटाव होते रहते हं । परन्ठ॒एकाद्दस्थ चन्द्रमा के प्रभाव मे उत्पन्न मनुष्य क धर पर लक्ष्मी प्थिर होकर रहती हे । अर्थात्‌ इसका ऊँचा भाग्य सदा ऊँचा ही रहता दै । उदाहरणम इसक्ः धर मं विवाहित होकर आई हई सुन्दरी च्िरयो भी इसके अतिशय रूपयौवन प्र मुग्धा होकर अनन्यमनस्का पतिपरायण होती हई सारा जीवन व्यतीत करती दै “आनन्द भोगती हैः | ू ८सती च योषित्‌ प्रकृतिश्च निश्चला पुर्मा समभ्येति भवान्तरेष्वपि | रेखा नीतिशाख्र ववचन इस सन्दभं में उपादेय है। “तुलना-तमीमर्ता ल्मे भवति जनने यस्यसवल- स्तदा प्रथ्वीभर्तुः प्रभवति धनानामधिङ्तिः। धियः भ्रेणीवाला स्सति सदनान्तः प्रमुदिता ; | प्रतिष्ठा काष्ठान्तं व्रजतिविथ्ुता भूपतिकता ॥* जीवनाय

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चन्द्रफल १२९

अथे- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे बली चन्द्रमा एकाद्शभावमेंदहोतो वहे मनुष्य राजा का धनाध्यश्च ( खजानची ) ( टरैजरी आफिखर ) होता हे । इसके घर में प्रमुदिता ( प्रसन्नमनाः) लक्ष्मी तथा सुन्दरी सी निवास करती हे। इसकी प्रतिष्ठा ८ कीर्तिं) दिगन्तव्यापिनी होती है) ओर इसे राजाः द्रारा प्रसत्व पाप्तहोता हे । रिप्पणी– इस टेक मे प्रसुदिताः विशोषण विदोप महच्च कां है। खक्ष्मी का रुणढ्न्धा होकर स्वयमेव अपनी चंचलख्ता छोड़कर स्थिर हो जाना-एका- दशस्थ चन्द्रका विदोष शुभ फलहे: इसी प्रकार मनोरमाग्रहिणी का प्रसन्नता से “विना किसी निरोध आओौर दवाव के मनुष्य कै नम्रव्यवहार-सदाष्वार्‌ तथा रू-सोटर्यं पर मुग्ध हो कर पतिपरायणा तथा अनन्यमनस्का होकर स्थिरता से रहना गृहस्थ जीवन मे एक विदोषं महत्व रखता है ¦ यह दुभफर एकादच- भावस्थित चन्द्रमा कांदहे। “लाम चन्द्रे लाभयुक्तः प्रगल्भः सुभगो नरः) खमागगामी लजाः प्रतापी भाग्यवान्‌ भ्वेत्‌ || ल्गल्मीनाय अथं–यदि जन्मल्न से एकादशस्थान मे चन्द्रमा होतो मनुष्य को लाम होता रहता है | यह मनुष्य बोल्ने मे नभय तथा चतुर होता है । यह सुन्दर, श्रेष्ट मागं पर चलनेवाला, व्जारील, प्रतापी ओर भाग्यवान्‌ होता ह । मित्राथयुक्‌ कीर्तिगुणेख्पेतो मोगी सुयानो भवभावगेन्दौः |> जरदेद अथ-यदि चन्द्रमा जन्मल्यसे एकाददभावमे होतो मनुष्य मितोँसे जौर धन से युक्त होता है । यह यदासी आर गुणी होता है । इसे कई प्रकार के भोग भोगने को प्राप्त होते दहं। इसके पास सवारीके लिए सुन्दर-सुन्दर वाहन-घोड़।-गाडी-मोटर आदि होते है| “ख्यातो मावगुणान्ितो भवगते | आचावंतरराहमिहिर अ्थ–यदि एकादशमाव से चन्द्रमादहोतो मनुष्य सर्वत्र प्रसिद्ध होता है ओर इसे सभी तरह का लाम प्राप्त होता है। सन्तुष्टश्च विषादशीक धनिको लकाभस्थिते शीतगौ |” अथे–यदि चन्द्र खाभमावसेदहोतो मनुष्य यथालाय सन्तुष्टं रहनेवाला होता है । यह विषादखीर ौर धनिक होता है। °ध्मृनस्वी वद्वायुः धन-तनय-भृत्य सह भवे | मत्रे्सर अर्थ-एकादशभाव मे चन्दर हो तो मनुष्य मनस्वी, दीर्घायु, धनी अर पुत्रवान्‌ होता है । इसे नौकर का भी सुख प्राप्त होता है | ““सम्मान नानाविधवाहनातिः कौर्तिंश्च सद्‌भोगरुणोपठन्धिः । प्रसन्नता खम विराजमाने ताराधिराजे मनुजस्य नूनम्‌ ॥ सहेत अथे–एकादशभाव मे चन्द्रमा हो तो मनुष्य को आदरमान भौर कद प्रकार के वाहन-घोड़ा-गाडी-मोर आदि प्राप्त होते दै । यह यशस्वी ओौर

१३० चमस्कारचिन्तामाण का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

कीर्तिमान्‌ होता है । यह गुणी ओर उत्तम-उत्तम भोगों का भोक्ता होता है । यह सदेव प्रसन्नमूतिं रहता हे । ‘ध्वनाधिपश्च खूवर सखी सुबुद्धि पुगरः। रिरीसखुन्‌ विदूषको भवेद्‌ यदा कमभवे | खानखाना अ्थ–यदि चन्द्रमा जन्मल्म्र से एकादश हो तो मनुष्य धनाल्य, विदोष सुन्दर, दाता, बुद्धिमान्‌ मधुरभाषी ओर निर्दोषिकाम करनेवाला होता है । सम्मान नानाधनवाहनास्तिः कीर्तिश्च सद्‌मोगगुणो पन्धिः । प्रसन्नता लाभ विराजमाने ताराधिराजे मनुजस्य नूनम्‌ ॥ > दंडिराज अर्थ-एकाटशस्थ चन्द्रमा हो तो मनुष्य को श्रष्ट-आस्तजनों से आदर यौर मान प्राप्त होता है। इसके पास कड प्रकार की सवारिोँ-घोडा-गाड़ी-मोरर आदि वाहन रहत ईह । अर्थात्‌ इसे वाहनखुख मिलता दै । यह यदास्वी, गुणी अओौर उत्तम-उत्तम भोगों के उपभोग ठेनेवाला होता दै । यह सदैव प्रसन्न रहने वाला प्राणी होता हे । | (शवनवान्‌ बहूसुतभागी बद्रायुः सिष्ट॒अत्यवर्गश्च । इन्दौ भवेत्‌ मनस्वी तीक्ष्णः द्यूरः प्रकाशश्च | कल्ाणवर्मा अथे–यदि चन्द्रमा एकादशभावमें हो तो मनुष्य धनवान्‌ होता है। इसे बहूत से पुत्रों के होने का सोभाग्य मिता है । यह दीर्घायु, उत्तम मित्रों से युक्त, ओर नौकरोवाला होता हं । यह मनस्वी, तेजस्वी शूर ओर विख्यात्‌ होता है । “वहुतर धनभोगी चाय सस्थे शशांके प्रचुरसुखसमेतः दारभ्रव्यादियुक्तः । शिनि शारीरे नीषचपापारिगेहे न भवति सुखभागी -व्याधितोमूट्चेताः ॥|2 ॥ ध मानसाभर अथं-जिस मनुष्य के जन्मल्य् से चन्द्रमा एकादशस्थानमे हो तो इसे कई प्रकारसे धन की प्रापि होती है-ओौर धनोपल्न्ध खखों का मोग प्रास्त होता दै | यह स्री-पुत्र-भृत्य आदि से युक्त होता है अतः सवथा सुखी होता है । यदि एकादराभावस्थित चन्द्रमा दीनवबटी हों, नीचरारि मं, पापग्रह की रारि म तथा श्रुग्रहकी रारिमं हदो तो मनुष्य खखौंसे वंचित रहता है । यह रोगी, मूर्खं ओर अन्ञानी होता हे । ‘भवेन्‌ मानयुक्तो धनैः वाहनैः वा तथा वल््रूप्यादि कन्याप्रना स्यात्‌ । टटा तस्यकीर्तिः भवेद्‌ रोगयोगो यदा चन्द्रमा लाभमावे प्रयातः जागेश्वर अथ–यदि चन्द्रमा एकादशमाव मे हो तो मनुष्य को मान, धन, वाहन, व्र ओर चँदी आदि मूल्यवाच्‌ धातं प्राप्त होतेर्दै। इसे कन्यार्णै अधिक होती हँ । इसकी कीतिं स्थिर रहती है । अर्थात्‌ यह मनुष्य इष्टापूर्तं के इ॒भकर्म करता है भौर प्रजादित के काम करता है जिससे प्रजा के लोग इसका गुणगान करते दै । इस तरह इसका यद्य टिकाऊ होता है । इसे कोई रोगभी होता है।

चन्द्रफकु १३१

“धिख्यातो गुणान्‌ प्राज्ञो भोग लक्ष्मी समन्वितः । लाभस्थानगते चन्द्रे गौरो मानववत्सखः ॥, आचायंगगं

अथे–यदि चन्द्रमा लभस्थान ( एकादशस्थान ) में दो तो मनुष्य परसिद्ध, गुणी, प्राज्ञ, धनी ओौर कद प्रकार के भोगों का भोक्ता होता है । यह गौरवं ओर जनप्रिय होता है । अर्थात्‌ यदह मनुभ्यजाति से प्यार करता है ओौर इसे लाम प्हुचाता है ।

भृगुसूत्र-““बहुश्चुतवान्‌ । पुत्रवान्‌ । उपकारी । पंचाशदृवषे पुत्रण बहु प्रावस्य योगः । गुणाल्यः । भावाधिपे बलहीने बहुधनन्ययः । बल्युते खभवान्‌ । लामे चन्द्रे निक्षेप काभः । श्ुक्रयुतेन नरवाहन योगः । बहू वियवान्‌ । क्षेत्रवान्‌ । अनेक जन रक्षण भाग्यवान्‌ । |

अथे–यदि एकादशभाव मे चन्द्रमा हो तो मनुष्य बहुश्चत होता दै । अर्थात्‌ इस मनुष्य को श्रवण द्वारा बहुत से शास्र का ज्ञान होता दै। ज्ञान प्राति के किए मुख्यसाधन तीन ईै–श्रवण-मनन ओर निदिध्यासन । शाख बहुत है समी का समध्ययन गुरमुख से नदीं हो सकता है श्रवण करने से मनुष्यं . बहुत से रास्नां का ज्ञाता हो सकता है-भतः श्रवण साधन को प्राथमिकता ओर मुख्यता दी गई है ।

इसे पुत्र संतति होती है । यह मनुष्य दृसरों पर॒ उपकार करनेवाला होता है । पचास वषे की आयु मे इसे पु्र-प्राति होती ईै-जिससे यदह पितरों के ण से मुक्तिपाल्ेताहै। यह बहूुगुणी होता है। यदि भावेश नि्ैलदहोतो धन का खर्वं बहुत बद्‌ जाता है। भावेश बल्वान्‌ होतो इसे खभ होता दहै। खभभावमे चन्द्रमाके होने से प्रथ्वौ में गाड़ी हुईै-द्ुपी हई वस्तुं का लभदहोतादहै। भूमिके अन्दर गुप्त रखे हूए स्पए-हीरे, मोती, जवाहरात की प्रापि होती है । इस भाव के चन्द्रके साथ यदिश्ुक्रकी युति द्यो तो मनुष्य को पालकी आदि सवारी का सुख मिक्ता ह । यइ मनुष्य बहुत-सी विद्याथों काज्ञाता होता हे । यह खेती-बाड़ी का स्वामी होता है। यह बहुत से लोगों का पालन करनेवाखा होता है। धनान्य खोग भकाल्पीडित लोगों की र्चा धनदान से, अन्नदान से, यददान से, आश्रयदान से करते है इस तरह इन्दे बहुखोकजनरक्षक होने का सौभाग्य प्रास्त होता है। |

यवनमत–यद धनवान्‌ ; रूपवान्‌ ; उदारित्त, निर्दोष ौर मधुर बोकने वाला होता है । | पि

पथिममत–इसे मित्र बहूत प्रास्त होते है । लोकप्रिय होता है । संसार सुख अच्छा मिख्ता है । सार्वजनिक संस्था में यह नेता होता है।

विचार ओर अनुभव-एकादश्भावस्थित चन्द्रमा कं फट सभी म्न्थ- कारोंने प्रायः श्चुम बतल्ए है केकर जागेश्वर ने भ्रोगबाधाः अञ्यभ फ भी बतलाया है । अच्छे फट पुरषराशिथों मेँ भौर अद्भफकस्री राधियों के है ।

१३२ चमर्कारचिन्तामणि का तुरखुनादमक स्वाध्याय

एकादश षवन्द्र में दिन को -जन्म हो तो मनुष्य धनी, यरास्वी, खोकरंजकः सार्वजनिक कायकुरल होता दे |

स्वीरारि में हो तो मनष्य सार्वजनिक काम भी करता रहता है ओौर पहिला व्यवसाय भी चादू रहता इई ।

पुरष्रररि में हो तो मनुष्य पिदा व्यवसाय छोड देता दै ओर सावंजनिक कार्य करता हे।

एकादशस्य चन्द्रसे पुच्र-भाई वा बहिन, इनमंसे कोई एक चासदाता, दुराचारी वा निरुपयोगी होता दहै । अथवा किसी व्यंग के कारण उते सारा जीवनं घरमे ही व्यतीत करना पडता है । एकादश चन्द्र हो तो संतति-भाई-बहिने बहुत नही हाती; अधिक से अधिक संख्या चार्पोच तक होती हे । दाद्‌ दाभावस्थित चन्द्रफल-

“दाशी द्वादरो शात्रुने्ादिविता वि्चिव्या सदा सदृव्ययो मंगलेन ।

पितृव्यादि माच्रादितोऽन्तर्विषादो न चाप्नोति कामं प्रियाद्पप्रियत्वम्‌? ५२॥

अन्वयः-शशी द्वादरो ( स्यात्‌ ) ( तदा ) शरुनेत्रादि चिता विचिन्त्या, ( तस्य ) सदा मंगलेन सदूव्ययः स्थात्‌, पिव्रव्यादि माच्रादितः अन्तः विषादः ( ज्ञेयः ) प्रियाऽस्पप्रियत्वं ( स्यात्‌ ) कामं नच आप्नोति ॥ १२॥

सं–टी<-द्रादशे शशी चेत्‌ शत्रुतोभयं, नेत्रादेः विकारेण चिन्ता विचविव्या ज्ञेया । मगटेन विवाहादि कार्येण खटा दशत्यरयः रोभने कुटम्बादो द्रव्यत्वागः, पितव्यादरि मात्रादितः पित्रव्यस्य पिव्रश्राठु अदि शब्दात्‌ तत्सुतवनतादिम्यः, ` मातुः सकाशात्‌ आदि शब्दात्‌ तत्‌ पित्रूकुल्जभ्यः च अंतः मनसि विषादः दुःखं, प्रियाऽस्पप्रियत्वं सवत्पसं तोषत्वं तेषां तेषु विरागित्वं भवेत्‌ इतिरोषः च पुनः मनोऽभिक्षितं न प्राप्नोति इत्यथः ॥ १२ ॥ -

अर्थ जिस मनुष्य के जन्मलग्न से द्वादशस्थान में चन्द्रमा दहो तो उसे रात्रं से भय भौर नेचरादि के विकार से पीड़ा रहती हे । यह मगल्कार्यो में अर्थात्‌ विवाह आदि श्च॒म कामों मेँ जपने धन का खच करता हे | इस तरह यह मनुष्य सदूव्ययी होता हे । |

इसका मन चाषा व्यादि मामा यादि से मलिनि रहता हे । अर्थात्‌ पिता के भाई से ओर पिव्रष्यके पुत्र ओौर स्त्रीसे इसका प्रेम नदीं होता दे अपितु परस्पर वैमनस्य रहता है । इसी तरह माता से ओौरमाताकेपिताके कुरमें उन्न मामा आदि से मी मनमुटाव रहता है । स्वयां से इसका विदोप प्रेम नहीं होता हे । प्रायः इसके मनोरथ पूणं नहीं होते ॥ ६२॥

रिप्पणी–रीकाकार ने “शोभने कुडम्बादौ द्रव्यव्यागः यह अ५ सद्‌व्ययो मंगलेन का करिया दहै। किन्तु यह अथं संकुचित है, व्यापक नहीं हे । मंगर्मय विवाहादि पर अर अपने कुटुम्बियोँ के भरण-पोघ्रण पर व्यय करना ही सद्व्यय नदीं रै, इसके अतिरिक्त इषटपूतं पर खन्वं करना, अथात्‌ कँआ-वावली-तालाज

चन्द्रफर १३३

धर्मशाला-मन्दिरनिर्माण आदि पर खचं करना भी सदव्यय है । विद्यादान के किए स्कूल खोलना, कालिज खोरूना, गरी को रोदी-रोजगार देने के किण दस्तकासी के काम चलाना आदि मी सदव्यय मेँ अन्तभूत होते ई । एेसा धनन्यय जो प्रजाहित के छिरः किया जावे, सदृन्यय ही मानना दोगा । अतः (सदृम्ययः° का व्यापक अथं करना चाहिए । | दीकाकार के मत मे “पियाऽस्पप्रियत्वेः का ‘स्वत्परुतोषत्वः (तेषु विरागित्वंः एेखा अर्थं है । यह अर्धं कुछ संतोषजनक नहीं है । अपनी प्रिया मं अपनी पल्नीमं थोड़ाप्रेम१ क्योक्या इसका कारण रोगवदया दे हदौर्व॑स्य दै १ अथवा वीर्यारपल, पुस्त्वह्यास दै, अथवा ` षंडत्व है १ टीकराकार ने इन बातों पर को विवार प्रकर नदीं कियारै। संभव है इनमें से को$ एक कारण हो जिससे मनुष्य गाटाद्िगनादि न करता हो, रतिसंग में सघ वीर्खपात होने से भिया को सन्तुष्टन कर सक्ता ददो भौर इसीदटिए प्रिया काप्यारान दहो, ओौर इसकी प्रिया इस अतध्णासे देखतीदहो। प्रियायाः अत्पपियत्वम्‌? प्रियायां अस्पप्रियत्दः “प्रियासु अस्पगप्रियलेः एेसे कड एक समास हो सकते है । तुखना- “व्ययस्थाने याते जनुषि रजनौशे अनिमतां रिपोर्मीतिधिंत्यनयनयुगञे रोगपयी । विधित्या यज्ञादौ व्ययष्वयं उतातं पिवरकुरात्‌ तथा मातुर्व्ात्‌ प्रभवति विषादश्च सुतात्‌ ॥ भीववाथ अर्थ–जिस मनुष्य के जन्मसखमय मे जन्मलग्न से चन्द्रमा व्ययभाव में (दवादशस्थान मे) हो तो इसे शच्रुभय, चिन्ता, नेत्र मे अनेक प्रकार के रोग, यज्ञादि कार्यो में अधिक व्यय, पिन्रकुर, मावर से व्याकुलता ओौर रति (स्ती- सहवास अौर स्त्रीसंग ) से खेद प्रास्त होता है । रिष्पणी-यज्ञादि कार्यो मे अधिक व्यय उचित भमी दहै आौर सद्ब्यय की कोटिमेंदै। नि ‘रति से खेदः का दोना श्ृङ्खारशाख्र के अनुकर नही है । शृज्ञाररस के अनभवी सद्दय विषयानन्द को ब्रह्मानन्द सहोदर मानते ह । जो छोग शक्तिशाली नदय होते वीर्यवान्‌ यौर रतियोग विष्वक्षण नहीं होते उन्है रति से मानसिक तथा दैहिक खेद ओर विष्राद होना आवद्यक है ओौर इन वीर्यंहीन पुरुषों को तो प्रौटास््री भीति कारक होती दहै। ““्यये चन्द्रे पापबुद्धिः बहूभक्षी पराजितः । कुलाधमो मय्यपश्च विकारी जातको भवेत्‌, ॥ काशौनाथ अर्थ– जिसके जन्मरुन से द्वादशस्थान मे चन्द्रमादहोतो मनुष्य पाप करने मे अपनी क्छ ल्ड़ातां है । इसे भूख बहुत होती है ओौर यह भोजन भह होता है । यदह अपने शत्रुओं से पराजित होता है। यह अपने कुल में नीचब्ृ्ति-मनुष्य होता है । यह शराब पीनेवाखा अतएव रोगी होता है ।

१३४७ चमत्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

^स्हिस््ोदीनः सरिपुः सुप्सु वेषम्यज्त्‌ स्वत्पटग्‌ इन्दुरिः फे ॥ जयदेव अथै–यदि चन्द्रमा द्वादशमभावगत दो तो मनुष्य जीवदिसक ओर ऋरूर होता है । इसे शत्रुओं से भव रहता है । अपने मित्रों से इसका व्यवहार आओौर बरताव अच्छा नहीं होता है । यह थोड़ी नजुरवाला होता हे । “व्यये द्ेष्यो दुःखी शिनि परिभूतोऽल्सतमः ॥* संतरेश्वर अर्थ- व्ययभाव में चन्द्रमा हो तो इस मनुष्य से छोग द्वेष करते ई । यह दुःखी, आलसी तथा अपमानित होता दै | ्चन्दरेऽत्य जातेतुविदे रशवासी ॥?’ वैद्यनाथ अथे–यदि चन्द्रमा द्वादश हो तो मनुष्य विदेश मेँ निवास करता है | “टीनत्वं वै चाख्यीठेन मित्रे कव्यं स्यात्‌ नेत्रयोः राच्रुबद्धिः । रोषावेशः पूरषाणां विरोषात्‌ पीयूषांौ द्वादरो वेदमनीह ॥* । दुंडिराज अर्थ–जिसके द्वादशस्थान मे चन्द्रमा हो तो मन॒ष्य सचरितव्रवान्‌ नहीं होता है । यह मित्रहीन, नेत्ररोगी तथा शतुबरद्धिवाख होता दै। यह सदा क्रोधावेदा में रहता हे । “्रेष्यः पतितः क्षुद्रोनयनसगातोऽखुसोभवेद्‌ विकलः न्द्रे तथान्यजातो द्वादरागे नित्यपरिभूतः ॥ कल्याणवर्मा अर्थ- जिसके द्रादशमाव मेँ चन्द्रमा हो तो मनुष्य पतित, क्षुद्र, नेजयेग पीडित तथा आच्छी होतादहै। यह व्याकुल रहताहे। खोग इससे देष करते ई । यदह ॒प्रजात ( जारजात ) होता है। यह समाज मे अपमानित होता दै । ८व्ययनिलयनिवेरोरात्रिनायेक्रशांगः सततमिह स रोगी करोधनोनि्ध॑नश्च । निजवुधगुशगेहे दांतिकः त्यागशीला कशतनु खुखभोगी नीचसंगौ सदेव ||” मानसागर अर्थ- जिस मनुष्य के जन्मख्न से द्वादशस्थान मेँ च्वन्द्रमा हो तो यह श ओर दुर्य शरीर होता दै । यह रोगी-कोधी ओर निधन दोता है । यदि दसमात का चन्द्रमा स्वण्दी दो, अथवा बुधवा गुरु कौ राशिमंदोतो मनष्य दान्तिक ८ इन्द्रियदमन कृरनेवाखा ) दानी; पतला ( छरहरा ) शरीर सौर युख॒भोगनेवाला होता है । किन्तु यह सदेव नीचदृत्तिवारे मनुष्यों कौ संगति में रहनेवाटा होता है । | ८वियोगी सदा ष्वार्शीलेनित्रेः भवेद्‌ वैकटो नेत्ररोगी कइशांगः । स्वथं क्षीणवीरयः सदाक्चीण चन्द्रे भवेद्‌ रिःफगे पूणता चेत्‌ सुश्ीकः जागेश्वर अर्थै–यदि चन्द्रमा द्वादशस्थान मे होतो पतिपली म अकारणदही करनार वियोग होता है । इसका शील सच्छा होता है। इसके मित्र बहुत

‘चन्द्रफड . १३२५५

नहीं होते । यद व्याकुल रहता है । इसे नेव-पीडा रहती है । इसका शरीर क्षीण ओौर पतला होता दै । इस भाव का चन्द्र यदि दीनवखी हो तो मनुष्य

का वीये कमजोर होता है। चन्द्रमा पूण (बली) दोतो मनुष्य का आचरण अच्छा होता है ।

“काणं शारी 112 ` वादरायण

  • 9 [३ । मख ््‌ अथं- द्वादश चन्द्र हो तो मनुष्य एक ओंँख से काणा होता है । “व्यये दादिनि कापंण्यमविश्वासः पदे पदे ।।> अचार्यगगं

अ्थे- चन्द्रमा द्वादशमावमें दो तो मनुष्य कृपण ( कंजस ) होता दै । लोग इसपर विश्वास नदीं करते ओर इसे सदैव मदेह-टण्टि से देखते है ।

“्रग्यक्षयं क्षुधाऽसव्पव्वं नेचरुक्‌कलदहोग्हे ।। ज्योतिषकल्पतरू

अथं- जिसके ष्वन्द्रमा द्वादशस्थानमे होतो मनष्यके धन काना होता दै। इसे मंदाम्नि रहतौ है ओौर भूख कम होती है । इसे नेत्ररोग होते

. है । इसके धर मे लडाडई-्गड़ा होता रहता है ।

श्गुसूत्र–““दुभोजनः । दुष्पा्व्ययः । कोपोद्‌भवव्यसनसमृद्धिमान्‌ । यन्न- हीनः । श्भयुते विद्वान्‌ । दयावान्‌ । पापशत्नुयुतेपापरोकः । दुभमिनयुते ्े्लोकवान्‌ । अर्थ- जिस मनुष्य के जन्मलग्न से द्वादशस्थान मे चन्द्रमा होतो मत्य को अच्छा भोजन नहीं मिरूता है । यह मनुष्य करुपा् के लिए धन का व्यय करता है । इस तरह असद्व्ययी होता है । कोध-कलद आर व्यसनों की वटो्री होती है । इसके घर मे खाने के टछिए अन्न नदीं होता ₹ै। य॒दि इस- भाव का चन्द्र श्चुभ सम्बन्ध में हो तो मनुष्य विद्वान्‌ ओर दयाङ होता है। इस भाव के ष्वन्द्रमा का सम्बन्ध यदि पापग्रह के साथ अथवा शात्नुग्रह के साथ दहो तो मनुष्य मृत्यु के अनन्तर नरकगामी होता है । इस भाव के चन्द्रमा के साथ यदि श्युमग्रहवा मिवग्रह का सम्बन्ध दो तो मनुष्य देहावसान के बाद्‌ स्वर्गलोकगामी होता हे । टिप्पणी–ज्योतिश्याल् से केवल संसारम जीवनयात्रा काही विचार. नदीं किया जाता है अपितु मरणानन्तर स्वगं-नरक का विवार मी किथा जाता हे । स्मरण रहे दादरास्थान को मोक्षस्थान माना गया है]. ““हीनत्वं वै चारुशीलेन मित्रैः वैकव्ये स्थान्नेत्रयोः शनुबदधिः । रोषावेशः परुषाणां विशेषात्‌ पीयूषांो द्वादरोवेदमनीदह ॥ > महेशा अथे- जिसके जन्मल्य से द्वादशस्थान में चन्द्रमा दो तो मनुष्य श्चुमाचरण- हीन द्योता है। इसके मित्र अच्छे नहीं होते ै। इसे नेजपीड़ा रहती है । इसके रात्रुओं की द्धि होती है । यह मनुष्य विरोषतः क्रोधावेश में रहता है अथात्‌ यह मनुष्य बहुत क्रोधी होता है । ““उययाल्ये कमर्थदा मवेत्‌ किरी ह चरमखन्‌ । विरोधनश्च खिद्मनाप्यकीर्तिमान्‌ हि उष्रधः॥ खानखाना

१३६ चमरकारचिन्तामेणि का तुख्नात्मक स्वाध्याय

अर्थ- यदि चन्द्रमा जन्मलग्न से द्वादश्स्थान मंदहोतो इसे नेत्ररोग होते है । लोगों से इसका विरोध रहता है । यह अपने धन का अपरभ्यय करता हे। यह निन्दित कर्मं करता है अतः खोग इसकी निन्दा करते दै । यह दु्टस्वभाव वाला मनुष्य होता हे।

यवनसत–इसे नेत्ररोग होते हँ ! वह विरोधप्रिव, बहुत ख्चला, दुष्ट स्वभाव का ओर कीर्तिहीन हातादै। इसे ४^वै वधम पानीसे अपघात होता है ।

पाश्चात्यमत-यह चन्द्र त्रिक वामकरमेंहो तो मनुष्य वटमार होता दे | दूसरी रारियोंमेदोतो विजयी, चुखी तथा धनी हाता हे | उभ सम्बन्ध मं यह च्होतो प्रषाससे खभ होता दहै ।

मेष का चन्द्र हो तो मनुष्यं चञ्चल्ब्रत्ति का, तुमच्छड, रूपवान्‌ ओर युद्धि मान्‌ होता हे ।

वृश्चिक वामकरयेंदहोतः धनहीन होता दहै। अन्य रारियोंमंदहो तो धनवान्‌ यर विद्वान्‌ होता ई ।

बल्वान्‌ चन्द्र से खेती से खाभहोता दहै । तथा आमरणांत सुख होता ककं ओौर मीनराि में पुत्र सन्तान बहत होती दै । उन परप्रेममी होता है।

सद्धा ओर साहस में रुचि होती है। `

राजयथोगी, ज्ञानी, मात्रिक वा शाख्न्ञ हो सकता दहै। खियोँका उपभोग अच्छा मिलता है

विचार ओर अनुभव- पायः द्वादशभावगत चन्द्रमा के फठ अश्चुम दै-ये अशमफक स्रीरारियोंँ मे अनुभव मँ आते है । पुरुषराशियोंँ मे छभफल प्राप्त होते ह।

बृषरारि मे चन्द्र दहोतोचाचाके निर्वा होकर मत्य पाने पर उसकी सम्पत्ति प्राप्त होने की सम्भावना होती हं ।

द्विभार्यायोग होता दै-अथवा पत्नी से सम्बन्ध अच्छे नहीं रहते । अथवा मनुष्य स्वयं गह प्रपञ्च करने के अयोग्य होता है ।

यदह चन्द्र ख्रीराशिमें हो, अथवा छे स्थानमं होतो मनुष्य मरण तक अपना कजं चुका नहीं सकता है ।

घषर न्द्रमा के लोग चौर व्रत्तिवाछे हो सकते दहै मतप्रव अच्छे डिरैक्टिव भीदहो सकते है|

दादश चन्द्र कन्यारारिकादहोतो पिता कर्जा छोडकर मर जाता दै ओौर यह ऋण मन्ध को देना पडता है ।

मकर का चन्द्रमा हो तो मनुष्य को बहुत धन देता दै। किन्तु मनुष्य भारी ज्पण होता हं।

कक, बृश्चिक ओौर मीन मे यह चन्द्रमा हो तो सरकारी नौकर को पेन्शन बहुत दिनों तक नहीं मिल्ती ह |

भोमफर १३२३७

मिथन, वला ओर बुम्भ में चन्द्र दो तो बरताव व्यवस्थित होता है । रपः का सदुपयोग रोता है । मनुष्य विद्वान्‌ तो दोता है किन्तु प्रभावशाली नीं होत है गण. अथ भौमस्य लम्रादि द्ादशभाव फर्म धविलग्ने कुजे दण्डलोहाभ्निभोतिस्तपेन्‌ मानसं केसरी किं द्वितीयः । कलत्रादिधातः दिरोनेन्रषीडा विपाकेफलानां सदेवोपसगेः” ॥ १॥ अन्वयः–कुजे विलये ( स्थिते ) दण्डलोदहाधनिमीतिः ( स्यात्‌ ) ( तस्य ) मानसं तपेत्‌, कल्नादिघातः, शिरोने्रपीडा; फलानांविपाके सदा एव उपसगंः (स्यात्‌) (खष्) किं द्वितीयः केसरी स्यात्‌ ॥ १॥ . सं° दी०-अथ भौमस्य तन्वादि भाव फलम्‌–कुजे-इति-विलप्रे जे भोमे सति दण्डल्योहामिभीतिः, कलत्रादिषातः, ख्रीपुत्रनाशः, शिरोनेत्रपीड़ा; फलानां कार्यसिद्धिः पाके परिणामे सदैव प्रतिकाय उपसर्गः विघ्नः भवेत्‌ इति अग्रेण अन्वयः, अतएव मानसं तपेत्‌ तथापि द्वितीयः केसरी किम्‌, सिंहवद्‌ उद्यमी स्यादितिभावः ॥ २ ॥ अथे–यदि किसी जातक के जन्मल्य में मङ्गल हो तो उसे लाटी, लोहा ( हथकड़ी ) ओर अभ्रि से भय होता दै। उसको मानस संताप होता है। उसकी खरी आदि प्रियवन्धुभं का नाश अर्थात्‌ मृदु होती है–उसे शिर सौर नेत्रपीडा द्योती है। फल विपाक मे अर्थात्‌ कायंतिद्धि के समय सदा विन्न पड़ जाते ईै-अर्थात्‌ कार्यसिद्धि नदीं होती । यदह जातकं उद्यमतथा साहसम दूसरा सिहदहीक्योंनदहो तोमी क्ष्टही पाता है अथात्‌ भसफल मनोरथ दी रहता दै ॥ १॥ तुखूनाः–“्धरापुत्रे ल्पे गतवति यदा जन्मसमये प्रहारो लौहास्राद नठ्शरदण्डादपि भयम्‌ ॥ विना्योभार्यायाः शिरसि नयनेरोगपरली मरतापस्तस्यापि प्रभवति मगेद्रेण च स्मः॥. जीवनाय अभै– यदि जन्मल्म्में मङ्गल हो तो जातक के ऊपर छौहाख्र का प्रहार होता है । उसे च्चि-बाण-खटासे भी प्रहारकामयहोताहे। खरीक मृच्यु होती है । शिरपीड़ा तथा नेतरा मेरोग दाता है, किन्तु जातक धिह के समान पराक्रमी होता है । धमौमे लने कुरूपश्च रोगी बन्धु विवजितः । असत्यवादी निद्र॑व्यो जायते परदारकः |” काश्षिनाय अथे- मङ्गल ल्म्रमे पडा हो तो जातक कुरूपः रोगी, बन्धुहीन, मिथ्या भाषी, धनदहीन तथा परल्लीगामी होता दै । (अति मति भ्रमतां च केवरं क्षतयुतं बहुसाहसमुग्रताम्‌ ।

तनुभृतां करुते तनुसंस्थितोऽवनिसुतो गमनागमनानि ष ॥ महेश

१३८ चमत्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

अर्थ- जिस जातक के जन्मल्यमं भौम हो तो वह अत्यन्त बुद्धि विभ्रम से दुभ्खी होता दै-इसकी देहम घाव यौर तरण होतेह । यह उग्रहटवाला होता है। यह इधर-उधर भटकता ओौर घूमता-फिरता है-ए कत्र किसी स्थान मे स्थायी न रहने से इसका चित्त परेशान रहता हे | “भ्रांत धीः क्षततनुः गमागमौ साहसी च कुपितः तनौ कुजे | जयदेव अर्थ- जिस जातक के जन्मलय्र म मङ्गल पडता है वह भ्रमातसमक बुद्धि- वाखा होता है-रण मे उसका शरीर क्चत-विक्षत होता है-वह घुमक््ड होता दै- निर्भव ओर क्रोधी होता दै । “श्षततनुः अतिक्रूरः, अल्पायुः तनौ घन साहसी ॥* भन्त्रेश्वर अ्थ–यदि ल्य में मङ्गलो तो जातक अतिक्रर ओौर अतिसादसी होता हे किन्तु एेसा जातक अत्पायुदह्ोता दै ओर उसके शरीरमें ष्वोट लगती है। “लग्ने कुजे क्चततनुः 1” वराहुमि्रष्चायः । ` अ्थ-मङ्गल यदि ल्य्ममावमेदहदोतो जातक का शरीर रण में छिन-मिन्न होता हे . “क्रूरः साहसिकोऽयनोति चपलो रोगी कुजे खग्नगे ॥> वेयनाथ अथ-मङ्गलत््यमेंदोतो जातकः क्र, साहसी, घुमच्छड;, अतिष्वपर ओौर रोगी होता है । | शै “क्रः साहसनिरतः स्तन्धोऽस्पायुः स्वमानशौययुतः । „ क्षतगात्रः सुशरीरो वक्रे ल्याभ्रिते वपल: | कल्याणवर्मा अथ–मङ्गलल्यरमेंदहो तो जातक कूर; साहसी, मृटु; अस्पायु, सभि- मानी, शूर विक्षतशरीर होता है। यदि मङ्गल वक्री दहो तो सुन्दर रूपवाला होता ओर यदि व्माभित हो तो चञ्च होता है| ““अतिमति भ्रमतां च कलेवरं क्चतयुतं बवहुसाहससुग्रताम्‌ । तनुभ्तां कुरुते तनु संस्थितोऽवनिसुतो गमनागमनानि च ॥7> दुंहिराज अथे- जिसके ट्य मे मङ्धल चैटा दो तो जातक अव्यन्त मति विभ्रमवाला, चिहयुक्त देहवाल्म, हटी ओर भ्रमणखील होता है । उद्रदरनयोगी शरवे टद्यमौमे पिश्चनमतिकरशांगः पापङ्त्‌ कृष्णरूपः । भवति ष्पलचित्तो नीचसेवी कुचैटो सकल सुखविद्ीनः सर्वदा पापशीलः ॥”° मानसागर अथ–ल्खमें यदि मङ्गल्होतो वास्यावस्था मे उदरके तथा दोतिों के रोग होतेह । जातक चुराल्खोर, ऊरदेह, पापी; कृष्णवर्ण, चञ्चल, नीच सहवासी; मेटेवस्र धारण करनेवाखा, स्व॑था सुखहीन आर पापकमा होता है । “यदि भवति मिरीखो ल्यगः खिद्मनाक्स्याद्‌ खधिरप्रमव रोगैः पीडितो मुपकिसश्च ॥ सकल्जनविरोधी हासिंो लागरोना जनुषि खलं वियोगी दारपुतरमेशः ॥ खानखाना

भोमफर १३९

अर्थ-यदि मङ्गल ल्य मेदो तो जातक अ्गड़ाद््‌, रक्तविकार के रोगों से पीडित, बेकार चैठनेवाला, सबका विरोधो, शरीर से दुब॑रु मौर सख्नी-पु्ोंसे हमेदरा अलग रहनेवाखा होता है । ‘गुद्रोगी दखथं नाभौ कण्ड्‌ कुष्टादिनांकिंतः । मध्येदेदो भवेद्व्य॑गः सवाच्यो ल्ग्रगे कुजे ॥ तनुस्थानस्थितेभौमे दष्टिभिवाविरोकिते । लोहारमादि कतापीडा क्रोधोऽत्यन्तस्तनौ मवेत्‌ ॥ रक्तपीडा शिश्ुव्वे च वातरक्तं च जायते। मस्तके कंटमध्ये षच गुद्येवापि णेभवेत्‌ ॥ गगं अर्थ-गुदरोग; नामि मे खुजली वा कटु, कमरं में व्यज्ग; लोहा; पत्थर आदि से कष्ट, बहुत, क्रोधी वष्वपन में रक्तविकार, वातरोग; मस्तक में वा गुह्य भागम त्रण; ये फल मङ्गल के लप्मभावके हे। श्रगुसूत्र-देडे तरणे भवति । दटगात्रः, चौरबुभूषकः, ब्रहन्नामिः, र्त पाणिः, चरः, बल्वान्‌ › मृख॑ः, कोपवान्‌ , सभा न शौयेःः धनवाच्‌ › चापल्यवान्‌ चिच्ररोेगी, कोधी, दुर्जनः । स्वोच्चे स्वक्षेत्रे आरोग्यं, दटगाजवान्‌; राजसन्मान कीर्तिः । दीर्घायुः । पापशत्नुयुते अस्पायुः स्वस्पपुत्रवान्‌, वातद्यूलादिरोगः, दुर्मुखः । स्वोच्चे लमरक्षं धनवान्‌ › विच्यावान्‌ःनेत्र॒विल्मसवान्‌ । तत्र पापयुते पाप कषेत्रे पापटष्टियुते ने्रयेगः । | अर्थ–जन्मल्यमें मङ्गल दहो तो शरीरम तरण होता है। शरीरदट होता ई । पोर, अच्छे होने की इच्छा बाख होता है । बड़ी नामि-खार हाथ, तेजस्वी, बी, मूर्खं, क्रोधी, समा मेँ निब, धनौ चञ्चल, विचित्र रोगग्रस्त, भर दुष्ट होता है । मङ्गल उच्चकादहोवा स्वण्हीहो तो नीरोग, पुष्टदेहः राज्य मे सत्कार पानेवाला भौर यरास्वी होता है। तथा दीर्घायु होता है। पराप्रहके साथ युतिदहोवा शतुग्रह के साथ युतिदहोतो अल्पायु होता दहे। थोड़ी सन्तान, वातश्चुलादि रोग भौर सुख देखने मे खरा होता है । यदि मङ्गल मकर का दो तो धनाढ्य, विय्ावान्‌ ; नेन से पणं सुखी होता है-मङ्खल के साथ यदि पापग्रहदहो वा रातुख्दमे स्थितिहो वा पापप्रहोंकी दृष्टिहो तो जातकं नेचरयेगी होता हे । | यवनमत- त्नं से ओर अपने धमं के रोगों से भी खूब क्ञगड़ता दे । क्रोधी ओर विरोधप्रिय, करा, सख्रीदीन, पुत्रहीन, बहुत घूमनेवाला । पाश्चाव्यमत-ैर्यवान्‌, निरंकुश, साहसी, दुराग्रही, उत्कर्षं के लिए अति इच्छुक, रोभी;, वितंडावादी, उदार, क्रोधी, अतिअभिमानी । मेषः सिंह तथा धनु मे बहुत करूर अौर साहसी । मिथुन, दला तथा कुम मे, प्रवासी, भाग्यहीन । वृष, कन्या तथा मकर मे, लोभी, स्वार्थौ, दीषदवेषी, परिय, गड्‌, शरान । कर्व, बृधिक तथा मीन में नाविक; पियक्ड, चेनी; म्यभिचारी ।

१४० चमत्कारचिन्तामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

प्टविवेक- मंगर रुक्ष, उष्ण॒ तथा दाहक है । अतएव ववो को गर्भस्थ अवस्था से ही उष्णता का अनुभव होता है । चेष्वक, फोडे-फुन्सी आदि होते है । अतएव वचपन की अवस्था पर मंग का अधिकार टहै। जिस वच्चे की कुःडटी मे मंगल प्रबल हो उसेये रोग जल्दी होतेर्है। यदि मंगल दुक्छदहोतो इनसे विरोष तकलीफ नहींदहोती। च्यम मगलदहोवा नहो, कोई खास फक नहीं पड़ता ।

मेष, सिह वा धनुमें मंगक्होतो शिरमे दर्द ओर रक्तपीडा का अन- भव होता है । मिथुन; ठ, कुम मं यह अनुभव कम आता हे | कारिनाथ के फलय का अनुभव पुरुषराशियों काहे। स््रीघात आदि फक का अनुभव कक, सिंह, मीन क्रा छोड़कर अन्यराशियों मेँ आता है । मिथुन; ठट; कुम का मंगल ह तो कायसिद्धिके समय विध्न की उपस्थिति; यह फर अनुभव में आता है ।

“सिह समान पराक्रमी होना? । इस फट का अनुभव मेष, सिह, धनु-कर्कं ओर वृश्चिक मे आता है । क्रोधी, व्यसनी, तीचे पदार्थं -का प्यारा होना, आग से जना, पित्तरोगः, ये फल पुरुषरारिगत लग्नस्थ मंगल के है । “स्वधमं में ्द्धाकान होना, सुधारक मतों का पक्षपात करना? इन फटों का अनुभव मेषः सिंहः, धनु, कक, व्रधिक, एवं मीनरारि मेँ होगा । “स्वभाव की उग्रता? यह फट मषः सिह तथा धनु राशि का है | “बहुत क्रूर ओर अल्पायुः इस फल का अनुभव तव होगा जवर मंगलके साथ रवि भौर चन्द्र का सम्बन्ध द्रोगा |

अतीव बुद्धिमत्ता, भ्रमण, व्यभिचार, च्ियोंके साथ सहवास के विषयमे गम्यागम्य का विवार न करना”, इस फल का अनुभव मेष, सिह, धनु तथा मिथ॒न-ठल-कुम राशियों मे होगा। “शायर हट्ाकद्य, बहुत खून का होना, इस फठ का अनुभव मेष, शिंह तथा धनुमें होगा, कुछ कममात्रा में वष; कन्या तथा मकर में होगा ।

` व्वपन मं उद्ररोग तथा दन्तरोग का होना? यह फर पुरुषराशि का हं । ^स्तन्ध होना, स्वाभिमानी, पराक्रमी तथा सुन्दर होना” यदह फल खीरारि काहे । शुद्धि भ्रम होना, मेष, वृध्रिकवा मकरराशि का मंगल्ल्ययमे, क्न्द्रमं वात्रिकोणमेंहोतो जातक का अनिष्ट नहीं होताहै। इस फटका अनुभव समी राशियों म जा सकता है । दुष्ट होना, विचारद्ूल्य होना?” । यह फल वष्र; कन्या, मकर का है। गर्वीलापन), रक्तविकार, यह फर वष, कन्या; मकर म, गुव्मरोग, ष्टीहा रोग, यदह फट कक; वृश्चिक; मीन मं अनुभूत होगा गोरवण, दृद्दारीर, यह फल मेष्र, सिंह, धनु मँ अनुभव में आ सकता है ।

` राजसम्मानः” यह फर मेष, क्क, सिंह, मीन मे अनुभव में आता है । यवनमत का अनुभव मेष; धनु, प्रिथुन, वला, कुम मं ठीक नेठता हें ।

विदोष विचार ओर अनुभव– जिस जातक के कुग्नभाव मे मंगल होता हे वह सभी व्यवसायों के प्रति आक्र होता है, किन्त किसी एक व्यवसाय

भोमफर १४१

कोभीरटीक नहीं कर सकता-एकसाथ ही समी व्यवसाय करने की प्रवृत्ति अवद्य होती है । रेसी स्थिति र्वे वध तक बरात्रर चरती रहती हे । तद नन्तर किसी एक व्यवसाय मे स्थिरता आती है । इसको यह मिथ्या अभिमान होता दै कि यह व्यवसाय मे अव्यत रक है मौर दूसरे निरेमूखं है । योग्यता के अभावमें भी दूसरों पर प्रभाव डालने का यल्ल करता हे ।

डाक्य्यों की कुंडली मे ल््यस्थ मंगल हो तो रिक्चाकाल में सजंरी को व्रिरोष ध्यान दिया जाता है। अनुभव के समयमे आपरेशन का मौका बहुत कम मिलता है । लघ्नस्थ मंग डाक्य्रोकी मोँति वकीलों कं लिए विदरोष अच्छा नहीं है । फोजदारी सुकदमे मिते है अवद्य, परन्तु धनप्रापति चिरोष नहीं होती । अदाख्त मे मभाव विदोप्र अवद्य पड़ता है, धनाभाव में विरोष उपयोग नदीं होता है । खग्नस्थक मंगल मोटर, हवाई जहाज, रेक्वे ईंजिन इ्‌ाइवरो क लिए विशेषतया अच्छा है । लोहार, वद्ई-सुनार, मकेनिकल इजीनियर, टनैरः तथा फिटर आदि लोगों के लिए मी यह योग बहुत अच्छा दहै । यदि मंगल वृष, कन्या, मकर मे हो तो उत्तमफल मिता दै । जमीन सर्वैयर का काम भी सच्छा रहता है ।

मकर का मंगल पिताके छिए मारी कष्टकर दै-शारीरिक व्याधिरयो होती ह । मेष, सिह, कक, बृश्चिक, धनु रादियों का लग्नस्य मंगल पुलिसइन्सपेक्टो के लिए अच्छा है । सवित छेनेवाले अफसर के लिए भी यह योग मच्छ है क्योकि इनकी पकड नीं हो सकेमी । परन्तु रसा फल तत्र होता है ज मंगल के साथ शनि का योग होता हे।

छम्नस्थ मंगल यदि कर्करारि काहो तो जातक को अपने परिश्रम से उन्नति तथा धनप्रासि होती दै। सिंहरारिमे होतोदेवयोगसे ही उन्नति तथा धनप्ातति होती है । ठग्नस्थ मंगल यदि दृष, कन्या वा मकरमें दहो तो जातक कृपण ( कंजूस ) होता दै । एक व्यक्ति का भोजन भी इसे अद्य होता है । मिथुन अौर त॒लामें मंग होने से जातक मिटनसार हीता हे । थोड़ा खन मि्नोंकेल्एिभी होता है। यदि ख्नस्थ मंगल ककं, वृश्चिकः कुम तथा मीन ने होता है तो जातक किसी से जस्दी मिच्रता नदीं करता है-ङन्ठ मित्रता हो जाने पर कमी भूता नहीं है । यह जातक पैसे का पौर तथा खा्थौ होता ३-अच्छे बुरे उपायों का विचार नदी करता दै । वष, कन्याः, मकरः कुम में ग्नस्य मंगल होने से जातक का छकाव कुकु चोरी करने कौ तफ रहता है । वच्चो के लिए इसकी दृष्टि बाघक होती है ।

रिप्पणी- मगट्पर्यायनाम–मंगल-मस्वक्र-कूर-माविनेय-कुज-मौम-लोदहि ` तांग-पापी-क्षितिज-अगा रक-ूरनेच-करराक्ष-क्षितिन दन-धरापुत्र-कुसुत-कुःपुत्र-मादेय गोचापुव्र-मूपुच्र-क्ष्मा पु्-मूमिसूल-मेदिनीज-भूसुत-अवनिसुतः नंदन -महीज-क्षोणिपुत्र आषाटामव-आषाटाम-रक्ताग-आंगिरस-रेत~-कोण-स्कंद-कार्तिकेय-षडानन— सुब्रह्मण्य |

१४२ चमत्कारचिन्तामणि का तुखनाव्मक स्वाध्याय

मंगल का स्वरूप

टिप्पणी- मंगर ग्रह का नाम “्छौहितांग, है, क्योकि दूर से देखने वाठे को (लाक दीखता हं । मंगल का नाम कुजः ओौर भौमः मी है-भूमि- पुत्र होने से कुजः ओर प्रश्वीसे प्रथक्‌ हो जाने के कारण भौमः नाम हभ ! चकि कुछ संघं के अनन्तर प्रथ्वी से प्रथकत्व हा था, अतः मंगर लड़ाई अगड़े का (कारकग्रहः मानागयादहै। मंगल कोप्रथिवीका पुत्र कहा गया हे | ग्रहोंके कुदटम्बमें रविप्रध्वीके पिताके स्थान में है ओौर चन्द्र माता के स्थान में हे । इसलिए मंगल मे रवि ओर चन्द्र दोनो के गुणों का कुछ-कुछ मिश्रण पाया जाता है|

मगल के स्वरूप के विषय में शाख्रकायों के मतां का पस्विय तथा विवेष्वन निम्नलिखित है :– ‘ऋूरटक्‌ तरुण मूर्तिं सदारः पैत्तिकः सुचपलः कृशमध्यः ॥? | अचायंवराहमिहिर € [क ¢ „प भ, के # अथ-दुष्टदृष्टिवाख, निव्ययुवा ही प्रतीत हानेवाला, दाता, शरीरम पत्त घातु कौ मात्रा का वाहूुल्य, अस्थिरवचित्त; संकुचित तथा पतला उद्र– अर्थात्‌ पतो कमर एेसा मंगल का स्वरूप दै ।

हस्वः पिंगल्लोचनो दृटृवपुः दीप्तामिकान्तिश्वलो मजावानरणाम्बरः पटतरः च्यूरश्च निष्पन्नवाक्‌ | हिखः कुचितदीतकेरातरुणः पित्तास्कस्तामसेः चडः साहसिकोऽपि घातकुखालः संरक्तगौरः कुजः ॥ कल्याणवमो अथे-छोयाकदः पिंगल्नेत्र, दद्शरीर, प्रज्वलित अग्निस कांतिवाल, चचक मजा से वल्वाला, रक्तवर्ण, कार्यचतुर, शूर, सिद्धांत-वचन कहनेवाला, हिंसकः वषराठे केशोवाला, युवा, पित्तप्रकृति, तमोगुणी, प्रतापी, साहसी, राततुओं के मारने में निपुण, रक्त-गौरथर्ण-एेसा मंगल का स्वरूप है ।

“मध्यङशः कुंचित दीतकेशः कररेक्षणः पैत्तिक उग्रडद्धिः । रक्तम्बरो रक्ततनुः मदीजश्वंडोऽ््युदारस्तरुणोतिपजः ॥।” मंत्रेश्वर अथ मंगल मध्यमे ङश है, अर्थात्‌ इसकी पतली कमर दै । इसके शिर के केश वुघराके भौर चमकीठे है । इसकी दृष्टि मेँ क्रूरता है । स्वभावसे भी उग्रबुद्धि है । यह पित्तप्रधान दै । लाल्वछ् धारण किए हए है यौर इसके शरीर कामौ वणंखारही दहै । यह स्वभाव से प्रचंड है, किन्ठ अति उदार है। दरारीर के मजा माग पर इसका विदोष अधिकार है । ( इसका आश्य यह हआ किं जिसकी जन्मकुंडली म मंग वट्वान्‌ है उसके शरीर की मजा बलवान्‌ होगी ) मंगर तरुण अवस्था का है, ( इसका आशय यह हुआ कि यदि मनुष्य

भमफल १४

की जन्मकुंडली मे बलवान्‌ मंगल च्यमेंपड़ादहै तो वह प्वास वषं की अवस्था मेभी३० वषं का जवान प्रतीत होगा|

कोपा्िनेचः सितरक्तगा्रः पित्तातकश्चंचल बुद्धियुक्तः ।

रशांगयुक तामसबुद्धियुक्तो भौमः प्रतापी रति केटिलोः   व्यंकटशमा

अथै-कोपसे लाल आख, श्वेतरक्तं ८ पाटल ) रंग शरीर, पित्तप्रकृति, पवे्ट्वुद्धि, कृशश्चरीर, तमोगुणी, प्रतापी; कामक्रीडा मे अतिचंचक्-एेसा भोम दहे। ““संरक्त गौरः कुजः ।”’ वद्यत्ताथ अथं-लाल ओौर सफेद मिला हुभा रंग मंगर काहै। “अआरोऽप्युदारोऽपिचपौतने्रः कूरेक्षणोऽसौतरुणात्मवांश्च । सुरक्तगोरश्चपलोऽतिरहिखः पित्तौष्मवान्‌ मञ्ञिकया सुसारः ॥% जयदेव अथं–उदारचित्त, पिगलनेतर, ऋरष्टि, युवा, पाटल्वर्ण, चपल, मलस्य- दीन; हिंसाशील, पित्तप्रञरति, मजा से बली, एेसा मंगल का स्वरूप है ।

(मजासारोरक्तगौरोष््युदारोहिखः शूरः पेत्तिकस्तामसश्च | पवंडः पिगाक्चो युवाऽ्खवंगवंः खर्व॑श्चोरवीस्‌ नरथिप्रभः स्यात्‌ || दुंडि राज अथ-मजा मे वल्वाला; रक्तं केकर गौरवर्ण, उदार, हिंसक, श्युर, पित्त- प्रकृति, तमोगुणी, भयेकर, पीतने्र, युवा; गर्वीला, छोटा कद्‌, अचि के समान कान्तिवाल-एेसा स्वरूप मंग का दहै। सत्वं कुजः, नेताज्ञेयो धरात्मजः, मच्यु्चांगोभौमः, रक्त भौमो भौमः, देवता षडाननः, भौमो नरः, भौमः अः, कुजः क्षन्निवः, आरः तमः, मौमः मजा, भोमवारः, भौमः तिक्तः, भौमः दक्षिणे; कुजः निशायांबटी, भौमः कृष्णे बली करः स्वदिवसमहोरामासपवंकाल्वीय॑क्रमात्‌ श०-कु°-बु°-गु<-ञ्ु° ष्वराद्या बृद्धितोवीयवत्तरयाः । स्थूलान्‌ जनयतिसूय दुभगान्‌ सूयपुत्रकः । क्षीरोपेतान्‌ तथा चन्द्रः कटुकाय्ान्‌ धरासुतः । वख रक्तचित्रे कुजस्य । कुजः म्रीप्मः। षाराक्र

अथं–सत्वरुणप्रधान तथा शक्तिशाटी भौम है। मंगल नेता है। मंगल का कद्‌ बहत ऊँचाडहै) भूमिपुत्र मंग रक्तवणं है। इसका देवता षडानन-कार्तिकेय है । यह पुरुष प्रह हं । मौम अचितव्व प्रधान है। मौम क्षत्रिय रै । यह तामस है । भौम मजासार है- वारो मे भोमवार मंगल का है। इसे तिक्त ( तीखा ) रस पसंद्‌ है । इसकी दिशा दक्षिण दहै । यह रात्रिवली है कृष्णपक्च में बटी है । कर स्वभाव है । अपने दिवस मे अपनी होरा मेँ, अपने मास मे, अपने पव ओर काठ मे रश०-भोऽ~बु°-गु०° भौर श्चु° बृद्धिक्रम से अधिक वलीयान्‌ होते ह । सूयं बरी हो तौ जातक स्थूलकाय होता है-रानि से जातक कुरूप ओर अमागा होता है । चन्द्र से क्षीर युक्त तथा रसप्रधान पदार्थं उत्पन्न होते

१४७४ चमत्कारचिन्तामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

मंगल कटुकपदार्थौँ को जन्म देता है मंगल के वख खारू भौर चित्रित होते हैँ | मंगल ग्रीष्मक्रतु का स्वामी द | हितो युवा पत्तिक रक्त गौरः पिगेच्छगो वहिनिभोप्रचंडः । शूरोऽप्युदारः सतमाखिकोणो मजाधिको भूतनयः सगवः ॥ पुंज राज अर्थ- मेगल हिंसक, तरुण, पित्तग्रकृति का, कुछ खाल गौरवर्ण क, लाट ओंखिंवाख, अथिजेसा उग्र, श्र, उदार, दामसी स्वमाव ओौर गर्वी होता है | इसका आकार त्रिकोण जैसा आर मजा अधिकं हाती हे। दुष्टटक्‌ तरुणः रम्ये रक्तसितांगः पेत्तिकश्व च धीरदारः } प्रताप्यारः | सहदियः अथै–दसकी दष्ट दूषित होती दै । तरुण, कुछ खार गौरेव्णं का, पित्त- प्रकृति का चंचल्बुद्धि; दर ओर पतली कमरवाखा होता है | आचाय वराइमिहिर- ने बृहत्संहिता मे श्भफटक दाता मंगल का स्वरूप निम्नलिखित दिया है - “विपुर विमल्मूर्तिः किद्यकाशोकवणः स्फुटरुचिरमयूखस्तप्तताग्रप्रमावः । विष्वरतियदिमागे चोत्तरे मेदिनीजः श्युभक्कदवनिपानां हादिदश्चप्रजानाम्‌ ॥* अथ- इसका आकार वड़ा होता है, वर्णं अयोक वा किंश्युक के पलों जेसा लार होता है । किरण स्वच्छ ओर मनोहर होते है, कान्ति तपे हए तवे के समान होती है ओर यह उत्तर मार्गसे चल्ता है तवर राजा ओर प्रजा कः िषए कल्याणकारी होता है । अनुक्रम मे गुरु के वाद मंगल का स्थान हे | इस आकार छोटा है ओौर अयि जेते चमकीले वर्णका दीखता है। यह ६८६ दिनि तथा २० धंटोंमं राशिचक्र की परिमा करता दहै | इसक्रा उत्तर की ओर अधिकतम श्र ४-२५ होतादै तथा २-र्‌ रिन स्थिर होता दै। कक, बृश्चिक तथा मीन; इन तीन जखरारियों पर इसका पूरण अधिकार दै । यह पुरुष प्रक्रेति का, रात्रि के समय का, उष्ण, सूखा अथ्चि जैसा अरहर) यह स्गडे, कछ्ड तथा विरोध का

प्रेरक हे । विलियमलिली मंगख का स्वरूप-परिचिय दिया गया, अव सत्तविवेचन किया जाता हैः-

सत्व- मंगल मे शारीरिक तथा मानसिक सामथ्यं है। मह, पुलिस मफसर्‌, सेनिक डावर आदि म शारीरिक सामभ्य जरूरी होता है । इस सामथ्यं पर मेगल का अधिकार है। रारू के उद्यकरार मं बडे-नडे नेताओं मं मानसिक खामधथ्यं होतादहै। इसपर मी मंगलका अधिकार होताहै। ये नेता क्रांति को सफल बनाने के लिए प्राणों तक की बाजील्गा देते इन क्रान्तिकासियिं पर मंगर का अधिकार होता रै।

नेता- मंगर नेता है-शाख्नकासें के अनुसार ‘सेनापतिः है ।

१० मंगक्फर +

धातु–इसमे मजा-मांस-अस्थियां है मस्तिष्क पर बुध का, चरी पर गुर का, मांस ओर अस्थियों पर मंग का अधिकार मानना उचित द्। मतभूयस्त्व से मजा पर भी मंगल का ही स्वामित्र हे । |

स्थान-मंगल का स्थान अचि कदा है-केवर अखं से देखने पर यह ग्रह भगिसदश लाल दिखता है । रसेईधर का विचार मंगरूसे किया जा खकता है । चोरं ओर नीचं का धर मंग का स्थान है यह कस्पना टोक नहीं है क्योकि इन रोगों के स्थान पर शनि का अधिकार दोना चादि । युद्ध का स्थान मंगर के अधिकार मे अवश्य है ¦ प्रबल मंगल जिस पष्न की भर होगा- विजय उसी की होगी । ॑

वख्र–कल्याणवमां के अनुसार मंगल का वस्र दद््‌-मजवृ तथा मोटा ईै- परारार के अनुसर इसक्रा वस्र खार आर रंग-वरिरंगा है-करूएक ने “जलाहूया- वे” एेसा वणेन दिया है । लोगों मे कदावत भी है कि सोमवार का वलन फटता दै-मंगल्वार का जलता है । गुखुवार तथा बुधवार का वन यच्छा रहता है- इसीषिएः लेग मंगलवार को नया कपड़ा नहीं पदनते ! परन्त॒ कल्याणवर्मा का वणेन ही टीक है क्योकि पुल्सि ओर मिषटरी के रोग मोरा ओौर बहुत देर तक रिकाऊ कपड़ा पदिनते ह ओर ये लोग मंगर के अधिकार मे है ।

धाठु-सोना आदि- मंगल की वष्टि के लिए देय द्रव्य सोना है-एेसा छेख है-दोनों का रंग कुछ लार ओौर गौर है–अतः मंगल का द्रव्य सुवर्णं है-एेसी कट्पना है । युद्ध का ग्रह मंगर है-युद्ध के समय लोहे का विष मत्व होता दै–तोप-बन्दूके आदि सभी शख खोदे के ही बनते ई । इस दष्ट से रोहे पर मंगल का भधिकार मानना उचित होगा । आजकल क रा्टीय तथा राजकीय व्यवहार मे सोने का महत्व बड़ा मारी दै–राजकीय व्यवहारं पर सूयं का अधिकार है । अतः सुवणे पर भी रवि का स्वामित्व है–रेखा मानना अनुचित न होगा । | |

ऋतु—गरीप्मक््वु पर मंगल का अधिकार मानना ठीक होगा ।

दिदा–दक्षिण दिशा मंगल कौ है क्योंकि यमराज के समान यद्‌ ग्रह भी जीवहानि कराता है ।

छभाशभ-मगल पापग्रह है क्योकि पापफल देता है परन्तु इसके शमफल भी होते हं । अतः शभ तथा अश्म दोनों पश्च मानज्ने होगे ।

देवता–पुराणों मे देवताओं का सेनापति रिवपुत् कातिकेय माने जाते है करयोः इन्होने तारकासुर का बध किया था-मंगल भी सेनापतिं है अतः इनके

देवता रिवपुत्र स्कन्द ईै-गुह, कार्तिकेय, स्कन्द-ओर षडानन ये नाम इस

देवताकेर्है
ग~ मंगल पुरुषग्रह है

वण–मंगल युद्ध का कारक है अतः इसका वर्ण (शियः है ।

` १४६ चमत्कारचिन्तामणि का तुलनात्मक स्वाध्याय

रुचि– कडवी रुचि हे-यह टीक नहीं है-तीखीरुचि हैः यदह ठीक दै । मिचकारंगमभी खल सौर रुचि भी तीखी । अतः तीखी सुचिपर मंग का स्वामिख दहै-यह मान्यता टीक है |

काट- मंगल दिन का अधिपति हे।

वेद- मंगल का अधिकार स्वरवा ध्वनि पर है-गायन पर नदी है । अतः वारे वेदां मं सामवेद का अधिकार अनुचित दहं । हों अथर्ववेद पर कारकत्व दे सकत दहं ।

टोक- मृत्युलोक के समान दही मंगल मी भौतिक त्च्वोँका ग्रह है-अतः कदएकने इसका लोक मृप्युलोक माना ह-क्द एक शास्रकारोंने इते पाता का स्वामी माना है,

उदय-इसका उदय पिचठे भागसे होता हे।

वगे–इसे चतष्पाद माना दै करोकि कूर ग्रह होने से कुत्ता-गीदड़, मेद्धिया, विदा; चीता-रोर, आदि क्रूर जानवर पर इसका धिकार हे ।

संचार स्थान- मंगल का संचार स्थान पवत-जंगल-ठीक दै क्योकि करूर जानवर पहा डां-जंगलों में ही रहते द|

अवस्था– मंगल का स्वामित्व वादव्यावस्था पर दै क्योकि इसी अवस्था में रक्तविकार, विषमञ्वर, खुजली, फोड़े-फुन्खी, चेचक-माता आदि रोग होत रै | २६ से ६८ तक अर्थात्‌ तरुणावस्था पर मंगल का प्रमाव होता दहै। अतएव इसे श्वाः (तस्ण’ माना दै-क्योकिं मंगल प्रभावान्वित व्यक्ति पचास व्क होते ए सी तीस वर्षं के समान ही माटूम पडते है ।

रल्न–प्रवालमूंगा-इसका रत्न दे ।

तच्व–अधि इसका तच्च दै– तेज तच्च है यह टीक है अचितैजस तो ददी (9 10. |

रृष्टि- मंगल की ऊर्ध्वं दृष्टि है-परेड मे सैनिक तथा पुलिस आफिसर द मेशा सीधी नजर रखते ईै-पेरों के नीचे कुछ भी होता रदहे-ध्यान नदीं देत ।

पराजय-यनुभव से मंगल द्वारा शनि का पराजय देखा गया है । अतः दानि द्वारा मंगल का पराजय जनता नहीं हे ।

वख्वान्‌ काङ—वन मँ तस्णावस्था मध्याह्न दै-इसी समय मनुष्य परा- करम करतादहे। धन तया कीर्वि प्राप्त करता दै ओौर संसारम म्न रहता ड । इस काल पर मंगल का अभरिकारदै। कृष्णपक्त मं तथा संध्यासमय मंगट बलवान्‌ होता है-यह्‌ पराशर मतै) किसी एक ने रात्रिसमय मंगर करा वलवान्‌ काल माना हे ।

मंगल के वल्वान्‌ होने के स्थान इस प्रकारभी माने दै-मंगल्वार को, नवांश तथा द्रेष्काण कुट्टी में, स्वगरहमं हो तव मीन; वृश्चिक, कुंभ, मकर तथा मेष राधियों में, रात्रिम, वक्री होने पर, दक्षिण दिशामें, तथा रािके

मगरूफङ १४७७

प्रारंभ मेँ मंगर बल्वान्‌ होता है । मीन ओर ककं राशियों का मंगल सुखदायी होता हे।

जाति- सामान्यतः क्षत्रिय है । शनि माहात्म्य म्रंथमे मंगल को सुनार कहा है । सुनार जाति पर मंगल का अधिकार दहे, क्योकि सोने के आभूषण- गहने बनाते समय सुनार को अधिसेहीकामच्ना होता हे।

धान्य-मसूर की दाल पर मंगल का अधिकार है-शान्तिके लिए मसूर कीदालका दान किया जाता है।

क्रररक-मंगलप्रभावान्वित व्यक्ति की नजरसे नञ्ञर मिलना मृ्षिकिछ होता है क्योकि इसको दृष्टि मेदक होती है ।

उदार-संसारमें जसे लोगों कोभमिका पता चला है इन्होने अन- गिनत लाभ उठाए ह । मंगल्प्रधान व्यक्ति दूसरों के {रिष्‌ श्ुद्‌ को कष्ट देते है अतएव उदार दै । |

चैत्तिक-अभि के सददा उष्ण होने से उष्णता का विकार जो पित्त वही मगलप्रधान व्यक्ति की प्रकृति है ।

चपट–पित्त प्रकृतिं के खोग पपर होते है, काम करने का उत्साह दूने बहत होता है।

करदा मध्य- “कमर पतली होना? इसका अनुभव सेनिक, पुलिस, डावर

दृजीनीयर आदि वर्गो से पाया जाता है भौर ये मंगल के अधिकारमे रै।

ऊंचा-तेनिक आदि वर्गो के मंगल्प्रधान व्यक्ति ऊचे होति है। परन्तु वैद्य, ओषधि विक्रेता, दजीं, सुनार, डहर, चमार, रसोदए राजनीतिज्ञ, रासो के निर्माता आदि वर्गोमं जो मंगट्प्रधान व्यक्ति होतेर्हैवे प्रायः नारे कद केहोतेरै।

पिंगललोचन–आं पीटली लल होती ै। ओंँख का तारा काल होता है–ौर उखके चारों यर सफेद भागे लारूरंगकी नस अधिक मात्रा में होती है-ेसा अनुभव है–नजर बाज्ञ जेसी तीक्षण होती है ।

प्रचंडदटृटवपु– सैनिकों का शरीर मजबूत होता है ।

दीप्ताच्निक्रान्ति- इसका अनुभव पहल्वान-पुलिस जवान आदि लोगों में होता है ।

मजावान- इसका तात्पयं मस्तिष्क शक्ति की बर्वत्ता से है । गणितज्ञ, कवि-ठेखक आदि लोगों में मस्तिष्कशक्ति बहुत बख्वान्‌ होती है । इस शक्ति का विचार मगर कौ स्थिति से करना चाहिए । |

रक्ताबर–मगर की शान्ति के लिए खाल्वल्रका दान किया जाता है।

हस्व-आङुचितदीप्रकेद्ा- मंगल के प्रभाव मे उत्पन्न व्यक्तियों के के छोटे-रहरीले ँघराठे ओौर चमकीले होते ई । परन्तु खियों के केश ठंवे, घने, कारे, चमकदार ओौर आकर्षक होते ई ।

१७८ षवमर्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक

तासस-रक्तवर्णं क्रोध यौर रक्तिका प्रतीक है–इसकिए मंगर तामसी परकरति कारै दया ौर पेम का वण सफेद-ल्जा का गुलाबी है–शमं का हरा-तथा द्वेष ओर मत्सर का काला है-एेसा इन वर्णो का ओर मनुष्य कौ भावनां का सम्बन्ध कदा जाता है ।

साहसिक- मंगल के प्रभाव में उत्पन्न व्यक्ति धेयं से साहसी काम करने वाखा, संक मे मी अग्रसर होने वाख निभंय होता है ।

विघातक्रुदल–पूरे दृटतामय निश्वयसे श्तु पर अधात करने वाला होता दै ताकि परिणाम मं शत्रु पराजय अवद्य हो |

रतिकेटिलोढ–उष्ण प्रक्ति के लोगौँ मे कामवासना अधिक होती है।

हिंख- युद्ध मे किसी का खून करने मं इसे हिंचकिचाहट नदीं होती ।

उग्रवुद्धि–वात को फौरन समञ्चता है ।

त्रिकौण– मंग कुछ ल्वे गो आकार का दिखलाद देता है, अतः निकोण नदहींदै। राशियोंकी दृष्टि से– मंग के फर ककं राशि में बहुत अच्छे मिलते दै–वृध्चिक-धनु मे साधारण दोतेर्दै-रिदमे कुछ बुरे होते है- मेष मे बुरे होते है–ृष-कन्या, मकर मे बहुत बुरे फर मिते है । मिथन, वल, कुम मेँ साधारण च्छे मिलते ई ।

मंगर का कारकत्व–

कृल्याणवमो-खलकमलः, तावा; सोना 3 र, पारा; मनःशि, भूमि; राजा, पतन, मूच्छ, पित्त तथा चोर इनका कारक मंगल हे ।

वैयनाथ- सामर्थ्य, रोग, गुण, छोटे भाई-वहिन, श्रु, जाति इनका कारक मंगल हे ।

परादार– साम्यं, घर, जमीन, पुत्र, स्वभावः चोरी, रोग, ब्राह्मण, भाई, पराक्रम, अि-सादस, राजपुत्र-इनका कारक मंगल हे ।

व्यंकट दामी-पराक्रम, विजय, कीर्ति, युद्धः साहस, सेनापतिपद्‌, परश्च कुटार इत्यादि राखो मे निपुणता, पैयै, कान्ति, गम्भीरता, कामवासना, कोध, दात्रुब्रद्धि-माप्रह, निश्चय, परनिन्दा, स्वतन्वता, ओँवटे का दृक्ष, जमीन, इनका कारक मंगट है| |

मन्त्रेश्धर–पराक्रम, जमीन, भाई, क्ररता; युद्धः साहस, देष, रसोद्ैघर, अचि, सोना, जाति-मल्र-चोर, शतरु-उत्साह-परदारगामिता, मिथ्यामाषण, वीरता चित्तविकास, पाप, सेनापतित्व, ्रण-इनका विष्वार मंगर से कतव्य है– मंगल कारत्व के रोग :–

बहुत प्यास, खून, पतन, पित्त, ज्वर, अचि, पिष वा राखो से भयः, कुष्ठ; नेचरोग, गस्म (अ्पँडिसाइटिख ) अपस्मार, मस्तिष्क के रोग, खुजली; अवयव कम हो जाना, राजकोप, शतु-चौर-मयः; भाई-पुन्न भौर मितो से श्रगड़ा, भूत-पिशाच-गन्धवविरा जन्य पीडा; शरीर के ऊपरी भाग के रोग-भौम दूषित दहो तोये रोगदोतेरह।

मगरुफर १४९

कालिदास-पराक्रम, जमीन, बल, राखरधारण, लोगों पर अधिकार जमाना, वीरक्षय, चोर, युद्ध; विरोध, राश्रु, उदारता, खार वस्तुं की रुचि, बगी्वों की मरकीयतः, वाद्यवादन; पेम, चौपाया जानवर, राजा, मूर्खं, कोध, विदेशयात्रा, धेयं, अओंविले का वृश्च, अग्नि; वाद विवाद-पित्त, उष्णता, जण, सरकारी नौकरी; दिन, ऊष्वंदष्टि, नायाकद्‌, रोग, कीर्ति, सीसा, त्वार, भाल, मन्त्री; स्पष्ट अवयव दोना, मणि, स्कन्द-तरुण, कड्वी रुचि, राजां का स्थान-अपमानः, मांस-ादार, परर्निदा; शत्रुविजय, तिक्तस्वाद, रात्रिबटी-सोना- धाठु-परीष्मक्छत-पराक्रम-शत्ुबल, गम्भीरता, शौय, पुरुष, शीट, ब्रह्म, कुरहाडी, वनचर, गाव का मुखिया, राजदशचन, मूत्ङच्छररोग, चौकोर माकार, सुनार, दु्ट-जरी हुई जगह, भोजन मेँ अच्छे रुचिकर पदार्थो की प्रियता, दुबलपतला- पन, धनुर्विद्या नैपुण्य, रक्तर्तोना, रंगविरंगे व्र, दक्षिण दिशा, दक्षिण-दिशा प्रियता, कामवासना, क्रोध, परनिदा, धर, सेनापतिशतप्नी, सामवेद, भाई, वन्य करर पञ्च-नेवृत्वः स्वतन्तता, खेती-सेनापतिपद सर्पस्थान, वाणी ओर विष्त का “वञ्चरू होना, घुडसवारी, रजोदशन, खून सूखना-

पाश्चात्यमत के अयुसार मंगर का कारकरव–उष्ण-रक्ष, दाहकः, उद्योगी, वध्या, पुरुषप्रकृति, साहसी, उबल्ने वाके पदार्थ, दाहजनक तेल, तीत्र यओौषध, अम्ल्पदाथं, उष्णपदाथ, दाहकारक रुचि, रोहा, फौलद, हथियार, षवाकू-कषवी, अगडे-चोरी-उकैती, अपघातः, लडाई, युद्ध मे सम्मान प्राप्ति, महत्वाकांक्षा, पौरुष, कामवासना, क्रोध, मानथादिमनोविकार, आग, बुखार, उन्माद-भय्करता, द्रोह; निंदा, पुठिस; खस्पकाल कारावास, मौत; पुरुष सम्बन्धी; डाक्टर, सजन; रसायनशा, वैलानिकः गोटदाजञ-शस्रकार मैके- निक, इंजीनीयर, टनौर, फिर, केथवकं करनेवाङे, टया आदि लोह कारखानो म काम करनेवाले, ति के बत॑न बनानेवाले, चाकू-कैची बनानेवाठे छहार, कंगन बेष्नेवाले, दंतवैय्य, कसाई-बेकिफ-नछ्ाद्‌, घड़ीवाङे, दर्जी -नाई, रंगारी- चमार, जुभरी, मस्तक-नाक, जननेन्द्िय; पित्त-पित्ताशय, मू्ाशयः, लायु- मासरज्जु-चेचकः गोजर, खून बहना, कटना-जल्ना-भागरगी-हूदईै जगह-भद्धी- ( सुनारकी, डहारकी-दोटलकी, कांचकारखानेकी, खोदे, तबि, या पीतल के बतनों के छिए, चूना बनाने की, शखर के लिए भद्ध ) रसायनशा, युद्धमूमि, सेनारिविर, तोपखाना, बारूद का सं्रह; शस्रों के कारखाने, अपघात स्थल ल्डाकूप्रदेश-विषेरे जन्तुं के स्थान; कसादैखाना, भाई-बहिन, सुख-दुख, चचेरे मादै-सोतेङे सम्बन्धी, अदूथुत बुद्धिमत्ता के काम ।

स्वर्गीय ह-ने-काटवे के अनुसार विविध विषयक मंग का कार. कत्व :–लोककमं विभाग ( 7. ५४. [). ) भूमिति, इतिहास, क्रिमनल-ख (अपराधविषयक कानून) प्राणिशाख्र, अस्थिरा; पुलिस इन्सधेक्टर, ओवरसीयर, उनकी शिक्षा संस्था-जंगल, कषिविद्ाख्य, स्वे विभाग, बायलर एक्ट-तं्रविन्या

१५० चमत्कारचिन्तामणि का तुलनात्मक स्वाध्याय

(चेकेनि कल) की शिक्षा इंजीनीयरिंग कालिज, बीडी-सिगरेट के कारखाने, मिल्मजदूरः शराव की भद्रि अर दुकान, आआवकारी इन्सपेक्टरः सिपादीः . पहल्वानः मोटर ओर उसके पुज वेष्वनेवाके, साइकठ या मोटर मरम्मत करनेवाले, टैक क्चर, टारपीडो, वाम्बर, विमान, पैट्रोल, सिरि, रोकेखतेल, फास्फरसः आइ- डीन, विजखी की आकंके लिए उपयोगी का्वंन के कारखाने; माचिस के कारखाने, कपास का सद्धा; रेस, घोडे-जौकी, ट्रेनर फायरत्रिगोड, बडे आप- रेरन, अैँडसादटिस, मूचक्रद-गंडमाला-टान सिल; मनः खूनखराव करनेवाके व्यसन, इग, फान्स, ग्रीस, इटली, जमनी; जापान? पंजाज, उत्तरप्रदेशः महाराष्र-कर्नाटक, कच्छ, सौरा, गुजसत, गंजखानः, नारक एसिड, एसेटिक एसिड, दाइङोसीनिक एसिड, आरैनिक, सोमल, गंधकः विषपचाने की ताकत मर्गा, गीध, वाज, चील-बकरा, कवूतर, चिडिया; विधी? क्रिश्चनः रेग्लोड्‌डियनः युरोपियन सिख, मराठा; राजपूत, जेन द्िगायत, गुजरात; ओौर सोराघ्र का सामान्य वगं | कारक का निश्चय - ग्र्होके सखाभाविक गुण-धमे-रूप;, रग तथा नेसर्गिक कुंडली मं उनका सथान एवं भावकारक ग्रहों पर से कारकत्व का निश्चय किया जाता ह । आलोचना -लाल कमल, तबा, सोना खारूरंग के पदाथं हँ अतः इन पर मंगर का अधिकार दै | गेरू भी लाक रंगकादै। मोटर दि वाहनों मे लोहा वैदरोक आदिं की भआवदयकता होती है अतः इन पर मगर का खामित्व है | क्िति- मेगल भूमिपुत्र माना गया दै अतः जमीन इसके कारकत्व मे हे पतन-यदि मगल अ्युम हो तो मानव कौ हाख्त गिरती नाती है । मूच्छ ओौर पित्त-दोनों दी उष्णता से होते ्ै–अतः मंगर के कार- कत्व मेँ ह | चोर- मंगल आर शनि का परस्पर अनिष्ट संबंधदहोतो चौय भी मंगख के कारकत् में आ सकता है| रोग-ेगों का कारण मूख्यतः उष्णता है–अतः रोगो का कारक ग्रह मंगल ह । | छोटे भाई- व्रतीय वा नवम मे मंगल हो तो माई जीवित नरी रहते– ट्स तरह भादयों के लिए मगल घातक ही प्रतीत होता है-एेसा अनुभव है| रिपु–पुलिस विभाग से शत्रुभों का सवंध निव्य ही रहता है । जाति- कोद जातिविरोष अभिप्रेत नहीं है–अपनी जाति का स्यागकर दूसरी जाति का स्वीकार करने की प्रवृत्ति का विष्वार मंगल से कतव्य दै– यह अभिप्राय है । इस पर प्राचीन शोक मी ₹रै- टग्ने चैव यदामौमः अष्टमे च रविबुंधः। ब्रह्मपुत्रो यदा जातः सगनच्छेन्‌ म्लेच्छ मंदिरम्‌ |

सगर्फर १९५१

मंगल के प्रभावसे धर्मया जाति का बन्धन शिथिल हो जाता है- यह ममं है॥

पुत्र–प॑चम भौर एकादश के मंगलसे ही पुरां के विषय में विचार किया जा सकता है । अन्य स्थानों से इका संव’ध नहीं है|

राजरात्र–बड़े अधिकारी पुरुष के प्रतिं प्रायः कनिष्ठ अधिकारी अनिष्ट चितन करते रहते दै–यदह परियिति मगल के कारकत्व मे है ।

पराच्म-ओौर विजय- शनि का अधिकार विजय पर है-मंगर का अधि- कार पराक्रम पर दै।

विख्याति-कीर््ति–सिपाद्यी प्राणों की बाजी लगाकर डते है परिणामतः सेनापति विख्यात कीर्वि होता रै । अतः कीतिं मंगल के सवामित्र मे दे।

संम्राम-किसी देश मे युद्ध चल रहा हो-किख को हानि व खम र्देगा- इसका विवार मंगल की सिति से ओौर उस देश की राशि से करना चाहिए । इसी प्रकार अदाख्ती च्चगडों मे किस व्यक्तिः की विजय होगी १ इसकां विचार भी मंगल से ही कर्तव्य है।

दंड-सैन्य–किखी देदा की कितनी सेना ै-उसकी व्यवखा कैसी है– आदि-आदि विष्रयों का विचार मंगल से कतव्य है ।

नेता- मंगल राजकीय नेता है, सामाजिक नेता नदीं-यद विचार ठीक ई ।

गांभीर्य-मंगल मै अर्हडपन भी है भौर गंभीरता मी है रेखा भनुमव है ।

दात्रवृद्धि- मंगर छटे, सात वा बारह खान मेँ हो तो रशनुबद्धि करता है–अन्यत्र नहीं ।

आग्रहावय्रह-राजदरनार मे मान-सम्मान वा अपमान होना मंगर पर अवलेबित है । शम होने पर मान-सम्मान; शनि से दूषित होने पर अपमान दोता है ।

परनिन्दा-पोर्व, सातवे, बारदवै स्थानम मंगरूहो तो यह फल मिक्ता हे-अन्यत्र न्ह |

स्वतंत्र-मगल के अधिकार के लोग स्वतत्रवृत्ति से जीवन यापन करते ईै-बहुतरे नौकरी भी करते है किन्तु यह उनकी इच्छा के प्रतिकूक होता द ।

क्रौर्य–मंगख का (क्ररताः कारकत्व किसी पाप प्रहकावेध होतो तभी अनभमव मे आता हं।

” परदारलोलट–उष्णता तथा शारीरिक साम्यम आधिक्य होने से पर

लियो स्वयं ही चिष्वी चली आती है–ती्र कामान शान्त करती ई ।

असत्यभाषण- मंगल दूषित होतो ही एेसा अनमव होता है।

चित्तसमुन्नति–राघ्र मे महान्‌ व्यक्तियों का उन्न होना, . बौद्धिक प्रगतिं भौर जगत्‌ की स्थिति मे सुधार होना-यह मंगल का कारकत्व है। द्वितीय; चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम-द्रादशस्थानों मे छम मंगल हो तो महान्‌ व्यक्तियों कामन ओर बुर्दि अच्छी तरह विकसित होते है) कमन, तृतीयः, पञ्चम, सप्तम, नवम;

१९५२ चमत्कारचिन्तवामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

ददाम, एकादश मंगर होतो यूनीवरसिरी की डिग्रि्यौ अवद्य मिलती ह परन्तु मन की अवस्था अविकखित हौ रहती हे । | | वाग्वाद- मंगल प्रन हो तो वाद्‌-विवादों मं विजय प्राप्त दोती दहं। मांसारी- मंगल रक्त वा मांस का स्वामी है-घनस्थान वा षष म यञि रादि में मंग दहो तो जातक मांसाहारी ओौर मद्रपी होता हे। चित्तचंचरखुता- मगर वार-बार वक्री ओर मार्गी होता है-यदि मङ्गल लद्म-सप्तम ओर दशम मं होता हे तौ ही चित्तचच्चल्ता का अनुभव होता है । चतुरसख- मंगर के अधिकार के सेनिक आदि वर्गों के रोग ऊँचे कद्के, लम्बेचेहरे के ओर सुदृद्‌ होते है । सुनार आदि वर्गो के गोट चेहरे के, नाटे- कद्‌ के ओर प्रभाणवद्ध भवयवों के होते है । चौकोर भौर त्रिकोण आति के नदीं होते ई। - | कुण्डटी मं शुभ मंगल के फट–यदि मंगल छम हो तो जातक साहसी, चिड़विडेस्वभाव का, हरी, मौके पर न उरनेवाल्ा;, दीर्घोद्योगी, खर्वीला, नाना- युक्ति से काम नानेवाखा; लोगों के कल्याण के दिए यलशीट, कपटदहीन, उदार, प्रेमी, चिन्तारदित, सुद्‌, धीरजवाख, वृसरो के प्रभाव मे न आनेवाख, व्यवहार मं सरल, सत्यशील तया प्रामाणिक; भाषण ओौर कृति मे नियमपाटक, परस्त्रियो मं अनासक्त; अनाय-दीनखियों का सहायक, क्रान्तिकरणोत्युक, सुखा- सक्त, धमश्रद्धालं परन्तु अकमेण्य-पलीवश-सद्यः स्थितिमय्न-मविष्यचिन्तक, वाद मं पराजित होनेवाल, प्रभाव्ाटी, टोकमत अच्छी दिशा में मरित करने वाखा, ये फल तमी होते है यदि कुण्डली मे मंगल विकसित हो । दूषित मंगर के फल–चन्द्र वा शक्र के संवेध से मंगल दूषित होता हे । इन ग्रहोंसे मंगल के बुरे गुणधर्म प्रभावी होत रहै। जातक परख्ियों को कुमागेगामी करता दहै-अतिकासुक, कामपूर्तिं के लिए किसी भी जाति की खी से सम्बन्ध जोड़ लेता हे । क्रोधी, तामसी, ठ्डाई-सगडे-खूनतक कर छेता दै । कजं के पेसे से मौज उडाटेता दै । खी-कष्टकर, परनिन्दक, आल्सी-स्वार्था दसय को उत्साहदहीन करता दै-गारी-गलोष्व करने का स्वभाव होता है, उधममचानेवाला होता दै-एकान्तप्रिय, भस्थिर-विक्षिमनोव््ति-भौर जङ्गल होता है । भवेत्तस्य किं बियमाने कुटुम्बे, धनेऽङ्गारके यस्य छ्ब्धे धने किम्‌ । ` यथा त्रायते मकंटः कंठदहारं पुनः सस&खं को भवेद्‌ वादभग्नः ॥ २॥ अन्वयः– यस्य धने अङ्गारके ( स्थिते ) तस्य विद्यमाने कुटम्बे किं भवेत्‌ । धने ठन्धे किं ( स्यात्‌ ); यथा मकटः कण्ठहारं ्ायते (न तत्‌ सुखं जानाति तथेव स लेयः ) वादमग्नः कः पुनः ( तस्य ) संमुखं भवेत्‌ ॥ २ ॥ सं. टीगयस्य धने द्वितीयमावे अंगारकः भौमः भवेत्‌ तस्य विन्यमाने न्धे धने वा सति कुम्ब स्वजन विषये किं न किञ्चित्‌ फटमिव्यथः। यथा मकटः वानरः कण्टहारं केनापि कण्डे समारोपितं गुञ्जादि रचितं हारं त्रायते रक्षति, तथा

मंगरफर १९५३

सोपि कृपणः धनं रक्षति न तद्‌ धनं कदाचिदपि कुडम्बोपयोगाय भवति इतिभावः तथा तस्य वाद्‌ मग्नः पराजितः पुनः भूयोऽपि विवादाथं सम्मुखं न कोपि भवेत्‌ अातेमुख्यतरः स्यात्‌ इत्याशयः ॥ ‡॥ अथेः– जिस मनष्य के जन्मव्यसे दूसरे स्थान में मंगल हो वह कुडम्बी होभीतोक्यालाभ। उसको धनप्राप्ि दा जानेसे भी क्या राभ होगा । जेसे बन्द्र अपने गठेमं पड़ेहुएदहारकी कंवलरक्षा ही करता दहै उस हार के सुख वा उपयोग को नहीं जानतादहै, वैसे ही मनष्यको कुटुम्ब ओर धन का सुख नहीं होता है। उससे वाद्‌-विवादमें हारा हुभा मनुष्य दोबारा उसके सामने नहीं आता है ॥ ८ ॥ तुटनाः-कुटम्बे माहे: प्रभवति यदायस्य जनने । प्रटन्धे वित्तेरो स्वजनजनतः किंफल्मलम्‌ ॥ यथा सुक्ताहारं क्षितिपतिजनैर्पितमिमं। गे सूत्रायन्ते सततमभितोमकटगणाः ॥ जी वनाथ अथे- जिस मनष्य के जन्मसमये मंग धनभाव में हो उसे अपने वन्धु-बान्धवों से धन मिख्ने पर भी क्या लाभ हो सकता है, अपितु कुछ नदीं क्योकि जिस प्रकार राजपुरुषो से पिना गई मोतियों कीमाला को वानर साधारण सूत्र समञ्चकर गे से तोड़ फैकता है, उसी प्रकार वह भी उस धन का दुरुपयोग कर नष्ट करदेता हे। रिप्पणी-भद्नारायण ओर जीवनाथ को एकसाथ पटा जावे तो प्रतौत होतादैकि धनभाव का मोम नन्धु-बान्धवों को, कुटम्नियां को देता तो अवद्य है किन्तु इससे कोई ठाम विरोष नहीं होता क्योकि वैमनस्य का कांटा परस्पर चुभता रहता है-कुटम्नियों का सौदहा्रपूण व्यवहार नहीं होता-जातक भी बन्धुओं को युखपूणं जीवनयात्रा करने के लिए उनकी सहायता रुपए पेसे से नदीं करता-आखिर संसार तो धनपिपासु-खुखलिम्यु परस्पर सद्भाव काभूखाहे)। संसारम युखोपमोगके लिए धन की आवदयकता भारी मारा मे रहती है । स्रीसुख, पुत्रसुख, मित्रसुख, खहसुख-सरो-सम्बन्धियोँ से सुख तभी मिता है यदि कांचन सम्पत्ति खत रहे-इन सुखां की प्राप्ति के लिए धनभाव का मंग धनमभीदेतादै किन्ठणेसादहोते हुए भी, आयाससेवा निरायास से धनप्रापि होने पर मी सुख प्रापि नदीं होती, क्योकि जातक कृपणता का मारा धन का सदुपयोग दी नहीं करपाता । बैकों मे लाखों रुपयों का हिसाब- किताब तो होता है। परन्तु यदि जातक का रहन-सहन का अध्ययन किया जावे तो पाया जावेगा करि जातक कद्न्नभोजी है-मेडे-कुचैके कपड़ोंवाला दै सर्वथा दीन-हीन-दा मेँ जीवन व्यतीत कर रहा है। इस परिस्थिति मे भारी संख्या में रुपयों का संग्रह व्यर्थं नहींतोक्याहे, किसीकविंने टीक ही कहा दै-“योनात्मजे न च रुरौ न च बंधवे दीने दयांन कुरुतेन च भव्ये” । एेसे कृपण का जन्म संसार मे नितांत व्यथे हे। अतएव रणेस प्राणी कौ उपमा

१८५४ चमत्कारचिन्तामणि का तलनात्मक स्वाध्याय

उस बन्द्रसे दी गई है जिसके गले मे बहुत कीमती युद्धमोतियों की माला तो पड़ी है परन्तु उसके लिए निरुपयोगी ओौर व्यथं है क्योकि वह उसका उपयोग नदीं करता-गोर वञ्च समञ्चकर तोड़-फोड कर मोती मपरिपर विखेर देता है । “दानं भोगोनारः तिखोगतयो भमवन्तिषित्तस्य | योन ददाति न शक्ते तस्य वतीया गतिभंवति | उस कज॒स को यह व्यथं यभिनान अवद्य होता है कि उसका दैवी यक वेखंसः” है परन्तु किस काम? जव दान मौर उपमोगमें इस्तेमाक्में खाया नहींजातादे तो नाश ही एकमात्र परिणाम होता है-राजदण्ड-चौरभय, अदाट्ती मुकदमे आदि मे धननाद्च देखने म आता है | “शधन गे कटन्नःः आचायंवराहसिहिर । अथ–धनमावगत भौम हो तो जातक कुत्सित अन्नमोक्ता होता है आचाय धनके व्रिषय में मौन है| ““्धातुर्वादकृषि - क्रियाटनपरः कोपी कुजे वित्तगे || वैद्यनाथ अथ– धातु, वाद-विवाद, खेती, निव्यप्रवास, क्रोधी, ये द्वितीय स्थान के मंगर के फ है । घन के विषय मँ वै्नाथजी मौन है| “निधनः कुजनेवेरमाध्रितो निद॑यः कशनभाग धनोपगे ॥°› जयदेव अथे द्वितीय मगल होतो जातक निधन; दुष्टों का वैरी, निर्दयी निकृष्न्न भोजी होता है । वप्वसि विमुखः निर्विदययाथः कुजे कुजनाश्ितः” मंत्रेश्वर अथ-यदि द्वितौयमावमं मंगलदहोतोयातो चेहरा अच्छानदहो,या बोखने मं प्रवीण न हौ, विद्याहीन, धनहीनः; हो, कुत्सित भादमियों की नौकरी में रहे। धने कुजे धनेर्दहीनः क्रियादीनश्चजायते | दीघंसून्नी, सत्यवादी पुत्रवानपि मानवः ॥ काल्लीनाथ अथे-घनमावमें भौमहोतो जातक निर्धन, क्रिया कर्मे रुचिन रखनेवाला, विव से कामकरनेवाला, सच्यवक्ता; तथा पुत्रवान्‌ होता है | भअधनः कदशरनवुष्टः पुरषः विकृताननः धनस्थाने | कुजनाश्रयश्च रुधिरे भवति नरो विद्या रहितः |> कल्याणवर्मा अथं– द्वितीयस्थमौम हो तो जातक निधन, कदन्नथुक्‌, बुरे मुखवाला, नीच लोगो के साथ रहनेवाखा भौर मूखं होता हे । “अधनतां कुजनाश्रयतां तथा विमतितां कृपयातिविदहीनताम्‌ । तनुतो विदधाति बिरोधतां धननिकेतनगोऽवनिनंदनः |” दृण्डिराज अर्थ-धनमाव के मंगर मे जातक निधन; असजनाश्रित, दु्द्धिः निर्दय, भौर विरोध करनेवाला होता है | “शधनगतप्रथिवीजे धाठुवादी प्रवासी, परधनङकृतचित्तः चुतकर्ता सहिष्णुः | षिकरणसम्थः विक्रमेल्मचित्तः कदातनुखुखभागी मानवः सर्वदैव ॥>° मानसागर

पर जख्म होता हे ।

मंगरुफल १८५५

अथ-घनमाव के मंगर मे जातक धातुओं का व्यापारी, परदेशवासी दूसरों से धन छेनेवाखा, जुरी, सहिष्णु, खेती करनेवाल्मः उन्यमी, पतलदे तथा सदा सुखी रहता रै । “कृषिको विक्रयी भोगी प्रवास्यङ्ण वित्तवान्‌ । धाठुवादी मतेनाशोदूतकाराः कुजे धने |” गणं

शधनेभौमे धनहानिः प्रजायते । पीडादेहे च नेत्रे च मार्याबन्धुजनैः कलिः ॥” गगं

अथे-खेतिदहर, विक्रयकुराल, भोगी, प्रवासी, अरुणवर्ण, धनी, धातुं का व्यापारी, मूर्खं, ज॒ञाड़ी, शरीरपीड़ा-नेत्ररोगः खरी तथा सम्बन्धियों से कर्ह- ये फल द्वितीय मौमक है |

“घने क्ररखेटा मुखेवाथ नेत्रे तथा दक्षिणांसे तथा कर्णके वा ।

भवेद्‌ धातपातोऽथवावेत्रणे स्याद्‌ यदा सौम्यं न युक्तं धनं चेत्‌ ॥ जागेडवर

अर्थ–धनस्थान मे क्ररम्रह दो तथा सौप्यग्रहकी उस पर दृष्टिनदहो भौर नाही युति हो तो उसे मख, ओखः, दाहिना कन्धा, अथवा कोन इन भार्गो

^“स्वे धननाशम्‌’` पराह्ञार अथे–घनदहानि होती है । “धनहानिः द्वादशोऽन्दे धनस्थश्च महीसुतः |” हिल्लाजतक अथै–१२ व वष॑ मे धनहानि होती दै। धप्रपीडितमखग्‌ नवाग्दे स्वनाशम्‌ ॥” बृहदेयवनजातक अथे–९ वे वर्षं मे खुधिर विकार से मृव्युवुस्य कष्ट होता है । धअघनतां कुजनोश्रयतो तथा विमतितां कृपय।तिविद्यीनताम्‌ । तनुतां विदधातिं विरोधितां धननिकेतनगोऽवनिनन्दनः ॥२॥ महेशः भावाथेः- जिसके धनभाव मे ( दूसरे भाव में ) मङ्गल हो वह जातक निधन होता है। ओर यदह दु्टस्वमावके रोगों के आधित रहता दहै! यह दुबुंद्धि होता दै । यह दयादहीन अर्थात्‌ कूरस्वभाव का होता है। प्राय

` दूसरों से लड़ाद-सगड़ा करता रहता है ॥

यदि भवति मिरीखश्वव्मखाने बहोः सुत धनसुखदारेः वर्जितः श्यूरगः स्यात्‌ । नसनयमूतफ्छिः दीनरक्तिः वदद; खलजनसमनबुद्धिः मानवः कजंदारः ॥ २॥ खानखाना

भावाथे–यदि मङ्गल द्वितीय भाव मे हो तो जातक बेहोश, खी-पुत्र, धन भौर सुख से हीन; सदा वितित, कुशूप;, शक्तिदीन, निदंयी; दुष्ट के समान बुद्धिवाखा ओर कजंदार होता है ॥ २॥

यवनमत–पुत्र, स्री, धनरहित;, युद्धश्चरः चिन्तावुर, कुरूपः निदयः नित्य दयी छणगरस्त । गार्णै, घोडे-मेडं, गाडयिँ मादि के व्यापार मे धनहानिः पत्रहानि-विकलवयव, बहूरोगी, होना-ये इस भङ्गर के फर ईदै–घोरुष,

क =

१५६ चम र्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

पाश्चात्यमत–वि्डिग के काम; मरीनों की सामग्री, पद्धओं का व्यापार, खेती, ख्कड़ी तथा कोयले का व्यापार, वेद्यक; नाविक, इन व्यवसायों में घनप्रापि होती हे । इस पर श्युभग्रह की दृष्टि हो, वा प्रहवल्वान हो तो अच्छा धन लाम होता ई । नीषग्रह मे, वा अन्यभ सम्बन्ध म हो तो भयंकर धनदहानि, मन को दुःख, ओौर रोगों से पीडा, ये फल मिलते है | श्रगुसूत्न-विद्याहीनः, खभवान्‌ । षष्ठाधिपेन युतः तिष्ठति चेत्‌ नेत्रवैपरीव्यं भवति । श्म इष्टे परिहारः । स्वोचे स्वक्षेत्रे विद्यावान्‌, नेवरविलखासः। तच पापयुतक्षेत्रे पापे नेत्ररोगः । कुदन्तः । वरपवहिचोरात्‌ भयम्‌ । विमवक्षयः | कामिनी कष्टं मवति | तत्र पापयुते पापक्षेत्रे, पापदृष्टे कामिनीहीनः। अथे–इसे विद्रत्ता नदीं होती; धनप्राति होती है। इसके साथ चरे कास्वामोहोतो नेवरोग होता है । इस पर श्युभग्रहकीद्ष्टिहो तो नेत्र ठीक रहते है । यह मकर वा वरधिकमेंहोतो ओंखोंके रोग, दोतोंके रोग, राजा, अचरि तथा चोरो से भयः धनहानि, ्लीकष्ट ये फल मिलते है । इसी योग मेँ द्वितीय स्थान का स्वामी मी यदि पापग्रह होतो सख्रीप्राि नहीं हेती | विचार-ओौर अचुभव-निङृष्टभोजनसंवष्टि पुरुषरारि’ का फर है । भोगी, प्रवासी; धनवक्ता होना, ये फठ खीराशियों मेँ मिलते ह । जीवनाय, काशीनाथ आदि के दिए हुए फठ खरीराशियों मे मिलेगें । पुत्रवान्‌ होना? यदह फल पुरुष रारि का है-पुत्रहीन होना, यह खीराधि का फल है । खेती, पञ्च, विल्डिङ्ग के कामों से लम होना, इस फठ का अनुभव मिथुन, तला, कुम्भ रारिमे होगी । मशीनरी-लकड़ी-कोयला व्यवसाय से लाम का होना, यह फल मेष, सिंह भौर धनु का हे | नेरोग्य-वैयक से लम-यह फल करक, वृश्चिक मीन राशि का है। दवितीय मङ्गल यदि मेष, सिंहः धनु मं हो तो एकदम धनप्रासि की इच्छा होती है । अत एव लाटरी, सद्ा-जू्ा आदि की ओर रुचि होती है । पर- स्रियो से धनलाम होता हे; परन्वु यद धन इसी व्यसन मे नष्ट दहो जाता हे । द्वितीय भौम यदि वक्रीहोता ह भौर मेष, कक, सिह-मीन रुन होता है तो मिली हई संपत्ति न्ट हो जाती है, यर नई की प्राति नद्य होती । इस योग परे मगल वक्री न होतो थोडा हूत धन किसी तरह मिरु जा ता है-इस मग की यही विरोषतादहैकियातो एकदम बहुत धन मिल्ेगा। वा मिलेगा ही नदीं । यह मंगल स्वराशि मं वा अग्निरारिमेंदहोतो पत्नी कीमूल्यु होती है। एसा युवावस्था मे होता हे । वचो के दि, घर-यहस्थौ चलने के दिए दूसरा व्याह करना पड़ता है । बषरःकन्या-मकर मे मौम हो तो स्त्री मरती तो नदी किन्तु अकारण कुछ कार पति-पत्नी विभक्त से रहते ह । मिथुन, वला, कुभमे हो तो धन का संग्रह होता है-खनं नहीं होता है डाक्टर को ओौर वकीलों को सच्छा धन मिल्ता हे (- यदह मंगल अ्योतिषियों के लि नेष्टहै। इनके कटे हए बुरे फट जस्दी मिग, श्चुभ फलों का अनुभव शीघ नहीं होगा |

मगर १५७

टिप्पणी-मेषादि राशिस्थं भौमफल–

मेष-मेष मेँ मंगल हो तो जातक प्रतापी, सत्यवक्ता, वीर, राजा, रणप्रिय, ताहसी, सेनापति, ्रामपति वा जनसमूह में मुख्य, हययुक्त, दानी, बहुत गाः बकरी, मेड ओौर अन्नसंग्रह करनेवाला, बहुत खियों का प्रेमी होता हे ॥ १॥

बृष–च्रष मे मगल दहा तो पतित्रताके व्रत को नष्ट करनेवाला, बहुभक्षी अस्पध्रनी, पुत्रवान्‌, देषी; वहतो का पोषक, अविश्वस्त, उद्धतसरूप से क्रीडा करनेवाटा, अपरियवक्ता, सङ्धीतज्ञ, पापी, बन्धुविरोधी, कुलकल्ड्की होता हे ॥२॥

मिथुन-मिथुनमे भौम हो तो मनोहर, सहिष्णुःबहुज्ञ, काव्य तथा शिव्पकला निपुण, प्रवासप्रिय, धर्मात्मा; मतिमान्‌; पुत्र-मिच्र-हितकारक, बहुत से कामों में तत्पर होता है ।॥३॥

कक–ककं मे मंगल होतो जातक दूसरे के घर म रहनेवालर, विकलता तथारोग से पीडित, खेतीवाला तथा धनी; बचपन मे राजायं जेसा उत्तम भोजन ओर उत्तम वस्नो को चाहनेवाला, परान्नभोजी, जलाशय से धनी, वोह वेदना से पीडित, अथवा ब्रुढापेमे वेदनां से पीड़ित; स्वमावमं मदु तथा सवभाव से दीन होतादहै॥ ४॥

सिह- सिंह मे भौम हो तो असहनशीक, प्रतापी, वीर, पराए धन ओर सन्तान को अपनानेवाला, वनवासी, गोसेवक, मांसमक्षणरुचि. जिसके पंख खी मरगई हो, व्याल, सर्प-भौर मृग को मारनेवाला, पुच्रहीन-धमंफल्दीन, बली कायं करने के किए सदैव उद्यत, देह में दृट्‌ होता है ॥ “^ ॥

कन्या–कन्या मेँ मगल हो तो जातक बहुत खं ओर थोडे पराक्रमवाला, विद्वान्‌, दटृपार्धवाला, शत्नुओं से बहुत डरनेवाख, श्रति-स्मृतिप्रतिपांदेत धमं को माननेवाला, रित्पक्ञ, स्नान में षन्दनलेपन मे प्रेम रखनेवाला;, मनोहर रारीर होता है ॥६॥ -

तुखा-ठलखा में मौम होने से जातक भ्रमणरील, कुस्सित व्यापार सम्बन्धी बाणी बोलनेवाला, अपनी बड़ाई करनेवाला; सन्दर-अङ्गहीन, परिवार थोडा युद्ध का शौकीन, दूसरे के भाग्य से जीनेवाखा, स््ी-गर्जन ओर मित्रंका प्यारा, जिसकी पदहिखी खरीमृतदहो ग्र हो, राराब वेषचनेवाला ओौर वेद्या के सम्पक॑ं से उपार्नित धन को नष्ट करनेवाला होता है॥ ७॥

वृध्िक-इधचिकका भौमदहो तो व्यापार मे सासक्त, चोय का सरदार कार्थनिपुण; युद्ध का उत्सुक, अतिपापी, अतिखपराधी, वैरियोंके साथ शठ, ्रोद-हिसा मे कुलुद्धिवाल, चग भूमिस्वामीः पुत्रवान्‌ तथा घ्री का मालिकः, विष, थिः शख्त्रण से पीडित होता है ॥ ८ ॥

धनु–धनुरारि में भोम होतो भारी चोयो के ल्ग जाने से दुज्छ देहवाला; कटोरवाणीवाला, शठ, पराधीन, रथ, गज पर सवा र होकर तथा पेद युद्ध करने- दाखा; रथ पर से बाण चलानेवाख; बहुत परिभ्रम से सुखी, क्रोध से धन ओर सुख को नष्ट करनेवाला, गरुजन-देषी होता दै ॥ ९ ॥

१५८ चमत्कछारचिन्तामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

मकर-मकर मं मंगल हो तो धान्य; धन संग्रही, उख-भोग-युक्त, स्वस्थ, श्रष्ठमति-विख्यात, राना का सेनपति; सुशीखा स्री कां स्वामी; रणविजेता, स्वदेरावासौ, स्वतंत्र, रक्षक, सुशील, वहत उपप्वारों मे प्रेम रखनेवाला होता है ॥ १०॥

कुम्भ–कुम्भमें मौमदहोतो नम्रता तथा पविता से हीन, बूटा दीखने- वाखा, मरणकाठ मे जिसकी दुगति हो-मत्सरता,+असूचा, मिथ्याभाषण से धन को नष्ट करनेवाला, रोमदा शरीर, जा में घन नष्ट करनेवाखा; मेला-कुचेडा रहनेवाला, दुःखी, मपायी ओर भाग्यहीन होता है ॥ १: ॥

मीन- मीन में मंगल हो तो रोगी, अत्पपुत्र; प्रवासी; स्ववन्धु-पराजित, तथा अपमानितः कपट तथा वंचनां (ठगी) के कारण धन को नष्ट करनेवाला, विषादयुक्त कुटिट-तीक्याशोकवाला, गुखजनों यौर ब्राह्यणो का अनादर करनेवाला; निदंयी, अभीष्ट वस्त॒ काज्ञाता, अपनी प्रदंसा से प्रसन्न होनेवाला, अन्तमें ख्याति प्राप्त करनेवाला होता है ॥ १२॥

मङ्ग पर सूयोदि ग्रहों की टष्टि-

मेष-स्वरारिस्थ मगर पर रवि की दष्ट से-घन, शरी, पुत्र से युक्त. राजमन्त्री वा न्यायाधीदा, वा विख्यात राजा होता दै। चन्द्र की ष्टि से- मात्रहीन, श्चतदेद-स्वजनद्ेषी, मित्रहीन, ईर्प्यावान्‌ ओौर कन्या सन्तानवाला होता । बुध कौ दृष्टि से-परधन लेने मे चतर, मिथ्याभाषी, कामी, द्वेषी, ओर वेद्याप्रिय होता है| गरुकी दष्ट से–पण्डित, कोमल वाक्य, सुन्दर, माद-पिवृ-मक्त) घनवान्‌ , अनुपम राजा होतादै। शुक्र कीदष्टिसे-्री के निमित्त बन्धनमागी ओर धन को नष्ट करनेवालादहोतादै। निकी दष्ट से–वल्हीन होने परमभी चोर को पकड़ने में चतुग, परस्री का पोषण करनेवाला होता है |

वरृष–दक्र रारिस्थ मगर पररविकी टष्टिसे-स्रीसे द्वेष करपर्वतर्मे विचरनेवाखा, बहू शत्रवान्‌ , प्रचण्डवेषधारी ओर घर्यवान्‌ होता है । चन्द्रमा की दष्ट से-माव्रद्ेषी, कुटिल, बहुत पत्नीवाला, स््रीप्रिय, सं्रामभीरु होता हे | उुध की दृष्टि से–कटषहप्रिय, वाचाल, कोमल्देह, थोडे पुत्र, थोडे धन- वाखा; दाल्वेत्ता होता है । गद कौ दष्ट से-गान-वाद्य जाननेवाला, माग्यवान्‌ बन्धुप्रिय; स्वच्छ स्वमावदहोतादहै। शुक्र कीद्षटि से राजमन्त्री वा राजपिय, सेनापति-विख्यात ओर सुखी होता हे! गनि की दृष्टि से-मुखी, विख्यात, धनी? मित्र तथा स्वजनयुक्त विद्वान्‌, नगर; ग्राम; वा जनसमूह्‌ का नायक होता दहै! |

मिथुन-बुधरारिस्थ भौम पर रवि क दृष्टि से–विद्या-घुन-गादि-युक्त, वन, पवत, दुगं का प्रेमी, महावटी होता है। चन्द्रमा की दष्टि से-सुखी, धनी, मनोहरः, कन्यायृह्‌ का रश्चक, स्रीजनयुक्तः राजा का गृहरक्षक होता है । बुध कौ दृष्टि से–टेखः काव्य-गणित मे निपुण, वक्ता, मिथ्याप्रियभाषी, राजदूत

मंगखफरु १९१९

रौर शसदिष्णु होता है। गुर की दृष्टि से–राजपुरुष बा राजदूत होकर विदेश जानेवाल्ण, सर्व॑कार्थकुशल ओर नेता होता दै। श्युक्रकी दृष्टि सेली कां सेवक, धनी, सुद्र, अन्न वस्र का भोगी होता है। दानि की ष्टि से- खान, पवत ओर दुगं मे प्रेमी, खेती करनेवाला, दुःखी-शूर, मलिन गौर धनद्यीन होता दै ।

कके–ककराशिस्थ भौमपर रवि की दृष्टि से–पित्त रोग से पीडित, तेजस्वी; न्यायाधीश भौर धीर पुरुष होता है । चन्द्र की इष्टि से—बहुरोग पीडित, नीष्वाचार, कुरूप भौर शोकयुक्त होता दहै । बुधं की रष्टि से- मलिन, पापी; ्ुदरकुडम्नवाखा, स्वजन बहिष्कृत ओर निक्ज होता है। ग॒रुकौदृषटिसे- विख्यात, राजमन्नी, बिद्रान्‌ , दानी; धन्य किन्तु भोगीन होता है । श॒क्र की दष्टि से-सख्री सङ्ग से उद्धिः उन्दी के दोषों से अपमानित तथा धनदीन होताडहै। शनि की दृष्टि से-जल्यात्रा से धनराम करनेवाला, राजतस्य, उत्तम चेष्टावालाः मनोहर होता हे ।

सिंह-सिदहस्थ मंगल पर रविकी दष्ट हो तो–विनीतजन हितकारी मित्र ओर परिजनों से युक्त, गोशाला, वन, पव॑त में प्रेम रखनेवाला, दोता है । न्द्र की दष्ट से–माता का अभक्त, बुद्धिमान्‌, कठोरदेह;, विशाल्कीर्तिः ख्री द्वारा धन लभ करनेवालादहोताहै। बुध की दृष्टि से-चिव्पक्ञ, लोभी; कान्यकला निपुण तथा कुटिलस्वमाव होता है । गुरुकी दृष्टि से–राजाका दरबारी, विन्या मे आचायै, श्रद्धबुद्धि, सेनापति होता है । शुक्र की दष्टि से- खी सुखयुक्त; खरीपरिय; सदा युवा, सानन्द होता है। रानि की दष्ट से-नुद जेता आकार, निधन; परण्ह निवासी ओर दुखी होता है ।

` गुरुराशि ८ धनु-मीन ) स्थ मङ्गर पर रवि की दृष्टि से–रोकपूञ्य,

सुन्द्र, बन-परवंत-दुगं मे वास करने वाखा क्रूर होता है ।

न्द्रटृष्टि से–विंकल, कलद-प्रिय, पंडित, राजा का विरोधी पुरुष होता है ।

बुध की दृष्टि से– मेधावी, का्यकुशक, रिस्पज्ञ, विद्वान्‌ होता है । ` श्र की दृष्टि से-खी तथा खुख से हीनः शत्नुभं से अजेय, धनी, व्यायाम करने बाला होता है ।

शुक की दृष्टि से-खरीपरि, चित्रज्ञ, आभूषणमागी, उदार, विषयसुख भोगी ओौर सुन्दर होता है । |

शनि फी दृष्टि से–कुत्वितदेहवाला; संग्रामप्रिय, पापी, घुमकड़, यख- दीन, परधर्मरत द्योता है । |

दानिराशि ( मकर-कुम्भ ) स्थ मङ्ख पर रवि की टष्टि से- कृष्ण- ` वणँ देह; सूर, बहुखीवान्‌ पुत्र तथा धन-युक्त, स्वभाव अतितीतर होता है । चन्द्रमा की दृष्टि से–चञ्चल, मात्रेषी; आभूषणमागी, उदार, चल मैत्री वाखा ओर धनी होता है ।

बुध की टष्टि से-मंदगामी, निर्धन, कार्यो मेः सफ़ल, निर्बल, कपटी अधर्म होता है ।

१६० चमत्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

| गुरु कीटृष्टि से-खुन्दर, राजाओंके गुणों से युक्त, कार्यो को आरम्भ | कर अन्त में सफक बनाने वाला, दीघरायु, जन्धुओं सै युक्त होता है । डुक की टृष्टि से-विविध-मोग-मोगी, धनाव्य, खरीपोषक, कल्हपिय, होता हे । दानि की दृष्टि से–राजा-बहुधनी, ज्रीद्रेषी वदू प्रजावाला, पंडित किन्तु सुखदहीन ओर रणद्युर होता हे । | कुतो बाहुवीयं कुतो बाहुलक्ष्मीस्तृतोयो न चेन्‌ भङ्गो मानवानाम्‌ । | सहोत्थव्यथा भण्यते केन तेषां तपश्चर्यया चोपहास्यः कथं स्यात्‌ ।३॥ | अन्वयः– मङ्गलः व्रृतीया न चेत्‌ ( तर्हिं ) मानवानां बाहुवौयं कुतः, बाहू ल्मी (वा) कुतः, तेषां सहोत्यव्यथा केन भण्यते, तपश्चयंया उपहास्यः कथ स्यात्‌ ॥ ३॥ सं टी बाहुषीयं भुजवलं कुतः, कुतो बाहुलक्षमीः स्वभुजोपार्जितं द्रव्य, सहोत्थव्यथा भ्रात्रपीडा केन भण्यते कथ्यते-न केनापीत्यर्थः । च पुनः तपश्च- यया उपहास्य जनासः कथं तेषां स्याद्‌ येषां मानवानां व्रतीयो मङ्गलो न चेत्‌ सह जस्थे भौमे एव एतत्‌ फं स्यादित्याशयः ॥ ३ ॥ अथे–जिस मनुष्य के जन्मल्यसरे तीसरे स्थानमें मङ्गल्नदहो उसे जवर करो होगा, भौर बाहुवर से सम्पादित लक्ष्मी उसे क्रय होगी, उसे सगेमाइयां कौ पीडा कहौ होगी ओर तपश्चर्या ते टोकोपह।स उसका कँ होगा । अर्थात्‌ तीसरे स्थान मेँ मङ्गल होने से दी वाहुवर, बाहुवरोपार्जितल्षमी, भ्रात्रपीडा ओौर तपश्चर्या मं लोकदहास्यता होती दै ॥ ३ ॥ तुखना–“यदागोचापुत्रे प्रभवति सहोव्ये तनुभ्तां बलं बाह्मोः पूर्णं निजभरुजवटेनैव सदने । स्थिरा विष्णोः कान्ता ठसति, सहजे कष्टमधिकं तपश्चर्या वर्या मवति च सपर्या विधिरपि ॥ जीवनाथ अथं–जिस मनुष्य के जन्मच्य से तीसरे मङ्गल होता दहै तो वह अपने पूणं मुजवबल से बल्वान्‌ होता दै, ओर वह अपने भुजवटसे ही विष्णु प्रिया लक्ष्मी को अपने घरमं स्थायीसूपसे स्थानदेतादहै। भाई को कष्ट अधिक होता दै। वह विधिपूर्वकं तपश्वर्या-मगवदाराघन, अनुषएठानादिक धार्मिक कार्य भी करता है ।

(मति-विक्रमवान्‌? । आचायदराहमिहिर। अथ– तृतीयस्य मङ्गल से जातक मतिमान्‌ तथा पराक्रमी होता है। ““खल्यातोऽपारपराक्रमः शठमतिंः दुधिक्ययाते कुजे ।› वेद्नाथ अथं- मङ्गल तीसरे भावमें होतो अपार पराक्रमी ओर शटदुद्धि होता है । “सुगुण धनवान्‌ दूरोऽधृष्यः सुखी, व्यनुलोऽनुजे ||” संदेभ्वर अ्थ–तरतीय में मङ्गल्दहोतो गुणी, धनी, सुखी ओौर शूर होता है। इसे कोई दुसरा दवा नदी सकता, किन्त छोटे मादो का सुख नदी होता ।

थ. मंगरफल १६१

““भूपग्रसादोत्तमसौख्यमुचेरुदारता वारु पराक्रमश्च । धनानि च भ्रातर सुखो चितत्वं मवेन्नराणां सदहजमदीजे ॥ ३॥ महेशः मावार्थं :–यदि वृतीयभावमे भौमदहोतो जातक महीपति कौ कपा कां पात्र बनता दै इसे उत्तम सख भिता है । जातक उदार तथा अच्छा पराक्रमी होता है। यह धनी होता है किन्तु इसे भ्रातृसुख नदीं मिक्ता हे ॥ ३ ॥ ““जरयुतुरजवादिरंलतंबूकनातेः सहजविमतिरोगेः संयुतोऽसयुतश्च । यदि भवति मिरीखः खूबरो वा मुखेदट्वजर फिवर संज्ञः स्याद्‌ विरादणदेन ॥ २॥ खानखान! भावार्थं :–यदि मङ्ख वृतीयभावमे होतो जातक धन) ऊट, जवादहिरात रल, तंबू कनात अटि से युक्त रहता रै 1. ओर रोग आदि से रहित होता हे । पराक्रमी, खूव्रसूरत, आओौर धन की आमदनी करने बाल होता है ॥ ३॥ ¢“नृपक्रुपः सुख-वित्त-पराक्रमी भवयुतोऽनुजद्‌दुःखयुतख्िगे ।* जयदेव अभथे- त्रतीय मङ्गल दहो तो राजा की कृपा बनी रहती ईै– जातक सुखवान्‌ धनवान्‌ , पराक्रमवान्‌ तथा रेर्यवान्‌ होता है । किन्तु उसे छोटे मादे कौ मृव्युसे दुख होता हे। “तृतीये भूसुते जातः प्रतापीरील संयुतः । | रणेशूरो राजमान्यो विख्यातश्च प्रजायते ॥ 2 काज्ञीनाय अर्थ- ततीय में मङ्गल हो तो जातक प्रतापी, सुशक, रणश्चर; राजमान्य- तथा संसार मे प्रसिद्ध होता हे। “सूरो भवव्यघ्ष्यो ्रात्रवियुक्तो मुदान्वितः पुरुषः । ॥ भू पुत्रे - सहजस्थे समस्तगुणभाजनो ख्यातः ॥> कल्पाणवर्मा अर्थ- तृतीय भागवत मङ्गल हो तो श्र, अजेय, भ्रात्रहीन, हृष्ट, सवेगुण- युक्त, ओर विख्यात होता हे । | “सहज भवनसंस्थे भूमिजेभ्रावरहंता रतनु सुखभागी वंगभौमो विलासी ।

(क)

धनसुख नरदहीनो नीचपापारिगेदे वसति सकल्पूरणो मन्दिरे कुत्सितेच ॥°

भानसागर

अथै- तृतीयम मङ्गल होतो ्रावृहीन ओौर कृशदेह होता दै। यदि

उचचमेदहोतो सुखी, विलासी होता है। यदि नीच, पापग्रह वा रात्रुराशि मं

होतो जातक सर्वथा भरपूर होता हुभा भी धनदहीन, सुखदीन-जनदीन यौर उत्तम गृहहीन होता है | अर्थात्‌ उसके सभी सुखनष्ट हो जाते रै । (भूपग्रसादोत्तम सौख्यमुचचै रुदारता चारूपराक्रमश्च ।

धनानि च भ्रात्रसुखो जितत्वं भवेन्नराणां सहजे महीजे ॥* दुण्डिराज

अथै–तरतीयभावमे मङ्गल होतो राजा की प्रसन्नता से उत्तम सुख

मिलता है। जातक उदार, पराक्रमी भौर धनी होता हे; किन्तु माद के सुख

से वंचित रहता है । (“भगिन्यौ सुभगे दे च क्रूरेण निधनं गते । कुमृव्युना भ्रातरौ दौ मृतौ शस्त्ादिभिस्तथा ॥* गग

१६२ षवमस्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

अथ- दो सुंदर बिन दोती है, किन्तु उनकी मृ्युदोतीदरै। दो भादयों कामी शस््रादिके द्वारा निधन होता है । ““पुवीरथै खचरे त्रतीय भवने दे च पूणैऽथवा। पश्रात्‌ पुत्रसमुद्‌भवो निगदितः पूर्वं हि कन्योद्‌भवः | सौरिकषेत्र विनष्ट गमं करणं विख्यात मवीदवरं भौमे | रौनक अ्थ– तृतीय स्थान मेँ पापग्रह हो मंगल हो, अथवा उसकी पूरणं दृष्टिहो तो पदिटे कन्या होती है । फिर पुत्र होता दै। यद शनि की रारिमे होतो गर्भ॑पात होता है । यदह प्रसिद्ध मत्री होता है, ।

“धविक्रमे भ्राव्रमरणे धन लाभः सुखंयशः ॥ परहार अथे-माई की मूल्यु, धन, सुख, तथा कीर्ति, ये फल मंगल के है । “धसग्रज प्रष्टजं हंति सहजस्थोधरासुतः | पराह्लर

अ्थ- बडे ओर छोटे भाई के छिएः त्रतीय मौम मारक होता है ।

“कुजो वा तदास्थिमगं विषजंभयं च करोति, दादञ्वलनाच चिन्हम्‌   '”पुःजराज

अ्थ–दड़ी टूटना, विषवाधा, जलने से दाग रहनाः । ये फट मंगल के है ।

““कथारतः यब्देऽनुज क्षितिसुतोऽनुजमुचविदवे 1? ब्रृहद्यवनजातक अथं- युके १३ वप्रं छोटे माई को तकलीफ होती दै |

१ शयोदरो वंुसौख्यं तृतीयः कुरुतेङजः । हिल्लाजतकः अथे– ५२ वै वपं वंधुयुख मिल्ता है ।

“ध्यह दचिद्रीहोताहै। इस मंगल के साथराहुहोतो जातक पनी स्री कात्याग करके परस्त्री से व्यभिचार करता हे । साहसी; शरीर, शत्रु के लिए निष्टुरः तथा संवंधिर्योंकीब्द्धि करनेवाला होता है। गोपालरत्नाकर

पाश्चात्यमत–गाड़ी, रेल, वाहन, इनसे मय होता है | पडोसियों से तथा संवधियां से गडा होता है | किसी. दस्तावेज पर दस्तखत करने से, वा गवाही देने से भयंकर आपत्ति आती ह । स्वभाव आग्रही भौर क्रोधी होता दै । बुद्धिमान्‌ किन्तु हल्के हृदय का होता दै। मकर के सिवाय अन्य रारिर्यो मे यह मंग हो तो मस्तक शूल, वा चित्तभ्रमो सकता है । अश्चभयोग मे मंगल होने से संवधिर्यां से वहत तकलीफ; प्रवास मं तकलीफ; गौर दारिद्रय होते है |

भ्रगुसूत्र- स्वस्त्री व्यभिचारिणी । मदे न दोषः । अनुजदीनः । द्रव्या लाभः । राहुकेवयुते वेदयासंगमः । भ्रावरदेषी; क्टेशयुतः सुभगः । अत्पसहोदरः । पापयुते पापवौक्षणेन भ्राव्रनाशः । उचचेसवक्षेतर यमयते भ्रातादीर्घायुः घैर्य॑विक्रमवान्‌। युद्धे यरः । पापयुते मित्रक्षेत्रे धृतिमान्‌ |

अथ–ख्नसे तीषरे मंगलदहोतो जातक की अपनी स्री व्यभिचारिणी होती हे । मगल श्चमग्रहच््ादोतो यह अनिष्टफल नहीं होता| छोया भाई नही होता निधनता होती है । मंगल ओर राहु एकत्र हों तो जातक वेदयागामी होता दै । माहईसे कपट करता है-दुःखीहोताहै। सुन्दर होता है। भाई

मगरूफर १६३

थोडे होते द । पापग्रहयुक्तं मंगलटहोवा पापग्रह इसे देखतेदहोंतो भात्रनार होता है | मंगर अपनी उच्राशि (भकर) मेदो; वा मेष, बिक (स्वरृह) में हो तो भाई दीर्घायु होता है । गंभोर ओर प्रतापवान्‌ होता है। संग्राममे द्यूर होता है | मंगल के साथ पापग्रहवैठे हों भौर मेगल मित्रक्षे्रमे वैठाहोतो जातक धेर्यवान्‌ होता है |

विचार ओर अललभव–चन्धुनाशः यह अञ्चुम फल प्रत्येक अ्रन्थकार ने कहा है–यह अश्भ फल सख्रीरारि का है । पयुख न होना यह अञ्युम फल पुरुषराशि का है । ग्ग-शौनक आदि का फलदेश-पुरुषराशियों का है । इस विष्य को स्पष्ट करनेवाला शशोक-

““्रातरदो खरीम्रदक्षस्थो भ्रात्रदौ पुप्रहक्षगो | सोदरेरकुजौ स्यातां भ्राव्रस्वससुखप्रदौ ॥

अथ- मंगर ््ीग्रह कौ राशिमे होतो बन्घुओं का सुख मिरूता है । पुरुषग्रह की राशि में तो बहनों का सुख मिखता हे ।

तृतीय मंग पुरुषराशिमेंदहोतोमाताकीमृल्यु होती है-सौतेटी माता आती दहै। मकर को छोड़कर अन्य स्रीराशिमेंदहोतो बड़े भौर छोटे भाद जीवित रहते द । पुरुषरारिमेंदोतो छोय भाई बिल्कुल नहीं होता । बहिन होती दै । अथवा गर्भाघात होता रहै। छोरी बहिन के बाद छोटा भाई होतो जीवित रह सकता है । भाई के साथ वैमनस्य रहता है । बय्वारा की परिसिति वन जाती हे किन्तु अदालत तक नोौबत नहीं आती । पुरुषरारि मं मंगल दहो तो रगडा अदाल्तमें जाता दहै वाद मं बयवारा हो जाता हे ।

मंगट- मेष वृध्चिकया मकरमं होतो जीवन अस्थिर रहता है| स्री राशि मेदो तो साधारणतः जातक खीर्थी ओौर धूतं होता है । यदा भूयुतः संभवेत्तयेभावे तदा कि प्रहाः सानुकूटा जनानाम्‌ । सुद्‌ बगेसोख्यंनकि च्छत्‌ विचिन्त्यं कृपावखभूमीः ठभेद्‌भूमिपाटात्‌।४।।

अन्वय :–भूसुतः यदा ८ यस्य ) तुयभावे संभवेत्‌ तदा जनानां सानुकूलाः ग्रहाः किम्‌ › ( तस्य ) सु्टद्वगं सौख्यं किञ्चित्‌ न विचिन्त्यम्‌, ( सः ) भूमि पाटात्‌ कृपावस्रभूमीः ्मेत्‌ ॥ ४ ॥

सं टी <-यदा भूसुतः भौमः व॒यंभावे चतुथ॑स्थाने संभवेत्‌ तदाजानानांग्रहाः सानुकरूलः श्चमफल्दाः किं किंतेन इत्यथः । तस्मात्‌ स॒दद्वगं सौख्यं वंघु-मित्ररह- माघ्रादि जनितं सुखं न किंचित्‌ विचिन्त्य, यथा भूमिपालात्‌ राज्ञः सकारात्‌ करेपा च दया च वस्रं च प्रसादं भूमिश्च ग्रामादिः ताः कृपावस्नभूमीः ल्मेत्‌ ॥ ४॥

अथ- जिस मनुष्य के जन्मल््मसे चौये सानम मंगल हो उसे ओर ग्रह अनुक्रूल होने से भी क्या होगा, अर्थात्‌ उनकी अनुकूलता चौये मंगल के आगे व्यर्थ होती दै। उसे मित्रवर्गो से कुछभी सुख नदींहोगा। राजासे सम्मान भौर वख तथा भूमि का लाम उसे अव्य होता है ॥ ४ ॥

९१६७ चमत्कारचिन्तामणि का तुख्नात्मक स्वाध्याय

तुरखना–चठथं भूपुत्रे भवतिजनने यस्य॒ स्वलाः किमन्ये रन्याद्याः सततमनुकूलास्तन॒ग्तः। सुदटद्वगात्‌ सौख्यं प्रभवति न किंचिन्‌ निजग्रहात्‌ रपारचोः श्चोणीनरपति कृपा वस्र पटली ॥ जीवनाय अ५–जिसके जन्मल्य से चतुथ॑भावमें मंगल होता है उस जातक की जन्मकुण्डली में सूयं आदि आठ ग्रह वलवान्‌ होकर विद्यमान्‌ होभी तो वे इक वा अकेटे-अकेठे कोड श्युभ फठ नदीं दे सकते-उनका सामथ्य॑-उनकी शभ फल दातृत्व शक्ति-सभी कुक व्यथं हो जाता है-ओौर मंगल का नाशकारी सामथ्यं सवमूधन्य तथा सवंशिरोमणि होकर विराजमान रहता है । जातक को अपने मित्र वगं से तथा अपने धर के ठोगो.से भी सगे संवंधियोसे भी किसी प्रकार का सुख प्राप्त नहीं होता । ग्रओं से भय की प्रापि अवद्य होती है) चतुथभावस्थ भौमका एक श्चुभफल अवश्य होता है-जातक को राजा की करपास्े धनी श्रेष्ठी आदि धनाब्य व्यक्तियों की कृपा से बखर आदि का खाभ अवद्य होता है। दुःखं सुद्‌ वादनतः प्रवासः कलेवरे रुग्बरताऽबरत्वम्‌ । प्रसूतिकाठे किर मंगलाख्ये रसातटस्ये फलमुक्तमार्येः ॥ ढं डिराज अ्थ–जिसके जन्मलम से चवुथं भावमें मंगल वैठता दै उसे मित्रसे मी दुःख, वाहनसे भी दुख होता दै अर्थात्‌ सुखदायक भी दुःखदाता हो जाते द । परदेश में निवास होता है-्रल्वान्‌ होकर शरीर पर रोग टूट पड़ते है ओर शरीर मं भारी निवता होती दै–सहनराक्ति का अमाव होता रहै। ये अद्युभ फट चतुथं मङ्गल के ह । बन्धुपरिच्छद्रदितो भवति चवुथंञथ वाहन विहीनः | अतिदुःखैः संतप्तः परि्हवासी कुजे पुरुषः ॥ कल्याणवर्मा अ्थ–चवुधंभावगत मङ्गल होने से निम्नटिखित अद्यभ फर प्राप्त होते हे बन्धु नहीं होते, खाने के छिए, अन्न ओर पहिनने के लिए, व्र नीं रहते, सवारी नहीं मिक्ती, सवप्रकार का दुःख चारों ओरसे आकर चेर ठेता है-रहने के छिए अपना धर मी नदीं होता । चठुधैभौम तो एक प्रकार से मूर्तिमती विपत्ति ही है-यही कहना ठीक होगा । जडमतिरतिदीनोवंधुसंस्ये च भौमे न मवति सखमभागी बन्धुदीनश्च दुःखी । भ्रमति सकठ्देरो नीचसेवानुरक्तः परधन-परनारी छन्धचित्तः सदैव ॥ मानक्षागर अ्थ–चतुर्थभावस्थ मंगल होने से जातकः की वुद्धि पर पर्दा पड़ जाता है अर्थात्‌ विचार बुद्धि नहीं रहती, दीन सौर बन्धुहीन होता है। खख होता ही नदही-दुःख अवदय होता है-देश-विदेश मारा-मारा फिरता है, कहीं पर मी स्थिरता ओर वित्तशान्ति नहीं मिल्ती-भारी पतन दहो जाता है, नीव सेवा अर्थात्‌ असेव्यसेवा करनी पड़ती है–इस पतन की सीमा यहीं तक नही-दूसरे के धन की ओर, दूसरे की छरी की ओर चिम्त खालायित रहता है ।

मंगरूफर १६८

चठथं सूखते कृष्णः पित्ताधिक्योऽरि निर्जितः । ॥ वरथाटनोदहीनपुत्रो महाकामी च जायते ॥ काञ्चीनाथ अथे–चुथमाव में मङ्ग होने से जातक का वर्णं काला होता है- रारीर मं पित्त का आधिक्य होता है । वैरी चारों ओर से चट्‌ आते है । व्यर्थ के कामों मे इधर-उधर भटकना पड़ता रै- पुत्र नहीं होता, जातक महा- कामी होता है।

„ ˆ खद्धदि विच॒हन्‌ मात्रक्षोणी-सुलाख्य वाहनः ॥» मंतरेश्वर अथे–यदि चतुथ में ङ्गक हो तो जातक मातृहीन, मिव्रहीन, सुखहीन- कषोणी-भूमिदीन तथा यहहीन तथा वाहनदहीन होता है। कहने का ताद्य यह हे कि चतुथमाव से जिन-जिन वातं का विवार किया जाता है उन सबके सुख मं कमी हो जाती है । .“असुखवाहन धान्यधनो विकल धीः सुखरे सति भूसुते |” जयदेव अथ–चठथभाव मे यदि मङ्गल होता दै तो जातक सुख से, वाहन से अननसेः धनसे हीन हो जाता ह । बुद्धिमी व्याङ्ुर रहती है अर्थात्‌ विचार बुद्धि का अमाव दहो जाता है।

“(विसुखः पौडितमानसश्चवुथ । वराहमिहिर अथे–चौथे मौम हो तो सुख नहीं दोता-मानसिक पौड़! रहती है । “ममे वंधुगते ठ वेधुरहितः खीनिर्जितः शौर्यवान्‌ | वंचनाथ ` अथे–चलु्थं मङ्गल दो तो पिर नहीं होता, जातकं च्रीवशवतौं ओर

पराक्रमी होता है ।

“कुजे बंधौ भूम्याजीवोनरः सदा ।› गं अथ–चतर्थस्थानस्य मौम होने से आजौविका खेती से होती ३ । ‘‘सभोमे विदग्धे, विभग्नं, यदा मंगले वुर्यमावं प्रपन्ने सुखं कि नराणां तथा

मित्रसौख्यम्‌ । कथं तत्र चित्यं धिया धीमता वा परं भूमि तो छाभमावं प्रयाति ।* जागेश्वर अथे- दूय पएूगा घर होता है, ओर वह मी जल्ता ३, मित्रों का तथा अन्य किसी प्रकार का सुख नहीं पिल्ता । बुद्धि नदीं दोती, किंतु जमीन से लम होता है। दुःखं यदद्‌ वाहनतः प्रवासात्‌ कलेवरे रुग्‌ बल्ताऽबित्वम्‌ । प्रसूतिकाले किल मंगठेऽस्मिन्‌ रसातटस्ये फलमुक्तमायेः ।1: बृहदयवनजातक अथे-मित्र) वाहनः प्रवास इनसे दुःख होता है । शरीर बहते रोग तथा दुबल्ता एवं प्रसूति के समय कष्ट होता है । “अस्ग्टसहोदरार्तिम्‌ । आवें वषं माई को कष्ट होता है। “पद करजविराड्वै नोतनूत्थं सुखं च समरघरधरायां धैर्ययुन्धी धनीनः | खरयुशनक वेददं कज॑मंदो हमेशः प्रभवतिष्व मिरीखो दोस्तखाने नरेत्‌ ॥४॥ खानखाना

१६६ चमस्कारचिन्तामणि का तुख्नात्मक स्वाध्याय

भावाथे–यदि मंगर चवथंभावमें दो तो जातक के हाय ओौर पौव लम्बे होते दै। इसे रारीर सुख नदीं होता है। यह रणम धीरज रखता है } यदह घनदीन, दारीर मं मजबूत, दया से दीन ओर सदा ऋण ठेनेवाला होता है ॥५॥

“भ्वतुथं बन्धुमरणं रत्रद्द्धिधंनव्ययः’” । पराशर

अथे–माई की मृत्यु, रात्नवरद्धि) तथा धन की हानि, ये फल चतुथभावगत

मंगल के है| “आरः सव्रल्श्चतुथं पित्तञ्वरो वा ॒व्रणरूग्‌ जनन्याः | भवेन्नितांतं त्रणातः पारश्वयवारे दहनेन दग्धः ॥ पुंजराज.

अथे–चतुर्थ मे वलवान्‌ मंगल दो तो माता को पित्तज्वर वा रणरोग होता हे । शरीर में व्रण होते है । विदोषतः पीट मे वा जलने से व्रण होते है|

भृगुसूत्र-गरदच्छद्रम्‌ । अष्टमे वपं पित्ररिषं मात्ररोगी। सौम्ययुते पर गृहवासः । निरोग रारीरी, क्षेत्रहीनः, घन धान्यदहीनः, जीण॑गहवासः । उचचेस्व क्षेत्र द्रभयुते मित्र्षेत्रे वाहनवान्‌, कषेत्रवान्‌, मात्रदी्घायुः । नीचक्षं पापमूत्युयुतेमावनाशः। सौम्ययुते वाहन निष्ठावान्‌ । बन्धुजन देषी स्वदेरा परित्यागी वस्वहीनः |

अथे-ख्न से चौयेमावसें मंगलूदहोतोधरमें कल्ह्‌ दहोताडै | वर्षे पिताको यरि ओौरमाताकोरोगहोतादहै। मंगकके साथ श्चुभग्रह वैरे दों तो दूसरे के षर में रहना होता है । शरीर में नेरोग्य, ग्ददीनता, धनराहित्य, धान्यरादित्यः पुराने दूे-पूटे घर मँ वास होता है । मंगल उच्च मे ( मकरमें ) हो, वा स्वणदी-मेषः वृध्िकमें हो, वा श्भग्रह से युक्त दो वा मित्रक्षे्रीदहोतो सवारीहो, षरदहो;, माता दीर्घायो, यदि मंगल नीष्व (कक)मे होवा पापग्रहयुक्त हो अथवा ष्टम स्थान के स्वामौसे युक्तहो तो माता की मृत्यु होती हे । यदि शुभग्रह युक्त दो तो वादन की इच्छा उत्पन्न होती है। भाई अर कुडम्बियोँ से वेर होता दै-जातक अपना देश छोड परदेश मे वास करता है-तथा वस्रदहीन भी होता है ।

यवनमत– यह मगल वलवान्‌ न होौँतोबुटढापे मं तकलीफ होती है| माता-पिता के साय विरोधदहोतादहै। धर के क्षयो मे व्यस्त रहता है । घर गिरना बग आग लगने काभव होता है| स्वभाव उद्धत होता दहै। दाथ-पैर लम्बे होते दँ । यद युद विजयी, कितु निर्दय तथा ऋणम्रस्त होता है ।

पाश्चात्यसत– बहत घूमनेवाखः; गडा, मां-बाप का घात करनेवाला तथा खुखदीनं होता हे । यद श्चुभ सम्नन्धमें होतो जीवनमें कमी दुभ्खी नहीं होता । इसके व्यवहार मे श्च ओर ्गडे बहुत होते दे। यह पागल जैसा माट्म होता है, ओर बहुत गलतियां करता हे । सहरी आओौर दुराग्रही होता है । इस पर पापग्रह कीदृष्टिदहोवा पापग्रह युक्तदहोतो दुघटनाओंका भय होता है ।

विचार ओर अलुभव-मंगल द्वारा सम्पत्ति का नष्ट होना है अतः इसे नाश्चकारी अ्रह मानना होगा । जमीन; षरबार, खेती बाड़ी का कारक भी र्मगल है

मंगरूफल १६

यह मान्यता मा सदिग्धसी हीदहे। सभी प्रन्थकासों ने मंग का फल अश्चुम ही बतलाया है। ये फट पुरुषरारियों के हैँ । ओर यभ फल स्त्रीरारियों के रै | किंसी को सम्पत्ति का सुख मिलता हेतो संतति का सुख नहीं होता है। संतति कष्टदायकं होती है। इसका उत्कर्षं २८ वै वष॑से ३६ वर्षतक होता हे । मेष, कक, सिंह वा मीन खमन दो ओर मंगल चतु्थंदहोतोमाताकी मृल्यु नदीं होती, द्विमायायोग भी नहीं होता क्योकि एेसी स्थिति में मंगल ककं, तखा, वृश्िक; वा मिथुन में होता दहै। अन्यराशियों मे माता-पिता की मृत्यु, तथा द्विभार्यायोग होता है । १८ वेँ-२८ वैँ-३८ वे तथा ४८ वैँ वर्षं मे शारीरिक कष्ट होता हे । जातक का उत्कषं जन्मभूमि में नदीं होता-बहुत क्ट ही होते ै। जन्मभूमि से दूर परदेश मं उत्कपं होता है । अपने उन्रोगसे ही षर-बार प्राप्त करना होता है । अग्निराशिका मंगलूदहोतो घर जरजाता दै। ककं, तुला; वृश्चिकः; मिथुन में मंग इहो तो अपना घर बनवाकर अंतिम समय वहीं काटने की इच्छा होती दहै। ओौर यह इच्छा सफठ होती है । किन्तु मृत्यु अपने धर मे नदीं होती । “कुजे पंचम जाठराग्निवंरीयान्‌ न जातं जु जांत निहन्व्येक एव । तदानीमनल्पा मतिः किस्विषेऽपि स्ययं दुग्धवत्‌ तप्यतेऽन्तः सदैव ।। ५॥ अन्वयः– कुजे पेष्मे ( सति ) जाठराग्निः बलीयान्‌ ( मवति ) तदानीं किल्विषे अपि ( तस्य ) मतिः अनस्पा भवेत्‌ ( सः ) सदैव स्वयं दुग्धवत्‌ अन्तः तप्यते, एक एव ( कुजः) न जाते जातं ( च ) संतानं निहन्ति नु ॥ ५ ॥ सं~ टी–पचमे कुजे जाठरः अग्निः उदराम्निः वटीयान्‌ प्रवङः, किस्विषे पापे अपि अनस्पा भूयसी मतिः स्यात्‌, स्वयं च अन्तः मनसि दुग्धवत्‌ तप्यते सदेव व्याकु; स्यात्‌ इत्यथैः, तदानीं एक एव कुजः अजातं अन्यत्‌ जाते अपत्यं निहन्ति नु मारयत्येव ॥ “५ ॥ । अथे–जिस जातक के जन्मलग्न से पंचमभाव में मंगठ होता है उसकी उद्राग्नि प्रबल हो जाती है पाचनशक्ति तीव्रहो जाती है इतनी भूख ल्गती दै कि श्वुधा शान्ति होती ही नदीं । उसकी पापक्म॑वुद्धि भी बहुत बट्‌ जाती दै- एक पापकर्म करने के अनन्तर दूसरा पापकर्म, फिर तीसरा पापकर्म-इस तरह उसकी बुद्धि पापकर्मा मे बट्ती दही जाती है । इच्छा प्रर होती जाती ह वरि होती नहीं पराम यह होतार किं वह अन्तरात्मा मे संतप्त रहता दै–नेसे उपलो की आग पर रखा हुभा दूष अंदर ही अंदर जता रहता है दसी प्रकार जातक अपने मन में अन्द्रअन्द्र जलता रहता है । पांचर्वे भाव मे वेटा दुभा भके ही मंगल जातक की उपपन्न तथा गभ॑र्िथित सन्तान को नष्ट करता रहता है ॥ ५ ॥ तुख्ना-““अपवयेक्षमा पुत्रे भवति जठराग्नेः प्रबरूता, न सन्तापो जीवत्यपि यदिः च जीवत्यपि गदी । सदान्तः संदापः खलं मतिरनत्पा धनिचये कृतेऽपि स्वर्गापिर्नहि जनिमतामथं निबहः ॥* जीवनाय

१६८ चमच्कछारचिन्तामणि का तुर्नात्मक स्वाध्याय

अ्थ–यदि मंगल पेचमभावमें हौ तो जठराग्नि प्रव दोती है अर्थात्‌ अधिक भोजन खाता है ओर पष्वा भीकेतादहै। इस जातक की संतान जीवित नदीं रहती दै-भौर जीवित रदे मी तो रोगी रहती दे । दय संताप ओर उदधि बड़ी होती है । पापसंचय करने पर॒ कदाचित्‌ स्वगंकी प्राप्ति हो सकती है, किन्तु धनसञ्चय नहीं हो सकता है अर्थात्‌ निधन ही रहता है । ताप्य यह है- जसे पापवराहूस्य से स्वर्गपरा केव स्वप्न का धन है इसी प्रकार अर्थसंचय भी एकमात्रस्वप्मदीदहे। “्सौख्यार्थं पुत्ररहितश्चल्मतिरपि पंचमे कुजेभवति । पिद्यनोऽनथप्रायः खख्ध विकटो नरो नीचः” | कल्याणवर्मा अ्थ-पंचममावमे यदि मंग होता है तो जातक सुखहीन, धन हीन, पुत्रहीन, चषल्मति पिद्यन, यनथंकारी, खट, विकल भौर नीच होता है । “तनय भवन संस्थे भूमिपुत्रे मनुष्यो भवति तनयदहीनः पापशीरोऽति दुःखी । यदि निजग्रहठुगे वतेते भूमिपुत्रः ` कृशमट्युतगात्रं पुत्रमेके ददाति ” ॥ । मानतागर अर्थ–संतानभाव मे यदि मंगल हो तो जातक पुत्रहीन, पापी भौर दुःखी होता है । यदि मंगल स्वण्हीदहोवाउचकाहो तोएक पुत्रहोतादहैजो देह से दुवंखा पतल होता है । कफानिलाद्व्याकरुल्ता कठ्त्रान्‌ मित्राच पुत्रादपि सौख्यदहानिः | मतिर्विंरोमा विपुलामजेऽस्मिन्‌ प्रसूतिकाले तनयाल्यस्मेः || ृष्डिराज अथ-जन्मलन से पंचममाव मेँ यदि मंगल होता है तो कृफ भौर वात से व्याङुक्ता होती हे, जातक को स्त्री-मित्र तथा पुत्र का सुख नदीं होता है- बुद्धि में विपरीतता आ जाती है। .

“असुतो धनवजितः त्रिकोणे” वराहमिहिर अथे-पर्चमभाव में मङ्गर होतो पुत्र ओर धन का अभाव रहता § । “अखतधनः कफवात्रवान्‌ विबुद्धः ख॒दटद्वल्म खुखवर्जितः सुतस्थे? | जयदेव अथं-पञ्चममावस्थ मङ्गल हो तो जातक पुत्रहीन, केफ-वात-व्वाधिवान्‌ ,

बुद्धिरदहिंत मिवखख, ख्रीसुख से हीन होता है। “करुरोऽटनश्वपठसाहसिकोविधर्मी भोगी धनी च यदि पञ्चमो धराजः | “धपुत्रस्थानगतश्च पुत्रमरणं पुत्रोऽवनेः यच्छति?” || वेदनाथ अथे–पञ्चमभाव मे मङ्गल होने से जातक करर घुमकड़, साहसी, अपना- धर्म छोड़कर दूसरा धमं अपनानेवाला;) मोगी भौर धनी होतादहै। पुत्र की मृत्यु होतीदै। “धविसुखतनयोऽम्थप्राय! सुते पिद्धुनोऽल्पधीः? || ` मन्चेश्वर अथ–यदि पञ्चम मे मङ्गल होतो सन्तान का सुखन हो, उसके माग्ध म बहुत सी.खरावी कौ बातें होती र्द । एेसा व्यक्ति बुद्धिमान्‌ नहीं होता ओर चुगुटखोर होता है ।

भरगरूफख . १६९

^पञ्चमे च धरापुत्रे कुसन्तानः सदाख्बः । बन्धुवर्गे विरक्तश्च नरो दीनोऽपि जायतेः” ॥ का्लीनाथ अर्थ–पञ्चमभाव मे मङ्ग होने से सन्तान अच्छी नदीं होती, स्वयं सदेव रोगी रहता रै; बन्धुं से वैमनस्य होता है, तथा दीन होता है । ““रिपृष्टष्टो रिपुक्षेत्रे नीष्वो वा पापसंयुतः । भूमिजः पुत्रशोका्तिं करोति नियतं ब्रणाम्‌? । गगं अर्थ- पञ्चम मङ्गक यदि शतु्रह की राशिमें, नीच रादि मे, पापग्रहसे युक्त वा दष्ट दो तो पुत्र की मघ्युनियमसेदहदोतीदहै। ` “कमफदमतदाना अङ्कखाने मिरीखः पिशरजरवजीरन्नेस्तदरखानये स्यात्‌ ) अनिलकफजयगर्व्याकुरो वेमुरौवत्‌ गुखवर बदअङ्कश्वोदरन्याधियुक्‌ स्यात्‌ ॥ ५ ॥ खानखाना भावा्थः–यदि मङ्गल पञ्चमभाव म दो तो जातक कमबोख्नेवारा, निदि पुत्र, धन ओर अच्छी नौकरी के सुख से रदित, बायुरोग भौर कफरोग से व्याकुक, बेम॒रौवत ८ शीलदीन ) क्रोधी ौर उद्र रोग से युक्त होता है ॥ ५ ॥ “महज सुते चेत्‌ तदासौ श्चुधावान्‌ कफेर्वातगुल्मैः स्वयंपीञ्यतेऽसौ प्रं वैकलनात्‌ तथा मित्रतोऽपि भवेद्‌दुखितेः रानुत्तशापि नूनम्‌” ॥ ८य॒दा मङ्गलः पञ्चमे वै नराणां तदा संतति्जायते नडयते वा” । जागेश्वर अर्थ–जातक को भूख बहत होती है, कफ तथा वातगुस्म रोग से पीडा होती है। खरी; मित्र तथा शत्रुओं से कष्ट होता है। सन्तान होती है किन्तु मरजाती ह । । मौमेऽग्िराखव्यथा प्रोक्तांगेषु सरतप्रजास्तु नितरां स्यान्‌ मानवोदुखितः ॥ पुञ्जराम अर्थ-अभिसे, वा शख्रसे दाहिने पैर को जखम होता है सन्ततिं जन्मते ही मर जाती है- बहुत दुःखी होता हे । | ““पञ्चमे पित्रहानिं च धनायतिसुतोयशः” ॥ पराज्ञर अर्थ–पिता की मृल्यु, किन्तु धनं सन्तति, कीर्ति प्राप्त दोते है । “अको राहुः कुजः सौरिरुग्ने तिष्ठतिपञ्चमे । पितर॑मातरं दंति भ्रातर च रिद्यून्‌ क्रमात्‌, ॥ लोमहसंहिता अर्थ–ख्य वा पञ्चम में रवि, राहु; मङ्गल, रानि होतोरविसे पिता का, राहु से माताका, मङ्ग से भाद का; एवं छनि से वचां की मृत्यु होती है । भगुसूत्र- निधनः पुत्राभावः, दुमार्गौः राजकोपः | षष्ठवषै आयुधेन किंचिद्‌दण्डकालः । दुर्वासनज्ञानशीख्वान्‌ ।- मायावादी, तीशा धीः । उच स्वक्ष ` पुत्रसमृद्धिः; अन्नदानप्रियः। राजाधिकारयोगः। शतुपौड़ा। पापयुते पापक्षेत् पुत्रनाशः । इुद्धिभ्रंशादिरोगः । रपरेरो पापयुते पापौ । वीरः । दत्तपुत्रयोगः ॥ पत्रार्तिः दुर्मतिः । स्वज्नैरवादः, । उद्रेव्याधिः । पली कष्टम्‌ ।

१७० चमत्कारचिन्तामणि का तुलनात्मक स्वाध्याय

अथे–पञ्चमभाव के मङ्ग दोन से जातक दरद्री, पुत्रह्येन, इराचरणी, राजकोप का पात्र होतादै। च्व वषं शस्रसे पीडादहोतीदै। बुरी वासनार्ट होती ह । ज्ञानी, किन्तु प्रत्यक्षवादी, संसारवादी, तीश्छबुद्धि होता है । मकर, मेष आ वृश्चिकमंहोतो पुत्र बहुत होते । अन्नदान करता है, अधिकारी होता हे । शत्रुं से कष्ट होता है । पापग्रह कौ राशि में या उससे युक्तदोतो पुत्रना होता दै । बुद्िभ्ंश आदि रोग होते । प्ष्ठस्थान के स्वामी से युक्त हो तो पापी किन्तु यूर होता है। पुत्रोक होता है। दत्तक पुत्र केना पड़ता दे । बुद्धि पापयुक्त होती है । अपने लोगों के साथ ज्जगड़ा करता है| पेटमें रोग ओौर पत्ती को कष्ट होता है।

पाश्चात्यमत-इस पर अघ्युमग्रह की दृष्टि दहो तोस्ट्रेकै व्यापार में बहुत नुकसान होता है । पुत्र उद्धत होते दै । उनके अकस्मात्‌ मरने का डर होता हे। धन ओर खरी का सुख मिल्ता है। शराब का व्यसन होता है । कुद्म्ब म॑दन्ति नीं रहती । स्वभाव खर्वा होता है । उच्च या स्वगृह में यह मङ्गल दो, अथवा श्चभग्रह की इस पर दृष्टि हो, तो सद्य, लाररी, रेस आदि वहत यरा मिलता है । कफ, वायु तथा पित्त विकार होते 1 बहुत प्रवास होता है । |

विचार ओर अलुभव- म्रेक ओाखकार ने प्रायः अश्चुभ फठ केर, ये पुरुषरारि्यों के हँ । जो कुछ अच्छे फल कटे है वे मकर को छोड़कर अन्य स्रीराशियों के ह । सव पापफल पुरुप्रराशियों के, तथा मकररादि वें ह | पाश्चात्यमत का श्चुभफक ख्रीयुख, स्ट मेंलाम मादि, ये श्चुम फल खीरारियों

केह । पराशरमत से पञ्चम मङ्गलपिता का मारक है। किन्तु पञ्बसस्थान

पिता का स्थान नहीं दै– भौर मङ्गक पिता का कारक नहीं है । दशमस्थान से पञ्चम आउवोँ स्थान है–संभव दै पराद्यर का यदह मंतव्य हो|

मकर को छोड़ अन्य खीरािर्यों मेँ तथा मिथुनराशि मे पञ्चम मङ्गल से सन्तान होती है ओर जीवित भी रहती दै। पदि पुत्र मरता है। अन्य राशियाँ मे गमपात, गमं के अन्द्र ही बच्चे का मरजाना, वा पौष्व वधं के पहिले ही मरजाना, एसे फल होते ई। एसे फर माता के पूर्वजन्मके दोषों के कारण होते ह । इसका मरत्यव माता की जन्मङकुण्डटीसे दो सक्ता । घ्री को सन्ततिग्रवन्धक रोग मी होतेह माचिकधमं की खरावीभी कारणहोता है योनिसंबन्धी रोग भी कारण हो सकते है । सन्ततिके न दोने के विषयमे कड एक बातें विचारणीय होतीर्दै। मङ्गल ख्रीरारिमेंदो तो तीन ठ्डके होते है परन्व॒ होते दै दुराचारी । पहिटी कन्या हो तो जीवित रहती है ।

ल््र-धनः, चतुथः, पञ्चम तथा षष्ठ स्थानां मँ पापग्रह होतो पिता की मृल्यु का योग होता है| तवृतीयस्थान मेँ पापग्रह दो तो माता की मृल्यु का योग होता

सततम, नवम, अष्टम्‌, _दराम तथा व्ययस्थानमें पाप्ग्रह दो तो भी माता का मृव्युयोग बनाते है ।

मगरुफड १७१

सूं से चौये स्थान का विचार कर पिताकौी मृत्यु कहना चाहिए तथा प्वन्द्र से पौँचवोँ स्थान का विष्वार कर माता की मृत्यु कनी चाहिए-इसी तरह ग्यारदरवे स्थान से बन्धु की मृत्यु का विष्वार करना चाहिए 1 एेसामत पराशर का दे। |

पम स्थान मे- मङ्गल हो तो अस्प धन की प्राप्ति होती है किन्तु कीतिं प्राप्त होती है।

पद्म मे ङ्गक दोना यह कीतियोग-मेष, सिह; धनु राशिमें पञ्चमभाव का मङ्गल हो तो सेना-विभाग, पुकिस-विभाग, फोरेस्टरी इंजनीयरिंग, विमानवि्या, मोटर ङाईविग, रैकनालोजी आदि की शिक्षा प्राप्त दोती है | इषः कन्या वा मकररािमे मङ्गल होतो स्व, भूमिति; ओवरसीयर आदि की रिक्षा मिलती दै । मिथुन, वला; कुम्भमं मङ्ग होतो वैदययक, डाक्टर; फौजदारो कानून आदि की शिक्चा मिलती है । मङ्गरू बख्वान्‌ होने से विद्यार्थी आनसं कक्षा में उत्तीर्णं होता है पञ्चमभाव का मङ्गल दहो तो अधिकारी द्वित लेते है गौर बहुत जल्दी पकडे जाते | पञ्चम मे मङ्गल तथाल्म्रमें राह यदि दहो तो बचपनसेद्ी गायन विदा की ओर प्रवत्ति होती दहै । मधुरभावाज से प्रसिद्धि प्राप्त होती दै।

पञ्चम का मङ्गल किसी भी रारि मे हो-परसिद्धियोग होता है । विदेश- यात्रा होती है। पञ्चम का मङ्गर वकीलों ओर डाक्टरोंके ठिए लाभकारी अओौर प्रसिद्धिदायक होता दहै । अपने-अपने कामों मेये सफल होतेर्ह।.

पञ्चम मङ्गल से दभाय योग मी होता है–कामुकता अधिक होती

न तिष्ठन्ति षष्ठेऽर्योऽगारके वै तद॑गेरिवाः संगरे दाक्तिमन्तः।

मनीषी सुखी मातुकेयो न तद्वत्‌ विरीयेत वित्तं रमेत्तापि भूरि ॥६॥

अन्वयः-षष्ठे अंगारके ( सति ) शक्तिमन्तः ( अपि ) ( तस्य ) अस्य तदंगेरिताः ( सन्तः ) संगरे न तिष्ठन्ति वै, (सः) मनीषी ( स्यात्‌ ) तदत्‌ ( तस्य ) मावुञेयः न सुखी ८ स्यात्‌ ) ( तस्य ) वित्तं विलीयेत अपि ( पुनः ) भूरि विन्त ल्मेत्‌ ॥ & ॥

सं: टी षट रिपुभावे अगारके भौमे सति राक्तिमन्तः सबला अपि अरयः शत्रवः तदंगेरिताः तस्य अंगैः अपाप्यादिभिरेव उत्सास्ताः संगरे संग्रामे ` न तिष्ठन्ति पलायन्ते इत्यथः; तद्वन्‌ मनीषा विष्वारबुद्धिः मात्तखेयः मावरसदहजं सुखी स्यात्‌ इतिरोषः, तथा वित्तं द्रव्यं विलीयेत नव्येत्‌ , अपि पुनः भूरि बह वित्त ठ्मेत ॥

अथै–जिस जातक के जन्मलग्न से छटेभाव मेँ मङ्गल हो उसके बहुत राक्तिशाली रातु होते है किन्तुये शत्रु युद्धभूमि मे उसकी भुजा आदि प्रबल दारीर के अङ्खों द्वारा परछाड खाकर सन्मुख ठहर नह सकते ई ` प्रत्युत पीट दिखा कर भाग जाते है | राजपक्च मँ अङ्ख शब्द का अर्थं अमात्य; सेनापति

आटि सात अङ्ग ममिप्रेत है । प्राचीनकार मे प्रधान योधा प्रायः इन्द्‌ युद्ध `

१७२ चमस्कारचिन्तामणि का तुरनार्मक स्वाध्याय

करते थे इसमें इनके युजवल की परीक्षा दोती थी } शरीर के अवयवो मेँ युजा एक रक्तिशाखी प्रधान अङ्ग समञ्ची जाती थीं । महामारत में यों वीर क्षतरियों का वणेन है वरहो उनकी सुजाभों मे हजारों हाथियों के बल ज्ञेसा वल था- एेसा वणन पाया जाता है ] कई एक व्यक्तियों की आंखों मे इतनी तेजः शक्ति पाई जाती है किं उनकी मोर गख उटाकर देखना कठिन हो जाता है-रतन मयाक्रान्त होकर नौ-दो ग्यारह हो जाते है (तदंगेरिताः” का यदी भाव प्रतीत होता हे । “तस्य षष्ठख-मङ्ग ग्रह॒प्रमावान्वित पुरुषस्य अङ्कैः नेवादिभमिः, अजादिमिवां अङ्कैः ईरिताः प्रक्षिप्ताः इतस्ततः विक्षिप्ताः पराजिताः” इतिसमासः | जिसके छटवे स्थान मं मङ्गल हो वह॒ जातक मनीषी अर्थात्‌ विष्ारवुद्धि सम्पन्न ोतादे। सुखीभी होता है। किन्तु यह मात्रपक्च के छिए-मामा आदि के ब््टि सुखदायक नहीं होता है । प्रत्युत कष्टकारक होता है । छटवँ म्ल के प्रभाव से इसका धन नष्ट होता है किन्ु दुबारा फिर से घनलाभ दोता है । ठलना- यदा शत्रुस्थानं गतवति कुजेजन्मसमये पलायन्ते भीताः सपदि समरे शत्रु निवहाः | विचारज्ञाप्रला भवति नसुखं माव॒ल्कुठे „ विलीयन्ते चार्थाः पुनरपि परार्थाप्ति रभितः ॥ जी वनाथ अथे यदि जन्मल्य से छटेभाव में-रतरुस्थानं मे मंग होतारहै तो उसके शातुगण भयाक्रान्त होकर संश्राम से शीघ्र हयी भाग जाते ह । बुद्धि विष्वार- रील होती ह । मानरकुल मे, मामा-मामी आदि मावरपक्ष म सुख नदी होता ओर संचित धन नष्ट हो जाता है । किन्तु पूवं घन के नष्ट होने के अनन्तर शीघ्र ही दुबारा अन्य धनों का लाभ होता है। भटनारायण ओर जीवनाथ वल के मनुसार शतरुस्थानस्थ मंगल के प्रधान ओौर सुख्यफल निम्रल्िखित ह भारी संख्या मेँ प्रवर शक्तिशाली शुभं का होना–किन्वु जातक की सामथ्यं के यागे युद्ध में पराजित होकर, मैदान छोडकर भाग जाना- जातक का विचारवान्‌ तथा सखी होना–मामा मामी-मातृकरुल के लिए जातक का कष्ट कारक होना–जातक के धन का नार ओौर पुनः धनलाभः | ्रावल्यं स्याद्‌ जाटरारर्विरोषाद्‌ रोषावेशः खछतरुवर्गोपरान्तिः । सद्धिः संगोऽनंगबुद्धिनराणां गोत्रापत्ये रातरुसंस्थे प्रसूतौ | हृण्डिराज < अथे–जन्मकाल मँ जिसके छ्ठेभाव मेँ मंगर हो उसकी भूख तेज होती दे पाचनशक्ति तीत्रहोती दहै हर समय क्रोध चदा रहता है, शत्रुगण शान्त हो जाता है–उसका मेल-जोल सजनो के साथ होता है-वह कामुक होता है । “शिपुख्हगतमौमे संगरे मृल्युभागी सुत-धन-पयिपूणैः ठंगगे सौख्यभागी । रिपुगणपरिदषटे नचगेक्षोणीपत्रे भवति विकलमूर्तिः कुत्सितः क्रूरकर्मा ॥* मानसागर अथे -च्टव भावम मंगलहोतोयुद्धसे जातक की मृत्यु दोती दै- नोट–धुद्ध मे मृत्यु” यह फर छटेमाव के प्रसङ्गानुकूल नदीं है-एेसा-

मंगरफर १७३

मानना होगा क्योकि जिस जातक के छटर्वोँ मगल होता है शत्रु पुंज तो उसके गे युद्ध मँ उहर दही नहीं सकता, भाग खड़ा होता है। उच का मंगल हो तो जातक धनजनपूण सुखी होता है । यदि शनुग्रह की दृष्टि दो, अथवा

भन कारो तो जातक विकट्शरीर, बुरा तथा कुकमं करनेवाखा तारहै।

धप्रनलमदनोदराथिः सुश्चरीरो व्यायतो बली षष्टे | रुधिरे सम्भवति नरः स्वचन्धघु विजयी प्रधानश्च |” कल्याणवर्मा अर्थ–छठे भाव मे मंगल होने से जातक की कामाधि तथां उदरायि तीत्र होती है– वह सुन्दर ओर दीर्देद होता है । अपने संबन्धियों पर उसका अधिकार होता ईै-्राम-जनसमृह में वह मुखिया होता दै । ‘रिपुजनपरिहंता खू्ररो हम्जवान्‌ स्यान्‌ | जरान जरजलाछैः युंडनदेवान्‌ जातः। यदि भवति भिरौखो मज॑खाने कदर्दान्‌ कृतकुरनननोखो मातपक्षे . कुठारः ॥ ६ । खानखाना भावाथ -यदि मंगल छटेभावमें हो जातक शत्रुओं के जीतनेवाला, सुन्दर स्वरूप, एेव, आनन्द, धन आदि सुखं से युक्त; रोगों की कद्र करने वाल, अपने कुल मेँ श्रेष्ठ, ओौर मातामह के कुर मेँ कुटार समान ( मातरपश्च का नाशक ) होता है ।.६॥। - | ^“ रिपुसमृद्धि च जयं वधुसमागमं, अथं इद्धिम्‌ ।। पराकश्चर अथं–त्रु बहत होते है । विजय होती है, सम्बन्धियों से मेलमिलाप होता है । धन खूब होता हे । “बलवान्‌ शतुजितश्च रातुजाते ।22 वराहमिहिर अर्थ–बख्वान्‌ ओौर शत्रुओं को जीतनेवाखा होता है । धस्वामी रिपुक्षयकरः प्रचरोदरामि श्रीमान्‌ यशोबर्युतोऽवनिजे रिपुस्थे ।.* वैद्यनाथ अथ–स्वामी रात्नुनाराक, धनवान्‌ , यशस्वी, तथा बल्वान्‌ होता है । भूख तेज होतौ हे । ८°िपुगणदहा प्रनखाचिकामावांश्च सुजनगतोऽरिगतो धरासजश्चेत्‌ ।* जयदेव ` अर्थ–रिपुसमूहनाशक, सजन संगी होता है–इसकी जटरापनि ओौर कामाधि तेज होती हे । | “ष्ठे भौमे शत्तुहयीनो नानार्थेः परिपूरितः। खाल्सः पुष्टदेहश्च श्चभवित्तश्च जायते ॥ काशीनाथ

अ्थ–शतरुहीन, धन-धान्य-सम्पन्न, खरीोलप, पुष्टदेह, तथा शम अंतः करण काहोताहै।

““प्रचख्मदनः श्रीमान्‌ ख्यातो रिपौ विजयी श्रपः ।’‡ मन्त्रेश्वर अथे–अतिकामुक, श्रीमान्‌ , प्रसिद्ध, विजयी, राजा होता दै । ‘भमहीजो यदाशात्रुगो वै नराणां तदा जाठरागिः भवेद्‌ दीप्ततेजाः । सदा मावे दुःखदायी प्रतापी सतां संगकारी भवेत्‌ कामयुक्तः ॥” जागेश्वर

१७४ चमत्कारचिन्तामणि का तुरुनात्मक्‌ स्वाध्याय

अथं–शन्रु भावगत मंगल होतो जातक की भूख तेज होती है। मामा कोदुःखदेता हे । प्रतापी, सत्छंगी होता दै गौर कामौ होता है।

““वहुदारातनि पुंस्कः स्यात्‌ सुकायो बलवान्‌ कुजे । गगं अथं-बहुत सियो का उपभोग ठेनेवाल, श्चभकममा तथा वख्वान्‌ होता है | “खधिरो यदा पञ्युभयं वा जाविकं चोधर च |> पुञ्जराम

अथ– “शष्ठ मे मंगट बलवान्‌ दो तो पञ, मेड बकरियोँ अथवा ॐ चराने का धदा करना पडता है|

“सारोरिपुभाव संस्थः शाखापि घात स्त्वथवायिदग्धम्‌ | करोति म्यस्य च मातुलस्य विषोत्थदोषेण विदूषितं वा|| अथं–जातक तथा इसके मामा को विष; सचि; तथा शालनी का भय दोता हे । पावस्वं स्याद्‌ जाटराघचर्विरोषात्‌ रोषावेदयः शतु वगेऽपि शान्तिः | सद्भिः संगो धर्मधीः स्याच्राणां गोत्रैः पुण्यस्योदयो भूमिसूनो ॥ वृहद्य वनजातक अ्थे-पाचनशक्ति भौर भूख तेज होते दे-बहुत क्रोधी होता है, शत्रु शान्त होते ह । सत्संगी तथा धार्मिक दोता हे-अपने कुडम्बियों की उन्नति करता हे । न्वात्यमत–इसे हत्के दज के नौकरो से तकलीफ होती है। मंगल- स्थिरराशि काहोतो मूनक, गंडमाला, हृद्रोग, आदि रोग होते द । द्विस्व- भावरारिमेंदहोतो छाती भौर फेफडं के रोग होतेै। चरराशि में होतो आग का भय होता ह, गजापन, यक्कृतरोग, तथा सधिवात, रोग होते है। नौकर अच्छे नहीं होते । मगल पर अञ्म ग्रहकी दृष्टिहोतो दुधेटना का भवहोता हे । काम करने की शक्ति बहुत होती है । वगासृत्र–मसिद्धः, कार्यसमर्थः, रातरुहता, पुत्रवान्‌ । सपर्विदातिवर्भे कन्यकाश्वादियुतः उष्रवान्‌ । पाप॑ पापयुते पापदटटेपूर्णफलानि । वातच्चूलादि- रोगः | बुधक्तर कुष्टरोगः । ञयभदषटे परिहारः | अथ कति प्राप्तहोती है। कार्थं करने का सामथ्यं होता है । शत्रुओं नारा करताहे। पुत्र पापि होती है) २७ देवर्ष क्न्या होती है ऊय षोड मादि होते है। मंगल पापग्रह के साथः उसकी राशिमे,वादृष्टिहोतो ~ ल अम होता हे। वात तथा चचूल रोग होते हँ । मिथुन या कन्या में मगल होने से कुघ्ररोग होता है | यभग्रह कौदृष्टिहोतोकुष्ठदूर होता है। विचार ओौर अनुभव- वर मिहिर से लेकर जीवनाथ पर्यन्त जो फल कटे हवे स्ीरारियो के है । प्कामुकता , भूख तेज होना, आदि फल पाश्चात्य त, मानसागरः बृहद्यवनजातक मेँ कदे हये फल पुरुषराशियों के है | मामा क) दुःख यह, फल पुरुषराशि कादे। मेड-बकरी, ऊट चराना; स्रीराशि का

फल हे । रासन, यप्र वा विष से मयः– यह फल मेष; सिह तथा धनु- राशिर्यो का दहै।

मगरूफल ` १७५

धष्ठ मगर वाले अधिकारी रशत कते ईै- तो भौ पकडे नदीं जाते । षष्ठ स्थान में मंगर पुरुषराशि में हो कामुकता बहुत होती है । एकाध पुत्र होता दैः चतु मृत्यु होती है । पहला वा दूसरा पुत्र धनोपार्जन करने की आयु मे मरता है, सिससे महान्‌ शोक होता है । कीतिं प्रास्त करने के पष्िले षष्ठस्य मंगरू के जातक को संघष॑मय परिस्थिति में से गुजरना होता ह । अवुद्धारभूतेन पाणिग्रहण प्रयाणेन वाणिज्य तो नो निवृत्तिः । सुहभगदः स्पर्धिनां मेदिनीजः प्रहारा्दनैः सपमे दम्पतिघ्नः ॥ ७॥ ` अन्वय :-( यदा ) मेदिनीजः सत्तमे ( स्थितः ) ८ तदा >) अनुद्धार भूतेन पाणिग्रहेण वाणिज्यतः प्रयाणेन निदृ्िः न स्यात्‌, स्पर्दिनां प्रहारादैनैः सृ मंगदःस्यात्‌ › दपतिप्नः ( च ) स्यात्‌ ॥ ७॥ सं° टी<-सप्तमे मेदिनीजः कुजः स्पर्धिनां वादिनां. प्रहारा्दनैः ताडन- पीडनादिभिः सुदुः पुनः पुनः भंगद्‌ः पराजयकारी, तथा दम्पतिन्नः खरीपुंसोः नाशकः, अथात्‌ पुंजन्मकुंडलिकायां सप्तमेविद्मानः सीः, कन्यका जन्म- कुःडस्यां च तत्पतिघ्नः इतिरोषः’ तथा अनुद्धारभूतेन निधितेन पाणिग्रहेण विवा- हेन हेवना; वाणिञ्यतः व्यापारदेतो; प्रयाणेन निदृत्तिः न पराब्रत्य आगमनं स्यात्‌ इत्यथः । विवाहाशयात्‌ व्यापार लोभाद्वा बहुका विदेशस्थोभवेत्‌ इतिभावः.॥ ७ ॥ ` अथ– जिसके जन्मल्य से सातवे भावम मंगल दहोतो विवाह के निथित हो जाने के कारण, अथवा व्यापारमे निश्चित खभ दहोनेके कारणसे प्रदेश से वापस घ्र पर जल्दी नहीं आता है । उसका शत्रुओं के प्रहार तथा पीड़ा से नार-बार पराजय होता है । ओर सातवां मंग स्त्रीपुरुष का.नाश्च करता है । अर्थात्‌ पुरर की जन्मकुंडली में सप्ममंगलू हो तोसख्रीकामरण होता है, ओर यदि स्री की जन्मक्रुडली मं सप्तममंगरूहोतो पुरुष काना होता है॥ ७॥ तुखना–“कुजे कांतागारं गतवति जनोऽतीवलघुतां समाधत्ते; युद्धे प्रजलरिपुणा सक्षततनुः तथा कांताघाती परविषयवासी खल्मति निडृ्ठो वाणिज्यादपि परवधूरंगनिरतः ॥ वा “परवधूरगविरतः । पाठंतरम्‌ । जीवनाय अथं- जिसके जन्मसमय में मंगर सप्तमभावमे होता है वह मनुष्व अत्यन्त टघुता को ग्राप्त करता है अर्थात्‌ अभागा होता है । युद्ध मेँ प्रवल रातु से उसका देह श्चत-विश्चत होता है अर्थात्‌ वह शत्र द्वारा पराजित होता है । भायादीन होता है–उसे परदेद्च मेँ वास करना पड़ता ई, वह दुष्टञुदधि होता दै-ग्यापार को छोड़ बैठता है । परल्लीरमण से विरत हो जातां ै। किसी टीकाकार ने “पर विषय वासी” विशोषण का अथं “अन्य विषयासक्त एसा किया है । इसी तरह “परव धू रंग निरतः” इस पाठांतर को स्वीकृत करके पर- ख्रीरमण करता है” एेसा अथं किया है । जीवनाथ ने “कांताघातीः विरोषण

१७६ चमत्कारचिन्तामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

देकर सप्तमभाव के मंगल का प्रभाव खरीनाश्चक दही माना दहै प्पुरुष मृत्यु भी होती है-एेसा संकेत नहीं किया है । ““नानानर्थैः व्यर्थचिन्तोपसर्गवैरिजातेर्मानवं दीन-देहम्‌ । दारारांगाव्य॑तदुःखप्रतप्तं दारागारेऽगारकोऽ्यं करोति ॥”दुंहिराज दारापत्यानंतदुःखप्रतप्तम्‌? इति पाठांतरम्‌ । अथ– जिसके जन्मल्य से सप्तमभाव मेँ मंगल होता है उसे अनेक प्रकार के अनथ पीडित करते है। व्यर्थं कौ चिन्ता होती है–रतुसमूद पीड़ा देकर उसके शरीर को दुर्बल कर देतां दहै। स्त्री के प्रति अव्यत आसक्ति उसे कद असंख्य दुःखों से संतप्त करती है । अथवा स्री केतथा संतान के नाश के कारण नातक असंख्य दुःखों से संतप्त रहता है । “कमराहवत करिरयांवदववेरो न हि स्याज्‌ जिहिलजलमजंगेयुंडन चाव्पः खमाणे । तनुधनगमवेदमस्नीखखेः वर्जिताऽज्ञो भवतियदि जलादुटकल्कको जन्मकाले ॥७॥। खानखाना भावाथेः–जन्म समय यदि मङ्ग सप्तमभाव येँदह्ोतो जातक खरी के साथ संयोग बहुत कम करनेवाला होता है । यद सदा तकलीफ से रहता है । यह निहायत जुर्म सौर ल्डाई करने वाखा होता है| इसे धन, यात्रा, घर, तथास््री का सुख थोड़ा होता है| ७॥ ““मुनिगरहगतभोमे नीचसंस्थेऽरिगेहे युवति मरणदुःखं जायते मानवानाम्‌ | मकर-णह निजस्थे नाऽन्यपत्नीश्वधन्ते चपलमति विशाखां दुष्टा चित्तोविरूपाम्‌ ॥ भानसागर अथे–सतमभाव मे नीचराशि वा शत्रु कीराशिमें मंगकहोतोस्रीका मरण होता है ओर उससे दुः होता है। उ्चकावास्वराशिका मंगल हो तो पत्नी मरण नहीं होता है किन्त उसकी खरी कुशीला अर्थात्‌ कुचखिा तथा कुरूपा होती है । “मरतदारो रोगार्तोऽमार्गरतो मवति दुःखितः पापः । „ श्रीरहितः संतप्तः शष्कतनु्म॑वति सप्तमे भौमे ॥ कल्यागवर्मा अथं सप्तमभावमेंमंगलहोतोखरी की मृष्ट होती है। रोगी-दुरान्वारी, दुःखी, पापी, निधन तथा दुबला होता है । ॑ “लीमिगंतः परिभवम्‌? बराह्मिहर अथे- खरी मनाद्र करती है । अनुचितकरो रोगार्तोऽस्तेऽध्वगो मतदारवान्‌ः” | मंतरेश्वर अथे–यदि ससम मे मंगल हो तो अनुचित कर्म करनेवाला, रोग से पीडित, मागं चलनेवाल ओर मृतदारवान्‌ होता है–भर्थात्‌ जातक कील्री की मृत्यु होती ह । ‘भवलागतगेह संचयो रगनर्थोऽरिमयोदयने कुजे ।” जयदेव

९२९ म॑गरूफर १७७

अथे–घर-बार प्राप्त होता है। रोगी, अनर्थकारी, राच्रुभों से भयभीत

होता हे । ““भूमिपुत्रे सप्तमगे रधिराक्तोऽपिकोपवान्‌ ।

नीचसेवीवंचकश्च निर्गुणोऽपि भवेन्नरः | काक्लीनाथ अथं–रक्त के रोगों से युक्त, कोधी, नीचडृत्ति ोर्गो का नौकर, ठगानेवाल; तथा गुणरहित होता ई । ˆ सीम प्रविखापको रणर्चिः कामस्थिते भूमिजे ॥* वं्चनाय अथं–स्त्री के छिए विलाप करना पड़ता है । जातक युद्धप्रिय होता दै । “शसखियां दारमरणे नीचसेवनं नीषचस्ी संगम । कुजोक्ते सुस्तनर कठिनोध्वकुचा ॥?’ पराश्चर अथं-पतनी की मत्युहोती है। नीचखियों से कामानल.गांत करता है | स्री के स्तन उन्नत तथा कठिन होते है| नानानथं व्य्थचित्तोपसरगँवखितेर्मानवंदीनदेहम्‌ । दारापत्यानंतदुःखप्रतपस्तं दारागारंगारकोयं करोति ॥ बुहद्यवनजातक, अर्थ—अनेक अनर्थो से मन को व्यथंही तकलीफ होती रै। रात्रुओं से पीडा होती है। रारीर दुबला होता है| स्रीं के बारेमे तथा भौर भी कई दुख से पीडित होता है । १७ वें वषं अचिभय होता है । “ध्यद्‌ा मंगल: सप्तमे स्यात्‌ तदानीं प्रिया मृव्युमाप्नोव्यवदयं क्वा । परं जाठरे कूररोगैश्च रक्ताद्‌ विचायत्विदं जन्मकालेऽथग्रदने । सुखं नो नराणां तथा नो क्रयाणां तथा पादमृष्टिप्रहारे हतः स्यात्‌ ॥ जागेश्वर अथे-सखौ की मयु होती है । व्रण तथा पेट के रोग ह्यते है । रक्त दूषित दोता हे । इन फलां का विष्वार जन्मकुंडली तथा प्रक्नकुडलो दोनो मे किया जा सकता है । इत व्यक्ति को सुख नहीं मिलता ह । व्यापार मे यच नहीं मिल्ता, मुक, खातों से अपमानित दोना पडता है । रद्धुभों के साथ स्पध करने से दानि होती है। यौवनारेप्यत्तीता । क्षितिजे नरस्य रमणी पित्ततरणेनान्विता दग्धा वा विसवहिना यदित्तदा दा बस्तिरोगान्विता। भूमिपुत्रे यूनमादोपयाते कांतादीनः सतत मानवः स्यात्‌ ॥ दु जराज, अथं-सरी तरुणा नहीं होती । वह पिम्तवा व्णरोग से . पीडित होती दै, वा विषसेथा भागम जल कर भरती है । अथवा योनिरोग से युक्त होती दै । इससे पतनी की मृत्यु अवदय होती है | भौमः किल सप्तमस्थो जायां ऊक्मनिरतां तनुसंततिं च || वषिष्ठ अथ–पतनी दुराचारिणी होती है | संतति कम होती रै | यौवनाव्या ङुजेऽपि ।” भपिशब्दात्‌ “क्रा कुटिला नातिुन्द्री च ।» । रामदयाल,

१७८ षवमस्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

अर्थ- मंगल बल्वान्‌ हो तो खरी तरुणः कूर, कुरिटस्वभाव की, साधारण- बहुत सुंदर नदीं होती है । ल्ली को शारीरिक कष्ट होते ह| यह मंगल पापग्रहोंसे युक्तदोतोख्री की मृ्युदहोती दहै | ञ्यभमग्रहोंसे युक्तदोतोमरत्यु नहीं होती । पेट तथा हाथ मे रोग होते ई । भाई, मामा, मौसि्योँ बहुत होती हँ । जातक बुद्धिमान होता ड | गोपालरत्नाक्रर, पाश्धात्यमत-ल्रीकटोरस्वभाव की तथा ञ्जगड्ाद्‌ होती दहै। विवाह सुख अच्छा नदीं मिलता । विभक्त रहना पड़ता है । हमेशा ज्चगडे होते ह । स्रीके किए ज्षगडेवा अदार्ती व्यवहार करने पडतेर्दै। व्यापारमं शत्रु की स्पर्घां प्रर भौर खुटेरूप से होती हे । सान्चीदारी मे यद नदीं मिर्ता | छोरी बातों पर विदट्ता है । यह मंगल ककंवा मीनराशिमेंतवतोसरी का स्वभाव बहुत ही तापदायी होता है। बहुत बार अपने मनके विरुद्ध बरताव करना पडता हे । अदालक्ती ्चगडोँ में पराजय होनेसे नुकसान होतादहै। स्थावर जायदाद्‌ नष्ट होती है। श्रगुसूत्र–स्वदारपीडा । पापक्षं पापयुते स्वक्षं स्वदारहानिः। दभयुते जीवति । सपत्यनाशः विदेरावासः। विगततनुः, मय्पानप्रियः, रणरुचिः । उचचमित्रस्वक्षेत्र ञ्युभयुते पापक्े्रे ईश्षणवशात्‌ कलत्र नाराः । चोर व्यभिचार मूटेनकल्त्रान्तरं दुष्टस्रीसंगः । भगचुम्बकः । मन्दयुते दृष्टे शिदनचुंबकः । चवुष्पा दमेथुनवान्‌ । केतुयुते बन्ध्या रजस्वल् छनरीसंभोगी । तत्र शत्रुयुतं वहुकलत्रनाशः। अवीरः, अदहंकारी । श्चुमदषटे न दोषः | अथ-पापग्रह की राशिमें; वा पापग्रह से युक्त मगल सत्तममे होतो पत्नी को शारीरिकि पीड़ा होती दै । यह्‌ वृधिकमेंदहोतो पत्नीकौ म्रव्यु होती हे । यह श्युभग्रहयुक्तहोतो पत्नीकी मरत्यु नहीं होती, किन्तु संतति जीवित नहीं रहती । विदे मे रहना पड़ता है । शरीर दुबला होता है। शराबी तथा ्गड़ाद्‌ होता ई । षचोरीवा व्यमिचारके छि स्वस्त्री को छोड़कर दुष्टिर्यो का सेवन करता है । यड छनि के साथ, वा उसके द्वारा दृष्ट द्ो तो ( सममेथुन करता है )। चौपाए जानवर गाए भस्त आदि से मेथुन करत। दहै | भगुम्बन करता है । शिश्चतुम्बन किया जाता है। केतु साथदहो तो बेध्या खथवा राजस्वला स्री से.भी कामतेवन करता है। रात्रुग्रहसे युक्त होतो अनेक पल्ियों की म्रत्यु होती है । नित्र॑ठ भौर घमंडी होता है । श्युभग्रह देखते हों तो उक्त अञ्चभ फट नदीं होता है । विचार ओर अनभव–खमी शाख्रकासें ने सप्तमभावगत मंग के फल अद्म कटे है–सख्रीकी मृत्यु, द्विमायायोगः खरी का स्वभाव क्रूर तथा ञ्गडाद्धर हाना, कुरूप होना, राचरओं द्वारा पराजय; व्यापार मं अपयद्; रोग, दुःख) पाप, निधनता आदि खभी अश्युभ फल हे । इनका अनुभव वृष; कक, कन्या

अगलफङछे १७९३

7 मीनरारियों मे होता है-अन्यरारियों मेँ श्चुभफक का अनुभव ताहै।

सतम का मगल किसी भी राशिमेँ दो मंगल प्रभावाच्ित व्यक्ति भरत्येक उग्रोग करने कौ इच्छा करता है किन्तु टीक तरह से किसी उदयोगमे भी सफ नदीं होता । श८वै वषंसे ३६र्वे वधं कुक स्थिरता होती है ओौर मंगल के क्रारकत्व का कोई एक उन्रोग करता है । पत्नी अच्छी किन्त कठ्हपिय, तथा पति को अपने वदा मेँ रखनेवाटी होती ₹ै ।

मेष, सिह बृध्िक, मकर, कुम राशियों मे मङ्गक होतो दिभार्या योग होता दै । व्रप्रवा वला में मङ्गल होने से पति पत्नी से बहुत प्रेम करता दै। कन्या वा कुम्म में होतो विवाहोत्तर भाग्योदय होता है, स्थिरता भी होती है । उनोग सफ़ल ओर धन मिता है । द्वितीय विवाह के बाद्‌ उक्करष्ट भाग्योदय होता है| ककं वा मकर मेँ मङ्गल होतो ३६ वधं तक उद्योग को सफर बनाने के लिः मारी परिश्रम करना होता है । भौर जीवनभर सवथा परिपूणैता रहती है । अन्व राशियाँ मे अस्थिरता रहती है ।

मेष, सिंह तथा धनुर्न मे मंगल हो तो त्रिरिगंरेख ओर जिर्निगपैख का व्यवसाय लाभदायक होता हे । वरप, कन्या, मकरलग्न मे वििंडग कन्दक, इमारती लकड़ी का विक्रय-तथा खेती-बाड़ी व्यवसाय के तौर पर खाभदायक रहगे । मिथुन) ठखा तथा कुम में साईकिक-मोरर का विक्रय, इनकी मरम्मतः विमान डाइर्विंग-ये व्यवसाय धनाजंन के छिएु ठौक रहते हँ । ककं, बृश्चिक तथा मीनरुन में सज॑री भौर इंजीनीयरिग अच्छे लाभदायक होते ई ।

सप्तममें मंगल वक्रो तथा स्तंमित, खगन मेँ श्युक्रवक्री, इसी तरह ष्वंद्र के सप्तम मेँ रवि; बुध, श्चक्र के केन्द्र में तीन पापग्रह, इस योग मे विवाह नहीं होता दै-मड टेटा, हमेशा रोगी, शरीर दुबला-पतला कद मंञ्चला होता है ।

मिथुन, कन्या, धनु; मकर, बिक तथा स्िहराशियों मे पति की कुंडली में पग होतो स्त्री संततिप्रासि के किए व्यभिचार करती दहै इस कर्मसे पति की समति मी संमावित हो खकतीदहै। मगल्स्त्रीरािमेहोतो संकटकाल में धवराहट होती है । पुरुषराशिमे होतो धैय मौर सहिष्णुता बने रहते | मित्र बहत कमः स्त्रीखुख भी कम मिल्ताहै। पतनीकेमां-बापमें सेषएट्क कीमृघ्यु रीघरह्यीदहोतीरहै। पत्नीका माई होता दी नदीं मथवा भाई कम होते ह ।

सप्तम मंगल डाक्टयौ के किए सच्छा है-चीर-फाड आदि करनेसे कीर्ति मिल्ती है । वकीटो की भी मंगल फौजदारी अपीलों मे विरोष यश्च मिक्ता रै- मेकेनिक;, इजीनीयर, टरनर, फिटर, इैवर आदि रोगो के किए सत्तम मंगल अच्छा दै । पुलिस तथा अधिकारी अफसरों के किए भी यह मंगर अच्छा है

१८० पवसस्कारच्दिन्लामणि छा तुरखनारमक स्वाध्याय

यदि खाथ काम करनेवाला आफिसर स्वी हो | सप्तम मग से बड़े अफससोँ से सदैव नीचे मातदत काम करनेवाखों का गडा होता रहता है । मेष, सिह, धनु मे नौकर ईमानदार होतेह किन्तुये ईमानदार नौकर कभी मालिक नहीं होते-नौकर ही रदेन ।

टिप्पणी-सखप्तम मंगल का विवाह के साथ गहरा सम्बन्ध है–विवाह्‌ के खमय वधू-वर्योकी पत्रिकां मेँ मंगल का बहुत विचार किया नाता दहै। अतः उपयोगी समञ्च कर एकदो प्रकाण्ड तथा अनुभवी ज्योतिःशास््वेत्ताओं के विचार उद्धत किए जाते ई।

“सप्तम पल्ली का स्थान है । सप्तम मं मंगल दोने से जातक प्रबल मंगलीक दोते दहै। इस कारण पत्नी मर जावे, यह छ्िखिादहै। किन्तु यदि पत्नीभी मङ्गटीक हो तो दोनों ( पतिपत्नी ) के मङ्गलीक होने से यह दोष नहीं होता, अर्थात्‌ इस दोष की निड्ृ्ति हो जाती है । जिस मनुष्य की कुंडली मङ्खटीक हो उसे मङ्गटीक कन्या से ही विवाह करना चादिए तथा जो कन्या मङ्खलीक हो उसका विवाह मङ्गलीक व्र से दी करना उचित है।

मङ्गल, शनि; राहु, केतु, सूयं, यह पांच रह क्ररर्है। रग्न से, द्ितीय, (दूसरा घर कुडव स्थान कदलाता ह ) पतनी कुटम्बः का प्रधान केन्द्रीय स्तम्भ है । यदि देन्द्रीयस्तम्म टूट जावे तो शामियाना गिर॒ पडता है। इस प्रकार यदि पली नष्ट ह्यो जावे तो कुडम्ब कैसे बदेगा । चठथं ( चतुर्थं सुखस्थान दै ) घर का विचारमी चोये धर से करतेर्ै। गहिणी-घरवाटीहीनरहे तो घर केला १ चतुथं में मङ्गल घर का खुल नष्ट करता है । सप्तम (पत्नी का स्थान ) अष्टम ( छिगमूल से रुदावधि अष्टमभाव होता हे ) इस भाग का सम्बन्ध पत्नी से स्पष्ट है । व्याख्या की आबद्यकता नहीं, पत्नी की कुंडली मे इस स्थान का पति से सम्बन्ध सुस्पष्ट है । विवरण व्यथं है । तथा द्वादश ( वारहवां घर ) रायन यख कहटाता है । शय्या का परमसुख कांता है । बारह मे मङ्गक शयन की

खखहानि करता है-इस कारण पाचों स्थानों मेँ ऋरह-मङ्गल, रानि, राहु, केतु, सूयं जिस भाव मेँ हो उस भाव सम्बन्धी सुख की कमी करने के कारण इनका विचार जन्मकुंडली, चन््रकुडली; ( चन्द्रमा जिस राशि मं हो उसे र्नमान ) तथा शक्र से ( शक्र “कामः का सधिष्ठाता है-सप्तमभाव का कारकं है, इसलिए

` वैवाहिक सुख विचार में शुक्र का महत्व है ) करना चाहिए

स्वियों की कामवासना का मङ्गल से विदोष विषार करना चाहिए । स्त्रियों के मासिकधमं प्रवाह का वणं रक्त है| पुरुष की कामवासना का विवार शक्र से ( इसी कारण शुक्र वीर्यं को मी कहते हँ जिसका सफेद वर्णं है) किया जाता है । मङ्गल मकर मे उच कादोता है; शक्र मीन मेँ उच्च होता है। इसी कारण कदपं, या कामदेव का नमि संसृत मं भकरध्वजः (मकर जिसकी ध्वजा या हंडिमें है) सौर मीन के तन (मीन जिसकेकंडेमे है) कहा जातादहै। न

म॑गकफक ` १८१

कामदेव नाम का कोदै शारीरिकजंत्र या व्यक्ति दै, न उसका कोई क्षंडा है। केवर एक विद्धान्त को व्यक्त करने वाङ ये विरोषण है । काम का जलकतत्व से विरोष सम्बन्ध है । समुद्र (जर) से लक्ष्मी हई । लक्ष्मी की उत्पत्ति समुद्र से इसी कारण मानी ग ह है । चन्द्रमा जल्तत्व प्रधान होने से लक्ष्मी का भाई माना गया हे । वसंतपंषचमी को, जब प्रायः शक्र उच का होता है-कामदेव का जन्म- दिनि माना जाता है, वनस्पति जगत्‌ मे पदर कटी होता ईै-दसमँ जो पराग होता है उसे “रजः कहते ई । कन्यां मेँ काम प्रकट होने का प्रथम लक्षण रजोददंन दै । इसी कारण दोनों क्यों तथा कन्याओं के सम्बन्ध मँ “रख, शब्द का प्रयोग किया गया दै। पुष्प विकसित्‌ रूपरहै। इसीलिए मासिक धमं मे जब स्ती होती है तो उसे संस्कृत मे पुष्पिणीः कते है । इन्ै-पुष्प को कामदेव का बाण कते ह । उसके पोच बाण है-जो फूलों के दै । शन्द-स्पद, रूपः रसःगंघः, इन्हीं पोच से मनुष्य मेँ कामवासना उत्पन्न होती रै-यही उसके पोच बाण । इस परकत्र ज्योतिषशास्त्रमे, जो निर्देश किए गद बेगू सिद्धांतों पर आधारित दै, केवर थोडा-सा दिग्दशंन करा दिया गया है । फठ्दी- पिका-भावाथंबोधनी व्याख्या मे सप्तमभाव के मङ्गल के विवरण मे पंडितमोपेश्च कुमार ओश्चा एम, ए, एल, ए नी; दैवशिरोमणि के विष्वार फठ्दीपिका-परथम संस्करण-१९६९ पृष्ट १८६-१८७ | `

सी विषय पर ज्योतिषी स्व० ह, ने, काटवे के बविचारः–“भारत में विवाह के समय वधू-वरो की पतिका मेँ मङ्गल का बहुत विष्वार करिया जाता दै । भमतौर पर मङ्गल के वर को मङ्गल कौ वधू ठीक समन्ची जाती है । मथवा गुड भौर .दानि का बरूदेखा लाता है। मङ्गल के मारकत्व के बारे मे एक छोक इस प्रकार है–“लग्ने-ज्यये च पाताे-जामित्रे-चाष्टमे कुजे, कन्या मर्तं विनाशाय भर्ता कन्या विनाश्चकः ॥ जिसकी कुंडली मे क्न, चतुर्थ, ससम, अष्टम या व्यय स्थान में मङ्गल दै उस कन्या के पति की मृत्यु होती है ओर उस परति कौ पनीकी मृत्यु होती है। इस योग के अपवाद भी ईै–ख्न मे मेष, चतुर्थे उ्चिक; ससम मे मकर, अष्टम मेँ ककं, तथा व्यय मँ धनुराशि हो तो थह मङ्गल वैधन्ययोग अथवा ददिमायौ योगं नहीं करता । |

कन्या की कुंडली से पति की विष्वार करते समय रवि ओौर मङ्गल, इन दो ग्रहों का विचार करना चाहिए । रवि की स्थिति से पति का बल, वय, शिश्चा, दिशा अर प्रेम इन विषयों का विचार करना चादिए | मङ्गङ की स्थिति से पति की यायु, उत्साह; सामथ्यं, इजतः, व्यवसाय, उन्नति आदि का विचार करना चाददिए । रवि-शनि द्वारा दुषितदो तो पति अधिक उप्र का, दुर्बल, रोगी, निदेय, दुष्ट मिक्ता है-एेसा पाश्चात्य ज्योतिषियों का मत ईै। मेरा अनुभव भिन्न है । एेसी स्थिति मेँ विवाह देर से होता £ै। प्वासर जगह यत्न करने के नाद सम्बन्ध पका होता है । विवाह के समय पिता दसी दोता है- अथवा उसकी मृत्यु के बाद विवाह होता है।

१८२ षवमस्छारचिन्तामणि चछा तुख्नास्मक स्वाध्याय

किन्त पति तरुण होता है ओर प्रेमपूवंक रहता है। विवाह के बाद पिता की प्रगति होती है। मङ्कल दानि दारा दूषित दो-इनमे युति, केन्द्र, द्विद्रादश, अथवा प्रतियोग हो या मङ्गल्से चोये, आरव स्थानमें शनिदोतो अञ्युम फर मिरते है- विधवा होना, पति से विभक्त होना, सन्तति न होना, आदि फल मिलते है । सन्तति नहीं हह तो ही संपत्ति मिर्ती है| पुच्रहोते द्यी दीवाला निकलना, नौकरी दूटना, सस्पेंड द्योना, स्थित खाने के अपराध में फंखना आदि प्रकार होते है ओौर आत्महत्या, अथवा देशत्याग का विचार करने गते हैँ |

जव जन्मस्थ मङ्गर से गोष्वर शनि काभ्रमण होता दै तव ये फल मिरते ह । पति बुद्धिमान्‌, कटक्ुरल, उत्साही होकर भी कुछ कर नहीं पाता । “र्व वषेतक स्थिरता प्राप्त नहीं होती । ेसी कन्या के विवाह के वाद उसका पति दूसरा विवाह कर सक्ता हे । सौत आने पर माग्योदय होता है ।

ख्नादि पौन स्थानों से अन्य स्थानों मे मङ्गल हो तो बाधक नहीं समन्चा- जाता जिन्त शनि द्वारा दुषित होतो उन स्थानों में भीयेद्ी अञ्चम फर मिर्ते ह ।

जिस कन्या कौ कुण्डली मेँ शनि-मङ्गल का अश्चभयोग है, अथवा चतुर्थ म शनि है अथवा धन, चतुथं या सततम मे पापग्रह ईै–उसका विवाह नहीं होता, ह तो संसारयुख नहीं मिलता, अथवा वैधव्य प्रा होता है । रेसी कन्याकेवर की कुण्डली मे शुक्र ओर शनि काअघ्यम योग होना चाहिए | युति; प्रतियोग, अथवा द्ि्ददशयोग दोना ष्वाहिए । उन दोनों का जीवन गरीथी म किन्ठ॒ समाधानपूव॑क बीतेगा जिख तरह कन्या की कुण्डली मेँ मङ्गल दूषित हो तो पति पर अनिष्ट परिणाम होता दै उसी तरह पति की कुण्डली में शुक्र दूषित हो तो प्ली पर॒ अनिष्ट परिणाम होता है । इस्एि इन दोनों अश्चमयोर्गो के इकट्टे यने से सुखमयजीवन बीतता है । अतः विवाह के समय सिप मङ्गल पर अवट्वित नदीं रहना ्वाहिए-रवि भौर शनि का संबन्ध भी देखना जरूरी है ।

इसी विषय पर कुछ ॒फुटकर विचारः “वर भौर कन्या की जन्म- पत्रिकां का विष्वार प्रथक्‌ -परथक्‌ करना षाहिए–भायु का विचार मुख्यतया कर्तव्य हे |

भौमदोष के विषय में मतांतर-मज्गल यदि जन्मलग्न से, चन्द्रस्य से ओर बृहस्पति से ररा, चतुर्थ, अष्टम; सप्तम, तथा द्वादश जन्मपन्नमें पड़ा होता है तो कुज दोष होता है–अपदार–वर-कन्या की कुण्डली मे परस्पर मज्गल-स्थिति एक जेसी होनी चादिष्ट । यदि भौम स्वक्षे्री दोनों कुण्डव्यिों मे दो तो भौमदोष नहीं होता । कन्या-वर दोनों मे एक के मङ्गल का दोष हो ओौर दुसरेके क्नसे साव, क्नसे चौये, आर्य्वै भोर बारहवै शनि र्दे तो मज्ञर्दोष नदीं होता–इसखी तरह राहु ओौर केतु के रहने पर मी कुल दोष नदीं

मंगङफर ३८३

होता । जन्मसमय में जन्मलग्न से वा चन्द्रकग्न से सप्तमध्थान में द्यभग्रह दावा सप्तमभावका स्वामी पडा हो तो दोष नहीं होता | केन्द्रमवा रिकोणमें श्युभग्रह हों भौर ३-६-११ में पापग्रह होतो दोष नदी-सप्तमाधीरा सप्तममे होतो दोष दूरदहोजातादहै। लग्न में मेष, चथ में बृश्चिक; सतम मं मकर, मष्टम मे कक तथा व्ययमे धनुरादि होतो यह मङ्गक वैधव्ययोग तथा द्िभा्यायोग नहीं करता कन्या की कुण्डली मे किसी मी स्थान में मङ्गल शनि से दूषित न हो, अन्यथा नेष्टफल होता दै । रग्न मे राहु-रवि, मङ्गल नदीं हों । कन्या के लग्न मे रानि बुरा दै) ख्न मे शनि, द्वादश मे राहू चन्दर, धनम गुरु नेष्ट ह| कुण्डली मे मंगलके पीछे रानि ने्ट-रवि-मङ्गल दानि के स्तममेंने्ट- मङ्ल रानि के पीछे तेष्र। छभास्तस्य करं खेचराः ङुयुरन्ये विधानेऽपिवेदष्टमे भूमिसूनुः । सखा किं न श्रूयते सत्करृतोऽपि प्रयल्नेकृते भूयते चोपसर्गः ॥ ८ ॥ अन्वयः-भूमिसुनः अष्टमे चेत्‌ ( तदा ) व्रिधाने अपि अन्यश्चभाः खेचराः तस्य । किं कुः, सत्कृतः अपि सखा किं न शरूयते, प्रयत्नेकृते च उपसगैः भूयते ॥ ८ ॥ सं< टी०–अष्टमे भूमिस्‌ नुः भौमः चेत्‌ तस्य विधाने माग्ये अपि अन्ये ्रभाः खेचराः किंकरः कुजस्य दुष्टफल्दत्वेन श्चुभफलप्रतिवन्धकत्वात्‌ । सक्कृतः मानितः पि सखा किं न शनूयते शात्रुरि आचरति । प्रयलेकृते अपि उपसरः विघ्नैः भूयते प्रारन्धकारये विघ्नाः संभवंति इत्यथः ॥ ८ ॥ अ्थे- जिसके अष्टममाव में मङ्गकूहोतो भाग्य आदि ्चमस्थानों मे पड़े दए वृहस्पति-शचक्र आदि श्भग्रह छभफल नदीं दे सकते, क्योकि मङ्गल स्वयं दष्टफलठ दाता होकर छ्यभफल प्राति में प्रतिबन्धक हो जाता है । अष्टमभावस्य मङ्गल के प्रभाव से प्रतिष्ठापूर्वक सम्मानित करते रहने पर भी मित्र रतरुवत्‌ आष्वरण करता है । कार्यो के अनुकूल उद्योग करने पर मी सफल्मनोरथ नरी होता, प्रत्युत विघ्नो से पीडित होजातादै॥ ८ ॥ तुखना–्मापुत्रे स्यौ कविगुरुबुधाः किं तनुभृतः प्रकुयुरयैषवान्येप्रमवतिविधानेऽपि नितराम्‌ । खलटायन्ते तस्य स्वजननिवदाः किं न सहसा प्रयतते यातेऽपि प्रवरगदजा विष्नपटटी ॥ जीवनाय अर्थ- जिस जातक के जन्मसमय मे मङ्गर अष्टमभाव मे हो, उसके बुध- रार-छयक आदि द्यभग्रह माग्य आदि छमस्थान मे होकर भी क्या शुभफल दे सकते है १ अर्थात्‌ नहीं, मङ्गल अपने अश्चमफल्दातृत्व प्रभाव से अन्य छम पफाटदाता ग्रहों की शक्ति को निर्व करके स्वयं विध्नरूप प्रतिबन्धक हो जाता है । जातक के मा-बन्धुभी सहसा शत्रु हो जातेर्ै। कई एक प्रबल रोग प्रादुर्भूत दो जाते है जिनकी चिकित्सा करने पर भौ कोई लाभ नदीं ताह

१८७ ष्वय्स्कारचिन्तामणि का तुरनात्मक्‌ स्वाध्याय

| ञओरये रोग विषघ्न दो जातेर्ह–उव्योग का फठ सफलता प्राप्त नदीं होती | | धन्य है दुष्ट रभाव अष्टमभौम का। “यदि भवति जल्दुल्‌ कस्ककोमौतखाने

सततमहितभाषी; गुह्यरुक्‌ ` खरीयुखोनः । मुतफकिंरवद।मे जौहरी सोऽथजख्मी, कमफहममनः स्याल्‌ लगरोऽखग्विकारेः ॥ ८ ॥ खानखाना

अथ–यदि मङ्गक अष्टमभावमें हो तो जातक सर्वदा अनुचित बोल्ने- वाला; गुप्तरोगवाला, खरीसुख से रदित, चिन्तायुक्त; रनों का पारखी, शरीर मेँ जख्मवाला, बुद्धिहीन, सधिरविकार से दुव॑ शरीरवाला होता है ॥ ८ ॥ “स्वत्पात्ममजो निधनगे” वराहमिहिर अथे– पुत्र कम होते है । ““रुधिरातोगतनिश्चयः कुधीः विद्यो र्नि्तमः कुजेष्टमे 1 जयदेव अथे- खून के रोग संग्रहणी आदि होते है, बुद्धि दवारा निश्वय नदौ कर सकता जातक निदंय, बुरेविचासे का बहुत हौ निंदनीय होता है। ““विनीतवेषो धनवान्‌ गणेशो महीसुते रन्धरगते त॒ जातः ॥” वनाथ अथं–कपड़े सादे होते दै । धनवान्‌ लोगों मे प्रमुख होता ३ । ““कुतनुरधनोऽल्पायुः छिद्रे कुजे जननिन्दितः ॥” मंतरेश्वर अथे–खराब शारीरवाख, अर्थात्‌ शरीर मे कटीँ रोग हो, धनदीन ओौर अल्पायु होता है, ओर खोग उसकी निन्दा करते ह । “अष्टमे मङ्गटे कुष्ठी स्वत्पायुः शत्रुपीडितः | अस्पद्रव्यः सरोगश्चनिगुणोऽपिमवेन्नरः ॥ काक्लीनाय अर्थ-कोट्‌ होता है जातक मल्पायुषी, यतुम से पीडित, निर्धन, रोगी तथा गुणद्यीन होता है । “न्याधिप्रायोऽत्पायुः कुदारीरोनीष्वकमंकर्ताच | निधनस्थे क्चितितनये भवति पुमान्‌ शोकसंतप्तः |” कल्याणवर्मा अथे-रोगम्रस्त, यस्पायुषी, शरीर मँ कोह रोग होना, दुराचार तथा शोकसन्तसर होता हे । “वैकल्यं स्यान्‌ नेत्रयोदु्मगव्वं रक्तातूपीडा नीष्वकमं प्रवृत्तिः | बद्धेराध्यं सजनानां च निन्दा रं्रस्थाने मेदिनीनन्दनशचेत्‌ ॥* दष्डिराज अथं-ओंखि यच्छी नहीं होती, कुरूप होता है, खून के रोग होते है– बुरे कामों की ओर प्रटृत्ति होती दै । विचार बुद्धि नदीं होती, सजनो का निन्दक होता है । ब्रहद्‌ यवनजातक का भीरा दही फल हे । “प्रख्यभवनसस्थे मंगले क्षीणनीचे व्रजति निधनभावं नीरमध्ये मनुष्यः | अदिगरगमुखमेषे सवदा चैवभोगी करपदग सनीखो मानवोदीर्धजीवी ॥”

संगरुकख १८५१

“घन कनक पराकः सर्वदा चैवमोगी* पाठान्तर । भानषागर अथं-सष्टमभाव सं नीचराशि का मंगरूदहोतो जातक पानीमे इबकर मरता है । यदि बृश्चिक, मकर वा मेषमें हो तो नीलवर्णं हाथ पैर वाला ( कोट से हाथ पैर नीठे होते हैँ) भौर दीर्घायु होता है। पाठान्तर से “सोना, चोँदी आदि धन प्राप्त होता है ओौर भोगों का भोगने वाला होता है “शदारीरं कृदो किं श्चमं तस्य कोरो परं स्वस्य वर्गो भवेच्छनरु तुल्यः । प्रवासे कृते नाशमायाति कामो यदा मल्युगो भूमिजो वै विलग्चः | जागेश्वर अथं-जातक का शरीर दुबला होता है, निधंनता होती है अपने ही लोग शत्रु के समान होते है ¦ बहुत प्रयास करने पर भी इच्छा पूरी नदीं होती | “सर्वग्रहा दिन कर प्रमुखा नितातं मध्युस्थिता विदधते किल दुषटबुद्धिम्‌ । रख्राभिघात परिपीडितगात्रभागं सोख्यर्विहीनमतिरोगगणेरूपेतम्‌ ॥ वशिष्ठ अथे–सूर्यं से लेकर सभी प्रह यदि अष्ममावमें होतेह तो बुद्धि दुष्ट होती दहै। शस्त्रो के प्रहार से अवयवो को पीडा दहोती है) सुख नहीं मिक्ता हूत रोग होते ह । | ““मृत्युगतो मृव्युकरोमदीजः राख्रादि दूतादिभिरथितो वा | कुष्टप्रणादोगहिणी प्रपीडा नयव्यधो नाद्क मानयेच | गं अथै- शख से, कोट से, शरीर के अवयव सडने से, वा जलकर स्यु होती दै पल्ली कोक्ष्ट होता है) अधोगति होती है। मृत्युभाव का मंगल भृत्युकर होता दै | | ८८१ संग्रामाद्‌ , २ गोग्रहणात्‌ › २ स्वहस्तात्‌, ४ निजशनुतः, ५ द्विजपार्वात्‌ » ६ अदमपातात्‌, ७ काष्ठात्‌ $ ८ कूपप्रपाततः, ९ भित्तिपातात्‌ , १० गुस्तरोगात्‌, ११ विषभक्षणतः, १२ चौरप्रहरणात्‌ भौमे मरल्युः स्यान्‌ सूत्युभावगे | काडथप अथं-मंगल क्रम्यः मेषादिराशियो मे हो तो आगे कदे हुए प्रका से मृत्यु होती दैः-१ युद्ध मे, २ गौं कौ चोरी का प्रतिकार करते हुए, ३ अपने दी हाथ से, ४ शत्तुओं से, ५ साप से, ६ पत्थर गिरने से, ७ लकड़ी के आधात से, ८ कु मे गिरने से, ९ दीवार से गिरने से, १० गप्तरोग से, ११ विष खाने से, १२ प्वोरोँ के प्रहार से। यबनमत-जातक को गुह्य रोग होते ह । खरी से दुःखी होता दै | चिन्ता- रस्त रहता दहै । अच्छा परीक्षक होता हे। रासनं के प्रहार से जखमी होता है- मंगल नीष्व का हो तो रक्तपित्तं रोग होता हे । पच्धात्यमत–इसे विवाह से. खम नहीं होता) रवि ओौर चन्द्रसे अश्म योग हो तो अकस्मात्‌ मघ्युदहोतीहै। मंग अकेला दहो तो मृत्यु जल्दी नदीं होतो । बंदूक की बारूदसे मृ्युहोतीहै। मंगल जट्राशिमे होतो पानी में ङइवकर, अभ्रिराशिमें द्योतो आगमे जल्कर, तथा वायुराशिमें हो तो मानसिक व्यथासे मृल्युहोतीहे। प्रथ्वीतत्वमे मंगलो तो श्चुभफल मिखता है |

१८६ वमत्कारचिन्तामणि का तुरुनास्मक स्वाध्याय

श्रगुसूत्र-नेचरोगी । मध्यमायुः । पिविरिषम्‌ । मूत्रङृच्छररोगः । अस्प पुत्रवान्‌ । वातद्यलादिरोगः । दारसुखयुतः । करवालन्‌ म॒ल्युः । श्चुमयुते देहारोग्य- वान्‌ । दीर्घायुः । मनुष्यादिवृद्धिः । पापक्षेत्रे पापयुते दश्चणवशात्‌ वातक्षयादि रोगः मू्रङ्च्छराधिकवे वा । भावाधिपे वल्यते पूर्णायुः ॥ अथै–ओंँखो के रोग, मध्यम आयु, प्रिता को अरि, मूचकृच्छर रोग, पुत्र कम दोना, वातद्यू इत्यादिरीग, खरीसुख, तद्वार के प्रहार से मौत, ये मगल के फल हैँ । अष्टमभावस्थ मंगर श्चभग्रहों से युक्त होतो नीरोग शरीर, दीर्घं आयु, तथा मन्यो आदि मेँ बृद्धि तथा घरमे समृद्धि होती है। पापग्रह की राशिमें, वा पापग्रहसेयुक्तवा दृष्ट्दोतो वातक्षयादिक रोग होतेह वा मूचङ्ृच्छर से अधिक पीडा होती हं । अष्टमभाव का स्वामी बल्वान होतो पूर्ण आयु मिट्ती दे । विचार ओर अनुभव-वैयनाथ को छोडकर अन्य सभी प्रंथकारों ने अष्टमभावस्थ मंगल के अञ्चभफठ कदे है| अद्चभफक पुरुषरारियों के है। वैद्यनाथ के श्चुभफलठ स्रीराशि के है। कई एक शाख्रका्े ने इस भाव मे संतति काभी फठ बतलाया हे। अष्टममाव संततिस्थान नदीं है । अष्टमस्थान पित्र स्थान से नवम, तथा मात्रस्थान से पचम रै–इस दृष्टिकोण से संतति होना- यह फल कहा है । मंगर पुरुषराशि में हो तो संतति बहुत थोड़ी होती है । खरीराशि मेँ कक; बृश्चिक तथा मीन मं, अधिक संतान होती है। वृष ओौर कन्या मे कम होती है-मकर में संतानाभाव रहता है। ल्रीराशि के मगल से लम होता है। अष्टमभावस्थ मंगर के अफसर बहत रिश्वत खाते है किन्त पकड़े नीं जाते । अष्टमस्थ मंगल का.जातक बहुभोजी होता है । बहुत खाने कौ आदत ३० वषं तक बरावर बनी रहती है–यतः उत्तर आयु मे अजीर्ण रोग के कारण मलेरिया, अर्धागवायु, व्टडगप्रेशर आदि रोग होते है । यदि ककं, च्रृशिक, धनुवामीनवल्यरदहो ओर इन राियोंमे अष्टम का मंगल हो-एेसे योग मेँ यदि कोई हठ योग का अभ्यास करता है तो सफट्ता मिलती है। इसी योग में यदि ल्य मेष, सिहवा धनुराशिका होतो जातक राजनीतिज्ञ होता हे । अस्पायु होना-यह फर कद एक ने कहा है, जबतक रवि, चन्द्र, रानि के संबंध से मंगल दूषित न हो तबतक यह फठ नहीं मिर्ता है । महोभरा मतिभोग्यवित्तं महोग्रं तपोभाग्यगो मंगरस्तत्‌ करोति । भवेन्नादियः इयाख्कः सोदरो वा कुतो विकमस्त॒च्छलाभे विपाके । ९॥ अन्वयः–( यस्य ) भाग्यगः तपोभावगः इतिपाठांतरम्‌ , म॑गलः ( तस्य ) मदग्रा मतिः ( भवति ) माग्यगः मगः ( तस्य ) महोग्र तपः ( करोति ) तं भाग्यवित्तं ( च ) तपोभावगः इतिपाठांतरम्‌ । करोति ( तस्य ) आदिमः इ्यालकः सदहोदरो वां न भवेत्‌; विक्रमः कुतः ( स्यात्‌ ) विपाके ( तस्य ) वच्छलभः ( स्यात्‌ ) (९ )।

मगलषफर १८७

सं° टी०-तपोभावगः नवमस्थितः मंगरः तं नरं भाग्यवित्तं भाग्येन वित्त द्र्य यस्य तं मोग्रं तेजस्विनं करोति; तथा महोग्रा अतिक्ररा मतिः भवेत्‌ $ आदिमः प्रथमः श्यारुकः वनिताभ्राता न; कृतः सोदरः स्वभ्रातापि न भवेत्‌ इत्यथः । तथा विक्रमः क्रियमाणः उद्यमः विपाके फर्काङे तुच्छलाभो भवेत्‌ ठच्छ स्वस्पः भः यस्येतिमावः ॥ ९ ॥

अ्थ– जिस मनुष्य के जन्मल्य से नवममाव मे मंगर हो वह मनुष्य मंग के प्रभाव से कुशाग्रमति-तीष्णबुद्धि होता रै। किसी टीकाकारने भमरोग्रामतिः का अर्थं बहुतक्रर बुद्धिवाा” क्रिया है। यह अर्थं प्रसंगानुकूल

हीं दै। किसी एक ने “उग्रबुद्धिः ेखा अथं करिया है-“बडाबुद्धिमानः रेखा

अथं ठीक है । मुष्य तेजस्वी होता है । प्रार्धदत्त अर्थात्‌ भाग्यदत्त धन से धनवान्‌ होता है । क्योकि मंगर के अद्युभ प्रभाव से उसका स्वयंकृत परिभम व्यथप्रयास होकर रह जाता दै । उतेजेठासाखावा जेठा सगा भाई नदीं होता है । उसका पराक्रम व्यर्थं होता है-मारी परिभिम-भारी यन्न वा भारी उद्योग करने भी लाभ बहत थोड़ा होता है ॥ ९ ॥

तुखना–““यदा भाग्यस्थानं गतवति कुजे जन्मनि मति;

मंहोा, भाग्याद्‌ वै घनमपि महोग्रं तनुभ्रताम्‌ ॥

तथा च्येष्ठ ०५१ नहि सहज सौख्यं च परितः;

ङतेऽप्युोेस्यान्नु फर्विपाकः खलं भृशम्‌ ॥ जीवनाय

अथे- नीतिशाख्र मे दो मत पाये जाते ईै-प्रथम–“उ्योगिनं पुरुष सिंह मुपेति लक्ष्मीः ।* द्वितीय-माग्यं फति सर्वत्र न्व विन्या नच पौरुषम्‌ ॥” नवम भाव का मंगर उन्योगी पुरुषि को यष्ट भ्रेयदेनेके लिए तैय्यार नहींदहै किं उसने अपने उदम से अपने जबल से धनाज॑न किया रहै; क्योकि वद अपने प्रभाव से किए हए परिभरम को फटोन्मुख होने नदीं देगा । दौ– जातक ने प्राक्तन जन्म मे किए हुए सुङ्कत भूयस्तव से; ओ इस जन्म मँ उसका प्रारन्ध वादेव है जिसे भाग्य कहा जाता है। यदि कोई धन संपत्ति पाई है नवमभाव का अर्थात्‌ भाग्यस्थान का मंगर उस धन संपत्ति के उपभोग मे कोई आपत्ति कोई विध्न-बाधा वा प्रतिबेध खड़ा नदीं करेगा-किन्ु उद्योग परिभम वां दारीरिक कष्ट से चाहे जितना भी यक्त धनार्जन के लिए किया जावे उसका फर परिथिम की वल्ना मे नगण्यी होगा । जिसके भाग्यस्थान मेँ मंगल होता है उसे बडा सास तथा जेठा माई नदीं होता है; अर्थात्‌ जातक जेठे साले सौर जेठे भाई के सुख से वंचित दी रदेगा । जातक-कुशाग्रबुद्धि अवद्य दोगाः किविरेसादहोनेसे क्या राम १ बुद्धिमता से बनाई गई किसी भी योजना को नवममंगर फटीभूत होने नदीं देगा । ^्धरमैऽघवान्‌? वराहमिहिर

अर्थ नवमभावस्थ मंगल के प्रभाव में उत्पन्न जातक पापी होता है।

१८८ चखयस्कारष्िन्तासणि ङा तुरुनात्मक्‌ स्वाध्याय

““घसरैऽथं संपत्तिवान्‌ ।* गुणाकर अथे- जातक धनवान्‌ दोता दै । “नरपति कुल्मान्यः संल्मो वंदनादौ भवति यदि जलादुस्कटकको वख्तखाने । परयुवतिरतःस्यान्‌ मानवो भाग्यवान्‌ वै पुरजसुखघुसिद्धौ दिजंगद॑श्च ठेखः ॥ ९ ॥ खानखाना भावा्थः- यदि मंगल नवमभाव मे होतो जातक राजकुलमान्य, सबसे वेदनीय, परखरीगामी, भाग्यवान्‌ , ग्रामो मे युख पानेवाल तथा बेकार घूमने वाखा दोतादहै॥ ९॥ ‘सीमायुतो भूपति मानयुक्तः सस्वो विधम नवमे धराजे ॥7* जयदेक अथे-नवमभावस्थ मंग का जातक भौर मर्यादित शक्ति का, राजमान्य, धनी, यर धर्मवर्बित होता है ।। “्ुपसुद्दपि देष्योऽतातः श्चुभे जनघातकः |> मंतरेश्चर अथै-नवमभावस्थ मंगल का जातक राजा का मित्र होता हैक लोग इससे देष करते है ¦! इसे पिता का सुख नदीं मिक्ता है । यह लोगों का घात करता है । नवममवनसंस्ये क्षोणिपुत्रेऽतिरोगी नयनकसरशरीरेः पिंगलः सर्वदैव । बहुजन परिपूर्णां माग्यहीनः कुचैल्ये विकलजनयुवेरी शीरवि्ानुरक्तः ।|* मानसागर अथै–नवममाव मे मंगल होने से जातक बहुत येगी, आंखे, हाथ तथा रारीर खाल-पीठे रगके होते है । यह अनेक छोर्गोसे धिरा हा, भाग्यहीन होता है। उसके व्र यच्छे नहीं होते । यह शीलवान्‌ तथा विद्यानुरागी होता है। । ““घ्म॑स्ये धरणीपुत्रे कुकर्मा गतपौरुषः । नीचानुरागी करश्च सकष्टश्च प्रजायते ॥” का्लीनाथ अथे–नवमभाव के मंगल से जातक दुराचारी, पौरुषहयीन, नीचो की संगति में रहनेवाला, करूर तथा कषटयुक्त होता ह । “’हिंसाविधाने मनसः प्रवृत्ति भूमिपते्गोरवतो.ऽत्पकन्धिम्‌ । क्षीणं च पुण्यं द्रविणं नराणां पुण्यस्थितः क्षोणिञुतः करोति ॥१ द्रुण्डिराज अथे-नवममाव मे मंगर होने से जातक की मानसचरृ्ति हिखा की भर रहती है । रानासे मान आद्र बहुत किन्वु लभ थोड़ा; थोड़ा पुण्य भौर थोड़ा धन होता है | “भूसूनौ यदि पितानिष्टसदहितः ख्यातः श्चभस्थानये ॥ वैद्यनाथ अथे–नवमभावमे मंगल्के होने से नातकके पिताका अनिष्ट होता है । जातक प्रसिद्ध होता है। |

मंगल फल १८९

अकुरालकमाँ देष्यः प्राणिवघपरो मवेन्नवमसंस्ये । घमैरहितोऽतिपापी नरेन्द्रकृतगौरवोरुधिरे ||” कल्याणवर्मा अथे- जातक कार्यं मँ निपुण नहीं होता, लोग इससे द्वेष करते ह, यह ईदिसक, घमंहीन, पापी, किंतु राजमान्य होता है । “परामवमनथ च धमं पापरुचि क्रिया ।2› षराक्ञर अथे- पराभाव, अनथ, तथा पापकर्म में रुचि होती है । ““कुजेरक्तपयानां हि मवेत्‌ पाञ्चुपती इत्तिः। भाग्यदहीनश्चसततं नरः पुण्यगहंगते | गगं अथे- यह बौद्धदहोतोभी रैवों के समान प्राणिवध में रुचि रखता है। ` अभागा होता हे । समोमे विषायथिपीडा शीलः कुलीलः परं माग्यहीनः पदेरक्तरोगी इशः क्ररकर्मा । प्रतापी तपेज॒जन्मकाठे यदि स्यान्‌ मरीजो यदा पुण्यभावं प्रयातः । जागेश्वर अथे–विष तथा आग से पीड़ा होती दै। व्यभिचारो, दुराचारी, माग्य- हीन; पांव मं रक्त रोगवाला दुब, कर तथा पराक्रमी होता ₹ै।

हिसा विधाने मनसः प्रवृत्तिः धरापते गोरवतोऽपि रन्धिः । क्षीणे च पुण्यं द्रविणं नराणां पुण्यस्थितः क्षोणिस्थितः करोति ॥”’ वृहदयवनजातक अथै हिंसक कामों की ओर रुचि होती है । राजमान्य, पुण्यहीन, तथा धनहीन होता है, २८वें वर्षं भाग्योदय होता हे ।

“आरौ भ्रात्रनाश्प्रदौस्तः । द्वाभ्यांदीनः 12 पु जराज अथे- दो भाइयों की मृव्यु होती है । “धमस्थिताः मूमिपुत्राः कुवन्ति धमरदितं विपति कुरीलम्‌ । व शिष्ठ

अथे–जातकवः धर्महीन, दुवुद्धि ओर दुराचारी होता दै।

पिताका सुखनष्टहोतारहै। नौकरी करता है। करर, व्यापार के ल्एि नाव यं घूमता गोपारत्नाकर

यदनसत-राजमान्य, विख्यात, परच्ियों का उपभोग करनेवाला, भाग्य- वान्‌ अपने गांर में सुखी ।

पाश्चात्यमत-कटोर स्वभाव का, दर्ष्याठु, चठ बोल्नेवाखा, प्रवासी; राकाशीट, दुराग्रही होता है) पानी के संवंधि्योसे हानि होती है | धमं पर थोड़ी श्रद्धा होती है। अध्यास के बारेमे दुराग्रही विचार होते ईै। अद्म ग्रहोकौ दष्ट होतो उद्धत ओौर दुरभिमानी होता दहै। मन पर संयम नीं होता । चाहे जैसा वतव करता है। अग्निराशि मे होतो उद्धत होता हे।

१९० चमर्कारचिन्तामणि का तुखनात्मक्‌ स्वाध्याय

पृथ्वी तथा जल तत्व की रारियों मे हो तो कुक अच्छा स्वभाव होता है । वायु- राशिमें हो तो कानून ओौर नीतितत्वों का उल्लंघन सहज ही करता है । धृगुसूत्र-पितरिष्म्‌ । माग्यदीनः । उच स्वक्षेत्रे गुरुदारगः, दे्ान्तरे- ` माग्ययोगः । श्चमे श्चमयुते श्चभक्षत्रे पुण्यशाली, धराधिपः | अथं–पिता को अरिष्ट होता है । अभागा होता है| यह उच अथवा स्वगृह में हो तो गुरुपत्नी से व्यभिचार करता है । बिदेश मे इसका भाग्योदय होता है । यह श्चमम्रहो से युक्तः अथवा उनकी राशिर्यो मे हो तो पुण्यवान्‌ होता है । यह राजयोग होता हे । विचार ओर अनुभरव–भाग्यस्थान के मंगल के फल मिश्रितस्वरूप के है-णेसा आववार्यो का मत है। वराहमिदिर, कस्याणवर्मा, पराशर, मानसागर, बृहद्‌ यवबनजातकः काशीनाथ तथा वरिष्ट ने पापौ, कूर दुराचारी, हिंसक, व्यभिचारी होना-यह फल कहा है । इसका अनुभव मकर यौर मीनरारि मं मिक्ता है। राजमान्य, धनवान्‌ , प्रसिद्ध होना, ये श्चभफल मेष, विह, धनु, कक, वृधिक तथा मीन्राशि मं मि