Chamatkar Chintamani Braj Bihari Lal Sharma

Chamatkar Chintamani Braj Bihari Lal Sharma

भदुनारायणकृतः चमत्कारचिन्तामणिः

अदुनारायणकरुतः

चमत्कारयचिन्तापणिः

[ अन्वयार्थप्रबोधप्रदीपसंस्कृतरीकासमेतः, टिप्पण्यादिभिः समलङ्कृतश्च ]

टीकाकारः मालवीय-दैवन्न-धर्मर्वरः

रिप्पणीकारः सम्पादकर्च ब्रजविहारीलाल शर्मा

मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई, कोलकाता, बंगलोर, | वाराणसी, पुणे, पटना

पुनर्युणः दिल्ली, १९८९, १९८ १९८९, १९९२, १९९ १९९८, ₹००९, २००५, २००८, ₹० १ £ प्रथम संस्करण : वाराणसी १९.७५

© मोतीलाल बनारसीदास

158: 978-81-208-24977-3 (सजिल्द) 1587: 978-81-208-2498-0 (अजिल्द)

मोतीलाल बनारसीदास ४१ यू०ए० बंगलो रोड, जवाहर नगर, दिल्ली ११० ००७ ८ महालक्ष्मी चैम्बर, २२ भुलाभाई देसाई रोड, मुम्बई ४०० ०२६ २३६ नाईंथ मेना ब्लाक, जयनगर, बंगलौर ५६० ०११ सनाज प्लाजा, १३०२ बाजीराव रोड, पुणे ४१९१९ ००२ २०३ रायपेद्धा हाई रोड, मैलापुर, चेन्नई ६०० ००४ ८ केमेक स्ट्रीट, कोलकाता ७०० ०१७ अशोक राजपथ, पटना ८०० ००४ चौक), वाराणसी २२१ ००९१

नरेनद्रप्रकाश जैन, मोतीलाल बनारसीदास, बंगलो रोड, दिल्ली ११० ००७ द्वारा प्रकाशित तथा जैनेन्दरप्रकाश जेन, श्री जैनेन्द्र प्रेस, ए-४५ नारायणा, फेज-९, नई दिल्ली ११० ०२८ द्वारा मुद्रित

भूमिका-

उयोतिषश्चाख्र के तीन स्कन्ध है– संहिता, तंन भौर होरा इनमें होरा स्कन्ध अनन्तपार सागर है। इसमे जातक-ताजिक-मुहूतं-प्रक्न-पचांगनिर्माण- नष्टजातक सम्बन्धी अनेक ग्रन्थर्है। इनमेसे भमी मुख्यता जातक फलादेश की है। “नज्योतिःशाखर फलादेश का सागर हैः एेसा कथन कोई अतिशयोक्ति नहीं है। फलादेश सुगम हो जाए, इस प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए वराहमिहिर आदि भवार्यो ने अपने-अपने अन्य च्लि है। बाहुबक से समुद्र को पार कर ठेना सहज तो क्या, अत्यन्त कठिन है आर पारङ्गत होने के लिए जहाजों की आवदयकता होती है । अतएव जहाजों का निमोण होता दै। इसी प्रकार फलदेरा सागर को पार करने के ल्एि भावचार्योने प्वरूपी फलादेश्च ग्रन्थ च्चि है। इन भ्रन्थोंमें बृहजातक की मुख्यता ह । यह ग्रन्थ संक्षि है, दुरूह है भौर सव॑विषयपूणै भी दै चसा वराहजीने

स्वयं कहा दै-होरातन्त्रमहाणंवप्रतरणे भग्नोद्यमानामहं खस्परं इत्तविचित्रमथेबहुं शाल्वं प्रासे ॥ ° २॥

नारायणभहजी ने इसी भाव को स्पष्ट करने के लिए चमत्कारचिन्तामणि का उपोद्घातरूप तीसरा शक छ्ला रै–“चतुर्लश्चञयोतिर्महाम्बोषिमुेः प्रमथ्यैव-‘ । नारायणम त्रिसकन्धवेत्ता-ज्योतिविंद्‌ थे । अत्व उन्होने चार लख फटितज्योतिष के मन्थोका मार्मिक स्वाध्याय क्रिया, मार्मिक परिशीलन किया, तदनन्तर इन प्रन्थों का पृणतया विरोडन भी किया ओर अमूल्य फठरूपी रतो का संग्रह किया । एक-एक शोक मे एक-एक भावस्य ग्रहों का फर युजंग-

प्रयात छन्द द्वारा मनोहर शब्दों मे वर्णित कियाद ॥ एकदहीशछोकमें एक भाव का फल वर्णित करना महान्‌ कठिन कार्यं है जेसे कुम्भ मे समुद्र को बन्द

करना है । तो भी नारायणमड ने अपने बुद्धि-वैभव से-भपने प्रकाण्ड पाण्डित्य से, भपने काव्यरचनाकोशस्य से इस अत्यन्त कठिन कायं को मूर्तिमान कर दिखाया है । अतएव ज्योतिष के जातक प्रकरण में भावस्थित ग्रहों का फल कहने के किष चमत्कारचिन्तामणि ग्रन्थ कौ सवत्र मान्यता है । फलादेश करने मे यद ग्रन्थ बहुत ही उपयोगी है । इस मन्थ द्वारा फलादेश करनेवाङे दैवज्ञ सवंत विजयी हो सकते है । इसमें प्रमाणरूप चमत्कारचिन्तामणि का अन्तिम शोक है । “4चमत्कारचिन्तामणो यत्‌ खगानां फलकं कीतिंतं भटनारायणेन ।

पठेवयो द्वि जस्तस्य राज्ञः समक्ष प्रवत्तं न चान्ये समथा भवेयुः ॥ नारायणमदने किस देर को अलक्त किया, किस ग्राम को अपने जन्म से विभूषित किया भौर किस वंश को यशस्वी बनाया-आदि-भादि विषयों का

( “1 )

परिचय प्राप्त करने के किए पाठकां का मनमयूर्‌ अवद्य नाच उठता दहै) किन्तु खेद्‌ है कि नारायणभद्रने पुस्तक कठेवर मं ऊपर चि प्रश्नां पर कोई प्रकारा नदीं डाक हे । प्रद्युत मोनावलम्बन से काम लिया है । अपने नाम का परिचय मात्र अवदय द्विया दहे) प्रव्यन्न प्रमाण क अमाव मं अनुमान का याश्रय लेना पट्तादै। नाम के साथ म्र शब्द देने से अनुमान किया जाता है कि भट्रजी दाक्चिणास्य महारा ब्राह्मण हारो । “अजा तस्व माता परिता वाह्ुरेवः इस शेक से किसीएक क्रा अनुमान दैक इस तरह का वणन करनवाटे उ्योतिष्री दक्षिणमंदह्ीहएःर्दै– पीर यह टेखक मसूर~राञ्य का हाना चादि | चमत्कारचिन्तामणि का नाम भावचिन्तामणि भी प्रसिद्ध दै ।

“यह ग्रन्थ क्रिस दातान्डीमं च्लि गया दै” इस विषयमे भी कोई प्रत्यक्ष एेतिद्ासिक प्रमाण उपलन्ध नहीं दहोग्हादहै। यह्‌ म्रन्थ १५बीं शताब्दी मं लिला गया दोगा, एेसा अनुमान है।

यह ग्रन्थ फलकथन मं बहुत उपयोगी दै आओौर इसका तुलनातमक स्वाध्याय ओर परिशीलन देवज्ञं को करना चादहिए-इस माव को मन मे रखते दए इसका सम्पादन क्रिया गयादे। वह सम्पादन देवज्ञो को गगं आदि प्रसुख आचार्यो के मतां का परिरीलन करने का अवसर देगा यौर साथ ही मनोरंजन मी होगा, एेसी सपादक की विश्वासभरी धारणाद । इस तुलनासमक संपादने निम्नलिखित आचार्यो ओर अर्वाचीन दैवज्नां क मत प्रज्ञादष्टि मे आर्णैगेः-

१ वराहमिहिर, गर्गाचार्य, पराशर, वसिष्ठ, कल्याणवर्मा, वैयनाथ, जातक- कटानिधिकार, वृहदूयवनजातक्कार) काशीनाथः जयदेव, जागेश्वर, पुंजराज, मतरेश्वर;, नारायण, हरिटंश, तच्रप्रदीपजातक्रकार; कटयप, ग्वरगुसूत्तकार, नारद्‌, गोरीजातक, जातकमुक्तावली) दुण्टिराज; जीवनाथ, व्यंकटश्माी, जातका- टंकारकार आदि-भादि । सम्पादक ने यवनमत आर प्ाश्वाव्वमतमभी दिया है । उपयोगी स्थलों पर विस्तरत . रिप्पणमी च्चिगएदहं। उपयोगी समञ्चकर ग्रहो का गण-स्वभाव-स्वर्प भादि तथा कारकव्व आदि का कहीं समास सेओौर कदं व्यास से वणन क्रियागयादहे | ग्रहों का राशिफ, दष्टिफल-यौर युतिफल मीचल्िखिा गवादहै। इस तरद दैवज्ञा के लामाथं पूणं प्रयास क्रिया गया है।

अआशादहेकि सभी प्रकारक पाटक इस सम्पादनसे गुणग्राही होकर पूरा-पूरया लाम उटार्येगे । अन्तमं सम्पादक प्राचीन-अर्वाचीन ग्रन्थकार्सँ के प्रति तथा अन्य टेखकों के प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता है जिनक साहाय्य से यह सम्पादन सम्पूणं हा दहै । इति शम्‌ ।

विनीते व्रजविहारीराल

विषय-सूचो

सूय-विष्वार सूयं-फल

चन्द्र-विचार र ०. ७२ प्च ००० ० ८६ भौम फल ४ ध १३७ बुध-विष्वार ध ध २०३ बुध फल ४ ग ६

बृहस्पति-विनार र ००, २५६ बृहस्पति-फर | क २६१ श्ुक्र-विचार “°” क २१

टुक्र-फट °“ ६ २८ शनि-विचार क वा 0 रामि-फ़क ६ ००० ३९८ राहूु-केतु-विचार “°” ध श शा ि नी ४.७१ वेःतु-फट “°” १.४; ६

वंशपरिचय : उपाध्यायाभिधाधारि-सुस्वरान्वयजन्मनाम्‌ । रयामचौरासीग्रामे वे मैत्रेयाणां शिरोमणिः ॥ पौराणिकेषु व्यासो वै सभाचातुर्येवान्‌ सुधीर । रामनाथाभिधो विप्रः सुकेतुराञ्यपूजितः ॥ तस्य पुत्रो महायोगो देवीपूजनतत्परः 1 उयोतिर्विदां िरोरलं वेद्य विद्याविदारदः ॥ ह्रिक्रष्णाह्वयस्यस्य सूनुः िदट्रद्‌ जनप्रियः । ब्रजयपूर्वो बिहारी हि खालखांतो दविजसेरकः ॥ मंडीनरे पादानां प्रसिद्धो धर्मडिक्षकः। दिक्षाध्यक्षः (दाश्री” संज्ञा न्यायाधीडाश्च कमठः ॥ श्रोवेदांतरल्लवियासागरोपाधिम्युतः । चितामणेस्तु व्याख्यां वे कृतवान्‌ सुमनोरमाम्‌ ॥

नी ति मंगलाचरणम्‌ वंदे कय्यस्यं गौरीजं वाग्देवीजानि चिन्नेराम्‌ । दतुं स्वप्रत्यृहध्वान्तं याचे नैमेस्यं मेधायाः | प्रणौमीश्वरीं भारतीं वारिजाक्षी स्वजासञ्य॑विहातुं विरात मति वे॥ प्रणमाभि सरोजमुखीं मतिदां ुनिवृन्दजुतां कमलासनजाम्‌ । कटरष्वानयुता करकंजतले । सुधृता वद्ट्की सुरमा हि यया॥ न कृतज्ञताप्रकाश्चनम्‌ गुसब्रह्या गुरुविष्णुः गुरुः साश्नाद्‌ महेश्वरः गुरुरेव परं तरह तस्मे श्रीगुरवे नमः॥ सम्पादक ने निःसंकोच इस सम्पादन मं प्राचीन तथा अर्वाचोन फलित- उयोतिष के म्रन्थकारों तथा ठेखकों के ग्रन्थो ओर लेखों का सदुपयोग किया है । अतः प्रस्तत चमत्कारचिन्तामणि एकः संग्रहग्रन्थ-सा बन गयादहै । सम्पादक इन सभी ग्रन्थकारो ौर चेखकोंका ऋणी है। आौर विनशन शब्दों से उनके प्रति अपनी दार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता है। स्वान्तःसुखाय किया गया यह्‌ व॒रनात्मक स्वाध्याय सभी को लामद्रायक दो, सम्पादक की यह चट कामना है| विनीत

व्रजपिहारीलक

चमत्का7ल्चन्तागणि क? तुलनात्मक स्वाध्याय

सूये-विचार :–

सूय के पयोयनाम :-रवि, सूर्य, ेटी, भानुमान्‌ , दीसरद्मि, विकर्तन, भास्करः) इन, अहस्कर, तपन, पूषा; अरुण, अकं, अद्रि) वनजवनपति, दिनमणि, नलिनीविखसी, पद्चिनीर, पद्विनीप्राणनाथ, दिवाकर, मात॑ण्ड, उष्णरदिमि, उष्णां, प्रभाकरः, विभावसु, तीष्णांश्च, तीक्णरदिमि, नग, नभेश्वर, ध्वांतध्वंसी, चंडभान, प्वेडदीक्षिति, चित्ररथ ।

सूये का सामान्य विदोषवर्णन- स्वरूप वणेन :–

““मधुपिगर्टक्‌ चतुरखतनुः पिन्तप्रकृतिः सविताऽत्पकचः ।> शूरः स्तब्धः विकल्तनयनः निषणः अकं तनुस्थे |>

“कालात्मा दिनङ्कत्‌ , राजानोरविः, रक्त स्यामो भास्करो वण॑स्ताम्रः, देवता वद्धिः, प्रागाद्या ॥ ( वराह मिहिर )

अथे :-रविरृष्टि- शद के समान लाल रंग– कंडी धूप को देखो तो एेसादही प्रतीत होता है। यदि सृष्ष्मटष्टिसे धूपको देखें तो यह कुछ पीले लालरगकी दिखती दहै। अतएव जिन मनुष्यों का रवि मुख्य होता है उनकी दृष्टि बहुत तीक्ष्णे होती है, खों के कोनों मे लखल-त्मल रेखा अभिक होती है । शरीर ष्वौकोर होता हे ।

रवि रूखा ओर उष्ण है अतः पिप्तप्रकरति होना स्वामाविक है । अल्पकचः– दारीर पर केश बहुत कमहोतेर्है। खरीराशिमें सू्यहोतो केरा नहीं होते। परन्तु पुरुष राशि मे होतो केश होतेह

स्थान :-देवगरह-रवि तो पूणब्रह्म है अतः इसका निवास स्थान मन्धिर, वा देवयह ही हो सकता है।

रवि का धात तांबा है किन्तु इसका धातु सुवणं उचित है ।

ऋतु :- ग्रीष्म ।

बलवत्ता -रवि उम्तरायण में बल्वान्‌ होता है ।

आत्मा -काट्पुरुष का आत्मा रविं हे ।

राजा :- रवि राजा है ।

रक्तरयाम :– ति के समान कालिमा लिए हुए लल रंगकाहै।

देवता-वबह्ि -रवि की देवता अचि है

दिहा :-रवि पूव॑दिशा का स्वामी है।

२ चमस्कारचिन्तामणि का तुरखनात्मक स्वाध्याय

वणे :-इसका वण॑ क्षत्रिय है । यह पुरुष ग्रह है । सत्वगुणी है । तत्व :-रवि तेज तत्व है । रवि पाप फर भीदेता दै अतः इसे रजोगुणी भी मानना होगा । रवि शौयप्रधान गह है–इसके जातक टीठ, निदंयी भी होते रै। ओर नेत्र रोगी भी होते ह| ““पिष्तास्थिसारोऽल्पकववश्वरक्तद्वामाकरतिः स्यात्‌ मधुर्धिगखाक्नः | कौसुम्बवासाः चतुरखदेहः छूरः प्रचण्डः प्रथुबाहूुरकः ॥ मेते्वर अथं ;–रवि पित्तप्रधान है–यह अस्थियों से वख्वान्‌ है । इसके केरा कम होते ह । इसका रंग काञ्मिा लिए हुए खल दै–इसकी असखि शहद के समान लठरग की है इसके वम्त्र लाखरग क्र ह । इसका देह प्वोकोर हे | रवि चूर, तीष्ण ओौर कूर, दै–इसकी युजार्ए चवरीमोटी ै। एेसासूर्थका स्वरूप हे । ‘्यूरोगभीरः ष्वतुरः सुरूपः इयामारुणः चातस्पक कुतश्च । सुदम्तगात्रः मधुर्पिगनेचः मित्रो हि पित्तास्थ्यकरिधो न तंगः ॥ दुण्डिराञ् अथे :- सूय, यर, गंभीर, चतुर, सुन्दर ओौर थोडे केशां वाख होता है । इसका वणं (रंग) कालिमा लिए हुए ल्ल हे। इसका शरीर गोर है। इसके नेत्र शहद के समान पीठे हँ । इसकी दड्ो मं शक्ति दे–यह पित्तप्रधान है । ॥ का जातक साधारणतया ऊचादहोतादै। किंत बहुत ही ऊँचा नदीं ट

“प्सू नृपो वा चतरखमध्यं चिनेन्द्रद क्‌ स्वणं चतुष्पदोऽग्रः | , सत्वं स्थिरं तिक्तपश्ुश्षितिर्तु पित्त जरन्‌ पाटल्मूख्वन्यः ॥ मानसार अथं :-सूर्य क्षत्रिय ईै-वह राजा हे-यह पुरुषग्रह है । यदह चतुरस आकार का, मध्या मं वली, पूर॑तरिशा का स्वामी, सुवणं द्रव्य का अभरिप;, चौपायोंका स्वामी, उग्र, पाप, सत्वरुणी, स्थिर, तिक्तरसप्रिय, पञ्चओं की भूमि मं रहनेवाखा, पित्तप्रधानग्रङृति; वृद्धपाटल (-श्रैतरक्त मिल हु ) वण, मूल-धान्य आदि का स्वामी तथा वनष्वरां कास्वाप्री ई। धसूर्यः सपित्िः तनुकायकशः शदयामशोणः तुरस्तदे हः । शुरोऽस्थिसारः मदुर्पिगलक्षः प्रथः सुवणः दद कायवान्‌ चः? ॥ जयदेव अभर – सुं पित्तप्रधान है इसके शरीर के केशा बहुत छे होते & । इसका रंग कालिमा लिए हुए लल हे। इसका देह चौकोर है। यह्‌ स्यूर्‌ द । इसकी वल्वन्ता अखियां मं हे, इसकी ओखां का रंग शहद के समान पीला दे । इसका शरीर द्‌ ओर मजबूत ह । यह स्थूल हे । ““मानुः ्यामरलादितयुतितनुः ॥ “कालस्यात्मा भास्करः । दिनेशोराजा । “भानु; इयामलोहितः” । प्रकाशकौ शीतकरक्षपाकरौः | %रविः पृष्ठेनोदेति सर्वदा ।

सूर्यविचार ।

विहगस्वरूपो वासरेशो भवति । शेखाय्वी संचारी । ‘ताम्रधातुस्वरूपः । य॒ष्वरौ अरुणौ । देवता बहिः । भाणिक्यं दिन नायकस्यः | स्थूरणम्बरम्‌ । प्रागादिको भानुः । करोडस्थाने देव्हम्‌ । सत्वप्रधानः। ^नराकारोमानुः । अस्थि, कटु, द्िणायनबटी । स्थिरः । वैद्यनाथ ` अथं :- कार का आत्मा भास्कर ( रवि 9) है। सूयं राजा है। सू्य॑का प्ग॒काल्मा लिए हए खाल है। सूयं मौर चन्द्र॒ प्रकाश देनेवाले है + रवि सदा पृष्ठमाग से उद्य होता है । दिवसेश्वर सूर्यं पक्वी जेता है, क्योकि इसका मतिदिन का भ्रमग आकारा मे से होता है । बनं अर परवतो पर चलता रहता हे । इसका रंग तोवि जैसा है । इसका देवता अगि है। माणिक नाम का रलरविकाहे। इसके कपड़े मोटे-मोटे दै। इसकी रा पराची है। इसका क्रीडा-स्थान देवमन्दिर है । यह सत्वयुणप्रधान है। इसका आकार मनुष्यों जेसा है । यह इड्यं के समान बहुत देर यिकाऊ है । इसकी रुचि कडकपदार्थो मे हे । यह दक्षिणायन मे भी बलो है । उत्तरायण मे तो बल्वान्‌ . दोतादहीहै। यह स्थिर है-्रथ्वी इसकी परिमा करती ३ । सूयं॑स्थिर होकर भी गतिमान्‌ है । सारी ग्रहमात्र को एकसूत्र मे नियमबद गति से अपने चारों ओर घुमाता है ओौर खरे ग्रहौ को एक-एक बार अपने तेजसे अस्तंगत कर देता हे ।

अकण मन्द शनि रवि के द्वारा पराजित होता दै । ेखा वैयनाथ का मत हे । किन्तु अनुभव इसके उल्ट है |

सूये कव बख्वान्‌ होता है – ए

“.स्वोचस्वकीयभवने स्वहगाण के च, होरावारांशकोदयगणेषु दिनस्यमध्ये ।

रारिप्रवेश समये सुधदंशकादौ मेषेरणे रिनिमणिबैल्वानजस्रम्‌ ॥

अथे :–रविं अपनी उचरारि मेष मे, बलवान्‌ होता है । सिहराशि मे वरी होता है । अपने द्रेष्काण ओौर होरा मं; अपने वार मे ( रविवार को ) दिनि के मध्यमाग मं अर्थात्‌ दोपहर को, रारि में प्रवेश करते समय, अर्थात्‌ एक राशिसे दुसरी रारि मं प्रवेश करते समय, मित्रके अंशोंमे ओर दशम मं होते हुए बल्वान्‌ होता है । उत्तरायण मे वी होता है किन्तु दक्षिणायन में भी बली होता हे । बडे-बड़े राजनीतिज्ञ नेता, कूटनीतिज्ञ डाक्टर, सजनं, वेज्ञानिक-कवियों आदि का जन्मप्रायः दक्षिणायन मे हुमा है, अतः सूय दक्षिणायन मेः मी बली होता है-ठेसा मानना होगा ।

रविकेरोगः-

“सदा रिरोरुग्ज्वरबरद्धिदीपनः - क्षयातिसारादिक रीगसंकुरैः । ` चरपाल्देवावनिदेवकिंकरेः करोति चिप्त व्यसनं दिवाकरः ॥*

अथ :-रविप्रभावान्वित जातक को मुख्यतया निम्नख्खित रोग होते

ह :-सदैव शिरपीडा, बुखार की वृद्धि ओौर तीक्ष्णता, क्षय, अतिसार आदि-भादि ।

प चमत्कारचिन्तामणि का तुरख्नात्मक स्वाध्याय

राजदण्डसे चित्तम विकार, किंसीदेव की अप्रतिष्ठ करने से चिमप्तविकार, भू-देव ब्राह्यणो के गापसे चित्त मं विकार आदि-आदि।

म्रहन ये रोग किंस स्थानमें ओर किस ख्नमें होते रह

उत्तर :- मेष; सिह, धनु; ख्मनों मं जव रवि धन-स्थान मं हो, मिथुन, तुला; कुम ख्गनों मे जव रवि व्ययस्थान मं हो, वष, कन्या, मकर, ट्ग्नांमं. जव रवि अष्टममं हो, कक, वृश्चिक; मीन लग्नां मं जव रवि दरमवा प्रमं होतो ऊपर ल्खिरोग होतेह ।

अको व्रुवतेऽरण्यचारिणःः–

रवि आत्मन्ञान का कारक है, अतः रविप्रधान व्यक्ति परमार्थं योगप्राप्त करने के लिए जंगल मे एकान्तवास करते ह-यह भाव है|

अकौँं व्योमदर्दिनो :-

प्रातः उदयकारक मं ओर संध्या को अस्त होते समय सूयंके किरण ऊपर आकाश मं दिखते दै अतएव श्योमददिीनोः कहना संगत हे ।

रवि का रारिफर :-

मेष-वुरा; दृष-सामान्य, मिथुन-यच्छा मी; बुरा भी, कक-अच्छा, सिह्‌- बुरा, कन्या-सामान्य; तुख-बहुत अच्छा; वृधिक-अच्छा भी बुरा मी; धनु-अच्छा, मकर-साध्ारण; कुम-वुरा, मीन-साधारण ।

ऊपर छ्खिा राशिफल स्व. ज्यो० कायवेका है–इनका मत है कि मेष का सूयं उच होकर तापदायी होता है इसलिए बुरा-एेसा फल छ्खिा है । इसी तरह. नीष्वराशि वला का सूयं हितकारक होता दहै। सिद्धांत यह निकटा कि उच्चपद्‌ को प्राप्तकर व्यक्ति नीचता की ओर कने ख्गता है । अति उच्पदं पाकर तो व्यक्ति वहत ही हानिकर दोता दै– यदी सत्य प्रच्येक मरह के विषय मे देखने मे आतादहे। इसी सिद्धांत को मनमें रखकर काटवेजी ने रािफल चिं ।

रवि का कारक :–

“धित प्रतापायोग्य मनः शछषिरचि ज्ञानोदय कारकः रविः ] वैद्यनाथ

अथे :-पिता का पराक्रम, रोगों के प्रतिकार कौ शक्ति, मन की पवित्रता, रुचि, ज्ञान का उद्गम, आत्मकल्याण इत्यादि विंषरयां का विवार रविं पर से करना होता है ।

नाध, सिह; पर्व॑त, ऊनी कपडे, सोना; शाख, विष से शरीर का दाह, ओषध, राजा, म्लेच्छ, महासागर, मोती; वन; क्कड़ी; मत्र आदि का विष्वार सूर्यं से करना होता है । यह मत सारावरीकार का है ।

धृहुत्पाराशरीः कार ने निम्नङ्खित का कारकत्व सूयं का माना है :- “राज्य, प्रवाल, स्ल्व्ल, माणिक; शिकार खेलने के जंगल, पवेत, क्षत्रियां के कमं आदि-आदि |

सूयंविचार ष्च

विद्यारण्य का मत है किं आत्मप्रभाव, शक्ते; पिता की पिता आदि विषयों का विष्वार सूयं से कतव्य होता है ।

कालिदास के अनुसार निम्नछिखित का कारकत्व सूयं का है आत्मा; राक्ति, अतिदुष्ट, किख, अच्छी शक्ते, उष्णता, प्रभाव, अग्नि, शिव की उपासना; धेयं, कटिदार वृक्ष, राजकृपा, कटता, बद्धता, गाय-भेस आदि पञ्च, दुष्टता; जमीन; पिता, खचि, आत्मपत्यय; ऊष्चीनजर, डरपोक मो का बचा, मृत्युलोक, प्वौकोन; अस्थि, पराक्रम; घास; कोख, दीघंप्रयतन, जंग, अयन, ओंख, वन म घूमना, ष्वौपाए-पञ्च, राजा, प्रवास, व्यवहार, पित्त; तपस्या, गोलाई, नेजरोग, रारीर, कड़ी, मनःपवित्रता, सर्वाधिकारित्व ! रोगो से मोक्ष, सोराषरदेदा का राजा, अक्का, मस्तिष्क के रोग, मोती, आकाश का आधिपत्य; नायपनः; पूवं- दिशास्वामित्व, तबा, रक्त, राज्य, खरुकपड़ा । अंगूटी मे क्गनेवाङे नग । खनिज के पत्थर, रोकसेवा, नदीतट;, प्रवा, मध्याह्न बख्वप्ता, पूर्वे, मुख; दीघंकोप, शात्रु-बिजय, सत्य, केशर, रात्रुता, मोटी रस्सी ।

रारिर्यो द्वारा सूयं का कारकत्व :-

मेष :–श्ाजकम, संघटक, फोरमैन, तबा, माणिक, प्रवाल, ऊनीकपडे ।

वृष :–दवादर्यो, पञ्च, घास, रुकडी, किसान; नाचना-नाय्यग्रह ।

भिथुन :-स्कूढ मास्टर, जवाहरात, कोटं की माषा ।

ककं :–बिजली, बिजलीपर चल्नेवाठे धंधे, ने्वैद्यक ।

सिह :-जोहरी, केदार, डिक्टेटर, राजा ।

कन्या :-मेने जर, गिख्ट, अनाज, साव॑ंजनिक कार्यालय ।

तुला :–सिविर आफिसर, ष्ेटिनम, राजदूत ।

वृश्चिक :- पत्थर, लखख््वंदन, चंदन, कचचारेरम, शखर, रारीरयास्नी ।

धनु सोना, रेडियम, ज्यूरसं, ध्म॑गुरु, कानून बनानेवाखे ।

मकर :-नगराध्यक्ष, कोसिलर, असेम्बली, नगरपालिका, जिल वा खोकल- ओड-सेक्रेटेरियय्‌ › कोसि आफ रुटेट ।

–मोरी रस्सी बनानेवाले । . मीन -एक्सरे फोटोग्राफर, मोती, प्रददिनी । जयदेव कविं के अनुसार सूयं का रारिफर निम्नलिखित है - मेष मे–विंख्यात, भ्रमणशीर, चतुर, अस्प द्रव्यवाला, अख्रधारी ।

वृष मे–सुगंधित द्रव्य के व्र के व्यवहार से आजीविका करनेवाला, सियो के साथ विवाद करनेवाला, गायन भँ रुचि रखनेवाद ।

मिथुन मे- सुंदर, विद्वान्‌ , धनी, ज्योतिःशाखवेत्ता ।

, ककं मे-उग्रस्वभाव, परकार्यकरणतत्पर, रोगी, अस्पविदयावान्‌ । सिह मे- मूख, एकान्तवाखी, बख्वान्‌ , पवतवास मे रुचि रखनेवाल्म ।

कन्या मे– चित्रकार, पुस्तक ठेखन द्वारा आजीविका करनेवाला, विच्ा- चान्‌ , स्री के समान शरीरवाला ।

& वसत्कारचिन्तामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

तुख मे-मयविक्रेता, नीषचकर्मकर्ता, सुनार, संष्वारशीट ।

चृद्धिक मे-असमीक्षित कर्मकारी, अस्रधारी, उग्रस्वभाव, विष ८ अफीम आदि ) के क्रय-विक्रय से धनोपाजंन करनेवाला ।

धनु मे–धनान्य, ठेखनकर्मकुराल, सजन तथः मान्य, उग्रस्वभाव, वैद

मकर मे- मूर्खं, अस्पधनी, वणिक्‌ , कुल्मनुषितकर्म॑कर्ता, रोमी, परसंपत्ति- भोक्ता ।

कम मे-पुत्रसुखरदित; निर्धन, कुटीन होकर भी नीष्वकर्म करनेवाला ।

मीन मे–मूंगा आदि मणियों के करय-विक्रय से लभ उठानेवाल, स्री-व्छम ।

कल्याणवर्मा के अनुसार सूयं का रारिफल-

मेष- सूर्यं मेषरारि स्थित हो तो शशाखराथं करने मे, ओर विद्वत्‌ कलाओं म विख्यात; युद्धपिय; उग्र, कार्यो मं उद्यत, भ्रमणरीट, मजवूत-हड़ीवाला, साहससाध्यकायं मं लीन, पित्त तथा रक्तव्याधि से युक्तः कांतिमान्‌ तथा बलवान्‌ होता है । यदि सूयं अपने उ््वांशमेंद्ोतो जातक राजा होता है।

रिप्पणी– व्यापक अथंमं राजा शब्द केना चाहिए । रराजृदीसौः से वना हुभा राजन्‌ शब्द्‌ चमत्कारातिदाय का ॒ब्योतक है, कीं उच्चाधिकार का प्वमत्कार, कर्द भूमिपति होने का चमत्कार भौर कीं पर धनाल्यता चमत्कार

होता है ।

वृष- सूयं वष्र राशिमं होतो जातक सुख ओौर नेच रोगों से पीडित, क्रे सहिष्णु योग्य, व्यवहारपड्‌, मतिमान्‌ , बन्ध्यास्नी का देषी, भोजन, माला, गध तथा वलन से पूण, गीत-वाद्र-चरत्य जाननेवाला, जर से भीत होता दै ।

मिथ्ुन-मिथुनमें सूर्य॑ दहो तो जातक मेधावी, मघुरभाषी, वात्सल्य- गुणयुक्त, सदाष्वारी, विज्ञान ओर शाख मे निपुणः बहुधनवान्‌ ; उदार, निपुण उ्योतिविंद्‌ ; मध्यमरूप, दो माताओं वाख, सन्दर ओर विनीत होता है ।

कक–कक गत सूर्यं हो तो जातक काम में चं, राजा के समान गुणों से विख्यात; अपने पक्ष का देषी, दुमंगा स्त्री का पतिं, सुरूप, कफ ओौर पित्त से पीडित, भ्रमसे दुःखी; मदिराप्रियः, ध्माता; मानी; मधुरवाक्‌ , देश-काल- दिशावेन्ता, स्थिर, मात्र-पिवर द्वेषी होता दे ।

सिंह- सिंहस्थ सूयं हो तो जातक शतुहंता, कोधी, विरोष चेष्टायुक्त वन-पर्व॑त ओर दुगं मे धूमनेवाला । उत्साही; श्र, तेजस्वी; मांसाशी, मयानकः, गंभीर, स्थिरवटी, वा्वाल, भूमिपाक्क, धनाढ्य ओर विख्यात होता हे ।

कन्या-कन्या रारिमें सूर्य॑दह्ो तो जातक सख्री के समान देहवाल, टजायुक्त; छेखक, दुर्बल, प्रियभाषी, मेधावी; अस्पनली; विद्धान्‌ › देव-पिता आदि गुरुजनों का सेवक, वैर दबाना आदि कामों मे कुरा, वेद-गान; वाद्य मे निपुण, कोमल ओर दीनतायुक्तं वष्वन बोलनेवाला दोता है।

सूयंवि चार ७

तुलखा– ठस रारि स्थित सूयं हो तो जातक पराजय, दानि ओर खर्वंसे पीडित, विदेश ओर मागं मे धूमनेवाला, दुष्ट-नीच, प्रीतिहीन, स्वर्ण-लोहा सादि बे्कर आजीविका करनेवास्, द्वेषी, परकार्यरत, परली पट, मलिन, राजा से अनाहत ओर टीट होता है ।

वृश्चिक सूयं वृश्चिक में - हो तो जातक ल्डाई-ञ्गडे मे रोकने पर भीन ख्कनेवात्मरः वेदमागं बाह्य, इटा; मूख, सखीहीन वा दुष्टा स्रौ का पति, खट,

` दश्चरििाखीवशवततीं, क्रोधी, नीषवर्ति, रोमी, कह प्रिय, मिथ्याभाषी-शख्र-अथि

वा विष से आहतः माता-पिता की आज्ञा न माननेवाला ओौर कुरूप होता दै ।

धनु–धनु रादि का सूयं हो तो जातक धनी; राजपरिय, प्राज्ञ, देव-बराह्मण- भक्तः शाखर-अख्र तथा हस्तिरिक्षा मं निपुण, व्यवहारण्वतुर; सजनपूञ्य, सात, विशार, स्थूल ओर सुंदर दारीरवाद्य, वंघुहितकारी ौर बल्वान्‌ होता है । `

मकर मकरगत सूयं हो तो जातक लभी, परिहीन खी मे आसक्त, नीष्वकमकर्ता, व्रष्णावान्‌ , बहुत कामों मे व्यग्र, भीर, बन्धुहीन, प्व॑चर- भङ्कति, भ्रमणीर, निषेक, आत्मीयजनों के विक्षोम से सर्वनाश करनेवाला, भोजनमड्‌ होता है | | |

कभ–कुभस्थ सूयं हो तो जातक हृदयरोगी, बली, सजन-निदित, अति- क्रोधी, परसख्ीरत, काय॑बुशल, परायः दुःखी रहनेवाला, अस्यधनी, शठ, मित्रता मं अविश्वसनीय, मलिन, चुरु, अनुचित प्रप करनेवाला होता है ।

मीन- मीन म सूयं हो तो जातक बहुत मित्रो से युक्त, ख्ीके गेमसे सखी, पीडित, बहुरानरु-विजयी, धनी, यदस्वी भौर विजयी होता है । आन्ञा- कारी पुत्रों से सुखी? नौकरों से सुखी, जर के व्यापार से धनी, मीटा ड बोलने- वाला; गुसरोगी,; तथा बहुत भादयों से युक्त होता है ।

सूयपर ग्रहो की दष्ट का फल–

मेष वा बृश्िक- में सूर्यं हो ओर उसपर चन्द्रमा की दृष्टि हो तो जातक दानी; बहुतनौकर रखनेवाला, मनोहर, सरीप्रिय तथा कोमख्दारीर होता है ।

भौम- की दृष्टि हो तो युद्ध मे अतिवल्वान्‌ , करः रक्तनेच ओर लालरङ्ग के हाथ ओर पैरवाल्म ओर तेजस्वी होता है । `

बुध-की दृष्टिहो तो अत्य, दूसयों के कामकरनेवाला, अल्पधनवान्‌ निब, दुःखी तथा मल्िनिशरीर होता है । |

गुर्कीदृष्टि हो तो धनान्य, दाता, राजी, न्यायाधीया ओर शठ

होता हे!

राक्र की दृष्टि होतो चरि्रहीनख्री का पति, बहुत शत्रुओं से युक्त; सत्पबधुत्राख, दीन ओर कोटी होता है ।

दानि-की दृष्टि हो तो कष्टयुक्त शरीरवाखा, काम मे उन्मत्त; बुद्धिदीन ओौर मूखं होता है ।

८ चमत्कारचिन्तामणि का तुरखनात्मक स्वाध्याय

वृष वा तुखा पर– स्थित सूयं हो ओर उसपर चन्द्रमा कौ दष्टिदहोतो जातक वैद्यागामी, प्रियभाषी; बहुत चियोँका पोषक, जठ से आजीविका करनेवाला होता है ।

मंगटकीदृष्टिहो तो जातक वीर, सम्रामपरिय, तेजस्वी, साहससे धन ओर य पानेवाख ओर विकल होता है |

बुध-कौदष्टिहोतो चित्र; ठेख, काव्य; गायन आदिमं निपुण अौर सुंदर होता है ।

गुरु-कीदष्टि हो तो बहुतमित्र ओर बहुत रत्रुओं वाखा, राजमंत्री, सुंदर ने््रोवाखा; कान्तिमान्‌ ; वष्ट राजा होता हे ।

शुक-कौदटषटिदहोतो राजा वा राजमंत्री, स्री-धन-ओौर मोग युक्त होता हे । बुद्धिमान्‌ ओर भीरु होता है ।

दानि-की दृष्टि दहो तो जातक नीच, आलसी, दसि, बरद्धाख्रीपेमी, स्वभाव ते ऋरर ओर रोगों से पीडित दोता है ।

मिशन ओर कन्या-मे स्थित सूर्यं पर यदि चन्द्रदष्टि होतो जातक रातु ओर वंघु्यों से कष्ट पानेवाख, विदेरायात्रा से पीडित ओर बहुत विलाप करनेवाला होता है|

मोमचष्ि-होतोरात्रु से भव, कल्दप्रिय, रण म अपयश आदि से दुःखी, दीन ओौर ख्जायुक्त होता है ।

बुधदृष्टि–दो तो राजा के समान आचरण, विख्यात, जन्धुवान्‌ , शनुहीन ओर नेत्ररोगी होता दै । गुरुटष्टि-दो तो बहुशाख राजदूत, विदेशगामी, उग्र, उन्मादी होता है।

शुक्रटष्टि– हो तो धन-स्री-पुत्रयुक्त, अल्पसनेही, नीरोग, सुखी ओर ्व॑चल होता है ।

दानिदृष्टि-हो तो बहुभरत्यवान्‌, उद्विद्रहदय, बन्धुपारुक यौर धूतं होता हे ।

ककेस्थ सूर्य पर॒ चन्द्रहृष्ि- हो तो जातक राजा के समान, जटख्व्यापार से धनी ओर कूर होता है ।

भोमदृष्टि- दहो तो शोकयुक्त, भगंदर रोग पीडित, बन्धुओं से विरक्त अौर चुगुख्खोर होता है ।

वुधदृष्टि–हो तो विद्वान्‌ › यशस्वी, राजप्रियः का्य॑कुश ओौर शत्रुहोन होता हे ।

गुरुदृष्टि- हो तो शरेष्ठ, राजमंत्री वा सेनापति, प्रसिद्ध तथा कलाभिज्ञ होता हे ।

शुक्रदृष्टि–हो तो खरीभक्तः स्रौ के द्वारा धनी, परोपकारी, रणञ्यूर ओर मधुरभाषी होता है ।

[4 -

सूयंविचार ९

रानिटषटि- दहो तो कफवातपीडित; परधनापदारी, विपरीतमतिं; विपरीत चे्टाओं वाखा तथा चुगुर होता हे । |

सिह राशिस्थ सुर्यं पर चन्द्ररृष्टि दो तो-जातक मेधावी, सुखीखाख्री का पति, कफरोगपीडित तथा राजप्रिय होता है ¦

भोमदृष्टि-हो तो जातक परनारीरत, खर, साहसी, उ्योगी; उग्र ओर प्रधान पुरुष होता दै ।

बुधरृष्टि-दो तो जातक विद्वान्‌ , ठेखक, धूतंसंगी; भ्रमणशी, परिजन- रहित ओर निर्ब॑र होता हे ।

गुरुटृष्टि–हो तो मंदिर, उन्मान, जल्शय बनवानेवाखा, एकान्तग्रिय अर महाबुद्धिमान्‌ होता है ।

शकटषि-हो तो कुष्ठादि रोगों से पीडित, निदंयी तथा निर्न होता है ।

दरानिदृष्टि-हो तो स्वकायंनाशकः, नपुंसक, दूसरों को दुःखी करनेवाखा होता हे।

धनु वा मीन- पर सूयं स्थित हो ओर उस पर चन्द्रकी दष्टिहो तो जातक वाक्यबुद्धिवेभवयुक्तः, पु्रयुक्त, राजतुल्य, रोकटीन ओर सुद्रशरीर वाटा होता हे ।

भोमरष्टि-हो तो संप्रामविजेता, स्पषटवक्ता, धनसखखयुक्त तथा उग्र होता है ।

बुधदृष्टि–हो तो प्रियभाषी, ठेखक; काम्यकर्ता-सभासद, धातुज्ञाता ओर ङोकप्रिय होता हे ।

गुरुदृष्टि-दो तो राजा का संबेधी वा राजा, दाथी-घोड़ा-धनवाल्ा; विद्वान्‌ होता हे ।

शुक्ररष्टि-हो तो दिव्यस्री तथा गेधादि का भोक्ता ओर शांत होता है ।

दानिटष्ि- दो तो अपवित्र परान्नभोजी; नीष्वानुरक्त तथा ष्वतुष्पदपारूक होता हे। |

मकर ओर कुंभ मे स्थित- सू्॑पर चन्द्रद्टि दो तो छखिया, चंचरूमति, सख्रीरति से धनी तथा सुखनारक होता है ।

भोमदृष्टि- हो तो रोग तथा शत्नुपीडित, शतरुकर्हजन्यक्षतदे हवाला आओौर विकट होता है ।

बुधदृष्टि–हो तो नपुंसकस्वभाव, परधनहतौ, नि्बैख्शरीरवाखा होता हे ।

गुरुदृष्टि–डो तो पुण्यकर्मकर्त, मतिमान्‌ ; सर्वाश्रयः, विख्यातकीतिं यर मनस्वी होता हे ।

शाकटष्टि- हो तो शंख, भुंगा-मणि का व्यापारी, वैश्या तथा लियं द्वारा धनी ओर सखी होता हे ।

। १ तो `दात्रुजयी; राजा के सम्मान से वर्धितञश्वासनवासा

होता हे ।

१० चमत्कारचिन्तामणि का तुरखुनाव्मक स्वाध्याय

स्वण्ह आदि-

रादि :-मे° बर° मि० क० सिं० कण त° चू०° ध० म० कु° मी

स्वामी –म० द्ु° वु० प्व सू० वु० शु म० व° रा० शभ बु°

मूलत्रिकोण ग्रह-सू० व° म० बु° बु० श्यु०° शण

| 4” ~ ~… 4. “3 2 उच – सू9 प मं वु ब ¢ श्ु9 रा० ०।९१० १।३ ९।२८ ५।१५ ३1५4 ११।२७ ६।२०

नीच -३।१९० ७।३ ३।२८ ११।१५ ९।५ ५।२६ ०।२०

सू-ढ–श के रारियों मं २८० अंडातक मूटत्रिकोण, बाद २६५ अयसे ३० अंदातक उनकी वे स्वणह राशियाँ । इष का ३ अरा चन्द्र का उच्च दै- इसके वाद्‌ मूलत्रिकोण हे । मंगर का मेषराि के १२ अंशपर्य॑न्त मूलत्रिकोण है । वाद्‌ स्वह है । कन्या का १५ अंश बुध का उच दै, बाद्‌ १० अंश मूलत्रिकोण है बाद्‌ ^ अंश स्वह है ।

राहु का मूलत्रिकोण कुंभ हे, मिथुन उ है । कन्या स्वण्ह है । राहु-केतु के स्वण्ह मूलखत्रिकोण के विषय में म्रंथकारों मे मतभेद है । .

स्वगृह आदि का प्रयोजन-भगवान्‌ गार्गिः- ` “स्वोचगो रविशीतांञ्ू जनयेतां नराधिपम्‌ , उ्वस्थौ धनिनं ख्यातं स्वत्रिकोणगतावपि। अधं दिगम्बरं मूखं परपिंडोपजीविनम्‌ , कुर्याता मतिनीचस्थौ पुरषे शरिभास्करौ ॥»

सूयं योग–यदि सूर्यं से १२ वेंस्थानमें, चंद्रमा को छोड़कर ओर कोई ग्रहदो तो वोशियोगदहोतादहै। द्वितीय स्थानमें प्रह दो तो वेदियोग होता है । दूसरे ओौर वारहवें दोनों चन्द्र को छोड़कर, अन्य कोई ्रहहोतो उभयम्वरी नामक योग होता है ।

सूयं का पीड़ाकरण प्रकार :– सूं अश्चभ हो तो सदा अग्निरेग, ज्वरबृद्धि, जलन, क्षय, अतिसार, आदि रोगो से, एवं राजा, देव; ब्राह्मण ओौर नोकयो से चिष्त मे व्यसन उत्पन्न करता है ।

सूये की दृष्टि –२।१० एकपाद्‌, ५।९ द्िपाद. ४1८ त्रिपाद, ७ संपूणं दृष्टि.

सूयं के मित्र-चं०-मं०-गु° उचबल्– ४ सम– बु स्वखहबल– २ रात्ु-श्यु° शा० मित्रनख्- १

तात्कालिकमित्र-बु° गु° श्चु° श० सम- २

तात्काछिक रात्नु–चं-मं° रातु- ्

सूयं का नैसर्गिक बल ६० अस्त- ०

मूटत्रिकोण– ३ नीष्व– ०

यमक

जओंसर्वंविघ्ठहन्रे श्रीगणेक्षायनमः । श्रीसु्यादिनवम्रहेभ्योनमः । अथ मार्वीयदेवज्ञधरमेश्वरङृत अन्वयाथप्रनोधप्रदीपटीकासदित शभ्रीनारयायणभट-कऊत

चमत्काट-चिन्तारमाणः

[ श्रीदुगौशरणास्या मणिप्रभारीका-दिप्पणी संपादकीया

अथ म्रन्थकतुः मटनारायणस्य मंगला्रणम्‌-

““टसत्‌ पीतपद्राम्बरं छृष्णचन्द्रं सुदाराधयाऽऽखि्खितं विदयते ।

घनं संप्रणम्यात्र नारायणाख्यः चमत्कारचिन्तामणि संप्रवक््ये ॥ १॥

अथ मालवीय दैवज्ञधर्मश्वरस्य टीकाकठुः मगलम्‌-

“गणेशं शिवं भास्करं रामचन्द्रं भवानीं प्रणम्याथ टीकां सुरम्याम्‌ ।

प्वमत्कारचिन्तामणेः दैववेदिपबोधाय धर्मेश्चटः संग्रवीति ॥

अथ अन्वयाथं प्रबोधप्रदीपरीका प्रारभ्यते-‘लसत्‌” इति-

सं० टी<-अथ छगनक्रुंडलिकायां जातकोक्तमाव-फल-ज्ञानाय चमत्कार चिन्तामणि विवक्षुः नारायणाचायैः प्रारीप्सित निर्विध्नपरिविमाप्त्यथं श्रीकृष्ण प्रणाम रूपं मंगल्माष्वरन्‌ रिष्यरिश्ताये निबध्नाति-ल्सत्पीतादिः–

अत्रमस्मिन्‌प्रन्थप्रारंभसमये नारायणनामा आष्वायः अहं सत्‌ शोभितं पीतवणे पद्म्बरं यस्य तं विदुताघनंमेघमिव राधया आटिगितं ङष्ण्वन्द्र ष्वन्द्रमिव ` आस्हादकं श्रीकृष्णं संप्रणम्य कायवाङ््‌ मनोभिः नत्वा चमत्कारणिन्तामणि नामानं

न्थ संप्रवक्षये सम्यक्‌ प्रकारेण रष्वयामि इत्यथः ॥ १ ॥

अथं ॒दुर्गाशरणाख्या मणिप्रभाहिन्दीरीका-हिन्दी-रिप्पणीकतः संपाद क॑स्य

मगलष्वरणम्‌- ्दुरगैव शरणं रोके दुर्गेव शरणं मम । दुगे ! देवि ! नमस्तुभ्यं देदि मे प्रलगं धियम्‌ ॥

दुगौशरणाख्यामणिप्रभा हिन्दीटीका–

मै नारायणम चमत्कारचिन्तामणि नामक फटितग्रन्थ के प्रारम्भ मे, इस ग्रन्थ की निर्विष्न समासि के लिए श्रीकृष्णचन्द्रजी के ष्वरणों मे काय-वाणी तथा मनसे प्रणाम करता हूँ । श्रीराधाजी श्रीङृष्णचन्द्रजी को जब अपना आगन देतीदहैतो एेसा प्रसीत होता है किं जैसे विचत्‌ भौर नील्वणं वर्षा-क्तु के बादल का परस्पर आगन हआ हो । वाकार मे जब नील्वणे के जलभरे हुए बादर आकाश मे कैरते है ओर उनमें रद -रहकर बिजली चमकती है तो एक अद्भत दद्यदृष्टि गोष्वर होता है ।

१२ चमत्कारच्िन्तामणि का तुखुनात्मक स्वाध्याय

इसभाव का मूर्तिमान्‌. चित्रणं करने के लिए कवि ने श्रीकृष्णजी को घन से उपमित क्रिया है ओर श्रीराधिकाजी को ष्वमकती हई बिजली से उपमित किया है । श्रीङ्ृष्णजी के स्वरूप के विषय मेँ नीख्वणे बादलों का साद्य है ओर श्रीराधिक्राजी की अनुपम मुखकान्ति को व्योतित करने के छिएः पीतवर्णां बिजली का साहश्य वताया हे । ओौर यह शब्दचित्र भक्तों के मन मं असीमित आनन्द ओर आस्हाद का जनक है। इस नमस्कारात्मक-मंगखष्वरण से भटजी ने अपने को युगल्मूर्तिं श्रीराधाङृष्णजी का उपासक स्पष्टतया सूचित किया है। “मुदा शब्द से भटरजी ने श्रीराधिकाजी की ‘आष्हादिनीः शक्ति कां स्मरण किया है । सत्चित्‌-ानन्द-स्वरूप परब्रह्म श्रीकृष्णजी का सम्मिखन-अघटित घ्ना परीवसी मायाखूपा आह्वादिनी शक्ति श्रीराधिकाजी से त्रिकालाबाधित तथा नित्य है– यह (आिङ्गनः शाब्द से सूचित किया है ॥ १॥

चमत्कारचिन्तामणि ग्रन्थ के टीकाकार दैवक्त धर्मश्वर ्ै। इन्होने अपनी ‘अन्वयाथं प्रनोधप्रदीप नामक अव्यत संपत रीका की निर्विन्न परिसिमासि के किए नमस्कारात्मकं मङ्गलाप्वरण “गणेशमित्यादिः शोक से किया हे:ः-

मैने ८ धर्मश्वर ने >) दैवज्ञो को ष्वमत्कारचिन्तामणि मन्थ का यथावत्‌ अर्थं समन्नाने के किए यदह मनोरम टीका छी है । इस टीका की समापि निर्विघ्रतया हो–दस निमित्त मे इस स्वना के प्रारम्भ मेँ श्रीगणेशजी; श्रीरिवजी श्रीसूर्य नारायणजी, श्रीरामचन्द्रजी तथा श्रीभवानीजी को प्रणाम करता हू ।

दुगोदयरणाख्यामणिभ्रभा हिन्दी रिप्पणी-

प्राचीनकालसे ग्रन्थ के प्रारम्भ मे मङ्गलाष्वरणात्मक श्टोक छ्खिने की परिपाटी चटी आ रदी दै । इस मङ्कगलाग्वरण का पयोजन ग्रन्थ की निर्विन्न समाधि तथा रिष्टाचार है । न्यायसिद्धान्तसुक्तावटी के प्रारम्भ मे इस विषय पर बहुत ऊहापोह के साथ यृह निर्णय किया गया है किं मङ्कलाप्बरण आवस्यक तथा कतव्य है |

श्रीपतं जचिक्रित महाभाष्य के प्रारम्भ में मङ्गलाप्वरण की कतंव्यतां परं भारी बढ दरिया गया है। अतएव अन्थकर्ता, टीकाकर्तां तथा संपादनकर्ता ने शि्टाचारयानुसार मङ्गखाचरणात्मक शोक च्खिर्हु।

श्रीभट्जी ने अपने मङ्गलाष्वरणात्मक छोकद्ारा श्रीराघाङृष्णमूतिं का दान्दचित्रण किया है । जब नवनीरद्‌ बादलों मेँ नजिजटी कोधती है तो काले नटे बादर एक अनूठा दस्य उपस्थित करते ्दै। इसी तरह जबर श्रीराधाजी प्रेमवरा सवंभक्तजन चित्ताह्वादक श्रीकृष्णजी को आलिङ्गन देती है तो प्रकृति- पुरुष कै मिलाप को देखकर भक्तजनों का चित्त आनन्द से नाष्व उठता है । यहो पर श्रीराधाजी की उपमा विद्यत्‌ सेकी गई है आर श्यैकृष्णजी को नूतन जलधर से उपमित किया गया है । चमत्कार ओौर पीतता साधारण धमं है |

मंगखाचरण १३

पुनः बा्गोबिन्द भजनपूवंकं पूवोक्तं मुकुन्दं प्रकय्यति-कणदिति– ‘“कणत्‌ किकिंणीजार कोटाहटस्यं सत्‌ पीतवासोवसानं चर्तम्‌ । यदोदांग्णे योगिनामप्यगम्यं भजेऽहं मुङ्कन्दं घनद्‌यामवणेम्‌? ॥२॥ सं० टी<-क्रणतः शब्दायमानस्य किर्विणीजारस्य कचिबद्धक्षु्रधटिकासम्‌- हस्य कोलाहलेन श्चणत्‌कारेण आब्यं युतं तद्राब्देन तद्मानसं वा, टसत्‌ पीत- वासो वसानं शोभमानं पीताम्बरं धारयन्त, योगिनां अपि अगम्यं प्रासं अशक्यं अपि, यशोदांगणे वन्तं गच्छतं घनवत्‌ इयामवर्णं कष्णरूप, स॒ कुन्दं अहं भजे; योगिभिः अप्राप्ये यशोदांगणे पयंटन्तं श्रीङष्णं मनसा स्मरयमि–इति स्वमहद्धा- ग्यातिरयोक्तिः ॥ २ ॥ हि टी<–योगिजन कठिन तपस्या तथा हय्योग-भक्तियोग, ज्ञानयोग आदि से ब्रह्मप्रापि के लिए-्रह्म को आत्मसात्‌ करने के छिए सतत यल्लशीट रहते है– ओर यह इनका योगाभ्यास शतान्दियों तक चरता रहता है तो भी परमब्रह्य प्राति मे असफल प्रयल रहते हँ । किन्तु वही परब्रह्म भगवान्‌ भक्तं मेमवीभूत होकर माता यशोदा के आंगन मे पीताम्बर पिरे हुए ओर पामोंमं कणे मनोहर शाब्द करनेवाटी ्षुद्रधंटिका पिर कर इधर-उधर दौड़ते फिरते है एेसे भगवान्‌ कृष्ण का मानसिक स्मरण मै करता दह–यह स्मरण मेरे माग्यातिशय का सुष्वक है। | . इस तरह नारायणमट् ने दूसरा नमस्कारात्मक मंगलाचरण किया हे । रिषप्पणी- मंगलाचरण तीन प्रकार का हैः-( १) वस्त॒निदंशात्मकः; ( २ ) आसीवादात्मकः; .८ ३ ) नमस्कारात्मक । प्रस्व॒त पुस्तक मं भट्रजीने नमस्कारामक मंगलाष्वरण किया है । दृसरे शोक से ग्रन्थकार ने श्रीकृष्णजी के बार्भाव का शब्द-चित्रण प्रस्तुत कियादै। मेरा विश्वासदहै कि श्रीक्ृष्णजी का रंग काला नहींथा; प्रत्युत इयाम था, जिसका अथं है ववर्षा देने के किए तयार, पानीवाटे कालिमा ओर नीलिमा लिए हुए वर्षात के बादल । कवियों ओर भक्तों ने श्रीकरप्णजी की मुखच्छवि का वणन करते हुए “नवनीरुदाभम्‌? ॥ “नूतनजलधर सुष्वये? आदि-आपरि विरोष्रणां का उपयोग किया हे । अथ प्रयोजनं विरिनष्टि–भ्वत्क्षेति :- ““चतुरक्षज्योतिर्मंहांबोधिसुच्चैः प्रमथ्यैव विद्रद्‌ जनानन्दहेतोः । परं युक्तिरम्यं सुसंक्षिप्रङाब्दं जुजंगप्रयातेः प्रबन्धं करोमि” ॥ ३॥ सं< टी<- महान्‌ बोधः शानं यस्मात्‌ तत्‌ चतलक्षमितं ज्योतिःशास्त्र उच्चैरेव प्रमथ्यैव सम्यग्‌ विचायं विद्वदूजनानां देवज्ञानां आनन्द देतोः सुखाय परं श्रेष्ठं युक्तिभिः पदलाच्ि्यिः च रम्यं सुरं सक्षिप्तशब्दं अवहूुविस्तरं भुजगः प्रयातैः । ‘भृजगप्रयातो भवेद्‌ यैः पचतुभिः 9 इति लक्षणकः भुजंगप्रयातास्य छन्दोभिः प्रबन्धं चमत्कारचिन्तामणिरूपं करोमि । “ल्ह जीहापरे सो विलहुःः

१४७ ‘वमस्कारचिन्तामणि का तुरनाप्मक स्वाध्याय

इति पिंगलोक्तत्वात्‌ आच्पादेदोमंगः शंकनीयः । “वतुछक्षिकं ज्योतिषं भूरि भेदम्‌?” । इत्येवं वा प्रथमः पादः पठनीयः ॥ ३ ॥ ॑

हि< दी तीसरे शोक से भटडजी ने अपने नए प्रबन्ध के रष्वने का प्रयोजन बतलाया है । उयोतिःशाख्र चारलाख है –यह एक ज्ञान का अनंतपार समुद्र है-इस समुद्र को तैरकर पार कर केना असंभव नहीं तो कठिन अवद्य है | जेसे देव ओौर असुरो ने समुद्र का मंथन करके ष्वौदहरल्न निकाले थे जिनमें एक अम्रत भी था-इसी भोति चतुरछक्षमित य्योतिःशाख्ररूपी महाणव का खु मंथन ` करके व्वमत्कारचिन्तामणि नामक परन॑ध रत्न निकाल गया ईहै– अर्थात्‌ ष्वमत्कारचिन्तामणि नामक प्रघ की स्चनाकी ग्द है। इसकी स्वना मं व्यास ओर विस्तार नदीं किया गया प्रत्युत समास ओर राब्द संक्षेप से काम ल्या गया हे। संशित होता हा भी यह प्रन॑ध गंभीराथंक है–रुकितखब्दों से तथा युक्तयो से इस प्रघ को अ्थंगौरवान्वित किया गया है । ताकि इसके स्वाध्याय से दैवन्न खोगों का चित्त आनन्दित ओर अन्तः, सुखित हो । इस संक्षिप्त प्रव॑ध की रष्वना मे युजंगप्रयात छन्द को उपयोग मे लाया गयां रै । प्ारत्मख ज्योतिःशाख्र से १०८ शोको दवारा संपूणं भावफठ को बतला देना- भट्रजी की बुद्धि का महान्‌ वैमवरहै॥३॥

रिष्पणी–श्री नारायणमट्ध कब ओर कटौ हुए ओौर इन्दोने चमत्कार- चिन्तामणिं प्रव॑ध का निमाण कहँ पर किया, इस विंषय मँ कोई प्रत्यक्ष प्रमाण तो दृष्टिगोचर नदीं होता है क्योकि भटजी ने प्रचंध के आदि वा अन्त मे अपने नारे मेँ कोई संकेत नहीं दिया हे। नाम के साथ “भद्कः शब्द्‌ का प्रयोग किया गया है । इससे कई एक का अनुमान है किं म्रन्थकर्तां दाक्षिणात्य महाराघ्र ब्राह्मण है । समय के विषय में भी अनुमान है किं मन्थकर्तां मेसूर राज्य का होना चादिए । ओर ष्वमत्कारचिन्तामणि प्रत्र॑ध का ठेखन १४ वों शताब्दि में होना चाहिए |

अव प्रश्रयडदहैकि क्या १४ वीं शतान्दि मेँ ष्वारखख पाठ के ज्योतिः- शास्र म्रन्थ उपक्न्ध ये, जिनक्रा सतत स्वाध्याय द्वारा मंथन क्रिया गया ओौर प्वमत्कारचिन्तामणि नामक ग्रन्थ स्वा गया, आओौर देवज्ञ जनता के उपयोग में लने के दिए प्रस्तुत किया गया । इद समय प्रकारित तथा अप्रकारित अथां का-विदोषतः फठितविषयक मन्थो का कितना मूलपाठ है, इसका अन्वेषण किसी एक प्रकाण्ड उ्योतिःशास््रवेष्ता के सपुर्दं होना चादिए, अथवा उयोतिर्विदों की समा के सपूर्दं होना चादिएः ताकि (चतुरक्चमितं शाखम्‌? यदह जो प्रायोवाद उयोतिःशाछ्र के विग्रय मेँ प्रसिद्ध रै इसकी प्रामाणिकता भी प्रमाण की कसौरी पर चट्‌ जाए ।

यह तो प्रसिद्ध ही है कि यवनं भै अपनी राज्यसत्ता के उन्भाद्‌ मे आओौर अपने धर्मोन्माद्‌ के वशीभूत होकर आर्यसंस्कृति को, हिन्दुसभ्यता को, आयं-

मंगलाचरण १८५

ग्रन्थों को नष्ट-्रष्ट करने के किए एड़ी-वोरी का जोर ख्गाया था ओौर राज्य- सत्ता का दुरुपयोग करते हुए ` आयंग्रन्थों को अगिसात्‌ क्रिया था । क्या रेसी परिस्थितिं मं भी ज्योतिः्चाख्र के पचारल्मख पाठ के म्रन्थ व्व गए ये १ इसमें क्या प्रमाण है । मेरा तासयं सन्देह उत्यन्न करने का नदीं है । प्रत्युत प्रायो- वाद की मूलमित्ति प्रामाणिक है–यदह निशित करने की दिशामें है। आदा है अन्वेषक खोग इस ओर भी कुर ध्यान दंगे ।

अथ म्रहभावफल कथयामीति प्रतिजानीते– नन चेत्‌ इत्यादिः “न चेत्‌ खेचराः स्थापिताः किं भचक्रे न चेत्‌ स्पष्टगाः स्थापिताः किं महेन्द्रः अभावोदिता स्पष्टताकोऽब्रहेतुः फङेरेवपूर्वं॑जवे तानि तस्मात्‌” ॥ ४ ॥

सं० टी<-न चेदिति-मक्रस्थाः खेचराः ग्रहाः न चेत्‌ स्थापिताः भवचक्र रारिमण्डठे कि, न किंचित्‌ - फलमित्यथंः। तथा महाः अपि स्पष्गाः दगुगणितसापिताः न चेत्‌ , स्थापितः मदेन्द्रैः किम्‌ १ अभावोदिताः भावसपष्टी कृतं विना साधिताः ग्रहस्पष्टतापि काष्बन किंचित्कराः इत्यथः । तस्मात्‌ आदौ स्पष्टाः खेष्वराः तत्वादिमावाश्च साध्या इतिभावः | अथ ्रह-भाव-स्पष्टीकरणे हेतुः प्रयोजनं च उच्यते इति रोषः । अतः फठैः एव जंतोः स्वँ ज्ञायते तस्मात्‌ तानिग्रहभावफटखानि ब्रुवे कथयामि ॥ ४ ॥

हि० ठी<-मदजी ने प॑चमश्छोक द्वारा प्रहस्पष्ट तथा भावस्पष्ट अव्य ही करने चाहिए, क्योकि ठेसा किए विना फलादेश करिया गया दीक नहीं उतरेगा ओौर च्योतिःशाख्र पर (असत्यताः का आरोप किया जावेगा- यह बात कही हे । भट्जी के कथन का तात्पर्यं है–किं जन्मपत्र मँ केवल जन्मकुण्डली ओर रारिकुण्डली का ठ्गाना ही कापी नहीं होगा-प्रत्युत दैवज्ञ को षाहिए कि म्रहस्पष्ट ओर भावस्पष्ट मी ल्गाए ओर तदनन्तर फलठकथन की ओर अपना ध्यान दे । अत्यथां मविष्यकथन मिथ्या होगा जिससे दैवन्ञ के व्यक्तित्व पर ओर ज्योतिःशास्र पर मिथ्या होने का दोषारोपण होगा-जिसका परिणाम अस्यन्तं अवांकछनीय होगा ॥ ४ ॥

रिप्पणी- कुक समय से ज्योति्रीखोग जन्मपत्र बनाते समय आवश्यक गणित से व्वने की इच्छा से जन्मकुण्डली ओर चन्द्रकुण्डली इी लगाते ईदै– भोर यदं आवद्यक हुआ तो विंशोत्तरीदशा भी ख्गा देतेर्दै। इसी के सारे जातक का भविष्य सूनरित करते ह । किन्तु यह परिपाटी भ्रान्तिग्रस्तदै। प्रहों कारष्ट करना भावों का स्पष्ट करना अव्यन्त आवद्यक है। इन सबके सहारे पर ही भविष्य का कथन कियाजा सकता है। अतः फलकथनं करने वाङ दैवज्ञो को भद्जी के कथन पर ध्यान देना वचादिए । अन्यथा उ्योतिष- दास्र पर से विश्वास उठ जाएगा-इस समय भी रोग ज्योतिष ओर उयोतिषियों को शठा समन्ते दै, इस अवांछनीय परिस्थिति की जिम्मेदारी ज्योतिषियों ¦ पर है।

१६ चमत्कारचिन्तामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

श्रीभद्भनारायणजी ने अ्रहफल ओर भावफल को प्रधानता दी है, अरहर ओर भाव १२ है । चमत्कारचचिन्तामणि परवंध की स्वना भावफल-व्णन के छि की गई दै नवग्रहों मेंस प्रथम ग्रह सूर्यं है। अतः सूये के भावफर द्वारा भ्रन्थ का प्रारंभ किया जा रहा दै “तनुस्थः’’ इस शोक से। सयेफलम्‌– ““तनुस्थो रविः तुंगयष्टं विधत्ते मनः संतपेत्‌ दारदायाद्वगौत्‌ । वपु; पीड्यते बातपित्तेन निव्यं स वे पयेटन्‌ हासबृद्धि प्रयाति ॥॥ अन्वय :–“तनुस्थः रविः तुंगयष्टि विधम्ते, दारदायादवर्गात्‌ मनः संतपेत्‌ । निव्यं वपुः वातपितेन पीञ्यते, सः वै पर्यटन्‌ हास-वृद्धि पयाति ॥ २॥ सं० टी<-यस्य तनुस्थः ल्मस्थः रविः तस्य तुंगय्टिं उच्रूपं विघम्ते | दारदायाद्‌ वगात्‌ ख्री-पुत्रादि समूहात्‌ मनः संतपेत्‌ संतापं प्राप्नुयात्‌ । वातपिन्तेन वायुयुतपित्तेन वपुः शरीरं पीड्यते । तथा सः पुरुषः पयन्‌ देशान्तरं गच्छन्‌ नित्यं निधितं हास-बरदधिः धनन्यूनाधिकत्वे प्रयाति प्रामोति ॥ १ ॥ हि० दी जिस मनुष्य के जन्मल्यमेंसूयंद्ो वह ख्म्बे ऊचेकदका होता दै । ख्री-पुतर-बन्धु आदियों से उसका मन दुःखी रहता है । सर्वदा उसका शारीर वातपि्तरोग से पौडित रहता दै । वह परदेश में जाता है ओर इसे धन का सुख कभी उन्तम रहता रै ओर कभी धन का कष्ट भी बदृकर रहता है ॥ १ ॥ ` तुखुना- “यदा ल्यस्थानं गतवति रवौ यस्य जनने; तपेत्‌ कांतावर्गात्‌ निजसहजवगादपि मनः । वपुः कष्टं पित्तानिकरूधिररोगेण परम, विदेशबव्यापाराद्‌ व्रजति धनमस्पत्वममितः ।* जोवनाय अथे– जिस मनुष्य कै जन्म समय मे सूर्यं तनुमाव मेहो वह लियो से तथा भाई-जन्धुओं से संतप्त होता है। पित्त; वायु ओर रक्तविकरारके रोगसे’ दारीर मं कष्ट; तथा विदेश मं व्यापार से धन की क्षति होती है) “भमातण्डोयदरि ठद्यगोऽव्पतनयो जातः सुखी निर्घृणः, स्वत्पारी विकटेश्चणो रणतकश्छाधौ सुशीखो नटः । ज्ञानाचाररतः सुलोचनयशः स्वातन्यकस्तूचगे, मीने स्रीजनसेवितः हरिगते रात्यंधको वीर्यवान्‌ |” वनाथ अथे–रवि व्यम होतो संतति कम हदोतीहै। जन्म से ही सुखी, निर्दय, कम खानेवात्म, चक्षुरोगी; युद्ध मेँ भागे होकर ल्डनेवाखा, सुशील, नट, ज्ञान ओर आचार में म, सुहावनी ओंखोवाल, सब कामों मे यशस्वी, स्वतंचता से ऊष्वी जगह पानेवालर होता है यह सूयं मीन मेहो तो बहुत श्ियोंसे न्न दै। सिहं हौ तोस्तौधी रोग होता है। जातक वलवान्‌ होता हं ।

२ सूयंफरः १७

रिष्पणी- “अस्प संतान का दोना यह फर रवि पुरुषराशि मे होतो अनुभव मे आता है। यह रवि ख्रीराशि में हो संतति अच्छी संख्या में होती है। रवि स्रीरारिमें दो तो जातकं सुखी रहता रै । यदि पुरुषराि का रविं होतो कोईन कोई दुःख ट्गारहतादहै। यातो खतति का अमाव, अथवा रारीरमे कष्ट रहता दै । लख्रीरारिका रवि दहो तो जातक अल्पारी होता है। मेष, सिह ओर धनु मे रविं हो तो जातक विकलेक्षण होता दहै । युद्ध मे अग्रणी होना ओर खुशी होना, ये फर भी इन्दी रारिर्यो के है ।

यदि रविं मिथुन, ककं, सिह, तखा, धनु, मकर, कुंभ ओौर मीन मंदोतो जातक नट हो सकता है, यदि रवि ककं, बधिक, धनुओर मीनमेंहोतो जातक ज्ञानी आओौर सदाष्वारी होता है। लख्रीराशि का रवि सुरोचनतादायक होता है । यदि रविं मेष, ककं, सिंह, बृध्िक वा धनु में हो तो जातक यशस्वी होता है । यदि रवि कर्क, बृ्चिक वा मीन मे दो तो जातक स्वतन्तता से ऊ्ी जगह अधिकता से पाता रै । मेष, मिथुन, सिह, वुखा; धनु वा कुभ में रवि हो तो साधारण तौरपर स्वतन्त्रता से ऊँग्वी जगह पाता दै । वृष, कन्या तथा मकर मे रवि, हो तो प्रायः एेसा बहुत ही कम होता है। पुरुषराशि का रविहोतो जातक आरभ से दी स्वतन्त्र रहता है । लखरीराशि का रवि हो तो जातक प्रथम नौकरी करता है ओर तदनन्तर स्वत होता है। यदि रविं अक्ेखछाहोतो जातक अनेक लियो का उपभोक्ता नदीं दोता-यदि इसके साथ श्युक्रहोतो एेसा होता है । “मेष, सिह ओौर धनु मे रविं हो तो जातक को प्रवर कामेच्छा होती है ओर यह दिनिमेंभीदहोतीहै। मिथुन, ठा ओर कुम मं साधारण कामवासना होती है । वीयवान्‌ होने का मतल्व यदी है ।

सवितरि तनुसंस्ये रौशवे व्याधियुक्तो नयनगदसुदुःखी नीष्वसेवानुरक्तः । न भवति द मेधी दैवयुक्तो मनुष्यो भ्रमति विकल्मूर्तिः पुत्रपौत्रेः विहीनः ॥ मानसागर

अथे- जिसके जन्मसमय मे सूर्यं लद्मभाव ( तनुभाव ) मे हो वह बाल अवस्था मं रोगी होता है । इसे ओंखों के विकार होते है । यह नीष् लोगों की नोकरी करता है । यह एकजगह घर बसाकर नहीं रहता है । ओर हमेदा भटकता फिरता है । दैववशात्‌ इसे पुत्र भौर पौत्र नहीं होते ।

रिप्पणी- मेष, सिंह वा धनु में रवि हो तो बष्वपन मे शीतल आदि रोग होते है । बषः, कन्या ओौर मकरमें रविदहो तो नेत्ररोग होते है। मिथुन, वला ओर कुम म मरेरिया, सखा ओर भूतवाधा होना ` संभवित है । ककं, धिक ओर मीन में रवि केदहोने से प्रदर, खोसी, संग्रहणी आदि रोग होते है । इष, कन्या वा मकर में रवि हो,तो जातक नीग्वोँ की नौकरी करता दै ।

““लम्नेऽकंऽत्पकष्वः क्रियाल्सतमः क्रोधी प्रषण्डोन्नतः, मानी लोचनरूक्चकः करातनुः धूरोऽ्वमो निर्धणः |

१८ चमत्कारचिन्तामणि का तुख्नात्मक स्वाध्याय

स्फोटाक्षः शदिमे क्रिये सतिमिरः सिदे निशान्धः पुमान्‌ , दाखियोपहतः विनष्टतनयः जातः तुलायां भवेत्‌ ॥ मंत्रेश्वर

अथ–यदि जन्म के समय सूर्यं ट्यमेहोतो जातक बहुत थोड़े केशोवाला, कार्यं करने मं आलसी, क्रोधी, प्रचण्ड, टम्बा, मानी, चूर, ऋूर ओर क्षमा न करने वाला होतादहै। इसकेनेत्र र्खे होते दैँ। यदि जन्मट्य कक हो ओर इसमं सूयं हो तो जातक स्फोटाक्ष होता है । यदि मेषस्थ सू्व॑ल्यमेहोतो.भी इसे नेत्ररोग होते द । अर्थात्‌ तिभिर रोग होता हे। यदि सिंह रादि का सूर्य ल्प्रमं होतो जातक को रताधी रोग होता दै अर्थात्‌ इसे रा्रिमें कुछ नज्ञर नदीं आता । यदि तुला राशिका सूर्यल्य्मंदो तो बहुत बुरेफल अनुभव में आते द । जातक दख होता है ओर इसके पुत्र नष्ट हो जाते है ।

रिप्पणी- महेश ओौर मंत्र्वर के फट एक जेसे है अतः मदेश का फट ठेखनीवद्ध नदीं किया गया हे ।

““टग्रगः सम्दाखेटस्तदा लगरः कामिनीदूषरितो दुष्प्रजो वै यदा| पण्यरामारतो राशिमीजान्‌ गतो मानदीनोऽथ हीर्षौ विदष्टिः पुमान्‌ ॥ खानखाना

अथं–जिसके जन्मल्य मं सूर्य॑ हो वह जातक शरीर से दुवा, च्ियों से दूषित; दुष्टसतानवाला;, वाजार ओौर वारिका मं रहल्नेवाला ओौर वेद्या में आसक्त रहनेवाखा होता है |

यह सूयं यदि अपनी नीचरादि वला मं होतो जातक ईर्प्या ओर खराब नजरवाला होता है |

रिप्पणी- मू श्छरेक मं वुगयष्टिः? विरोपण का अर्थं टीकाकार ने (उच्च रूपः किया है । वुंगयष्टिः’ के स्थान मं (तुगदेहःः भी हो सकता था, किन्त भट्रजीने किसी बिरोष्र अथे की प्रकट करनेके छिए तुंगयष्टिःः ही विरोपण दरियाहे। वुंगका अथं ऊंचाः ओर व्यष्टिः का साधारा अर्थं द्ददः होता है, उच्चस्थान को धुंगः कहा जाता है-उचग्रह को तुंगीः कहा जाता है | यष्ट ( कड़ी ) सीधी ओौर टद्‌ ( मजवूत ) होती दहै। इस तरह समुचित अर्थ “लम्बा, ऊचा ओर इद्‌ दरी वाटाः यह अर्थं सुसंगत दै । केवल धना रूपः अथं ठीक प्रतीत नहीं दहोता है! स्थं कीङऊँवाई को देखकर व्वुंगः शब्द का प्रयोग कियागयाहे। एेसा अनुमान दै। मतरेश्वरजी ने कृशतनुः विष का उपयोग क्रया दे । सूयं अतितजस्वी, अभितघप्रधान, तीष्णकिरण अह हे । अभ्रतत्वप्रधान व्यक्ति प्रायः स्थूटकाय नहीं होते, प्रत्युत अस्थिसार छरहरे रीर के. होते ह । अतः छ@शतनः विदोप्ण उपयुक्त है । शासबृदधि प्रयातिः का अथ घटजाना ओर बदृजाना ठीक है। विदेदामें जाकर व्यापार करनेवासे व्यापारी कौ आर्थिक परिस्थिति सदेव एक जेसी नहीं रह सकती । व्यापार में सदा लाम हो नहीं होता प्रत्युत आर्थिक दीनता, आर्थिकह्टास के अवसर भी आत दै । क्योकि व्यापार तो बाजार की ऊँची-नीची परिस्थिति पर पाट्‌ रहता है।

सूयंफर १९

विदेश में व्यापारी का स्वास्थ्य भी एक जैसा नदीं रहता, जल्वायु-मादहार- विहार की अनुकूकता तथा प्रतिकूकता पर॒ निभेर रदनेवाख स्वास्थ्य कभी उपम्वय मँ आएगा ओर कभी अनुपम्बय में जाएगा-इसी कारण परदेश में भ्रमण करनेवाला व्यापारी सौदागर शारीर मे हास भौर बृद्धि को प्राप्त होता रहता है ओर होता रहेगा । क्म्स्थसू्यं के प्रभाव मेँ आया हया ओर परदेश मे पर्यटन करता हया जातक एक स्थान में धर बसाकर रहनेवाखा तो होता नदीं है, तो इसका स्वास्थ्य एक जैसा सदैव नैरोग्यवान्‌ क्योकर रह सकता है । अतएव इसे कभी वायु के रोग ओर कभी पिति के रोग होते रहते है । इस तरह इसका शरीर कमी नीरोग तो कभी वात-पित्त के रोगों से पीडित होता है।

मूल मे दार दायाद वर्गात्‌ सन्तपेत्‌” णेखा पार है-दार दारा का अर्थं खरी ओर दायाद का अथं श्युत ओर बान्धवः ष्दायादौ सुतबान्धवौ यमरकोरा । लग्मस्थसूर्यं का जातक स्रीसुख, पुत्रसुख तथा बन्धुसुख से वञ्चित रहता दै । उग्रस्वभाव की कटड़माषिणी खरी गहस्थ-सुख होने नदीं देती । सौमनस्यदीन, वैमनस्ययुक्तः आज्ञा का पारन न करनेवाठे पुत्र भी जीवन को कण्टकमय बना- देते ्ै। इसी तरह बान्धवलरोग भी विपत्तिमं सहायक न होकर जीवनं को दुःखपू्ं कर देते ै-इस कारण ठग्रव्तौं सूयं के ्रभाव मे आया हा जातक सदेव सन्तप्त रहता है ।

प्रस्थित रविफल-श्रगुसृन्न–आरोग्यभवति, पिचप्रकृतिः, नेचरोगी, मेधावी, सदाष्वारी वा उष्णोदरवान्‌ । मूखैः, पुत्रहीनः, ती्णबुद्धिः, अस्पभाषी, प्रवासरीरः, सुखी; स्वोचे कीर्तिमान्‌ ; बलिनिरीक्षितेविद्वान्‌ , नीचेप्रतापवान्‌ , जञानद्वेषी; दख, अन्धकः श्चभदष्टे न दोषः। सिंहे स्वांरोनाथः, कुटीरे ्ञानवान्‌। रोगी, बुद्बुदाक्षः, मकरे हृद्रोगी । मीने खरीजनसेवी । कन्यायां रवौ कन्याप्रजः । दारदीनः, कृतघ्नश्च, क्षेत्री, श्भयुक्तः, आरोग्यवान्‌ । पापयुते, साभरु-नीषवक्षतर तृतीये वषं ज्वरपीडा; श्चभदृष्टे न दोषः ।

अथे– जिस जातक के जन्मसमय मे लग्र में सूरं हो वह्‌ नीरोग होता दै- वह पित्तमरकृति का होता हे । वह नेत्ररोगी, मेधावी, स्दा्ारी होता है । इसका उद्र उष्ण रहता है । जातक मूख, पु्रहीन, तीक्ुद्धि, अल्पभाषी, सुखी, तथा परदेश मे जानेवाला होता हे । यदि यह ठग्नस्थ सूर्यं अपनी उच्राशि (मेष ) मे हो तो जातक यशस्वी होता है । यदि इस सूर्यं पर किंसी बल्वान्‌ ग्रह कीदृष्टिदहो तो जातक विद्वान्‌ होता हँ । यदि यह सूर्य॑ अपनी नीचराशि ( ठा ) मेदो तो जातक प्रतापी होता है । जातक ज्ञानवान्‌ से द्वेष करनेवाला दरिद्री तथा अंधक होता दहै। किन्तु ्युभग्रह-दष्टिदहो तोये बुरे फर नहीं होते र्द। स्वराशि सिहमं यदि सूयं होतो जातक प्रथुत्व प्रात करता है। लग्नस्थ सूयं यदि ककंरादि का हो तो जातक ज्ञानी भौर रोगी होता है । इसके आंखों मे फोटा पड़ता है । सूयं यदि मकश्यांशिभ होतो जातक को हदय

[ मीर

२० चमत्कारचिन्तामणि का तुरख्नात्मक स्वाध्याय

रेग होता है। सूर्यं यदि मीनरारि का होतो जातक स्यो मे आसक्त रहता है । सूर्यं यदि कन्यारारिका होतो जातक को कन्या सन्तति होती है । जातकः खरीदीन, कृतघ्न ओौर भूमिपति होता है । यदि इस सूर्य॑का योग श्भग्रह के साथ दहो तो जातक नीरोग रहता ह । यदि पापग्रह के साथ सम्बन्ध हो, अथवा सूर्यं शचुक्षे्री वा नौचक्ेत्री हो तो जातक को तीसरे व ज्वरपीडा होती दै। यदि इस सूयंपर ययभग्रह की दष्टिदहोतो ज्वरपीडा नर्य होती ।

टिप्पणी- भ्रगासूच यह बात सष्टतया वतल्ते ह कि रारिमेद से, स्वयरह- उच्च-नवांदा आदि के मेद्‌ से शमग्रहदष्टि-यञ्युभग्रहदष्टिके भेद से राचु्षेत्र- मिचक्षेच्र-नीष्वांशा-तथा अस्तंगत आदि के येद्‌ से-द्यभग्रह-यद्यभग्रह्‌-सम्बन्ध के मेद से भावप मं तारतम्य होता है । इसी प्रकार यहोँ के बल तारतम्यसेमभी भावफल में तारतम्य होता हे । |

यवनमत- ख्द्यस्थित सूयं का जातक अराक्तः च्ियों से दूषितः; वाग-बगीष्वों का शौकीन होता दै। किन्त तुखा में नीचराशिका रविदहोतो मानदानि, अविग्वारितकर्मकर्त, दर्प्यालं तथा व्वपन में दुब दोता ह ।

टिम्पणी–चियों से दूषितः जातक तभी हो सकता हे यदि वह च्या के साथ कटोरता से वर्ताव करता है-विदोषतः वख ओौर धनु ख्यमें रवि के होने से शीघ्र स्वलितवीर्यता आदि दोषों के कारण जातक स्री को सन्तुष्ट नहीं कर सकता अतएव स्रीजाति उसके व्यवहार की चर््बा करती ह ओर अपनी अप्रसन्नता मरकर करती है |

रवि ल्य मंदो तो जातक आत्मविश्वास, दट्निश्वयवाला, उदार, ऊचा, ऊचे विष्वारों का, स्वामिमानी, उदारहृदय का, हर्के कामों का तिरस्कार करनेवाला, कटोर, न्यायी ौर प्रामाणिक होता है ।

अथिराशिमे रविंदहोतो मंहत्वाकांक्षी-शीघक्रोध मे अआनेवाला;, सब पर अधिकार जमाने की इच्छा रखनेवाखख, गंभीर ओर कम बोटनेवाला होता हे ।

[क क. ~

रवि प्रथ्वीराशि मेँ हो तो घमण्डी; दुराप्रही ओर सनकी होता दै ।

वायुराशि मे हौ तो न्यायपरायण अच्छे दिर का; कलाकौशर मे ओौर दशादलीय विषयों मेँ रुचि रखनेवाखा होता दं ।

जल्राशि मेदो तों चियों मे अधिक आसक्त होता है। जिससे अपने नाश का भी, विचार भूल जाताहै। ककम रवि दहो तो अपनी घरग्हस्थी मं म्र रहता दै । वृश्चिक मे रवि द्योतो जातक अच्छा डाक्टर, वा दवाई बनाने- वाला होता दै । इससे जगत मे प्रसिद्ध होता हे। साधारणतया ल््र का रवि प्रगति वा भाग्योदय का पोषकं होता दहै | एकमत ।

सूयंफर २१

रिष्पणी-अथि आदि तत्वों की प्रधानता से राशियों के चार भेद है- अथि-तत्वप्रधान राशिः- मेष, सिह; धनु । भू-तत्वप्रधान राशिः- उषः कन्या, मकर । वायु-तत्वप्रधान राशिः- मिथुन, वल, कुभ । जल-तत्वप्रधान राशिः-ककं-इक्चिक-मीन । विचार ओर अनुभव- खरी राशि का रवि रुन मेँ हो तो संसार मे ख्ख- दायी होता दै। पुरुषरारिका रविकल्पं दहो तो थोडा दुःखदायक भी होता हे। धनुराशि म रवि हो तो जातक विद्वान्‌-धमंशाखरज्ञ, वैरिस्टर, हदाईकोर्टंजज आदि ऊचे अधिकार पाता है। किन्तु स्री-युख से वंचित रहता है, अनेक सियो होने पर भी सन्तति नदीं होती है । इस तरह कोई न कोई दुःख ख्गा रहता है । | ककराशि मे रविं रो तो साधारण धनी, स्रीयुखयुक्त तथा सन्तति सम्पन्न होता है, किन्तु यशस्वी नहीं होता । क्योकि ऊँचा अधिकारी नदीं होता है। ककं से धनु रारितक ( दक्षिणायन ) मे रवि मनुष्य को भाग्यवान्‌ बनाता है । उत्तरायण का रवि-र्डाईै-्षगडे, अपना स्वत्वकायम करने की प्रदृत्ति आदि स्वाथ॑ता को बदावा देता है। दक्षिणायन रविं मे दैवी उत्तियो बदौत्री पाती है। साधारण तौर पर ल्य्रका रवि अच्छा है मनुष्य को उन्नत करता है । धनभाव- “धने यस्य भानुः स॒ भाग्याधिकः स्यात्‌, चतुष्पात्‌ सुखं सद्व्यये स्वं च याति॥ कुट्म्बे कटिः जायया जायतेऽपि, रिया निष्फला याति खाभस्य हेतोः ॥ २॥ अन्वय :-यस्य धने भानुः स्यात्‌; खः भाग्याधिकः स्यात्‌, ( तस्य) चतुष्पात्‌ सुखं स्यात्‌ › ( तस्य ) स्वं च सदव्यय याति, जायया कुटुम्बे अपि कडि; जायते । खाभस्य हेतोः ( तस्य ) क्रियां निष्फल याति ॥ २॥ सं दी०-अथद्वितीय भावस्थ रविंफर शनेः इति– यस्य नरस्य लय्मभाव कुण्डलिकायां धने लग्नात्‌ द्वितीयेस्थाने भानुः सूयः. खः पुरुषः भाग्याधिकः श्रेष्ठ भाग्यः स्यात्‌ । चतुष्पात्‌ युखं गजाश्वादि सौख्यं लेत्‌ इति रोषः । ष पुनः द्रग्यं सद्व्यये यातिगच्छति, धमादि विषये व्ययं कुर्यात्‌ इतिभावः । जायया निमित्तमूतया कुटुम्बे स्वमंधुविषये किः कटः जायते भवेत्‌ इत्यर्थः । तथा राभस्य हेतोः प्रागरभ्या क्रिया अपि निष्फल याति; तोऽपि यत्नात्‌ उद्यम स्वाहंकारेण निष्फट स्यात्‌ इत्यर्थः ॥ २॥ अथे :–जिस मनुष्य के जन्मलग् से दूसरे स्थान मं सूर्यं हो वह भाग्यवान्‌

(3. चम स्कारचिन्तामणि खा नुखुनात्मक्‌ स्वाध्याय

होता है । इसे चष्पात्‌ अर्थात्‌ माय-मंस-बकरी सादि का सुख रहता है । इसका द्रव्य अच्छे कामों मे चं होता है। स्री के निमित्त से अपने कुटम्न मेँ मे मी कलठह-क्रेश होता दै। द्रव्यलाभ के निमित्त जातक जो काम करतादहै यह इसका व्यथं होता ह । | रिप्पणी-“मूलपाठ में श्ववष्पात्‌ सुखम्‌? एेसा कहा है । साधारण अक्षर कम्य अर्थं व्चौपाए से खखः एेसा है । संस्कृत टदीकाकार ने गजाश्वादि सौख्यम्‌? एेसा अथं क्रिया है। धनभाव स्थित सय॑ तो बवहूतेरे जन्मपत्रों मं पाया जाता है । परन्तु प्रत्येक जातक को हाथी-घोडा आदिका सुख होना अनुभवमें आता नहीं दहै। तो क्या अर्थं मंतव्यदहै यह प्रश्च उपस्थित होता हे । देवज्ञ के लिए आवदयक है कि वह अपनी प्रज्ञा से, जाति-कुट, देश आदि का विचार करता हा फलदेश करे ।

किसी भूमिपति धनान्य का जन्मपत्र हो तो हाथी-घोड़ा आदि पौपाये का सुख संभव दै। किंसी खेतीवाडी करनेवाठे कपरक का जन्मपत्र दहो ओर धनभावमें सूय॑दहोतो ष्वेटीं की जोडी से सुख होगा एेसा कहना होगा । यदि कोड दूध के कऋरय-विक्रयसे आजीविका चलता हो तो उसके धनभाव के सूयं का फल शगाय-भंस-वकरी आदि दूध देनेवाटे चौपाये जानवरों से लाभ होगा । एेसा फक वताना होगा ।

““अर्हिंसक ओौर हिंसक” दोनों प्रकार के ष्वौपाये जानवर दहै । शिकारी को रोर मार कर सुख होता दे। कत्तांकी मदद से शिकार खेख्नेवाले व्यक्ति को क्षुद्र जीव शराक आदि चौपाये जानवयेँ को मारकर सुख मिक्ता है । बडे जानवर दरोर-चीता आदिं हिंसक जानवरों को मारकर आौर उनकी खाल को वेष्वकर शिकारी को सुख मिक्ता है । जो छोग ऊंट, खचर-गघे आदि द्वारा बोद्ध टौोकर अपना जीवन चलाते हँ उन्हँ इन्हीं जानवरों से सुख मिक्ता हे ।

इस तरह ‘चतुष्पात्‌ सुखम्‌? आपाततः एकाथंक होता हुभा मी वदू थक हो जाता है । एेसी परिस्थितियों में देवज्ञ को स्वतकं कुर्ता से, स्वबुद्धि-वेमव से कामलेना होगा| कहनान होगा कि इस तरह फटदेर करना सहज नही हे । तुखना–“जनुः काटे वित्तं गतवति यदा वासर मणौ | तदा भाग्यं तस्य प्रसरति कुडम्बैः कलिरपि । य॒मे विन्तापायो द्यपि पथितुरंगध्वनिरटं । यह द्वारे, दंमाद्‌ व्रजति श्युभङृव्यं न परमम्‌ ॥ जीवनाय अथं- जिस मनुष्य के जन्म समय में सूर्यं घनमावमें दो बडा भाग्यशाटी होता है । बन्धुं के साथ कलह रहता है । इसका धनव्यय दयुम कामों मं होता हे । इसके घर के दरवाजे पर घोडे हिनहिनाते है । किन्तु यह दांमिक होता है अतः अहंकारवद् कोई स्थायी श्चुम कायं नदीं होता दै ।

सूयंफर रद

रिप्पणी-भाजकल के भारत में धन काव्ययतो खज ता दिखाई दे

रहा है, किन्त यह व्यय, सद्ग्यय है वा असद्‌. व्यय है-एेसी परीक्षा का विष्वार किए बिना दही कियाजा रहा है। प्राचीन भारत के छोक आसिक येइ आर्थगन्थो मे श्रद्धा थी इष्टपूर्वकामों में विद्वास ओौर श्रद्धा थी । ये छोग स्वाथ- परायण न होकर परार्थघरक होते ये । अपनी गादी कमाई से लोगों के आराम के छिए पथिकरालएे ८ सराय ) बनवाते ये कुंए ओर बावली क्गवाते ये- ताला बनवाते ये, विद्यादान के लिए पाठ्ालर्ं चलाते ये; मन्दिर बनवाते ये–इस तरह साधारण जनता के आराम कौ खातिर अपना धन खं करते थे । स्वयं यज्ञ करते ये, इस तरह न्यायोपार्जित धन का सदुपयोग करते ये । इस भाव को टेकर जीवनाथ ने श्रमे विन्तापायः एेसा कहा है । नारायणम ने “सदव्यय स्वं च याति? रेता कहा है । सत्कर्म में व्यय करना– द्वितीयभाव- स्थित सूर्यं का ञयुम फल है । यह ममं हे ।

८’धनगतदिननाथे पुत्रदरः विदीनः।

करदातनु रतिदीनोर्तने्नः कुकेशः ॥

भवति च धनयुक्तः लोह ताम्रेण सत्यं ।

नभवति गृहमेधी मानवो दुःखभागी ॥ मानसागर

अर्थ- जिस मनुष्य के जन्मसमय में धनभावमेसुयंहोतो उसे खरी सुख ओर पुच्र-सुख नहीं मिक्ता है । यह दुबल्म-पतख दारीर का होता है । इसे . रतिसुख नहीं होता, इसकी आंखे सल होती ह । इसके केश बुरे होते है । यह धनवान्‌ होता है । यह खोदे ओौर तौ बे से सम्पन्न होता है । यह हस्थी होकर, कहीं एक स्थान मे घर बनाकर नहीं रहता है अतएव दुःखी होता हे ।

रिप्पणी–यदि रवि मिथुन, धनु ओर मीन राशिका होतो मनुष्यको स्रीसुख ओर पुत्रसुख नदीं मिक्ता है । इषः धनु ओर मिथुन में रविददोतो “रतिसुख-अमावः यह फर मिलता है । वस्तस्थिति देखी जावे तो खरीसुख के अभाव मे ^तिसुख का अभावः तो होगा ही । रवि मेष सिह, धनुमें होतो अखि लल होती ह ¦ पुरुषरराशि कारविंहो तो मनुष्य सोना आदि से सम्पन्न होता है। यदि ल्ब वृथिक, धनु, मकरवा कुभमकाहोतो घर-गहस्थीकान होना एेसा फल मिक्ता है । | मेष, मिथुन, सिह, वुल, धन॒ ओर कुम्भ पुरुषरारि्यों ह । वरृष-कक, कन्या, वृश्चिक, मकर ओर मीन ख्रीरारिरयों ई । “द्विपद ष्वतुष्पदभागी मुखरोगी नष्टविभव सोख्यश्च । दप चोर सुषिजसारः कुटम्बगे स्याद्‌ रवौ पुरुषः ॥ कल्याणवर्मा अ्थ- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे सूर्यं कुटम्बभाव ( धनभाव ) में हो उसके घरपर नौकर-चाकर होते है–हाथी-घोड़ा-गाय, भस-बकरी आदि चौपाये

२४ चमव्कारचिन्तामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

जानवर भी इसके घरपर होते) इसे मुखके रोग होते इसका विभव ओर सुख नष्ट हो जाता है। इसका धन राजदंड से ओर षोयों से अपहत हो जाता दे ।

रिप्पणी-कस्याणवर्मा के अनुसार धनभाव का सूय॑श्चुभफल की यपेश्वा से अञ्भफल अधिक देता है। पौपाये जानवरों का सुख ओौर नौकरों का सुखः, यह श॒भफर हे पूववतौं घन का नाड, तथा खुख का नाश मुख के रोग, राजा-द्वाराः वचोरोंदवारा धन का अपहरण;,ये सभी अश्युभफलर्है। यदि इस फट कं ठल्ना नारायणम के दियेहुए फलों से ठल्ना कौ जावेतो दोनों मे भारी मतभेद है |

“शविगतविद्या विनय वित्तं स्खलित वाचं धनगतः > मंतरेश्वर

अथं- जिस मनुष्य के धनमावमें सूर्यहोतो वह विद्वान्‌ न हीं होता है । इसे विनयभाव नदीं होता, अर्थात्‌ यह उद्धत ओौर घमंडी होता है। इसे धन नहीं होता–अर्थात्‌ यह निधन होता दहै । इसकी वाणी स्पष्ट नदीं दोती–अथात्‌ यह अरक-अटक कर बोख्ता है आर अपने भाव को दूसरे के प्रति कष्ट से प्रकट कर सकता है |

टिप्पणी मंतरशवर के अनुसार धनमाव का सूर्यं सर्वथा अनिष्टकारक दै ।

६६-

त्यागी धातु द्रग्यवान्‌ इष्टतः वाग्मी वित्तस्थानगे चित्रभानो ; वंचनाथ

अथे–जिस मनुष्य के जन्मस्मय मे धनस्थान मेँ सूर्य हो तो वह त्यागी ( दानी 9 मृल्यवान धाठ-सोना्वौदी आदि का स्वामी ओर धनवान्‌ होता दै । यह अपने व्यवहार तथा वर्ताव से अपने रातं को भी अपने अनुकूल कर ठेनेवाखा होता है । इसका भाषण मधुर ओौर तकनुकूर होता है ।

रिष्पणी- मेष, सिंह अओौर धनुमेंरवि हो तो मनुष्य त्यामी होता हे । जिसका ल्य मकर, कन्या, दृष वा बरधिक हो ओर रवि धनस्थान सें हो उसे मूल्यवान धाठु सोना-चदौ मादि मिरूते है ओर नकदी पैसे आदि भी प्रास होते हं । यदि ख्रीराशिकाल्य्रदहो तो व्यक्ति “इ ष्टरतरुः ओर ववाग्मी’ होता है|

““धन-सुतोत्तमवाहन वजितो इतमतिः सुजनोज्ितसौषदः ।

परग्रहो पगतो हि नरो भवेत्‌ दिनमणे द्रविणे यदि संस्थितिः ॥ दुण्डिराज

अथे– जिसके जन्मसमय म सूर्यं धनभाव मे हो तो उसे धन, पुत्र, उप्तमवाहन धोडा-गाड़ी-पारुकी आदि का सुख नहीं मिल्ता है । यह बुद्धिहीन मखं होता दे । इसके अपने सजन बन्धु-बान्धव अौर इसके मित इसे छोडकर चटे जाते है । यह दूसरों के घर में रहता है।

टिच्पणी- किसी प्रकार की सवारी कान होना भौर अपने धरकान

होना यह द्वंतीयभावके सूं का फल विदोषतः अश्चुभ है। रेसी पाचीन धारणा है ।

सूर्यफर २५

<भभूरि द्रव्यः भूम्यधीक्षाहतस्वः द्रव्यस्थाने वतमाने खगोरो 12 अपदे

अथै- जिसके धनस्थान मे सूर्यं हो वह॒ धनाघ्य होता है, किन्त इसके धन का अपहरण भूमिपति अर्थात्‌ राजा कर ङेता हे | जनुः काठे वित्तंगतवतियदावासरमणों तदा भाग्येप्रसरति कुटम्बैः कलिरपि । “यमे वित्तापायः ह्यपि पथि वरंगध्वनिररं गह द्वारे, दंभाद्‌ बजति श्चभङत्यं न परम्‌ ॥

भावप्रकाहा

अर्थ–यदि जन्मसमय मे मनुष्य के द्वितीयभाव मं सूर्यं हो तो वह भाग्य- खाली होता है । किन्तु उसका अपने कुटुम्ब के रोगों से वैमनस्य ओर ञ्गडा ` रहता दहै। यह अपने द्रव्य का ञ्भ मागं मे-श्यभकमं मे खष्वं करता हे इसके गृह द्वार पर घोडे बंषे रहते हैँ ओर वे अपने शब्द से इसके धर को युरोमित करते है । यह दम्भपूर्वक काम करता है अतः इससे कोई महान्‌ श्म कमं नदी दोता है अर्थात्‌ यह शभकमं करने का दिखावा करता है इसलिए इससे कोई चिरस्थायी शुभकर्म नदी होपाताजो इसकी कीर्तिष्वजा को फहराता रदे । छोटे-छोटे श्चभकममं कुछ काठ मे अनन्तर नष्ट-म्रष्ट हो जाते ह ।

“धन सुतोत्तम वाहन वर्जितो हतमतिः सुजनोन्ज्ितसोददः । परण्होपगतो दिनरोभवेत्‌ दिनमणेः द्रविणे यदि संस्थितिः ॥ महेश्च

अर्थ- जच सूर्यं धनभाव मेँ स्थित हो तो जातक धनदहीन, पुत्रहीन, तथा उन्तमवाहनदीन होता दै । यह मंदबुद्धि अर्थात्‌ मूखं होता है । यह सौजन्य तथा सोदार्दहीन होता है अतएव इसके अपनेखोग ओर इसका मित्रवगं इसे छोडकर प्वले जाते र । यदह दूसरे के घर मे निवास करता दै ।

“य॒दा चदमखाने भवेदाफताबस्तदा ज्ानदीनोऽथगुस्सवमदाम्‌ ।

सदा तंगदिर शख्तगो द्रव्यदहानिः कुवेषो गदास्याद्‌ वेहोरो दिवासाम्‌ ।

खानखाना

अ्थ- यदि सूर्यं धनभाव में हो तो जातक ज्ञानीन, अत्यन्त क्रोधी, सदा तङ्गदिर, कपण, द्रव्यद्ीन, कुरूप; रोगी ओौर बेहोश ( चेष्टादीन ) सबकुछ भूलजाने वाखा होता हे ।

भ्रगुसुत्र–मुखरोगी । पञ्चविंशति वषे राजदंडन द्रभ्यच्छेदः । उच्चे स्वक्षेत्रे वानदोषः । पापयुते नेत्ररोगी । स्वस्पविद्वान्‌, रोगी । श्चुभवीक्षितेधनवान्‌ दोषादीन्‌ व्यपहरति । नैचरसौख्यम्‌ । स्वोच्च स्वक्षेत्रे वा वहु धनवान्‌, बुधयुते पवनवाक्‌ । धनाधिपः । स्वोचे वाग्मी । शाखरक्लः, जानवान्‌ । नेत्रसौख्यम्‌ । राजयोगश्च ।

अ्थ– यदि धनभाव मे सूं हो तो मनुष्य को मुख केरोग होते है । २५ वे वपं मे राजदण्डद्रारा धनानि होती है । यदि यह धनभावस्थ सूयं अपनी उच्च राहि ८ मेष ) मे हो, अथवा अपने क्षेत्र ( सिंह ) में हो धनहानि नदीं होती । यदि इसमभाव के सूर्यं के साथ कोई पापग्रह युति करे तो नेत्रविकार होते ह ।

२६ चमत्कारचिन्तामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

ममुष्य रोगी रहता है–इसकी क्िक्चा अधूरी रह जाती है । यदि इस सूर्यं॑पर किसी चमग्रह की दृष्टि हो तो मनुष्य धनी होता है पहिले कदे हए दोष दूर हो जाते द । ओंखों का सुख होता है । यह सूयं यदि उच्चमेंहो वां स्वक्षे्री हो तो मनुष्य धनाढ्य होता ह । यदि सूयं के साथ बुधमी हो तो मनुष्य अटक- भटक कर, धीरे-धीरे बोक्ता हे । धन का स्वामी मी होता दै। अपने उच्च में सूयं हो तो मनुष्य प्रशस्तवाणी बोटनेवादा होता हे यह राखज्ञाता, ज्ञानवान्‌ ओर नेच खखवान्‌ होता दहै । धनभाव का सूयं राजयोग करता हे । | यवनमत–धनस्थान का रविंहो तो मनुष्य बुद्धिहीन, क्रोधी, कंजूस, निधन, करर, कुरूप, रोगी ओर गाफिर रहता है ।

पाश्चात्यमत–धनस्थान मं रवि हो तो मनुष्य उदार, पेसा बहत जल्दी खप्चं करनेवाला, वेफिक्र ओर संपत्ति खतम करदेनेवाटा होता है ।

विचार ओर अलुभव-धनस्थान का सूर्यं वृष, कन्या वा मकर रादि मं होतो धन का संचय नहीं होता चाहे कोई भी यत्न क्रिया जावे, विफल प्रयता पल्य नहीं छोडती । मनुष्य स्वतंत्र धन्धा करना चाहता है- नौकरी पसन्द नहीं करता दै–इस प्रकार की इच्छा ततर पूरी होती है ज धने टवान्‌ हो, अथात्‌ वक्री, अस्तंगत, मदगामी, अतिचारी न दह्ये ओर किसी पापग्रह से युक्तमीनदहदो। कुडम्नियां की मृत्यु इस मनुष्यके देखतेही होती है । धनस्थानगत सूं के प्रभाव में उत्पन्न मनुष्य के पिताका भाग्योदय तो होता है किन्तु यदह भाग्योदय पिता पर ही अवटवित रहता है। स्वयं नौकरी वा कोद धन्धा नहीं कर सकतादहै। वाप-वेटे मं परस्पर सौमनस्य नहीं रहता हे ।

वकीटों ओर डाक्यौँ को धनस्थान का रवि अनुकूल रहता है ।

उ्योतिषियोँ के लिए धनभावस्थ रविं अनुकूल नहीं होता हे। इनके वतलखए हुए अश्चमफल शीघ्र ही अनुभवमें आते छभफलों का अनुभव देर से होता है–अतः परिणाम अपया होता है ।

मिथुन, वला वाकुमका सूदो तो मनुष्य स्वयं रुपया खूर कमाता है। चूकिं खच के विषय में कृपण होता है छोगों की सहानुभूति से वंचित रहता दै ।

धनस्थान का रविं यदि ककं, बृधिक ओौर मीन रारिका होतो मनुष्य अधिकारी होता हे । यदि किसी फर्म में नौकरी करे तो अच्छा पैसा पैदा करता दै । मेष; सिह; धनुराशि में रवि हो तो मनुष्य बहुत स्वार्थी होता दै। अपने आपको बडा बनाने की अदम्य इच्छा रहतीदहै, किन्तु कामकरने सेजी चुराता है |

धन स्थानस्य सूयं के साधारणफलठ निम्नलिखित रै-

हमेशा उष्णता का रहना, ओंखों का, हाथों का भौर पावों का हमेशा ग्म

सू्ंफल - २७

रहना, नंज की बिनाई का कमज्ञोर पड़ञामा, उत्तम-उन्तम अन्न खाने में विरोष मनि, कपड़ो की उत्तमता-इन्दे साफ रखने की ओर विरोष ध्यानः रहता है । | । यदि इध्िक, धनु, मकर वा कुम लग्र हो, रवि धनस्थान मेँ हो, धनस्थान का स्वामी गुरु वा शनि वक्री हो ओर ये २-४-६-८-१२ वँ स्थान में हां तो यद्‌ योग महान्‌ दस्ता का योग है । जिन मनुष्यो को यह योग पड़ता दे तो इन अभागों को अन्न खाने को नहीं मिल्ता आठ-आठ दिन भूखे पड़े रहना होता है । अन्न के लिए तड़पना पडता है । तृतीय भाव फट– ^तृतीये यदाऽह्मणिजैन्मकाले प्रतापाधिकं विक्रमं चाऽऽतनोति । तदा सोदरेस्तप्यते तीथैचारी सदाऽरिश्चयः संगरे शां नरेशात्‌ ।॥३॥। अन्वय :- जन्मकाले यदा ८ यस्य ) अदर्भगिः व्रतीये भवेत्‌ तदा ( तस्य ) प्रतापाधिकं विक्रम आतनोति । सः सोदरैः तप्यते, तीर्थचारी ( जायते संगरे सदा । (तस्य) अरिश्चयः स्यात्‌ , नरे्ात्‌ (तस्य) शं स्यात्‌ ॥ २ ॥ सं० टी<- जन्मकाले वतीये यदा अह्म॑णिः सूयः तदा सः पुरुषः प्रतापाधिकः प्रतापः अधिकः यस्मिन्‌ एतादश विक्रमं पराक्रमं आतनोति । च पुनः सौदरः भ्रातरभिः तप्यते संतापं आप्नुयात्‌ , तीथचारी तीथंगमनञ्चीकः भवेत्‌ › संगरे संग्रामे सदा अरिक्चयः शत्रुनाशः तथा नरेशात्‌ शपात्‌ शं कल्याण स्यात्‌ ॥ ३॥ अथ :- जिस मनुष्य के जन्म से तीसरे स्थान म सूं हो तो मनुष्य बड़ा प्रतापी तथा पराक्रमी होता है । यदह सगे मायो से कष्ट पाता हे । परदेश भ्रमण करके तीर्थयात्रा करता है । युद्ध मे सवदा उसके गातुं का नाद होता है । राजा से इसे खुखप्राप्त दोता है ॥ ३ ॥ तुखना–“^तृतीये चंडांशौ भवतिजनने क्क्रिमकलाऽ विस्तारो यस्यातुख्बख्मलं तीथंगमनम्‌ । विपक्षाणांक्षोभः सपदि समरे भूपङ्पया प्रतापस्याधिक्यं सहजगणतो दुःखमनिराम्‌ ॥ जीवनाथ अर्थ- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे सूर्यं वरतीयभाव मे होतो उसके पराक्रम का विस्तार होता रै। यह बली, तीर्थयात्रा करनेवाल्म; संग्राम में दात्रुभं को शीघ जीतनेवात्म ओर राजा की कृपा से अधिक प्रतापी दोता हे । किन्तु इसे सगे भाईयों से सदा दुःख प्राप्त होता है । (सहृजभुवनसंस्थे भास्करे श्राव्रनाशः . प्रियजन हितकारी पुत्रदारामियुक्तः। भवति ष्व धनयुक्तो वैरययुक्तः सहिष्णुः विपुर धनविहारी नागरीप्रीतिकारी ॥ | भानसागर

२८ -चमत्कारचिन्तामणि का तुखनात्मक स्वाध्याय

अथे- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे, सूर्यं तीसरेस्थानमे हो तो उसके भायां का नार होता हं । यद्‌ अपने प्रिय जनों का हित चाहनेवाला होता है । इसे स्रीयुख तथा पुच्रयुख मिक्ता दै । यह धनवान्‌ , धैयंवान्‌ तथा दूसरों का उत्कषं देखकर प्रसन्न होनेवाटा होता है । यह बहुत पेखा खर्वनेवाखा होता है, अर्थात्‌ यह लाखों मं खेलनेवाटा होता है | यह नगर मं रहनेवाटी खुन्दर लियो का प्यारा होता है। अर्थात्‌ यदह सोदर्यवान्‌ ओर आकषक होता दै! अतएव नगर कौ सुन्दरी स्िर्योँ स्वयं ही इसकी ओर चिष्वी चटीं आती है। नगर की चर्यो हाव-माक्-कटाक्च यादि में, श्रज्ञार करने में विरोष चतुर होती ह अतएव इनमं आकषण ओौर मोह कदराक्ति अधिक रहती है, अतः नगरवाटी षचतुर- नारियाँ का प्रेमपा्र होना पुरुष के छिए विरोष गौरव दे ।

“अग्रेजातं रविः हन्ति । बृहतारश्षरीकार

अथे– वरृतीयभावस्थ रविं बड़े भाई के छिए मारक होता है ।

“सरक शौर्यं श्रिय मुदारं स्वजनशत्रुं सहजगः ।*> मंतरेश्वर

अथे–यदि जन्मकुंडली मेँ ठृतीयभाव में सूर्यं हो तो मनुष्य बली, चूर ओर श्रीयुक्त होता है । यदह उदार ओर अपने पक्ष के रोगों का शत्रु होता रै । अर्थात्‌ अपने भाई-जन्धुयं के साथ इसका वर्ताव शत्रु जसा होता है ।

“रः दुजंन सेवितोऽतिधनवान्‌ त्यागी तरतीये रवौ ।* वदनाय

अथे- जिस मनुष्य के जन्मसमय म सूर्थं तीसरे स्थान मे हो वह श्यूर, दुज॑नों से सेवा ग्रहण करनेवाला, धनाल्य तथा त्यागी होता है ।

विक्रांतो बल्युक्तो विनष्ट सहजः व्रतीयगेसूरयं । लोके मतोऽभिरामः प्राज्ञो जित दुष्ट पक्चश्च | कल्याणवर्मा

अथे–जिस मनुष्य के जन्म समय मेँ सूर्यं तीसरे स्थान मे हो तो वह्‌ पराक्रमी, वल्वान्‌; श्राव्रहीन, सवंजनप्रिय;, सन्दर आओौर प्राज्ञ होता ै। यह अपने पश्च के विरोध मे चल्नेवाङे दुष्टों को जीतनेवाटा होता है ।

^ प्रियंवदः स्याद्‌ धनवाहनाब्या कर्म चिप्तेऽनुष्वरान्वितश्च ।

मितानुजः स्याद्‌ मनुजो वलीयान्‌ दिनाधिनाये सहजे.ऽधिसंस्थे “° दु डिराज

अथे–जिस मनुष्य के जन्मसमय मे सूर्यं त्रतीयभावमे होतो वह मीठा ओर प्यारा बो बोल्नेवाखा होता दै । यह धनसम्पन्न होता है-इसे वाहनखुख गर्त होता है। इसका चिष्त श्युभ कर्म करने मे लगता है। इसके धर पर नौकर-चाकर होते है । इसके छोटे भाई थोडे होते दै । यह शारीरिक शक्ति- सम्पन्न होता है |

“मति विक्रमवान्‌ व्रुतीयगेऽकँ ।।2 आाचायंवराहभिहिर

अथे- जिस मनुष्य के जन्मकाल मे सूर्य॑ तरतीयभाव मेँ हो वह बुद्धिमान्‌ तथा पराक्रमी होता है ।

सूर्यफर २९

“भूरिप्राज्ञँ ूरिसत्सादयुक्तो भ्राताऽसौख्यः श्राव्रभावेदिनेरो 1 लयदेव

अथे– जिसके वृतीयभाव मे सूर्यं हो वह विरोषं बुद्धिवान्‌ होता है। इसे काम करने मं भारी उत्साह होता रहै । इसे भाई का युख नहीं मिलता है ।

^^तृतीयस्ये दिवानाथे प्रसिद्धो रोग व्जितः। भूपतिश्च सुरीलश्च दयाद्श्च मवेन्नरः ।> काशिनाथ

अथे- जिसके ठृतीयभाव में सूर्यं हो तो वह विख्यात, नीरोग, सुशीलः

दयां ओौर भूपति होता है । श्रियवद्‌ः स्याद्धनवाहनान्यः सुकमं चि्तोऽनुष्वरान्वितश्च । मितान॒जः स्यात्‌ मनुजोवटीयान्‌ दिनाधिनाथे सहजाधिसंस्थे |” महेशः

अ्थ- जिस मनुष्य के जन्मलग्न से तीसरेभावमें सूर्यं स्थित होतो वह मधुरभाषी, धनवान्‌ , वाहनयुक्त तथा नौकरों से युक्त होता है| इसका चिम्त दुभ कर्मो कीओर आकृष्ट होता है। इसके छोटे माई संख्या मं थोडे होते ह । यह बलवान्‌ होता है ।

““यदा शमसखेटस्वरतीयास्थितो नेककदानिरोगोहि शीरींसखन्‌ ।

सद्‌ा मोदते रम्यसीमन्तिनीमिः सवारो धनाम्यो हि निः कोपरान्‌॥ खानखाना

अर्थ- यदि सूर्यं तृतीयमाव में दो तो मनुष्य नामवर, करिफायतशार, नीरोग, मीठा बोलनेवाला होता है । यदह सुन्दर च्ियँं का उपभोग केनेवात्य , सवारीपर चलनेवाला, धनवान्‌ ओर क्रोधहीन होता हे ।

भ्रगुसूत्र– “बुद्धिमान्‌, अन॒जरदिंतः, च्येष्टनाशः । प्चमेवषे षतुरष्ट- दराद्शवषे वा किचित्‌ पीड़ा । पापयुते ऋूरकतां । द्विभ्राठमान्‌ पराक्रमी । युद दयूरश्च, कीर्तिमान्‌ । निजधनमोगी । छमयुते सोदरलृद्धिः । भावाधिपे ब्युते भ्रात्रदीर्घायुः । पापयुते पापेक्षणवच्ान्‌ नाशः । ञयमवीक्षणवद्ाद्‌ धनवान्‌? भोगी सुखी च ।

अ्थ– यदि सूर्यं तीसरेभाव में होतो मनुष्य बुद्धिमान्‌ होता है। इसे छोटे भाई नद्यं होते । बडे भाई की मृघ्यु होती है। चोये, पंचम में, आयवे वा बारहवें वर्षं कुछ पीडा होती है । यदि वरतीयभावके सूयं के साथ कोई पापग्रह युति करे तो मनुष्यक्रूर होताहै। इसकेदो माई होतेह । यह पराक्रमी, रणद्यूर, यडास्वी तथा अपने धन का उपभोग करनेवाला होता हे । इस भाव के सूर्यके साथ किसी श्यभग्रह कीयुति होतो मादइयों की बदोत्री होती है । यदि व्रतीयेश बलवान्‌ दो तो इसके भाई दीर्घायु होते ह । यदि। कोई पापीग्रह साथमे हो, अथवा पापीग्रहकी द्ष्टिहो तो भायां कानाश होता है । यदि इस भावके सू्यंपर श्भग्रह की दृष्टि दो तो मनुष्य धनवान्‌; भोगलेनेवाला ओर सुखी होता है ।

यवनमत-यह पदवीधर, ख्यातनामा, नीसेग, मीठा बोलनेवाला) सुन्दरच्िर्यो

३.० चमत्कारचिन्तामणि का तुरख्नात्मक स्वाध्याय

का भोक्ता, विवसी, चनी, घोडे की सवारी मं कुशल, निश्चयी, धनवान्‌ ओौर दान्त होता है । इत्ति बहुत गम्मीर होती है । भाई-बन्धुओं का सौख्य इसको नहीं मिलता । किन्तु यह सवको सुख देने के प्रयल् करता हे

रिप्पणी-घनवान्‌ ओर रान्तच्रन्ति होना, ये फठ स््रीरारि के ह अन्यफट
पुरुषरारियों मं मिख्ते है  

पाञ्चात्यमत- स्थिर ओर निश्चयी, विज्ञान ओर कटा का प्रेमी, निवास- स्थान क्रचित्‌ ही वद्लनेवाला । जल वा चरराशि मं बहुत से छोटे प्रवास हो सकते हं | ।

रिप्पणी–ऊपर के फठ पुरुषरारि के है ।

विचार ओर अलुभव- तव्रतीयस्थान में मेष रादि कारविदहो तो मनुष्य ` दुब विष्वारों का, आल्सी, शरीर को कष्ट न देनेवाला, वातूनी, बडे भाई को मारक, निख्यमी ओौर उपद्रवकारी होता दै) रोष पुरुषरादियोँमं रविदहोतो यान्त; वि्वारदीट, बुद्धिमान्‌ , सामाजिक, शिक्षासम्बन्धी तथा राजकीय काम मं भाग ठकेनेवाला, नेता, स्थानीय स्वराज्यसंस्था, टोकल्बोडं आदि मे चुनाव ख्डनेवाला, अध्यक्ष वा उपाध्यक्च का पद, बड्ी-बडी कम्पनिर्यो का डादरैक्टर, इस तरद किसी भी स्थान पर अपनी सम्ता रखनेवाला होता है । यह बात अधिकारपूणं अधिकारसे करता हे। इसके नीचे के रोग काम प्रमपूर्वक करते दै । मिथुन, ठला वा धनु मं रवि हो तो मनुष्य ठेखक, प्रकाशकः; प्रोफेर(र र वकील आदि व्यवसायों मं अग्रणी होता है |

पुरूषराशि का रवि बड़ माई को मारक होता है । बड़े भाई की मृत्यु ररव वं तक हो जाती दै-यदि नदीं हई तो वह विभक्त होता दै । विभाजन के समय रान्ति रहती है । ्ग्डा-फिंसाद्‌ नदीं होता । दोनों माई एक दही स्थान पर नदीं रह सकते, यदि रहे तो बड़े भाई का काम नदीं चल्ता ! वचो की मौत होती हे ओर भी कई एक कष्ट होते है ।

खीरागि का रवि हो तो विभाजन सम्बन्धी ज्षगडे कोर मे चलते हैः । जिसके तृतीय मं रवि हो उसे माद के साथ नदीं रहना वा्िए अन्यथा एकं दूसरे के माग्योदय मं कई एक विघ्र उपस्थित होगे ।

जिसके वरृतीवस्थान मे पुरुषराशि का रवि हो वद मनुष्य अपने पिता का कलोता वचा होता दै । यदि कोई भाई रहे भी तो उससे कोई लाभ नदीं होता, कोद मदद्‌ नहीं मिलती । यह मनुष्य या तो सवसे बडा होता है या सबसे छोटा दोता हे । ख्ीराशि का रवि हो तो माह-बहिन दो सकते है । खीरासि के रवि के 9.५ की दष्ट से अच्छे मिटते हँ । मनुष्य धन-वाहन सम्प होता है । यह राव्‌ सतात क लिट मी अच्छ” है । जिनकी ऊुण्डटी मे व्रतीयस्थान मे रवि होता देवे दानदयूर होतेरहै। |

सू्यफल ३१ चतुथेभावफरख- तुरीये दिनेदोऽतिङोभाधिकारी जनः संछभेत्‌ विग्रहे बंधुतोऽपि । म्रवासी विपक्षाहवे मानभङ्गं कदाचिन्न शान्तं भवेत्‌ तस्य चेतः ॥४॥ अन्वयः- दिनेश ठरीये ८ सति ) जनः अतिदोभाधिकारी ( स्यात्‌ ) बधु- तोऽपि विरहं संहछमेत्‌ । प्रवासी ( स्यात्‌ ) विपक्चाहवे मानभङ्गं ( प्राप्नुयात्‌) तस्य चेतः कदाचित्‌ रातं न भवेत्‌ ॥ ४ ॥ सं< ठी<- तुरीये सुखभावे दिने सूयं विद्यमाने जनः मनुष्यः अतिखोभा- धिकारी अतिदोभाधिकारोयो अधिकारः द्रव्य-संपत्‌ एकमान्यतारूपः तस्मात्‌ हेतोः बन्धुतः स्वजनेभ्यः किमुत अन्येभ्यः विग्रहं कलहं तथा विप्षाहवे रानरु- संग्रामे मानभगं अद॒ल्मेदं आमनोति; प्रवासी विदेशगमनरीटः भवेत्‌ । तस्य चेतः मानसं कदाचित्‌ न शान्तं मवेत्‌-कदाचित्‌ न शान्ति भजेत्‌-खदा व्याकर स्यात्‌ ॥ ४ ॥ अथं :- जिस मनुष्य के जन्मल्य से चौयेस्थान मे सूर्यं दो तो उसे अति- रोभायुक्त अधिकार प्रास्त होता है। भाईै-बंधुओं से भी उसका विग्रह अर्थात्‌ लड़ाई -क्लगड़ा रहता है । वह परदेश मे निवास करता दै । युद्ध मे शत्रुओं दारा इसका मानभंग होता है । किंसी समय भी इसका चिष्त शान्त नहीं रहता है । अथात्‌ इसके चिप्त मेँ घबराहट सदैव रहती दहै ॥ ४ ॥ रिप्पणी-“अतिशोभाधिकारी इसके अर्थं मेँ टीकाकारो मेँ परस्पर मतभेद है । एक टीकाकार ने “यह अत्यंत सुन्दर होता है” ेखा अर्थ किया है । किसी एक टीकाकार ने “वतुथभावस्थसू्यं का जातक स्वतः ही शोभायुक्त तथा अधिकारी होता दै” ेसा अथं किया है । मेरे विचार में ष्वतुर्थसूर्थं मनुष्य को एेसा अधि- कार दिखाता है जिससे मनष्य की अनुपम शोभा बद्‌ जाती है-खोगो की दृष्टि में यह भनुष्य बहुत ऊगचा उठ जाता ह । खोग इसे एक प्रतिष्ठित व्यक्ति मानते दै- राज्यसन्ता पाकर यह मनुष्य सभी प्रकार से धन-यरा-मान-परतिष्ठा आदि से सम्पन्न हो जाता है| मट्रजी ने यदी एकमात्र श्चमफल चतुथसूयं का बतलाया है शेष सभी फल अद्युभ के है ।

संस्कृत टीकाकार (मानभङ्गः का पयाय अतुलमेदं” छ्खिा है । इस पर्याय का अथं स्पष्ट नहीं हे । भवाः मूर णविडौजाः दीकावाटी बात पाई जाती है | अथं को स्पष्ट करने के लिट पयय उपयोग मँ लए जाते है ।

  • सदेव चित्त का अशान्त रहना । चतुर्थरवि का महान्‌ अश्चम फल है । इसके विपत्तिजनक परिणाम देखने मे आसकते है-दान-तप-यक् आदि चमकम चित्त- शान्तिके लिए दी किए जाते है । पाश्चात्य देरों मे वाञ्छनीय सभी पदार्थं उप- न्धं है, केवर (मनःशान्तिः “7०००८ ० पण7व्‌” ही उपलन्ध नहीं है- रेवा ` श्रुतिगोषर हो रहा हे ।

३२ चमत्कारचिन्तामणि का तुखनात्मक स्वाध्याय

तुखना- “तुरीये मार्तण्डे नरपतिकुटादथनिवहो ; भवेत्‌ माननातः कलिरपिष्व बन्धोः प्रसरति ॥ विपक्षाणां युद्रे भवति विजयो जातु न मवेत्‌), तथा चिप्त पुंसां व्रजति नदि गांतिखलजनात्‌ |> जौवनाथ अ्थ- जिस मनुष्य के जन्मसमय में सूर्य॑ चठथंभावमें हो उसे राजकुलः से धन ओौर मान की प्रापि होती है। किन्तु मादय से कलह, युद्ध में पराजय ओौर दुज॑नों से सदाचित्त अशान्त ओर उदधि रदता हे । रिप्पणी-जीवनाथ के मत में चवुर्थभावस्थ सूयं के शुभफल केवल्मात्र धन ओर मानप्रापि है, अन्य सभी फल अञ्युम है । इनके अनुसार !उस्वाधि कार प्राप्तिः चुथंरवि का फल नदीं है यदि नरपतिकुर से मानप्राप्ि का निहित अथं अधिकार प्राति होतो दूसरी बात दै । ग्रहों का राजा सूयं है । अतः सूर्य राजा से उच्चाधिकार प्राति करवा सकता है-ठेसा मेरा विष्वार है । शुभफल ग्रह्‌ की तारकराक्ति के ह ओौर अद्युभफल ग्रह की मारकराक्ति के ह । ““सुखार्भदीनः चल्वासधीश्च द्यद्‌विद्मचित्तः सुखगे दिनेरो 1? जपदेव अथे- जिसके सुखभाव अर्थात्‌ चतुर्थभाव में सूर्यं हो उस मनुष्य को धन का सुख नदीं होता हे । यह सुखसे भी वंचित रहता है । इसकी बुद्धि स्थिर नीं होती है । अर्थात्‌ यह अस्थिर विषारों का प्राणी होता दहै । इसके व्र भी बहुत देर चल्नेवाठे नहीं होते। दूसरा अर्थं यह ॒एकस्थान पर टिककर नदीं रहता हे परदेश में भटकता फिरता है ¡ इसका चित्त अद्ान्त रहता है अर्थात्‌ इसे मानसिक शान्ति मी नहीं मिरती है । टिप्पणी-जयदेव के मत में वचतुर्थसू्य अञ्चुभफल दाता है। फलित ज्यौतिष ग्रन्थों में शुख’ दाब्दं का प्रयोग बार-बार क्या गया दै। दुःखाभाव को सुख का है । दुःख तीन प्रकार केर्है–(६) आध्यासिक (२) आधिमौतिक (३) आधि- दैविक । अथात्‌ जिस मनुष्य को तीनों प्रकारके दुभखखठन हों उसे ही सुखी कहा जा सक्ता है । एसे कितने मनुष्य है जिन्है एेसा सुख प्रास है यह विषय अनुभवगम्य हे | “चतुथे सूर्यं दुवुंद्धिः छलांग: सुखवर्जितः । अप्रभावो निष्ठस्थ दुष्ट संगो भवेन्नरः ॥°? कक्लिनाय अथे- जिसके चतुर्थस्थान मे सूर्य हो वह मरंष्य मूख, दुर्ट, सुखदीन, निष्टुर तथा बुरों कौ संगति में रहनेवादय होता है– यह प्रभावराटी नदीं होता दै– अथात्‌ यद्‌ अपने व्यक्तित्व से किसी को प्रभावित नहीं कर सकता है । ‘जनयतीयं सुहृदि सूयो विसुख बन्ध क्षिति सुद । भवन मुक्तं पत्ति सेवाजनकसम्पद्‌ व्ययकरम्‌ ॥ मंत्रेश्वर

३ सू्यंफ ।&।

अर्थ-यदि जन्मल्य्र से ष्वतुर्थभाव में सूयं हो तो मनुष्य सुखहीनः, बन्धुदीनः भूमिदीन, मिजरदित तथा भवनद्ीन होता है ! इसे राजसेवा प्राप्त होती है । यदह सम्पत्ति को न्ट करनेवाल्य होता है । रिप्पणी- म॑तरश्वर के मत मे भी चतुर्भाव का सूर्यं प्रायः अञ्चमहीहे। ५हद्रोगी धन-धान्य-बुदधि रहितः ूरः खस्थे रवौ ॥ वनाय अ्थ- जिसके जन्मलय्र से चतर्थभाव मे सूर्य॑दहो उसे हदय के रोग ( विक्रार ) होते द। यह मनुष्य धनदीनः धान्यद्धीन-ुद्धिहीन तथा करर होता दै । रिप्पणी- वैयनाथ मत मे मी षतुर्थसू्यं अश्चभफल्दाता है । (“सौख्येन यानेन धनेनदीनं तातस्य चित्तोफहतप्रवृत्तम्‌ । प्लन्निवासं कुरुते पुभांसं पाताल्णाटी नलिनी विलासी । महेश अर्ध–यदि जन्मलग्न से चतुर्थस्थाने सूयं दो तो मनुष्य शुखदीन, वाहनरहित, धनदहीन ओर पितासे विरोध करनेवासख होता है। यह अपने घर मे. स्थायीरूपेण रने नदीं पाता दै-अर्थात्‌ देश-विदेश घूञ्नता-भरकता फिरता है । अतः गृहसुखदहीन भीः होता है । “यदा मादरागारगः सम्डखेटः सुखी नो हि शंसः परेशानकः स्यात्‌। सदा म्खानविष्तोऽथ वेदयारतो बा तदा जायते बेखुशी हिर्जगरः ।।° ख।भस।ना अथै- यदि सूर्य्य से प्ुथ॑भाव मे हो तो मनुष्य खुखी नदीं होता रै 1 यह स्व॑दा सन्दे हयुक्त भौर परेशान रहता है । यह प्रसन्नवित्त नहीं र्ता दै वेद्याओं मे आसक्त, निरानन्दं तथा व्यथं धूमनेवाला होता रै । रिष्पणी-साहित्य के अन्यो मे इस प्रकरण में परकीयानायिकां के वणन के अनन्तर पण्यवनिताके रूपमे वेद्या काभी वर्णन किया मया है–किन्तु ये वेद्यार्ण शरष्ठकल्कार होती थी । चोंसठकलयओं की जानकारी रखती थीं ये रूपाजीवा नहीं होती ्थी- प्रत्युत संयमरीर होती थीं ये भ्रांत तथा भ्रष्ट युवकों की कामानच्छ्यान्ति का साधन नहीं होती थीं । उदाहरण मे वसन्तसेना, चारुदत्त की प्रेमिका, देखो मृच्छकरिकनाटक । अतन भारत की वेद्याओं की परिस्थिति कुर भीर ही है । चतुथंभाव का सूर्यं मनुष्य को वेद्यागामी भी बनाता है-यह महान्‌ अनर्थकारी अञ्यभफट है । विसुखः पीडितमानसः वचठथं ।॥” आ चायंवराहमिहिर अ्थ–चुथंभावस्थ सूर्यं हो तो मनुष्य खुखहयीन तथा अान्तचित्त होता है। | “वाहनवन्धुविद्यीनः पीडितहदयः ष्तुरथ॑के सूरय । पिचर-ण्ह-धन-नाद(करः भवति नरः कुरपसेवी ॥ कत्यागवमां अ्थै–जिस मनुष्य के जन्मसमय मे चतुर्थभाव सूर हो तो वह बन्धु-

३.४ चमत्कारचिन्तामणि का तुरनात्मक स्वाध्याय

बान्धवो के सुख से वञ्चित रहता दे- इसे सवारी का सुख नहीं होता है। यह दयम दुःख का अनुभव करता दहै। यह पिता का विरोधी, धर-गहस्थी ओर धन को उजाडनेवाला होता है । यह चर्तिहीन राजा के आश्रय में रहता दहै। “धविविधजनविहदारी बन्धुसंस्थः दिनशो भवति च ग्रदुचेताः गीतवाद्यानुरक्तः । समरदिरसि युद्धे नास्ति भंगः कदाचित्‌ प्रचुरधनकलट्ची; पार्थिवानां पियश्च मावसागर अ्थे– यदि सूर्यं बन्धुभाव (चतुथैभाव) मेहो तो मनुष्य लोकप्रिय तथा सर्वजनप्रिय होता दै। यह कोमट्हदयदोता दै) इसका प्रेम गीत ओर वाद्रकलाओं मं डोता हे यह युद्ध में आगे होकर र्डता दहै कभी प्रीठ नहीं दिखाता दहै । इसे खीसुख तथा विपुल्धन-सुख मिलता है | यह राजप्रिय

  • होता है। रिप्पणी-मानसागर के अनुसार चतर्थंभावका सूर्यं सर्वथा शुभ तथा कल्याणकारी दे । भ्रगुसत्र-दीनंगः, अदहंकारी, जनविरोधी; उष्णदेही, मनःपीड़ावान्‌ । दवाविशद्वप्र॑सवकर्मानुकूट्वान्‌ । वहुप्रतिष्ठासिद्धिः । सप्ता-पदवी-ज्ञान रोर्य॑सम्पच्नः। धनधान्यहीनः | भावधिपे वट्युते सक्षेत्रे, चिकोणे केन्द्रे लक्चणावेक्षया आंदोलिका प्रातिः । पापयुते पापवीक्षणवराद्‌ दुष्टस्थाने दुर्बाहनसिद्धिः । क्षे्रहीनः । परदे एववासः । अथ- जिसके जन्मसमय मे चतुर्थमावमें सूर्यं हो वह मनुष्य दीनांग होता है, अर्थात्‌ उसके रारौरमे कोड अंग विकलवा कम होता दै। यह्‌ अहंकारी ( घमण्डी ) होता है। यह प्रायः आमटरोगों ते कडार ञ्चगड़ा करता रहता है । इसका रारीर गमं रहता दहै। इसके मन मे पीडा रहती दै। २२्वे वधं मं इसपर सभी काम टीक हो जाते है यह सुप्रतिष्ठित हो जाता है। इसे राञ्यसत्ता-कोई पदवी ( अधिकार ) ज्ञान-बहादुरी मिलते है । यह धनदहीन ओर धान्यदहीन होता दै । वदि चतधंश्च बल्वान्‌ हो, अपनी रारि में, जरिकोण मवा क्न्द्रमंद्ोतो इते सवारी क लिए पालकी मिख्ती है । यदि चतुर्थशक साथ कोड पापग्रह हो अथवा पापग्रदरकीदटि दो | अथवा चतुथंश कसी दुष्स्थानमं स्थित दहो तौ इसे अच्छी सवारी नदी मिल्ती। इसके पास जमीन नदीं दती । इसे दूसरे के घर पर निवास करना हाता ह । यवनमत- यद सुख नदीं देता । संशयी, म॒रस्चाए चरे का, वदयासेवी, सौर शतरुयुक्त होता दै । पागल जेसी मंदवुद्धि होती है । पाश्चात्यसमत-रवि वल्यान वा ध॒मग्रहोंसे दष्टदहोतो अच्छी स्थिति पराप्त होती है। आयु के अन्तिमि भागम यश की प्रापि होती दहे। पिता को भी सुख देतादहै।

सूर्यफल ३.५

विचार ओर अलुभव-चदुथ॑भावस्थित सूर्य॑ मानसागर के इष्टिकोण से शभ फलदाता है । अन्य सब प्राचीन ग्रन्थकारो ने इसके फट बुरे बताए ह । स््रयं को सुख नही, हृदय में पीड़ा, वाहनों का सुख नही, भाई-जन्धुों सेसुलकान होना, पिताका, धर काओौर धन का नाश, बुद्धिमां, ऋूरता युद्ध से भागजाना बहुत पर्ि्यो का होना, पिता से विरोध, धर मे वैमनस्य, सगड़ा; दुष्टां के कारण मानसिक विता, अस्थिर विष्वार, रोगों पर॒ प्रभावन पड़ना । ये सभी फल तब मिर्ते है जब सूर्य-दृष, सिह, इृधिक वा कुंभ म हो | यदी रवि यदि मेष या कक मेँ हो तो मनुष्य संशयी, म्खान चेहरे का, ओर वेद्यागामी होता दै ।

मानसागरी के बताए हुए ॒श्चभफल तब मिलते है जब सूर्यं मिथुन, कन्या, तुला; धनु, मकर ओर मीन में हो। रवि जिस स्थान में होता है उसका फल नष्ट होता है यद किसी अन्थकार का मतपीरे कहा है । इसके अनुसार ्वौयेस्थान मे रवि हो तो ब्वपन में माता व पिताकीम्रत्युह्ोभै है। व्वपन में कई एक ओर भी कष्ट होते &। किन्तु ९२८ से ५० वषं मे स्थिति भच्छी रहती दै । मनुष्य अपनी कमाई से घर आदि बना केता है । एकस्री, संतति भी थोड़ी-नौकरी अच्छी, मध्यायु मे वादनसुख । उत्तरवय फिर से कष्टमय बीतता है । किन्तु मृत्यु शांति से ओौर शीघ्र यह बात स्मरण रखने योग्य हँ कि शाञ्जकारो ने जो फट बताए वे अकेठे रवि के नदीं प्र्युत इसरविं के साथ मंगल, शानि ओर राह का संबेघ भी रहता हे । चतुथं रवि का सामान्यफल निम्न है :- पहिली अवस्था में दुःख; मध्य मेँ सुख, बृद्धावस्था मं पुनः दुःख । पंचमभाव- “सुतस्थानगे पूवंजापत्यतापी कराभ्रामतिः भास्करे मंत्रविद्या । रतिः वंचने संचकोऽपि प्रमादी मृतिः कोडरोगादिजा भावनीयाः? ॥ ५॥

अन्वयः–भास्करे सुतस्थानगे ( नरः ) पूवंजापत्यतापी ( स्यात्‌ >) ८ तस्य ) मतिः कुराग्रा ( भवति ) तस्य मंत्रविया ( स्यात्‌ ) ८ तस्य ) रतिः कंचने ( स्यात्‌ ) (सः) सकः ८ स्यात्‌) प्रमादी ( स्यात्‌ ) ८ तस्य) मृतिः क्रोडरोगादिजा भावनीया ॥ ५ ॥ |

सं: टी अथसुतमावफल्म्‌- भास्करे युतस्थानगे प्॑वमे सति नरः पूवंजापव्यताप्री पूरवंजस्य प्रथमजातस्य अपत्यस्य पुत्रस्यतापी तापवान्‌ , तन्मरणात्‌ दोक ततो दुःखं प्राप्नुयात्‌ इत्यथः | मंत्रविद्या यस्य इति सः आगमवेत्ता नीतिद्याखरज्ता वा; प्रमादी असावधानः, संचकः द्रव्यसं्वयकरत्‌ भवेत्‌ इत्यथः । तथा तस्य मतिः बुद्धिः कुद्रा अतिसृष्ष्मवस्तु विचारणी । वंचने पुरुषप्रतारणे रतिः प्रीतिः, मृतिः क्रोडरोगादिजा कुक्षिमवरोगादिजा भावनीया ॥ ५ ॥

` ३.६ चसत्कारचिन्तामणि रा कुरुनाव्मक <नाध्याय

अथैः- जिस मनुष्य के जन्मल््र से पंष्वमस्थान में सूर्यं हो वह प्रथमयपुत्र से कष्ट पाता है। इसकी बुद्धि सृष्ष्मातिसूक्ष्म पदाथ को भी समन लेनेवाटी होती दै । यह मनुष्य मजार का पंडित होता है | दूसर्रोको ठगने में इसे भारी आनन्द आता दहै । यद द्रव्य का संग्रह करनेवाला होता है । यह प्रमादी होता दै अर्थात्‌ असावधान भौर बेिक्र अथवा वेपरवाह भौर मस्त रहता हे । इसकी मौत का कारण क्टेजे की पीड़ा दोती दे ॥ ५ ॥

रिष्यणी–्येष्टपुत्र के साथ वैमनस्य, अनवन तथा निव्यग्रति कख्ह्‌ घरों मै प्रायः रहती है । यह प्रतिदिन का अनुभवदहै। एेसाक्यां होतादहै इसके कारण ग्रतिव्यक्ति-प्रतिकुडम्ब भिन्न-मिन्न होते द । किन्तु प्रधान कारण सास का पुत्रवधू के साथ परस्पर मतभेद्‌ होता दै । इस मतभेद का अवांछनीय परिणाम पितापर पड़ता दै पिता निष्पक्च रहने का बहुतेरा यतन करता हेतौ भी उसे मानचिक संताप वना रहता है । कई स्थानों मं पुत्र धर छोडकर अन्यत्र निवास करता है । पंचमस्थान के सूयं का यह फट महान्‌ अमगटकारी दै । संसत शीकाकार ते तो व्ये्ठपुत्र मरण संताप का कारण निर्दिष्ट किया हे। जये्ठपुत्र पिता को वहुतप्रिय होता है, उसका मरण तो पिता के लिए अपना दी मरण होता दै |

ंत्रविद्या-कोरा के अनुसार मंत्रशब्द के कर्दएक अथं है–वेद गुस्तमापण, किसी देवता आदि की सिद्धि प्रास् करने के छिए उपयोग मं लाया गया मत्र, मं्रमाग-एकान्त म किया गया कोई निश्चय प्रकत मं मच्रराख्र का ज्ञान तथा मत्रगाखनज्ञ विद्धान्‌ मंतव्य हो सकता है ।

कोडरोगादिजा- क्रोडरोग के कईएक अर्थं है–कुक्षिरोग-वक्चःस्थलरोग जटररोग-फेफडोँ का रोग, हृदयरोग ।

आजकर हृदयरोग से प्रायः मोतं दो रही है । प्दार-अटैकः मंतव्य हो सक्ताहे। क्याउनसभीके प्ममे सूर्य॑हैजो हृदयरोग के दिकार दहो रदे हं १ यदह वात विष्वारणीय है– केवल पंचमरवि दी हृदयरोग कारक दै, एेसा नही हे 1 वैनाथ कै अनुसार ्वतुथंसू्यं मी दृदयरोगकारक है ।

उल्ना–“यदादित्येऽपव्येग्रथमतनयो याति विख्यं । ऊुगाग्रा वेबुद्धिः कपटपटताऽतीववितता ॥ प्रसक्तेः मंनाणां प्रभवति रतिः वंष्वनपरा । तथातस्य क्रोडाभय निवहः भोगेन निधनम्‌ ॥” जीवलाथ अथे- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे सूयं प॑चममाव मे दो उसका स्थेष्ठ पुत्र खलु पाता दै । मनुष्य कुाग्रदुद्धि, कपट करने मँ अत्यन्त चतुर, मन््रविदा का भु | दूसरों को ठगने मै पूर्णतया तत्पर तथा हृद्‌ रोगसे मल्यु प्राप्त करता

सूर्यकफल ३७

रिप्पणी- नारायणम ने “अपत्यः शब्द्‌ ब्रयुक्त किया है-अपत्य का अथं पुत्र भी दो सकता दै प्पु्रीः भी दो सकता है–अतः पश्चममाव का सूर्य जेठापुत्र-जटीपुत्री दोनों के छिए मारकं है-रेसा अथं खसंगत है, नारायणभड़ के टीकाकार ने “अपत्यः का अर्थं श्व्येष्ठपुत्रः ही किया है। मेरा विष्वार संकुचित अथं के ग्रहण करने के विरोध में है । किन्तु जीवनाथ ने स्पष्ट शब्दों से “उ्येष्ठतनयः श्येष्ठपुत्र दी प्रतिपादित किया है। अर्थात्‌ पञ्चमभाव का सूयं ज्येष्ठपुत्र’ वा ““्येष्ठापुन्री के लिए तो मारक है किन्तु “अनुजः भौर “अनुजा के पञ्चम रवि से कोरे भय नदीं है यह्‌ मम है ।

'”वि-सत्‌ क्रिया पत्यधनोवनेगो दिनाधिनाथे सुतभावयाते ॥ जयदेव

अर्थ- जिस मनुष्य के जन्मलय्म से पञ्चमभाव मे सूर्यं हो तो वह श्चभकरमं नदीं करता दै । यह संतानदहीन ओर धनष्टीन दहोतादै। ओर यह वन में भटकता फिरता है ।

‘“सुख-सुत-वित्तविंहीनः कषंणगिरिदुगंसेवकः्वपटः | मेधावी बररदहितः स्वल्पायुः पञ्चमे तपने ॥› कल्याणवर्भा

अथे- जिस मनुष्य के जन्मकाल से पञ्चमस्थान में सूयं हो तो इसे सुख-संतान ८ सुत ) ओर धन नहीं मिर्ते ह । यह पहाड़ ` ओौर किलो पर धूमता-फिरता है । यह चञ्चछ, मेधा सम्पन्न, निल भौर थोड़ी यायु भोगने वाला होता है। “तनयगतदिनेशे शेरावे दुःखभागी न भवति धनभागी यौवने म्याधियुक्तः । जनयति सुतमेकं च्रान्यगे दश्च रः चपल्यतिर्विलरसी करूरकमा कुनेताः ॥ मानलागर

अथ–जिसके प्॑मभाव मेँ सूयं हो तो ब्रह वपन मे दुःखी रहता है- इसे धनपापि नहीं होती है । इसे जवानी में रोग होते है| इते एक ही पुत्र ोता है। इसे दूसरों के घर मँ रहना होता है । यद यूर, ्वचट्ुद्धिः ओर विखसी होता है ।

यह बुरे काम करता रै भौर यह बुरी षलह देता है। कुचेताः’ का दूसरा अथं– इसके चित्त की भावना बुरी होती है ।› अर्थात्‌ यदह मातरदुष् होता है । |

“सुख धनायुस्तनयदहीनं छखमतिमात्यन्पट विगम्‌ ॥? भन्त्रे्वर

अथै- जिस मनुष्य के जन्मकाल मे सूयं पञ्चमस्थान मेँ दीतो यह सुखहीन, धनदीन, अस्पायु तथा पुत्रहीन होता हे । इसकी बुद्धि अच्छी ती है । यह पहाड़ मे घूमता रहता हे ।

“राजप्रियः, ‘वञ्चलबुद्धियुक्तः प्रवासशीलः सुतंगेदिनेरो ॥” वंदताथ

अथं-जिसके प्वमभाव मे सूर्य॑ हो वटं राजा कौ प्यारा, पञ्चरबुद्धि तथा परदेश जानेवाला, होता है ।

३८ ष्वमत्कारचिन्तासणि का तुखनात्मक स्वाध्याय

‘“अदुतः धनवर्जितः त्रिकोणे ॥ > ल्ाचायंवराहुमिहिर

अ्थ- जिसके पंचम मेंसूर्यं हो तो यदह पुत्ररहित, तथा धनदहौन होता दै । “स्वस्यापत्यं यैव्टुगेरामक्तं सौख्यैः युक्तं सक्रियार्थैः वियुक्तम्‌ । श्रातं स्वांतं मानवं हि प्रकुर्यात्‌ सृ नस्थाने भानुमान वत॑मानः ॥» दुडिराज अथे-जिस मनुष्य के जन्मसमय में सूर्यं पञ्चममाष में हो तो इसे थोडी सन्तान होती दै । यह पहाड़ों यओौर किलं मं घूमता रहता दै । यदह रिवभक्त होता है। यह रखुखी होता है। यह धनहीन ओौर अश्चभकमं करनेवाला होता ह] यह भ्रान्त रहता दै अर्थात्‌ इनकी मति स्थिर ओौर निश्चयात्मक नहीं होती हे | “स्वल्पापत्यं रोल्दुर्गेदाभक्तं सौख्यः युक्तं सत्‌ क्रियार्थैः विसुक्तम्‌ । भ्रात स्वांतं मानवं दहि प्रकुर्यात्‌ सुनस्थाने भानुमान्‌ वतमानः ॥ » भहेश्च अथं- जिसके पञ्चमभाव में सूर्य हो तो इसे सन्तान थोडी होती है । यदह वनो मे, किये पर धूमता रहता है–यह दिवमक्ति करता है। किन्तु इसे सुख पदीं होता ह । यदह एेते श्चुभकम- निष्काम कमं नहीं करता दहै जिनके करने से खत्‌ अर्थात्‌ परब्रह्म की प्राप्ति हो । यह निधन होता है ओर इसका अन्तःकरण श्रान्त रदता ई । टिप्यणी–^सत्‌ त्रियायंः विमुक्तम्‌? यदौ पर॒ “सत्‌? का अथ “सत्यस्वरूप परब्रह्म करना उचित होगा; क्योकि परब्रह्म को छोड़कर ओौर कोई पदाथं सत्य नदीं है । पख्रद्य की सत्ता से ही सभी पदार्थ यह दद्यमान जगत्‌ सत्य प्रतीत होता है, क्योकि समी पदार्थं पारमार्थिक सन्ता से रदित है, ओर इनकी सत्ता केवल प्रतीति मार है । क्रिया कार्थ कर्म, अर्थात्‌ निष्कामकमेः करना उचित होगा । रेसे शभ तथा निष्काम कर्म, जिनका अथ अर्थात्‌ “प्रयोजन -सत्‌’ अथात्‌ त्रिकार्सत्य परब्रह्म की प्राति हो । जिस मनुष्य के पञ्चमभाव मं सूयं हो उसके सभी कर्म॑परब्रह्मप्रासि की ओर छे जानेवाले नदीं होते है, मर्थात्‌ यदह ॒मोक्षमाति की इच्छा से श्चभक्मं नहीं करता है-मरत्युत इसके कमं सषसारसागर मं इबोनेवाठे होते ई । यह म्म है। “अङ्कखाने यदा शम्दाखेटः तदा मानवो मानीनः सदा जादिलः । स्वल्पसगप्रजश्चौयंचिन्ताधियुग्‌ रुस्स्वरों धमकार्ये सर्दा काटिटः |; खनखाना अथे–यदि सूर्य॑ पञ्चमभाव मँ हो तो मनुष्य मानदीन, मखं, थोडी खी- संग मौर थोड़ी सन्तानवाला होता है । यह धिता तथा व्यथा से युक्त, चोरी करनेवाला; अत्यन्त क्रोधी ओौर धमं के कामीं मे आलस करनेवाटा होता हे । श्रगुसूत्र- निधनः । स्थू्देदी । सप्तमे वपं पितर-अरिषटवान्‌ । मेघावी, अस्पप्ः; बुद्धिमान्‌ । भावाधिपे बख्युते प्रसिद्धिः । राहु-केवयुते सपंशापात्‌

सूयंफलः ३९

सुतक्षयः । कुजयुते शतुयुते मूलात्‌ । शमदृषटयुते न दोषः। सूयंशरभादिषु भक्तः । बलयुते पुत्र समृद्धिः ।

अथे-जिस मनुष्य के जन्मसमय मे सूयं पञ्चमभावमे दो तो वह निधंन होता है । यह स्थूल देह होता है । सातवें वषं में इसके पिता को अरिष्ट होता है । यह मेधा सम्पन्न ओर बुद्धिमान्‌ होता है ।› शसे पुत्र-संतान थोड़ी होती है । यदि पञ्चमभावेश बल्वान्‌ हो तो पुत्र-सन्तान होती है । यदि पञ्चमेश के साथ राहु-केठु का सम्बन्धदोतो सपंशापसे पुत्र नष्ट होते ै। यदि मङ्गल युति करे अथवा शततुग्रह के साथ सम्बन्ध होतो मूर से स॒ुत्षय होता है । यदि श्चभग्रह का सम्बन्ध हो, अथवा शुभग्रह की दृष्टि हो तो सुतक्षय नदीं होता है । सूर्य, शरभ आदि का भक्त होता है । यदि पञ्चमेश बख्वान्‌ हो तो पुत्र होते ई ।

यवनमत-मानदहीन, सन्तति कम, मृखं, क्रोधी, नास्तिक ओर धार्मिक कार्यो मेँ विश्न करनेवाला होता है ।

पाश्चात्यसमत-जलख्राशि से भिन्नरारियों में दो तो सन्तति नदीं होती । जल- राशि म हो तो बच्चे कमजोर ओर बीमार होते है। ष्न्द्र, गुरु वा श्रु वदँ साथमेनदहोंवा रवि पर उनकीदृष्टिनदहदोतोमर भी जाते है । विलस आओौर खरीसङ्ग मँ खुशा र्ता है । पेसे बहुत खप्वे करता है ।

विचार ओर अनुभव–शाख्रकारों का प्रायः मतभूयस्त्व है किं अस्प- सन्तति, सन्तति का न होना वा होकर मरजाना, ये फल पञ्चमभावस्थित रवि के | रविं पुरुषराशि का हो तो ये फठ मिर्ते ह ।

कक, वृश्चिक ओौर मीन मे रवि दो तो शारीरिक कष्ट ओौर दुःख होता दै । बुरी बुद्धि, बुरे कम, क्रोधी; ऊुरूपः कुशीक; बुरी सङ्गति मँ रहना ये फट तम मिरूते ई जब रविं दृष, कन्या वा मकर मे हो । यवनमत का अनुभव मिथुन, ठला भौर कम्भरारियोँ मे मिख्ता हे ।

मेष, सिह, धनुरारियो मे पञ्चमभाव का रवि होतो शिश्चा पूरी मिलती है । मेष के सूर्यं मे सन्तान नदीं होती । सिहमेंरविदहदोतो सन्तान ष्टोती दै किन्तु शीघ्र ही मृष्युभ्रस्त होती है । यदि जीवित रहेतोबापभौर मोँके दपः लाभकारी नदीं होती । इस सन्तान का भाग्योदय मोँ-नापके वाद होता हे। रिक्षा ५ होनेपर भी व्यवदारकुशठ्ता होती हे । धनु का रवि रिक्षाके षि अच्छा है।

यदि पञ्चमरवि इष, कन्या, मकर, ककं, बृधिक आर मीन में हो तो मनुष्य स्वा्थपरायण, कंजूस, दुखरों के खुख-दुःख की पर्वाह न करनेवाला होता है ।

व्यापार अच्छा रहता है । सन्तति होकर जीवित रहती है । चैसा भी होता है।

मिथुन; ठट ओौर कुम्भ में रवि हो तो मनुष्य विच्याव्यासङ्खी, ठेखकः प्रका-

० चमत्कारचिन्तामणि का तुखनात्मक स्वाध्याय

दाक, आदि व्यवसायी होते है। दो पलियां मी सम्भव हैँ । ऊपर छिखा राशियों का रवि प्रसिद्धिदायक होता है) अधिकारीवृत्ति दोती दै | किन्तु सन्तति नहीं होती ¦ पत्नी सन्तति प्रतिबन्धक रोगो से प्रस्त रहती दहै। पूवंजोंकेरापसे या तो सन्तति होती नदीं वा होकर नष्ट हो जाती है । तीन वषं कठोर साधना- उपासना की आवदयक्ता दै इससे सन्तति होगी ओर जीवित रहेगी ।

किसी भी रारि में पञ्चमरवि–पुत्र कम, कन्यार्प अधिक देता हे । षष्ट माव-

“भिपुध्वंसक्रद्‌ भास्करो यस्य षष्ठे तनोति व्ययं राजतो मित्रतोऽपि । कुरे मातुरापद्‌ चतुष्पादतोवा प्रयाणे निषादैः विषादं करोतिः ॥६॥

अन्वय :-मास्करः यस्य॒ षष्ठे ( स्यात्‌ ) ( सः ) रिपुष्वंसक्रत्‌ ( भवतिं ) राजतः; मित्रतो वा ( स्वकीयं ) व्ययं तनोति । ( तस्य) मावः कुठे आपत्‌ ( स्यात्‌ ) वा चव॒ष्पादतः आपत्‌ ( स्यात्‌ ) प्रयाणे निषादैः विषादं करोति ॥६॥

सं° टी<-अथ परष्ठ्ावस्थ रविफटं–यस्य षष्टे रिपुभवने भास्करः सः रिपुष्वंसक्रत्‌ रच्रुघाती स्यात्‌ । तथा राजतः राजदण्ड निमित्तात्‌, मित्रतः मित्र- कायं हेतोः वा व्ययं द्रव्यव्ययं तनोति कुर्यात्‌ । तथा प्रयाणे यात्रायां निषदे भिष्छः देठमिः विषाद्‌ दुःखं करोति । मागं चौरकृत डंठनवशात्‌ दुःखं प्राप्नुयात्‌ इत्यथः । मातुः कुठे मात्रवेयौ तथा चवुष्पादतः अश्वादिष्ु आपत्‌ विपत्तिः अथवा मातरकुलत्‌ वाहनपतनात्‌ श्रं गिषद्धातात्‌ वा दुःखं भवेत्‌ । अस्मिन्‌ व्याख्याने कुलात्‌? इतिपाठः ॥ £ ॥

अथे :- जिस मनुष्य के जन्मलग्न से छ्टेस्थान मेँ सूयं हो तो वह अपने नुं का नाद करता है । यदह राजदण्ड देने के निमित्त से, अथवा विपत्ति मं फंसे हुए मित्र को विपत्ति से दछुटकारा दिखाने की खातिर, अपने धन का खव करता हे । यह स्वयं चाहे सर्वथा मितव्ययी हो इसके धन का खर्वं राजदण्ड का अुगतान करने के लिए ओौर अपने मिरकी सहायता करने के लिए बद्‌ जाता हे । जिसका परिणाम निर्धनता दती है । इसके माता के कुर मे आपत्ति रहती हे अर्थात्‌ छठेभाव का सूर्यं मामा, मामी आदि के लिए अनिष्ट तथा भम- ङ्ट्कारी होता है । इसे गाय-भस आदि चौपाए जानवरों से हानि पर्हैचती हे । कीमती गाय॒-भ॑स आदि पर्युओं के मरण से इसे आर्थिक हानि पर्हचती हे। अ वा किसी तीखे सींगों वाले चौपाए पञ्च के अपघातसे मार्मिक चोट आजाने से शारीरिक हानि परहुचती है । यह परदेश जाता दै रास्ते मे भील से, अथवां अन्य म्लेच्छ वा जङ्गटी जातियों से, अथवा चोरों से लट जाने के कारण इसे भारी कष्ट भोगना पड़ता है। इस तगह छठेमाव का सूर्य अश्चभफ देता हे ॥ ६ ॥

सूयंफ़र ७१

तुखना–“दिवाभता षष्ठे प्रनख्रिपुहतां ग्ययष्वयै, धराभत॑ः दण्डात्‌हितजन वश्ाच्ापि कुरुते | जनन्या गोतरार्तिः गजब़षतुरङ्गादिषु विपत्‌, ` प्रयाणे भिस्खा्येः बहुतर विवादो जनिमताम्‌ ॥:› जोवनाथ अर्थ–जिस मनुष्य के जन्मसमय मे सूयं छ्ठेभाव मे हो तो यह अपने रात्रुओं का नाशा करता है चाहे ये रात्रु कितने ही दात्तिराटी क्योनहो।. राजदण्ड देने के लिए तथा अपने मित्र की सहायता करने के निमित्त यह अपने धन को भारी मात्रा मे खच करता है । इसके माघ्रकुर मे कष्ट होता ३ । हाथौ-घोडा-बेक आदि चौपाए पश्चओं की मृत्यु होती है अथवा इन पञ्च को रोग होते ह जिनसे कष्ट होता है । परदेश की यारा मे भिस्छ आदि जातियों से विवाद होता है। रिष्पणी-भट्रनारायण तथा जीवनाथ के मतम छटेभाव मे स्थित सूर्य का श्युभफलषएक दही है ओर वह॒ प्रबख्यतु नारा । रोष सम्पूर्णं फर अञ्युभ जेसे अधिक धनव्ययः, मातरङ्कल मे विपत्ति, हाथी-घोड़ा-गाय-भसख आदि मूल्यवान्‌ पञ्चओं की हानि, चोरो से डर जाना, जङ्खटी खोगों से सुठभंड़-ख्डाई सगड़ा होना । “सत्व-सौख्य-धनवान्‌. रिपुदंता यान-मानसदितोऽरिगेऽके ॥* जयदेव अथे- जिसके शत्रुभाव (छ्टेमाव) मे सूयं हो वह मनुष्य सत्ववान्‌ अर्थात्‌ बख्वान्‌ होता है । यह सुखी, धनवान्‌ तथा शतुओं का नादश्च करनेवाला होता है । इसे सवारी का सुख मिक्ता रै, रोगों मेँ यह एक मान्य्यक्ति द्योता है । “षे सूय क्षतारिश ख्यातनामा खखी षिः । दयूरोऽनुरागी भूपाल सम्पतश्च भवेन्नरः |> कोाश्चिनाथ अ्थं- जिस मनुष्य के जन्मकाल में सूर्यं छ्टेभाव मे हो वह शत्रुओं का नाश करनेवाखा होता है । यष्ट विख्यात; सुखी तथा पवित्रात्मा होता ह । यह बहादुर, परेममय स्वभाव का तथा यजमान्य होता हे । “शश्वत्‌ सौख्येनान्वितः रातुहंता सत्वोपेतः चारख्यानः महौजाः । पृथ्वीभतः स्यादमात्योहिमर््यः शचुक्षेत्रे मित्रसंस्थः यदि स्यात्‌ ॥? दुंडिराज अर्थ–जिसके जन्मकाल मे सूर्यं छटेभाव में हो वह बली, सुखी, शातरु- विजेता, उत्तम वाहनों से युक्त, तेजस्वी भौर राजा का मन्त्री होता हे । रिप्पणी–दरंदिराज के मत मेँ छ्ठेभाव का सूयं अतीव श्चभफल दाता है । ““प्रचल्मदनोद्रा्निः बख्वान्‌ षष्ठ समाश्रिते भानौ । श्रीमान्‌ विख्यातगुणः वपति दण्डनेता वा ॥ कल्याणवर्मा अथे- जिसके सूर्यं छटठेभावमें हदो तो उसकी जठराभ्नि भौर कामाग्नि

७२ चमर्कारचिन्तामणि का तुरुनात्मकू स्वाध्याय

तीव्र होती ई । अर्थात्‌ मनुष्य भोजनभड तथा प्रव कामुक होता दहै । यह बल्वान्‌ , श्रीमान्‌ , अपने गुणों से प्रसिद्ध होता है, यह यातो राजा होता दहै अथवा सेनापति-वा न्यायाधीरा होता है । “वलवान्‌ शात्रुजितश्च शत्रुजाते ॥2 भाचायं वराहमिहिर अथे– जिसके छठेमाव मेँ सूयं हो वह्‌ वलवान्‌ तथा राघ्तुविजयी होता है । दिष्पणी-वराहजी तथा कल्याणवर्मा के अनुसार छठासूर्यं ञ्यभफल दाता है । “ग्रथित सूर्वोपतिमरिस्थः सुगुणसंपद्‌ विजयगम्‌ ॥» भन्त्रेश्चर

अथे–यदि चछ्टेमावमें सूर्यं होतो मनुष्य विख्यात तथा यशस्वी राजा होता है । यह गुणसम्पन्न, संपत्तिवान्‌ तथा विजयी होता दै ।

“अरिद्हगतभानौ योगरीखोमतिस्थो निजजन हितकारी ज्ञातिवगंप्रमोदी। कररातनुः गृहमेधी चास्मूर्तिः विलासी, भवति ष्व रिपुजेता कमंपूज्यो दृदांगः ॥ मानसानर

अथे–जिख मनुष्य के जन्मसमय मेँ सूर्यं छ्ठेमावमें दो वह योगी, मतिमान; अपने पक्ष के कोगों का दहित चाहनेवाला, अपने भाई-वंदों को खुश रखनेवाखा, दुवला-पतला शरीर, सदा धर बनाकर खहस्थी चलानेवाला, अन्दर तथा विली होता दे।

टिष्पणी-मानसागरके मतम छ्टेभाव का सूर्यं श्चभफल्द होता है। यवनो के मतम छटेभाव में स्थित पापग्रह अनिष्टफल्दायक होते ्है। इस मतको स्वीकार करते हुए वराहजी ने “शत्रुजितः’ “शत्तुभिः पराजितः एसा अश्युभफक भी बताया है। वख्वान्‌ दोना श्युभ फलक है । यह किसी एक का मत है। संपादक ने “शत्रवः जिताः येन सः शत्तुजितः” एेखा विग्रह करिया हे । “’ष्ठाश्रितोऽकं विष-राखर-दादक्षद्रोगरतरुव्यखनोपतसान्‌ , ` काष्टादमपाताच विद्ीणेदंता-न्यूनेऽय्वीदंधिनखिक्षतांश्च । कुजोगतस्तत्र परिश्वतांगं दग्‌ व्याधितं धिकूकृति कितं च, सौरः रिरोऽदमनिपातवात द्विमुष्टिघातोपहतं च कुर्यात्‌ ।” स्पुलि्वलः

अथ- जिस मनुष्य के जन्मसमय में सूयं छ्ठेभावमें हो तो इसे विष से, शच से, अभ्रिदाह से, श्वुत्रोग से, शत्रुओं से तथा व्यसनों से उपताप होता है । इसके दांत खकड़ी अथवा पत्थर केः ऊपर पड़ने से टूट जाते है । यह जंगलो मं मारा-मारा फिरता है । इसके जा्धों ौर पार्थो पर नाखूनो से व्रण होते रहै ।

यह छटेभाव का सूयं शिर या पत्थर पर गिर पड़ने से, वायुरोग से, परस्पर मुक्राबाजी से दुःखित करता है ।

सूयंफर ७३

(“शश्वत्‌ सौख्येनान्वितः शाततुदंता सत्वोपेतश्चाख्यानो महौजाः 1 परथ्वीमर्व॑ः स्यादमात्यो हि मत्यः शनुकषेत्े मिन्रसंस्थो यदि स्यात्‌ ।।*› अहेश अथै– यदि छ्ठेभाव मे सूर्यं हो तो मनुष्य निरन्तर सुखी रहता दहै । इसे दात्रुबाधा नदीं होती । प्रत्युत यदह शत्रुओं को मार गिराता है । यद पराक्रमी पुरुष होता है । इसके सवारी के वाहन उत्तमे .होते ई । यदह महान्‌ तेजस्वी होता दै । भौर राजा का मन्त्री दोता है ५ टिष्पणी- स्फुजिष्वज के अनुसार छटासूयं मान अनर्थकारी ओर कष्ट कारी है । किन्त महेश के अनुसार छुटसूयं अत्युतम फल का देनेवाला दे । “यदा मज॑खाने भवेदाफताबो जलीटोगनी सखलूरोदं अवाष्वः । सदा मातृपक्षोद्धृतस्यायलग्धिः निरोगो नरः शततुमदी तदा स्यात्‌ ॥> खानखाना अथ-यदिं सूयं छटेभाव मे हो तो मनुष्य अत्यन्त धनी, अत्यन्त सुन्दर,

कम बोलनेवाला, मात्रपक्ष से (मामा के धर से ) सव॑दा धनप्रासि करनेवाला; नीरोग भौर शत्रुं को जीतनेवाला होता हे ।

श्गुसूत्र-अस्प्ञातिः; रानुडद्धिः, धनधान्यसमद्धिः । विंद्यतिवषं ने्- वैपरीत्यम्‌ । श्चभदष्ट-युते न दोषः । अहिकानन पारङृत्‌ मन्नसेवी, कीर्विमान्‌ , शोकरोगी, महोष्णदेही । श्चभयुते भावाधिपे देहारोग्यम्‌ । श्ाति-शत्ु बाहूस्यम्‌ । भावापिपे दुर्बले शत्तुनाशःः, पितृदुर्बलः |

अथं–जिस मनुष्य के जन्मकाल मेँ सूयं छ्ठेभाव में दो तो इसके भाई- बन्धु संख्याम कमहोतेर्दै। इसके शत्रु भारी संख्यामें होते है। इसे धन ओर धान्य का सुख मिख्ता हे । वीसर्वे वधं मे ओंखों मेँ भारी उल्ट-फेर होता है ।

यदिं शस भाव के सूयं के साथ श्चुभग्रह युति करे, अथवा इस पर श्ुम-मह कीदष्टि्ोतो ओखिं ठीक रहती ्दै। सोप से, जंगल से कष्ट नहीं होता है। यष्ट॒मंत्रराख्र को जाननेवाखा होतारहै। यह कीर्तिमान्‌ होता रै। इसे किखी के मरण से शोक होता रै भौर इसे रोग होते ई । इसका देह खूब ग्म सहता है । यदि कोड श्चभग्रह षष्टेश के साथ सम्बन्ध करे तो देदह नीरोग रहता है । भाई-बान्धव ओर शत्रु अधिक संख्या मे होते है ।

यदि षष्ठे दुब॑टहोतो शत्रु नष्टदहोतेरैओौरपिताको कष्ट होता है)

यवनमत– यह धनवान्‌; सुन्दर, नीरोग, श्रयं पर तजय पानेवाल, ओौर मामा का सुख परानेवाल होता है।

पाश्चत्यमत- तबीयत अच्छी नहीं रहती । रवि दूषितिहोतो बहुत अर लम्बी बीमारियों होतौ है । स्थिर राशियों मे हो तो गले के रोग-जैते किन्सी डिपथीरिया, ब्राङ्काइरिस, अस्थमा-होते ई ।

हदय के रोग, पीठ ओौर कुक्षि का निवे होना, मूत्तरोग,ये फल होते ह । साधारण राशियों मे ओौर खासकर कन्या ओौर मौनमेक्षयका डर होता

४ चमत्कारचिन्तामणि का तुरनात्मक स्वाध्याय

दे । फेफड़ं मे बाधा पर्हु्वती दै । चर रारियों में यक्त के रोग, निरत्साह । छाती का दुव होना; पेट के रोग, सन्धिवात, कोई बड़ा जख्म इन रोगां की सम्भावना रहती है | विचार ओर अलुभव– श्री वराहमिहिरने छ्ठेमाव के सूर्य॑का फुल अथ्यम बतलाया हे । यरो तक शत्र का सम्बन्ध है । आष्वा्यं जी के अनुसार षष्ठस्य सूयं से मनुष्य शत्रुओं द्वारा पराजित होता है । मन्य मरन्यकातसें न सूयं का फल ‘रिपुहन्ता, शातुहन्ता शक्षतारिः आदि बताया है । दूसरे गन्द में अथम्‌ स्थानस्थित पाप वाक्रूख्रह सूर्यं शत्रुविजयरूपी श्यभफलक का दाता होता ह । रिपुमाव का फट रिपुदरद्धि होता दै । इसका नादा रात्रुनार ही हो सकता दे । इस प्रसङ्ग में मद्चोत्यल्जी ने स्पष्टतया बताया है कि रिपुभाव के विषय में वराहजी ने यवनेश्वरमत का अनुसरण क्रिया दै । यवनेश्वरमत है कि षष्ठस्थान- स्थित पाप्रह अनिष्टफल ही देते है । सत्याचार्यजी कामतहै किं यदि सूयं छ्ठेभाव मं हो तो शत्रुनाशक, रोगनाशक, शोकनाद्क, तथा त्ऋणनादाक होता है| | इसके विरुद्ध यवनमत है करि छटासूयं विष-राख्र-भगरिदाद-मूख-शतरु-भदि से मनुष्य को दुख का अनुभव करवाता है । स्फुजिष्वज के अनुसार प्ष्ठस्थरत्रि क प्रभाव मं आए हुए मनुष्यके दत, जमीन पर गिरजानेसे वा राटी के आध्ातसे द्ूट जाते है । यह परदेश मेँ धूमता-फिरता है । यात्रा मे इसे जङ्गल के ईदिसकपञ्युर्थं से उर होता है। हिंसकजीवों के आधात से शरीर मं त्रण होते है । यदि मङ्गलसाथमे होतो शारीरिक इन्द्रियो मे तरण होते है। नानाविध चश्चुरोग होते ह । यदि शनि साथमे हो तो मनुष्य पत्थर पर गिरता दे । विजली गिरने से प्राणों कामय होताहै। पेटमें वायुरोगसे दुःख होता दे । इसी सन्दर्भ मे ऊपर छ्िखा पाश्चात्यमत मी पठनीय तथा विष्वारणीय दै । प्स्थसुयं से मनुष्य सुखी होता दै, प्रेमी यौर पवित्र होता है । घ्ष्ठस्थ सूयं मात्रपक्च के लिए यभ नहीं । चुखी होना, प्रेभी भौर पवित्र होना-छ्रीरारि के फठ हं । सरकार से राएबहादुर आदि पदवियोँ ओर उपाधियों की मराति, अभि- कारी होना, तथा योगाभ्यासी होना आदि-आदि फल पुरुषरारियौं के है । पा्चा्यमत मं वर्णित फल सख्रीरारियींकेरै। यदि रवि पुरुषरारि मं हो तो मनुष्य कामुक, धमण्डी, क्रोधी, भोजनमभड््‌, पहली उमर मे उपदंश, प्रमेह आदि रोगों से प्रस्त होकर उत्तर भायुमे कष्ट पाता है, इसके मामा का पक्ष नष्ट होता दे । मौसी विधवा होती दै । अथवा यह पुत्रहीन रहती है इसके नौकर बुरे होते ह । स्वयं नोकरी करे तो यह अपने से ऊपर के अधिकारियों सेव्डताहे। यह रवि स््रीराशि का हो तो मनुष्य रमँहतोड़ जवाब नहीं देता मीरा बोलता है ओौर अपना कामबनाकेतादै। खीराशिके रविम सभी श्चभफल

सूय॑षरु ७५

मिरूते ई । मामा-मौसी के िए भी श्म है। मामा, मौसी बहुत होते है इनसे भी सम्बन्ध अच्छे रहते ्है। इस तरह छ्टेसूयं के श्भ-अश्चभ । दोनों पकार के फट मिरूते है | | सप्तमभाव- ‘द्युनाथो यद्‌ा दयूनजातो नरस्य प्रियातापनं पिंडपीडा च चिन्ता । भवेत्‌ तुच्छरुन्धिः कयेविक्रयेऽपि प्रतिस्पधेया नेति निद्रां कदाचित्‌?” ॥ ७ ॥ अन्वयः–नुनाथः यदा नरस्य यूनजातो भवेत्‌ ( तदा) (तस्य) प्रियातापनं पिंडपीडा, चिता च भवेत्‌ । क्रये-विक्रये अपि ( तस्य ) ठव॒च्छलन्धिः भवेत्‌ । प्रतिस्पधेया कदाचित्‌ ८ अपि ) निद्रां न एति ॥ ७॥ सं टी०-अथं खतमरविफल्म्‌-यदा द्युनाथः सूरयः चूनजातः सत्तमगः; तदा नरस्य प्रियातापनं ख्रीकेशः, पिण्डपीडा, शरीरकष्टं च, तथा चिन्ता तत्पदार्था लाभे मनो व्याङर्त्वं । क्रये वस्वसंग्रहे, विक्रये गृहीतवस्तु विनिमये तुच्छरन्धिः स्वल्पलाभो भवेत्‌, तथा प्रतिस्पधंया प्रतिवादीदष्यया कदाचित्‌ न निद्रां एति रमेत्‌ इत्यर्थः ॥ ७ ॥ अथं :- जिस भनुष्य के जन्मलग्न से सातवेंस्थान में सूर्यं हो उसे खी केश, शरीरपीडा ओर मानसिक चिन्ता होती है। व्यापारमे उसे बहुत थोडा लाभ होता है। मन मे सव॑दा रोगों का डाह रहने से खख से नीद मौ नदीं ` आती है ॥ ७॥ | | तुखना–““प्रचडांञ्चः कामे जननसमये यस्यभवतिं , प्रियायाः संतापं सपदि कुरुते तस्य सततम्‌ । तथा कष्टं ॑देहे हदि परमचिन्तामपिखत्णद्‌ 5 अनस्प व्यापारादपि च परमायाति न धनम्‌ ॥ भीवत्ाथ अथे–जिस मनुष्य के जन्मसखमय मे जन्मल्य्र से सातवे स्थान मे सूर्य होतोदइसकीख्रीको कष्ट, इसके शरीरमें कष्ट, तथा दुष्टौ के कारण इसके मन मेँ चिन्ताहोती हे | चाद कितना ही क्रय-विक्रयरूपी व्यापार से धन कमाने कायत करे तौ भी इसे परचुरमाच्रा मे धनप्राप्त नदीं होता रै । ““ल्रीकृत स्वविख्यो तरपमीतो सुग्युतो रिपुतोऽस्तगतेऽकं ।।> जयदेव अथे- जिस मनुष्य का जन्म सततमभावस्थ सूर्य॑के प्रभावमे होता है उसके छिए खरी ही सवसव होती है वह अपने अस्तित्व को खो चैठता है ओर स्री म अपना विलय कर देता है । इसे राजासे भय होता है। इसे रोग होते है । इसे दात्रुनाधा भी रहती है । ये सम्पूणं अ्चभफल सत्तमसूयं के ई । “न्त्री द्वेषी मवनस्थिते दिनकरेऽतीव प्रकोपी खलः ॥* व॑घ्यनाथ अथ– जिस मनुष्य के जन्मलग्न से सातवें स्थान में सूर्॑दहोतो इसका लियो से वैमनस्य रहता है अर्थात्‌ यदह लियो का तिरस्कार करता है) यह

४६ चमत्कारचिन्तामणि का तुरखनात्मक स्वाध्याय

अत्यन्त क्रोधी ओर खल अर्थात्‌ दुर्जन होता दहै । अर्थात्‌ सस्तमभाव का सू पतिपत्ती मे अनवन-छडा-माखठवां रखता है-षेसा होना दोपत्य सुख का बाधकं ह । “श्रीभिः गतः परिभवं मदगे पतंगे? | बाचार्यंवराहमिहिर अथं-जिसके जन्मसमय में ट्म से सप्तमसूर्धं हो तो इसे ल्यं से तिरस्कार अर्थात्‌ अनादर प्रात होता है । अर्थात्‌ सिय इसकी ओर नजर उठाकर भी नदीं देखती हँ । अर्थात्‌ यह च्िर्यो का ध्रणापात्र होता हे । ““नरपविसद्धं कुतनु यस्तेऽध्वगमद्‌ारं ह्यवमतम्‌ ।।2 मंत्रेश्वर अथे– जिसके जन्मल्य से सातवे स्थानम सूर्यहो तो यह राजा से विरोध रखता हे । अर्थात्‌ इसके आष्वरण से राजा इसके विरुद्ध होता है ओर इसे दण्डित करने के लिए को न कोद निमित्त द्वंटृता दै ओर अन्ततः दण्ड रेता हे । भाव यह है कि राजा द्वारा दण्डित होने के कारण इसका मान इसकी प्रतिष्ठा धूल में मिल जाती दै, ओौर यह सवत्र अपमानित होता दहै । यदह शरीर से दानीय नदीं होता है। यदं पैदल चठ्ता है क्योकि इसे सवारी का सुख नदीं होता दै । यदह खरीहीन होता है । घर-णहस्थी तभी चलती है यदिस्रीका सहयोग प्राप्त हो । खरी के अभाव में पुरूष धर्म-अथं ओौर काम से वञ्चित रद जाता है । “भार्या त्रिवगं करणम्‌? एेसा वष्वन है । यद्‌ सर्वत्र अपमानित होता हे । मन्तेश्वरजी के अनुसार सप्तमरत नेष्ट दै | ‘सतमेऽके कुदार दुष्टप्रीतोऽल्पपुत्रकः | गुह्यरोगी सपापश्च जातको हि प्रजायते 12 काशिनाथ

अथं– जिसके जन्मकालमे ल्यसे सूर्यं सप्तमस्थानमेदहो तो मनुष्य को सच्छीखरीके साय संसारयात्रा करने का सौभाग्य नहीं मिल्ता है । अर्थात्‌ इसकी स्री दुश्रसिा होती है। प्राचीन भारतमें खी का सर्वोत्तमगुण उसकी सचरित्रिता थी । पातित्रत्य इसका भूषण था । ठ्जा इसका “अल्छ्ारः था । यह्‌ पतिप्रिया ओर भ्रियवादिनी होती थी। जिस मनुष्य के सूर्य सक्तममें हो उसे एेसीचखीं का सहयोग प्राप्त नद्धं होता है व्यहं गूटुतात्पर्यः कुदारः? विदोषणका दै |

इस मनुष्य के प्रेमपात्र दुष्ट खेग दोते दँ । इसे पुत्रसुख थोड़ा मिक्ता हे । यह गुसरोगों से दुःखी रहता दै–अर्थात्‌ इसे उपर्द॑श, प्रमेह आदि रोग होते ह । यह पापी-पापकर्मा होता दै । ‘“उुवतिभवन संस्थे ास्करे ल्लीषिखसी, न भवति सुखभागी व्व॑चलः पापशीलः । उद्रसमदारीरो नातिदीर्घो न हस्वः, कपिलनयनरूपः पिगकेशः कुमूर्तिः ॥

. लानसायर

अथ यदि मनुष्य के जन्मसमय में जन्मल्य से सूर्यं कल्त्रस्थान में

अथात्‌ सत्तमभावमें स्थितद्ोतो मनुष्यको खरी का भोग-उपभोग मिख्ता

सूुयेफल ७

दै । किन्तु यह सुखी नहीं होता दै । यह अस्थिर स्वभाव का आर पापकमं कर्ता दहोता ३ै। उद्र ओौर देह एक बराबर होते है, यदह मनुष्यन तो बहुत लम्बा होता है ओर नदी छोय होता है। इसका रूपरंग भौर ओख कपिर होती दै । इसके केश पीठे होते दै ओौर यह कुरूप होता है । मानसागर के अनुसार सप्तमभाव का सूयं पतिपत्री का सौमनस्य कायम रखता है अन्यथा मनुष्य को स्री का उपभोग कयोकर मिल सकता है । स्रीसुख का होना सप्तमभावस्थ सूयं का श्चभफर है– यदह भावार्थं दहै । “निःश्रीकः परिभूतः कुशरीरो व्याधितः पुमान्‌ चुने । गृपबन्धनसन्तसोऽमागेरतो युवति विद्धेषी || कल्पाणयर्मा अथै–यदि सप्तमभावमे सूर्यहो तो मनुष्य, लक्ष्मी से वञ्चित रहता है, अर्थात्‌ निधन होता दै । लोग इसे प्रतिष्ठित ग्यक्ति नहीं समक्चते ई । रोगों के कारण इसका दारीर ठीक नहीं रहता है । राजा से तथा कारावास से सन्ताप होता है । यह कुमागंगामी होता है । इसे अपनी सनौ से अथवा सियो से प्यार नहीं होता है। अर्थात्‌ इसका लियो से वैमनस्य रहता है ।

“भिया विमुक्तः हतकायकांतिः भयामयाभ्यां सहितः कुशीलः । नरृपप्रकोपाऽर्विङ्शो मनुष्यः सीमन्तिनसद्मनि पद्मनीडो ॥* दुडिराज अर्थ- जिस मनुष्य के जन्मसखमय मे लप्र से सूर्यं ससम दो वह निधन होता है। इसका शरीर कांतिमान्‌ नदीं होता है, अर्थात्‌ यदह ॒रोबीे चेहरे ` का मनुष्य नदीं दोता है इसे डर ख्गा रहता है । इसे रोग होते ई । यह शुद्ध आष्वरण का मनुष्य नहीं होता है । इसका शरीर राजा के भयसे तथा दुःखों आर पीडाभों से सूखा हव्या रहता है । महेश ओर ढंदिराज का श्छोकपाठ मेँ तथा अर्थं मे अत्यन्त साम्य रहै, अतः महेश का फल नदीं छिखा है । ‘“यदासम्शखेटः स्मरस्थानगश्चितया व्याकुलो ना भवेत्‌ कामुकः । सदाक्षीयते कामिनीभिः महावष्वको युद्धभूमौ चलोजम्बरः ॥” खानसखाना अर्थ–यदि सूयं सक्तममाव मे हो तो मनुष्य सव॑दा वितायुक्त, व्याकुक, कामी, बहु-खी-उपभोग से क्षीण, ठग अौर समर मे विजयी होता हे । | श्रगुसूत्र- विवाह विलम्बनम्‌ । खरी देषी, परदाररतः, दारद्वयवान्‌ । पचर्विडातिवं देशांतरप्रवेशः। अभक्ष्यभक्षणः । विनोद्लीः। दारदरेषी | नादा तबुद्धिः । स्वक्ष बलवति एकदारवान्‌। शतुनीचवीक्षिते पापयुते वीक्षणेः बहूदारवान्‌ । अ्थै- यदि सप्तमभावका सूर्य॑ होतो विवाह देरसे होता है। मनुष्य ली से विरोध रखता है अर्थात्‌ पतिपत्ती का सौमनस्य नदं रहता हे । यद दो छि का पति होता है अर्थात्‌ प्रथमास्रीके मृदु से दितीया घरमे ल जाती है, अथवा प्रथमा के जीवित रहते ही दूसरी खी का प्रवेश होता हे ।

७८ चमत्कारचिन्तामणि का तुखनाव्मक स्वाध्याय

ठेसी परिस्थिति के अनेक कारण हो सकते है । अपनीस्नी से वैमनस्य होने से परकीयाच्िरयो मं सक्त रहता है । २५ वे वषं परदेशगमन होता दे । अभक्ष्य पदार्थो का मक्षण करता है । मनुष्य विनोदी अर्थात्‌ मजाकिया स्वभाव का होता हे । लियो के साथ विरोध रखता है । विपरीतमति तथा नाशोन्मुख होत हे । यदि सत्तभरविं स्वग्रही हो ओर वख्वान होतो मनुष्यकी पलीएकदही होती है । यदि यदह सूं शत्ुयरह वा नीचरादिगतग्रहसे दृष्ट हो अथवा किसी पापग्रह सेदच्ष्टदोतो मनुष्य की बहत ल्िर्योँ होती । टिप्पणी-आज से ४०-‘९० वपं पदे अंग्रेजी राज्य मं ओौर इससे भी बहुत पहठे का में जव यवनराञ्यसत्ता प्ूणतया शक्ति-संपन्न थी छोटी उमर मे विवाह कर देनेकी प्रथाका चलन था। हिन्दु अपनी ल्ना ओर प्रतिष्ठा को क्वान की खातिर अपनी कन्याओं का विवाह बहुत छोटी उमरमें कर देते थे, यवनराज्य में हिन्दुों की अविवादित कन्याओं का अपहरण दोता था इस यौर अनाष्वार से वष्ने की खातिर अबोध-वचियां का विवाह तभी कर दिया जाता था जव वे १०-१२ वषंकी होती थीं । इस छोरी उमर की शादियों को याय तथा धर्मशा्त्रानुचूःढ ठहराने के टिए– “अष्टवर्षा भवेद्‌ गौरी दशवष ष्व रोहिणीः आदि की दुहाई दी जाती थी। समय परितंनरीट दै विच्याध्ययन से छोगोँ मे जाखति आई । रनै-रने छोटी उमर के विवादों मे कटक दोष दृष्टिगोचर हए कदईएक कष्ट अनुभव मेँ आए परिणामतः छोटी उमर के विवाहों का चट्न बंद हो गया इसमें कानून ने भी उपयोगी सहायता की । अव विलम्ब से विवाह करने की प्रथा चल निकली है। इस समय यह प्रथा प्रौदावस्था मे है। मनपसंद शादी करने का विष्वार प्रायः जनमतानुकरल हे । बी.ए.एम-ए.बी.टी.वी.एड उपाधिप्रा् ठड्किर्यो स्वेच्छानुकूक वर-प्राप्त करने कौ अमिल्पा में प्रौटा हो जाती ह । इसी तरह मनोऽनुकूल्म ठ्डकी प्राप्त करने कणे इच्छा से ल्ड्के भी पूर्णतया यौवनारूट्‌ हो जाते दै । यह समय का पयितंन है । भ्ररुसूत के अनुसार सप्तमभावस्थित सूं विवाह में देरी करवाता है। जिनका विवाह विलम्ब से होता है क्या इनके सप्तमभावमें सूर्य हे? यह एकः विचारणीय विषय है । इस पर दैवज्ञ विष्वार करेगे | “दारदेषीः यह विदोषण उस समय की ओर संकेत करता है जब पति-पल्ती मे परस्पर नेविककल्ह ओौर ्लगड़े होते है ओौर अन्ततः ध्विवाह विच्छेदकः कानून का सहारा लिया जाता है । विवाह विन्छेद्‌ से पति-पत्ती को क्या सभ होता है इसका अनुभव तो उन्है ही होता है जो इसके पक्ष मे ई । मेरे विष्वार से तो दम्पति में कठहजन्य वैरभावना को जागत करने के छिए तथा पतित्रत अओौर एकनारीव्रत की मावनां को निसत्साहित करने के छिए ओौर विभाजन

४1 सूयंफक ४९

को प्रोत्साहन देने के टखिएः ओर आयय॑सभ्यता की जड़ को कायने के लिए यह एक सामाजिकं द्रोह हे ।

भरगुसूत्र-“एकपलीः “दो पिरयो एवं बहुपनिर्यो की कल्पना करता है । सूर्यं स्वक्षेत्र ओौर बलवान्‌ हो तो पुरुष का एक ही विवाह होता है । मेष, सिह ओौर धनुकारविदहोतोदो विवाह होतेह ।

यदि इस भाव के सूर्य॑पर रात्रुग्रह की, नीचराशि स्थितग्रहकी दृष्टि हो तो अथवा इस भाव के सूयं का सम्बन्ध किसी पापीग्रह के साथदहो तो पुरुष .. जहुत-सी लियो का पति होता हे ।

इस संदभ॑ में यह कह देना उचित होगा किं पुरुष के लिए “एकनारीवतः ही आदश दहै। प्रथमासेसंतानन हो तो पु्रप्राप्तिके छिएदो विवाह मी किए. जा सकते रै । . इस पन्त में दोनों खिरि्यो जीवित दोगी । बहूुनारीविवाह तो गरहस्थ में वैमनस्य ओर कर्ह को जन्म देता है। परिारसुख मं केटक हो सकता है.आओौर होता है । बहुनारीविवाह की जड़ मं कामवासना-वृति के धिना ओौर कोई लभ नदीं । खानखाना के अनुसार बहूुनारी भोग तो वीर्यक्षीणता का कारण होकर पुरुष के क्षय का कारण दो सकता है ।

यवनमत–चिता से प्रस्त, कामासक्त; दुब, बहुत बोखनेवाला ओर संम्राम मे जय पानेवाखा होता है । इसकी स्री दुर्बल होती है ।

पाश्चास्यमत-अमिमानी पति या पली, उच ओर भव्य आष्वरण के साथ उदारता, उ्योग सर साक्चेदारी मेँ यशप्राि, ये फल सत्तम रवि के है । किन्तु बहुत-सा फल रवि की राहि पर ओौर अन्य ग्रहों की ष्टि पर निर्भर है ।

विचार ओर अनुभव-हमारे पराचीन अ्रन्थकायो का मत है कि सत्तम- स्थान का रवि अश्भफल ही देता है । किन्तु पाश्चात्य दैवज्ञो के अनुसार रवि शुभ फल ही देता है । प्राचीन भ्रंथकायों के अञ्यभफ़ल मेष, सिह, मकर राशियों मे अनुभव में आते ह ।

सप्तमभाव का रवि यदि मिथुन, वल ओर कम्म मे हो तो मनुष्य रिष्ा- विभाग में प्रगति करता है। अधिकारी तथा कानून का विरोषक्ञ होता है । संगीत-नाय्य-रेडियो आदि आमोद-प्रमोद्‌ के साधनों मे प्रगति करता है । इसे ए्क’वादो संततिहोतीदैवा होतीदीनहीं।

४५५ सिः धनु मं यह रवि होतोदो विवाह दहोतेर्दै। एकी विवाह बहुत विल्व से अधिक आयुमे होता है। यह पुरुष स्वतं्रतापिय होता है- नौकरी करना नदीं चाहता ।

खीराशि्यो मेँ विदोषतः वृष, कन्या, मकर मे रवि होतो व्यापार में लाभ

होता दहै) मनुष्य चुनाव म सफल होता है। जनपद वा विधानसभा सें चुनाव खडकर आता है ।

९१० चम स्कारचिन्तामणि का तुखनात्मक्‌ स्वाध्याय

यदि ससमसू्यं कक, बृ्चिकवा मीनमेंदहोतो मनुष्य डाक्टर होता है, अथवा विज्ञानविषयक पदवी पातादहै। नहर का अधिकारी होता रै । ऊपर चसा फक रादिविरोष का है । सामान्यफठ; सव रादरियों मं निम्नलिखित हे -सतमरवि प्रभाव मं आद्र मनुष्यकी चरी प्रभावदालिनी, व्यवहार सौर वर्ताव मं अच्छी आपत्तिके समय पतिका साथ देनेवाटी;, अतिथि सत्कार करनेवाली दयाद्-नौकरां से अच्छा काम निकार ठेनेवाटी होती हे। किन्तु धन-प्रिया दोती दह ओर रुपए पेसे पर अपना स्वत्व रखनेवाटी होती हे । इसका रूप-रंग भी अच्छा होता हे ।

समय के परितंन से अव प्रीतिविवाह का चलन हो गया हे, ठ्डके- लडकिर्यो मनोऽनुकूक मनपसंद विवाद क लिए बहुत अधिक आयु तक कुरा रह जाना पसद करते है | म्रीतिविवाह होने पर किसी बात पर परस्पर वैमनस्य हो जाने पर विवादोच्छेदकः कानून का सहारा केने के छिरः भी उद्यत रहते है । यह परिरिथति तव होती दै जव सतमभाव का रवि मेषः, सिह, धनु ओर मीन काद्ो1 इन राचियां का रवि मनुष्य को अपमानित करवाता द-श्वश्चुर के धर पर रहने को मजवूर्‌ करता है । ओौर भी कई प्रकार से अपमान होता हे।

वृष; कन्या, मकर, कक, वृश्चिक ौर मीन का रविदह्ोतो आयु के ० वे वषं तक काम-धंधा वा नौकरी अच्छे चकते दै-तदनन्तर सभी कुछ वंद हो जातादे। पुरुषरारि के रवि में सदैव उतार-चटाव ख्ये रहते दै । ५०-५२ मेखीकीमृस्युददोती दै । कई प्रकार की कठिनादयोँदहोती रहै, तौ मौ दूसरा विवाह नदींदहो पाता।

यरा तक सन्तति का सम्बन्ध द पुरुषरारिके रवि मं सन्तति थोड़ी होती हे । किन्तु स्रीराशि क रवि में सन्तान अधिक होती है|

अ्मभाव-

“क्रिया रस्पटं स्वष्टमे कषटभाजं, विदे इीयदारान्‌ भजेद्‌ वाप्यवस्तु । चसुक्षीणता दस्यु तो वा विङभ्वाद्‌, विपद्‌ गुह्यतां भातुसुप्रां विधत्ते”! ८॥ अन्वयः-अष्टमे तु भानुः क्रियाम्पटं कष्टभाजं ( च ) ( नरं ) विधत्ते | ( सः ) विदेरीयदारान्‌, अवस्छ॒ वा अपि भजेत्‌ ( तस्य ) अविल्भ्बात्‌ दस्युतः वमु्लीणता भवेत्‌ । भानुः उग्रां विपद्‌ गुद्यतां वा विधत्ते ॥ ८ ॥

सं< टी2–यथ अषटमभावफल्म्‌-अष्टमे मृतिभावे भानुग्रदे क्रियाटम्पर व्यवहारे अतौवधूर्तं अतएव कषटमाजं, क्रितं विधत्ते करोति । तथा विदे- सीयदाराः गणिका, अथवा अवस्तु अभक्ष्यं अपि भजेत्‌ | दस्युतः विख्म्बात्‌ अर्थात्‌ जनालस्यात्‌ वा वसुश्चीणता, द्रव्थदीनता, गुह्यता, विपत्‌, परखीकृत इन्दिय विषथक बातवीजजन्यक्ठेदाः च अष्टमे रवौ स्यात्‌ इत्यन्वयः | ८ ॥

अ्थ–जिस मनुष्य के जन्मल्य से आयवे स्थान मं सूर्यं हो वह्‌ व्यवहार

सूयंफर ५५३

अतीव धूतं अर्थात्‌ चारक होता है । यह सर्वदा कष्ट भोगता ३ । यद विदेशीयसति्यो से सम्बन्ध जोड़ता है । यद अमक््य वस्तुं का सेवन भी करता हे । इसका धन बहुत शीघ्र चोरी हो जाता दै । इस पर कठिन ओर गुस विपत्ति भी आ पडतीदै॥ ८॥ रिष्पणी–अष्टम स्थान दुष्टस्थान माना गया ह | इसे. मत्युस्थान कहते हे । यह मूलतः नाशस्थान दै, भतः इस भाव के फर बुरे हौ है । इस भाव के सूयं का मनुष्य कपाटिया, ठग॒ ओर चालक होता है। इसे दूसरे रोगों को टगकर बहुत आनन्द मिक्ता हे । यह दूसरों के किए अनर्थकारी मौर कण्टकारी होता है । मतव इसे स्वयं मी सदैव कष्ट भोगना पड़ता है ¦ भ्पापौ मूलनि- कृततिः एेषा सुभाषित हे । अष्टमभाव का सूयं परदेश यारा करवाता ड । मनुष्य पर॒ यौवन कां भूत ` सवार होता हे । अतः परदेश मे परदेशीय परकीया रूपाजीवा दियो से अवैध सम्बन्ध जोड़ता दै । इन यौवनौन्मत्त युवतियों के साथ सहवास करतां है । इन्दे प्रसन्न रखने के छिएट इनके कहने पर अभक्ष्य तथा अयाह्य पदार्थो का आनन्द ठेता ह । परिणाम यह होता हे कि इसे गुह्यरोग आ घेरे है । इसके शरीर की शक्ति क्षीण हो जाती है-यदह्‌ आलस म इना रहता है ओर अपने आपकी ओर अपने धन की रक्षा करने मे असमथ होता है । इस परिस्थिति का लाम उखाति इए बोर इसकी चोरी करते दै, इसका धन लट छेते है । प्रथमत; परदेशीय धनपिपासु-रोगग्रस्ता रूपाजीवा युवतियोँ इसका धन-यौोवन टट्टती हे । तदनन्तर रदा-सहा इसका धन चोर दटटकर्‌ ठे जाते है । इस तरह इस पर सभी मकार की विपत्तियं भाक्रमण करती हँ । इसे. असाध्य , गुह्यरोग होते है, जिनसे अन्ततः यह अकाल्मृध्यु का रिकार होता है। वुखना–“खतावके ककेश्वरतनुसमा कातिविरतिः , क्रियादिः प्रभवति वसुक्ेण्यमभितः । गुदे रोगाधिक्यं खड पुरवधूमिश्च रमणं विदेशो संवासः कलिरपि जनैः यस्य जनने |” आवनाथ अथे–जिस मनुष्य के जन्मसखमय मेँ जन्मठ्य् से आस्थान मे सूरय हो तो मनुभ्य का शरीर एेसी कांतिवाल्म होता है जैसा चन्द्रमा का विम्ब काम्ति- यक्त होता है–अर्थात्‌ मन्य न्द्र शरीरवाल् होता है । यह काम करने मं तीश्ण नहीं होता प्रत्युत इसकी इद्धि इसे अकर्म॑ण्यता की आर छ जानेवाटी होती है । चारों भरसे इसके धन कानाश होताहै। इसे गुदरोग अर्थात्‌ नवासीर्‌ होता है । यद्‌ अपने पुर मे रदनेवाली परकीया लियो से सहवास करता है । यह विदेश मं वास करता है । यह लोगों से ठ्डता-क्गडता है ¦ “स्वल्पापत्यः दीनदक्‌ वित्तमांश द्वेषी रोगी कार्यवान्‌ अष्टमस्थे ॥» जयदेव अथं–जिस मनुष्य के जन्मलग्न से भावे खान में सूरय हो तो इसे खन्तान

५२ चम स्कछारचिन्तामणि का तुख्नास्मक स्वाध्याय

थोड़ी होती दै । इसकी दृष्टि ( वीनाई-नजर ) कमजोर होती है । यह धनवान्‌ होता दै । यह लोगों से विरोध करता है । यह रोगी होता हे । यह कमट होता दे अर्थात्‌ आलसी ओर चिटद्छा बैठनेवाला नदीं होता है । ““स्वत्पात्मजो निधनये विकलेक्षणश्च | आचायं बराहबिहिर अथै-चिसके अष्टममावमें सूर्यदहोतो इसे पत्र संख्याम थोडे दहोतेरहै। इसे ओखां के रोग होते है| “टत धनायुः सुद्टदमर्को विगतदष्टिः निधनगः 22 मन्त्रेश्वर अर्थ- जिसके जन्मख्य से आवें स्थानम सूर्यहोतो इसे थोड़ा धनः थोड़ी आयु, ओर थोडे मित्र होते है । इसकी नजर कमजोर होती हे । मनोमिरामः कद प्रवीणः पराभवस्थे च रवौ न वप्त: |” वद्ययनाय अथं– जिसके अष्टमस्थान में सूर्यदहोतो यद मनोहर होता है। यह क्डन-ज्गड़ने मे विदोष चतुर होता है । किन्त॒ यह कभीभी सन्तुष्ट नहीं दोता है। “नेतात्पत्वं दातुवर्गाभिद्द्धिः बुद्धिभ्रांशः प्रूरषस्यातिरोषः । अर्थात्पत्वं कादर्यमगे विंरोषादायुः स्थाने पद्यिनी प्राणनाथे ।1”2 दु टिराज अर्थ- जिसके अष्टममाव में सूर्यदहो तो इसे हष्िमान्य रोग होता है। इसके राचुओं कौ संख्या में अधिकता होती है । यह बुद्धिद्ीन तथा अव्यन्त क्रोधी होता दै। इसे धनप्रापि प्रचुरमात्रा म नदीं होती । यदह दु्रटा- पतला होता है । “धिकल्नयनोऽष्टमस्थे घन-सुख-हीनोऽव्पजीवितः पुरुषः । भवति सहखमयूखै स्वभिमतजनविरह सतस; ॥।” कल्याणवर्मा अथे–जिसके अष्टममावमें सूर्यहो तो यह नेचरोगी होता है। यद नी ओर सुखी नहीं होता है । यह अल्पायु होता है । अपने प्यारे सजन के वियोग से इसे संताप होता है । अर्थात्‌ इसका कोई प्यारा जीव मरता है जिससे इस भारी मानसिक खेद ओर सन्ताप होता है । निधनगतदिनेरो चञ्चलः त्यागरीटः किलबुधगणसेवी सर्वदारोगयुक्तः । वितथ बहूुलमाषी भाग्यहीनो विशीखों मतियुतषििरजीवी नीष्वसेवीप्रवासी |> मानघागर ९ ल =+ अ्थ- जिस मनुष्य के जन्मख्य्र से आ्वें स्थान में सूयं हो तौ वह चञ्चल स्वभावः दानी- पण्डित ओौर विद्वानों की सेवा मं रहनेवाल-सदैव रोगी-बहूत- मस्याभाषण करनेवाला, अभागा, अआरणदहीन, मतियुक्त, तथा लम्बी उमर-

वाख होता है । इसे नीष्ववृत्ति रोगों की सेवा करनी पड़ती है । यह परदेश मं वास्त करता है ।

सूयंफल पद

“नेत्रास्पत्वं शजरुवर्गाभिन्रद्धि बुद्धिभ्रंशः पूरषस्यातिरोषः ।

अ्थास्पत्वं काश्यमंगे विशेषादायुः स्थाने पद्िनी प्राणनाथे ॥> महे

अथे–जिसके अष्टमभाव मं सूर्य स्थित हो तो मनुष्य, मंददष्िवाख, बहुत रतुओं से पीडित, मूख तथा सत्यन्त कोधी होता रै । इसे बहुत धन नहीं मिर्ता हे । इसका शरीर विरोषतया दुर्बल होता है ।

““य॒दा सम्दाखेटो भवेत्‌ मौतखाने मुशाफिर्विरो श्चुततृषापीडितो दि ।

सदो्योगहीनो महाल्मगरः स्वीयदेशो विदायान्यदेरायनः स्यात्‌ ॥ खानखाना

अथं–यदि सूयं अममाव -मे हो मनुष्य भूखा-प्यासा होकर धूमता- करता ह । सवेदा उच्योगरषित, अतीव दुबल, अपने देश को छोड़ कर दूसरे देर मेँ धूमनेवाल होता दै ।

श्रगुसृच्–अस्प पुत्रः । नेचरोगी दशमे वषं रिरोत्रणी । ्यभयुत दष तत्परिहारः ¡ अस्पघनवान्‌ । गोमदहिष्यादिनाशः। देहे रोगः। ख्यातिमान्‌ । भावाधिपेबल्युते इष्टक्षे्रवान्‌ । स्वोच्चे स्वक्षेत्रे दीर्घायुः । `

अथे–यदि अष्टममाव मे सूर्यं हो तो मनुष्य को पुसख थोड़ा होता है । यह नेजरोगी होता हे । दवें वषं इसके शिर पर व्रण होता है । इस रवि का छभग्रह के साथ योगहो तो शिर पर व्रण नहीं होता है। यह अस्पधनी होता हे । इसके चौपाए जानवर गौ-भस आदि की हानि होती है । दे में रोग होते दै ¦ यह प्रसिद्ध होता हे । यदि मष्टमे् बल्वान्‌ हो तो यद अच्छी खेती-बाड़ी का मालिक होता है । यदि यह रविं अपने उच्च मेँ हो, अथवा स्वक्षेत्री हो तो मनुष्य दीर्घायु होता है|

यवनमत्‌– परदेश में भूख-प्यास से मारे-मारे फिरना पड़ता है । बहत भट्कता है ओर दुभ्खी होता है |

पाश्चात्यमत- प्रति वा पत्नी बहुत खर्वीठि होते. ह । मङ्गख की युति वा पूरी दृष्टि हो तो आकस्मिक मृत्यु की सम्भावना होती है ।

विचार ओर अनुभव–पाचीन ग्रन्थकारो ने ‹ अष्टमस्थान का रवि अञ्चम फठ् देता है” एेला कदा है क्योकि मूलतः अष्टमस्थान नाश-स्थान माना गया हे। ये बुरे फल मेष, सिंह ओर धनु मेँ मिते ई । मिथुन, वख ओर कुममं कुछ कम मिकर्ते ई । खरीरारियों मे सामान्यतया अच्छे फठ मिलते ई । | |

मिथुनः कंक, धनु ओर मीन मे सावधानता मे मोत होती है। मेष भौर सिंह मेँ क्चटके से मौत होती हे । इनसे अन्य राशियों मेँ बहुत लम्बी बीमारी के अनन्तर कष्ट से मौत होती है। | |

पुरुषरारि के रवि मे घर की गोप्य बातें नौकरों द्वारा बाहर निकल जाती दै । अथवा स्री द्वारा भी गुप्त बतं दुसरे जान रेते ई! पुरुषराशि का रवि हो

५५४ चमर्कारचिन्तामणि का तुरखुनाव्मक्‌ स्वाध्याय

तो खी स्वयं पेसे के किए, अथवा पति की पैसे के जरूरत को पूरा करने के किए; अथवा अपना कोड काम निकालने की इच्छासे परपुरुषगामिनी मी होतौ दे। अष्टपभावके रविसे खरी की मृत्युसे पिले पुरुष की सूत्यु होती हे। किन्तु धनस्थानमें रविदहो तो पुरुष की मृत्यु खरी के वाद्‌ होती है।

अष्टमभाव का रवि ब्द्धावस्थामें दखद्ितायोग करता हे | अथौत्‌ जेसे € येने अर सूयं का अस्त होतादहे वैसे दही पुरुष केभाग्य कामी अस्त हो जाता हे । एेसा ५० की आयुमें होता दै। |

खीराशि का सूयं हो तो सन्तति अधिक होती हे। पुरुषरादि कै र मे सन्ततिं वहत कम होती है । पदिली उमर मे शारीरिक कष्ट बूत होते । नवमभाव–

“दिवानायके दुष्टता कोणयाते न चाप्नोति चिता विरामोऽस्य चेतः । तप्धर्ययाऽनिच्छयाऽपि प्रयाति क्रियातुंगतां तप्यते सोदरेण” ॥\॥

अन्वयः-दिवानायके कोणयाते दुष्टता ( जायते ) अस्य चिता विरामः चेतः न च आप्रोति। अनिच्छयापि तपश्चर्यया क्रियातुंगतां याति; सोदरेण तप्यते ॥ ९॥

सं2 टी अथ नवमभावफलम्‌-दिवानायके सूर्यं कोणयाते नवमस्थे स नरः अनिच्छयामनोभावरदहितया तपश्चयंया क्रियातंगतां क्रियाश्रेष्ठत्वं ज्ञापकः व्यवहारेण तुंगतां पूज्यतां प्रयाति । दाम्भिकत्वेऽपिं लोकमान्यः स्यात्‌ इति मावः । तथा सोद्रेणभ्रात्रा देतभूतेन संतस्ः स्यात्‌ । यतः दुष्टता परद्रोहत्वं अतएव चिन्ता विरामः शांतिः अस्य चेतः नैव आप्नोति । अत्र कोण शब्देन त्रित्रिकोणं विवक्षितं वेदितव्यं इयर्थः

अथे :– जिस मनुष्य के जन्मसमय मेँ जन्मल्म्र से सूर्यं नवमस्थान में हो तो नवमस्थान सूर्यं के प्रभाव मे उत्पन्न यह दुष्ट होता है। यदि कभी इससे शमक्म॑हो भी जावे तो यह पुण्यकर्म इसकी पुण्यमूृलक इच्छा का फर नहीं होता हे । इस छ्भक्म के मूरू मे दभ दोता है-दिखावा होता रै– खगो के ठगने के छर दोग होता है । पन्त उस ॒टौग का फल भी उसकी मान-प्रतिष्ठा ओौर यश्च का कारण हो जाता है। रोग इसकी बड़ाई करते है । खग इसे धार्मिक आर सुकर्मौ मानने ख्ग जाते ह । चूँकि इसकी तपस्या छम- भावनामूलक नदीं होती, अतः इसका चित्त अशान्त द्यी रहता है । इसका व्यवहार अपने सगे भाइयों से मी दुष्टतापूणं कपटतापूणे होता है । परिणामतः इसं सगे भादयों से भी संताप दी प्राप्त होता है। चिन्ता बराबर बनी रहती है । इस तरह नवमभाव का रवि अञ्चभफल दाता होता है ॥ ९ ॥

सूयंफल प्म

तुखना-““जनुकाठे जंतोः नवमभवने वासरमणौ ` वहिर्योगेनाङं सकट जनपूञ्यत्वमभितः । तथा चिन्ताधिक्ये भवंति सहजेैरन्यमनुजैः प्वासादुद्धियं दृदयमपितप्तं कषितितठे ॥*> जीवनाय अथं– जिस मनुष्य के जन्मसमय में सूर्यं नवनभावमें दो तो यह बहि- योग के द्वारा सब रोगों मे पूजित होता है । परन्तु सहोदर भाईयों से तथा अन्य रोगों से चिन्ता बराबर बनी रहती है । परदेश मे रहने से इसका मन उद्धिय ओौर सन्त्रप्र रहता है । | रिप्पणी– यहो पर बहिर्योग से हठयोग मन्तव्य हो सकता है । योग- दशनम योग का लक्षण चित्तवृत्ति निरोधः किया गया है “्योगध्ित्तबृत्ति निरोधः । अर्थात्‌ प्राणायाम आदि से चित्तवृत्ति अहि्खी न होकर तथा अन्तमुंखी होकर आत्मा से जुड़ जावेतो योग होता है! नवममाव के सूयय के प्रभाव मे उत्पन्न मनुष्य बाह्यचृत्ति होता हुआ भी यदि योगाखन करता है तो भी द्रष्टं की दष्ट मे मानास्पद हो जाता दै। “बहिर्योग शब्द एेसे पुरुष का भी स्मरण करवा सकता है जिसका वणन नीतिकार ने निन्नक्खित किया दहै - “मनस्यन्यद्‌ वष्वस्यन्यत्‌ कमेण्यन्यद्‌ दुरात्मनाम्‌ ॥ अर्थात्‌ एेसा दांमिक मनुष्य जो हर समय, हर बात मं गिरगट की तरह शकल बदलता रहता दै । यह नवमस्थ रवि का फर नितान्त बुरा है । °नवमस्थे रवौ जातः कुकर्म भाग्यवर्जितः । वि्याविवेकहीनश्च कुशील प्रजायते ॥> क!लक्लिनाथ अर्थ– जिसके नवमभाव मे रविं हो वह बुरे काम करनेवाला, अभागा, विद्याहीन, विवेकदीन ओर आष्वारहीन होता है । ८”धन-पुत्र-मित्र-भागी द्विजदैवतपूजनेऽतिरक्तथ । पित्रू-योषिदिदवेषी नवमे तपने सुतस्ः स्यात्‌ ॥> कल्याणबर्मा अथै– जिसके नवममाव मे रविदो तोइसे धन का सुख ओौर पुत्रसुख प्राप्त होता है । यह देवताओं ओौर ब्राह्मणों का आदर करता है। इसे पितासे ओौर खी से परेम नदीं होता है अर्थात्‌ इनके साथ विरोध रखता है । भौर यह अशान्त रहता हे । न “°विजनकोऽकं ससुतबन्धुस्तपसि देवद्विजमनाः ॥”> मंतरेश्वर अथं–जिसके नवमभाव मेँ सूर्यं हो तो इसके पिता की मृत्यु होती है । से पुत्रसुख ओौर बान्धवो से सुख मिठ्ता है । यह देव-त्राह्मण-भक्त होता है । “सापत्याथः सत्सुतः सौख्यधीमान्‌ धमेभानौ मातृवरेऽखित्‌स्यात्‌ ॥° जयदेव

५५६ चमव्कछारचिन्तामणि का तुखनाव्मक स्वाध्याय

अथै–यदि मनुष्य के नवमभावमें रविदहोतो इसे सन्तान ओर धन दोनों होते है । इसके पुत्र सर्वथा योग्य होते ह । यह सुखी ओर बुद्धिमान्‌ होता दै। किन्तु इसके सम्बन्ध मात्रकरुल से यच्छे नहीं रहते प्रत्युत इसका व्यवहार ओौर बरताव मामा-मामी आदि से शत्रु जेसा होता हे। रिप्पणी– “सत्‌ सुतः– श्रेष्ठ॒सन्तान का होना परूवंजन्मकृतपुण्यों का फर होता दै-““पुण्य तीरथ कृतं येने तपः क्राप्यति दुष्करम्‌ । तस्य पुत्रौ मवेद्वद्यः समृद्धोधार्मिकः सुधी ॥ > रेता नीति उचन है । “श्वम सुताथं सुखभाक्‌ खखरोयंभाक्‌ ॥” आचायं वराहमिहिर अथे-जिसके नवममाव में सूयं हो तो इसे पुत्रसुख, धनयुख ओौर शौर्ययुख प्रास्त रहता हे । यह सुखी होता दै। ˆसाध्वाचार विरोधं रुजः प्रदो देन्यङ्रद्‌ नवमस्थः ॥> घत्याचायं अर्थ- जिसके नवमभावमें रवि होतो इसे सदाचारसे विरोध होता है। यह रोगी ओर दीन होता है | “आदित्ये नवमस्थिते पित्रू-गुस-देषरी विधर्माश्रितः |” वंद्यनाय अथ- जिसके जन्मल्य से सूयं नवमस्थानमेंदहोतो यह पिव्रविरोधी तथा गुरुविगोधी होता है । अर्थात्‌ इसका गुखुजनों से वैमनस्य रहता है । यह अपने कुल्परम्परागत धर्म को छोड़कर दूसरे के धमं को अपनाता है । अर्थात्‌ विधर्म हो जाता है| ^“ग्रहगतदिननाये सत्यवादी सुकेशी कुखजनहितकारी देवविप्रानुरक्तः । प्रथमवयसि रोगी यौवनेस्थेय॑युत्त) वहुतरधनयुक्तो दीधजीवी सुमूर्तिः ॥” मानसागर अथं- जिसके नवममाव मं सूरं हो तो यदह मनुष्य सच्यवक्ता सुन्दर केदो वाखा, कुक के लोगों का हित चाहनेवाख, देवताओं ब्राह्मणों मं श्रद्धा रखनेवाला होता है। इसे वष्वपन में रोग होते हँ । युवावस्था मे सिरता होती है–यह घनाव्य, दीर्घायु तथा रूपवान्‌ होता हे । ““घर्मकर्मविरतश्च सन्मतिः पुत्रमिच्रजसुखान्वितः सदा । मातृवर्गविषमो भवेनरः त्रित्रिकोणभवने दिवामणौ ||” दंडिराज अथे-नवमभावस्थित रवि से मनुष्य अपने ध्म मे-अपने कर्म में भरद्धा रखता है । यदह श्रेष्ठ मतिवाल-पुच्सुख तथा मित्रसुख से युक्तं होता है । थह मामा आदि के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करता है, “धर्म-कर्म-निरतश्च सन्मतिः पुत्र-मित्रजसुखान्वितः सदा । मातृवगविषमोभवेन्नरः त्रित्रिकोणमवने दिवामणौ | महै अथे- जिसके नवममाव मे सूर्यं हो तो मनुष्य कुट्परम्परा प्रात श्रौतस्मातं धम मं तथा क्रियाकाण्ड ( कर्मकाण्ड ) में रुचि र्ता है । इसकी वुद्धि अच्छी

सूयंफर ९५७

होती है अर्थात्‌ विष्वारबुद्धि इसे कुमागं से हयकर सन्मार्ग की सोर ॐ जाने- वाखीदहोतौ हे । इसे पुत्रसुख तथा मिन्सुख प्रास होता है इसका मेमवताव मामा आदि से नहीं होता है अर्थात्‌ वैमनस्य होता है। “रवो वेषखाने प्रसिद्धः सुखी मानवश्वान्यवित्तैरछं सोभते । विव्नदृन्दैः युतो माव्रपक्षात्‌ सुखं न धनाढ्यो यद्‌ जायते वोचगः ॥ ख”नखाना

अथे–यदि सूं नवमभाव में हयो तो मनुष्य संसार मेँ प्रसिद्ध दूसरों के धन सं सुखी ओर सुरोमित होता है) इसके कामे बहुत विष्न होते है | मात्रपश्च से सुख नदीं मिलता है । यदि सूर्यं अपनी उच्राशि मेषमें होतो मनुष्य धनाम्य होता है ।

गुसूत्र–सूयादि देवभक्तः । धार्मिकः । अस्पभाग्यः । पिवृदरेषी । सखत- दारवान्‌ ! स्वोच्चे स्वक्षेत्रे तस्यपिता दीर्घायुः | बहूुधनवान्‌ । तपोध्यानदीटखः । गुरुदेवताभक्तः । नीच-रिपु पापक पापैः युते दृष्टे वा पिद्रनाशः । श्चमय॒ते वीक्षण वखाद्‌ वा पिता दीर्घायुः ।

अथ–यदि सूयं नवममाव में हो तो मनुष्य सूर्य॑ मादि देवतां का भक्त अथात्‌ पूजक होता है । यह धार्मिक होता है। यह बहुत भाग्यशाली नहीं होता है। इसकी पिता से अनबन रहती ई । इसे ख्रीसुख ओर पुत्रसुख मिख्ता हे । यदि यह सूर्य उच्ररारि मे हो अथवा अपनी राशि मे हो तो इसका पिता दीर्घायु होता है । यह धनाब्य होता है । यह तपस्वी तथा ध्यानी होता दे। गुखजनों तया देवतां मे शरद्धा रखता है । ओर इनका आदरमान करता हे । यदि यह रवि नीषचराि-शतुरारि तथा पापग्रह की रारिमे हो, अथवा इस स्थान के रवि के साथ कोई पापग्रह युति करता हो अथवा किसी पापग्रह की हषटिहोतो मनुष्यकेपिताकी मृद्युदहोतीरै। यदि इस स्थान केरविके साथ श्यभग्रह का सम्बन्ध दहो अथवा इस रवि पर किसी श्चभमरह कणे दष्टिहो तो इस मनुष्यका पिता दीर्घायु होता है।.

यवनसमत- विख्यात, सुखी, देवभक्त; मामा का सुख पानेवाखा होता हे ।

पाश्चात्यमत-स्थिर, सन्माननीयः; न्यायी; ईश्वरभक्ता; बतीव मं अच्छा; जलराशि मेहो तो सागर पर्यटन करनेवाखा होता हे ।

विचार ओर अनु मव-नवमस्थान तो श्चमस्थान माना जाता दै। इस भाव में स्थित सूयं के सभी फर श्चुम होगे, एेसा नदीं है । प्राचीन ग्रन्थकारो के अनुसार नवमभाव के फल मिश्रित अर्थात्‌ मिले ज॒ठे ईदै- कुक शभ दै ओर कड एकः अश्चभ है | वेदयनाथ के मत के अनुसार नवमस्थ स्यं का फल श्धर्मान्तर कर लेनाः अत्यन्त अश्चभ दहै । वैद्यनाथ मतानुसार नवमस्थ सूर्यं की अन्तः मरणा से मनुष्य अपना परम्परागत श्रुति-स्प्रति-प्रतिपादित धमं को छोड़कर विधर्मियों के धमं को स्वीछ्कत करता है। इतिहास सक्षीरै कि यवनकाल

५९८ चमत्कारचिन्तामणि का तुखुनात्मक स्वाध्याय

मे असंख्य हिन्दुओं का धमपयित॑न हआ, तद्वार की ताकत से, प्रलोभन दे कर-चियोँ के जाल में फसाकर हिन्दुओं को स्वधर्मत्याग पर तथा विधर्मिधर्मग्रहण करने पर वाध्य किया गया। अग्रेजी राज्यम भी क्रिधिेनिटी को व्यापकधमं वनाने के किए पूर्णयत्न किए गणएट-बहत से हिन्दु सभीवर्गो के धर्मान्तर करने के लिए वाध्यहए। प्रशरहैकिंक्या यह धर्म॒ पयिर्तन नवमभावस्थित सूरय को अन्तप्रेणा से हा १ क्या इन ससंख्य धर्मपरिवर्तन करनेवाले के नवमभाव मं सूयं था १ इस जटिल ग्रश्च का उत्तर प्रकाण्ड दैवक्ञ दी दे.सर्केगे। यदि वविधर्मा्चितः का अर्थं भमिन्नधर्मावलत्रियों की नौकरी करता हैः एसा किया जावे तो परिस्थिति जटिक नहीं रहती । भारत की स्वतन्त्रता को वर्तन्नता मं बदलने के लिए वाहिरसे आए हए विधर्भियों के आश्रित होकर उनकौ सेवा में रहना तो बराबर होता चदय आया है । इन विधर्मियों के राय म हिन्दु उचाधिकारी रदे ईै- इव वात का साक्षी मी इतिहास दै । यदि स्वधमं निधनं श्रेयः परधर्मो मयावहः’ का ज्वलन्त उदाहरण वाहिए तो रिखगुखुों का जीवन खमभी वर्गो के छिए महान्‌ आदं है । आजकल विवाह के विषय में प्राचीनकाल से चठे हुए, जाति ओर धमं के बन्धन रियर, बहुत सीमा तक दीटे, पड़ गए दै । प्रीतिविवाह का बोलबाला दे । रजिस्टर विवाह के पश्च के छोगों को माता-पिता की माज्ञा मान्य नहीं हे । यह भी एक विष्वारणीय समस्या है । विवाह-विच्छेदक कानून भी माता-पिता विषद्ध चलने के छिए उनसे अनवन ओौर वैमनस्य रखने के ढिए युवक-भौर युवतियां को प्रोत्छाहन दे रहा है । ‘्पिवधेषी शुखजनदवेषीः आदि-आदि विरोषणः भन्थकारों ने नवमस्थरवि प्रभावोत्पन्न मनुष्य के छिए छ्खिरहै। यह विषय भी य हे। नवमभावस्थित सूर्यं का सामान्य फल इस प्रकार है :– पूवेवय में कष्ट, मध्यवय में सुख ओौर उत्तर आयु मं पुनः दुःख । मिथुन, तला वा कुम्भ म यदि रवि हो तो मनुष्य ठेखक, ग्रकाद(क, वा ध्यापक हो सकता है। कर्व, बृधिक ओर मीन में यह रविदहो तो कवि गरककार वा रसायन विद्या का संश्ोधक हो सकता है । दप-कन्या ओर मकरमें यह रविदह्ो तो खेतीवा व्यापार का चालक. होता हे । मेष, सिह, धनु मे यह रविं होतो मनुष्य तेना मे काम करता हे।

॥ इज्ञीनौयर होता हे । इस तरह नवमभाव का रवि कुछ न कुछ ख्यातिः ह्‌ ।

द्‌ रामभाव-

“श्रयार्तोऽद्मान्‌ यस्य मेषूरणेऽस्य श्रमः सिद्धिदो राजतुल्यो नरस्य । जनन्यास्तथा यातनामातनोतिक्टमः संक्रमेत्‌ बल्टमेः विप्रयोगः ।|१०)}

सूर्यफल ५५९

अन्वयः-अंद्यमान्‌ यस्य नरस्य मेषूरणे प्रयातः ( तस्य ) भ्रमः राजवर्यः सिद्धिदः ( स्यात्‌ ) ८ सः ) जनन्याः यातनां आप्नोति, ८ तस्य ) बहछभैः विप योगः, तथा क्लमः संक्रमेत्‌ ॥ १० ॥ सं° टी –अथ दशमभावफल्म्‌- यस्य दशमे प्रयातः स्थितः अंश्चुमान्‌ सूयः, अस्य नरस्य जनन्याः मातः यातनां रोगोद्‌भवं शं आतनोति विस्तारयति, तथा अस्य श्रमः पराक्रमः राजठस्यः सिद्धिदः चपवत्‌ सर्वाथसाधकः स्यात्‌ इत्यथः । बछ्मैः मि्नकल्न्ादिभिः विप्रयोगः ततः क्लमः ग्लानिः संक्रमेत्‌ संभवेत्‌ इतितात्पयाथः ॥ १० ॥ अथं :- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे जन्मख्यर से दशवे स्थानम सूयं होतो इसका उन्ोग राजा के समान सिद्धि देनेवाला होता है, अर्थात्‌ जैसे राजा के कायं सहज मेँ सफल हो जाते है । एेसे दी इसके कार्यं भी सफल होते ह । इसकी माताको कई प्रकारके रोग होते है इससे इसे कष्ट होता है। इसका वियोग मिन-ख्री-आदि प्रियजनोँ से होता है। इसलिए इसके चित्त में ग्लानि रहती दै ॥ १०॥ तुलखना-““दिनाधीशे राज्ये जननसमये तस्यजनके जनन्यामातिः स्यादिहनिविडायस्य सहसा । श्रमात्‌ सिद्धिः सवाँ क्षितिपति कृपाकीर्तिरवुखा , कलव्रापत्याय्रेः भवति विधुरा बुद्धिरनिशम्‌ ॥” शीवनाथ अथं- जिस मनुष्य के जन्मसमयमे सूर्यं ददयममावमें होतो इसके माता-पिता को अधिक कष्ट, परिम से सहसा का्थंसिद्धि, राजा की कपा तथा अतुलकीर्ति का खभ दहोताहै। किंत स्री-पु्ादि से अहर्निशा कटुषित बुद्धि रहती हे । “सुख-शौयं भाक्‌ रवे ॥” वराहमिहिर अथे–यदि दङ्यमभाव मे सूर्यं हो तो मनुष्य सुखी ओर बली होता दै । “’मानस्थिते दिनकरे पितरु-विम्त-शील-विव्या-यशो-वख्युतोऽवनिफट्तुस्यः” ॥ वंशनाथ अथै- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे सुय दशमभाव में हो तो इसे पिता का सुख, धन का सुख होता है। इसका आप्वरण श्चुदध, यह विद्धान्‌; यरास्वी, तथा बख्वान्‌ होता है । यह फेश्वयं आदि मेँ राजा के समान होता है, टिष्पणी- नारायण भट ओर जीवनाथ ने श्ुभ-अश्चभम मिले-जुञे फल बताए ह किन्तु वैद्यनाथ के दिए हूए फठ तथा वराहजी के सवथा शुम है । ‘द्काममुवन संस्थे तीत्रभानौ मनुष्यो गुणगणसुखभागी दान ओीरोऽमिमानी । मृदुः श्चषियुक्तो शखत्यगीतानुरागी नरपति रतिपूञ्यः रोषकाठे च रोगी ॥* मानसागर

&० चसत्कारचिन्तामणि का तुरखुनाव्मक्‌ स्वाध्याय

अथ–जिसके दछममाव मे सूर्यं हो वह मनुष्य बहुगुणी होता है, यह सुखी, दानी, अभिमानी, कोमर, पवित्र; नाषने-गाने मं मेम स्खनेवाला तथा राजा का पेमपात्र होता दै । उत्तर वयमें रोगी होता है। “(सद्बुद्धिवाहनधनागमनानि नूनं भूपप्रसादसुतसौख्यसमन्वितानि । साधृध्रकारकरणं मणिनूषणानि मेपूरणे दिनपतिः कुरते नराणाम्‌ ॥ दुंडिराज

अथे-दरमभावमे सूर्यके होने से मनुष्य श्चभकर्मो की ओर मेरि करनेवाटी बुद्धिसे युक्त होता दै। इसे वाहन खुख-तथा धन का सुख प्रास्त दोताहे। इसपर राजाकी कृपादृष्टि रदतीदहै। इसे पुतरोंका सुख प्राप्त दोता हे ¡ यह साघुस्वभावके ठोगों का उपकार करता दै । इसके घर में मणि जओौर अटेकरण ( गहने ) होते ह । अर्थात्‌ दशममावस्थरवि के प्रभाव में उतपन्न मनुष्य सवथा श्रेष्ठ-मान्य-वाहनादि से सम्पन्न होता दै । अतिमतिरतिविभववलः धनवाहनबन्धुपुत्रवान्‌ सूच । सिद्धारम्भः दूरो दशमेऽधृष्यः प्ररास्यश्च ॥?› कल्याणवर्मा अथ- यरि द्‌ रामभाव में सूयं हो तो मनुष्य की बुद्धि अच्छी धन-वैभव भी अच्छा ओौर बर भी अच्छादोतादहै। इसे धन का खख, सवारी का सुख, भरवां का खुल तथा पुत्रों से खख प्राप्त दोता है । यह जिस काम को हाय में लेता हे इसे उसमे खफ़क्ता मिल्ती दै । यद बहादुर ओर प्रशस्त व्यक्ति होता दे । उसे कोई उरा-धमका नद्यं सकता है अर्थात्‌ यह दटचिप्त होता है | ` ससुतयान स्तुति-मति-बल-यराः रवे क्षितिपतिः ॥°> मंतरेश्वर अथे–यदि सूर्यं दशमभावमे हो तो मनुष्य राजा होता है, इसे पुतो का खुख अर सवारी का सुख मिक्ता है । छोग इसकी बड़ाई करते है । यह मतिमान्‌ › वलवान्‌ तथा कीर्तिमान्‌ होता है । -धविक्रमी निगम विद्‌ भवयुक्तश्चोपकार सुखभाग्‌ गगनस्थे ॥ जषदेव अथे-दरामभाव मँ सूरय के स्थित होने से मनुष्य पराक्रमरीक, वेद-गाखर का जाननेवाल्, वैभवयुक्त, उपकार करनेवाला ओर सुखी होता है । `‘दशमेऽके बन्धुद्ीनः कुकुर्मासीख्वर्जितः । स्रीचग्वखः हीनतेजः दीनकेडाश्च जायते | काशिनाथ अथे- जिसके ददामभाव म सूर्दहो तो यदह बन्धु सुखरहित होता है । यह बुरे काम करता है इसका मारण अच्छा नहीं होता है। इसकी खी चचटन्वभाव की होती दहै। यह तेजस्वी नहीं होता है। इसके केरा अच्छे नहीं होते ह | “-सद्बुद्धिवाहन धनागमनानि नूं भूपप्रसादसुतसौख्य समन्वितानि । साधूपकारकरणं मणिभूषणानि मेपूरणे दिनपतिः कुरुते नराणाम्‌ ॥*’ महैज्ञ

सूयंफङ ६१

अ्थै–यदि सूर्यं मनुष्य के दशमभावमे हो तो इखकी बुद्धि इसे श्यभकर्मौं की ओर पेसिति करनेवाटी होती है । इसे वाहन ( सवारी ) का सुख, धन का सुख, राजा की प्रसन्नता, तथा पुत्रसुख मिख्ता है । यह साधुस्वभाव सजनो पर उपकार करता है । इसे मणियों तथा भूषणो का सुख प्रास्त होता है ।

‘ध्वौ शाहखाने धनाब्यो वफारस्तदा मोदते वाजिबरन्दैः सुखी च ।

महीपान्तिकी नेककिद युशीरो जमीर पितुः सौख्यमस्पं भवेद्‌ वै ॥>*ख’ नखाना

अ्थ- यदि सूर्यं दश्लममाव में हो तो मनुष्य धनाढ्य । सुरी तथा मुन्दर घोड़ों पर टकर सुखी रहनेवाख होता दै । यह सव॑दा सुखी, विख्यात; तथा किफायत से काम करने वाल होता दै। यदि नीषचरारि ठखा का सूयं ददाम- भावम दहो तो मनुष्य को पित्रुख पूरा नदीं होता ह।

भरगुसूत्र–अष्टाद्शवपे विन्याधिकारेण प्रसिद्धो भवति, द्रव्याजन समथश्च । टृष्टितरितः राजपियः सत्कर्मरतः राजद्यूरः ख्यातिमान्‌ । स्वोचे स्वक्षेत्रे दल्य्परः । कीर्ति प्रसिद्धः । तटाक क्षे गोपुरादि व्राह्मण प्रतिष्ठा सिद्धिः । पापक्षत्रे पापयुते पापदृष्टिवशात्‌ कर्म विन्नकरः, दु्टृतिः । अनाचारः, दुष्कर्मङत्‌ › पापी ।

अर्थ- जिसके सूर्यं दश्मभावमे हो तो वह मनुष्य पूणविद्वान्‌ होने क कारण प्रसिद्धि पाताहै। धन का संचय करने के योग्य होता है | यदि इसमाव के रवि पर तीन श्चभगरहों की दृष्टि हो तो मनुष्य राजा का पापान्न होतां हे । य्‌ श्चुभक्मौ के करने में रुषि रखता है । यह राजच्यूर भौर कीर्तिमान्‌ दोता है । यदि यदह रवि अपनी उ्रारि का हो अथवा स्वक्षेत्र हो तो मनुष्य चख्वान्‌ तथा विख्यात दता है । तालाब, कंभा, नावरी-मन्दिर आदि का निमौण करवाता है | यह ब्राह्मणो का आदर करता दहै।

यदि दशमभाव का रवि पापीग्रह की रारिमेंद्ो। अथवा कोड पापग्रह इसके साथ युति करता हो. । अथवा इस पर किसी पापग्रह की दृष्टि हो तो मनुष्य के कामों मे अडष्वनं आती ईह । यह मनुष्य बुरे काम करता है । इसका आचार शद्ध तथा पवित्र रहीं होता है । यदु पापी तथा दुष्टकमं कर्ता होता है ।

रिष्पणी– तालाब, कुआ, बावडी, मन्दिर आदि सवंसाधारण जनसमूह के दित के काम दै । इन परद्रन्यव्यय सद्न्यये है । यदि दशममावस्य सूयं की अन्तभ्मेरणा से मयुष्य इष्टापूतं पर धनव्यय करता है तो इसे मनुष्य जन्म का पूणं कम प्रास दोता है-रे्िक तथा पाररीकरिक खुख प्राप्त होते है ।

विचार ओर अलुभव–दशममाव का सूयं यदि मेष, ककं, सिंह, बृश्चिक तथा धनु में दो तो मरुष्य यदि रवीन्यू, पुट्सि, सेना वा आबकारी विभाग मे नौकर हदो तो लाभान्वित दोगा ।

य॒दि यह रवि वृष, कन्या, मकर, मीन वा मिथुन मेँ हो तो मनुष्य उचा- धिकारी होता है। इसे राञ्यपाङ, वा राष्ेपति के मन्तियो में । संसद वा

६२ षवमस्कारच्विन्तामणि का सुरखुनास्मक स्वाध्याय

विधानसभा मेँ स्थानप्रासि होती दहै। वला रारिमे दङामभावकारविदहोतो जज, मिनिष्टर आदि सन्मानास्पद्‌ पद्‌ मिखाते है|

दृश्चिक राशि कारविद्ोतो प्रसिद्ध डाक्टर हो सकता है । जैसे सूर्यं दानैः- रनः तीक्णर्किरण तथा अत्यन्त तेजस्वी होकर मध्याह्न के अनन्तर पतनोन्मुख ह।ता हुआ सन्ध्यासमय तेजोदहीन होकर अस्त दो जाता दै । इसी पकार सूर्यं के प्रभाव मं उत्पन्न मनुष्य मी शनेः-शनैः द्िक्रम से उन्नति पाते हुए शिखर चुम्बी उन्नति करते है परन्तु इनव्म अन्तिम वय अच्छा नदीं रहता, ये मनुष्य सन्त मं रोगव्रस्त होते है-धनास्पता से कष्ट पाते है । बान्धवो से कठह स्री-पुत्रादि से वेमनस्य आदि दुःख अनुमवमें आते ह । इस तरह यदि इस सूर्यं को दु भोग्य दरांक कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी |

ए्काद्‌ शभाव-

“रवौ संलभेत्‌ स्वं च टाभोपयाते नषद्वारतो राजसुद्राधिकारात्‌ । ्रतापानले इात्रवः सम्पतन्ति श्ियोऽनेकधा दु -खमङ्गोद्धवानास्‌ः | ११॥ अन्वयः–रवौ लाभोपयाते ( सति ) छप द्वारतः; राजसद्राधिकारात्‌ च अनकया श्रियः संछमेत्‌ । ( तस्य ) ग्रतापानले शत्रवः सम्पतन्ति, अङ्गोद्धवानां दुःख ( च ) ( स्यात्‌ ) ॥ ११ ॥ सं< टी<—अथेकादशस्थरविफल्म्‌- ल्भोपयाते लाममावगे रवौ सः २ दपद्वारतः स्वद्रव्यं राजदत्तं सुद्राधि कारात्‌ अनेकधा भ्रियः गजाश्चादिपदः धियः लभेत्‌ । किं च प्रतापानटे शत्रवः सम्पतन्ति तदुत्तमाधिकारदरांनेन संतप्ताः स्युः; इतिभावः । तथा अद्खोद्धवानां अपत्यानां दुम्खं ल्भेत्‌ । इत्यनेन अन्वयः | ११ ॥ अथे :–जिस मनुष्य के जन्मसमय मे जन्मल्श्रसे एकादशभावमें सूर्य होतो इसे राजा के द्वार से, अर्थात्‌ राजदसखार से, राजा कीक्रृपा से धन मिलता इसे राजा की मोहर ट्गने का मधिकार मिलता दहै अर्थात्‌ यह मनुष्य पजा क्ण पासे उच्चाधिकारी दता दै ओर इसे राजसत्ता मिर्ती है जिससे पह निग्रह-अनुमरह कर सकता है । दण्डाधिकारी दोकर-मजिष्रेट के अधिकार पाकर चोर आदि अपराधियों को, दण्डित करके, अपनी अदाल्त कौ मोहर | ख्गाकर जेर मँ मेजता है| इसी तरह जो रोग न्याया नुकूक चकर्त है-जो उमाज क दितके छि काम करते दहै यौर प्रजाके हितके छिएु कुया, बावरी ताखाव-मन्दिर-विश्रामह आदि बनवाते ई उनको राजा से भारतरलन आदि उपाधि दिल्वाता है । इख तरह राजसन्ता का राज्ययक्ति का सदुपयोगं करन से इसे भी हाथी-घोडे आदि की सवारी से तथा कड प्रकार की पद्बियों से राजा विभूषित तथा अलुङृेत करता है । यदद नहीं-इसे मासिक वेतन द्वार- तथा इनाम जादि से धन भी खूब मिलता है । इस प्रकार राजक्पा से इसका भताप-मान-प्रतिष्ठा-गौरव आदि, गगनचुम्यी होता है, जिससे इसके रातु जल

सूयेफल ६३

मरते इसकी प्रतापाभि क्ते भस्मसात्‌ हो जाते है क्योकि वे स्वयं इतने ऊचे अधिकार को प्रास्त नदीं कर सकते है । किन्त इसे सन्तानपक्च से सदैव दुःख प्राप्त होता रहता रै ॥ ११॥

तुख्ना–“यदा लाभस्थानं गतवति रवौ यस्य सततं, धनानामाधिक्य क्षितिपतिकृपातस्तनु्रतः । प्रातापाग्नौ शाश्वत्‌ पतति रिपुङ्गदं च परितः, स्वपुत्रात्‌ संतापोभवरतिबहुधा वाहनसुखम्‌ ॥” भौषघनाय अथे- जिस मनुष्य के अन्मसमय मे जन्मल्यसे एकाददाभाव मे सूर्य होतो इसे राजाकीङ्पासे पणं धन कालामदहोतादहै। इसकी प्रतापायिसे इसके रन्ुओं का नाश होतादहे। इसे वाहन ( हाथी-घोडा-मोरर-साइकङ आदि ) का विदोष सुख होता है । किन्व॒ अपने पुर से कष्ट होता है ।

टिष्पणी–““संतानपक्ष से दुःख प्राप्त होता हैः एेसा नारायणमड ने कदां है । संतान विष्य मं अनेक दुभ होते हैः-( १) सन्तान-का अभाव, (२) सन्तान का होकर मर जाना (३) सन्तान का मूखं होना, अरिक्षित रहना आज्ञाकारी न होना, बाप का रुपया हड़प कर जाने की नीयत से बापसे मुकदमे कडना । बाप को कष्वहरियों मे घसीटना, बाप से ¶थक्‌ रहना ओर कर एक कर्णकट, अवांछनीय दोष ल्गा कर सम्पत्ति का विभाजन करवाना आदि- आदि क्क शस्यरैजोपिताको असष्यक्ष्टका कारण होतेर्है। यदह अन्तर्निहित म्म है । सत्‌ पुत्र का जन्म तो प्राक्तन जन्मकृत पुण्य का फल है :- “पुण्यतीर्थं कतं येन तपः कायति दुष्करम्‌ । तस्य पुत्रो भवेद्‌ वश्यः समृद्धो धार्मिकः सुधीः ॥*› एेता नीतिवम्वन है । “खमे सू्यै समुखन्नो नाना लभसमन्वितः। ` सात्विको धार्भिको ज्ञानी रूपवानपि जायते ॥ कारिनाय अथे- जिसके जन्मलग्न से एकादश में ८ लाभभाव में ) सूर्य॑हो तो इसे कड प्रकारसेधनका लाभ होता है। यह मनुष्य साविक परङृतिप्रधान, धार्मिक कामों के करनेवाला, ज्ञानी ओर सुन्दर होता है । “गीतविद्‌ बहुधनी; शभकमाौ प्र्षिगे दिनमणौ गणनाथः ॥ यदेवं अथे- जिसके एकादशभाव मं सूर्यो तो वह मनुष्य गीतदाख्र का ज्ञाता होता है । यह धनान्य, श्चुभ कमं करनेवाला भौर जनतामें नेता तथा लोगों का मुख्य पुरुष होता है । “भानौ सभगते . वित्तविपुरः खरी-पुत्र-दास्यन्वितः ॥› येनाथ अथ–जिस मनुष्य के जन्मखमय मे जन्मल्म्र से एकादशभाव मं सूर्यं स्थित हदो तो यह मदान्‌ धनिक दोता है । इसे खरीसुख तथा पुज्सुख ग्राप्त होता

६७ चमत्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक् स्वाध्याय

है । इसके घर पर इसकी सेवा के लिए दास-दासिर्योँ उपस्थित रहते हैँ । अर्थात्‌ इसे सवविध सांसारिक रेश्व्यं भौर सुख प्राप्त रहता दहे । ““सष्यनिरतो बख्वान्‌ द्वेत्यः प्रेष्यो विषेयग्वव्यश्च | एकाददो विधेयः प्रियरदितः सिद्धक्मां च || कल्याणवर्मा अथे- भिस मनुष्य के जन्मसमय में जन्मल्य से एकादशभावमें सूर्य हो तो यह्‌ धन सख्य करने मेँ ल्गा रहता है. । यह वल्वान्‌ होता है। लोग इससे द्वेष ओर विरोध करते ह । इसके नौकर इसकी आज्ञा के अनुकूल चरतं ह । इसे क्रिसी प्यारे का वियोग सहना होता है। यह जिस काम को करता दे इसमं इसे सफल्ता मिक्ती है । अर्थात्‌ यह सिद्धारम्भ होता है । “गीतप्रीति चारुकमंप्रवृतिं चंषत्कीर्विं वि्तपूर्ति नितान्तम्‌ । भूपात्‌ प्राति नित्यमेव प्रकुर्यात्‌ प्रासतिस्थाने भानुमान्‌ मानवानाम्‌ ॥ दृढिरा् अथं– जिसके जन्मसमय मे जन्मल्य से एकादशमावमे सूर्यं स्थित हो तो उसे गायन विद्याम प्रेम होता है। इसकी रुचि भ कर्मो केकरनेमें होती दे । यह कीर्तिमान्‌ होता है । यह धनसे पूर्णं होता दै। इसे राजासे नित्यमेव धनप्रापि होती रहती है | | “लाभे प्रभूत धनवान्‌ |” भाचायं वराहमिहिर

  • अथ यदि लाभस्थान में सूर्यं हो तो मनुष्य धनान्य होता है | ““वहूतरधनमागी चायसंस्थे दिनेरो नरपति गहसेवी भोगदीनो गुणज्ञः । ङरतनु धनयुक्तः कामिनीचित्तहारी भवति चप्ममूर्तिः जातिवर्गं प्रमोदी ।। मानसागर अथे– जिसके जन्मसमय मे जन्मल्य से एकादशभावमें सूर्यं हो तो मनुष्य को बहुधनवान्‌ होने का सौभाग्य प्रा्त होता हे । यदह राजसेवक होता दे-अर्थात्‌ इसे राजकर्मचारी वनने का मौका मिलता है । यह निगंण तथा गुणवान्‌ क परीक्षा करनेवाला होता दै । अर्थात्‌ यह स्वयं गुणी होता है; सूतः यद्‌ दूसरे के गुणों की कदर करनेवाला होता है । किन्तु इते उपभोग ठ्नेका सौमाग्य नहीं मिल्तादै। यह शरीर से दुबला-पतत्म होता हे। इसके पास धन रहता है । यह इतना सुन्द्र भौर मनोहर रेता दहै कि इसे देखते ही कामिनी-किोरियां का चित्त फड़क उटता है ; सौर ये सुन्दर्या इसकी तफ चिष्वी हुई स्वयं ही चटी आती ई | दुसरे शब्दों मे यह मूर्तिमान्‌ कामदेव दही होता है| | “भवगतेऽके बहुधनायुर्विगतद्योकोजनपतिः |> मंत्रेदवर अथे–जिखके जन्मसमय मे जन्मल्म्र से एकादशमाव मँ सूर्यं हो तो यह मनुष्य धनी ओर दीर्घायु होता है। इसे अपने किसी प्यारे कौ मृत्यु का दोक दास्य सहना नहीं पड़ता है । यह राजा अथवा जनगण का मुखिया होता है ।

५ सूुयफर ६५ ‹”य॒द्‌ यापिखाने भवेत्‌ शम्पखेटः सुवेषोधनी वाह नान्यो ऽस्परीटलः । सुयोषः श्चुभौकः सिपादी सलाद सविर्गी तगानेसुने चोऽपि शिदारः ॥> ख।नसख ना

अर्भ यदि सूर्य॑ एकादश्षमाव मे हो तो मनुष्य खुवख्र तथा सुन्द्र दता हे । यह धनी होता दै । इसे सवारी का सुख प्रात रहता है, अर्थात्‌ इसके धर पर घोड़ा-गाड़ी अदि सवारियो मौजूद रहती ई । यह अच्छे स्वभावका दोता है । सिपाही यौर नेक सलाह देनेवाला दोता दै । यदह गायनविया मं प्रेम रखता ह । इसकी ओं सुन्दर होती ई । ओर यह खोगों मे सरदार होता हे !

‘गीतप्रीतिं वचारुकर्मप्रडमतिं प्वष्वत्‌ कीर्ति वित्तपूर्तिः नितान्तम्‌ । भूपात्‌ प्रासिं नित्यमेव प्रकुर्यात्‌ प्रािस्थाने भानुमान्‌ मानवानाम्‌ ।॥*› महेश

अ्थ- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे जन्मल्य से एकादशभाव में सूर्यं हो तो यह गायन-विन्ा का प्रेमी होता है । इसकी प्रहृत्ति ्चभकर्मो के करने में होती ३ । यह यशस्वी ओौर धनाढठ्य होता दै । इसे राजा से नित्यमेव धनप्रापि होती रहती है । भ्रगुसूत्र-बहुधान्यवान्‌ । पंच्विंद्तिवषं वाहनसिद्धिः । धनवाग्जाल्द्रव्याजेन समर्थः ¦ प्रमुञ्वरित श्रत्यजनस्नेदः । पापयुते धान्यम्ययः। वाहनदीनः। स्वक्ष स्वोचे अधिकप्राबल्यम्‌ । वाहनेशयुते बहु्षेत्रे वित्ताधिकारः । वाहन योगेन तु बहूुभाग्यवान्‌ । | अ जिसके जन्मल्न से एकादशमाव मेँ सूं हो तो यह मनुष्य बहुत से .धन-घान्य का स्वामी होता दै। पचीसवषं कौ आयु मे इसे सवारी का सुख मिक्ता है । यदह धन कमाने योग्य होता है। धनी होता है ओर वाक्पटु होता दै । यह बहुत से नौकरो का हाकिम होता रै ओर इसके सेवक इसे परेम करते है। यदि एकादश रवि का सम्बन्ध किसी पापीग्रहसेदहोतो इसका धान्यव्यय होता है। इसे सवारी का सुख नहीं रहता है । यदि यह रवि अपनी रारि का हो अथवा अपनी उ्रारि का दो तो मनुष्य अधिक बलवान्‌ होता है यदि इसक्रे साथ वाहनेश भी हदो तो बहुत स्थानों पर इसे पिन्ताधिकार प्राप्त होता है। इसे सवारी का सुख भी मिक्ता है । ओौर यह महान्‌ भाग्य- शाटी होता है। | ` यवनमत- धनवान, नौकर से सम्पन्न सुन्द्र-ख्री का पति, अच्छी इमारत का मालिक, अच्छे पदाथं खानेवाला, गने-वजाने का शौकीन; गुस- विष्वार करनेवाला, अच्छी ओंँलोँवाल् होता हे । पाश्चात्यमत- स्थिर भौर विश्वासयोग्य मित्र दोतेहै। रविं बलवान हो तो वे इसकी मदद करते है, किन्त दूषित या निषेक दहो तो मदद के स्थान पर नोञ्च बन जाते द । विचार ओर अनुभव- प्राचीन फलतज्योतिष पर ङिलनेवाले अन्थ-

६६ चमत्कारचिन्तामणि का तुखनात्मकर स्वाध्याय

कारोंने एकाटखभावस्थित सूं के फट उत्तम से उत्तम बतलाए रहै) इन ग्रन्थकारीं ने कौन-सा फल किस रारि मं अनुभव मं आएगा-एेसा कोई संकेत नहीं दिया है । अतः अनुभव प्राप्त करना ही आवद्यक है | अनुभव क सहारे से सुष्ष्मदष्टि से एकादशमावस्थ रवि का विचार किया जावे तो पाया जावेगा कि इसरविसे कोन कोई दुःख पीछे ल्गादी रहता हे । कमी संपत्ति का अभाव तो कभी संतति का अभाव होतादै। दोनों का एक साथ सुख तमी मिख्ता दे जब इस रवि के साथ अन्य पापग्रह युभयोग करते हां अन्यथा नहीं | एकादशस्थान से जनपद कासि, सभा-क्ट्व, बडे भाई का विष्वार भमीक्याजा सक्तादहे। पाश्चात्य ज्योतिषी इस स्थान से भिन्न-भिन्न परिवार कासुख; मित्रोंकी मदद के सुख का विष्वार करते है। यह रवि बडे भाई के लिए अच्छा नदींदहै। इस भाव कारवि यदि मेषरारिमंदहोतो संतति का अमाव होता ₹। यदि सतति होमीतोरहती नदीं दहै। यहरवि मिथुनयरिमेंदहो तो दो-तीन पुत्र होत दहै ओर मर जाते दह । यदह सूरय सिहरारिमेंद्ो तो दारिद्रययोग वनता हे। ल्डकिर्यो अधिक होती है । ठलाराशि में यह सूर्यंहोतो धन, सम्मान; कीति, सभीकुर मिल्ता हे । धनुराशि मे सू्य॑हयोतो मनुष्य कानून का विदोष्ज्ञहोताहे। कुंभकारविदहदोतो मनुष्यदद्रिहोता है, यह रवि कि कसी भी पुस्प्रररिमं होतो बडे माई का घातकः बनता है। य॒दि कसी संयोगवशा म्त्युन हो तो परस्पर कलग होत ह! परिणामतः विभाजन होता दै, प्रथक्‌ निवास होता, यदि यह रवि स्त्रीरायि का दहो संतति-संपत्ति दोनों होत द । यदि पुरुषराशिमे यह रविदहो तो संपत्ति मिलती हे अवद्य, किन्तु मेहनत से मिटती हे। स्रीरारि का रविहोतो अचानक संपत्ति मिट्ती हे | ॑ द्वाद शभाव–

“रविद्रोददो नेत्रद करोति विपश्चाहवै जायतेऽसौ जयश्रीः ।

स्थ्रातट्त्यया लीयते देदुःखं पिदृव्यापदो दानिरध्वप्रदे दो” ॥।१२॥

अन्वयः- मसो रविः द्वाद ( स्थितः सन्‌ ) नेत्रदोषं करोति, विपध्चाहवे ( तस्य ) जयश्रीः जायते, लन्धया स्थितिः ८ जायते ) देहदुःखं टीयते, पितर- व्यापदः ( स्युः ) अध्वग्रदेदो हानिः ( स्यात्‌ ) ॥ १२॥

सं टी<–अथ द्रादशस्थरविफल्म्‌- द्रादरो गतः असौ रविः नेत्रदष्ि मेदटष्टित्वं, पित्व्यापदः पित्रव्यभवक्केशान्‌ करोति । तथा विपक्चाहधे रात्रुसंगरे जयश्रीः टन्धया ठन इच्छया स्थितिः एकव्रावस्थानं । अध्वप्रदेदो मागे हानिः क्तिः जायते । तथा देहदुःखं लीयते नदयति आगत्य पतेत्‌ वा, यथानुभवं

सूयंफल ६७

व्याख्येयम्‌ । पित्व्येव्यादौ अध्वप्रदेरो पिवरव्यापदः तिवन्यमरणात्‌ तस्छंठनाद्‌ वा हानिः स्यात्‌ इव्यथेः ॥ १२ ॥ अथेः- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे जन्मल्य से द्वादशस्थान मे सूर्य होतो इसे नेत्रपीडा होती है। शत्रुओंके साथ युद्ध मं इसकी विजय होती हे । प्राति कीइच्छासे स्थिरता होतीदहै। शरीर कादुःख दूर होता हे। चाचा की तफं से आपत्तर्योँ उटती हँ । यात्रा मे इसे हानि परहूचती हे । टिप्पणी– सस्त टीकाकार ने धात्रा करने गए हुए चाचा की रास्तेमें मत्य के हो जाने से अथवा रस्तेमें चोरों द्वारा चाचा के डुटजाने से इसे हानि पर्हु्बती हेः एेसा अथं मी किया दहे। सामान्य अथ वाचा की ओरसे आपत्तियोँ उठती ई” एेसा ही किया हे । तुलना–““व्यये चेदादिव्ये जनुषि नयने कष्टमधिकं क्षतिमगेंऽकस्माद्‌ निज वपुषिपीडा च निविडा । सिपूणां संग्रामे भवति विजयश्रीस्तनुश्रतः स्थितिर्यो चांचत्यात्‌ जनकसहजारतिश्चमहतीःः || जीवनाय अथं–जिस मनुष्य के जन्मसमय मे जन्मल्य से बाहवे भावमें सूर्यं होतो इसे ओंखों मे रोग होने से अधिक कष्टं होता है। अर्थात्‌ द्वादद्ाभाव कारवि नेत्रपीड़ा करता हे। रास्तेमें चले हए इसे अकस्मात्‌ धनानि दोती दै। इसके शरीर मं विरोष व्यथा होती हे। शतुओं के साथ युद्ध में विजयलक्ष्मी इसे प्राप्त होती हे 1 यह चंचल होता है, इस कारण इसका स्वभाव अस्थिर होता है। इसके पिता कै भाई को महान्‌ कष्ट होता है। अथवा अपने चाचा से इसका वैमनस्य रहता हे । (स्वधमेहीनो द्रविणेनदहीनः सरोगनेचो वरप चौर भीतिः | विरुद्धचेष्टो भवतीहमव्यां व्ययस्थितश्ेद्‌ दिवसाविनाथः ।।> जयदेव अथे–जिस मनुष्य के द्वादशमाव मे सूर्यं होतो वह ऊुल्परम्परागत धमं से विरुद्ध चर्ता हं । अर्थात्‌ यह श्रुति-स्मृति प्रतिपादित कुख्परम्परागत स्वधमं का परित्याग करता है ओर धर्मान्तर मे चला जाता है अर्थात्‌ विधमीं ओर ध्मभ्रष्ट हो जातादहे। यह निधन होतादहै। इसे ओंखों के रोग, रात्यन्धता, मन्ददषशिता आरि रोग होतेह इसे राजासे ओर चोसें से भय रहता हे । किसी बहाने से राजा, राजदंड द्वारामेरा धनन लूट छेवे भौर प्वोर, श्वोरी करके मेरा धन न चट टे-ेसा भय सदैव बना रहता ह । इसकी चेष्टा धमंविरुद्ध तथा समाजविरुद्ध होती है । “ध्ययस्थिते पूषणि पुत्रशाली व्यंग: सुधीरः पतितोऽयनः स्यात्‌” ॥ वैद्यनाथ

अथं–जिसके बारहवे भाव में सूर्यं हो वह मनुष्य पुत्रवान्‌ तथा वैर्यवान्‌ होता है। दारीर के किसी अवयव मे यह व्यंग अर्थात्‌ विकृतांग वा अङ्गहीन

६८ चमत्कारचिन्तामणि का तुरखुनास्मक स्वाध्याय

होता है । यह धर्मपतित होता है। ओौर यह व्यर्थं इधर-उधर भटक्रनेवाटा होता दै ।

जडमतिरति कामी चान्ययोषिदूविंखसी, विहगगणविघाती दुः्टचेताः कुमूर्तिः

नरपतिधनयुक्तः द्रादरस्थेदिनेदो कथकजनविरोधी जंघ्रोगी कृशांगः ॥ 2 मानसागर

अथे- जिसके वारदर्वेभाव में सूर्यं हो वह मनुष्य मूर्खं होता है । यह बहुत कामुक व्यक्ति होता हे। यह पर-स्रीगामी होतादहे। यह पक्षिसमृह्‌ काना करतां हे । अर्थात्‌ यह आकाशम उड्ते हुए पक्षियों का दिक्रार करता दै । यह दुष्टहृदय तथा कुरूप होता है । इसे राजा से धरन मिलता हे। इसे जंघाके रोगहोतेहै। यह दुर्बल देह होता है। यह साश्रारण रोगों से विरोध रखता है ।

“¶िकर दारीरः काणः पतितः वंध्यापति पितुरमित्रः । दादशसंस्थे सूये वरूरदितो जायते क्षुद्रः | कल्याणवर्मा

अर्थ- जिसके द्वाद्भावमें सूर्यो तो वह मनुष्य काणा तथा धर्म॑ पतित अर्थात्‌ धमभ्रष्ट होता है । इसका शरीर व्याकुल रहता है अर्थात्‌ यह नीरोग नहीं योता हे । यद्‌ बन्ध्याख्री का पति होता दै; अर्थात्‌ इसकी सत्री संतान पेदा करने के अयोग्य होती है । यह सपने पिता से वैमनस्य ओर विरोध रखता हे । यह बलीन ओौर तच्छ स्वभाव का व्यक्ति होता दै। तच्छ अर्थात्‌ ओके स्वभाव का होता है ।

“पतितस्वुरिः फे आाचायंवराहुमिहिर

अ्थ- जिसके ल्यसे द्वाद्रास्थान (रिफ) में सूर्यं दो तो वह मनुष्य पतित अथात्‌ कुःल्परम्परागत धर्म से विरुद्ध चठ्नेवाला, धर्मभ्रषट प्राणी होता दै ।

“पितुरमित्रं विकलनेत्रो विधनपुत्रो व्ययगते > मंत्रेश्वर

अथे–जिस मनुष्य के जन्मल्य से द्वादशस्थान में सूर्यो तो उसका वैमनस्य जपने पिता से रहता है । भर्थात्‌ द्वाददामावगत सूर्यं के प्रभाव में उत्पन्न मनुष्य अपने पिता के साथ रात्र जैसा वर्तव करता ई। इसकी खि मन्ददष्टि भादि रोगों से युक्त होती है । यह धनहीन तथा पुत्रहीन होता ह ।

` (तेजोविहीने नयने भवेतां तातेन साकं गतचित्तदृत्तिः । विरुद्धबुद्धिः व्ययभावयाते काति नलिन्याः फल्सुक्तमारयैः “> इंडिराज

अथ–जिस मनुष्य के जन्मल्यय से द्वाद्रस्थान में सूर्थदो तो इसकी ओंखं नत्रज्योतिहीन होती है, दूसरे शब्दो मै यह मनुष्य अंधा होता है। इस मनुष्य कौ चित्तवृत्ति अपने पिता की चित्तवृत्ति से नदीं मिल्तीडहै। अर्थात्‌ यदह मनुष्य सदेव पिता से विरोध करता है । जन्मदाता होने के ख्याल से, पोप्रक तथां शिक्षक होने के ख्या से अपने पिताका मान आदर तथा प्रतिष्ठा नहीं करता है । इसकी बुद्धि विरुद्धाष्वरण की ओर ञकी रहती है ।

सूयंफल ६९

““यदाखचखाने भवेत्‌ शम्सखेटस्तदा कम्न निर्मानदीनो नरः स्यात्‌ । अहल्खचंकः सतूक्रियो वा शरारतपनाहः सदा पीञ्यर्तेऽगेषुरोगेः ॥ > खानखाना

अथे- जिस मनुष्य के द्वादशभाव मे सूर्यं हो तो इसकी ओंखं नेचज्योति- हीन हाती ह । अथात्‌ इसकी बाई ओंख अधिक कमजोर होती है । थह मानहोन, हूत खी वा उत्तम काम करनेवाखा, दुष्टों का रघ्चक ओौर अच्यन्त क्रोधी होता हे । इसके शरीर मे पीड़ा रहती दहै । कडई-एक रोग इसे कष्ट देतंर्ह|

““तेजोविदहीने ययने भवेतां तातेनसाकं गतचिप्तचत्तिः वेर्द्धबु द्धः व्ययभावयाते कांते नलिन्याः फलसुक्तमायेः || महेश्

अश– जिस मनुष्य के द्वादशमाव मे सूर्यं हो तो इसकी अखि नेत्रज्योति- रहित होती ह । वाप-वेटा दोनों मँ परस्पर सौमनस्य नदीं होता है-अर्थात्‌ परस्पर वाप-वेया मं शत्रु-षडष्टक रहता हे । यह द्वादशरवि का फट महान्‌ अश्रेयत्कर तथा अमंगर्कारी अञ्चभ फलक है । इसकी बुद्धि इसे विरुद्धाप्वरण की अर प्रेरित करनेवाटी होती हे ।

भ्रगुसूत्र–षटतरिराद्‌ वधे गुल्मरोगी । अपात्रव्ययकारी पतितः धनहानिः । गाहत्यादोषङ्कत्‌ ; परदे रावासी । भावाधिपे वल्युते वा देवतासिद्धिः। रय्या खष्टंगादि सौख्यम्‌ । पापयुते अपात्रन्ययकारी, सखखशय्याहीनः । षष्ठेशयुते कुष्ररःययुतः ¦ दभदष्टियुते निच्रत्तिः । पापी, रोगव्द्धिमान्‌ ।

अथे– जिस मनुष्य के व्ययभाव मे ( दवादशस्थान में) सूय होतो इसे छतततीसवपं की आयु में राव्मरोग (पेट का रोग-वायुगोला) होता है। यह मन॒ष्य प्रतित अर्थात्‌ स्वधमेपतित-स्वधमभ्रष्ट होता है अर्थात्‌ स्वकु परपरापाप्त श्रौत-स्मातं धमं पर विश्वासी नहीं होता है। प्रत्युत इसका आष्वरण इसके विग्रं रहता है। इसके धन का व्ययेसे कामों पर होता दै जिससे प्र्यवायहो ओौर जो व्यय असद्‌ व्ययकी कोटि में गिना जावे । यह निर्धन हःता है । इसे गोहत्या करने का दोष ठ्गता है । यह स्वदेश छोडकर परदेश मं उस करता हे ।

यदि भावे बलवान्‌ हो तो इसे देवसिद्धि प्राप्त हो सकती हे | इसे शय्या- सुख भी प्राप्त होता हे। यदि द्वादशमावस्थ रवि के साथ कोड पापग्रह युति

क्रतो इसक्र घन का खच कु.पाच्र के ऊपर किया जाता है अर्थात्‌ यह मनुष्य

पात्रापाच-विचार बुद्धिद्यल्य होता हे अतएव असद्ग्ययी होता है। यह राय्या- सुख स वंचित रहता हे । यदि इस स्थान के रविं के साथ षष्ठेरा (रोगेश) कायोगहोतो इसे कुष्टरोग होता हे। यदि इस स्थान के रवि के साथ किसी दुभम्रह क युति हो-अथवा कोद शुभग्रह इस पर अपनी श्ुभदृष्टि डाल रहाद्योतो कुटरोगदूरहो जाता है। अन्यथा यह मनुष्य पापकर्मा होता हे–दसे नानाविध रोग कष्ट देते रहते |

1

नः

७ चमव्कछारचिन्तामणि का त॒ख्नात्मक स्वाध्याय

यवनमत-यह रवि चन्द्र से युक्तन होतो अंतिम आयु में विजयी आर भाग्यवान्‌ होता है । ये लोग अजवदही होतेह । बड़े मेहनती ओर धूतं होते है; किंतु सफट्ता कम मिल्ती हे ।

पाञ्चात्यमत– जीवन मे सफलता, किंतु यह दूषितो तो कारावास

होता हे।

विचार ओर अनुभव द्रादशस्थान दुष्टस्थान व्यवस्थान रै–इसे सभी फलितज्योतिष पर टल्िखनेवाले प्राचीन म्रंथकारोंने बुरा स्थान माना दै अतः इसके समी फल बुरे है-णेसा मत प्रकट कियौदहै। किंसीएकने इन अद्ुभफलों के अपवादं से एकाध श्युभफलक भी बताया है । “नरपति धनयुक्तः? एेसा मत मानसागरी के र्वविता मानसागर का है । व्यय का अर्थ–^घनव्यय- घन का खच” हे। क्तु भ्रगुसूत्रकार ने (मपा्रव्ययकारीः रेसा कहा रहै जिससे (सत्पात्रव्ययकारी का बोध होतादहे। ध्यय अपात्रमे नहीं होना चादिए ओर सत्पात्र मे व्यय सद्ग्यय है-ेसा संकेत मिलता है । तात्पर्य यह हेकिदाताके लिए आवदयकदै किंदान देने के पूर्वं पात्र-कुपात्र का विचार करे । दान के विषय में निम्नटिखितपय का परिशीखन तथा मनन आवद्यक हे – “दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे । देरोकाे च पात्रे च तदान साचिकं विदुः | पात्रापात्र का विष्वार–पात्रव्यय?-तथा (अपा्र- ग्ययः ये दो को्िर्यो ह । दूसरे र्द मे “सद्व्ययः तथा “असद्‌ब्ययः ये दो कोर्र्यो ह । इनका विष्वार आवद्यक है ।

दादशभावस्थित सुयं यदि अश्चुभम सम्बन्धमें दहो इसकी युति यदि किसी पापग्रह के साथहोतो इस दूषित रविं के प्रभाव मे आया हुआ मनुष्य “अपात्र ग्ययकारीः होता दहे) इसी सन्दभं मे सत्‌-असत्‌ व्यय का संक्षिप्त विवेचन भी आवश्यक दै। (सत्ये ज्ञानमनन्तं ब्रह्मण एेसी श्रति है। सत्यपदार्थ- सत्‌पदाथं केवल व्रह्म ही है-इसके अतिरिक्त ओौर सभी पदार्थं असत्‌” ईै- इनकी सत्ता प्रतीतिमाच्र सत्ता है-व्यावहारिक सन्ता है-पारमा्थिक सन्ता नहीं हे । एतद्थंक सत्‌ शब्द्‌ का योग ध्यय के साथ समास द्वारा हुभादै। जिस व्यय से अन्ततः सत्‌ की प्राप्ति हो, यह व्यय्‌ सर्वश्रेष्ठ साचिक व्यय है| दष्टापूतंपर द्रव्यव्यय सदूव्यय माना गया दै । ताल्मव-कुंभ-बावली-मन्दिर- धमंशाला-विश्रामण्ह सादि पर किया गया द्रव्यव्यय सदूव्यय की कोटिमें दै, क्योकि इससे अट्टः पैदा होगा-चूंकि यदह सदूव्यय निष्कामधर्ममूलक है इससे मोक्षः की प्रासि होगी । इसके विरुद्ध-पापाष्वार को प्रोत्साहित करने के लिए सतीसाध्वीची को कुमागंगामिनी बनाने के लिए सतीत्वव्रत से पतित करने के लिए तथा मयपान अआदिपर जो धनव्यय होगा । इसे सद्‌ व्यय-अपव्यय-अपात्रव्यय कहा जावेगा, क्योकि इस व्यय के मूलमें पापहे यअसत्‌कामना है-अतः इस व्यय का परिणाम केवल्माच्र नरक ही हो सकता

सूयेफर ७१

हे इस अन्तर्निहित भाव को केकर सूत्रकार ने (अपात्र व्ययकारीः इस अश्चभ-
फल का निर्दर किया हे  

“्शाय्या खट्वा अङ्कादि सौख्यम्‌” “शय्यासुखदीनः”” इन दोना सूतरोपर कुक छिखना भी आवद्यक प्रतीत होता है । शय्या खुख से सखरी-सङ्ग सुख मन्तव्य है । यदि द्वादशभाव का स्वामी बल्वान्‌ हो तो शय्यासुख मिल्ता रै, यह सूत्रकार का सम्मत है । खीसुख तभी प्रास्त होगा यदि स्त्री पति- परायणा होगी-अन्यथा यदि खी पतित्रतान होकर पथभ्रष्टा पर-पुरूषगामिनी . हई तो शय्यासुख का मिलना स्वप्न का धन होगा ।

यदि इस स्थान के रवि के साथ करिंसी पापग्रह की युति होगी तो शय्यासुख का अभाव रहेगा | अथात्‌ यदि खी जघनष्वपल्म तथा कुख्टा हई तो शय्यासुख पतिकेरिए स्वप्नका धनी होगा सम्भवदहै यह योग पतिके छर मारकयोग॒ हो | अद्रतनप्रीति-विवाहप्रथा-मनपसन्दशादी, ` विवाहविच्छेदक न्यायाट्य का सहारा-पतिव्रताधरम का नाशक होता हभ पति का घातक हो सकता है| अतः सूत्रकार का संकेत पातित्रत्यधर्मं को प्रोत्साहन देने कौ ओर हे-एेसा प्रतीत होता है ।

दादशस्थान का रवि कर्क, बृश्चिक ओौरमीनमे होतो पुरुष खर्ीखः वेफिकर, राजनैतिक कारावास पानेवालखा;, लोकोपकारी, तथा युद्ध मं पराक्रमी होता है| वृष, कन्या, मकर में पुरुष ध्येयवादी, इसमे आनेवाठे सव संकट रान्ति से सहनेवाख-सत्कर्मकता होने से ख्याति पानेवाला; स्वतंत्र, धनेच्छुकः ओर विष्वारपू्वक काम करनेवाला होता है ।

मेष, सिह, धनु मे पुरुष कृपण, वि्वारहीन, अभिमानी, अदंमन्य बुरे कामों के करने से दंड पानेवाला होता हे ।

मिथन, तला, कुम मे खर्बीटा, अपने वगं तथा समाज मे विख्याति पाने- वाल पुरुष होता है |

परदेदावासी-आजकलके भारतम जो छोग विदेश जाते दै भौर सम॒द्रयात्रा करते है-इनका मानः इनकी प्रतिष्ठा, इनका मूल्य लोगों कौ दृष्टि मे बहुत दहै । प्राचीन मारत म समुद्रयात्रा निषिद्धकोटि मेथी गुसूत्र का सकेत भी परदेश-निवास के विरुद्ध है । सूत्रकारके मतम द्वादशरवि का यह अञ्चुभ फल है । परदेश मे मनुष्य उच्छुखल हो जाता है-खोक-परखोक भय से विसक्त होता दै। कुमागंगामीभी हो सकता है । विधर्मीभी हो सकता है अतः सूत्रकार की दृष्टि मँ परदेशवास अच्छा नदीं हे-णेसा माव प्रतीत होता है|

महामारतकालट के प्राचीन मारत में अन्रणी चाप्रवासी चः एेसा कहकर व्यासजी ने ‘स्वदेशयासः का ही अनुमोदन करिया है|

७२ चमत्कारचिन्तामणि का तुटनात्मक स्वाध्याय

| अरिष्टग्रहः इान्ति-परादार वचनम्‌- | “यस्य यश्च यदा दुम्स्थः स तं वलेन पूजयेत्‌ | | एवं धात्रा वरोदत्तः “पूजिताः पूजविष्यथःः मानवानां ग्रहाधीना उच्छायाः पतनानि च। मावा भावौ च जगतां तस्मात्‌ पूज्यतमा म्रहाः॥ इति | क चन्द्रविचार :- चन्द्रमा के पयोयनाम–चन्द्र; अन्ज, जेव, अत्रिज, ग्छौ, मरगांक) उडुपति, शीतद्रति, इन्दु, सोमः द्विजराज, शशधर, क्षपाकर, विधु, भ्रां, सीतगु, रायांक, वुहिनरुः कटेश, नेत्रयोनि; यामिनीक्ष, पाथोधिपुत्र, जलनिधि तनय, कुर्द, कुख्दिनी; अन्धिज, दहिमकर, अभिरूप, अग्रत) अम्बु, जलज, तारापि; नक्षत्रेशः ठ्हिनकरः; गीतां, राकापति; रीतरद्मि, गयी, समुद्रांगज, कुमुट बन्धु, जेवातृक;, तंगीर । चन्द्र-स्वरूपवणेन :- निरापतिः व्र्ततनुः सुनेत्रः कफानिलत्मा किक गोरवणः प्राजञोऽतिरोखो मृदुवागृघ्रणी च प्रियप्रियोऽसौ खलंगोणितौजाः ।।” जयदेव अथे–चन्द्रमाका शरीर वरल (गो) है। इसकी आधिं सुन्दर इसकी क्फ-वायु्रधान प्रकृति है । यह गोरे रगकादहे। यह्‌ बुद्धिमान्‌-चंचलठ अर मीठा वोख्नेवाख हे । यह दया ओर मित्रोंका प्यारा दहै। यह रुधिर से आज्स्ठीदहे। एेसा चन्द्रमा का स्वरूप हे। ˆसदूवाग्‌ विखास)ऽमट्धीः सुकायः रक्ताधिकः कुचितकरष्णकेशः । क्नाऽनिलात्माऽम्बुजपत्रनेत्रो नक्चच्रनाथः सुभगौऽतिगौरः ।।> दु’डिराज अथ–चन्द्रमा समयानुकूढ उचित मापण करनेवाला है । इसकी वुद्धि निमल ह ¦ इसका देह मन्दर है। यह धिक श्ुद्धरक्तवाखा है । इसके केदा काठ अर वुधराटे ह । इसकी प्रकृति कफ ओौर वायुप्रधान है] कमलपत्रवत्‌ विदाटनत्रबाल्य, सुन्दर ओौर गौरवर्णवाटा चन्द्रमा है | तनुदत्ततनुः बहुवातकफः प्रार्श्चररी मदुवाकः श्युभटक्‌” ॥ क्षाचाय वराहमिहिर अथ– चन्द्रमा का देह पतला (दुर्बर) ओौर गोढ है । यह चन्दर विरोधतः वात-कपमक्ुतिवाटया हे। यह बुद्धिमान्‌, मीटा बोख्नेवाला मौर सुन्दर ओखांवास हं | ‘^त्यूलययुवा च स्थविरः कृदाः कान्तेक्षणश्चासितसूष्षममू्धजः रत्त.कसारः मदुवाक्‌ सितांडुकः गौरःरदरी वातकफात्मकोम्रदः”” |] मन्त्रेश्वर अथ चन्द्रमा का शरीर रूट ({ ब्डा-मोया) है। यह युवावस्थावाला

चन्द्रविचार ७द.

है ओर पौटावस्थावाला है। इसका शरीर कमजोर है–इसके नेत्र सुन्दर है। इसके केश कृष्णवणं ओर वारीक ८ सुक्ष्म ) ह । इसके ररीरमें रक्त की प्रधानता है। यदह कोमटबाणी बोट्नेवाला दै । इसके व्र सफेद है यद गौर वर्णं है । यह कोमल, कफ-वातप्रधान प्रङृतिवाला हे ।

रिप्पणी- “चन्द्रमा स्यूलभीदै आओरङ्शाभी दहै । यह आपाततः विरुद्ध कथन है, क्योंकि कोड व्यक्ति एक समय में स्थूल भी मौर कश भी नहीं हो सकता है। समाधान-यदि पक्षवरु अधिकं हआ तो शरीर स्थूल होगा ओर यदि पक्षबल स्प हआ तो शरीर ङश होगा णेता अभिप्राय प्रतीत होता है । “भसंप्वाररीखोमृदुवाग्‌ विवेकी श्चुभेश्चषणञ्चारुतरः स्थिरांगः सदैव धीमान्‌ तन्‌च्रष्ठकायः कफानिरात्मा च सुधाकरः स्यात्‌ ?॥ वदनाय

अथं–यह प्रवासरीक है । यदह मधुर ओर कोमर वाणी बोख्ता है । यह विचारवान्‌ , सुन्दर ने्रोवाख, सुन्दर दारीरवाला ओौर सुददट्‌-शरीरवाला होता है । यह सदैव बुद्धिमान्‌ । शरीर गोरु भआकारवाख सौर वातकफप्रधान प्रकृतिवाख होता दै । एेसा चन्द्रमा का स्वरूप है ।

“चन्द्रः सितांगः समगात्रयष्टिः वाग्मी परिष्यग विवेकयुक्तः । कचितङ्दाः शीतल्वाक्ययुक्तः सत्वाश्रयोः वातकफानिलत्मा” ॥ व्यंकटेभ्वर

अ्थ—चन्ध्मा श्चभ्रव्णं है। इसका शारीर एक जैसा है। अर्थात्‌ ऊपर से ठेकर नीचेतक एक जेसा रै। यह अच्छा माषण करनेवाला होता है । इसके अद्धो मे विषमता नहीं है । यह विवेक-विचारवान्‌ हे । कहीं पर कृश हे । इसका भाषण शान्ति देनेवाख होता है ।

इसका दारीर दद है। इसकी प्रकृति वात ओर कफ की प्रधानता रहती है । एेसा चन्द्रमा का स्वरूप है ।

“सौम्यः कांतविलेचनः मधुरवाग्‌ गौरः कशांगः युवा ।

प्राञ्चः सृक््ममिकरुचितासितक्ष्वः प्राज्ञः मृदुः साविकः ॥

चारः बातकफात्मकः प्रियसखः रक्तेकसारः धृणी । बृद्धस्रीषुरतः षलोतिसुभगः श्भ्राम्बरः चन्द्रमा ॥ कल्यागवर्मा अथे– चन्द्रमा सौम्य अर्थात्‌ शान्तस्वभाव का होता है। इसकी ओं सुन्दर दै । वाणी मधुर होती है। यह गौर वणं है-शरीरसे कदां ओौर तरण प्रतीत होता है। यह ऊँचे कदबवादय है। इसके केश बारीक, धुंधराठे ओर काठे होतं ई । यह बुद्धिमान्‌ , ज्ञानी, कोमङ्‌ तथा साखिक होता है । इसकी प्रकृति विरोप्रतः वात भौर कफप्रधान होती है । इसे प्यारे अच्छे मित्रप्राप् दोत है । इसके शरीरम रक्तकी प्रधानता होती दहै। दृसरोंके विषयमे

७४ चमत्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

तिरस्कारभरी दृष्टि दोती है! यह बद्धाल्ियों में रममाण होता है) यह पल अओौर सुन्दर होता है । यह सफेद वस्र पहिनता है ।

टीप्पणी- प्रञ्च-ग्रहस्वरूप-वणन का प्रयोजन क्या? यह प्रश्च सभी के मनमेंपेदा होता दे । उत्तर यदि ल्समें कोई ग्रह होतादैतो इसी ग्रह के गुण ओर प्रकृति के अनुसार मनुष्य के गुण ओर प्रकृति होते है, यह प्रयोजन हे । यदि कोई ग्रह ल्य्रमंनहींदहोतो लग्नेश की तरह प्रकृति, अक्ति, गुण ओर स्वभाव मनुष्य का होता हे । अतः प्रत्येकग्रह की प्रकृति आदि का जान ठेना आवद्यक दहे । जो ग्रह लग्र को देखते है वे भी अपनी-यपनी प्रति के अनुसार मनुष्य को प्रमावित करते हँ] इसी तरह जो ग्रह मनुष्यको रोग आदि से पीड़ित करते है उनकी प्रकृति आदि के अनुसारदही रोग होते है अतः इन ग्रहों का गुण-दोष-स्वमाव का ज्ञान आवदयक है |

प्ररन– चन्द्रमा कैसा ग्रहै? श्चमदहैवा अश्म १ कब श्युभ अर कव अश्चुम ? कव वलीयान्‌ ओर कव निव हे १

उत्तर– चन्द्रमा छभग्रह है-एेसी मान्यता है । किन्तु अश्चभफर मी देता है । ओौर अपने स्थान का फल नष्ट करता है । शचु्कप्रतिपदा से दशमी तकः चन्द्रमा मध्यवली होता दे–इसके वाद्‌ दशा दिनतक अतिवल्वान्‌ ओर सतिम फलदाता होता हे । अन्तिम दश दिनों मेँ चन्द्रमा बलीन होता हे ।

बलहोन चन्द्रमा श्चभग्रहयुक्त वा श्चुमग्रहवीक्षित हो तो शुभफल मिलते है

पिले दश दिनों मे कुमार-अवस्था होती है । अतः कोई विरोध पल नहीं मिल्ता दै। वीव के दश दिनो म युवावस्था होती हे–अतः अच्छे न्युभफल मिलते है । अन्तिम दश दिनों मे बुटापा आर मरत्यु की स्थिति होती ईै- इसमें छमफुख कणं सभिखषा व्यथ हे । निराशा ओर अञ्मफल अनुभव मे मा सकते है |

॥५ ४

ककः ओर दृषराशि म, सोमवार, द्रेष्काण, होराङरुण्डली मे, स्वगृह मे, राग्यन्त मे? श्मगरहो कीद्षटिमे, रात्रि मे, चर्थस्थान मे तथा दक्षिणायन मं सन्धि छोडकर अन्यत्र ष्वन्द्रमा बलवान्‌ होता है । यदि समीग्रह चन्द्रमा पर दष्टिडाट रहे हों तो राजयोग होता है। चन्द्र्वाराध्याय-ष्टोक ३०, बृहत्संहिता मे आचाय वराहमिहिर ने चन्द्रमा किस समय सर्वथा मंगलकर्ता होता हे–इसका वर्णन किया है, वफ, कृद्‌पुष्प, कुमुद्‌ वा स्फटिक के समान अभ चन्द्रमा जगत के किए आनन्ददायक हे! तिथियों के नियमानुसार इसके क्षय-बृद्धि दो तथा बीच में को$ विकार न हो तो चन्द्रमा सबका कल्याण करता है |

गु्धपक्ष-एकादशौ से कृष्णपक्ष मे पश्चमी तक चन्द्रमा अति श्रमफल देता है ओौर बलीयान्‌ है।

चन्द्रविचार न

ऊष्णपक्ष– पञ्चमी से अमावास्या तक निर्बल ओर अद्म होता दै ओौर अद्युभफलू देता है । |

शङ्कपक्च की अष्टमी से कृष्णपक्ष की ससतमी तक पूरणं चन्द्र होता हे ।

कृष्णपक्ष की अष्टमी से श॒क्कपक्ष की स्तमी तक ॒क्षीणचन्द्र होता हे । यह वरिष्टजीका मत हे।

चन्द्रमा का विरोष विवरण–

वन्द्रमा–द्विपाद, स््रीग्रह. गुण-सत्वरुण. अवस्था– तारुण्य ओर प्रौटावस्था. तत्व–जकतत्व,. वण–गौरवण. धातु-रक्त. मणि– स्वच्छमोती, चन्द्रमणि, रस-ख्वण. देवता- जल. काल क्षण, दिरा- वायव्य, टषि-समदष्टि. उदय–पूवं वा पश्िम. बल्वत्ता–राि, त्ऋतु-वषा, समय-अपराह-सायकाल. कीडास्थान-नदौी-ताखाब, आयु-४८ या ७०, प्रदेर-वनदे श. अयन–दस्षिणायन., वणे- वेदय,

रोग-पांडरोग, जखोतपन्नरोगः- कामला पीनस, सखनीसम्बन्ध से होनेवाटे रोग, कालिका आदि देवियों से होनेवाली पीडँ तथा बाधा । चन्द्रमा का कारकत्व- बुद्धि, पू, सुगन्ध, दुगं की ओर जाना, रोग; प्राह्ण, आर्स्य, कफः, मिरगी का रोग, प्टीहा का बजाना, मानसिकमावः हृदय, खरी; पुण्य; पाप, खटाई, नीद; सुख, जलीयपदाथे, ष्वांदी, मोटागन्ना; सरदी का बुखार, यारा, कूं, ताखब, माता, समष्टि, मध्याह्न, मोती, क्षयरोग; श्वेतरज्ग, कटिसूत्र; कांसी का धातु, नमक; छोटाकद, मन, राक्ति; बावली, दीरा, शरदकऋत, दोघड़ौ का समय, मुखकान्ति, श्ेतवणै, उदर, गौरी की भक्ति, मधु, कृपा, दंसीमजाक, पुष्टि, गेह, कांति, मुख, मनकी दीघ्रगति, दही की ्वाह; तपस्वी, यशा, लावण्य; रात्रि मे बली, पश्चिमाभिमुख, विद्वान्‌, खाराः कामधन्धे की प्रसि; पधिमदिशा से प्रेम; मध्यलोक, नवरत्त, मध्यआयुजीवनः खानापीना, दुरदे शयात्रा, ट्प; कंघे की बीमारिर्योः छर तथा अन्य राजग्विह्णः अच्छाफटठ, अच्छारक्त तथा राक्ति; मछूटी तथा अन्य जलोत्पन्नजीव; सांप, सिर्क का कपड़ा, अच्छाविकास, चमकीटीवस्तु, स्फटिक; नरम कपड़ा, विद्युत- प्रवाह, चुम्कौय प्रवाह, माताका दूध, मासिक रजोदशंन, रेल्वेमधिकारी, जहाजों के कारखाने, अौषधिविक्रेता, लखोककमंविभाग, काव के कारखाने, वेधराल्, पेरैन्यदवाइ्योँ, अनाज की दुकान, किरानासामान, सिषवाश्विमाग वाटरवर्कस, साल्ट डिपार्दमेन्ट, आयात; नियात करविमाग, टकसाल |

७६ चमरकारचिन्तामणि का तुखनात्मक स्वाध्याय

नोर-छापाखाना, डरी, वनस्पति शास्र, वेग्यक, जन्तुखास्र, सृक्ष्मजीवराख्र, विमान, चाव, कपास, सकफेदवस्र, नसं, मिडवादफ इज्ञीनीयरिंग, दया, मोह, रानी, सरदारनी, उच्चगह पत्नी, जनता, प्रकाशक, घी-तेल, चामर, अरकार ।

प्राचीनग्रंथक्ार्यै कामत दहै कि पाणियों का देह जन्मट्य है-षडवर्गं इसके छः अंग | चन्द्रमा प्राण हे। अन्यप्रह धावुखूपर्दै। प्राण नष्ट होने से अंग ओर धाठ॒यों का नाद होता है । अतः सर्व॑ग्रहों में चन्द्रवक पधान है। अतः जन्मपत्र विचार करते समय चन्द्रमा का ॒विष्वार प्रधानतया कर्तव्य है। इसी भाव को केकर रारिगत चन्द्रमा का विष्वार करते है

मेप–मेषरारि का चन्द्र हो तो मनुष्य चंचटनेच, रोगी, धर्मात्मा, धनी, स्यूलजंघ; कृतज्ञ; निष्पाप, राजपूजितः, च्रीपरिय, दाता-जल्मीरु, आपाततः कटोर किन्तु पीछे गांतस्वभाव होता हे ।

वरृप–उृषराशि का ॒चन्द्रहोतो मनुष्य भोगी, दाता, ञयुद्धचिन्त, कार्य चुर, उदार, वलि, धनी, विलखासप्रिय, तेजस्वी भौर श्रेष्ठ मित्रोँवाला होता है।

मिशुन-मिथुनराशि में चन्द्रमा दो तो मन॒ष्य मधुरभाषी, चंचलनेत्र, दयालु, सुरतप्रिय; गानविन्यामिज्ञ, कण्टरोगी, यशस्वी, धनी, गुणी, गौरवर्ण, लम्बाकदवाला, चुर; उचितवक्ता; मेधावी, दटप्रतिन्ञ, कायंकुरट ओर न्यायकर्ता होता है |

कक–ककं मे चन्द्र हो तो मनुष्य उन्योगी, शिरोरोगी, घनी, दर, धर्मिष्ठ, गुख्मक्त मतिमान्‌; कशदारीर, कायकुराल, प्रवासप्रिय, क्रोधी, सरल हृदय, अच्छ मित्रोंवाटा; घर-गृहस्थी से विरक्त होता रै।

सिह-सिंहराि मं चन्द्रमा हो तो मनुष्य क्षमायुक्त, कार्यतत्पर, मच्मां- सप्रिय; ्रुमकरड, रांत; भीरु, अच्छे मित्रोंवाला, विनीत, अतिक्रोधी, माव्र-पित्र- भक्त ओर व्यसनी होता हे |

कन्या-कन्यारारि का चन्द्र हो तो मनुष्य विलासी, सजनानन्ददाता, सुंदर, धामिक; दानी, काय॑, कवि, ब्रद्धः वेैदिकधर्मनिष्ठ, लोकप्रिय, चव्यगीत- व्यसनी, प्रवासरतः चरी के िर्‌ दुःखी ओर कन्याजात होता दहै।

तुदखा-वुलागरि मं चन्द्र हो तो मनुष्य अकारण क्रोधी, दुःखी; कोमल्वाणी, दयाल, चचटनेत्र, चर संपत्तिवाटा, ग्रदेद्यर, व्यापार्वतुर, देवपूजकः, मिच्रप्रियः; ग्रवासी अं)र छोकमान्य होता है |

व्रश्िक–वृश्चिकरारि मं चन्द्र हो तो वाल्यावस्थातःप्रवासी, सर ह्यद्य, द्र, पीतनेत्र, परदारागामी, मानी, मिष्ठमाषी, साहस से अ्थाजंन करनेवाला, मात॒मक्त; संगीत-काव्य-कलाभिज्ञ होता है।

धनु–धनुरारि मं चन्द्र हो तो मनुष्य सूर, सुबुद्धि, साखिक, जनप्रिय, शिव्पज्ञ, धनाव्य, स॒न्दरस्रीपति, मानी, सच्चरित्र, मधरुरमाषी, तेजस्वी, स्थूलकाय अर कुल्धाती होता ह | |

चन्द्रविचार ७७

मकर-मकर मे ष्वन्द्र होतो मनुष्य कुलाधम; स्रीवश-स्रीजित, पंडित, परद्रेषी, गीतज्ञ, स््रीबछछछम; पुचरवान्‌, मात्रवत्सक, धनी-दानी-देमानटार नौकरो- वाला, दयाल -बहुवां घव, दूसरों द्वारा सुखपानेवाला होता हे ।

कुभ–कुमराशि मे चन्द्रमा हो तो मनुष्य दाता, आक्सी, तज्ञ, हाथी- घोडा-भौर धन का स्वामी होता है । यह सुद्रनेच, सौम्य धन ओर विद्या के अर्जन करने मे लीन, पुण्यात्मा, यशस्वी, स्व्चुजबलोपार्जित धनवाल; मंद्ूकद्र ओर निर्भीक होता दहे।

मीन–मीनरारि मे चन्द्र हो तो मनुष्य गभौर, चर, वाकूपट्‌, मानवश्रेष्ठ, क्रोधी, कृपण, ज्ञानी, गुणी, कुल्पिय, खछपसेवक, रीघ्गामी, गीतकुाल आओौर बन्धुप्रिय होता हे ।

लयन आत्मा है ओर चन्द्रमा मन है! अतः खन, कग्ननवांा ओर चन्दर तथा चन्द्रनवांश से ग्रहों का फल समञ्चना ष्वादिए । चन्द्रमा बीज है-ख्गन पुष्प है । नवांश आदि फलरूप है । ओौर भाव स्वादु फक के समान है । एेसा मत राख्रकायों का है । अतः चन्द्रविष्वार अत्यावद्यक है । अतएव च्वन्द्रकुण्डटी मं स्थित ग्रहों काफठ ख्ख जाता है :-

चन्द्रात्‌ सूयेफल–

१. ष्वन्द्रमा के साथ सूर्यदहो तो मनुष्य विदेशगामी, भोगी; कटहप्रिय होता है ।

२. ष्वन्द्रमा से द्वितीय सूर्यं हो तो बहुत नोकरोवाला; यशस्वी तथा राजमान्य होता दे ।

३. ष्वन्द्र से तृतीय सूर्यदहोतो मनष्य सोने का व्यापारी, श्॒दधचित्त आओौर वेभव मे राजा के तुल्य होता हे।

४. प्वन्द से चतार्थं सूर्यहोतो मनुष्य मातव्रूसेवक नहीं होता रहे अपितु

यकः होता हे ।

न्द्र से पचम सू्हो तो मनुष्य पुत्रियांसे दुःखी ओौर बहुत पुत्र

वाटा होता दहं ।

६. प्वन्द्रसे छल .सू्यंहो तो मन॒प्य शत्नुविजेता, शूर ओर लोकरश्ा- तत्पर होता है ।

७, च्चन्द्र से सप्तम सूर्यं हो तो मरष्य सुखी, सुशीट ओर राजमान्य होता हे ।

८. ष्वन्द्र से अष्टम सूर्यं हो तो मनुष्य सवैदाक््टयुक्त ओर अनेक कष्टौ से पीडित होता हे ।

९, चन्द्र से नवम सूर्यं हो तो मनुष्य धार्मिक, सप्यवक्ता कितु वन्धुक दायकः होता हे |

७८ चमत्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

१०. चन्द्र से दशम सूयं हो तो मनुष्य महाधनी होता है ओर इसके द्वारपर धनवान्‌ खड़े रहते ई । य्‌ © क्‌ ११. चन्द्र से एकाद सूं हो तो मनुष्य राजा से गौरवान्वित होता है, यह बहुज्ञ, प्रसिद्ध ओर कुख्नायक होता हे । १२. चन्द्र से द्वादश सूर्यदहोतो मनुष्य अधा दहोतादहै यदि इसके साथ पापरग्रह भी दहो । अन्यथा काणा होता है।

चन्द्रात्‌ भोमफट–

१, चन्द्र के साथ भौम हो तो मनुष्य रक्तनेत्र; रक्तखाव रोगयुक्त ओौर रक्त- वणं होता है |

२. चन्द्रसे द्वितीय मौम हो तो मनुष्य भूमिपति, खेती करनेवाला होता है ।

२. चन्द्र से वतीय मौम हो तो मनुष्य के चारभाई होते ै- सुशील ओर सुखी हाता है |

४. चंद्रसे चतुथं भौमदोतो मनुष्य सुखद्ीन, धनदीन ओौर चखीडंता होता दहे। ^“. चन्द्रसे पम मौमदो तो मनुष्य सन्तानद्ीन होता दै। यदिस्री क प्रम मौम हो तो वह निश्चित संतानरहित होती है ।

९ चन्द्रसे छटाभौम हो तो मनुष्य पापी, रत्र ओौर रोगसे पीडित होता हे |

<. चन्द्र से सत्तमभौम होतो मनुष्यकी खरी कुरीखा आर कटडमापिणी होती दे ।

_ <. चन्द्र से अष्टमभौम हो तो मनुष्य पलीघातक, पापी, शीङ भौर सत्य से हीन होता है, ^. चन्द्र से नवमभौम हयो तो मनुष्य धनी, बुदापे में पुत्रवान्‌ होता है । ९०. चन्द्र से दशममौम दौतो मनुष्य के द्वारपर इाथी-घोडे कौ सवारी रहती हे | | ९“ चन्द्र से एकादशभौम होतो मनुष्य राजद्वार में प्रसिद्ध, यर्‌( अौर रूप सं युक्त होता है। = ^ ६२. चन्द्र से द्वादशभोम होतो मनुष्य मावा के ठिरि कष्टकर्ती भौर स्वयं कषटभोक्ता होता है । ।

चन्द्रविचार ७९

चन्द्रात्‌ बुधफल-

६. प्रथमभाव मे चन्द्र ओौर बुध एकत्र होतो मनुष्य सुखदहीन, कुरूप, कट़माषी, भ्र्टमति ओर स्थानश्रष्ट होता है ।

२, चन्द्र से द्वितीय बुध हो तो मनुष्य धनी, द-बन्धु-जन से सुखी होता है । इसकी मृत्यु शीतसेग से होती है ।

३. चन्द्र से व्रुतीय बुध हो तो मनुष्य धन-सम्पत्तियुक्त, राज्यल्मभ ओौर महात्माओं की संगति पाता है ।

४. चन्द्र से चतुथं बुध दहो तो मनुष्य सुखी होतारै। इसे मामा के धर से धन मरता है । यर मनुष्य विख्यात होता दै । |

^. चन्द्र से पञ्चम बुध दो तो मनुष्य पण्डित, बुद्धिमान्‌, रूपवान्‌, कामातुर ओर कटभाषी होता दै |

६. ्वन्द्र से छठा बुध हो तो मनुष्य कृपण, कातर, ज्गड़ने में उरपोक, लोमश देह मौर दीर्घल्ेचन होता दै । ७. चन्द्र से सप्तम बुध हो तो मनुष्य स्रीवय, धनी, कंजूस भौर दीर्घायु होता है |

<. चन्द्र से अष्टम बुष हो तो मनुष्य शीतप्रङृति, राजद्रबार मे प्रसिद्ध, आर रानुओं को भयदायक होता दै ।

९° चन्द्र से नवम बुध हो तो मनुष्य स्वध्म-विरोधी, परधर्मपेमी भौर सत्रका विरोधी होता है ।

६०. चन्द्र से दरम बुध हो तो मनुष्य राजयोगी होता है । चन्द्रल्द्रसे दशम बुघ हो तो मनुष्य कुटुम्बनायक होता है ।

९१९. चन्द्र से एकादशबुधदहोतो मनुष्य को प्रत्येक कार्यं मे लम होता दे । इसका विवाह कष्वपन में होता है ।

१२. चन्द्र से द्वादश बुधहोतो मनुष्य कृपण होता है। ्लगडेमे हार जाता है, इसका पुत्र मी पिचरवत्‌ होता रै। चन्द्रात्‌ गुरुफर- १. चन्द्र के साथ रुरुहोतो मनुष्य दीर्घायु, व्याधिरदहित ओर सम्पन्न होता है। ९. चवन्द्र से दितीय गुर हो तो मनुष्य राजमान्य, सौवषं जीनेवारा, उग्र, प्रतापी, धर्मात्मा ओर पापहीन होता है।

र. तृतीय गुरु हो तो मरुष्य नारीवछछम होता है । १७ वें वर्षं मे इसकी पृकसम्पन्नि की उन्नति होती है ।

८० चमत्कारचिन्तामणि का तुख्नात्मक स्वाध्याय

४. चतुथं गुख होतो मनुष्य घरमे सुखी; मात्रपक्च से कष्टी ओौर दूसरे के धर में काम करनेवाला होता है । <. पञ्चम गुरं हो तो. मनुष्य द्िव्यरचश्चु, तेजस्वी; पुत्रवान्‌ उग्रस्वभाव ओर महाधनी होता है । ६. च्छमं गुरुदो तो मनुष्य उदासीन होकर घर छोड़ जाता दहे। यह ूर्णायु, अव्यवस्थित ओर भीख मांग कर जीवन चलाता है । ७. सप्तम गुर हो तो मनुष्य तिना बहुत खच किए दी बहुत देर जीता है; यह स्थूकुकाय, सदाचारी ओर घरमे नेता होता है । अष्टम गुङ् हो तो मनुष्य रोगी रहता दहै। पिता के अच्छेदहोने पर भी सुखी नहीं रहता है । ९. गुरु नवम होतो मनुष्य धार्मिक, धनी, सुमागंगामी ओर गुख-देव- भक्त होता है। १०. गुर दशमदहोतोः मनुष्य स्री-पुत्र-णृह का परित्याग कर तपस्वी होता हे। ११, गुरु एकादश हो तो मनुष्य राजतुव्य वैभव पाता है-हाथी घोडे सवारी के लिए होते है| १२. द्वादश गुरु हो तो मनुष्य अपने कुट्म्ियां से विरोध रखता हे। सदव्यय होता है । चन्द्रात्‌ गुकफट– १. चन्द्र ओर शक्र एकत्र हो तो मनुष्य की मृत्यु जर मेँ अथवा सन्निपात रोग से अथवा किसी ईदिसक जीवसे होती दहै । शक्र द्वितीयदहो तो मनुष्य महाधनी; महान्‌ ज्ञानी ओर राजतुव्य होता है । २. व्रतीय शक्र हो तो मनुष्य धर्मिष्ठ, बुद्धिमान्‌ ओौर म्ठेच्छांसे खभ उरखने वाटा होता हे । ४. प्वतुथं शुक्र हो तो मनुष्य कफ-प्रकृति, अतिंक्रगश ओर बुद्रपि में धन- हीन होता हे। ५. पप्वम शुक्र हो तो मनुष्य को कन्यासन्तान अधिक होती है । यह धनी होता हया मी बदनाम होता हे । ६. छटा द्युक्रहोतो मनुष्य अञ्यम में खवचं करता है। यह रोगदहीन ओौर विजयी होता हे । | ७. सप्तम श्युक्र हो तो मनुष्य आलसी, काम मे अभ्हड-हरसमय शोकवान्‌ रहता हे ।

६ चन्द्रविचार ८१

८. अष्टम शुक्र हो तो मनुष्य प्रसिद्ध; महान्‌ योद्धा, दाता, भोक्ता ओौर धनान्य होता हे ।

९. नवम शुक्र हो तो मनुष्य के वांधव बहुत होते है, बहुत मित्र होतेह ओर बहुत उहिने होती ह |

१०. ददाम शक्र हो तो मनुष्यको माता-पितासे सुख मिरता हे दीर्घायु होता है ।

४१. एकादश शक्र हो तो मनुष्य, शत्रु दीन, रोगहीन ओौर दीर्घायु होता है ।

५२. द्वादश शक्र हो तो मनुष्य परदारग, लम्पट ओौर रानहीन होता है। `

चन्द्रात्‌ शनिफड-

६, चन्द्रशानि एकत्र हौं तो मनुष्य रोगी, निधन आर बन्धुहीन होता है

२. द्वितीयशनि हो तो मनुष्य जन्मसमय माता को क्ष्टकारी होता है । इसका पालन बकरी के दूध से होता है । “अजा तस्य माता ॥

३, तृतीय शनि हो तो मनुष्य को बहुत कन्याएं होती है ओौर मरती भी है ।

४. व्वतुर्थं शनि दहो तो मनुष्य पुरुषार्थ ओर शत्रुनाराक होता है ।

५. पचम शनिहो तो मनुष्य की पल्ली ` सोवकेरङ्ग की ओर मधुर भाषिणी होती हे ।

६, छटा शनि हो तो मनुष्य रोगी मथवा अस्पायु होगा ।

७, सप्तम शनि हो तो मनुष्य धार्मिक किन्तु बहुत च्नरियों का पति होता है ।

८. अष्टम रानि हो तो मन॒ष्यस्री आओरपिताको क्ष्टदेताहै। जपादि कतव्य ह|

९. नवम शनि हो तो अपनी देशा ओर अन्तदंशा में हानि पर्हचाता है ।

१०. टदशम-रनि से मनुष्य धनी; पतुल्य तौभी कृपण होता है ।

११. एकाद रा-शनि मनुष्य को पञ्युधन ओर यरा दिख्वाता है

१२. द्वादश रानि हो तो मनुष्य धन-धर्मदहीन ओर भिक्ुक होता दै ।

चन्द्रात्‌ राह्‌-
१. च्वन्द्र से १-१०-५ राहु हो तो मनुष्य राजा वा धनाल्य होता है

२. चन्द्र से ६-१२ वें राहु हो तो मनुष्य राजा वा राजमन्त्री अथवा धन- घान्य सम्पन्न मनुष्य होता हे ।

३. ष्वन्द्रसे्वाऽवेंराहुदहोतो माता-पिताको कष्ट होता है। मनुष्य स्वयं भी सखदहीन होता दै ।

४, ष्वन्द्र से २-११ वँ राह हो तो धन-सन्तान-सुख ओर या मिलते रै । ५. ष्वन्द्र से पचम राहु हो तो मनुष्य पानी मेँ डूबकर मृल्यु पाता दै ।

<८र चमत्कारचिन्तामणि का तुखनात्मक स्वाध्याय

चन्द्रात्‌ केतु– राहु के समान क्तु के फल होते है| द्ष्िफट मेषरादिस्थित चन्द्र पर– रवि की दि से मनुष्य अ्यु्रराजा किन्तु नम्रजनों के प्रति अतिग्रदु, धीर ओर संग्रामप्रिय होता हे। मङ्गकक्यदष्टिसे मनुष्यर्दोँत ओर ओंखोंकेरोगोंसे पीड़ित, विष से, अचि से तथा दाख्रसे विक्त देह, जिलाधीश ओर मूत्रकरृच्छर रोग से युक्त होता है। बुधक्ेदृष्टिसे अनेक वियाओं का आचार्यं, सत्यवक्ता, मनस्वी, सुकवि ओर यशस्वी होता है । गुरु को दष्ट से धनी, बहत नौकरोवाख, राजमन्त्री वा सेनापति होता है | युक्र कण दषटि से सौभाग्यः पुत्र ओर धन से युक्तः सन्दरीमूष्रणयुक्त स्रीवाल ओर भोगी होता है । | रानि कीदष्टिसेद्धेषी, दुःखी, दसि, मलिन ओौर मिध्यामाप्री होता है। वृषरादिस्थित चन्द्र पर-रवि की दृष्टि हो तो मनुष्य खेती आदि अनेक कायं करनेवाला, नौकायों यौर चौपाए जानवरों से लाभ उठानेवाखा, अतिधनी ओर प्रयोग जाननेवाला होता है | मङ्गल कणे दृष्टि से मनुष्य अतिकामी, परस्री के कारण पल्ली व मित्रजनों ते हीनः, च्री-हद्यमनोहर, माता के लिए अञ्युभम अर्थात्‌ ल्ड़ाई-ञ्चगड़ा करने- वाला होता है । बुध क्ण दृष्टि से मनुष्य पण्डित, वचन-चतुर, प्रसन्न, सर्वहितेच्छुं ओर उ्तमगुणों से युक्त होता है | गुर के दृष्ट से मनुष्य स्थिरपुत्रोवाल्य, ख्री-तथा मिरत्रोवाला, मान्र-पितर-मक्त, परमन पुण, धार्मिक ओर विख्यात होता दै । कर को दष्ट से मनुष्य भूषण, सवारी, छह, शय्या, आसन, सुगन्ध, वस्र तथा मा का उपयोग करनेवाख होता है। गनि की ष्टि हो तो मनुष्व निर्धन, माता ओर खियों का अनिष्टकरनेवाल्, पुत्र-मित्र तथा बन्धु से युक्त होता दै) | भि्ुनरारिस्थित चन्द्र पर-सू्ंकी दष्टिहो तो मनुष्य बुद्धि, सूप, धनवाल, ख्यात, धर्मात्मा, दुःखी सौर अत्पधनवाला होता दै । भौम की दृष्टि से वीर, पण्डित, सुख, वाहन, एेश्रय यौर रूपवान्‌ होता हे । नुध की दृष्टि से मनुष्य धनोपाज॑न म निपुणः सदाविजयी, धीर, अप्रतिहत आज्ञावाला राजा होता हे ।

चन्द्रविचार ८३

गुरु की दृष्टि से मनुष्य शास्र-वि्या-भाचायं, विख्यात; सत्यवक्ता, रूपवान्‌ । वाचाल भौर मान्य होता हे |

शक्र कीदृष्टिसे सुन्दर खत्री, वाहन, भूषण ओौर रलं का भोक्ता होता हे

शनि की दृष्टि से बन्धु-खरी-घन से रहित-लछोकविरोधी होता हे ।

ककस्थचन्द्र पर-सूर्यं कौ दृष्टि से मनुष्य राजा का छोय कर्मवारी निर्धन- पत्रवाहक वा दुगंका रक्षक होता है।

मङ्गल की दृष्टि से शूर, क्षतदेह, मातृद्ेषी, ओर कार्य-चतर होता है ।

बुध कौ दषटिसे सुबुद्धि, नीतिज्ञ, धन-स्री-पु्र-युक्त, राजमन्त्री ओौर सुखी होता हे |

गुरु को दृष्टि से राजा, राजाचितगुणयुक्त, खखी, खरीलास्रीपति, नीतिज्ञ- वेनयी ओर पराक्रमी होता है।

चक्र को दष्ट से धन-खुव्ण-वस्र-सत्री ओर रलो से युक्त होत। है । वेदयागामी

सौर सन्दर होता है

रानि की दष्ट से भ्रमणशील, सखुखहीन, दस्दि-मान्े्टा, मिथ्यावादी, पापी ओर नीच होता है ।

सिहस्थचन्द्र पर- रवि की टष्टिसे राजतस्य; उत्तम गुणयुक्त, गम्भीर

ओन्दवाला; बीर, मपी सौर ख्यात होता है

मङ्गक को दृष्टि से सेनापति, प्रतापी, उत्तम स्री-पुत्र-धन-वाहनयुक्त पुरुष होता हे ।

बुध की दृष्टि से स्रीवरा, सख्रीप्रिय-घन-तथा सुखयुक्त होता हे ।

गुरु की दष्ट से कुल्रेष्ठ, ख्यात ओौर राजतुल्य होता है

स्रकीटष्टिसे खरी ओौर धन से युक्त, रोगी, स््रीसेवक, रतिकीडानिपुण ओर विद्वान्‌ होता हे। ।

शनि की दृष्टि से खेती करनेवाला, निर्धन, मिथ्याभा षी, दुर्गरश्चक, खी- सुख वचित आर क्षुद्र पुष होता दै।

कन्यारािस्थचन्द्र पर– रवि कीदृष्टिसे राजाका कोष। ध्यक्ष, ख्यात, अपनौ वात का पका, उत्तमकायकर्ता ओर स्रीहीन होता है |

मङ्गल की हष्टि से शित्पकल्रनिपुण, ख्यात,घनी, शिष्षित, धीर आओौर माव्रवैरी होता है। |

बुध कौ दष्ट ज्यौतिषर तथा काव्य का ज्ञाता, विवाद ओर युद्ध मे विजयी आओौर अतिनिपुण होता है ।

गुरु को दष्ट से बन्धु -जन-युक्त सुखो, राजकर्मचारी, प्रतिज्ञापारुक, ओर धनी होता है ।

८७ चमर्कारचिन्तामणि कां तुखनात्मक स्वाध्याय

श॒क्र की दष्ट से स््रीभूयस्त्व, भूषणभूयस्त्वयुक्त, मोग ओर धन से युक्त होता है । इसका नित्य भाग्योदय होता है ।

रानि की दष्टिसे स्मरणदक्तिहीन; दरिद्र; सुखदीन, माव्रहीन आर त्री वश्च होता है ।

तुखारा दिस्थचन्द्र पर-रवि की दष्ट हो तो मचुष्य निर्धन, रोगी, घ॒मक्छड, मानदीन; मागदहीन; पुत्रहीन ओर निवल होता है ।

मङ्गल की दष्टिसे तीक्षण स्वभाव, प्वोर द्र; परदारग, सुगन्ध भोगी, बुद्धिमान्‌ ओर नेचरोगी होता हे ।

वधकौ दृष्टि से कलाऽमिज्ञ, धनाव्य, प्रिवमाप्री, विद्वान्‌ ओौर देश ख्यात होता हं |

गुरुको दृष्टि से सवपूञ्य॒, रतनथादि मूल्यवान्‌ वस्तुओं के क्रय-विक्रय में निपुण होता हे ।

शक्र की दृष्टि से मनोहरः नीरोग, सौमाग्यवान्‌, पुष्टदेह, धनी, विद्धान्‌ , अनेक-उपायां का जाननेवाला होता हे |

रानि को दष्ट से धनी; प्रियभाषी, वाहनयुक्त, विषयी; सुखहीन सौर मातर- भक्त होता हे।

वृश्चिकरादिस्थचन्द्र पर- रविं की दृष्टि से लोकद्वेषी, भ्रमणरील-धनी, किन्तु सुखदहीन होता हे ।

मङ्गल की दृष्टि से पैयवान्‌ , राजवुव्य, एेश्व्वान्‌ , श्यूर-रणविजयी अओौर बहुभोजी होता हे |

बुध की दष्ट से मूख, कटडमाषी;, यमक्सन्तानयुक्त, योग्य; नकटी-वस्तु वनानेवाखा ओर गीतन्ञ होता है ।

गुरु की हृष्टि से कायखीन, लोकेष्टा, धनी भौर सुन्दर होता दे ।

शुक्र की दृष्टि से बहुज्ञ, अति सुन्दर; धनी, वाहनवान); स्री द्वारा न्टवल होता हे ।

रानि की दष्ट से अधम संतानवाला, कृपण, रोगी, निधन, छटा अर अधम होता है ।

धृलुरािस्थचन्द्र पर-रवि की दृषदो तो मनुष्य राजा; धनी वीर, ख्यात, बहुसुखी ओौर उत्तम वाहनयुक्त होता दै ।

मङ्गल की दृष्टि से सेनापति, धनाढ्यः, सुन्दर, पराक्रमी, उत्तम. श्रव्यवाम्‌ होता है ।

बुध की दृष्टि से बहुभत्यवान्‌, दद्‌ त्वचावान्‌ , उ्योतिष-रित्प आदि मं

णर सौर नताप्यायं होता है ।

‘वन्द्रविचार ८५

गुरु की दष्ट से खन्दर, राजमंत्री, षन-धर्म-सुखं सम्पन्न होता है ।

श॒क्र की ष्टि से खखी, ख॒न्द्र, सौभाग्यवान्‌, पुत्रवान्‌ , धनी, कामी, सुमित्रवान्‌ तथा स््रीवान्‌ होता है।

दानि की दष्ट से प्रिय; सत्यवक्ता, बहूक्ञ; सरर्स्वभाव ओर राजपुरुष होता हे।

मकरराशिस्थचन्द्र पर-रवि की दृष्टि से निधन; दुःखी, भ्रमणरील, परेभ्य; मलिन भौर शिषव्पक्ञ होता है।

मङ्खल्की दृष्टि से धनान्य; उदार, खुन्दर, खवाहनवान्‌ भौर प्रतापी होता हे।

बुध की दृष्टि से मूखं, प्रवासी, खीदीन, चञ्चल; तीक्षणस्वभाव; सुख से ओर धनसि हीन होता दहै।

गुर की दृष्टि से राजा, बली, राजगुणयुक्त, बहू-खी-पुत्र-मित्रवान्‌ होता है ।

द्युक्र की दष्ट से परदारग, धनी, भूषणयुक्तः बाहनवान्‌ , निन्दित भौर पुत्र- हीन होता है।

रानि कीदृशि से आख्सी, मछिन; धनी; कामी; परदारग ओर शटा होता है ।

कुभराशिस्थचन्द्र पर– रवि की दष्ट हो तो अतिमलिन; श्र; राजतुख्य, धार्मिक ओर खेती करनेवाला होता हे।

मङ्गल की दृष्टि दो तो सचा, मात्ृपितृहीन, धनदीन, आलसी, क्र ओर दूसरे का काम करनेवाला होता हे

बुध की दृष्टि से भोजनविधि निपुण, गीतनज्ञ, खरीपरिय; अत्पधनी भौर अस्प सुखवाख होता हं ।

गुरु की दृष्टि से खेतीवाला, उपवनवाल; उत्तम स्रीभोग करनेवाखा भौर श्रेष्ठ पुरुष होता हं ।

शुक्र की इष्टि से नीच-पुत्र-मितव्रहीनः भीर, गुख्जनतिरस्कृत, पापी, दु्टखरी- पति, तथा अस्पसुखी होता हं ।

रानि की दृष्टि से क्म्बेनाखूर्नौवालाः दीषं रोमवान्‌, मञिनि, परस्ीगामो, अधर्मी, वक्ष आदि स्थावर वस्तुओं के विक्रय से धनाब्यहोतादहै।

मीनरादिस्थचन्द्र पर-रवि की दष्ट हो तो अतिकामी, सुखी, सेनापति धनाढ्य ओर प्रसन्न स्रीवाखा होता दै।

मङ्गख कौ दृष्टि हो तो लोक म अनाहत, सुखदहीन, कुख्टापुत्र, पापी ओर

दूर होता हे ।

बुध कौ दृष्टि हो तो राजा, अतियुखी, उत्तमखीयुक्त भौर स्वाधीन होता है।

गुर की दृष्टि हो तो मनोहर, मण्डक्शों मँ श्रेष्ठ, धनान्य भौर सुकुमार ख्री- वान्‌ होता हे ।

<८& चसक्छारचिन्तामणि का तुखुनात्मक्‌ स्वाध्याय

ञुक्रकी दृष्टिद्ोतो सुशील, रतिक्रीडाचतुर, चत्त-गान-प्रेमी ओर स्रीजन मनोहारी होता हे । रानि कीदष्टिदोतो विकल, माव्रशत्रु; कामी, खत्री-पुत्र तथा बुद्धिहीन; अधम ओर ऊुरूपा खरी मं आसक्त होता हे । अय्‌ चश्द्र्षृट म्रथमस्थान का चन्द्र “’विधुर्गोङ्कखीराजगः सन्‌ वपुस्थो घनाध्यक्षटावण्यमानंद पणम्‌ । . विधत्ते धनं क्षीणदेहं दरिद्रं जडं श्रोच्रहीनं दरोपटग्ने | ५॥ अन्वय-गोकुटीराजगः (सन्‌ ) वपुस्थः विधुः घनाध्यक्षलावण्ये आनन्दपूर्णं नरं विधत्ते । दोषल्ग्ने (नरं) अधनं क्षीणदे हं टर््रिं जडं श्रोचदीनं (च) विधत्ते | २ ॥ सं< टी<–अथ चंद्रस्य तन्वादि द्वादशभावफलन्याह-विधूरिति-विधुः चंद्रः गोकुटीराजगः व्रषकव.ट मेषस्थः सन्‌ वपुस्थः खग्नगः धनाध्यक्ष धनाधिकारिणं अआनंदपूणं प्रमोदनेपुण्ययुक्त, रोषटग्ने कथितान्यराशौ अधर्म ध्मरदितं, ( अधने इतिपाटे ) धनरहिते, क्षीणदेहं मंदवी्यं॑दरिद्रं धनदीनं, जडं मूकं मतिहीनं वा श्रो्रहीनं वधिरं नरं विधत्ते करोति ॥ १॥ अथ- जिस मनुष्य के जन्मरग्न में चष, कक ओौर मेषरादि का चन्द्रमा हो तो वह कुवेर के समान धन से सुरोमित होता है | सौर पूण आनन्द को पाता हे । मिशन, सिंह, कन्या, वला, बृर्िविक, धन, मकर, कुम्भ सौर मीन राशि का होकर च्वन्द्रमा जन्मल्नमेंदहो तो मनुष्य दरिद्र, दुवंट, मूर्ख मौर हिरा वनता है ॥ १॥ | तुटना– “क्रिये तंगे स्वक्षं प्रभवति विलग्ने हिमकरो विधत्ते सव्वाव्यं नरमवुल्मोदाच्रत मपि। गदव्रातेः युक्तं जडमधनमन्य्ष॑ग उत भ्नियाहीनं नित्यं वधिर मपि सत्वैः विरहितम्‌ ॥ जोवनाय अथ–जिस मनुष्य के जन्म समय में चंद्रमा मेष, चष वा कर्वः का होकर ख्ननमंदहौ वह पूणं वली तथा धन से युक्त होकर अतुल आनन्द को प्रास्त करता हे । यदि इनके अतिर्कति मिश्रुन, सिह, कन्या, ठुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ मौर मीन रिका होकरच्न मंदो तो मनुष्य रोगी, मूखं, निधंन, वटहीन ओौर वधिर होता है | ˆ लग्ने चन्द्रे जडः शद्धः प्रसन्नः धनपूरितिः । लीवछ्मः धार्मिकश्च कृतघ्नश्च नरो भवेत्‌ ॥* काशशीनाथ अथे-ख्न मे चन्द्रमा हो तो मनुष्य जड ( मूखं वाआआटसी ) पतित,

प्रसन्न, धनी , तथा धार्मिक होताहै। यह पुरुष स्यो का प्यारा सौर कृतध्न होता है । |

खउन्द्रफटख ८ ७

““दाक्षिण्य-रूप-धन-मोग-गुणेःप्रधानः वचंदरेकुलीरबृषभाजगते विखग्ते । उन्मत्त-नीच-वधिरोविकलश्चमूकः रोषे नरो भवति कृष्णतनुः विदोषात्‌ ॥ कतल्वाणवर्भा अथे– जिस मनुष्य के जन्मसमय मे कक, वृष मौर मेष मे होकर रग्न मं चन्द्रमा हो तो वह चुर, रूपवान्‌ , धनवान्‌, माग्यवान्‌ भौर गुणवान्‌ होता दे । अन्य रारियों मिथुन आदि में होकर यदि यह चन्द्रमा में हो तो पुरुष उन्मत्त अथात्‌ अभिमानी ( गर्वीला ) नीच, वहरा, व्याकुलचित्त, गगा ओर विरोषतः कृष्णवणं देहवाटा होता दै । “जड़ोमूकोन्मत्तो विकल्हदरयोधोऽनुचितङ्ृत्‌ परपेष्योमूतों शिनि बहुशः क्षीणतपुषि । कु टीरस्थे सौख्यौमवति ब्रृषगे भूरिविभवः भवेन्‌ मेषे स्वः करव पुषि पापेषु ठवरुता॥ जण्देव अथं-्ग्न मे चन्द्रमा होतो मनुष्य मूर्ख, मूक ८ गगा ) व्याकर चित्त वाखा; अथवाधूते, नेत्रहीन ( अंधा ) अनुचित कायं करनेवाला, दूसरों का दास, दुबला-पतत्म शरीरवाला होतः है । ककंराशिका चन्द्रहोतो मनुष्य सुखी; वष का चन्द्रहोतो ब्रहुत एेश्चय वाला, यरि मेष का चन्द्रहोतो धनवान्‌ होतादहै। यदहलख्गन का चन्द्रमा यद्धि पापग्रहोंकेसाथक्षीणदहोतो पूरवाक्त फल अल्पमात्रा मं होते रह । “मूकोन्मत्त जडान्धहीन वधिरः प्रेष्या शशांकोदये सख्त जगते घनी बहुमुनः ॥” आचाय बराहसिहिर अ्थ- जिस मनुष्य के जन्मकाल्मे लनम चन्द्रमाहो तो वह गंगा, मूखं, अन्धा, निन्दित कायं करनेवाखा, बहिरा ओर दासकर्म-कर्ता होता है। यदि टगन में स्थित होकर चन्द्र ककराशि का दो तो मनुष्य धनवान होता है। यरि चन्द्र मेषराशि का होतो मनुष्य बहुत पुत्रं से युक्त होतादै। यदि उचचरारि व्रष्मेंहोतो पुरुष धनी होता दहे। “तनुगत कुसदेरो दीर्वजीवी सुखी स्याद्‌ बहुतर घनमोगी वीरयुक्तः सुदेदी । मवति च यंदि नीचः चन्द्रमा पापगो वा जडमतिरतिदीनःस्यात्‌ सदावित्तहीनः ॥ मानसागर अ्थ–यदि जातक के तनुभाव (प्रथममाव) मे चन्द्रनाहो तो वहं दीर्घायु, सुखी, धनान्य, श्रयं ओर मोग मोगनेत्ाका, बलान्‌ भौर सुन्दर होता दहै | यदि यह्‌ चन्द्रमा नीचरारिमं होतो, अथवा पापग्रहकेसाथदहो तो मनुष्य जडवुद्धि ( मूखं ) अतिदीन, यर सदेव धनदहीन होता है । रिप्पणी-मानसागर ने मेष, वृष, ककं ओौर अन्य राशियों मे चन्द्रमा हो तो क्या फल होगा-यह नदीं बताया ह ।

६८८८ ४०९ क

सिते चन्द्रे ख्ये दृद तनुरद आयुरभयः बलिष्टो लक्ष्मीवान्‌ मवति क्षयगते ।* मन्तरेश्वर

८८ चमस्कारचिन्तासणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

अथं– यदि श्ुक्रपश्च का चन्द्रमा ल्धमेंहोतो मनुष्य निर्भव, दृट्‌ शारीर वाला, वचिष्ठ, टक्ष्मीवान्‌ ओर दीर्घायु होता है । यदि कृष्णपक्ष का चन्द्रमा ख्य मेदह्ोतो इसका फट विपरीत होता दै। “व्दाक्षिण्य-रूप-घन-मोग-गुणेः वरेण्यश्वनद्रे कुटीरतरघभाजगते विल्मरे | उन्मत्त-नीष्वोवधिरो विकलोऽथमूकः रोषरेष्ु ना भवति दीनतनुः विशेप्रात्‌ 1” द डिराज अथ– जिसके जन्मकालमें कक, वृपवा मेष करा होकर चन्द्रमा च्यमे हो तो वह मनुष्य, चतुर, रूपवान्‌, धनी, गुणी ओर उत्तम मोग मोगनेवाला होता है। यदि मिथुन, सिह आदि अन्य रारयोंमे होकर चन्द्रमाल्यमें हो तो मनुष्य उन्मत्त ( पागठ वा घमंडी ) नीचरत्तिका, वभिर, व्याकुल हृदय गंगा तथा विशेषतया दुर्बल देह होता हे । | “क्षीणे रारिन्युदयगे वधिरोगहीनः प्रेष्यश्च पापसहिते तु गतायुरेव | स्वोचस्वके धन-यरोबटुरूपदाली पूर्णतनौ यदि चिरायु सुपेति विद्वान्‌ ।।> । वेययनाथ अथे– क्षीण चन्द्रमा यदिल््मेंहोतो पुरुष वधिर, अंगहीन तथा दास ओौरदूत होतादै। यद्विइख चन्द्रके साथं पापग्रह दहांतो पुरुप अस्पायु होताहे। यदिल्यका चन्द्रमा उ्वरादिकाहो वास्वक्षेच्रीहोतो पुरुष्र, धनी, यरास्वी, तथा बहुत सुन्दर होता दै। यदि पूणं चन्द्माल्यमें होतो पुरुष विद्वान्‌ भौर दीघौयु होता है । “पूण शीतकरे लग्रे सुरूपो धनवान्‌ मृदुः । अतपूरणैठमलिने मंदवीर्घोभवेत्‌ खदा । गोमेष्रककंटे लग्रे चन्दरस्येरूपवान्‌ धनी । जडता व्यावरिदारि्र ५ शोप कुःरुते राशी । श्वासः कासोहि जातस्य तनौ वातभ्रमोमवेत्‌ । अश्वादिषपञ्युघातश्च हये राजचौरतः | | गर्गाचःयं अथ- ल्मे पूर्णिमा का चन्द्रमाहो तो पुरुप सुन्दर, धनी तथा कोमल होता दहै। यही चन्द्रमा कृष्णपक्ष का अधवा ुद्कपक्च मे प्रतिपदा से छेक अषश्मीतकका होतो पुरुप मलिन भौर दुर्बलहोतादहै। च्यम मेष, ठृष वा कक रािमे यह चन्द्रहोतो पुरुष्र धनी यर सुन्दर होता है। अन्य राशियों मं पुरप मूखं, रोगी तथा निर्धन होता है। इसे खांसी, श्रासयेग, वातरोग होते दं । अश्च दि पञ्चमं से अपघात का भय होता है। यौर राजा ओर चोरों से भय होता है। “दाक्षिण्य रूप धन भोग गुणः वरेण्यः चन्द्रकुलीर व्रृषभाजगते विलये । उन्मत्तनौचवधिरोविकटोऽथमूकः दोषेषु ना मवतिहीन तनौ विदोपरात्‌ ॥” सहेश अथे-यदि लद का चन्द्रमा कक, वरप वा मेष रारिमें हो तो मनुष्य चुर, रूपतान्‌-धनी-एेश्वयं युक्त तथा भोग भोगने वाला होता है। दाक्षिण्य शाब्द का

चन्द्रफर ८९

अथ (ओदार्थगुण भी च्याजा सकतादै। यदि अन्यरारियों के ल्य्ममं चन्द्रमा हो तो मनुष्य उन्मत्त ( पगला ) नीचवृत्ति का, हदय से व्याकुल तथा वाणीहीन अर्थात्‌ गंगा होतादहै। यदि ल्य में क्षीण चन्द्रमादहोतो विरोष रूप से अश्युभ फलू देता हे |

(जवकगायं दोँगगः तवंगरः सरूपवान्‌ ।

सधीः सुखी नरसोभवेत्‌ विरोमगश्च तन्नहि ॥” खानखान।

अर्थ–यदि पूर्णवटी चन्द्रमा ल्य में हो तो मनुष्य धनी, खुन्दर बुद्धिमान्‌

ओर सखी होता है। यदि चन्द्रमा निवल, ( शतरुखह नीचराि आदिमं)

हो तो उख्या फल होता है । अर्थात्‌ मनुष्य निधन; कुरूपः मूखं ओर दुःखी होता हे। ।

भ्रगुसूत्र–’ रूपलावण्य॒ युक्तः, चपलः, व्याधिना, जलात्‌ च असौख्यः । पंचद्‌ रावं वहुया्ावान्‌ । मेष, वृषभ, ककं ट्रे चन्द्रे शाख्रपरः, धनी; सुखी; पालः) मृदुवाक्‌ › वुद्धिरहितः, ्रदुगा्रः वली । भट्टे वलवान्‌ › बुद्धिमान्‌ ; आरोग्य- वान्‌ , वाग्जाकुकः, धनी । टयेरो वलरहिते व्याधिमान्‌ । श्चुमदष्टे आरोग्यवान्‌ ।

अ्थ–ख्यमे चन्द्रमा दहो तो मनुष्य सुन्दर ओर चञ्च होता हे । इसे व्याधि से, जल से भय प्राप्त होता है। १५वे वषमे इसे बहूत सी यात्रां करनी पडती है । यदि ल्ययभाव का चग्द्र मेष, वष वा ककं राशि का हो तो पुरुष शाख्ज्ञ होता है ओर शाख्रानुकूल चरता है । यह धनी, सुखी, मनुष्यों का पालक, मधुरमापी, मूर्ख, कोमलश्चरीर ओर बलवान्‌ होता है । यदि लर भाव के चन्द्रमा पर दयुभग्रहकी दष्टिदहो तो मनुष्व बलान्‌, बुद्धिमान्‌ आयोग्यवान्‌, कपटी यौर बहुत बोखनेवाला वितंडावादी होता है। यदि रग्नेदा निच॑होतो मनुष्य रोगी रहता दै। यदि लग्नेशा परश्ुभ ग्रह की टृष्टिदहोतो शरीर नीरोग रहता है।

यवनमत–ल्य मे बल्वान्‌ चन्द्र हो तो जातक बहुत चतुर ओौर धूतं होता दै। इसे स्री-वियोग सहना होता है। च्ियों द्वारा सम्मान प्राप्त होता हे; जातक पराक्रमी ओर राजवैभव पानेवाखा होता है ।

पाश्चात्यमत-चन्द्रक्यमें होतो जातक धूमने-फिरने का शौकीन दोता हे । चन्द्र-चन्द्रयशिवा द्विस्रभाव ररि मेंहोतो ऊपर डछ्षखा फल विष रूप से मिरूता है । रेखा जातक प्रासी, अस्थिर बुद्धि, विलासी, शान्त, दयाढु, पिलनसार स्वभाव का, मोहक, उरपोक, उदार ओर सजन होता है यह्‌ स््रीवशा आओौरमित्रौका प्यारा होता है। इसे सामाजिक कार्यं कौ रुचि होती है। ओौर बहुजन समाज में, विरोषतः नीचजाति के रोगों में इसे अच्छः सम्मान प्राप्त होता हे।

ट्य का चन्द्र यदि अथितत्व राशिमंदहोतो जातक का स्वभाव साहसी

ओर महत्वाकांक्षी होता है। यरि चन्द्र मेषराशिकादहोतो स्वम।व उतावखा

९० चमत्कारचिन्तामणि का तुख्नात्मक स्वाध्याय

ओर अस्थिर होताहै। यदि इका दषंल से दष्टियोग होतो जातक कभी एक स्थान मं स्थिर नदीं रह सकतादहै। सव॑दा क्सीन क्िखी ्ंज्लयमें फसा रहता है । चन्द्र यदि मकरवावृ्चिकमें हो तो गन्दा, वीभत्स-शन्द बोलनेवाला ओर पियकड होता है । इस चन्द्र के साथ अन्य अञ्चभ-ग्रहोंका योग हो तो ऊपर छिखि फल विरोषरतया मिलते । यदि शुभग्रह का सम्बन्ध होतो इन फलां की तीव्रता कुक कमदहो जाती दै। मिथुन, कन्या-तुला, कुम राशियों मं चन्द्रहोतो जातक अभ्यासी, विद्धान्‌, शासनीय विष्यो में दचि रखनेवाला, वाचनप्रिय, फलित -उ्योतिष का ज्ञाता, विविध भाषा ज्ञानवान्‌। ठेखक ओौर वक्ता होता दै । यह चन्द्रमीनवा कक॑ंराशि काहोतो जातक का स्वभाव वात्तल्ययुक्त) सात्विकः, धार्मिक, छोकप्रि षध यर पूज्य होता है । इसे पर मं, खेती वाड मं ओौर कुटम्बमें रुचि होती है । यदह चन्द्र वृषभ रारिमेंदहोतो जातक स्थिर, गंभीर, कामको पूरी खगन से करनेवाला, उद्यमी, धीरोदात्त, भाग्यवान्‌ आओौर वैमव संपन्न होतादै। ल्के चन्द्र का सामान्यफल, प्रेम, शान्ति, सत्यप्रियता, सत्वशीक्ता, कल्ह से घृणा करना आदि दहै । जो लोग नींद मं चरते, बोलते, वा एेसे दी काम करते, उनके ख्य मे चन्द्रमा होता है ।

टिष्पणी- सम्पादक का व्यक्तिगत अनुभव एेसे पुरुष का हे जो रात केः सफर मे चता हुमा सोया रहता था-लाल्टैन केकर घोडे के भगे-आगे चलता भा नतो टोकर खाता थाभौरन मुख से कुछ बोलता था । उसके लप्र मे चन्द्र था वा न्ट था-इसके विषय मे कुछ माट्म नही-क्योक्रि उसके पास अपना जन्म पत्र नहीं था।

विचार ओर अनुभव–यह ठ का चन्द्रमा सेष, सिह ओर धनु मे हो तो मनुष्य स्थिर, मितभाषी, ओर काम करने मे निराकूस होता है। इसे कामेच्छा थोड़ी होती है । यह बहुत दट्चल पसन्द नहीं करता है । यह कोष ओर रप्ए-पैते के विष्रय मे वेकिकर होता है । यह चन्द्र घनुरारि का हो तो मनुष्य संघार-सुख अल्पमात्रा मं प्राप्त करता हे ।

चन्दर यदि वरूप, कन्यावा मकरराशिकादो तो मनुष्य अहमन्य होता है, अथात्‌ अधने आपको सर्वदाल्ननिष्णात मानता है । परन्तु इसे सभाम बोलने का साहस नहीं होता है |

चन्द्रयदिदृ ठ्य काटो तो इसे संसार-मुख बहुत कम मिल्ताहै। दका ववाह नहींहोतादहै। यदि विवाहितदहो जावेतो संसार-सुख बहुत समय तक नहा मिल्ताहै, क्योकि मध्यायु में पत्नी मर जाती है। कयो ह मकृष्य स्वभावतः दुष्ट होता हे अतः यह परनारी गामी हो जाता है।

मिथुन, ठला वा कुम्भ मेंचनद्रदोतो मनुष्य नेता बनने का इच्छुक होता हं ओर इस विषय म यल मी करता दै । आमन्त्रण पाने के ए सरै इच्छुक रहता है । गौर स्वार्थो होता है |

चन्द्रफर ९५

ककं, बृश्चिक वा मीन मे यह चन्द्र होतो यद मनुष्य निरपेश्च रहना पसंद करता है अतः किसी के काम मे हस्तक्षेप नदीं करता रै । ल्म मे चन्द्रहोनेसे मनुष्य मिथ्याभाषौी होता दहै अतः ोगोंकी दृष्टि मे यह विश्वासपात्र नदीं होता है| “मनस्यन्यद्‌ वष्वस्यन्यद्‌ कर्मण्यन्यद्‌ दुरात्मनान्‌ । रेखा इसका स्वभाव होतादहै। ल्यमें चन्द्रके होने से मनुष्य सनकी होता है। द्वितीयभाव का चन्द्र- “हिमांशौ वसुस्थानगे धान्यखाभः शरीरेऽतिसोख्यं विरारसोऽगनानाम्‌ । कुटुम्बे रतिः जायते तस्य तुच्छं बरं द्राने याति देवांगनाऽपि ॥ २॥ अन्वयः- हिमांशौ वसुस्थानगे धान्यलाभः स्यात्‌, शरीरे अतिसौख्यं स्यात्‌, ८ तस्य) अंगनानां विलखसः, ८ स्यात्‌ ) ऊुडम्बे रतिः जायते, तस्य दशने देवांगनापि वरं याति ( इति ) च्छम्‌ ॥ २॥ सं० टी०- हिमांशौ चन्द्रे वसुस्थानगे द्वितीयस्थानगे शरीरे अतिंसौख्यं स्यात्‌ , तस्य अंगनानां स्रीणां विलासः क्रीडा ( स्यात्‌ ) कुटम्बे स्वबन्धुषु ठच्छा- रतिः अल्पाप्रोतिः जायते मवेत्‌ । तथा दशने तस्मिन्‌ पुरुषे दृष्टे ( सति ) देवांगनापि वरांयाति किमुत अन्या योषित्‌ । सः अतिसुन्दरः स्यादितिभावः ॥ २॥ अर्थ–जिसके जन्म ल्म से दूसरे स्थान मे चन्द्रमा होतो इसे धान्य का ल्राभ होता है। यह शरीर से अत्यन्त सुखी होता दै! यह चखियोंकेः साथ विलास करता दहै अपने कुम्ब मे इसका प्रेम थोड़ा होता दहै । इसे देखने से अप्वरा भी मोदित हदो जाती है । क्योकि यह अत्यन्त सुन्दर होता दै अतः एेसा होना एक सामान्य बात है ॥ २॥ | तुखना–“जनुः कोशागारं गतवति शशांके तनुभृतां घनङ्किः पय्याक्षीरति रतिसुखं धान्य निवहः । भवेत्‌ प्रीतिस्वच्छा निजपरिजिने विष्णुवनिता समायाति स्वैरनिखिक मवनान्तः प्रसुदिता ॥ जीवनाय

अर्थ-जिस मनुष्य के जन्म समय मे चन्द्रमा धनभावमें होतो इसे धन की इद्धि, कमल के समान सुन्दर नेत्रं बालीस््री में प्रीति, धन-धान्यसे पूण सुख, अपने कुटम्ब मे स्वस्प-परेम, तथा इसके धर मे प्रसन्नता पूरव॑क लक्ष्मी स्वथं आकर निवास करती दहै। लक्ष्मी के पर्यीयवाष्वक शब्दों मे ्व॑चल’ (चपलाः आदि मी पर्यायवाचक शब्द है। जिससे यही निशित होता दहे करि लक्ष्मी-एक व्यक्ति मे, एक कुर मे, एक राज्य में स्थिर होकर नीं रहती है, किन्तु जिस मनुष्य के धनभाव में चन्द्रमा स्थित होता दै उसके घर में लक्ष्मी स्वयमेव आती है भौर स्थिर होकर निवास करती है, अन्यत्र जाने का कभी विचार नदीं करती है । यह अन्तर्निहितभाव प्रतीत होता रै ।

९२ चमर्छारचिन्तामणि का तुरख्नात्मक स्वाध्याय

““कुटुम्वी धने” जाचायं वराहमिहिर अर्थ– जिसके धनभाव मं चन्द्रमा होतो वह मनुष्य वहत बड़े परिवार वाला होता है। जिसके घर बहुत धन-वैभव-रिश्र्यं आदि होगे वदी मनुष्य बहुत बडे कुटम्ब का भरण-पोषण कर॒ सकता है) यह भाव दहै। वराह जी एक मुख्य फल का निदंश करते है दोष सवक देवक् की प्रज्ञा पर छोडते है अतः धन भावगत चद्रका एक दी फलहे, एेसा विवार भ्रममूकक होगा । धनगत हरिणांदो व्यागशीखो मतिज्ञो निधिरििधनपूर्णो चंचलात्मा सुदुष्टः । जनयति बहुसौख्यं कीर्तिंशाटी सहिष्णुः कमलमृदुल कांति चन्द्रतुस्यस्वरूपः?› ॥ मानक्तागर अथं–जिस मनुष्य के जन्म समय म चन्द्रमा यदि धनभावमे होतो वह दानी, बुद्धिमान्‌ ; निधि के सदश धन से परिपूर्ण, चंचल स्वभाव, मलिनात्मा, सुखी, यशस्वी, सहनशील, कमल की भोति कीर्तिमान्‌, तथा चौद जैसा सुन्दर होता है | | “सुखात्मजो द्रग्ययुतो विनीतो भवेन्नरः पूणेविधुः ददितीये | शीणेस्खलद्वाग्‌ विधनोऽव्पवुद्धिः न्यूनाधिकत्वे फठ्तारतम्यम्‌?” | । दुण्डिराज अथ जिस मनुष्य के धनभाव में पूर्णचन्द्रमा हो तो वह॒ सुखी संतान तथा धन से युक्त होता दै । क्षीण चन्द्रमा हो तो मनुष्य अटक.अटक कर बोलने बाल । निधन, तथा कमक (मूर्खं ) होता है । चन्द्रवल में न्यूनता तथा अधिकता के अनुसार फठ्में भी न्यूनाधिक्य होगा । कामी कान्तः चारुवाग्‌ इंगितज्ञः विद्याशीढो वित्तवान्‌ वित्तगेन्दौ ॥ ॥ वंयनाय ॥ अथं –यदि चन्द्रमा धनमावमं हो तो मनुष्य कामी, सुन्दर, उत्तम तथा [च वचन बालनवालः, इद्रे को समञ्ने वाला, विद्वान्‌ भौर धनवान्‌ होता दै ; | १ धनान्योऽतरवाभी विषयसुखवान्‌ वाचि विकलः? | स॑नेश्वर य ।जसक धनभाव में चन्द्रमा हो तो वह मनुष्य धनाढ्य, कोमलः तथा मीये वृ्वन बोलने वाला, सांसारिक विपां कौ भोगकर उनमें सुखास्वाद टेनवा ला | होता हे। विन्त इसकी वाणी में कुछ विकलता होती है । अर्थात्‌ साफ नह। बोक्ता हे प्रत्युत अटक-अटक कर वोता हे ।

4 ^< ~> ल तैः [क = अर -जढख्तयुखमित्रयुतो धनैश्च चन्द्रे द्वितीय राशिगते | मपूणऽतिधनेशो मवति नरोऽद्पप्रखपकरः | कल्य’णव्मा

€ ^~ “~ =+ (^~. 1९) क अ न जत मनुष्यं क जन्मसमय मं चन्द्रमा द्वितीयभावमें होतो इसे अट्ट भीर अनुपम सुख मिलता है । इसके मित्र वहत होते है । इसके पास

चन्द्रफर ९३

धनराशि भी अच्छी होती है । यदि यह चन्द्रमा पूर्णिमा का हो तो यह मनुष्य महाधनी ओौर मितमभापरौ होता हे । “घने चन्द्रे घनैः पूर्णो दरपपूज्योगुणान्वितः याचतरानुरागी सुभगो जन प्रीतिश्चजावतः । काश्िनाय अर्थ-घनभाव मे चन्द्रमा होतो मनुष्य घनसे परिषूणं होता है । इसे राजा से आदर प्रास्त होता है । ` यह गुणी, दा।्प्रेमी सुन्दर तथा जनता का प्यारा होता है | ““सुत-सौख्य -घान्य-सुकुटुम्बयतः शशिनि प्रपूणंवपुषि द्रविणे । ठघुज)ठ्याधि धनवुद्धियुतं विकले कलावति वदन्ति बुधाः ॥ जव्देव अर्थ- जिस भनुष्य के जन्म समय में पूर्णं चन्द्रमा धनभावमेंद्ो तो इसे पु्रसुख, धान्यसुख, तथा कुटम्यसुख पूरा मिक्ता है । यद चन्द्रमा श्रीण- काय दो तो मनुष्य की जाठरा मन्द रहती है-अथात्‌ अग्निमांयरोग के कारण भृख कम होती हे । इसी प्रकार बुद्धि भौर धनकीमी कमी होती हे । ““व्वन्द्रोऽपि धनस्थाने क्षीणोऽपि श्भवीक्षितः सटाकुरुते । पूर्णा्जिताथ नाशं निरोधमपि धान्य वित्तस्य ॥ विद्यारण्य अथं– धनभाव में क्षीणचन्द्र हो, चादे इस पर दयुभग्रह की दष्ट भीदहो तो भी पूवार्जित-पेतृवः सम्पत्ति का नाश होता दै । ओर नूतन धन-घान्य रूपौ सम्पत्ति के उपाजेन में रुकावट आती ह| ८“धनेष्चन्टरे धनीटखोके इष्टिभिवौविलोकिते । भमगिन्यास्तस्य कन्यायाः द्रव्यन्नाशोऽपि जायते ।2 जातकरत्न अथे–यदि मनुष्य के धनभाव मे चन्द्रमादहो तो इसे धन मिक्ता है । यदि इसकी दृष्टि हो, वा इसपर शयभग्रह अपनी शुमदष्टि डालर्हैहों तोमी मनुष्य धनवान्‌ होता है । इसकी वहिन से अथवा इसकी कन्या से धन का नाश होता दै । -भसुख। तड द्रन्ययुतो विनीतो मवेन्नरः पूणविधोः द्वितीये । क्षीणे स्खटद्रग्‌ विधनोऽत्पदुद्धिः न्यूनाधिक्वे फठ्तारतम्यम्‌ ॥ ” महेश अथं–यदि चन्द्रमा दूसरे भावम होतो मनुष्य सुखी, तथा धनी ओौर पुत्रखुख से युक्त होता हे। यह स्वभावंसे विनम्र होता है । ऊपर लिखा फट तव मिक्ता हे जन चन्द्रमा पूणं होता है । यदि क्षीणकाय चन्द्रमा हो तो मनुष्य गद्‌गद्‌ वाणी बोलनेवाला निधन ओर अस्पबुद्धि ह्येता है । एेसा फल मेँ तार तम्य चन्द्रमा के पूण॑कला, ओर हीनकला होने से अनुपात से शभ वा अश्चुभम फठ होता है । ‘तकमर्यदी धनाःल्ये धनी दमी प्रियंवदः | विदूषको नगोमवेद्‌ वल्न्वितो यकीनरः ॥’ खानखाना

९.४ चमर्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

अर्थ–यदि चन्द्रमा ठ्यसे द्वितीयभावमें होतो मनुष्य धनवान्‌ इन्द्रिय दमनरीट, मधघुरभाषी, कायं करने मे चतुर ओौर बल्वान्‌ होता दहै। यदि चन्द्रमा वटी हो तो विदोष फल अर निवल हदो तो असप फल होता है | रिप्पणी–साहिव्यदपंण के अनुसार विदूषक नायक का मित्र तथा कर्मसचिव होता दै-यौर श्रङ्गाररस सम्बन्धी चेष्टाओं मे सहायकः होता है। यदौ पर भ्िदूषकः का अर्थ (कायं निपुणः ल्या गया हे । श्रगुसूत्र-“शयोभनवान्‌, वह्ुध्रतापरी, धनवान्‌, अत्पसन्तोपी । अष्टादश वरं राजढःरेण सेनाधिपत्यरोगः। पापयुते विव्यादहीतनः। यभयुते बहुविद्या- धनवान्‌ । एकेनैव पूर्णचन्द्रेण सम्पूणं धनवान्‌, अनेक भिद्रावान्‌ 1 अथे-ल््से द्वितीयभाव मे चन्द्र हो तो मनुष्य शोभायुक्त, प्रतापी, धनी ओर सन्तुष्ट रहने वाला होता है। १८ वें वर्षमे मनष्य फौज मे राज- कृपा से सेनापति का अधिकार ग्राप्त करता है। इस भाव के चन्द्र से किसी पापग्रह का सम्बन्धद्ो तो मनुष्य विद्या से वंचित रहता है। श्चभग्रहों से सम्बन्ध हो तो मनुष्य बहत सी भाषाओं का पण्डित ओर धनवान्‌ होता है | एक दौ पूणे चन्द्रमा मनुष्य को धनान्य तथा विप्रिधविव्याओंका ज्ञाता बना देतादहे। रिप्पणी–अल्पसन्तोषीः का अन्तर्निहितभाव वही हो सकता £

जिसका वर्णन निम्नकिखित दटोकः द्वारा किया गया हेः–
(सन्तोषामरृत व्प्तानां यत्सुखं दान्त चेतसाम्‌ ।
कुतस्तद्धनढन्धानामितश्रेतश्च धावताम्‌ ॥2’
_ यवनमत–इस चन्द्र के फट स्वरूप वह व्यक्ति धनवान्‌ , मिष्टभाषी, लोक-
(भय, विजयी ओर बलवान्‌ होता है । यह मित्र मे, उच म अथवा स्वक्षेत्र
मदहोतो इसका फल बहुत उत्तम मिक्ता हे ।
बन्वात्यम॒त–यह चन्द्र वल्वान्‌ ओर श्चम सम्बन्धित हो तो सम्पत्ति सुख
“च्छा मेव्ता हे | एेसे व्यक्ति को विविध वस्तुओं के संग्रह का बहुत शौक
होता हे । वह्‌ विजयी ओर धनसंत्रह्‌ करनेवाला होता ह । यह चन्द्र॒ उच्य
॥ हो त। विपुर धरन मिल्ता है । न्नरियों से अच्छी मदद मिलती है । सार्वजनिक
याम माग केकर विजयी होता है । यह चन्दर वृश्चिकवा मकरमेहोतो
इत बरे फल मिलते हँ । इससे सम्पचिश्ुख मे व्यत्यय माता है । निस्तेज होते
। स्वभाव खर्चीला होता है । हानि के मौके बार-बार मते है । रिस्तिदा = अहुत तकलीफ उठानी पड़ती है । प्रवास में अपयश मिक्ता द । वृध्िक के चन्द्र च मपने ही हाथ से यपना नुकसान होता है। यद चन्द्र यदि अमा- स्याकाहो तो क्रितनी भौ संपत्तिदो। आयुमेकिसीन किसी समय धन क तिप्रय म तकलीफ अवदय होती हे।

चन्द्रफर ९५५

विदेश में प्रवास करने से भाग्योदय दहो सकता है । साव॑ंजनिक संस्थाओं के सम्बन्ध से भाग्योदय होता है। सांपत्तिकस्थिति मे सस॒द्रके उ्वारभाटे के समान बहुत स्थत्यन्तर होते रहते है । इसीलिए सावंजनिक हित के कार्यो मं, अथवा जन समाज को उपयोगी एेसी वस्तं के व्यवहारमे लाभ होता हे । धन स्थान के चन्द्र से विरोषतः विवाहित च्ियों से होनेवाले लाभ ओौर हानि का बोध होता दहै।

रटिप्पणी- धनभाव शब्दम आएद्ृए धन रब्द का क्या अथंहै धन शन्द्‌ किस-किस धन का बोधकहे १? क्या इससे नकद रुपये-पेपरमनी, जेवर आदि जंगमसंपत्ति का ही ग्रहण होता है, अथवा स्थावर संपत्ति काभी धनभाव से विचार कियाजा सकता है-१ये प्रन बड़े महत्वकेर्है। क्या सम्पत्ति का विचार केवल धनभावसे ही किया जाना चाहिए अथवा चतुर्थं भावसे ही, जेसे देवज्न रोग इस विषयमे चलुथंस्थान का विचार करते हें । इस विषय में पाश्चात्य देवज्ञ ““टिलीनेः अपना मत निम्नलिखित शब्दों द्वारा प्रकट किया हैः–

“इस स्थान से व्यक्ति की स्टेट अथवा धन का विवार होता हे। सम्पत्ति, माल मिल्कीयत; जंग स्टेट, ठोर्गों को दिया हभआ कजं; कानूनी व्यवहार में फायद्‌।, नफा, नुक्सान; अथवा खराबी, इन सब वातां का द्वितीय स्थान से विवार होता है । इस विचार को ध्यान मं रखते हुए यद्दी मानना ठीक होगा कि स्थावरस्टेट का आओौर पेक सम्पत्ति का विचार धनभावसे ही करना चाहिए | धनश्चन्द व्यापक अथमे प्रयुक्तं हुम दै-नकद रुपया; जेवर, रोयर आदिभी इसी मं अन्तभूत होतेह । इसका विष्वार जो लोग चतुर्थं स्थान से करते है उनके मागं मे कई रुकावट आ सकती है, अस्तु ।

विचार ओौर अनुभव- धनभाव का चन्द्रमा च्रष वाककमें होतो धन प्राप्ति होती ई । किन्तु मारी कठिनाई का सामना करना होता है, मकर ओौर कुम्भ मे कटिनाई कुक कमहोतीदहै। कन्यावाब्रध्चिक मं चन्द्र होतो कटिनाई बहुत क्म होती है। रोष रारियोंमे श्चभफल मिलते ई। पवन्द्रमा स्थान फर के लिए अच्छा नहीं । बुद्धि प्रभावके लिए यह्‌ चन्द्र अच्छा है। इससे वकील को बहुत लभ होता है । धनभाव का चन्द्रमा डाकुओं के ल्ि मी लसभदायक है। चन्द्रमा के कारकत्व में आष हुए रोगों का इलाज करके डाक्टर खोग धन-मान, तथा कीर्तिं प्राप करते ह । जेसे चन्द्रमा वग बृद्धि भौर हानि नियमितसरूपसे होती है इसी प्रकार षन्द्रप्रभावान्वित्त व्यक्तियों को भी उतार-चटाव होते ई ।

तृतीयभाव का चन्द्र-

(“विधौ विक्रमे विक्रमेणेति वित्तं तपस्वी भवेद्‌ भामिनी रजितोऽपि । कियच्‌ चितयत्‌ साहजं तस्म प्रतापोञ्ज्वरो धर्भिणो वैजयन्त्या ॥ ३॥

९६ चमट्कारचिन्तामणि का तुलनात्मक स्वाध्याय

अन्वयः- विधौ विक्रमे ( सति ) विक्रमेण वित्तंएति | (सः) भामि- निरंजितः अपि तपस्वी भवेत्‌ । (तस्य ) धर्मिणः वैजयन्त्या प्रतापोञ्जञ्वलः (स्यात्‌) तस्य क्रियत्‌ साहं शमं ( यत्‌ ) चिन्तयेत्‌ ॥ ३ ॥

सं< टी<- विधो विक्रमे वत्रतीयेन्दौ विक्रमेण उद्यमेन वित्तं धनं एति प्राप्नोति । भामिन्या सुन्दर च्रिया रनितः लभ्यमानः अपि तपस्वी, धर्मिणः वरेजयन्त्या धमष्वजित्वेन प्रतापोज्ज्वलः यदः शोभितः भवेत्‌ । तथा तस्य साहजं भ्रात्रमवं सवंसुखं कियच्‌ चिन्तयेत्‌ वहृलभवेत्‌ , इत्यर्थः ॥ ३ ॥

अथं– जिस मनुष्य के जन्म लग्न से व्रती स्थान में चन्द्रमा दहतो वह अपने पराक्रम द्वारा द्रव्य लाम कर पाता है । यह सुन्दरी रमणियोँ द्वारा लुभाये रहने पर तपस्दी होता हे । इस धर्मात्माके धर्मं के ञ्ंडेसे इसकी कीतिं उज्ज्वल होती दै। इसे भायां से अत्यन्त सुख मिलता है। अथवा यह स्वभावसे अत्यन्त सुखी होता हे ॥ ३ ॥

रिप्पणी- पुराणों मे अनेक क्था एेसी आती है जिनसे रूप खछावण्यवती च्ियों का मोहकत्व ओर चित्ताकर्पेत्व निःसंदेह स्थापित होता है, हजारों वर्षो के उृष्ककाय तपस्वी मी इनमे आसक्त होकर अपनी तपस्या को नष्ट-श्रष्ट करते दुर देखे गए हँ । रिकारमें रोये चीतोंको भूतल्रायी कर देनेवाठे वीर पुख्ष भी रमणि्यो के आगे नतमस्तक होते ए देखे गये है । परन्तु एेसी मनोरमा स॒न्द्री रमणियों का प्रभाव वतीय भावस्थित- चन्दरप्रभावान्वित मनुष्य पर नहीं होता है भौर यह तपस्वी हयी बना रहता है, यह आश्चयं जनक प्रभाव तृतीयस्य चन्द्रमा का है-यह मर्म है।

तुख्ना–“सदत्ये शीतांौ जनुषि वलिते विक्रमवशाद्‌ ,

धनान्यागच्छन्ति प्रवरवनितासगमसुखम्‌ । प्रतपद्धिः पुंसां सहजगगण्रतः सौख्यमधिकं , तपस्या संसारे बुधजननमस्य प्रमदति | जोष्नाथ अथे–जिस मनुष्य के जन्म लर से चन्द्रमा त्रतीयभाव मे हो वह अपन जवल से धनोपाजन करत। है । अर्थात्‌ इसको धनी बनाने मे इसका सपना ह] दाथ होता दै मौर दूसरे के साहाय्य से निरपेक्ष वह्‌ स्वयं उन्नत होता है । इसे रिरीषर पुष्पवत्‌ कोमलांगी मनोदाणिी स्ियोँके साथ सहवास खल प्रात दोता ह । इसके प्रताप की उत्तरोत्तर ब्रद्धि होती है। अपने भाई बनधु से अधक सुख मिलता हे । इसकी प्रतरचि धार्मिक कार्योमें होती हे । संसार में इतका आद्र सम्मान होता है । ““श्रात्र॒ जनाश्रयणीयो मुदान्वितः सहजगे बलिनि । चन्द्रे भवति च शूरो विया व्रा सयमहण सीः ॥ कल्वाणवर्मा

७ चन्द्रफर ९७

अर्थ जिसके जन्मसमय मे तृतीयभाव मे बलवान्‌ चन्द्रमा दहो तो वद्‌ ४५ मनुष्य भाई-बन्धुं को आश्रय देनेवाल दोता दै अर्थात्‌ अपने भ्रातरवग का पालन करनेवाला होता रै। यह मनुष्य श्र, सदा प्रसन्नमना विद्या-व् तथा अन्न का सं्रह करनेवाला दोता है। तृतीये च निंशानाये धन-विद्यादिमियुंतः । | कफाधिकः कामुक्श्च वंशमुख्योऽपि जायते ॥> काशिनाथ अ्थै– यदि च्वन्द्रमा व्रतीयभाव मे दो तो मनुष्य धन-विद्या आदि से .युक्त होता दै । अथात्‌ मनुष्य धनी ओर विद्वान्‌ तथा अन्य श्भश्रेयस्कर गुणों से युक्त होता है । इसे कफ सम्बन्धी रोग अधिक्तासे होते है । यह कामासक्त रहता है । यद अपने वंश मे एक मुख्य पुरुष- होता हे । | | ‘“सहोपये स्राव प्रमदबल्शोौर्योऽति कृपणः ॥ भंत्रेश्वर अर्थ-जिखके जन्मल्य से तीसरेस्थान मे चन्द्रमा होतो वह मनुष्य भाई-जन्धुभों से युक्त होता है तथा इनसे सखी होता है। यह मनुष्य मद्‌-युक्त, बलवान्‌ भौर वीर दोता है। किन्तु कपण भी होता है। भि भ्रातरगते ॥> आचायं वराहमिहिर अर्थ त्रतीयभावस्थ चन्द्रमा के प्रभाव मे उत्पन्न मनुष्य निर्दयी होता है । ““हिखः सुखोऽस्प प्रतिमः स्यादअन्ध्वा्रयोन्जे विदथस्तृतीये ॥” जषदेष अर्थ- जिसके तृतीयभाव मे चन्द्रमा हो तो वह मनुष्य जीवर्दिसकः अस्पसुखवान्‌ , स्वबन्धुपाल्क, रौर निदंयी होता ह । “वन्दे सोद्ररारिगेऽस्पधनिको बन्धुपियः साविकः ॥” वैयनाय अर्थ- जिखके व्रतीयस्थान में. चन्द्रमा हो तो वह मनुष्य अस्पधनी स्वबन्धुपारुक, अथात्‌ अपने भाद्र-बन्धुभों को चाहनेवाला ओौर सतोगुणी स्वभाव का होता ₹है। | ‘हिखः सगर्वः कृपणोऽस्पबुद्धिः भवेद्‌ जनो बेघुजनाश्नयश्च । दयाभयाभ्यां परिवर्जितश्च द्विजाधिराजे सहजे प्रसूतौ ॥ दुंडिराज अ्थ– जिसके जन्मसमय ल्म से तृतीयभाव मे चन्द्रमा हो तो वह मनुष्य; जीवरिसा -करनेवाला, घमंडी, कृपण, अल्पमति, अपने भाई-बन्धुओं को आश्रय देनेवाल, निर्दयी ओौर निर्भय होता हे । (शशिनि सहजसंस्थे पापगेदहे ष्व नित्यं न भवति बहुभाषी भ्राव्रहत, सुगेदे ।

भवतिं च सुखभोगी स्वोचगे रात्रिनाये सकल्धननिधानं शाख्रकाग्यग्रमोदी ॥ मानक्ागर

अर्थ–यदि तृतीयभाव का चन्द्रमा पापग्रह की राशिमेंदहोतो मनुष्य बहुभाषी अथात्‌ अनथक वक-वक करनेवाला, ओर अपने माईै-वंधुओं को हानि पर्हवाने वाला होता है। यह चन्द्रमा यदि श्चभग्रह कीराशिमेदहदोतो `

९८ चमर्कारचिन्तामणि का तुखनात्मक स्वाध्याय मनुष्य सुखभोत्ता होता दहै । यदियं अपनी उचचरादिमं होतो य दे । ओर श।खव्यसनी तथा

चन्द्रमा अपनी ही रारि मं हयो अथवा द मनुष्य सभी प्रकारसे धन से परिपूर्णं होता काव्यशास्ररसास्वाद्‌ ठेनेवाखा हाता है। “ध्राव्रस्थानगतेवचन्द्रे भ्रातृसौख्यं समाद्िरेत्‌ । नीरोगी भ्रातरौ द्भौच भगिनीच्रधमव च ॥2 जातकरतन अथ तीसरे स्थान मे चन्द्रमा होतो मं ईै-बहिनों का सुख अच्छा मिल्ता हे । दो माई अर तीन क हिने होती दह ओौरये सव नीरोग होते दहै । “यदा विक्रमे चन्द्रमाविक्रमेरा; सुरीटः सुटीटोभवेत्‌ तुच्छट्न्ध्या | तपस्वी समो धर्मधीरोदयाटस्तथाखीसधमं प्रवं पूरं विवे ॥ जागेश्वर अथे–वृतीवमाव मं पूषन हो तो पुष पराक्रमी, शीवन्‌ , थोड़े

हो खभसे सन्तुष्ट होने बाला, तपस्वी, समदटष्टि; धार्मिक; धैर्यवान्‌ , दया ओर धार्मिक-छीका स्वामी होता हे ।

दिः सगदः इपणोऽव्पवुद्धिः भवेत्‌ जनो वं्ुजनाश्रयश्च | -बवा्वां परिविजितश्च द्विजाधिराजे सहजे प्रसूतो ॥* महल 7 नि + ल जोव > । अथ यदि जन्मलग्न से तरतीयस्थान मे चन्द्रहो तो मनुष्य #वर्दिसा २५ वाला -घमंडी; कृपण, अत्पवुद्धि; स्ववंघुपरिपाल्क, निर्दय तथा निभेय होता हे |

`कमर्विखधराल्ये नरो हि वा मुरौवतः। तदा चटा च साविरः सुकर्मङृद्‌ या भवेत्‌ ॥ खानखाना त यृ ~> ~ 4 + भ जथ यदि चन्द्रमाच्यसे तरतीयभाव मे होतो मनुष्य मुरव्वत करने- वालाः वल्भेसत.्री तथा ज्युमकर्म करनेवाल्म होता है | रसूत्र– प गिनीसामा न्यः, रातिवघं माविरूपन ं मेधावी, सहोदरवद्धिः; |

वातररीरी, अन्नहौोनः, अव्पमाग्यः | चतुर्वि जन, द्रव्यच्छेदः। गोमदिष्यादिहानिः। पिद्यनः,

€ [क र ह धर न्‌ 1 जस मनुष्य के जन्मव्यसे तीसरे चन्द्रमादहातो वह वायुप्रधान-

दारीर बाला होता हे। इसे र्पूर अन्न नहीं मिल्तारै। यह अभागा दोता दे। ध्वं व्॑में राजंड्‌ सत धरनहानि होती दहै। इसके घरमे गाय-मँस- आदि दवन का अभाव रहता है। मनुष्य) दगुल्खोर ओौर बुद्धिमान्‌ होता दे । इसमे सगे भाई ओर बहिन होतीदहै। `

यवनमत– “ह पुरुष यख्वान, संतो

1 वस्वमत– “प्रवास की रुचि हाती है । छोटे गवास बहुत होते है । शाख्ीय यर गहनविपयों कौ रचि होती है। व्यवसाय में वार-बार परितेन होता है । मजी तरह क्ण श्चिहोती हे । अनिश्वयी स्वभाव होता हे । यह

पी ओर सदाप्वारी होता ३० ।

चर दरश ९९

चन्द्र बलवान हो तो भा-बहिनों का सुख अच्छा मिक्ता है। पड़ोसियों से सम्बन्ध अच्छे रहते है । यौर उनसे लभ दहोतादै। २८र्वै वषं के करीब बहुत प्रवास करना होता है । कीर्तिं ओर प्रसिद्धि का आरम्भ होता है, ओौर सत्छत्य किये जाते ईह । | | विचार ओर अदुभव–ठरतीय-स्थान का चन्द्रमा भ्राताओं के विषय मं अच्छा नदीं है। बहनों से सुख प्रापि करातादै। इस भाव के. चन्द्रमासे प्रवास बहुत होते है जन्तु इनमे सखप्राति बहुत थोड़ी होती है । स्रीसुख के छिए भी त्रतीय चन्द्र सामान्य है। इस तृतीय स्थान मेंरविदहो तो बहनों का वैधव्यं संभावित है-यातो गहकठद से संसारसुख नहीं मिलता; वा मृत्यु होती है अथवा बोञ्च होती है । अथ चतुथे चन्द्र फछ- | “यदा बेधुगो वान्धवैरच्रिजन्मा उृपद्वारि सवौधिकारी सदेव । वयस्यादिमे तारं नैव सौख्यं सुतद्ीगणात्‌ तोष मायाति सम्यक्‌? ॥४। अन्वयः– यदा यत्रिजन्मा बन्धुगः ८ स्यात्‌ ) ( तदाः) सनरः बान्धवैः नरपद्वारि सदैव सर्वाधिकारी ८ विधीयते )। आदिमे वयसि ८ तस्या तादशं सम्यक्‌ सौख्यं नेव ( जायते ) ( सः ) सुत-ल्रीगणात्‌ तोषं आति ॥ ४ ॥ सं: टी —जन्धुगः चवुर्थः अन्रिजन्मा चन्द्रः यदा तदा पुरुषः वान्धवः सोख्यं, सुतस््नीगणात्‌ पुत्रकलत्रसमूहात्‌ सम्यक्‌ तोषं सदैव चपद्वारि सवधिकारी राजद्रार सवंकायकर्ता, आदिमे प्रथमे वयसि ताहशं नैवयाति प्राप्नोति; साधि- कारोऽपि मदोद्‌ वेगवान्‌ इतिभावः ॥ ४ ॥ अर्थ- जिस मनुष्य कै जन्मल्गन से ष्तुर्थभाव मे ष्वन्द्रमादहो तो वह बांधवों द्रारा राज्य में सर्वदा अधिकारी बनाया जाता दहै। वाल्यावस्था में ( प्रारम्भिक अवस्था मे ) इसे उत्तम सुख नहीं मिरुता हे ! अथौत्‌ सामान्य तौर पर सुनी रहता है । पुत्र-खी आदि कुडम्बी.जनोँ से इसे पृणंखुख मिलता है। संस्कृत रीकाकारने शछोकाथं को स्पष्ट नहीं किया है, रिप्पणी-जीवन के पूर्वाधं में कष्ट ओौर उत्तराधै मे सुख मिक्ता है– इसका अनुभव मेष, सिंहः धनु, वृष, कन्या, मकर राशियों मे मिलना संभव है । तुख्ना-“खुखागारे चन्द्रो भवति सबरलोयस्यजनने ऽधिकारीमाण्डारेपरवल्वसुधामतरविरम्‌ ` । वयस्याद्ये किंचित्‌ सुखमपि ततो नूतनक्ता विलासः पुत्राणां सुखमल्मलंकारनिवरैः ॥ जो दनय अर्थ जिस मनुष्य के जन्मसमय मे बख्वान्‌ चन्द्रमा चतुर्थभावमें हो तो मनुष्य बख्वान्‌ प्रतापी भूमिपति ( राजा) का भंडारी अर्थात्‌ कोषाध्यक्ष

१०० चमत्कारचिन्तामणि का तुल्नात्मक स्वाध्याय

होता दै। इसे बाल्यावस्था मतो वहत थोडा सुख प्रास होता है किन्तु युवावस्था में खी-सुख, पु्-खुख, तथा अटंकार का पूर्णसुख प्रास्त होता दै । “धविन्यारील खुखान्वितः परवधुलोलः चतु विधौ |> वदनाय अथ–जसके चलुर्थस्थान म चन्द्रमा हो तो वह मनुष्य विद्वान्‌, आचार वान्‌ ओौर सुखी होता ह । परन्तु परख्रीरोडप भी होता हे । बहुतर वसुपूर्णा रात्रिनाथं चतुथं परियजनदितकारी योषितां प्रीतिकारी। सततमिह स रोगी मांरुमत्स्यादिमोगी गजतुरगसमेतः ऋीडते हरम्यधृषरे ॥* म’नसागर अथं–जिसके जन्भसमय में खनसे चवुर्थस्थान में चन्द्रमादहो तो वह मनुष्य बहुत धन से परिपूणं होता दै । यह अपने प्यारोंकी खूत्र सहायतां करता दे । यह च्ियों को खृ खुद रखता दै । अतएव यह सियो कां प्यारा दोता है । मास-मछली आदि अभक्ष्य पदार्थो को खानेवाला होता है। अतएव सदा बीमार रहता हे । इसे हाथी-घोडे की सवारी मिलती है । राज- मह लों जेसे अच्युत्तम मकान रहने को मिलते दै । टिप्पणी-मानसागर के मत के अनुसार चतर्थभावस्थ चन्द्रमा के प्रभाव मं उत्पन्न मनुष्य को जन्म से दी सवंविध र्य प्राप्त दो जाता है। इस मत मं “आरम्भिकवय में दुःख, उत्तरवय म अर्थात्‌ यौवन मे सुख मिलत। है” एसे फर का कोई संकेत नहीं है । इस विषय मं एकमात्र निर्णायक अनुभव हीदहो सकता है| “वन्धुपर्च्छिद वा इनसदितो दाता चठथगे चन्द्रे | जलसंम्वारानुरतः सुखात्‌ सखोत्कषपरियुक्तः | कल्या णवर्मा अथं–जिख मनुष्व के जन्मर्मन से चत॒थंस्थान मे चन्द्रमा दो तो इते वाँधरवां से सुख मिक्ता है–इसे वख्र-अन्न; सवारी सभी आवद्यक वस्तुः प्रात होती ह । यह्‌ दानशीक होता दै। यड नदी-सस॒द्र आदि सें व्यापार दारा धन कमाता दै । इवे मुख की उत्तरोत्तर ब्रद्धि होती है। किसी एक पुस्तक मं पाठ मेद्‌ पाया चाता दै-“वन्धुपरच्छेद्‌ वांधव विरोधी” रेता प्रार दे । इसका अ्थ–शवंघुवियोग ओर वन्धुविरोध होता दै” यद अश्युभफल किस अवस्था यं अनुभव सं आएगा” इसका को सकेत नदीं ट । (“जलाश्रयोतपच्चधनोपरन्धि कृष्यगनावाइ नसूनुसौख्यम्‌ । परसूतिकाठे कुरते कलावान्‌ पातालसंस्थो द्विजदेव भक्तिम्‌ ।2› ढ़ ढरिज अथे–जिस मनुष्य के जन्मन से चतुर्ध॑स्थान मै चन्द्रमा होतो वह जलोपपन्न जीव-मछली-शंख-मोती आदि कै व्यापार से धन कमाता है- समुद्री व्यापार से अर्थात्‌ जहाजँ मं मार्को जाकर दूसरे सुल्कोँ में वेचक धन पदा करता है । इसे खेतौ-वाड़ी का सुख, खी-संग का सुख, सवारी-मोटर

चन्द्रफल १०१

दि का सुख, ओर पुत्रों से सुख प्रास्त होता है। इस मनुष्य की भक्ति- अर्थात प्रेम, देवताओं ओर ब्राह्मणों में होती ह । अर्थात्‌ यह मनुष्य देवतां यौष्ग्रह्मणों में श्रद्धा रखता हे । “सुखी भोगी त्यागी सुद्धदि ससुद्धद्‌ वादनयशाः” ॥ मन्त्रेश्वर अथं–जिसके चतुर्थभाव मे चन्द्रमा दो तो वह मनुष्य सुखी रहता दै । यह दान देनेवाला होता है। इसे सभी प्रकारं के भोग प्राप्त होते्है। इसके अच्छे मित्र होतेरहै। इसे मोटर आदि सवारी का सुख मिल्तारै। . भौर कीर्तिमान होता है । ‘्वतुर्थं ष निखानाये पुत्रदारसमन्वितः। धनी, सुखी यरास्वी च विद्यावानपिजायते ॥” शाज्ञीनायथ अथं–जिसके चठुर्थस्थान मे चन्द्रमा हो तो उस मनुष्य को पु्-सुख, खरी-सुख, धन-सुख, भौर विद्रत्ता का सुख प्राप्त दोता है । यदह मनुष्य यशस्वी होता है, अर्थात्‌ रोग इसका गुणगान करते दै । | “कृष्यंगना यान सुताम्बुपातेः सौख्यं सुराप्वंः सुखगे सांशः | जयदेव अथं–यदि ष्वन्द्रभा सुखमभाव में ( चठु्थ॑भाव में ) हो तो मनुष्य को खेती- बाड़ी का सुख, स्री-सुख, सवारी का सुख, पुत्र-खख, तथा जर से उत्पन्न मछटी- शङ्ध-मोती भादि वस्त॒भं से सुल प्राप्त होता है। यह मनुष्य देवपूलकं भीदहोताहै। ` | जाश्रयोत्पन्नधनोपरन्धि कष्यंगना वाहन सूनुसौख्यम्‌ । प्रसूति काले कुरुते कलावान्‌ पातालसंश्थो द्विजदेवभक्तिम्‌ ॥2 महेश अथ–यदि जन्मसमय चन्द्रमा चवुर्थभाव मे हो तो मनुष्य को नदी- समुद्र आदि से उत्पन्न होने वाटी मछली-शंख-मोती आदि वस्तुओं के विक्रय से धन की उपर्न्धि ८ प्रापि ) होती है! अर्थात्‌ मनुष्य मछली के क्रय-विक्रय से, शद्धो के क्रय-विक्रय से ओौर मोतियों के व्यापार से, धन कमाता रहै-समुद्र मे चलने वाले जहाज के जयिये से माल विदेरा मे ठेजाकर, मर्हैगे भाव पर वेचकर रुपया कमाता है । अर्थात्‌ जिसके प्वौयेभाव में चन्द्र हो वह मनुष्य समुद्री जहाज से यातायात का व्यापार करतादहै ओर धनी हो जाता ईै। इसे खेती से-बाग-वगीचों से लभ होता है । इसे स्री-षुख, सवारी-घ)डा-गाडी- मोटर आदि का सुख ओर पुत्रां से सुख प्राप्त होता है। यह मनुष्य श्रद्धाट्ु- धार्मिकवृत्तिका तादे ओौर इसका देवताभों मे तथा ब्राह्मणां मे पेम होता है | ““कमर्यदाम्बुगेहगः सखी, मुकरवः प्रभुः भवेन्नरश्चमजिसी तदा बुधः सुमाग्यवान्‌ ॥* खानखाना अथं– जिसके जन्मलग्न से चतुर्थमे चन्द्रहो तो मनुष्य दाता, पुण्य करनेवाला; राजा के सदृश रेश्व्यैवाला, मलिनः पंडित तथा माग्यवान्‌ होता है ।

१०२ चमत्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक्‌ स्वाध्याय

शगुसू्–राय्यामिषिक्तः, अश्ववान्‌; क्षीरसमरद्धिः; धन-धान्य-समरद्धः । मावरोगी । -परलली स्तनपानकारी। मिष्टान्न सम्पन्न ¦ परखरीटोटः;, सौख्य- वान्‌ । पूर्णचन्द्र स्वक्षेत्रे बट्वान्‌ । मात्‌ दीर्घायुः । क्षीणचन्द्रे पापयुते मात्रनाशः । वाहनहीनः । बलयुते वाहनसिद्धिः । भावधिपे स्वोच्चे अनेकाश्वाटि वाहनसिद्धिः।

अर्थ-चतुर्धभावमें यदि चन्द्रमा हो तो याजकुल में उत्पन्न मन॒ष्य का राज्याभिषेक होता दहै । अर्थात्‌ इसे राजा के निग्रह-अनुग्रह करने के पूणं अधि- कार प्राप्त होतेर्दै। इसे सवारी केय्यि घोड़ा मिल्तादहे) इसकेघर दूध देनेवाठे गाय-मंस आदि पञ्चुओंके दोनेसे दूध खूव्र होतादहै। संसारमें आनेवाली आवदयकताथं का सामना करने के छिरः पर्याप्त मात्रा मे धन होता है । मोजन के ए पर्याप्त अन्न होता है। किन्तु इसकी माता रोगग्रस्त रहती हे । धाए का स्तनपान करना होतादै। मिष्टान्न कीभी कमी नही रहती । यदह परख्री ट्प होता दहै । यद सखी होता है । यदि चन्द्रमा पूर्णिमा कादो यथवा स्वक्षे्री (ककंका) होतो मनुष्य बल्वान्‌ होता है। इसकी मातामी दीघायुषी होतीदहै। इसभाव का चन्द्रमा यदि क्षीणकाय दहो, ओौर पापग्रहों के साथ इसकी युतिद्ोतो इसकी माता की मृल्यु होतीदहै। इसे सवारी का सुख नहीं होता है | इस भाव का चन्द्रमा यदि वल्वान्‌ होतो इसकी सवारी के दिए घोडा-गाड़ी मोटर आदि होते है। मावेशा यदि स्वक्षेत्री हो अथवा अपनी उ्चरारिमं होतो इसके पास्र घोडा-गाडी-मोटर आदि अनेक वाहन होते ह ।

यवनमत– “यदह पुण्यवान्‌, उदार, सत्ताधीश, मलिनिचित्त, विदान्‌ , पण्डित, मौर भाग्यवान्‌ होता है 1

पाश्चात्यमत–इस चन्द्र से घर, जमीन; खेती आदि विषयों मे सुख प्राप्त होता हे । ष्वरराशिका चन्द्रहो तो बार-बार घर वदल्ना पडतादहै। माता स विरासत मं सम्पत्ति मिलने का योगदहोतादै। माता के कारण भाग्योदय होताहे | माता पर भक्ति मौ दोती है । इस व्यक्ति के जीवन का उत्तरार्थः बहुत खखपृण हता हे । इसे चौपाए वाहनों का सौख्य अच्छा मिख्तादहै। इसे सुख कगे अभिलाषा बहुत होती है । ओौर शरीर को हृष्ट-पुष्ट रखना चाहता है । खानों ( कानों ) से अच्छी आमदनी होती है । चन्द्र वख्वान्‌ हो तो विवाह से धनप्राि-माग्योदय, आर स्टेट मिलने का योग होता है।

विचार ओर अतुभव- सभी म्रन्थकायें ने चतुर्थभावस्थित चन्द्रमा के फट प्रायः युम ही वतलए ईै।

ˆ“वन्धु वियोग” । यह फट वृष ओर मकर म चन्द्रमा दो तो अनमवमें आता दहे। (जीवनके पूर्वाधंमे कष्ट, गौर उत्तरार्ध॑मे सुख इस फलका अनुभव, मेष, सिह, धनु, वृष, कन्या सौर मकर राशियों में चन्द्रमा द्योतो, आता हे । पुरुषराशि का चन्द्रमा होतो (नया घर वनवाता है” इस फठ का

चन्द्रफल १०३

मिलना सम्भव है। माता से सम्पत्ति कौ प्रापि “भाता दारा भाग्योदय विवाह के बाद भाग्योदयः इन फलों का अनुभव चन्द्रमा के पुरुषपरियों में होने से आता दहै

साधारणतः चदठथंचन्द्र का फर यह्‌ है कि वष्वपन मे माता-पिता कौ मृत्यु होती है । ओरं कोई सुख प्रापि नदीं दोती। यदि माता-पिता जीवित रहै तो उनसे मनमुटाव रहतादहै । ३२ वें वप्रं तक र्थिरत। नहीं होती, तदनन्तर भाग्योदय होता है । विवाह के वाद्‌ कुछ स्थिरता होती हे।

जद तक व्वापार का प्रश्न दै-पेटैट दवाइयों का व्यापार, पौउडर, इत्र तेर आदि सुगन्धित वस्त॒ओं का निर्माण, वा व्यापार कामदायक हो सकता है ।

यदि चलुर्थभाव का चन्द्र मेष, सिंह वाधनुमेंदहोतो पूवंजाजित सम्पत्ति का त्याग करना पड़ता दै । माता जीवित तो रहती हे, परन्तु उसके प्रति मन मे मेक रहती रै । दृष, कन्या, मक्र) बृश्चिक रारियोँ मे चन्द्रमाहो तोन ूर्वजार्जित स्टेट मिती दै, ओर नादं मनुष्य स्वयं उपार्जित कर सकता दै । कुम्भ राशि का चन्द्रमा होतो अपने परिश्रम से स्टेट प्रप्ततो होती देः: किन्तु स्थायी नद्यं रहती । कर्क, वला ओर मीनरशि मे चन्द्रमाहोतो स्टेट मिल्तीभी है ओौर इसकी बृद्धि भी होती हे। अथ पस्छम चन्द्र फट

“यदा पचसे यस्य नक्षत्रनाथो ददातीह संतानसंतोषमेव ।

मतिनिर्सलां रन्नलाभं च भूमि कुसीदेन नानाप्तयो व्यावसायात्‌।। ९॥

अन्वयः- यदा नक्षच्रनाथः यस्य पञ्चमे ( स्यात्‌) ( तदातस्य) इह

सन्तानसन्तोषमेव ददाति । निर्मखांमति रललामं भूमि च ( दद्राति ) व्यावसायात्‌

कुसीदेन नानाप्तयः ( भवन्ति )॥ “^ ॥

सं< टी यस्य जन्मनि पञ्चमे यदा नक्षत्रनाथः विधुः, अस्मै सन्तान सन्तो, निर्मलं मतिं रललामं भूमीश इव क्षितिं अपि ददाति | तथा कुीदेन कालान्तर व्यवहारेण । यो व्यवसायः एव व्यावसायः उद्यमः तस्मात्‌ । नानातयः बहुवस्तुलाभा स्युः इति रोषः ॥ ^ ॥

अर्थ- जिस मनष्य के जन्मख्यसे पञ्चममावमें चन्द्रमादो तो इसे निश्चय दी उत्तम सन्तानका सुच प्राप्त होता है। इसकी बुद्धि निर्मल होती है। इसे रत्नो कालखामहोताहै। इसे मूमिलाभमी होतादहै। इसे व्यापार ते, व्याज पर रुपया उधारदेनेसे, तथा कई एक अन्य प्रकारो से द्रव्यलाम होता हे ॥ “^ ॥

तुरना – “जनुः काले चन्द्रो भवति यदि सन्तानभवने तदा पुंसः कान्तासुतसुखमच्छ्कार निकरः |

१०४ चमत्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

सदा द्या विदा नरपति कुलदेव वसुधा , दुकूलाथौः स्वैरं धनमपि कुसीदेन नितराम्‌ ॥ अथे– जिस मनुष्य के जन्मखमय में चन्द्रमा पञ्चममावमे होतो इसे अक्छ्धारो से युक्त स्री, पृत्रकासुख होता दहै। इस्की विद्या हृदयग्राहिणी होती ह । अर्थात्‌ वह उत्तम विद्वान्‌ होता है। इसे राजकुलं से भूमि; उत्तम वृर, अौर धन का खभहोतादै। इसी प्रकार सूद्से भीधन का टा होता हे। रिप्पणी-व्याज पर र्पया उधार देकर रुपया दुगना-चौगुना वसृ करना;. यह भी धन इकट्ठा करनेका एक उपायदहै। परन्तु इस उपाय के विरोधमं एक नीतिवचन भी दे–“कुसीदाद्‌ दारिच्यम्‌”” यकि जो व्याज पर रुपया उधार देते उनकी अपनी रहन-सहन कंगाल-मिख।रियों से भी अधिक शोचनीय होती ई । “श्चन्द्रे मवति न श्यूरः विद्यावस्रा्न संग्रहणशीलः | वहुतनय सोम्यमित्रो मेधावी प॑ञ्चमे तीक्णः |> कल्पाणदर्मा अथे पञ्चमभाव मं चन्द्रमा हो हो मनुष्य डर्पोक दोता है । यद्‌ विद न्‌ तथा वस्र से युक्त होता दै। यह अन्न का संग्रह करता है। इसके बहुत से पुत्र, ओर सुखी मित्र होते ह । यह तेजस्वी होता ३ । ““सुपुच्रोमेधावी म्रदुगतिरमाव्यः सुतगते |> मंच्रश्वर अथं–यदि चन्द्रमा पञ्चमभाव में होतो मनुष्य की गति ( चाल ) कोमल होती दहै। यद मेधावी होता है । इसकी सन्तान उत्तमकोटि की होती हे । यह्‌ राजमन्त्री होता है । टिप्पणी– कवल पञ्चमभावमें चन््रवेः होने से दयी राजमन्त्री होना तो सम्भव न हो-दो यदि गौर श्चमग्रह भी सभस्थानगत हों तो रेसा होना सम्भव हो सकता है । सतनये ततूप्रोक्त भावान्वितः ।|2 आचाय वराहमिहिर अथ–यदि पञ्चमभाव मे अर्थात्‌ पुत्रभावमें चन्द्रमादहो तो मनुष्य को पुत्रवान्‌ होने का सौभाग्य प्राप्त होता है| “सत्यः प्रसन्नः सयुताथधीमान्‌ जितेन्द्रियः संग्रदवान्‌ सृतेऽव्जे | जगदेव अथ– जिस मनुष्य के जन्मलन्न से पचचमस्थान मे चन््रमाहो तो बह सत्यतत्त1; तन्नमन; पुनयुक्त;, धनयुक्त) बुद्धियुक्त, इन्द्रियदमनरील ओौर सवेविध वस्तुओं का सग्रह करनेवाद्य होता है । सुते चन्द्रे सुताव्यश्च रोगो कामी मयनकवः। कृषीमयेः गमेः युक्तः विनयी न भवेन्नरः | कालोनाय अथ-पञ्चममावस्थित चमव्रमा का मनुष्य; पुत्-सन्ततियुक्त; रोगी, कायुक, भवजनक मृुखवाला, खेती मेँ उसन्न रसो से युक्त, तथा विनम्र खमाव

चन्द्रफल १०९

वाला होता है । पाठान्तर ‘क्रत्रिमेः पौरैः युक्तः यदि स्वीट्कत हो तो मनुष्य बनावरी पौरषरवाला;’ एेसा अथं होगा | जितेन्द्रियः सत्यवचाः प्रसन्नो धनात्मजावाप्त समस्तसौख्यः । सुसंग्रही स्यान्‌ मनुजः सुशीलः प्रसूतिकाले तनयाय्येऽन्जे ॥* दृण्डिराज अथे– जिस मनुष्य केः जन्मसमय मे चन्द्रमा पच्मभावमें स्थितदहो तो मनुष्य जितेन्द्रिय, सत्यवक्ता; प्रसन्न रहनेवाला, सग्रह करनेवाला, तथा सरीर होता हे। इसे धन का सुख, पुत्रका सुख आओौर नाना विध सुख प्रात होता है। (तनयगतदाशांको विम्बपूणः सुखीस्यात्‌ बहुतरसुतयुक्तः वश्यनारी समेतः यदं मवतिशशां कः क्षीणकायोऽरिगेहे युवति सुख समेतः पुत्रपौत्रेः विदीनः ॥” मानसागर अथे–यदि पूर्णं बल्वान्‌ होकर चन्द्रमा पञ्चमभाव में दो तो मनुष्य सुखी होतादहै। इसके बहूतसे पुत्रहोतेद। इसकौ खी पतिवशावर्तिनी आर पतिपरायण होती है । यदि हीनबटी तथा शातुक्षे्ती होकर यद ष्वन्द्र पञ्चमभाव मेदहोतो मनुष्य को खरीसुख तो मिल्ता है किन्तु यदह मेष्य पुत्रसुख रदित तथा पौच्रयुख से वञ्चित रहता दै । पुतं के भावम पौचोंका अभावतो आवद्यक ही है । यह भाव है।

“पञ्चमे रजनीनाथः कन्यापत्यमपुत्रकम्‌ । क्षीणः पापयुतोवापि जनयेत्‌ -चंषवखांसुताम्‌ ॥ गगं अंथं- यदि पञ्चमभाव का चन्द्रमाहोतो कन्वार्पै होती है । पुत्र नदीं होते । पञ्मभाव स्थित यह चन्द्रमा यदि क्चीणकाय हो, अथवा पापग्रहौसे युक्त हो तो कन्या चंचल होती है| “जितेन्द्रियः सत्यवम्वाः प्रसन्नो धनात्ममजावाप्न समस्तसौख्यः । सुसंग्रही स्यान्‌ मनुजः स्षीलः प्रसूतिकाठेतनयाल्यान्जे ॥*> भटे अ्थ– जिस मनुष्य के जन्मसमय मे ल्य से पञ्चमस्थान मे चन्द्रमा होता है, वह मनुष्य जितेन्द्रिय, सत्यवचन भमाषणकर्ता, सदैव प्रसन्न रहने वाखा, सुरीर तथा विविध वस्तुभों का संग्रह करनेवाला होतादहै। इसे धन का सुख, तथा पुत्रं से सभी प्रकारका सुख प्राप्त होता दहै।

रिप्पणी-जितेन्द्रय शब्द्‌ से पोच कर्मेन्द्रिय तथा पौचज्ञानेद्िय ओौर एकादश मन पर पूणे अधिकार वाला ेसा अथं ग्राह्य है । दशन्द्रिय ओर ग्यारहवे मन पर जिसका पूणं अधिकार हो वह विषयगतं मे नदीं पड़ताहे ओर संसारसागर से उत्ती्णं हो जाता है।

'”कमयदेन्नगेहगः स गुर्फरू भवेन्नरः। वखान्वितो हि पादकी न दिद्िशमकानगः ॥° खानखाना

१०६ चमस्कारचिन्तामणि का तुख्नात्मक स्वाध्याय

अर्थ–यदि च॑द्रमाख्यसे पञ्चपमावमें होतो मनुष्य विदौप तेजस्वी; वख्वान्‌ , सवारी पर चख्नेवः’; सव कामों मं सावधान रहनेवाला सौर ञ्यभ आचारवाल दोता दै ।

श्रगुसूच- ची देवता सिद्धिः । मार्या रूपवती ¦ कचित्‌ कोपवती । स्तन- मध्येलंछ्नं मवति ! चतुष्पाद्‌ कंभः} स्रीद्वधम्‌ | वहुश्चरखाधः | सत्वयुक्तः वदश्रमोखन्नः । चिन्तावान्‌ । एक पुत्रवान्‌ | स््रीप्रजावान्‌ । स्री देत्रतोपासना- यान्‌ । शुभयुते वीक्षणवज्लाद्‌ अनुग्रह समथः । पापयुतं दैश्णक्णाद निग्रह समर्थः । पूर्णचन्द्र वलवान्‌ । अन्नदान प्रीतः। अनेकव्रिधप्रसादे घ्व सस्पन्नः | सत्कमंक्रत्‌ । भाग्यसमृद्धः । राजयोगी । ज्ञानवान्‌ ।

अथे- जिस मनुष्य के जन्धसमय पञ्चमनाव मे वन्द्रमाहो तोडइते स्री देवता-चण्डी.दुर्गां आदि की उपासना करने से मनोवांछित पर्थ कीमपि होती है । अर्थात्‌ चन्द्रमा खी-ग्रह है | अतः स्-जाति के देवता शीघ्र वरदायक हो जाते ह| इसी सखी रूप-लावण्यवती होती है । कभी-कभी यह क्रुद्धा मीदहो जाती है अर्थात्‌ मानलीलामे कोप करने का नायक करती है। इसके दोनों स्तनो के मध्यमे चिन्ह होतादै। चौपार जानवरंदूव देनेवाठे गाय-मैस आदि सैखमदहोतादै। इस्केषरमंदोच्िर्णे होतो हे; अर्थात्‌ यह टो चखियोंका पति होता हे । गाय-भंस यादि दूध देनेवाटे पश्यं की समृद्धिसे इसे दूध के व्यापारसे मारी लाम होता है। यह बल्वान्‌ होता है। इसको जन्म देते समय इकः माताको भारी फष्ट उठाना पड़तादहै। इसका स्वभाव चिन्ता करनेवाखा होता. है। इषे कन्य होतीर्है, एक पुत्र भीहोता है । यह क्रिसी खी-जाति के देवता का उपासक होतादहे। यदि इस भाव के ष्वन्द्रमा के साथ कोड श्युभग्रह थुति करे, अथवा इपर शिसी श्चुभग्रहकी दषिहो तो यह मनुष्य दूसरे पर अनुग्रह करने की शक्ति रखता है। यदि इस भाव केः चन्द्र के साथ कोई पापर्रह स्थितिं करे, अथवा किसी पापम्रहकीदष्टि हो तो मतुष्य सिसी दूसरे कानिग्रह करनेमे समर्थं होता रहै) यदि चन्द्र पूण्वित्र हो तो मनुष्य वख्वान्‌ होता हं) इसी रुचि अन्न का दान करने की आर रहती है; अथात्‌ अकारक पड़ने परजो लोग निर्धन होने से अन्नखरीद करके उदरपूण नहीं कर सक्ते । उनकीष्षुभ्रा निचरति के किए. यह मोजेनाख्य वाट्‌ करता है। इस तरह यह अपने धनका सदुपयोग करता दहै । इसे क प्रकार के रेश्वर्यं प्राप्त होते रै । यह श्चन कमं करनेवाखा होता है । इसका भाग्य अच्छा होता है। यह ज्ञानवान्‌ राजयोगी होता है।

“सुधीरः सुशीछः स॒तित्तः सुचत्रः सुरेहः सगेहः सुनीतिः सुगीतिः | सुबुद्धिः सुद्रद्धिः सुपुत्रोनरः पुत्रगेदेऽत्रिपत्रे ॥।*2 हरिवंश

चन्दृफर १०७

अथै- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे जन्मलग्न से पञ्चमस्थान भं चन्द्रमा हो तो यह, धैर्यवान्‌ , रीख्युक्, धनी, सन्दर चिर्चोवाला, हष्ट-पुष्ट देहवाल्मः उच्छे घरवारवाखा, नीतिज्ञ, संगौतादिकलामिज्ञ, बुद्धिमान्‌ समृद्ध, सचरिि- आज्ञाकारी पुबोवाटा होता दै ।

यवनमत्त–यह व्यक्ति रूपवान्‌ - तेजस्वी, वाहनयुक्त; सावधानः, भौर सुशील होता है इसे राजनैतिक कामों मे अच्छी सफ़रता मिस्ती हे ।

पाश्चात्यमप्त- इस चन्दर से व्यक्ति चैनवाज अओौर खुशदिर होता है। इसे खरी ओौर चे वहत प्यारे होते ह । यह वैभव आओौर यानन्द्‌ से युक्त होता दै । यह ष्वन्द्र बल्वान्‌ होतो सह्य ओौर जुञ्ासे बहत छाम होता है । यह दिश्वभावराशिमें होतो जुड्वो संताने होती है । पञ्चमस्थान यह सख्रीस्थान काला स्थान दहै। इसलिए यद्य चन्द्रहोतोस्रीसे लाभम ओर भाग्योदय होता है । यह चन्द्र दूषित हो तो अनिष्ट फर देता है। णेखा व्यक्ति मलिन- चित्त का, ओर कष्टयुक्त्‌ होता दै । इसौ से असफख्ता, निरासा ओर मन की अस्थिरता, ये फर मिरूते है । इस चन्द्र पर शनि की हृष्टि हो तो वह व्यक्ति दैसमुख वित उगानेवाला होता है । बोल्ने की ्तुरता से आप्तौ को ठगकर धन प्राप्त करता है । यह चन्द्र प्रसवरारिमे होतो काफी संतति होती है। यह मंगर से युक्त हो तो साहस की भर प्रवृत्ति होती हे । यह बल्वान्‌ हो तो सन्तान भाग्यशाली होती हे ।

विचार ओर अनुभव–हरिवंश मे सब फल अच्छे से अच्छे बतलाये है । इनका अनुभव पुरुषरारियों मं मिलेगा । यवनमत का अनुभव पुरुष- राशियों कारै। पाश्चाव्यमत मे श्म-भद्यम दोनों प्रकार के फल बतलाये गये है । शुभफल का अनुभव पुरुषराशियों मे, ओौर अद्यभफलर का अनुभव ख्रीरयाशियों में होगा ।

बरृष, कन्या, मकर राचियों मँ चन्द्र हो तो कन्यायों का आधिक्य दौता है पुत्र सन्तान देरीसे होती दहै। मिथुनः वला, कुम्भ राशियों मे चन्द्रके होने से पुत्र-सन्तति का होना मुद्किलहोताहे। प्रायः कन्था होतीदहै। पुत्र नदीं होता है।

ककु, वुश्चिक; मीनः मेष; सिह; धनु राशियों मं॑चन्द्र हो तो पिरे पुत्र, फिर कन्यार्णै, तदनन्तर पुनः पुत्र, इस क्रम से सन्तति होती है |

कर्क, बृधिक भौर मीन रारिमे चनद्रहो तोतीनपुत्रोंका होनामी संभव है। मेष, सिहवाधनुमे चन्द्रहो तो रिक्षा अधूरी रह जाती है।

वृष, कन्या, मकर, मे शिक्षा अच्छी नहीं दोती। ककं, वृधिकः मीन मे चन्द हो तो मसुष्य वकीलवां डाक्टर हो सकता है; मिथुन; वला; कुम्भ म चन्द्र हो तो मनुष्य बहुत थोड़ा बोक्ता है परन्तु काम अधिक करता हे । पञ्चम चन्द्रमा उच्रराशि कावा नीचसशिका; वा दूषितहो तो एक कन्या

१०८ चमत्कारचिन्तामणि का तुखनात्मक स्वाध्याय

का संसार सुख नष्ट होता दहे विधवापन वा व्यभिष्वार दो सकता है) शारीर मंव्येगभी दो सकता है जिस कारण विवाह का होना संभव नहीं होता है। जव पञ्चमभाव से संतति का विचार करिया जावे तो पति-पली दोनों की कुडलियां का विचार एकसाथ करना चाहिए, क्योकि कई वार केवल पति की कुण्डली से बताया गया फल अनुभव में नदीं आता । अथ छठे भाव में चन्द्र का फल “रिपौ राजते विग्रहेणाऽपि राजा जितास्तेऽपि भूयो विधौ संभवन्ति । तदग्रेऽरयोर्निष्प्रभा भूयसोऽपि प्रतापोञ्वखो माचृङीरोनतद्रत्‌” ॥ £ ॥ अन्वयः विधोरिपो ( स्थिते ) राजा विग्रहेण अपि प्रतापोच्वलः (सन्‌)- राजते, ( तेन ) अरयः जिताः अपि तदे भूयसः अपि निष्प्रभाः ८ जायन्ते ) तद्वत्‌ ( सः ) माव्ररारः न मवति ॥ ६ ॥ सं० टी<- रिपौ शत्नुमवने विधौ सति राजविग्रहेण अपि प्रतापोज्वल; तेजसा कान्तियुतः सन्‌ राजते ोभते । ते अरयः शत्रवः जिताः पराजिताः अपि भूयसः तदग्रे निष्प्रमाः अप्रतिभाः अपि पुनः संभवन्ति । तथा मातरि रीर सस्य अस्ति इति सः तादृशः न स्यात्‌ इति रोषः ॥ ६ ॥ अथ–जिस मनुष्य के जन्मल्प्न से छ्टेस्थान म चन्द्रमा हो तो बह चाहे प्रवर रतुओं के साथ वेर भी रखता हो तो भी अपने प्रताप से चमकतां है । अथात्‌ छटेभावमें चन्द्रके होनेसे वादे उसके रातु प्रवातिप्रबङ भी हों ओर उनसे यहविराहुभआमीदहोतोमी जीत इसी की होती है मौर यह उनपर अपने प्रतापसे अधिकारजमाचकेतादैञौरवे मुंह की खाकर इसके आगे नतमस्तक हो जातेदह। ये शत्रु दुबारा उरते है ओौर परहिटी बार से अधिक शक्ति द्वारा आक्रपण करते है । किन्तु प्रभादीन होते है, विजय- पताका इसी कौ लहराती हे । परन्वु यह मनुष्य माव्रभक्त नहीं होता है । अर्थात्‌ इसका मन जन्मदात्री माता की ओर से मलिन रहता है ॥ ६ ॥ तुरना–““अरिस्थाने चन्द्रो भवति स-करोजन्मसमये , प्रतापा्ौरान्नुः ज्वरतिपरितस्तस्य परतः | पुनभूयादद्रासिपुरिह जितोऽपि क्षितितले, सुख मावः सस्पं प्रभवति गदान्तमतिरतिः ॥ जीवनाथ अथे- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे पूर्णवलो चन्द्रमा छठे भावमें हो तो इसकी प्रतापरूपी असि से इसका शात्रुसमूह शीघ दी भस्मदहोजातादहै। यह पृथ्वी पर महान्‌ बल्वान्‌ शत्रुओं को भी जीतता है । इसे मातृसुख बहुत थोडा होता है। “इससे माता को सुख नगण्य-सा होता है- यह अर्थभी किया जा सकता है । यह सदेव रोगाक्रान्त रहता दै । छटास्थान रोगस्थान रहै श्चमग्रह चन्द्रमा दुःस्थान स्थित होकर बीमारियों को बदूावा देता है । यह भाव है।

=चन्द्रफर १०१

^न्नैकारिः मृदुकायवहिमदनः तीक्णोऽलसश्चारिगे 1” आचायंवराहमिहिर अथे–यदि चन्द्रमा च्ठेमावमेंदहोतो मनुष्यके शत्रु अनेक होते ै। अर्थात्‌ इसे सदेव शतुभय बना रहता है । इसका शरीर कोमर होता है- इसकी जठरायि मंद रहती है। इसकी कामायि तीन नहीं होती है। यह स्वभावमे उग्र होता दहै, यह काम करते मे आल्सीदहोता है। अर्थात्‌ कार्य मे सफलता प्राप्त करने के छियि उद्यमी ओर यल्योल नहीं होता । “ष्षतेऽस्पायुश्वन्द्रेऽमतिरुदररोगी परिभवी 1 मन्त्रेश्वर अथे–यदि चन्द्रमा छ्टेमावमे हो तो मनुष्य अस्पायु, बुद्धिहीन, उदर रोग तथा अपमानित भौर पराजित होता है। रिप्पणी-मन्त्रश्वर के अनुसार चन्द्र॒ के षष्ठस्थ होने से मनुष्य शात्नुओं से पराजय पाता रै, किन्तु भट जी के अनुसार षष्ठस्थष्चन्द्र प्रभान्विति मनुष्य सदेव शत्रुओं पर विजय प्राप्न करता हे । “ष्ठे चन्द्रे वित्तहीनोग्दुकायोऽतिकट्सः । मन्दाग्निस्तीष्णदष्िश्वद्यरोऽपिमनुजोभवेत्‌ ॥> काशलीनाय अथे–यदि चन्द्रमा च्ठेभावमे हो तो मनुष्य निर्धन होता है। इसकी रारीर कोमरु होता ह। अर्थात्‌ मनुष्य नि्ब॑ल्रीर होता है। यदह अति लोभी होता हे। इसे भूख क्म होती है क्योकि इसकी जठराग्नि मन्द होता दै। इसकी ष्टि तीव्र (पेनी ) होती है । यह श्र ( बहादुर ›) होता है । ““मूद्रंगवदह्धिः सह जारिकोपोऽसोऽदयोऽस्पात्मजवान्‌ रिपुस्थे ॥” जयदेव अथे- जिसके रिपुभाव मे ( छठेमाव मे ) चन्द्रमा हो तो मनुष्य निबंल- देहवाला होता है । इसकी जठराग्नि मन्द होती रै, अर्थात्‌ इसकी पाचन- शक्ति तीत्र नदीं होती भौर बदहज्मी का रोग रहता है। इस पर इसके रातु ` करद रहते दै ओर इसे सदेव शत्रुओं का भय रहता है । यह काम मे आलसी होता है यह निदेय आर क्र होता हे । इसे पु्र-सन्तान थोडी होती है । “श्वष्धे नर ‘ उद्रभवैः रोगः संपीडितोभवति । रजनीकरेस्वस्पायुः षष्ठगते भवति संक्षीणे ॥ कल्याणवर्भा अ्थं–जिसके छ्टेभाव मे चन्द्रमादहोतो इसे उदर केरोगों से पीडा रइती दै । यदि इस भाव का चन्द्रमा क्षीणकाय हो तो मनुष्य अस्पायु होता ३ । “परिपुग्‌इ गशशांके क्षीणकायः कुगेहे न भवति बहुभोगी व्याधिदुःखस्यदाता । यदि निजय्हतुगे पूणदेहः शाको बहुतर सुखदाता स्यात्‌ तदा भानवस्य ॥* मानसागर अथं-यरि दीनवटी, शत्रुरारिगत वा नीचरारिगत चन्द्रमा छ्ठेमाव मेदो तो मनुष्य सुखहीन तथा रोगी द्योता है । ओर क प्रकार की व्याधिरयौँ इसे दुःखित करतो रहती ई} यदि छटेमाव का चन्द्रमा स्वक्षेजी हो, अथवा अपनी उच- राशिमेंहों, अथवा पूर्गिमाकादहो तो मनुष्य सभी प्रकारके सुखोंको भोगता है ।

११९० चमर्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक्‌ स्वाध्याय

“मन्दाग्निः व्यान्‌ निर्दयः क्रोर्ययुक्तोऽनव्पाऽख्स्योनिष्डुयो दु्टचित्तः । रोषावेोऽव्यन्तसंजातरात्रुः शतुक्ेत्रे रात्रिनाधे नरः स्यात्‌ ॥* दंडिराज अथं–यदि चन्द्रमा चछ्टेमावमें हो तो मनुष्य पाचनराक्तिहीन होता हे । यह दयारहित-करर, अच्यन्त अआआक्सी) निडर, पापी आर क्रोधी होता है,। यदि यह चन्द्र शवुक्षेत्र में हो तो इसके गातरु बहत होते ह| “अस्पायुः स्यात्‌ श्षीणव्नन्द्रेऽरिसंस्थे पूर्णं जातोऽतीवमोगी चिरायुः? | वैद्यनाथ अथे–यदि दीनवटी चन्द्रमा छ्टेमाव म हो तो मनुष्व मव्पायु होता है । यदि पूणवटी होकर यह चन्द्र छ्टेभाव मेँ हो तो मनुष्य अतिमोगी ओर चिरायु होता हे। | “लग्नात्‌ पष्ठस्थितेचन्द्रे म्रदुकायः स्मरानटः | अनेकारिः भवेत्‌ ती्योऽरिष्टः स्यात्‌ मृत्युरेवष्व” ॥ गं अथे–यदि ल्घ्नसे छटेस्थान मे चन्द्रमा हो तो मनुष्य निर्ज॑ल्शरीर होता दे । इसे कामेच्छा अधिक अर तीव्र दोती है । इसके अनेक रतु होते दै । यह उग्रस्वमाव होता है । इसे मृव्युतुव्य कष्ट दीता है। ६ ‘श्वन्द्रः करोति विकटं विफङ प्रयत्नम्‌?” ॥ वक्षिष्ठ अथ–छ्टेभाव का च्वन्द्रमा मनुष्य को व्याकु कर देता है| इसका किया हुभा यल व्यर्थं ओर फलदहीन होता है । ‘“यदासोमे क्रूर द्छौ न सुखं माठल्स्य च। „+ तस्य वंशोद्धवः कोऽपि गतो देशान्तरे सतः” | जातकमुक्ता बली अथ करग्रह इष्ट चन्द्रमा यदि छटेमाव मं हो तो मनुष्य को मामा का सुख नहा मिल्ता हे । इस मनुष्य के वंश मे उस्न्न को$ पुरुष विदेश मे मरता हे | “शष्ठ चन्द्रे पापवीक्षिते कन्याऽपत्योऽथ मातुलः । माच्रृस्वसा सृतापत्या रंडा देशान्तरे गताः ॥ ज्ञम्भुहो राभकाज्च अथे-पापग्रह वीक्षित चन्द्रमा यदि च्टेभाव में हो इसके मामा को या सन्तान हीं होतीहे पुत्र नदीं होते। मौषीकी संतान मर जाती है। वह विधवा होती है | ˆ वातच्टेष्मादिके चन्द्रे विद्वेषो वांधवैः सदह । चप चौरोद्धवाः पीडा षष्ठे रोग भयंकरम्‌? ॥ उयो तिषङतलपतर अथ–्टे चन्द्र से वंधुभं के साथ गडा होता है । राजा से, चोरों से कष्टे रहता हे । वायु ओर कफ की वीमि होती ईै। “भंदागनिः स्यान्‌ निर्दयः करोययुक्तोऽनव्पालस्योनिष्टुरो दुष्टचित्तः | रोषावेशोऽत्य॑त संजातशतरुः _शनकेत्रे रात्रिनाये नरः स्यात्‌ ।}2’ महेश अथ–जिस मनुष्य के छठेभाव मे चन्द्रमा हो तो इतकी पाचनशक्ति मन्द रहती है, अर्थात्‌ इसे खाया हुआ अन्न पाचन मे नहीं आता ओर बद्‌-

चन्द्रफलर १११

हजमी से पेट के रोगङ्केश देते रहते है । यह निर्बल जीवों पर दया नहीं करता प्रत्युत इनका घातक होता है। यह क्रूरस्वभाव, अत्यन्त आलसी, पापी, छोरी छोरी वातो पर क्रोध से जल उटनेवाला होता है । यदि. यह चन्द्र रत्र षेतरीहोतो इसे शत्रुओं से भय वना रहता रै ।. “काटल विपश्षपन्षपीडितो हि बद्शकल्‌ | छागरः कमभ॑वेदूरिपौ यदा नरः सरुक्‌ |» खानखान

अथ यदि चन्द्रमा छ्डेभावमं हो तो मनुष्य काट्ग्रस्त, शत्रुभों से पीडित, अत्यन्त कुरूप, निव अौर रेगी होता है | |

शृगुसूत्र-अधिक दारियदेही। षटर्िंशदूदषर विधवा संगमी । तच्रपापयुतें हीनपापकरः । राहु-केवुयुते अथदीनः । घोरः । शवुकलहवान्‌ । सहोदरदीनः | अग्नि्ाचादि रोगी । तटाककूपाव्प्रु जलादिगेडः। पापयुते रोगवान्‌ । श्षीण- प्वन्द्रेऽपूणफलानि । छभयुते बलवान्‌ मरेगी ।

अथ–जिस मनुष्य के छटेभाव म चच्रमा हयो तो उसके दारीर मँ आख्ख रहता हे । यहरे६ वे वषं मे विधवासरीसे सहवास करता है। यदि इस चद्रके साथ पापग्रह युति करे तो यह मनुष्य दीन-वृत्ति भौर नीचकर्म करने वाला होता हे । इस चन्द्र के साथ राहु ओौरक्तुका योग हो तो मनुष्य धन- दीन होता है| यह कुरूप होताहै। रत्रुओंके साथ इसका कलह-ञ्चगड़ा हेता है । इसके सहोदर भाई नहीं होते । बद्हजमो से उदर के रोग ( अनप आदि ) होत ह । तालब्करुभा आदिमं जलादिगेड होता है। पापग्रहयुक्त छ्टेमाव का चन्द्रमा हो तो मनुष्य रोगी होता है । हीनजली यह चन्द्रहोतो पूणफल्‌ नहीं देता है । छभग्रह साथमे होतो मठुष्य बल्वान्‌ भौर नीरोग होता हं ।

यवनमत-यह हमेशा परेशान; रोगी, कुरूप, अशक्त वितु कामातुर होता हे । इस चन्द्र के फल से निर्दयता, क्रोध ओर निष्ठुरता प्रात होती हे।

पाश्चात्यसत-इस चन्द्र से रारीरसौख्य अच्छा नहीं मिख्ता। इससे रोग ब्त । छ्ियोंसे दुःख पर्हुचता हे | यहं चन्द्र यदिदश्यमहोतोषोरे-मोे फायदे होतेह । यह वृध्िकमें होतो वह `पियक्कड दह्योतादहै। इसका धन बेकार खच होता दहै । ग्यवसायमें सकि बहत आतीर्है। शवर बहूत होते ह । कानूनी मामलेमे हरत्रार अपयश आतादहै। इस स्थान के भव्चद्र के फल बहुत कम मिलते द । इसे नौकरी मे सफलता मिकती ई । कुछ अधिकारपद्‌ मिल्ने कामी योग होता है। यह चन्द्र वृषभरारिमे होतो यह योग होता हे । यद चन्द्र द्विसवमाव राशिमेदहोतो फेफड़ंके रोग, कफ, श्वय आदिं होते हैँ । यह स्थिर राशि में हो तो अर, भगंद्र ओर मूत्रकृच्छ्र; इनमें से कोई विकार होता है| वृषभ का चन्द्र यर्हाहोतो कंठ का रोग, खासी, इवास- नलिका मे दाह होना, ये विकार होते ह । यदह चन्द्र चरराशि मे खासकर ककं मं होतो पेट के ओौर जठर के रोग-पचनक्रिया मेँ गङ्बड़ी होना आदि पैदा ह्यते

११२ चमत्कारचिन्तामणि का तुरखनाव्मक स्वाध्याय

है । खास कर वचपन मे ग्रङृति बहत अस्वस्थ होती है । इस चन्द्र के फल- स्वरूप नौकर से बहुत तकलीफ होती है वे कायम नहीं रह सकते |

विचार ओर अलुभव-इस स्थान का चन्द्र खीराशिका हो तो कफ, सांस कं रोग होते हं, ओर रक्त दूषित होता हं । यह दृषभ, कन्या, मकर राशिमं दहो तो रक्तं दप्रित होकर गरमी, परमा जैसे रोग होते द । इसे दिनमें एक ही नासिकासे सांस ठेना पड़तारहै। भोजन के अनन्तर रात को सांस वेद्‌ होती है । नथुनी मर जातीरहै। भारी प्रयतत न्ने थक जाने पर निराया आरामे परिणत होती दहै। जिन चियों को यह योग दहोतादैवे रोगी की सेवा अच्छा करती है| यह चन्द्र मेष, सिंह वा धनु में होतो डाक्रों के किए उत्तम- योग हे । डाक्टर गरीर्वोपर कृपा करते ै–अपने वैते से भी इनके पाण वचाना चाहते दह। इस चन्द्रसे किसी अवयवमें रोगहोतो वह बहुत देर तक स्थायी रहता है ।

मेष; सिह वा ध नुमे यह चन्द्रो तो मनुष्य दद्प्रकृति का होता है। उप्र; कन्या वा मकर क।{ यह चन्द्र होतो तापदायक होता ह | क्योकि रष में अष्मेदा, कन्या म चतुर्थे ओौर मकर मे व्ययेश होता हे । वृश्चिक का यह चन्द्र धने होताहै, मीन काहो तो दशमे होता है| एेसे योग से शारीरिक, मानसिक ओर आर्थिक कष्ट होते दै । अपमान होता है शत्रु बदृते द। इख तरह छटेभाव के चन्द्र के फल यच्छे नहीं मिते । यह चन्द्रमा पुरुषराशियो महो तो कुछ कद्र अच्छे फ मिलते है । अथ सप्रम चन्द्र फड-

द्देद्‌ दरदं सप्तमे रीतररिभः धनित्वं भवेदध्ववाणिज्यतोऽपि ।

सत सखीजने भिष्टमुक्‌ छञ्धचेताः छदाः कृष्णपक्षे विपक्षाभिमूतः ।५॥।*

अन्वयः–पत्तमे ( वतमानः ) शीतरविमिः दारं ददेत्‌; अध्व वाणिञ्यतः सप घनत्वे भवेत्‌; ( सः ) कृष्णपक्षे स्ीजने रतिं ( प्रावात्‌ ) सः मिष्टशुक) उनवचताः, कृशः विपश्चाभिभूतः ( स्यात्‌ ) ॥ ७ ॥

लस टा<– तत्रमे शीतरञ्िः दारद्यं ख्रीयुखं, अध्ववागिञ्यतः अपि विदेश न्वाषाराद्‌ सपि धनि ददे । (सः) कृष्णपक्षे तु स््रीजन-रत्तिं तद्भाषणाद्या- सक्ति नठु तत्सुखं, वा निष्टञ्चुक, छग्धरचेतताः पनिष्टशुजि चेतो यस्यसः, शः दुवखः विपक्नाभिभूतः शत्रुभिः पराजितः मवेत्‌, इति रोषः ॥

अथ–जिस मनुष्य के जन्मल्यसे सातरवेस्थान मे चन्द्रमा होतो इसे स्रीसुख मिक्ता हे; यथवा इसकी स्री स्वस्थ शरीय होती है क्योकि तन्दुरुस्त घ्री से ही रतिसुख मिल सकतादै। स्थलके व्यापारसे, यथवा विदेश में जाकर व्यापार करने से इसे घनलम होता है । कृष्णपक्च मेँ लियो मे समधिक पेम होता हं । यह मनुष्य मीटे-मीठे मोजनोंका आनन्द केतारहै। इसका

८ चन्द्र फर ११३

चित्त अत्यन्त ट्ल्चाने वाखा होता है । यह दु्व॑र देह होता हे । यद रत्तु से पराजित होता दहै ॥ ७॥ | तुखुना-““यदा कान्तागारं गतवति मृगाङ्के जनिमरतां कराक्रान्तेऽकस्य’दनमपि मवेत्‌ सख्रीजनकुखात्‌ । अनंगप्रावस्यं व्रनगरनारीरतिकलखा प्रवीणो वै धीर-ध्वनि मतिरतीव प्रमवति॥ जीवनाय

अथं–जिस मनुष्य के उन्मसमय में चन्द्रमा सप्तमभावमं हो, ओौर यदह चन्द्र॒ पूणेबटी होकर सततमभाव मे हो तो इसे अकस्मात्‌ किसी खी-कुल से धनप्रासि दोतौ हे। इसे कामेच्छा-खीसहवासेच्छा तीव्र होती दहै। यह मर्ष्य नगरमे रहनेवाटी सुन्दरी च्ियोँके साथ रतिक्रीडा करने में विरोष चतुर होता है । इसकी वाणी गम्भीर होती है । यद गम्भीर बुद्धिवाखा होता है ।

रिप्पणी–अध्ववाणिञ्यः शब्द्‌ कई एक विरोष अर्थोका बोधक दहे। रास्ते मे, बाजार मे, सड़क पर पेवमैण्यशौपः से धनमभी कमाया जाता दै- टसका नाम भी (अध्व वाणिज्य हो सकता है-गावों-गावों में चल-फिर कर; फेरी द्गाकर, धन पैदा करनेवाठे वणि भी ““अध्ववणिक्‌”» कहलाते दे । तेलो पर, खचर-खाद्‌ घोड़ों पर तैरगाडियों पर॒ मारु ल्दकर बेष्नेवाठे भणिए मी “मध्ववणिक्‌? कहलाते ह| रेल द्वारा; जहाज द्वारा, यातायात व्यापार से धन कमानेवारे व्यापारी भी “मध्ववणिक्‌ होते है । समुद्रयात्रा करके विदेश म जाकर व्यापार करनेवाले व्यापायी मी ‘अध्ववणिक्‌’ कलते ह । ८’कष्णपक्षे खीजने रतिं प्राप्नुयात्‌ इसका अभिप्राय यदह नहीं है किं इष्णपश्च न कामवासना अधिक होतो है ओर श्ङ्कपक्च मे कामेच्छा अस्प होती ह। क्योकि ष्वन्धमा तो उदीपक विभाव है-चौदनी मं खीसुख की अभिलाषा अधिक यौर तीतर होती है। श्वेताभिसारिकार्णे तो चङ्कपक्ष मं ही रतिखुख प्रास्त करती है । कृष्णपक्ष मं खरीजनरति मिरूती ह-रसका संकेत कृष्णामिसा- रिका दियो की ओर दहै। कामानल सन्तता रमणियां निविड-सूष्वीमेद्य अन्धः कार मे स्वप्रिय के वासस्थान पर स्वयं जाकर कामा्चिशान्त करती ह । यह अन्तर्निहित ताप्यं हो सकता है। मदृजी शछष्कदैवक्ञ ही नही प्रत्युत सहदय रसिक मी दै । रेखा प्रतीत होता है। इसी तरह जीवनाय देवज्ञ भी श्ृद्धारशाखनिष्णात प्रतीत होते ह। इन्होनि “वरनगरनारी रतिकला प्रवीणः इस विशोषण से यह दात साफ करदी हे। इनका हष्टिकोण है कि नगरवासि नासियां दी दाव-माव-कटक्ष आदि से खप्रिय का चित्त अपनी ओर आङ्ष्ट कर सकती है । वेदी कामसासखप्रतिपादित संभोग यसनादिं मं जानकारी रखती है, ओर रतिकुशला दोती ई । अतएव इनको प्रसन्न ओर सन्तुष्ट॒॒करना प्रत्येक पुरुष का काम नदीं दै । इनको सन्तुष्ट करनेवाला

श्र्ारशाखवेत्ता को$ विरला दी मनुष्य दोता है । एते मनुष्य को जन्म देने

११४ चमत्कारचिन्तामणि का तुखनात्मक स्वाध्याय

वाला सप्षमभाव का चन्द्रमा है । वेदयाओं को प्रसन्न करने की कला होतीदडेणेसा अधैमीदहो सकतादहै। ^दष्युः तीत्रमदो मदे” आचायं वराहमिहिर अथे- जिसके सप्तममाव मँ चन्द्रमादो वह पुरुष दर्प्याद्धु ओर अति कामी होता है। ““स्मरे दष्टः सौम्यः वरयुवतिकान्तोऽतिसुभगः।।2 मंतरेश्वर अर्थ -यदि चन्द्रमा सप्तमभावमें हो तो पति-पल्ली-दोनों सुन्दर होते है। ओौर इनका परस्पर प्रेम मी होता दै, “विमल्वपु्रि चन्द्रे सप्तमस्थे मनुष्यः -रुचिरयुवतिनाथः कांचनाव्यः सदेह | शरिनि ङरशरीरे पापगे पापदृष्टे न मवति सुखभागी रोगिपत्नीपतिः स्यात्‌ ॥2 मानस्तागर अथ--यदि पूर्णवटी होकर चन्द्रमा स्मभावमें दहो तो मनुष्य की पली रचिरा-अयात्‌ मनोहारिणी सुन्दरी होती ई । मनष्य स्वयं भी सुन्दर रूपवान्‌ दोता द । अर यह धनवान्‌ भी होता है। यदिदइस भाव का चन्द्रमा हीन- चली दो, पा्ीग्रह के साथहो, अथवा इस पर पापीम्रह की दष्टिहोतो य मनुष्य सुग भोगनेवाला नहीं होता है ओर यह्‌ सुग्णास्री का पति होता है | “चन्द्रे कामगते दयालरटनः स््रीवदयको भोगवान्‌ ॥ वैद्यनाथ जथ–सतमभाव में चन्द्रमा होतो मनुष्य दया होता है । यह भ्रमण- शील अर्थात्‌ एक स्थान प्र स्थिर रहने वाला नदीं होता दहै। यह्‌ लियो के वाअपनोस््रीके वशम रहता हे । इसे भोग प्रात होते रै । टिप्पणी–श्त्रीजितः पण्डजितःः मनुष्य के दुटक्षण माने गर है | “सौम्यो धृष्यः सुखितः सुखारीरः कामसंचुतो यूने । देन्यसूगार्दितदेदः कृष्णे संजायत शिनि |> कल्याणदर्मा ज सप्तममावमे चन्द्रमा दहो तो मनुष्य नग्र; विनयते वश मे आने-

वाला; ध यन्द्र ओौर कामुक होता है । यह चन्द्र यदि हीनवली दो तो मनुष्य >न मौर गोग होता ३ | ४5. 8

८1] 1 ~

५ इष्यः सदमोमदनातुसोऽस््रोऽनयांगहीनोऽस्तगते तुधांा ॥* जयदेव जव यदि चन्द्र सत्तमभावमें होत्तो मनुष्य ईषा, दांमिक, अत्यन्त कामी, निधनः, नोतिदीन मौर अंगहीन होता है। 4 राक = चन्त्त॒ सतमे यातेदुःखी कुष्ठी च वंचकः। ३११ _ अहुवेरीचव जायते परदारकः ॥|» काशिनाथ अथं सतम मे चन्द्रमादहोतो मनुष्य दुःखी; कोद, ठग, कजुस, बहुत रात्रुओं वादा मौर परच्रीगामी होता है । “महामिमानी मदनातुरश्च नशे भवेतक्षीणकनेवरश ! धनेन हीनो विनयेन चवं चनद्रऽगनास्थानविराजनाने ॥ दुंढिराज

चन्द्रफर ३१५

अ्थ- यदि चन्द्रमा सस्तमभावमे दो तो मनुष्यं बहुत घमंडी, -कामान्त, नि्॑लशरीर, धनदयीन ओर विनयदीन होता हे । | °“नरोभवेत्‌ श्चीणकठेवरश् धनेन हीनो विनयेनचन्द्रे | बृहद्यवन ष ५५ मे चन्द्रो तो मनुष्य निर्व, धन तथा विनय से रहित होता दै। “क्रये विक्रये वर्धंतेऽसौ विरोषात्‌ ॥” जगिश्वर अर्थ– चन्द्र यदि सप्तममे होतो मनुष्यं माल खरीदने ओौर बेष्वने.से समरद्ध होता है । “५जामितन्ने चन्द्रश्चुक्रौ च बहुपल्यो भवन्ति हि ॥° शुक्रजातक अ्थ- ससम मे चन्द्रहो भौर सतममे श्चक्र दो तो बहुभार्यायोगः होता है। ““ल्लीनाशङ्कद्‌ युग गुणे; रविरिन्दुस्ख मत्युं च ।।” बृडद्‌यवनजातक अ्थ– सप्तम चन््रहोतो १५बै वषै.-गष्युके समान कष्ट होता दहै। सप्तम चन्द्र ओर सूयं स्रीपक्च में हानिकारक ई । (शमहाभिमानी मदनावुरच नरो भवेत्‌ क्षीणकलेवरथ । ` धनेन हीनो विनयेन चन्द्रे चन्द्रानना स्थान विराजमाने ॥ महेश अ्थ–कलत्रमाव मेँ ( सत्तमभाव म ) चन्द्रमा हो तो मनुष्य भारी घमंडी ५८ । यह मनुष्य कामात्त, दुब, घनदहीन आौर नम्रतादीन अर्थात्‌ उद्धत तादहै। “जन्मकानगः कमयंदा भवेन्नरो भ्रम्‌ । गुर्फरू यशी गनी यशश करोत्यहर्निंशम्‌ ॥* खानखाना अथ- ससम चन्द्रदह्ो तो मनुष्य सुंदर, नीरोग, धनी ओौर यशस्वी होता है । भृगुसुत्र-दुभाषी) पार्वनेत्रः, द्वा्रिंशद्वषरे स््ीधुक्तः। सरीखोलः । सलरमूलेन ग्रंयिशखरादिपीडा । राजप्रसाद खाभः । भावाधिपे बख्युते खरीद्रयम्‌ । कषीणचन्दरे कलत्रनाशः । पूर्णचन्द्र बल्युते स्वोचें एकदारवान्‌ । भोगदुन्धः ॥” अर्थ- जिसके जन्मसमय मे जन्मङग्न से . सप्तमभावमे चन्द्रमाद्ोतो वह मनुष्य नम्र ओर मीठी वाणी बोल्नेवाला होता है । इसके नेत्र एक समान नदीं होते, अर्थात्‌ यदह ॒विषमनेत्र होता है। बत्तीस वर्षमे यह लीके साथ युक्त होता है अर्थात्‌ इसको ख्रीलाभ होता है । यह खी ठंपट होता हे । च्िर्योँके कारण इसे ग्रन्थि रोग होते ई ओर श्र आदि के अपघात से पीडा होती है। इसे रहने के लिट राजग्रास्ाद जैसा उत्तम मकान मिलता है। यदि भावेश बल्वान्‌ हो तो दो छिथों से सुख मिक्ता दै । यदि चन्द्रमा दीनबटी दोतोखरीकीम्रतयुदोती है। यदि इस भाव का चन्द्र पूणं बल्वान्‌ दो।वा स्वक्षत्री हो । वा अपनी उचराशि कादोएकटहीलरी होती है। मनुष्य भोगोप- भोग मे आसक्त रहता ई । ४ #

३१६ चमत्छारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

यवनमत- यह नीरोग, धनवान, रूपवान; कीर्तिमान, यशस्वी ओर विख्यात होता ह । पाश्चात्यमत-इस व्यक्ति को विवाह ते ओौरवारत की दैसियत से अच्छा धन लाभहोतादै। इस चन्द्र पर द्यभग्रहकीदृष्टिदहो, अथवा मित्र ह मं, स्वयहमेंयाउकादो तो अच्छा लाम होता है। जल्पर्ययन, व्यापार, सद्धा; पानी से उत्पन्न होनेवाले पदार्थो से इरे यदा होता है । इस व्यक्ति का विवाह र४्से २८वै वमे होतादै। इसका प्रेम अस्थिर होता है। इसे साञ्चीदारी के व्यापार मै बहुत फायदा होता है। इस चन्द्र पर अञ्चम ग्रह कोद्ष्टिहोतोष्ी के सम्बन्धसे कष्ट होते रै । विचार ओर अनुभव–यह चन्द्र वृषभरादि म होतो दो विवाह होने की विरोष संमावना होती है! एेसी स्थिति में चन्द्र भाग्येश है, अतः विवाह होते दी भाग्योदय का प्रारंभ दहोता है आओौर जब तक पल्ली जीवित रहती है तव तक उन्नति होती दहै। इसकी मृत्यु होते ही अवनति होती है । व्यवसाय, म, नोकरीमे मी स्थिरता नदीं होती । कई व्यवसाय ओर कद नौकरियों करनी पड़ती ह । कई एक परिवर्तन होते है । यह अस्थिरता ३६ वें वर्षं तक रहती हे । मेष, मिथुन वा तलाराशि दो तो पली प्रभावरील, इसका सख भी प्रभावी होता है| सिंहवाधनुमें चेदय गोर ओर सोढ होता है । कुम्भ में चेहरा साधारण होता ३ । जिसके सतम म चन्द्र होतो वह मनुष्य यदि किराने की दुकान, दुध की ईकनः द्दाद्थों की दुकान, मसडेञौर अनाजका व्यापार करेतोलाम प्टगा । होटल, वेकारी, कमीशनणएजेण्टी, इन्द्य॒रेन्स का काम करे तो भी लाम गगा । यह चन्द्र खीरादि का होतो व्यभिचारी प्रहृत्तिहोतीरै। इस भाव न चन्द्र पुरुषराशिमें होतो पली मं अधिक आसक्ती होती है। इस भाव शग चन्द्र सभी रारि्योमें व्यमिचारकी आर ले जाता हे । इस मत का सनुभव करना होगा |

अश््मभावस्थित चन्द्र का भावफट-

` सभ। विदयते भैषी तस्यगेे पचेत्‌ कर्हिचित्‌ काथमुद्गोदकानि । महाव्याधयो भीतयो

वारिभूताः दारीष्ेराछरत्‌ संकटान्यष्टमस्थः।८॥

-अन्वय–शशी ( यस्य ) अष्टमस्थः ८ स्यात्‌ ) तस्यगेहे भेषजी सभा

विदयते, कर्हिचित्‌ काथमुद्गोदकानि पचेत्‌, अरिभूताः महाव्याधयः भीतयः संकटानि वा ( भवन्ति ) ( अयं शशी ) करेरकृत्‌ भयति ॥ ८ ॥

सं°ट। >तस्य गेहे भेषजी भिषजां वैयानां इवं, सदा काथमुद्रउदकानि

पचेत्‌.। स्वरादि-अभिभूतस्वे रति ठननिव।रणाय बहवो वैद्याः यलनवन्तः स्युः

इतिभावः । कर्िचित्‌ वारिभूता जलनिदानमवा महाव्याधयो राजरोगादयः,

चन्द्रफक १९७

भीतयः जलनिमज्ञनभयानि संक्रयानि दुजंनादिजड्‌ निमित्त वेधनानि दुःखानि भवन्ति । एवं शशी, यदि अष्टमस्थः तदा क्ठेशक्ृत्‌ कष्टकारकः स्यात्‌ ॥ ८ ॥ अथं–जिस मनुष्य के जन्भसमयमे जन्मल्य्रसे आव स्थान में पन्द्रमाहो तो इसे कई प्रकारके रोगों से; अर्थात्‌ साध्यवा असाध्य रोगों से–पीड़ा रहती है–इन रोगों के निदान के रिष तथा उपचचार ओर निवारण के लिए वैच; डाक्टर ओौर दकीम बुलाए जाते ह । इस तरह इस मनुष्य के घरमे वेद्यो आदि की सभा भरी. रहती है । कोई वैय जड़ी बूयियोँ का कारा तेय्यार करवाता दहै । कोई पथ्य करवाने के लिए मूंग पकवाता है । ओर कोर अआसव-अरिष् वा शंत बनवाता है–इस तरह ये वैद्य. लोग अपने-अपने ज्ञान आओौर अनुभव के अनुसार व्याधियोंके निवारणके किए प्रयल करते है। रानुरूप वा शतुमूलक बड़ी-बड़ी व्याधि, भय ओौर आपत्तियोँ इसके पीठे सदैव लगी रहती हँ । किसी दीकाकार ने शवारिभूता भीतयः” एेसी योजना करके “जरू मे बकर मर जानेका भयमीहोता है! णेसा अर्थं कियादहै। किसी एक ने “वारिभूता महाव्याधयः |” एेसी योजना करके जखोद्र आदि जलजन्यरोगों से भय होतां है” ठेसा अथं किया. है । इस* तरह आव भाव का ष्वन्द्रमा कष्टकारी होता है ॥ ८ ॥ तुरुना– “यदा म्युस्थानं गतवतिशशांके बलयुते , महारोगातकः प्रवररिपुरंको च . भवति कचित्‌ काथ मुद्गोदकमपि प॑तीहमिषजाः › सदासद्वेद्यानां कलकलरवस्तस्य सदने ॥” जीवनाय अर्थ- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे अष्टमभावमे बली चद्रमा होतो इसे महारोगों का भय, अर्थात्‌ असाध्य राजरोगों का भय खगा रहता दै । वलवान्‌ शत्रु मुञ्चपर आक्रमणकारी न हौ-एेखा सन्देह भी इसे बना रहता दै । इसके धर मँ वेद्यं के उत्तमोत्तम अनुभवी डाक्ट्रों वा हकीमों के आदेश से जडी-बूचियों का कादा, मंगको दाल का रस, बनता रहतादहै। तथा बडेःबडे वैद्यो का जमाव भी होता रहता है । ्चूकिं इस मनुष्य को सदैव कोई न को भरीमारी ट्गी रहती है, अतः वैद्यो की सभा मी लगी रहती ३ । | रिप्पणी–दूषित ष्वन्द्र निम्नङिखित रोग करता हैः- अरुचि, मंदाभिः जदोष, रीतज्वर पांडुरोग, कमल्वायु, प्रमेह; वाताधिक्य, कफ, अतिसारः पीनस, रक्ते के विकार । ‘८अष्टमे तारकानाये दीनोऽव्पायुः सकष्टकः । . ग्रगस्मश्च कशांगश्च पापबुद्धिः भवेन्नरः ॥ काक्िनाय अर्थ- जिसके अष्टमभाव मे चन्द्रमा हो तो वह मनुष्य दीन, अस्पायुः कष्टयुत्त-प्रगस्म, दुर्वर ओर पापीहोताहै! ४सोद्धि्म चितामय कारश्यनिः स्वो भूपार चौराप्तभयोंऽष्टमेऽन्जे ॥* जयदेष

११८ चमत्कारचिन्तामणि का तुखनाव्मक स्वाध्याय

अर्थ–अष्टमभाव में चन्द्रके होने से मनुष्य उद्धियमन, चिन्ताुक्तः रोगी होने से दुटखशरीर आर निधन होता है । इसे राजा भौर चोरों से संत्रास

ओर भय होता दे    
"”बहूुमतिः व्याध्यर्दितः चाष्टमे   ` आचा्यंवराहनमिहिर

अथे- अष्टम चन्द्रमा हों तो मनुष्य. स्थिरवुद्धि नदीं होता है। यह व्याधियों से पीडित रहता है ।

“मृतो रोग्यस्पायुः |> सन्त्रे श्वर अथे– यदि चन्द्र मष्टममावमें हो तो मनुष्य सेगी भौर यस्पायु होता है। “नाना रोगेः क्षीणदेहोऽतिनिः स्व श्चोराराति क्षोणी पाटामिततः | चित्तः व्याङ्घुखो मानवः स्यादायुः स्थाने वर्तमाने दिमांरौ ॥ टुंडिराज अथ– जिसके आयुः स्थान (अष्टम ) मे च्च्हो तो यह कड प्रकार

के रोगों से पीडित रहने के कारण निर्बल देह होता है। यह अतीव निधन दोता हे। इसे चोरों से, शत्रुओं से, एवं राजा से संरा रहता हे । इसका चित्त उद्वेग के कारण व्याकु रहता है । “अतिमति रति तेजस्वी व्याधि विवध क्षपितदेहः । निधनस्ये रजनिकरे स्वस्पाुः मवति संक्षीणे ॥> कल्वाणवर्मा. ॥ किम चन्द्र के होने से मनुष्य बुद्धिमान्‌ भौर तेजस्वी होता । कड प्रकारके रोगोँके होने ण | इसकी आ थोड़ी रीका होने से यह क्षीणकायदहोतारहै। इ यु रणोत्युकः त्यागविनोदविचा शीटः शदयाके सति र्रयाते ॥» वंयनाय अथ–जिसके सष्टमभाव मे चन्द्र हो तो वह मनुष्य युद्ध करने के िए उ्खुक रहता है । यड दानी, विनोद्ील मौर विद्वान्‌ होता है । नन भवन संस्थे शीतरदमौ नराणां, निधनमचिरकाले पापगेहे ददाति। निजग्रगुगारूगेदी सौम्यगेदी च पूर्णः, जनयति बहुदुःखं श्वासकासादि रोगैः |°

। मनसागर अथ– जिसके जन्मसमय में जन्मल्य् से आसवे स्थान में चन्द्रमा पापी ग्रह भीरारिमे होतो मनुष्य अस्पायु होता है । र्द भाव का चन्द्रमा यदि स्वरही दहो बुध कौरारि में हो तो, ओर स्वय पूणवख्वान्‌ हो तो मनुष्य को श्वास-कास-. आदि नानाविध दुःख होते है मौर यह सदा दुभ्खी रहता है । “श्रुवनेत्र रोगी तथा सीतपीडा तथा वायुरोगाः शारीरे भवेयुः । क्षणं नीयते तस्य मूढौ क्षणंस्याद्‌ यदा मृप्युगः चंद्रमा वै जनानाम्‌ ॥ उदयभास्कर अथे– जिसके जन्मलद्न से आव स्थ न मं चन्द्रमाहोतो इसे ने्ोंके रोग होते हँ । शौतज्वर की पीडा होती दहै | शारीरम वायुप्रधान रोग होते हैँ । ओर इसे क्चण-श्चण में मू रोग होता है |

५ श्ुक्रवा गुरुके धरम हो मथवा

चन्द्रफर ११९

““कुष्णपक्षे दिवाजातः श्ुक्कपक्षे यदानिरि । तदा षष्ठाष्टमश्चन्द्रो मात्रवत्‌ परिपारुकः |> अयेश्रन्थ क्ता अथे-ङण्णपक्ष मे दिन में जन्म हो-भौर श॒ङ्कपक्च मे रात्रि मे जन्मद तो छटा अथवा आय्वां चन्द्रमा माता के समान मनष्य की रक्चा करता रै । टिप्पणी- कृष्णपक्ष मे जन्म दिनसेहोतो सूर्यं नवम से केकर ख्य तक क्रिसी स्थानमेंदहो सकता दहै। यदि जन्म शु्कपक्षमे रात्रिम दोतोसूथं धनस्थान से सप्तम स्थाने तक किसी स्थानमें होगा अतः इस प्रकारका योग दीर्घायु देता है। अस्यायु योग तव होगा जव चन्द्र अमावस मे हो । अथवा चन्द्र रवि के निकट हो | प्राचीन ग्रन्थकारो के अनुसार अष्टमचन्द्र का मनुष्य अतीव निधन होता हे– इस परिस्थिति मे इसे राजा से भय ओौर चोरों से भय क्योंकर हो सकता है, क्योकि राजा दंड द्वारा धनापहरण करता है ओर वोर चोरीकर के धन ट्ट ठेते ह । दोनों परिस्थितियों मे संत्रास मौर भय का मूलकारण धनसत्ता है । यह बात विष्वारयोग्य है। अष्टमभाव का चन्द्रमा धनदाता भी होता द–यदि इस पश्च को मन मे रखाजावे तो राजा ओर चोसेंसे भय होन। भी संभव हे । नानारोगओैः श्चीणदेहोऽतिनिःस्वः चौराराति क्षीणपालामितत्तः। चित्तोदधेगेः व्याकुखो मानवः स्यादायुः स्थाने वर्तमाने हिमांशौ |” महश्च अथे–यदि चन्द्रमा अष्टम हो तो मनुष्य नानाविध रोगों के कारण निर्बल दारीर होता हं” यह अतीव निर्धन होता है। इसे चोरों से, शतरुओं से ओर राजासे चास ओर भय बना रहतादहै यह मनुष्य चित्तम उद्वेग होने से व्याकु रहता ह । (“उमर्यहे कमयंदा नरो भवेत्‌ सदाऽऽमयी । व हि्जंगुर्दं गुस्सववं देशसुकू्‌ च नि्ह॑यी | खानखन। अथे–यदि षन्द्रमा अष्टमभाव में हो तो मनुष्य रोगी । बेकार धूमनेवाल, क्रोधी; अपना देशत्याग करदेनेवाटा आौर दयाहीन होता है । श्र गुसूत्र-अस्पवाहनवान्‌ । तया कादिषु गंडः । ््रीमूठेन बन्धुजनपरित्यागी । स्वक्ष स्वोच्चे दीर्घायुः । क्षीणे वा मध्यमायुः |” अथे- जिस मनुष्य के जन्मलग्न से अष्टमस्थान मे चन्द्रमादो तो इसे वाहनसुख थोड़ा मिलता है । तालाब, कुआ मारि मे इकर मर जाने का भय रहता है । यद्‌ चन्द्रमा यदि स्वक्षेत्र (ककं ) मेहो, वा अपने उच्स्थान वरृषमे होतो मनुष्य दीर्घायु होता है। हीनवटी चन्द्रके होने से मनुष्य मध्यमायु होता दहे | स्री के कारण इसे बन्धुओं का त्याग करन! पड़ता ई ।

१२० चमत्कारचिन्तामणि का तुरख्नात्मक स्वाध्याय

रिष्पणी-ज्योतिःखाख्र में, आयु तीन प्रकार की होती है-रेसा कथन हैः–अव्पायु ३२ से २५ तक, मध्यमायु-३२-३५ से ७० तकः-पूर्णायु ८० से १०० तक । १०० से १२० तक परमाय समञ्चनी चादिए ।

यवनमत- यह सदारोगी, दुःखी, क्रोधी) दुराग्रही, निदंय ओौर दुर्जनो द्वारा पीडित होता है। इसे देश त्याग करना पड़ता है । यदह चन्द्र पापग्रह्‌ मे यथवा पापग्रह से युक्त हो तत्र तो ये अद्यभफठ निश्चय से मिलते ह

पाश्चात्यमत-इस चन्द्र के फटस्वरूप म्ृप्युपत्र द्वारा अथवा वारिसि के अधिकारसे अथवा विवाह के द्वारा विरोषर खभ होता है। चन्द्रउच का, अथवा स्वगरहमे होतोये खमदहोतेर्है। पापग्रहसे युक्तदोतो ये लाभम नहीं होते । |

विचार ओर अनुभव- मेष, सिह; धनुराशियों मे अष्टमभाव का चन्द्र हो तो किंसीन किखी मागं से धन मिलता दै | मिथुन, खा, वा कुम्भ में यह चंद्र हो तो प्ली अच्छी मिलती दै किन्तु कुछ कल्हकारक होती है यह विदोष फठ इन छो रारियोँ मे चन्द्र के होने से होता रै। ककं, बृश्चिक, धनु वा मीन ल्य्रहो, ट्य से चन्द्रमा अष्टमभाव में हो त मनुष्य योगाभ्यासी, उपासक वा वेदान्ती होता है। स्रीरारिमें चन्द्रहोतोषरकी गु बतं नाँकरोंसे बाहर निकल जाती ई । आयु का ४४ व वर्षं सम्पत्ति नाशक होता दै । नवमभावस्थित चन्द्र का फटः- “तपोभावगस्तारकेदो जनस्य प्रजाश्च दविजाः वेदिनः तं स्तुवन्ति । भवत्येव भाग्याधिको यौवनादेः दारीरे सुखं चन्द्रवत्‌ साहसं च ॥ ९॥।

अन्वयः–( यस्य ) जनस्य तारकेशः तपोभावगः ( अस्ति) तं प्रजाः) द्विजाः, वन्दिनश्च स्तुवन्ति । ( सः ) यौवनादेः भाग्याधिकः मवति । ( तस्य ) शारीरे सुखं चन्द्रवत्‌ साहसं च भवति एव ॥ ९ ॥ `

सं°-दी०- यस्य जनस्य तपोभावगः नवमस्थः तारकेशः चन्द्रः; तं द्विजाः ब्राह्मण क्षत्रियविंदाः वदिनः स्वतिपाटकाः प्रजाः तदितरजनाः स्वुवन्ति गुणारोपं कुवन्ति । यतो यौवनादेः यौवनस्य प्रथमे काठे सूरत्व-धनत्व-खीलम्यवहारादि हेतोः भाग्याधिकः मवत्येव । तथा दारीरे युखं साहसं मनः प्रागस्भ्यं चन्द्रवत्‌ शोभनं, अथवा कदाचिद्‌ वद्ध॑मानं कदाचिद्‌ हीयमानं भवति, इत्यनेन एव सन्वयः ॥ ९ ॥ |

अ्थे- जिस मनुष्य के जन्मलग्न से नवमस्थान में चन्द्रमाद्ोतो इसकी स्तुति-इसका गुणगानं जनता के लोग, ब्राह्मण लोग्‌ ओर वन्दी छोग ( माटखोग ) करते हँ । यह मनुष्य वौवनावस्था के प्रारम्भसे दी माग्यवान्‌ होता है| यह शरीर से सुखी रहता है । इसका साहस-अर्थात्‌ पराक्रम चन्द्रमा के समान बदृता-घरता रहता है ॥ ९ ॥

चन्द्रफल १२१

टिप्पणी- प्राचीन भारत मे राजाओं ओर महाराजाओं के दरार मं मा लेग इनका गुणगान करते ये-इनकी स्तुतिविषयक कवित्त पठते थे ओर इनाम पातेये। ब्राह्मणलोग आशीर्वाद देने आतेये | प्ररांसात्मक शोक पटू कर सुनाते थे ओर उचित पुरस्कार भी पातेये। इसी तरह सव॑साधारण ठोग भौ इनका गुणगान करते ये क्योकि ये राजा-महाराजा प्रजाहित के काम करके प्रजा का मनोरंजन भी करते रहते ये । तुखना- तपः स्थाने राकरापतिरिह यदा जन्मसमये स्तुवंति व्यामोहात्‌ प्रवखसिश्चापि कृतिनः । तमथानामाप्िः परमकमनीयंमुखमलं सुखंम्वांगे राकापतिवदमितं तस्य॒ सततम्‌ ॥ जीदनाय अ्थे- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे चन्द्रमा नवमभावमे होतो उसके बलवान्‌ शत्नुगण किकर्तभ्य विमूट्‌ होकर तथा सन्तगण मी स्तुति करते द । उसे धन का लाभ, पूणचन्द्र के समान सुन्दर सुख ओर चन्द्रमा के समान ही शारीरिक सुख होता रै, अर्थात्‌ जिस प्रक्रार चन्द्रमा क्षीण तथा पूणं होता रहता है उसी प्रकार रारीरिक बर भी घटता बदृता-रहता हे । “जनप्रियः सात्यजबन्धुधीरः सुधर्मधीः द्रव्य युतः त्रिकोणे ॥* जयदेव अथे- नवम मे चन्द्रमा हो तो मनुष्य जनता का प्यारा, पुत्रवान्‌ ; बन्धु युक्त धीर, धर्मात्मा ओर धनवान्‌ होता है ।

“धमं चन्द्रे चारुकान्तिः स्वधमनिरतः सदा । वीतरोगः सतांश्छाध्यः पापहीनश्च जायते ॥”’ काश्ञीनः अ्थै–जिसके नवमभाव म चन्द्रमा हो तो वह मनुष्य सुन्दर, स्वधमं परायण, नीरोग, सञजनमान्य ओर निष्पाप होता हे । “तपसि श्युभधमांतसपुतवान्‌ ॥ मन्त्रेश्वर

अथे-नवमभाव में चन्द्रमा हो तो मनुष्य धार्मिक ओौर पुत्रवान्‌ होता दै । सौभाग्यात्मज मित्रवषु धनभाग्‌ धमंस्थिते शीतगौ ॥ आचायंवराहमि्िर अथं- जिसके नवमभाव मे चन्द्रमादहोतो वह मनुष्य; सोभाग्य, पुत्र; मित्र-अन्दु ओौर धन, इनसे युक्त होता हे । “कलत्र पुत्र द्रविणोपपन्नः पुराण वात श्रवणानुरक्तः । । सुकर्म सत्तीथपरो नरः स्याद्‌ यदाकलावान्‌ नवमाख्यस्थः ॥?2 दुंडि सज अथे- जिसके नवमभाव मे चन्द्रमा हौ वह मनुष्य स््ी-पुत्र ओौरधनसे युक्त होता है-इसका. अनुराग ओर पेम पुराणों की कथां श्रवण करने मं होता है । यह मनुष्य श्युभक््मकर्ता ओर उत्तम तीथं करनेवाला होता है । ‘देवतपित काय॑परः सुखधनमति पुत्र संपन्नः। युवतिजन नयन कान्तः . नवमे राशिनि प्रजायते मनुजः ॥” कल्याणदर्भा

१२२ चमत्कारचिन्तामणि का तुटनास्मक स्वाध्याय

अथं- जिसके नवम मे चन्द्र हो वह मनुष्य देवभक्त तथा पित्रभक्त होता हे । इसे सुख, धन, बुद्धि ओर पृं का सुख मिखता है । यह उन्मत्त यौवना- रूट्‌ लियो के ओंँखों का तारा होता है । “नवमभवनसंस्थे शीतररमौ प्रपूर्णं बहुतर सुख भक्तया कामिनीप्रीतिकारी । न भवति धनभागी नीचगे श्चीणदेदे विमल पथविरोधौ निरयण मूदचेताः ॥” मानक्तागर अथे- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे जन्भल्य् से नवमस्थान मे चन्द्रमा हो ओौर यह्‌ चन्द्र पूणं बल्वान्‌ हो तो यह बहुत प्रकारके सुख भोगता इ । ओर अपनी खी को सुख देनेवाला होतादै। इस भाव का च्वन्द्रमा यदि दीनवली हो । वा नीच राशिका होतो मनुष्य निधन, निर्गुण ओौर मखं होता हे ओर यह सन्मागं से विशुद्ध चलनेवाला होता दै | “श्चन्द्रे पेत्रिक देवकार्यं निरतः त्यागी गारुस्ये यदा ॥ वंद्यनाय अथे-नवमभाव मेँ चन्द्र हो तो मनुष्य तपंण-श्राद्ध-सन्ध्या-देवपूजा आदि कार्यो का करने वाला ओर दानशीठ होता है । मध्यभाग्यं भवेद्धर पित्रपक्षपरायणः । धमे पृणनिशनाये श्चीणे सवं विनाखयेत्‌ ॥ अ(चायंगगं अथे–जिखके नवम मे पूर्णवटी चन्द्रमा हो वह मध्यम वय मे भाग्यराटी होता है। यह श्राद्ध आदि पिव्रकमं मे श्रद्धा रखता है। यदि इस भाव का चन्द्रमा हीनवटी हो तो मनुष्य का सर्वनाश होता है। ““कृलत्रपुत्र॒ द्रविणोपपन्नः पुराणवातां श्रवणानुरक्तः। सुक्म॑सत्‌ तीर्थं परो नरः स्यात्‌ यदा कलावान्‌ नप्रमाल्यस्थः ॥* महेज्ञा अथे जिसके नवमभाव में चन्द्रमादोतो उस मनुष्य को ख्री-पुत्र ओौर धन प्राप्त होते ह । यह पुराणों की कथा सुनकर प्रसन्न होता है । यइ यभ कर्म॑ कर्ता होता है । यह उत्तम-उत्तम तीर्थो की यात्रा करता है। ८(नरीवखानगः कममुदैशसंज्ञकं नरम्‌ । म॒तम्म विह आमिल सिकम्युक करोति वे |] खान रान अथे–यदि चन्द्र नवमभाव मे हो तो मनुष्य तेजस्वी, अस्यन्तधनी ईश्वर को जाननेवाटा ओौर सवारियों पर चलने वाखा होता है । भरगुसूत्र-बहुश्रतवान्‌ , पुण्यवान्‌ तटाक-गोपुरादि निर्माण पुण्यक । पुत्र भाग्यवान्‌ । पूणचन्द्रे बलयुते बहभाग्यवान्‌ । पिव्रदीर्घायुः । पापयुते पाप- कषेत्रे भाग्यहीनः । नष्टपित्रमात्रकः थे–जिस मनुष्य के जन्मल्य से नवमस्थान मे चन्द्रमा होतो यह बहुश्रुत होता हे अर्थात्‌ बहुशाश्ननिष्णात होता है ओौर ज्ञानवान्‌ होता है। यह पुण्यकर्मा के करनेवालखम होता है। यह लोगोँके सुख के लिए तालाब वनवाता है । मन्दिर यौर धम॑शाला आदि बनवाता हे ओर इष्-पूतं पुण्य-

चन्द्रफरः १२३

कमं करता है । इसे पुत्रों से खुख मिर्ता है । यदि इस भाव का चन्द्रमा पूर्ण-

बली हो तो मनुष्य विदोष भाग्यवान्‌ होता है । इसका पिता दीर्घायु होता है ।

एस भाव के षन््रमा के साथ पापग्रह युति करता है अथवा यदह चन्द्र पापग्रह

कीरारिमे होतो यह मनुष्य अभागा होता है। इसके पिता ओर माता की . मृत्यु होती हे । |

“कान्ता मोगी शशांके न” ॥ हीरादीष

अथे- यह अनेक लियो का पति होता है । यहो पर “कान्तानां मोगी” एसा समास करना दोगा । ।

“चन्द्रे चतुर्विशतिः फलमिदं लभोदये संस्मृतम्‌” ॥ बहदयवनजातक अथे-नवम चन्द्र के फलस्वरूप २४ वे वर्षं मे लम होता है । यवनमत–यद भ्यक्ति तेजस्वी, धनवान्‌ , ईश्वरभक्त भौर प्रवासी होता दै । पाश्चात्यमत-यह जल्मागं से प्रवास करता है। धर्म भौर शारी का

| मी, ॥ योगी; कस्पनाशक्ति से युक्त, स्थिरवचित्त ओर अभिमानी होता है । ।

पत्ती के संबंधिरयों से ओर अपने आप्तजनों से इसे अच्छा साहाय्य मिख्ता है किन्तु यह ्वन्द्र बलवान्‌ ओौर श्चभ-संस्कारो से युक्त होना चादिए । इस पुरुष को कानूल, दिस्सेदारी शाखीयज्ञान ओर जल्पयैन से अच्छा त्रभ होता है।

विचार ओर अनुभव-नवमस्थ चन्द्र पुरुषरारि मे हो तो मनुष्य को एकन दो वा बहुत छोटे भाई होते ई । परन्तु बङ़ामाई नहीं होता दै । यदि हुआ तो अख्ग रहता है ! छोरी बहिन नदीं होती रै । सख्रीराशि मे इस भाव काच्चन्द्रहोतो ऊपर छ्खि फठसे विपरीत फल दहोता है। बड़ी बहिन नदीं होती । छोटे भाई नदीं होते । छोरी बहिन होतीर्ै।

नवमस्थ चन्दर दूषित हो; वा ख्रीरायि का हो तो पुत्र सन्तान बहुत देरसे ४८ वैँ वषं के करीब होती है । यह भी संभव है कि पुत्र सन्तान दहोहीनहीं।

सिह राशि का चन्द्रदहो तो मृत्यु के समय भाग्योदय होता है। धनुराशि काचन्द्रहो तो कुठकीर्तिं बटृती है।

मेष राशि का चन्द्र हो तो भाग्योदय मं कठिनता आती है । कर्क, बृश्चिक) मीन, मेष; सिद तथा धनुराशि का चन्द्रहो तो मनुष्य ठेखक, प्रकाशक वा मद्रक होता हे।

इष, कन्या ओर मकर का चन्द्र हो तो मनुष्य अधंरिक्षित रह जाता दै ।

मिथुन, दला ओर कुम्भ का चन्द्रमा हो तो मनुष्य पूर्णतया शिक्षित तो होता है किन्तु रास्ते में रुकावटं भौर अड्ग्वनें बहुत आती ई । -दकमभावस्थित चन्द्रफट- `

“सुखं बान्धवेभ्यः खगे धमंकमा समद्रांगजेरं नरेशादितोऽपि । नवीनांगना वैभवे सुभ्रियत्वं पुरा जातके सौख्यमर्पं करोति» ॥१०॥

१२४ चमत्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

` अन्वयः- जातके खगे ससुद्रंगजे ८ स्थिते ) धम्मकर्मा, वांधवेभ्यः सुखं, नरेशादितः अपिश, नवीनरांगना वैभवे सुप्रियत्वं ( च ) ( कमते ) पुरा अस्पं सौख्यं करोति ॥ १० ॥ “पुरा जात के अव्पं सौख्यं करोति “इत्यपि योजना चित दश्यते ॥ ५० ॥ ऋक सं<-टी<-ससद्रांगजे अन्धिसुते चन्द्रे खगे दशमे सति धर्मकर्म पुण्य- कारी सन्‌ वांधवेभ्यः सुखं, नरेशादितः राजग्रश्तिजनेभ्यः शं कल्याणं अपि, नवीनांगनानां . वैभवे प्रभुत्वे सुप्रियत्व सुतरां वह्छमव्वं, तथा पुराजातके प्रथमे सुते अत्पसौख्यं, यद्वा, पुराजायते अग्रे भवति इतिपुरगणजातकः भृत्यः, तस्मिन्‌ स्वल्पं सुखं करोति प्राप्नोति, इव्यथः ॥ १० ॥ अ्थ-जिख मनुष्य के जन्मसमय मे जन्मट्स से दशमभाव में चन्द्रमा हो तो वह धर्मात्मा होता दै। इसे बन्धु-बान्धवों से सुख प्राप्त होता दहे । राजा ते अथवा तत्समान धनी-मानी लोगों से भी सुख प्राप्त होता है । नवीन-अंगना- अर्थात्‌ नवषरिणीताखी के रेशवर्य-प्रयुत्र ओर मान को देखकर इसे बड़ी प्रसन्नता होती दै। किन्तु इसे वाव्यावस्था मं अव्पसुख मिक्ता है । अर्थात्‌ इसका बचपन कष्टमय व्यतीत होता है ओर यौवनम सवंप्रकार का सुख प्राप्त होता दै। “इस मनुष्य को च्येष्ठपुत्र से प्ूणयुख प्राप्त नदीं होता है। अर्थात्‌ इसका ओर इसके जेटेपुत्र का परस्पर वैमनस्य ( मनमुटाव ) रहता है । तुखना–“यदा कर्मस्थानं गतवति तमीरो जनिमतां ; स्ववंधुभ्यः सौख्यं नरपति ऊुखादथं निचयः । नवीनामिः नित्ये नगरवनितामिः सुरतजं + सुखं पूर्वापप्ये प्रभवति सुखं नैव सततम्‌ ॥* नीवनाथ अर्थ- जिस मन्य के जन्मसमय मे जन्मलय्य से दशमस्थान मे चन्द्रमा हो तो इसे बन्धघु-बान्धवों से सुख मिक्ता है । राज्रुकसेधनकालखाभ होता है । नित्य नवीना नगरवासिनी नारियों से रतिसुख मिल्ता हे । परन्तु अपने च्येष्ठ पुत्र से सुख नहीं होता है । रिप्पणी-्येष्ठपुत्र से सुख प्राप्त न होना-दो परिस्थितियों मे से सम्भव है–? पिता-पुत्र का परस्पर वैमनश्य, ( २) य्येषपुत्र-अर्थात्‌ अग्रजात पुत्र की मृत्यु । पश्चमस्थान से दरमश्थान छठा हे-अतः प्रथम परिस्थिति सम्भव दै। एेसे बहत से परिवार देखने मं आते है जहौ पिता ओर जेष्ठपुत्र के सम्बन्धं अच्छे नहीं होते-परस्पर अदाल्ती स्रगडों तक नौवत आती है– विभाजन ह्येता है–प्रथक्‌ -ए्रथक्‌ निवास होता है । यदि व्ययस्थान का अधिपतिं चन्द्रमा दशममावमं होतो प्रथम पुत्र की मृद्यु मी सम्भव दै–भौर यह दूरी परिस्थिति है। मनुष्यके कठेजे में चुमनेवाठे शल्य इ संसार मे बहुत द । किन्त इनम से तीश्णतम शस्य पिता के चिएि प्रथम पुत्रकी मृघ्यु होतो दहै। स्मरण रहे किं दरमस्थान तति स्थान नहीं है ।

चन्द्र फर १२९५

(निष्पत्ति सस्पेति धर्म-धन-धीशौरयः युतः कर्मगे |” चायं वराहमिहिर अर्थ–यदि दशमभाव मे चन्द्रमाहो तो मनुष्य सब कामों को निष्पन्न सम्पादन करनेवाला होता है। यह धर्मासा, धनी, बुद्धिमान्‌ ओौर शओौयं सम्पन्न होता है | “जयी सिद्धारम्भो नभसि श्चभङ्घत्‌ सत्‌ प्रियकरः ॥ मन्त्रेश्वर अर्थ–यदि दशामभाव मे चन्द्रमा होतो मनुष्य सर्वत्र विजय पातादे। यह जिस काम को हाथमे ठेता है इसमें इसे सफलता मिल्ती है । यदह शभ कमं करता है । यह सत्पुरुषो के छि लाभदायक कामों के करनेवाला हीता हे । अथवा सजनो के साथ उपकार करनेवाला होता है | “लक्ष्मी खकीर्तिः कृतकमसिद्धिः भूपेष्टता रौयपिहास्ति खेंदौ ॥* जयदेव अथं–यदि ष्न्द्र दशमभावमें होतो मनुष्य र्ष्मीवान्‌ ओर यशस्वी होता है। इसे अपने किए बुः कामों मे सफट्ता मिख्ती दै । यह राजमन्य ओर पराक्रमवान्‌ होता है । “कमस्थाने सुधारद्मौ बहूभाग्यो महाधनी । मनस्वी च मनोज्ञश्च राजमान्यश्च जायते| काशीनाथ अथ–यदि चन्द्र दशमभाव में हो तो मनुष्य बहुत भाग्यवान्‌, धनाञ्य, मनस्वी; सन्दर ओर राजमान्य होता है । “चन्द्रो यदा द्शमगो धन-धान्य-वख्मूषा वधूजनविल्सकलविलोलः ॥’ वेचनाय अथं– चन्द्रमा यदि दशमभाव में हो तो मनुष्य धन-धान्ययुक्त, वस्र ओौर अचल्ह्कार युक्त, च्ियोांसे पिस करनेवाख ओर कख का जाननेवाखा होता है। | “बहुतर खंखभागी कम॑संस्थे हिमांशौ ; विविधधननिधानं पुत्रदारादिपूणः। रिपुकुटिक रृहरथे कासरोगी कशांगः , श्वसुरकुलधनाव्य कर्महीनो मनुष्यः ॥ मानसागर अथं–जिस के जन्मल्चसे दरामस्थानमें चन्रमा होतो इसे नाना प्रकार के सुख प्रास्त होते हैः -यह ख्ी-पुत्र आदिसे भरसूर होता दै। यदि इसभाव का चन्द्रमा शतरुक्षेत्री हो, अथवा पाप्रहकेक्षे्रमेहोतो मनुष्यको कासरोग होता है । यह निव॑ख देहवाला होता है । यह श्वसुरण्ह से श्राप धन से धनाल्य होता है क्योकि यह स्वयं अकमण्य होता हे | रिप्पणी–“्रतिदयायादयो कासः कासात्‌ संजायतेक्षयः ॥* यह व्यक का नियम दै। अतः कास से उत्पन्न होनेवाला क्षय भी अन्तर्भूत समञ्चना रोगा । कास का मूल प्रतिर्याय ( जुकाम-नजला ) दै–क्षय से शरीर का बलहीन हो जानामी स्वाभाविक है। इस तरह दूषित चन्द्रमा कदे एकः हानिकर रोगों को जन्म देता है ।

१२६ चमत्कारचिन्तामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

श्सुरह-से प्राप्‌ हए धनसे धनीवेदी होते द जो स्वयं निकम्मे ओर मूस होते ह किन्तु रूप आर यौवन सम्पन्न होते हें ओौर प्रार्तनजन्म कुत शुभकर्म का फलस्वरूप इनका विवाह धनाब्य कुक्में होता दहै। स्मरण रदे कि अकर्मण्यः होना दुषित चन्द्रां का दुष्ट फल दै । “धछविषादी - कर्म॑परः सिद्धारस्मश्च धनसमृद्धश्च । यचिरतिवलोऽथ दशमे श्रो दाता भवेद्‌ शशिनि” | कल्याणवर्मा अथ- जिसके जन्मल्यसे दशमभावमें चन्द्रहो तो वह मनुष्य विषाद- हीन; तत्पर होकर कामों को करनेवाखा, धनी, सम्रद्ध; पवित्रात्मा, बटी ओर टानशीक तथा चुर होता है। यह जिस कामको करता है उस काममें इसे सफठ्ता मिख्ती ~्षोणीपालादथंलन्धिर्विंशाख कीर्तिमूर्तिः सत्वसंतोषयुक्तः वष्वठ लक्ष्मीः रीट संदा लिनीस्याद्‌ मानस्थाने यामिनीनायकश्चेत्‌ || दंडिराज अथे-दरामभाव मं चन्द्रमा के होने सं मनुष्य कोराजासे धनप्राप्त होती है । इसका यश दूर-दूर तक फैरूता है । यदह सतोगुणी होता है । यह सन्तुष्ट रहनेवाखा व्यक्ति होता है । यह लक्ष्मीवान्‌ ओौर शीलवान्‌ होता है । किसी एक विद्वान्‌ ने “चंचल लष्ट्मीः इस विरोपण का अथं “दशम चन्द्र से सम्पति मे चटाव ओर उतार होते रहते ईै-स्थिरता नहीं होती | एेसाकिया है क्याकि रश्मी १ स्वभाव से चंचल है-एक पुरुष में, एक कुल में, एक राज्यमें बहुत देर तक स्थायी नदीं रहती । कोश में इसे “श्वंचखा चपला चलाः एेसा कहा है । | “शस चन्द्रे च वेद्यस्य वृत्तिः प्रकर्प्याःः ॥ जागेश्वर अथे–दराममाव मेँ चन्द्रमा होतो मनुष्य को वैर्यवृत्तिसे व्यापारमें धन प्राप्त होता है | स्मरणरहे कि चन्द्रमा को वेश्य भी माना गया है॥ “व्वंचल टक्ष्मीः? | तुह्‌द य वनजातक अथं- जिसके दशम मे चन्द्रमा हो तो इसकी सम्पत्ति सदैव एक-सी नदीं रहती अरहट कौ रिडां की तरह कमी धन से पूण ओर कमी धन से खाखी | ‘‘अरषट्षरीषटोपमाः ॥ प्राक्तन जन्म मे “जिन खोगों ने अनन्त शुभकर्म किए होते है, इनके पास कुट्परपरा से रश्मी स्थायी होकर रहती है” एेसा भी अनुभव है । कृमयदा गृहाश्रितो हि हम्जवारक नरम्‌ | तवगरं च कामिल करोति वै च साविरम्‌? ॥ खानखाना अथ– यदि चन्द्रमा दशमभावमें होतो मनुष्य अपने परिवार का पार्क होता. है । मनुष्व पित्रमक्त, धनाल्य, प्रकांड पंडित; शान्तप्रकृति ओर संतोषी होता दहै | “’क्षोणीपाल्रदथलन्धिः विशाल कीर्तिमूर्तिः सत्व संतोषयुक्तः चचल्‌-लक्ष्मीः शीलसंश्ाटिनीस्यात्‌ मानस्थानेयामिनीनायकश्चेत्‌ ॥” बहे

चन्द्रफर १२७

अथे–जिस मनुष्य के जन्मसमय मे जन्मच्य्र से दशामस्थान मे चन्द्रमा हो तो मनुष्य राजासे धन मौर मान पाता है। यह बहुत यदयस्वी होता है । यह परक्रमी ओर शूर होता है। यह यथालाभ संतुष्ट रहने वाख होता है । यह शोभायमान लक्ष्मी से युक्त होता है जिससे इस मनुष्य का व्यक्तित्व चमक उठता हे । यह मनुभ्य शीलवान्‌ ओौर सचसिि होता है ।

श्गुसूत्र– “विद्यावान्‌ पापयुते। सपरविंद्यति वं विधवा सं गमेनजन विरोधी । अतिमेधावी ¦ सत्क्म॑निरतः । कीर्तिमान्‌ । दयावान्‌ । भावाधिपे बल्ुते विरोष सत्‌कमं सिद्धिः । पाप निरीक्षिते पापयुते वा दुष्कृतिः । कर्मविभ्नकरः ।»

अथं- जिसके ष्न्द्रमा दशमभाव मेँ हो तो मनुष्य विद्यावान्‌ होता है । यदिं इस भाव के चन्द्रमा के साय पापप्रह होतो सत्ताईसव वर्ष मे मनुष्य विधवास्री के साथ रमण करता है अतएव जनता के लोग इसके साथ विरोध करते है । यह महान्‌ मतिमान्‌ होता है । यद सत्कर्म परायण, यशस्वी, ओर दया होता दहै । यदि भावेश बल्वान्‌ हो तो इख मनुप्य को अच्छे कामों मे व्रिरोषर सफलता मिलती है । यदि भावेरा पर पापग्रह की दृष्ट हो, अथवा पाप- ग्रह साथमे होतो मनुष्य बुरे कामों के करनेवाला होता है । इसके कामों मे विध्न पड़ते दै–रुकावर आती रै । | |

यवनमत– यह पित्रभक्त ओर कुटम्बवत्सरु होता. है। थह धनी, विद्धान्‌ , चतुर, संतोप्री ओर शान्त होता है ।

पाश्चात्यमत– मनुष्य को विजय ओौर सम्पत्ति प्रास्त होती है । ऊँचे घराने

की लियो से जभ होता है । लोकोपयोगी वस्तुओं के व्यापार से लभ होता है । खोकप्रिय होता है । यदि चन्द्र नीषरारिमें होतो अपमान भौर अपकीरतिं होती दहै । स्थिरराशि के चन्द्र मे स्वभावहद्‌ होता है। द्विस्वभाव राशिमें चन्द्र हो तो अस्पभाग्य होता है । चरराशि में चन्द्र हो तो व्यापार मे अस्थिरता होती दे । मंगल की युति मे भारी नुकसान होता है। शनि की युति में चन्द्र हो तो व्यवसाय मे कठिनाद्यौ भाती रै ।

विचार ओर अनुभव–दशमभाव स्थित चन्द्रमा, यदि मेष, कर्क, तुला वामकर रा्िर्मेहोतो बचपनमे दी माता-प्तिका वियोग होता है| इस भाव के चन्द्र से चुनाव मे यद्य मिक्ता है । नेत्र प्राप्त होता है।

रष; कन्या वा वृश्चिक में चन्द्रहोतो पिता का कर्जा इस मनुष्य को देना होता हे । :८ वैँ वधर में कुछ स्थिरता प्रास होती है । |

मेषः ककं वा मकर में चन्द्रहोतो आयु भर स्थिरता बहुत कम मिरती है । नोकरी मं हमेशा परिवर्तन होते रहते है |

वृश्चिक रारि को छोड़ कर भन्य किसी राशिमें चन्द्रहोतो माता-पिता कासुखनष्ट होतादहे। यदि इन दोनों में कोद एक जीवित रहे तो परस्पर अच्छे सम्बन्ध नहीं रह खकते ।

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५२८ च मत्कारचिन्तामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

एकाद इाभावरस्थित चन्द्रफछ– ^ल्मेद्‌ भूमिपार्दिदुना लामगेन प्रतिष्ठाधिकाराम्बराणि क्रमेण| श्रियोऽथच्रियोऽन्तःपुरे विश्रमन्ति क्रिया वेकृती कन्यका वस्तुलाभः ॥१९॥ अन्वयः- खाभगेन इन्दुना भूमिपात्‌ करमेण प्रतिष्ठधिकाराम्ब्राणि र्मेद्‌ । अथ ( तस्य ) अन्तःपुरे श्रियः खियः (च) विश्चमन्ति। ( तस्य) क्रिया वैकृती जायते कन्यका ( उत्पद्यते ), वस्व॒लामः ( भवति ) । सं<~-टी<–लभगेन एकादशस्थेन इन्दुना चन्द्रेण मूमिपात्‌ राज्ञः सका- दात्‌ क्रमेण प्रतिष्ठाधिकाराम्बराणि मान्यताऽध्यक्षत्वं वश्राणि च ल्मेत्‌ । अथ अन्तःपुरे हमध्ये श्रियः धनानि लिः वनिता । च विश्रमन्ति स्थिरा भवन्ति । तथा. वस्तुभ्यः नानापदार्थभ्यः लमः, क्रिययावेकृेती करूरा कन्यका च भवेत्‌ इतिरोषः ॥ ११ ॥ अ्थ- जिस मनुष्य के जन्मसमय में जन्मन से एकादशभाव मे चन्द्रमा होतो इसे क्रमशः राजद्वार से प्रतिष्ठा-अधिकार ओर बह्भुमूल्यवान्‌ वचख्र का टाम होता दै। इसवेः अन्तःपुर ८ हम्य॑सराय-जनानामहल ) भे लक्ष्मी ओर उत्तम च्ियोँ निवासत करती है । इसके किए हुए काम विगड़ जाते हं । अर्थात्‌ . इसका किया दभा उद्यम अओौर यल ॒विफर रहता हे । इपे कन्या सन्तति होती है । इसे नानाप्रकार के पदार्थो के व्यापारसे टाम होता हे। रिप्पणी- संस्कृतटीकाकार ने शक्रिया वैकृती कौ कन्याका विशोषण माना है ओर “ूराकन्या” एेसा अथं क्रिया । संसकृतटीकाकार के मत मे कुरत करनेवाटी ( अर्थात्‌ ्रटाचारा कन्या पेदा होती है” । एेसा सुचित अर्थरै। किन्त यदह अर्थं सुसंगत नहीं है । विक्रेत शब्द्‌ कास्त्री लिङ्ग शब्द्‌ “वैक्रतीः दै । इसका विगड़ जाना-विगाड़ पड़ जान।’ ) अर्थं सुसंगत है । लक्ष्मी को च॑ष्ट भौर चपला माना दै कव्ोकि यह एकत्र स्थिर नहीं रहती । अथात्‌ ख्स्मी का कृपापाच्र मनुष्य जीवन मे सदेव एक-सा नहीं रहता- इसकी सम्पत्ति मे उतार-चटाव होते रहते हं । परन्ठ॒एकाद्दस्थ चन्द्रमा के प्रभाव मे उत्पन्न मनुष्य क धर पर लक्ष्मी प्थिर होकर रहती हे । अर्थात्‌ इसका ऊँचा भाग्य सदा ऊँचा ही रहता दै । उदाहरणम इसक्ः धर मं विवाहित होकर आई हई सुन्दरी च्िरयो भी इसके अतिशय रूपयौवन प्र मुग्धा होकर अनन्यमनस्का पतिपरायण होती हई सारा जीवन व्यतीत करती दै “आनन्द भोगती हैः | ू ८सती च योषित्‌ प्रकृतिश्च निश्चला पुर्मा समभ्येति भवान्तरेष्वपि | रेखा नीतिशाख्र ववचन इस सन्दभं में उपादेय है। “तुलना-तमीमर्ता ल्मे भवति जनने यस्यसवल- स्तदा प्रथ्वीभर्तुः प्रभवति धनानामधिङ्तिः। धियः भ्रेणीवाला स्सति सदनान्तः प्रमुदिता ; | प्रतिष्ठा काष्ठान्तं व्रजतिविथ्ुता भूपतिकता ॥* जीवनाय

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चन्द्रफल १२९

अथे- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे बली चन्द्रमा एकाद्शभावमेंदहोतो वहे मनुष्य राजा का धनाध्यश्च ( खजानची ) ( टरैजरी आफिखर ) होता हे । इसके घर में प्रमुदिता ( प्रसन्नमनाः) लक्ष्मी तथा सुन्दरी सी निवास करती हे। इसकी प्रतिष्ठा ८ कीर्तिं) दिगन्तव्यापिनी होती है) ओर इसे राजाः द्रारा प्रसत्व पाप्तहोता हे । रिप्पणी– इस टेक मे प्रसुदिताः विशोषण विदोप महच्च कां है। खक्ष्मी का रुणढ्न्धा होकर स्वयमेव अपनी चंचलख्ता छोड़कर स्थिर हो जाना-एका- दशस्थ चन्द्रका विदोष शुभ फलहे: इसी प्रकार मनोरमाग्रहिणी का प्रसन्नता से “विना किसी निरोध आओौर दवाव के मनुष्य कै नम्रव्यवहार-सदाष्वार्‌ तथा रू-सोटर्यं पर मुग्ध हो कर पतिपरायणा तथा अनन्यमनस्का होकर स्थिरता से रहना गृहस्थ जीवन मे एक विदोषं महत्व रखता है ¦ यह दुभफर एकादच- भावस्थित चन्द्रमा कांदहे। “लाम चन्द्रे लाभयुक्तः प्रगल्भः सुभगो नरः) खमागगामी लजाः प्रतापी भाग्यवान्‌ भ्वेत्‌ || ल्गल्मीनाय अथं–यदि जन्मल्न से एकादशस्थान मे चन्द्रमा होतो मनुष्य को लाम होता रहता है | यह मनुष्य बोल्ने मे नभय तथा चतुर होता है । यह सुन्दर, श्रेष्ट मागं पर चलनेवाला, व्जारील, प्रतापी ओर भाग्यवान्‌ होता ह । मित्राथयुक्‌ कीर्तिगुणेख्पेतो मोगी सुयानो भवभावगेन्दौः |> जरदेद अथ-यदि चन्द्रमा जन्मल्यसे एकाददभावमे होतो मनुष्य मितोँसे जौर धन से युक्त होता है । यह यदासी आर गुणी होता है । इसे कई प्रकार के भोग भोगने को प्राप्त होते दहं। इसके पास सवारीके लिए सुन्दर-सुन्दर वाहन-घोड़।-गाडी-मोटर आदि होते है| “ख्यातो मावगुणान्ितो भवगते | आचावंतरराहमिहिर अ्थ–यदि एकादशमाव से चन्द्रमादहोतो मनुष्य सर्वत्र प्रसिद्ध होता है ओर इसे सभी तरह का लाम प्राप्त होता है। सन्तुष्टश्च विषादशीक धनिको लकाभस्थिते शीतगौ |” अथे–यदि चन्द्र खाभमावसेदहोतो मनुष्य यथालाय सन्तुष्टं रहनेवाला होता है । यह विषादखीर ौर धनिक होता है। °ध्मृनस्वी वद्वायुः धन-तनय-भृत्य सह भवे | मत्रे्सर अर्थ-एकादशभाव मे चन्दर हो तो मनुष्य मनस्वी, दीर्घायु, धनी अर पुत्रवान्‌ होता है । इसे नौकर का भी सुख प्राप्त होता है | ““सम्मान नानाविधवाहनातिः कौर्तिंश्च सद्‌भोगरुणोपठन्धिः । प्रसन्नता खम विराजमाने ताराधिराजे मनुजस्य नूनम्‌ ॥ सहेत अथे–एकादशभाव मे चन्द्रमा हो तो मनुष्य को आदरमान भौर कद प्रकार के वाहन-घोड़ा-गाडी-मोर आदि प्राप्त होते दै । यह यशस्वी ओौर

१३० चमस्कारचिन्तामाण का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

कीर्तिमान्‌ होता है । यह गुणी ओर उत्तम-उत्तम भोगों का भोक्ता होता है । यह सदेव प्रसन्नमूतिं रहता हे । ‘ध्वनाधिपश्च खूवर सखी सुबुद्धि पुगरः। रिरीसखुन्‌ विदूषको भवेद्‌ यदा कमभवे | खानखाना अ्थ–यदि चन्द्रमा जन्मल्म्र से एकादश हो तो मनुष्य धनाल्य, विदोष सुन्दर, दाता, बुद्धिमान्‌ मधुरभाषी ओर निर्दोषिकाम करनेवाला होता है । सम्मान नानाधनवाहनास्तिः कीर्तिश्च सद्‌मोगगुणो पन्धिः । प्रसन्नता लाभ विराजमाने ताराधिराजे मनुजस्य नूनम्‌ ॥ > दंडिराज अर्थ-एकाटशस्थ चन्द्रमा हो तो मनुष्य को श्रष्ट-आस्तजनों से आदर यौर मान प्राप्त होता है। इसके पास कड प्रकार की सवारिोँ-घोडा-गाड़ी-मोरर आदि वाहन रहत ईह । अर्थात्‌ इसे वाहनखुख मिलता दै । यह यदास्वी, गुणी अओौर उत्तम-उत्तम भोगों के उपभोग ठेनेवाला होता दै । यह सदैव प्रसन्न रहने वाला प्राणी होता हे । | (शवनवान्‌ बहूसुतभागी बद्रायुः सिष्ट॒अत्यवर्गश्च । इन्दौ भवेत्‌ मनस्वी तीक्ष्णः द्यूरः प्रकाशश्च | कल्ाणवर्मा अथे–यदि चन्द्रमा एकादशभावमें हो तो मनुष्य धनवान्‌ होता है। इसे बहूत से पुत्रों के होने का सोभाग्य मिता है । यह दीर्घायु, उत्तम मित्रों से युक्त, ओर नौकरोवाला होता हं । यह मनस्वी, तेजस्वी शूर ओर विख्यात्‌ होता है । “वहुतर धनभोगी चाय सस्थे शशांके प्रचुरसुखसमेतः दारभ्रव्यादियुक्तः । शिनि शारीरे नीषचपापारिगेहे न भवति सुखभागी -व्याधितोमूट्चेताः ॥|2 ॥ ध मानसाभर अथं-जिस मनुष्य के जन्मल्य् से चन्द्रमा एकादशस्थानमे हो तो इसे कई प्रकारसे धन की प्रापि होती है-ओौर धनोपल्न्ध खखों का मोग प्रास्त होता दै | यह स्री-पुत्र-भृत्य आदि से युक्त होता है अतः सवथा सुखी होता है । यदि एकादराभावस्थित चन्द्रमा दीनवबटी हों, नीचरारि मं, पापग्रह की रारि म तथा श्रुग्रहकी रारिमं हदो तो मनुष्य खखौंसे वंचित रहता है । यह रोगी, मूर्खं ओर अन्ञानी होता हे । ‘भवेन्‌ मानयुक्तो धनैः वाहनैः वा तथा वल््रूप्यादि कन्याप्रना स्यात्‌ । टटा तस्यकीर्तिः भवेद्‌ रोगयोगो यदा चन्द्रमा लाभमावे प्रयातः जागेश्वर अथ–यदि चन्द्रमा एकादशमाव मे हो तो मनुष्य को मान, धन, वाहन, व्र ओर चँदी आदि मूल्यवाच्‌ धातं प्राप्त होतेर्दै। इसे कन्यार्णै अधिक होती हँ । इसकी कीतिं स्थिर रहती है । अर्थात्‌ यह मनुष्य इष्टापूर्तं के इ॒भकर्म करता है भौर प्रजादित के काम करता है जिससे प्रजा के लोग इसका गुणगान करते दै । इस तरह इसका यद्य टिकाऊ होता है । इसे कोई रोगभी होता है।

चन्द्रफकु १३१

“धिख्यातो गुणान्‌ प्राज्ञो भोग लक्ष्मी समन्वितः । लाभस्थानगते चन्द्रे गौरो मानववत्सखः ॥, आचायंगगं

अथे–यदि चन्द्रमा लभस्थान ( एकादशस्थान ) में दो तो मनुष्य परसिद्ध, गुणी, प्राज्ञ, धनी ओौर कद प्रकार के भोगों का भोक्ता होता है । यह गौरवं ओर जनप्रिय होता है । अर्थात्‌ यदह मनुभ्यजाति से प्यार करता है ओौर इसे लाम प्हुचाता है ।

भृगुसूत्र-““बहुश्चुतवान्‌ । पुत्रवान्‌ । उपकारी । पंचाशदृवषे पुत्रण बहु प्रावस्य योगः । गुणाल्यः । भावाधिपे बलहीने बहुधनन्ययः । बल्युते खभवान्‌ । लामे चन्द्रे निक्षेप काभः । श्ुक्रयुतेन नरवाहन योगः । बहू वियवान्‌ । क्षेत्रवान्‌ । अनेक जन रक्षण भाग्यवान्‌ । |

अथे–यदि एकादशभाव मे चन्द्रमा हो तो मनुष्य बहुश्चत होता दै । अर्थात्‌ इस मनुष्य को श्रवण द्वारा बहुत से शास्र का ज्ञान होता दै। ज्ञान प्राति के किए मुख्यसाधन तीन ईै–श्रवण-मनन ओर निदिध्यासन । शाख बहुत है समी का समध्ययन गुरमुख से नदीं हो सकता है श्रवण करने से मनुष्यं . बहुत से रास्नां का ज्ञाता हो सकता है-भतः श्रवण साधन को प्राथमिकता ओर मुख्यता दी गई है ।

इसे पुत्र संतति होती है । यह मनुष्य दृसरों पर॒ उपकार करनेवाला होता है । पचास वषे की आयु मे इसे पु्र-प्राति होती ईै-जिससे यदह पितरों के ण से मुक्तिपाल्ेताहै। यह बहूुगुणी होता है। यदि भावेश नि्ैलदहोतो धन का खर्वं बहुत बद्‌ जाता है। भावेश बल्वान्‌ होतो इसे खभ होता दहै। खभभावमे चन्द्रमाके होने से प्रथ्वौ में गाड़ी हुईै-द्ुपी हई वस्तुं का लभदहोतादहै। भूमिके अन्दर गुप्त रखे हूए स्पए-हीरे, मोती, जवाहरात की प्रापि होती है । इस भाव के चन्द्रके साथ यदिश्ुक्रकी युति द्यो तो मनुष्य को पालकी आदि सवारी का सुख मिक्ता ह । यइ मनुष्य बहुत-सी विद्याथों काज्ञाता होता हे । यह खेती-बाड़ी का स्वामी होता है। यह बहुत से लोगों का पालन करनेवाखा होता है। धनान्य खोग भकाल्पीडित लोगों की र्चा धनदान से, अन्नदान से, यददान से, आश्रयदान से करते है इस तरह इन्दे बहुखोकजनरक्षक होने का सौभाग्य प्रास्त होता है। |

यवनमत–यद धनवान्‌ ; रूपवान्‌ ; उदारित्त, निर्दोष ौर मधुर बोकने वाला होता है । | पि

पथिममत–इसे मित्र बहूत प्रास्त होते है । लोकप्रिय होता है । संसार सुख अच्छा मिख्ता है । सार्वजनिक संस्था में यह नेता होता है।

विचार ओर अनुभव-एकादश्भावस्थित चन्द्रमा कं फट सभी म्न्थ- कारोंने प्रायः श्चुम बतल्ए है केकर जागेश्वर ने भ्रोगबाधाः अञ्यभ फ भी बतलाया है । अच्छे फट पुरषराशिथों मेँ भौर अद्भफकस्री राधियों के है ।

१३२ चमर्कारचिन्तामणि का तुरखुनादमक स्वाध्याय

एकादश षवन्द्र में दिन को -जन्म हो तो मनुष्य धनी, यरास्वी, खोकरंजकः सार्वजनिक कायकुरल होता दे |

स्वीरारि में हो तो मनष्य सार्वजनिक काम भी करता रहता है ओौर पहिला व्यवसाय भी चादू रहता इई ।

पुरष्रररि में हो तो मनुष्य पिदा व्यवसाय छोड देता दै ओर सावंजनिक कार्य करता हे।

एकादशस्य चन्द्रसे पुच्र-भाई वा बहिन, इनमंसे कोई एक चासदाता, दुराचारी वा निरुपयोगी होता दहै । अथवा किसी व्यंग के कारण उते सारा जीवनं घरमे ही व्यतीत करना पडता है । एकादश चन्द्र हो तो संतति-भाई-बहिने बहुत नही हाती; अधिक से अधिक संख्या चार्पोच तक होती हे । दाद्‌ दाभावस्थित चन्द्रफल-

“दाशी द्वादरो शात्रुने्ादिविता वि्चिव्या सदा सदृव्ययो मंगलेन ।

पितृव्यादि माच्रादितोऽन्तर्विषादो न चाप्नोति कामं प्रियाद्पप्रियत्वम्‌? ५२॥

अन्वयः-शशी द्वादरो ( स्यात्‌ ) ( तदा ) शरुनेत्रादि चिता विचिन्त्या, ( तस्य ) सदा मंगलेन सदूव्ययः स्थात्‌, पिव्रव्यादि माच्रादितः अन्तः विषादः ( ज्ञेयः ) प्रियाऽस्पप्रियत्वं ( स्यात्‌ ) कामं नच आप्नोति ॥ १२॥

सं–टी<-द्रादशे शशी चेत्‌ शत्रुतोभयं, नेत्रादेः विकारेण चिन्ता विचविव्या ज्ञेया । मगटेन विवाहादि कार्येण खटा दशत्यरयः रोभने कुटम्बादो द्रव्यत्वागः, पितव्यादरि मात्रादितः पित्रव्यस्य पिव्रश्राठु अदि शब्दात्‌ तत्सुतवनतादिम्यः, ` मातुः सकाशात्‌ आदि शब्दात्‌ तत्‌ पित्रूकुल्जभ्यः च अंतः मनसि विषादः दुःखं, प्रियाऽस्पप्रियत्वं सवत्पसं तोषत्वं तेषां तेषु विरागित्वं भवेत्‌ इतिरोषः च पुनः मनोऽभिक्षितं न प्राप्नोति इत्यथः ॥ १२ ॥ -

अर्थ जिस मनुष्य के जन्मलग्न से द्वादशस्थान में चन्द्रमा दहो तो उसे रात्रं से भय भौर नेचरादि के विकार से पीड़ा रहती हे । यह मगल्कार्यो में अर्थात्‌ विवाह आदि श्च॒म कामों मेँ जपने धन का खच करता हे | इस तरह यह मनुष्य सदूव्ययी होता हे । |

इसका मन चाषा व्यादि मामा यादि से मलिनि रहता हे । अर्थात्‌ पिता के भाई से ओर पिव्रष्यके पुत्र ओौर स्त्रीसे इसका प्रेम नदीं होता दे अपितु परस्पर वैमनस्य रहता है । इसी तरह माता से ओौरमाताकेपिताके कुरमें उन्न मामा आदि से मी मनमुटाव रहता है । स्वयां से इसका विदोप प्रेम नहीं होता हे । प्रायः इसके मनोरथ पूणं नहीं होते ॥ ६२॥

रिप्पणी–रीकाकार ने “शोभने कुडम्बादौ द्रव्यव्यागः यह अ५ सद्‌व्ययो मंगलेन का करिया दहै। किन्तु यह अथं संकुचित है, व्यापक नहीं हे । मंगर्मय विवाहादि पर अर अपने कुटुम्बियोँ के भरण-पोघ्रण पर व्यय करना ही सद्व्यय नदीं रै, इसके अतिरिक्त इषटपूतं पर खन्वं करना, अथात्‌ कँआ-वावली-तालाज

चन्द्रफर १३३

धर्मशाला-मन्दिरनिर्माण आदि पर खचं करना भी सदव्यय है । विद्यादान के किए स्कूल खोलना, कालिज खोरूना, गरी को रोदी-रोजगार देने के किण दस्तकासी के काम चलाना आदि मी सदव्यय मेँ अन्तभूत होते ई । एेसा धनन्यय जो प्रजाहित के छिरः किया जावे, सदृन्यय ही मानना दोगा । अतः (सदृम्ययः° का व्यापक अथं करना चाहिए । | दीकाकार के मत मे “पियाऽस्पप्रियत्वेः का ‘स्वत्परुतोषत्वः (तेषु विरागित्वंः एेखा अर्थं है । यह अर्धं कुछ संतोषजनक नहीं है । अपनी प्रिया मं अपनी पल्नीमं थोड़ाप्रेम१ क्योक्या इसका कारण रोगवदया दे हदौर्व॑स्य दै १ अथवा वीर्यारपल, पुस्त्वह्यास दै, अथवा ` षंडत्व है १ टीकराकार ने इन बातों पर को विवार प्रकर नदीं कियारै। संभव है इनमें से को$ एक कारण हो जिससे मनुष्य गाटाद्िगनादि न करता हो, रतिसंग में सघ वीर्खपात होने से भिया को सन्तुष्टन कर सक्ता ददो भौर इसीदटिए प्रिया काप्यारान दहो, ओौर इसकी प्रिया इस अतध्णासे देखतीदहो। प्रियायाः अत्पपियत्वम्‌? प्रियायां अस्पप्रियत्दः “प्रियासु अस्पगप्रियलेः एेसे कड एक समास हो सकते है । तुखना- “व्ययस्थाने याते जनुषि रजनौशे अनिमतां रिपोर्मीतिधिंत्यनयनयुगञे रोगपयी । विधित्या यज्ञादौ व्ययष्वयं उतातं पिवरकुरात्‌ तथा मातुर्व्ात्‌ प्रभवति विषादश्च सुतात्‌ ॥ भीववाथ अर्थ–जिस मनुष्य के जन्मसखमय मे जन्मलग्न से चन्द्रमा व्ययभाव में (दवादशस्थान मे) हो तो इसे शच्रुभय, चिन्ता, नेत्र मे अनेक प्रकार के रोग, यज्ञादि कार्यो में अधिक व्यय, पिन्रकुर, मावर से व्याकुलता ओौर रति (स्ती- सहवास अौर स्त्रीसंग ) से खेद प्रास्त होता है । रिष्पणी-यज्ञादि कार्यो मे अधिक व्यय उचित भमी दहै आौर सद्ब्यय की कोटिमेंदै। नि ‘रति से खेदः का दोना श्ृङ्खारशाख्र के अनुकर नही है । शृज्ञाररस के अनभवी सद्दय विषयानन्द को ब्रह्मानन्द सहोदर मानते ह । जो छोग शक्तिशाली नदय होते वीर्यवान्‌ यौर रतियोग विष्वक्षण नहीं होते उन्है रति से मानसिक तथा दैहिक खेद ओर विष्राद होना आवद्यक है ओौर इन वीर्यंहीन पुरुषों को तो प्रौटास््री भीति कारक होती दहै। ““्यये चन्द्रे पापबुद्धिः बहूभक्षी पराजितः । कुलाधमो मय्यपश्च विकारी जातको भवेत्‌, ॥ काशौनाथ अर्थ– जिसके जन्मरुन से द्वादशस्थान मे चन्द्रमादहोतो मनुष्य पाप करने मे अपनी क्छ ल्ड़ातां है । इसे भूख बहुत होती है ओौर यह भोजन भह होता है । यदह अपने शत्रुओं से पराजित होता है। यह अपने कुल में नीचब्ृ्ति-मनुष्य होता है । यह शराब पीनेवाखा अतएव रोगी होता है ।

१३४७ चमत्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

^स्हिस््ोदीनः सरिपुः सुप्सु वेषम्यज्त्‌ स्वत्पटग्‌ इन्दुरिः फे ॥ जयदेव अथै–यदि चन्द्रमा द्वादशमभावगत दो तो मनुष्य जीवदिसक ओर ऋरूर होता है । इसे शत्रुओं से भव रहता है । अपने मित्रों से इसका व्यवहार आओौर बरताव अच्छा नहीं होता है । यह थोड़ी नजुरवाला होता हे । “व्यये द्ेष्यो दुःखी शिनि परिभूतोऽल्सतमः ॥* संतरेश्वर अर्थ- व्ययभाव में चन्द्रमा हो तो इस मनुष्य से छोग द्वेष करते ई । यह दुःखी, आलसी तथा अपमानित होता दै | ्चन्दरेऽत्य जातेतुविदे रशवासी ॥?’ वैद्यनाथ अथे–यदि चन्द्रमा द्वादश हो तो मनुष्य विदेश मेँ निवास करता है | “टीनत्वं वै चाख्यीठेन मित्रे कव्यं स्यात्‌ नेत्रयोः राच्रुबद्धिः । रोषावेशः पूरषाणां विरोषात्‌ पीयूषांौ द्वादरो वेदमनीह ॥* । दुंडिराज अर्थ–जिसके द्वादशस्थान मे चन्द्रमा हो तो मन॒ष्य सचरितव्रवान्‌ नहीं होता है । यह मित्रहीन, नेत्ररोगी तथा शतुबरद्धिवाख होता दै। यह सदा क्रोधावेदा में रहता हे । “्रेष्यः पतितः क्षुद्रोनयनसगातोऽखुसोभवेद्‌ विकलः न्द्रे तथान्यजातो द्वादरागे नित्यपरिभूतः ॥ कल्याणवर्मा अर्थ- जिसके द्रादशमाव मेँ चन्द्रमा हो तो मनुष्य पतित, क्षुद्र, नेजयेग पीडित तथा आच्छी होतादहै। यह व्याकुल रहताहे। खोग इससे देष करते ई । यदह ॒प्रजात ( जारजात ) होता है। यह समाज मे अपमानित होता दै । ८व्ययनिलयनिवेरोरात्रिनायेक्रशांगः सततमिह स रोगी करोधनोनि्ध॑नश्च । निजवुधगुशगेहे दांतिकः त्यागशीला कशतनु खुखभोगी नीचसंगौ सदेव ||” मानसागर अर्थ- जिस मनुष्य के जन्मख्न से द्वादशस्थान मेँ च्वन्द्रमा हो तो यह श ओर दुर्य शरीर होता दै । यह रोगी-कोधी ओर निधन दोता है । यदि दसमात का चन्द्रमा स्वण्दी दो, अथवा बुधवा गुरु कौ राशिमंदोतो मनष्य दान्तिक ८ इन्द्रियदमन कृरनेवाखा ) दानी; पतला ( छरहरा ) शरीर सौर युख॒भोगनेवाला होता है । किन्तु यह सदेव नीचदृत्तिवारे मनुष्यों कौ संगति में रहनेवाटा होता है । | ८वियोगी सदा ष्वार्शीलेनित्रेः भवेद्‌ वैकटो नेत्ररोगी कइशांगः । स्वथं क्षीणवीरयः सदाक्चीण चन्द्रे भवेद्‌ रिःफगे पूणता चेत्‌ सुश्ीकः जागेश्वर अर्थै–यदि चन्द्रमा द्वादशस्थान मे होतो पतिपली म अकारणदही करनार वियोग होता है । इसका शील सच्छा होता है। इसके मित्र बहुत

‘चन्द्रफड . १३२५५

नहीं होते । यद व्याकुल रहता है । इसे नेव-पीडा रहती है । इसका शरीर क्षीण ओौर पतला होता दै । इस भाव का चन्द्र यदि दीनवखी हो तो मनुष्य

का वीये कमजोर होता है। चन्द्रमा पूण (बली) दोतो मनुष्य का आचरण अच्छा होता है ।

“काणं शारी 112 ` वादरायण

  • 9 [३ । मख ््‌ अथं- द्वादश चन्द्र हो तो मनुष्य एक ओंँख से काणा होता है । “व्यये दादिनि कापंण्यमविश्वासः पदे पदे ।।> अचार्यगगं

अ्थे- चन्द्रमा द्वादशमावमें दो तो मनुष्य कृपण ( कंजस ) होता दै । लोग इसपर विश्वास नदीं करते ओर इसे सदैव मदेह-टण्टि से देखते है ।

“्रग्यक्षयं क्षुधाऽसव्पव्वं नेचरुक्‌कलदहोग्हे ।। ज्योतिषकल्पतरू

अथं- जिसके ष्वन्द्रमा द्वादशस्थानमे होतो मनष्यके धन काना होता दै। इसे मंदाम्नि रहतौ है ओौर भूख कम होती है । इसे नेत्ररोग होते

. है । इसके धर मे लडाडई-्गड़ा होता रहता है ।

श्गुसूत्र–““दुभोजनः । दुष्पा्व्ययः । कोपोद्‌भवव्यसनसमृद्धिमान्‌ । यन्न- हीनः । श्भयुते विद्वान्‌ । दयावान्‌ । पापशत्नुयुतेपापरोकः । दुभमिनयुते ्े्लोकवान्‌ । अर्थ- जिस मनुष्य के जन्मलग्न से द्वादशस्थान मे चन्द्रमा होतो मत्य को अच्छा भोजन नहीं मिरूता है । यह मनुष्य करुपा् के लिए धन का व्यय करता है । इस तरह असद्व्ययी होता है । कोध-कलद आर व्यसनों की वटो्री होती है । इसके घर मे खाने के टछिए अन्न नदीं होता ₹ै। य॒दि इस- भाव का चन्द्र श्चुभ सम्बन्ध में हो तो मनुष्य विद्वान्‌ ओर दयाङ होता है। इस भाव के ष्वन्द्रमा का सम्बन्ध यदि पापग्रह के साथ अथवा शात्नुग्रह के साथ दहो तो मनुष्य मृत्यु के अनन्तर नरकगामी होता है । इस भाव के चन्द्रमा के साथ यदि श्युमग्रहवा मिवग्रह का सम्बन्ध दो तो मनुष्य देहावसान के बाद्‌ स्वर्गलोकगामी होता हे । टिप्पणी–ज्योतिश्याल् से केवल संसारम जीवनयात्रा काही विचार. नदीं किया जाता है अपितु मरणानन्तर स्वगं-नरक का विवार मी किथा जाता हे । स्मरण रहे दादरास्थान को मोक्षस्थान माना गया है]. ““हीनत्वं वै चारुशीलेन मित्रैः वैकव्ये स्थान्नेत्रयोः शनुबदधिः । रोषावेशः परुषाणां विशेषात्‌ पीयूषांो द्वादरोवेदमनीदह ॥ > महेशा अथे- जिसके जन्मल्य से द्वादशस्थान में चन्द्रमा दो तो मनुष्य श्चुमाचरण- हीन द्योता है। इसके मित्र अच्छे नहीं होते ै। इसे नेजपीड़ा रहती है । इसके रात्रुओं की द्धि होती है । यह मनुष्य विरोषतः क्रोधावेश में रहता है अथात्‌ यह मनुष्य बहुत क्रोधी होता है । ““उययाल्ये कमर्थदा मवेत्‌ किरी ह चरमखन्‌ । विरोधनश्च खिद्मनाप्यकीर्तिमान्‌ हि उष्रधः॥ खानखाना

१३६ चमरकारचिन्तामेणि का तुख्नात्मक स्वाध्याय

अर्थ- यदि चन्द्रमा जन्मलग्न से द्वादश्स्थान मंदहोतो इसे नेत्ररोग होते है । लोगों से इसका विरोध रहता है । यह अपने धन का अपरभ्यय करता हे। यह निन्दित कर्मं करता है अतः खोग इसकी निन्दा करते दै । यह दु्टस्वभाव वाला मनुष्य होता हे।

यवनसत–इसे नेत्ररोग होते हँ ! वह विरोधप्रिव, बहुत ख्चला, दुष्ट स्वभाव का ओर कीर्तिहीन हातादै। इसे ४^वै वधम पानीसे अपघात होता है ।

पाश्चात्यमत-यह चन्द्र त्रिक वामकरमेंहो तो मनुष्य वटमार होता दे | दूसरी रारियोंमेदोतो विजयी, चुखी तथा धनी हाता हे | उभ सम्बन्ध मं यह च्होतो प्रषाससे खभ होता दहै ।

मेष का चन्द्र हो तो मनुष्यं चञ्चल्ब्रत्ति का, तुमच्छड, रूपवान्‌ ओर युद्धि मान्‌ होता हे ।

वृश्चिक वामकरयेंदहोतः धनहीन होता दहै। अन्य रारियोंमंदहो तो धनवान्‌ यर विद्वान्‌ होता ई ।

बल्वान्‌ चन्द्र से खेती से खाभहोता दहै । तथा आमरणांत सुख होता ककं ओौर मीनराि में पुत्र सन्तान बहत होती दै । उन परप्रेममी होता है।

सद्धा ओर साहस में रुचि होती है। `

राजयथोगी, ज्ञानी, मात्रिक वा शाख्न्ञ हो सकता दहै। खियोँका उपभोग अच्छा मिलता है

विचार ओर अनुभव- पायः द्वादशभावगत चन्द्रमा के फठ अश्चुम दै-ये अशमफक स्रीरारियोंँ मे अनुभव मँ आते है । पुरुषराशियोंँ मे छभफल प्राप्त होते ह।

बृषरारि मे चन्द्र दहोतोचाचाके निर्वा होकर मत्य पाने पर उसकी सम्पत्ति प्राप्त होने की सम्भावना होती हं ।

द्विभार्यायोग होता दै-अथवा पत्नी से सम्बन्ध अच्छे नहीं रहते । अथवा मनुष्य स्वयं गह प्रपञ्च करने के अयोग्य होता है ।

यदह चन्द्र ख्रीराशिमें हो, अथवा छे स्थानमं होतो मनुष्य मरण तक अपना कजं चुका नहीं सकता है ।

घषर न्द्रमा के लोग चौर व्रत्तिवाछे हो सकते दहै मतप्रव अच्छे डिरैक्टिव भीदहो सकते है|

दादश चन्द्र कन्यारारिकादहोतो पिता कर्जा छोडकर मर जाता दै ओौर यह ऋण मन्ध को देना पडता है ।

मकर का चन्द्रमा हो तो मनुष्य को बहुत धन देता दै। किन्तु मनुष्य भारी ज्पण होता हं।

कक, बृश्चिक ओौर मीन मे यह चन्द्रमा हो तो सरकारी नौकर को पेन्शन बहुत दिनों तक नहीं मिल्ती ह |

भोमफर १३२३७

मिथन, वला ओर बुम्भ में चन्द्र दो तो बरताव व्यवस्थित होता है । रपः का सदुपयोग रोता है । मनुष्य विद्वान्‌ तो दोता है किन्तु प्रभावशाली नीं होत है गण. अथ भौमस्य लम्रादि द्ादशभाव फर्म धविलग्ने कुजे दण्डलोहाभ्निभोतिस्तपेन्‌ मानसं केसरी किं द्वितीयः । कलत्रादिधातः दिरोनेन्रषीडा विपाकेफलानां सदेवोपसगेः” ॥ १॥ अन्वयः–कुजे विलये ( स्थिते ) दण्डलोदहाधनिमीतिः ( स्यात्‌ ) ( तस्य ) मानसं तपेत्‌, कल्नादिघातः, शिरोने्रपीडा; फलानांविपाके सदा एव उपसगंः (स्यात्‌) (खष्) किं द्वितीयः केसरी स्यात्‌ ॥ १॥ . सं° दी०-अथ भौमस्य तन्वादि भाव फलम्‌–कुजे-इति-विलप्रे जे भोमे सति दण्डल्योहामिभीतिः, कलत्रादिषातः, ख्रीपुत्रनाशः, शिरोनेत्रपीड़ा; फलानां कार्यसिद्धिः पाके परिणामे सदैव प्रतिकाय उपसर्गः विघ्नः भवेत्‌ इति अग्रेण अन्वयः, अतएव मानसं तपेत्‌ तथापि द्वितीयः केसरी किम्‌, सिंहवद्‌ उद्यमी स्यादितिभावः ॥ २ ॥ अथे–यदि किसी जातक के जन्मल्य में मङ्गल हो तो उसे लाटी, लोहा ( हथकड़ी ) ओर अभ्रि से भय होता दै। उसको मानस संताप होता है। उसकी खरी आदि प्रियवन्धुभं का नाश अर्थात्‌ मृदु होती है–उसे शिर सौर नेत्रपीडा द्योती है। फल विपाक मे अर्थात्‌ कायंतिद्धि के समय सदा विन्न पड़ जाते ईै-अर्थात्‌ कार्यसिद्धि नदीं होती । यदह जातकं उद्यमतथा साहसम दूसरा सिहदहीक्योंनदहो तोमी क्ष्टही पाता है अथात्‌ भसफल मनोरथ दी रहता दै ॥ १॥ तुखूनाः–“्धरापुत्रे ल्पे गतवति यदा जन्मसमये प्रहारो लौहास्राद नठ्शरदण्डादपि भयम्‌ ॥ विना्योभार्यायाः शिरसि नयनेरोगपरली मरतापस्तस्यापि प्रभवति मगेद्रेण च स्मः॥. जीवनाय अभै– यदि जन्मल्म्में मङ्गल हो तो जातक के ऊपर छौहाख्र का प्रहार होता है । उसे च्चि-बाण-खटासे भी प्रहारकामयहोताहे। खरीक मृच्यु होती है । शिरपीड़ा तथा नेतरा मेरोग दाता है, किन्तु जातक धिह के समान पराक्रमी होता है । धमौमे लने कुरूपश्च रोगी बन्धु विवजितः । असत्यवादी निद्र॑व्यो जायते परदारकः |” काश्षिनाय अथे- मङ्गल ल्म्रमे पडा हो तो जातक कुरूपः रोगी, बन्धुहीन, मिथ्या भाषी, धनदहीन तथा परल्लीगामी होता दै । (अति मति भ्रमतां च केवरं क्षतयुतं बहुसाहसमुग्रताम्‌ ।

तनुभृतां करुते तनुसंस्थितोऽवनिसुतो गमनागमनानि ष ॥ महेश

१३८ चमत्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

अर्थ- जिस जातक के जन्मल्यमं भौम हो तो वह अत्यन्त बुद्धि विभ्रम से दुभ्खी होता दै-इसकी देहम घाव यौर तरण होतेह । यह उग्रहटवाला होता है। यह इधर-उधर भटकता ओौर घूमता-फिरता है-ए कत्र किसी स्थान मे स्थायी न रहने से इसका चित्त परेशान रहता हे | “भ्रांत धीः क्षततनुः गमागमौ साहसी च कुपितः तनौ कुजे | जयदेव अर्थ- जिस जातक के जन्मलय्र म मङ्गल पडता है वह भ्रमातसमक बुद्धि- वाखा होता है-रण मे उसका शरीर क्चत-विक्षत होता है-वह घुमक््ड होता दै- निर्भव ओर क्रोधी होता दै । “श्षततनुः अतिक्रूरः, अल्पायुः तनौ घन साहसी ॥* भन्त्रेश्वर अ्थ–यदि ल्य में मङ्गलो तो जातक अतिक्रर ओौर अतिसादसी होता हे किन्तु एेसा जातक अत्पायुदह्ोता दै ओर उसके शरीरमें ष्वोट लगती है। “लग्ने कुजे क्चततनुः 1” वराहुमि्रष्चायः । ` अ्थ-मङ्गल यदि ल्य्ममावमेदहदोतो जातक का शरीर रण में छिन-मिन्न होता हे . “क्रूरः साहसिकोऽयनोति चपलो रोगी कुजे खग्नगे ॥> वेयनाथ अथ-मङ्गलत््यमेंदोतो जातकः क्र, साहसी, घुमच्छड;, अतिष्वपर ओौर रोगी होता है । | शै “क्रः साहसनिरतः स्तन्धोऽस्पायुः स्वमानशौययुतः । „ क्षतगात्रः सुशरीरो वक्रे ल्याभ्रिते वपल: | कल्याणवर्मा अथ–मङ्गलल्यरमेंदहो तो जातक कूर; साहसी, मृटु; अस्पायु, सभि- मानी, शूर विक्षतशरीर होता है। यदि मङ्गल वक्री दहो तो सुन्दर रूपवाला होता ओर यदि व्माभित हो तो चञ्च होता है| ““अतिमति भ्रमतां च कलेवरं क्चतयुतं बवहुसाहससुग्रताम्‌ । तनुभ्तां कुरुते तनु संस्थितोऽवनिसुतो गमनागमनानि च ॥7> दुंहिराज अथे- जिसके ट्य मे मङ्धल चैटा दो तो जातक अव्यन्त मति विभ्रमवाला, चिहयुक्त देहवाल्म, हटी ओर भ्रमणखील होता है । उद्रदरनयोगी शरवे टद्यमौमे पिश्चनमतिकरशांगः पापङ्त्‌ कृष्णरूपः । भवति ष्पलचित्तो नीचसेवी कुचैटो सकल सुखविद्ीनः सर्वदा पापशीलः ॥”° मानसागर अथ–ल्खमें यदि मङ्गल्होतो वास्यावस्था मे उदरके तथा दोतिों के रोग होतेह । जातक चुराल्खोर, ऊरदेह, पापी; कृष्णवर्ण, चञ्चल, नीच सहवासी; मेटेवस्र धारण करनेवाखा, स्व॑था सुखहीन आर पापकमा होता है । “यदि भवति मिरीखो ल्यगः खिद्मनाक्स्याद्‌ खधिरप्रमव रोगैः पीडितो मुपकिसश्च ॥ सकल्जनविरोधी हासिंो लागरोना जनुषि खलं वियोगी दारपुतरमेशः ॥ खानखाना

भोमफर १३९

अर्थ-यदि मङ्गल ल्य मेदो तो जातक अ्गड़ाद््‌, रक्तविकार के रोगों से पीडित, बेकार चैठनेवाला, सबका विरोधो, शरीर से दुब॑रु मौर सख्नी-पु्ोंसे हमेदरा अलग रहनेवाखा होता है । ‘गुद्रोगी दखथं नाभौ कण्ड्‌ कुष्टादिनांकिंतः । मध्येदेदो भवेद्व्य॑गः सवाच्यो ल्ग्रगे कुजे ॥ तनुस्थानस्थितेभौमे दष्टिभिवाविरोकिते । लोहारमादि कतापीडा क्रोधोऽत्यन्तस्तनौ मवेत्‌ ॥ रक्तपीडा शिश्ुव्वे च वातरक्तं च जायते। मस्तके कंटमध्ये षच गुद्येवापि णेभवेत्‌ ॥ गगं अर्थ-गुदरोग; नामि मे खुजली वा कटु, कमरं में व्यज्ग; लोहा; पत्थर आदि से कष्ट, बहुत, क्रोधी वष्वपन में रक्तविकार, वातरोग; मस्तक में वा गुह्य भागम त्रण; ये फल मङ्गल के लप्मभावके हे। श्रगुसूत्र-देडे तरणे भवति । दटगात्रः, चौरबुभूषकः, ब्रहन्नामिः, र्त पाणिः, चरः, बल्वान्‌ › मृख॑ः, कोपवान्‌ , सभा न शौयेःः धनवाच्‌ › चापल्यवान्‌ चिच्ररोेगी, कोधी, दुर्जनः । स्वोच्चे स्वक्षेत्रे आरोग्यं, दटगाजवान्‌; राजसन्मान कीर्तिः । दीर्घायुः । पापशत्नुयुते अस्पायुः स्वस्पपुत्रवान्‌, वातद्यूलादिरोगः, दुर्मुखः । स्वोच्चे लमरक्षं धनवान्‌ › विच्यावान्‌ःनेत्र॒विल्मसवान्‌ । तत्र पापयुते पाप कषेत्रे पापटष्टियुते ने्रयेगः । | अर्थ–जन्मल्यमें मङ्गल दहो तो शरीरम तरण होता है। शरीरदट होता ई । पोर, अच्छे होने की इच्छा बाख होता है । बड़ी नामि-खार हाथ, तेजस्वी, बी, मूर्खं, क्रोधी, समा मेँ निब, धनौ चञ्चल, विचित्र रोगग्रस्त, भर दुष्ट होता है । मङ्गल उच्चकादहोवा स्वण्हीहो तो नीरोग, पुष्टदेहः राज्य मे सत्कार पानेवाला भौर यरास्वी होता है। तथा दीर्घायु होता है। पराप्रहके साथ युतिदहोवा शतुग्रह के साथ युतिदहोतो अल्पायु होता दहे। थोड़ी सन्तान, वातश्चुलादि रोग भौर सुख देखने मे खरा होता है । यदि मङ्गल मकर का दो तो धनाढ्य, विय्ावान्‌ ; नेन से पणं सुखी होता है-मङ्खल के साथ यदि पापग्रहदहो वा रातुख्दमे स्थितिहो वा पापप्रहोंकी दृष्टिहो तो जातकं नेचरयेगी होता हे । | यवनमत- त्नं से ओर अपने धमं के रोगों से भी खूब क्ञगड़ता दे । क्रोधी ओर विरोधप्रिय, करा, सख्रीदीन, पुत्रहीन, बहुत घूमनेवाला । पाश्चाव्यमत-ैर्यवान्‌, निरंकुश, साहसी, दुराग्रही, उत्कर्षं के लिए अति इच्छुक, रोभी;, वितंडावादी, उदार, क्रोधी, अतिअभिमानी । मेषः सिंह तथा धनु मे बहुत करूर अौर साहसी । मिथुन, दला तथा कुम मे, प्रवासी, भाग्यहीन । वृष, कन्या तथा मकर मे, लोभी, स्वार्थौ, दीषदवेषी, परिय, गड्‌, शरान । कर्व, बृधिक तथा मीन में नाविक; पियक्ड, चेनी; म्यभिचारी ।

१४० चमत्कारचिन्तामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

प्टविवेक- मंगर रुक्ष, उष्ण॒ तथा दाहक है । अतएव ववो को गर्भस्थ अवस्था से ही उष्णता का अनुभव होता है । चेष्वक, फोडे-फुन्सी आदि होते है । अतएव वचपन की अवस्था पर मंग का अधिकार टहै। जिस वच्चे की कुःडटी मे मंगल प्रबल हो उसेये रोग जल्दी होतेर्है। यदि मंगल दुक्छदहोतो इनसे विरोष तकलीफ नहींदहोती। च्यम मगलदहोवा नहो, कोई खास फक नहीं पड़ता ।

मेष, सिह वा धनुमें मंगक्होतो शिरमे दर्द ओर रक्तपीडा का अन- भव होता है । मिथुन; ठ, कुम मं यह अनुभव कम आता हे | कारिनाथ के फलय का अनुभव पुरुषराशियों काहे। स््रीघात आदि फक का अनुभव कक, सिंह, मीन क्रा छोड़कर अन्यराशियों मेँ आता है । मिथुन; ठट; कुम का मंगल ह तो कायसिद्धिके समय विध्न की उपस्थिति; यह फर अनुभव में आता है ।

“सिह समान पराक्रमी होना? । इस फट का अनुभव मेष, सिह, धनु-कर्कं ओर वृश्चिक मे आता है । क्रोधी, व्यसनी, तीचे पदार्थं -का प्यारा होना, आग से जना, पित्तरोगः, ये फल पुरुषरारिगत लग्नस्थ मंगल के है । “स्वधमं में ्द्धाकान होना, सुधारक मतों का पक्षपात करना? इन फटों का अनुभव मेषः सिंहः, धनु, कक, व्रधिक, एवं मीनरारि मेँ होगा । “स्वभाव की उग्रता? यह फट मषः सिह तथा धनु राशि का है | “बहुत क्रूर ओर अल्पायुः इस फल का अनुभव तव होगा जवर मंगलके साथ रवि भौर चन्द्र का सम्बन्ध द्रोगा |

अतीव बुद्धिमत्ता, भ्रमण, व्यभिचार, च्ियोंके साथ सहवास के विषयमे गम्यागम्य का विवार न करना”, इस फल का अनुभव मेष, सिह, धनु तथा मिथ॒न-ठल-कुम राशियों मे होगा। “शायर हट्ाकद्य, बहुत खून का होना, इस फठ का अनुभव मेष, शिंह तथा धनुमें होगा, कुछ कममात्रा में वष; कन्या तथा मकर में होगा ।

` व्वपन मं उद्ररोग तथा दन्तरोग का होना? यह फर पुरुषराशि का हं । ^स्तन्ध होना, स्वाभिमानी, पराक्रमी तथा सुन्दर होना” यदह फल खीरारि काहे । शुद्धि भ्रम होना, मेष, वृध्रिकवा मकरराशि का मंगल्ल्ययमे, क्न्द्रमं वात्रिकोणमेंहोतो जातक का अनिष्ट नहीं होताहै। इस फटका अनुभव समी राशियों म जा सकता है । दुष्ट होना, विचारद्ूल्य होना?” । यह फल वष्र; कन्या, मकर का है। गर्वीलापन), रक्तविकार, यह फर वष, कन्या; मकर म, गुव्मरोग, ष्टीहा रोग, यदह फट कक; वृश्चिक; मीन मं अनुभूत होगा गोरवण, दृद्दारीर, यह फल मेष्र, सिंह, धनु मँ अनुभव में आ सकता है ।

` राजसम्मानः” यह फर मेष, क्क, सिंह, मीन मे अनुभव में आता है । यवनमत का अनुभव मेष; धनु, प्रिथुन, वला, कुम मं ठीक नेठता हें ।

विदोष विचार ओर अनुभव– जिस जातक के कुग्नभाव मे मंगल होता हे वह सभी व्यवसायों के प्रति आक्र होता है, किन्त किसी एक व्यवसाय

भोमफर १४१

कोभीरटीक नहीं कर सकता-एकसाथ ही समी व्यवसाय करने की प्रवृत्ति अवद्य होती है । रेसी स्थिति र्वे वध तक बरात्रर चरती रहती हे । तद नन्तर किसी एक व्यवसाय मे स्थिरता आती है । इसको यह मिथ्या अभिमान होता दै कि यह व्यवसाय मे अव्यत रक है मौर दूसरे निरेमूखं है । योग्यता के अभावमें भी दूसरों पर प्रभाव डालने का यल्ल करता हे ।

डाक्य्यों की कुंडली मे ल््यस्थ मंगल हो तो रिक्चाकाल में सजंरी को व्रिरोष ध्यान दिया जाता है। अनुभव के समयमे आपरेशन का मौका बहुत कम मिलता है । लघ्नस्थ मंग डाक्य्रोकी मोँति वकीलों कं लिए विदरोष अच्छा नहीं है । फोजदारी सुकदमे मिते है अवद्य, परन्तु धनप्रापति चिरोष नहीं होती । अदाख्त मे मभाव विदोप्र अवद्य पड़ता है, धनाभाव में विरोष उपयोग नदीं होता है । खग्नस्थक मंगल मोटर, हवाई जहाज, रेक्वे ईंजिन इ्‌ाइवरो क लिए विशेषतया अच्छा है । लोहार, वद्ई-सुनार, मकेनिकल इजीनियर, टनैरः तथा फिटर आदि लोगों के लिए मी यह योग बहुत अच्छा दहै । यदि मंगल वृष, कन्या, मकर मे हो तो उत्तमफल मिता दै । जमीन सर्वैयर का काम भी सच्छा रहता है ।

मकर का मंगल पिताके छिए मारी कष्टकर दै-शारीरिक व्याधिरयो होती ह । मेष, सिह, कक, बृश्चिक, धनु रादियों का लग्नस्य मंगल पुलिसइन्सपेक्टो के लिए अच्छा है । सवित छेनेवाले अफसर के लिए भी यह योग मच्छ है क्योकि इनकी पकड नीं हो सकेमी । परन्तु रसा फल तत्र होता है ज मंगल के साथ शनि का योग होता हे।

छम्नस्थ मंगल यदि कर्करारि काहो तो जातक को अपने परिश्रम से उन्नति तथा धनप्रासि होती दै। सिंहरारिमे होतोदेवयोगसे ही उन्नति तथा धनप्ातति होती है । ठग्नस्थ मंगल यदि दृष, कन्या वा मकरमें दहो तो जातक कृपण ( कंजूस ) होता दै । एक व्यक्ति का भोजन भी इसे अद्य होता है । मिथुन अौर त॒लामें मंग होने से जातक मिटनसार हीता हे । थोड़ा खन मि्नोंकेल्एिभी होता है। यदि ख्नस्थ मंगल ककं, वृश्चिकः कुम तथा मीन ने होता है तो जातक किसी से जस्दी मिच्रता नदीं करता है-ङन्ठ मित्रता हो जाने पर कमी भूता नहीं है । यह जातक पैसे का पौर तथा खा्थौ होता ३-अच्छे बुरे उपायों का विचार नदी करता दै । वष, कन्याः, मकरः कुम में ग्नस्य मंगल होने से जातक का छकाव कुकु चोरी करने कौ तफ रहता है । वच्चो के लिए इसकी दृष्टि बाघक होती है ।

रिप्पणी- मगट्पर्यायनाम–मंगल-मस्वक्र-कूर-माविनेय-कुज-मौम-लोदहि ` तांग-पापी-क्षितिज-अगा रक-ूरनेच-करराक्ष-क्षितिन दन-धरापुत्र-कुसुत-कुःपुत्र-मादेय गोचापुव्र-मूपुच्र-क्ष्मा पु्-मूमिसूल-मेदिनीज-भूसुत-अवनिसुतः नंदन -महीज-क्षोणिपुत्र आषाटामव-आषाटाम-रक्ताग-आंगिरस-रेत~-कोण-स्कंद-कार्तिकेय-षडानन— सुब्रह्मण्य |

१४२ चमत्कारचिन्तामणि का तुखनाव्मक स्वाध्याय

मंगल का स्वरूप

टिप्पणी- मंगर ग्रह का नाम “्छौहितांग, है, क्योकि दूर से देखने वाठे को (लाक दीखता हं । मंगल का नाम कुजः ओौर भौमः मी है-भूमि- पुत्र होने से कुजः ओर प्रश्वीसे प्रथक्‌ हो जाने के कारण भौमः नाम हभ ! चकि कुछ संघं के अनन्तर प्रथ्वी से प्रथकत्व हा था, अतः मंगर लड़ाई अगड़े का (कारकग्रहः मानागयादहै। मंगल कोप्रथिवीका पुत्र कहा गया हे | ग्रहोंके कुदटम्बमें रविप्रध्वीके पिताके स्थान में है ओौर चन्द्र माता के स्थान में हे । इसलिए मंगल मे रवि ओर चन्द्र दोनो के गुणों का कुछ-कुछ मिश्रण पाया जाता है|

मगल के स्वरूप के विषय में शाख्रकायों के मतां का पस्विय तथा विवेष्वन निम्नलिखित है :– ‘ऋूरटक्‌ तरुण मूर्तिं सदारः पैत्तिकः सुचपलः कृशमध्यः ॥? | अचायंवराहमिहिर € [क ¢ „प भ, के # अथ-दुष्टदृष्टिवाख, निव्ययुवा ही प्रतीत हानेवाला, दाता, शरीरम पत्त घातु कौ मात्रा का वाहूुल्य, अस्थिरवचित्त; संकुचित तथा पतला उद्र– अर्थात्‌ पतो कमर एेसा मंगल का स्वरूप दै ।

हस्वः पिंगल्लोचनो दृटृवपुः दीप्तामिकान्तिश्वलो मजावानरणाम्बरः पटतरः च्यूरश्च निष्पन्नवाक्‌ | हिखः कुचितदीतकेरातरुणः पित्तास्कस्तामसेः चडः साहसिकोऽपि घातकुखालः संरक्तगौरः कुजः ॥ कल्याणवमो अथे-छोयाकदः पिंगल्नेत्र, दद्शरीर, प्रज्वलित अग्निस कांतिवाल, चचक मजा से वल्वाला, रक्तवर्ण, कार्यचतुर, शूर, सिद्धांत-वचन कहनेवाला, हिंसकः वषराठे केशोवाला, युवा, पित्तप्रकृति, तमोगुणी, प्रतापी, साहसी, राततुओं के मारने में निपुण, रक्त-गौरथर्ण-एेसा मंगल का स्वरूप है ।

“मध्यङशः कुंचित दीतकेशः कररेक्षणः पैत्तिक उग्रडद्धिः । रक्तम्बरो रक्ततनुः मदीजश्वंडोऽ््युदारस्तरुणोतिपजः ॥।” मंत्रेश्वर अथ मंगल मध्यमे ङश है, अर्थात्‌ इसकी पतली कमर दै । इसके शिर के केश वुघराके भौर चमकीठे है । इसकी दृष्टि मेँ क्रूरता है । स्वभावसे भी उग्रबुद्धि है । यह पित्तप्रधान दै । लाल्वछ् धारण किए हए है यौर इसके शरीर कामौ वणंखारही दहै । यह स्वभाव से प्रचंड है, किन्ठ अति उदार है। दरारीर के मजा माग पर इसका विदोष अधिकार है । ( इसका आश्य यह हआ किं जिसकी जन्मकुंडली म मंग वट्वान्‌ है उसके शरीर की मजा बलवान्‌ होगी ) मंगर तरुण अवस्था का है, ( इसका आशय यह हुआ कि यदि मनुष्य

भमफल १४

की जन्मकुंडली मे बलवान्‌ मंगल च्यमेंपड़ादहै तो वह प्वास वषं की अवस्था मेभी३० वषं का जवान प्रतीत होगा|

कोपा्िनेचः सितरक्तगा्रः पित्तातकश्चंचल बुद्धियुक्तः ।

रशांगयुक तामसबुद्धियुक्तो भौमः प्रतापी रति केटिलोः   व्यंकटशमा

अथै-कोपसे लाल आख, श्वेतरक्तं ८ पाटल ) रंग शरीर, पित्तप्रकृति, पवे्ट्वुद्धि, कृशश्चरीर, तमोगुणी, प्रतापी; कामक्रीडा मे अतिचंचक्-एेसा भोम दहे। ““संरक्त गौरः कुजः ।”’ वद्यत्ताथ अथं-लाल ओौर सफेद मिला हुभा रंग मंगर काहै। “अआरोऽप्युदारोऽपिचपौतने्रः कूरेक्षणोऽसौतरुणात्मवांश्च । सुरक्तगोरश्चपलोऽतिरहिखः पित्तौष्मवान्‌ मञ्ञिकया सुसारः ॥% जयदेव अथं–उदारचित्त, पिगलनेतर, ऋरष्टि, युवा, पाटल्वर्ण, चपल, मलस्य- दीन; हिंसाशील, पित्तप्रञरति, मजा से बली, एेसा मंगल का स्वरूप है ।

(मजासारोरक्तगौरोष््युदारोहिखः शूरः पेत्तिकस्तामसश्च | पवंडः पिगाक्चो युवाऽ्खवंगवंः खर्व॑श्चोरवीस्‌ नरथिप्रभः स्यात्‌ || दुंडि राज अथ-मजा मे वल्वाला; रक्तं केकर गौरवर्ण, उदार, हिंसक, श्युर, पित्त- प्रकृति, तमोगुणी, भयेकर, पीतने्र, युवा; गर्वीला, छोटा कद्‌, अचि के समान कान्तिवाल-एेसा स्वरूप मंग का दहै। सत्वं कुजः, नेताज्ञेयो धरात्मजः, मच्यु्चांगोभौमः, रक्त भौमो भौमः, देवता षडाननः, भौमो नरः, भौमः अः, कुजः क्षन्निवः, आरः तमः, मौमः मजा, भोमवारः, भौमः तिक्तः, भौमः दक्षिणे; कुजः निशायांबटी, भौमः कृष्णे बली करः स्वदिवसमहोरामासपवंकाल्वीय॑क्रमात्‌ श०-कु°-बु°-गु<-ञ्ु° ष्वराद्या बृद्धितोवीयवत्तरयाः । स्थूलान्‌ जनयतिसूय दुभगान्‌ सूयपुत्रकः । क्षीरोपेतान्‌ तथा चन्द्रः कटुकाय्ान्‌ धरासुतः । वख रक्तचित्रे कुजस्य । कुजः म्रीप्मः। षाराक्र

अथं–सत्वरुणप्रधान तथा शक्तिशाटी भौम है। मंगल नेता है। मंगल का कद्‌ बहत ऊँचाडहै) भूमिपुत्र मंग रक्तवणं है। इसका देवता षडानन-कार्तिकेय है । यह पुरुष प्रह हं । मौम अचितव्व प्रधान है। मौम क्षत्रिय रै । यह तामस है । भौम मजासार है- वारो मे भोमवार मंगल का है। इसे तिक्त ( तीखा ) रस पसंद्‌ है । इसकी दिशा दक्षिण दहै । यह रात्रिवली है कृष्णपक्च में बटी है । कर स्वभाव है । अपने दिवस मे अपनी होरा मेँ, अपने मास मे, अपने पव ओर काठ मे रश०-भोऽ~बु°-गु०° भौर श्चु° बृद्धिक्रम से अधिक वलीयान्‌ होते ह । सूयं बरी हो तौ जातक स्थूलकाय होता है-रानि से जातक कुरूप ओर अमागा होता है । चन्द्र से क्षीर युक्त तथा रसप्रधान पदार्थं उत्पन्न होते

१४७४ चमत्कारचिन्तामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

मंगल कटुकपदार्थौँ को जन्म देता है मंगल के वख खारू भौर चित्रित होते हैँ | मंगल ग्रीष्मक्रतु का स्वामी द | हितो युवा पत्तिक रक्त गौरः पिगेच्छगो वहिनिभोप्रचंडः । शूरोऽप्युदारः सतमाखिकोणो मजाधिको भूतनयः सगवः ॥ पुंज राज अर्थ- मेगल हिंसक, तरुण, पित्तग्रकृति का, कुछ खाल गौरवर्ण क, लाट ओंखिंवाख, अथिजेसा उग्र, श्र, उदार, दामसी स्वमाव ओौर गर्वी होता है | इसका आकार त्रिकोण जैसा आर मजा अधिकं हाती हे। दुष्टटक्‌ तरुणः रम्ये रक्तसितांगः पेत्तिकश्व च धीरदारः } प्रताप्यारः | सहदियः अथै–दसकी दष्ट दूषित होती दै । तरुण, कुछ खार गौरेव्णं का, पित्त- प्रकृति का चंचल्बुद्धि; दर ओर पतली कमरवाखा होता है | आचाय वराइमिहिर- ने बृहत्संहिता मे श्भफटक दाता मंगल का स्वरूप निम्नलिखित दिया है - “विपुर विमल्मूर्तिः किद्यकाशोकवणः स्फुटरुचिरमयूखस्तप्तताग्रप्रमावः । विष्वरतियदिमागे चोत्तरे मेदिनीजः श्युभक्कदवनिपानां हादिदश्चप्रजानाम्‌ ॥* अथ- इसका आकार वड़ा होता है, वर्णं अयोक वा किंश्युक के पलों जेसा लार होता है । किरण स्वच्छ ओर मनोहर होते है, कान्ति तपे हए तवे के समान होती है ओर यह उत्तर मार्गसे चल्ता है तवर राजा ओर प्रजा कः िषए कल्याणकारी होता है । अनुक्रम मे गुरु के वाद मंगल का स्थान हे | इस आकार छोटा है ओौर अयि जेते चमकीले वर्णका दीखता है। यह ६८६ दिनि तथा २० धंटोंमं राशिचक्र की परिमा करता दहै | इसक्रा उत्तर की ओर अधिकतम श्र ४-२५ होतादै तथा २-र्‌ रिन स्थिर होता दै। कक, बृश्चिक तथा मीन; इन तीन जखरारियों पर इसका पूरण अधिकार दै । यह पुरुष प्रक्रेति का, रात्रि के समय का, उष्ण, सूखा अथ्चि जैसा अरहर) यह स्गडे, कछ्ड तथा विरोध का

प्रेरक हे । विलियमलिली मंगख का स्वरूप-परिचिय दिया गया, अव सत्तविवेचन किया जाता हैः-

सत्व- मंगल मे शारीरिक तथा मानसिक सामथ्यं है। मह, पुलिस मफसर्‌, सेनिक डावर आदि म शारीरिक सामभ्य जरूरी होता है । इस सामथ्यं पर मेगल का अधिकार है। रारू के उद्यकरार मं बडे-नडे नेताओं मं मानसिक खामधथ्यं होतादहै। इसपर मी मंगलका अधिकार होताहै। ये नेता क्रांति को सफल बनाने के लिए प्राणों तक की बाजील्गा देते इन क्रान्तिकासियिं पर मंगर का अधिकार होता रै।

नेता- मंगर नेता है-शाख्नकासें के अनुसार ‘सेनापतिः है ।

१० मंगक्फर +

धातु–इसमे मजा-मांस-अस्थियां है मस्तिष्क पर बुध का, चरी पर गुर का, मांस ओर अस्थियों पर मंग का अधिकार मानना उचित द्। मतभूयस्त्व से मजा पर भी मंगल का ही स्वामित्र हे । |

स्थान-मंगल का स्थान अचि कदा है-केवर अखं से देखने पर यह ग्रह भगिसदश लाल दिखता है । रसेईधर का विचार मंगरूसे किया जा खकता है । चोरं ओर नीचं का धर मंग का स्थान है यह कस्पना टोक नहीं है क्योकि इन रोगों के स्थान पर शनि का अधिकार दोना चादि । युद्ध का स्थान मंगर के अधिकार मे अवश्य है ¦ प्रबल मंगल जिस पष्न की भर होगा- विजय उसी की होगी । ॑

वख्र–कल्याणवमां के अनुसार मंगल का वस्र दद््‌-मजवृ तथा मोटा ईै- परारार के अनुसर इसक्रा वस्र खार आर रंग-वरिरंगा है-करूएक ने “जलाहूया- वे” एेसा वणेन दिया है । लोगों मे कदावत भी है कि सोमवार का वलन फटता दै-मंगल्वार का जलता है । गुखुवार तथा बुधवार का वन यच्छा रहता है- इसीषिएः लेग मंगलवार को नया कपड़ा नहीं पदनते ! परन्त॒ कल्याणवर्मा का वणेन ही टीक है क्योकि पुल्सि ओर मिषटरी के रोग मोरा ओौर बहुत देर तक रिकाऊ कपड़ा पदिनते ह ओर ये लोग मंगर के अधिकार मे है ।

धाठु-सोना आदि- मंगल की वष्टि के लिए देय द्रव्य सोना है-एेसा छेख है-दोनों का रंग कुछ लार ओौर गौर है–अतः मंगल का द्रव्य सुवर्णं है-एेसी कट्पना है । युद्ध का ग्रह मंगर है-युद्ध के समय लोहे का विष मत्व होता दै–तोप-बन्दूके आदि सभी शख खोदे के ही बनते ई । इस दष्ट से रोहे पर मंगल का भधिकार मानना उचित होगा । आजकल क रा्टीय तथा राजकीय व्यवहार मे सोने का महत्व बड़ा मारी दै–राजकीय व्यवहारं पर सूयं का अधिकार है । अतः सुवणे पर भी रवि का स्वामित्व है–रेखा मानना अनुचित न होगा । | |

ऋतु—गरीप्मक््वु पर मंगल का अधिकार मानना ठीक होगा ।

दिदा–दक्षिण दिशा मंगल कौ है क्योंकि यमराज के समान यद्‌ ग्रह भी जीवहानि कराता है ।

छभाशभ-मगल पापग्रह है क्योकि पापफल देता है परन्तु इसके शमफल भी होते हं । अतः शभ तथा अश्म दोनों पश्च मानज्ने होगे ।

देवता–पुराणों मे देवताओं का सेनापति रिवपुत् कातिकेय माने जाते है करयोः इन्होने तारकासुर का बध किया था-मंगल भी सेनापतिं है अतः इनके

देवता रिवपुत्र स्कन्द ईै-गुह, कार्तिकेय, स्कन्द-ओर षडानन ये नाम इस

देवताकेर्है
ग~ मंगल पुरुषग्रह है

वण–मंगल युद्ध का कारक है अतः इसका वर्ण (शियः है ।

` १४६ चमत्कारचिन्तामणि का तुलनात्मक स्वाध्याय

रुचि– कडवी रुचि हे-यह टीक नहीं है-तीखीरुचि हैः यदह ठीक दै । मिचकारंगमभी खल सौर रुचि भी तीखी । अतः तीखी सुचिपर मंग का स्वामिख दहै-यह मान्यता टीक है |

काट- मंगल दिन का अधिपति हे।

वेद- मंगल का अधिकार स्वरवा ध्वनि पर है-गायन पर नदी है । अतः वारे वेदां मं सामवेद का अधिकार अनुचित दहं । हों अथर्ववेद पर कारकत्व दे सकत दहं ।

टोक- मृत्युलोक के समान दही मंगल मी भौतिक त्च्वोँका ग्रह है-अतः कदएकने इसका लोक मृप्युलोक माना ह-क्द एक शास्रकारोंने इते पाता का स्वामी माना है,

उदय-इसका उदय पिचठे भागसे होता हे।

वगे–इसे चतष्पाद माना दै करोकि कूर ग्रह होने से कुत्ता-गीदड़, मेद्धिया, विदा; चीता-रोर, आदि क्रूर जानवर पर इसका धिकार हे ।

संचार स्थान- मंगल का संचार स्थान पवत-जंगल-ठीक दै क्योकि करूर जानवर पहा डां-जंगलों में ही रहते द|

अवस्था– मंगल का स्वामित्व वादव्यावस्था पर दै क्योकि इसी अवस्था में रक्तविकार, विषमञ्वर, खुजली, फोड़े-फुन्खी, चेचक-माता आदि रोग होत रै | २६ से ६८ तक अर्थात्‌ तरुणावस्था पर मंगल का प्रमाव होता दहै। अतएव इसे श्वाः (तस्ण’ माना दै-क्योकिं मंगल प्रभावान्वित व्यक्ति पचास व्क होते ए सी तीस वर्षं के समान ही माटूम पडते है ।

रल्न–प्रवालमूंगा-इसका रत्न दे ।

तच्व–अधि इसका तच्च दै– तेज तच्च है यह टीक है अचितैजस तो ददी (9 10. |

रृष्टि- मंगल की ऊर्ध्वं दृष्टि है-परेड मे सैनिक तथा पुलिस आफिसर द मेशा सीधी नजर रखते ईै-पेरों के नीचे कुछ भी होता रदहे-ध्यान नदीं देत ।

पराजय-यनुभव से मंगल द्वारा शनि का पराजय देखा गया है । अतः दानि द्वारा मंगल का पराजय जनता नहीं हे ।

वख्वान्‌ काङ—वन मँ तस्णावस्था मध्याह्न दै-इसी समय मनुष्य परा- करम करतादहे। धन तया कीर्वि प्राप्त करता दै ओौर संसारम म्न रहता ड । इस काल पर मंगल का अभरिकारदै। कृष्णपक्त मं तथा संध्यासमय मंगट बलवान्‌ होता है-यह्‌ पराशर मतै) किसी एक ने रात्रिसमय मंगर करा वलवान्‌ काल माना हे ।

मंगल के वल्वान्‌ होने के स्थान इस प्रकारभी माने दै-मंगल्वार को, नवांश तथा द्रेष्काण कुट्टी में, स्वगरहमं हो तव मीन; वृश्चिक, कुंभ, मकर तथा मेष राधियों में, रात्रिम, वक्री होने पर, दक्षिण दिशामें, तथा रािके

मगरूफङ १४७७

प्रारंभ मेँ मंगर बल्वान्‌ होता है । मीन ओर ककं राशियों का मंगल सुखदायी होता हे।

जाति- सामान्यतः क्षत्रिय है । शनि माहात्म्य म्रंथमे मंगल को सुनार कहा है । सुनार जाति पर मंगल का अधिकार दहे, क्योकि सोने के आभूषण- गहने बनाते समय सुनार को अधिसेहीकामच्ना होता हे।

धान्य-मसूर की दाल पर मंगल का अधिकार है-शान्तिके लिए मसूर कीदालका दान किया जाता है।

क्रररक-मंगलप्रभावान्वित व्यक्ति की नजरसे नञ्ञर मिलना मृ्षिकिछ होता है क्योकि इसको दृष्टि मेदक होती है ।

उदार-संसारमें जसे लोगों कोभमिका पता चला है इन्होने अन- गिनत लाभ उठाए ह । मंगल्प्रधान व्यक्ति दूसरों के {रिष्‌ श्ुद्‌ को कष्ट देते है अतएव उदार दै । |

चैत्तिक-अभि के सददा उष्ण होने से उष्णता का विकार जो पित्त वही मगलप्रधान व्यक्ति की प्रकृति है ।

चपट–पित्त प्रकृतिं के खोग पपर होते है, काम करने का उत्साह दूने बहत होता है।

करदा मध्य- “कमर पतली होना? इसका अनुभव सेनिक, पुलिस, डावर

दृजीनीयर आदि वर्गो से पाया जाता है भौर ये मंगल के अधिकारमे रै।

ऊंचा-तेनिक आदि वर्गो के मंगल्प्रधान व्यक्ति ऊचे होति है। परन्तु वैद्य, ओषधि विक्रेता, दजीं, सुनार, डहर, चमार, रसोदए राजनीतिज्ञ, रासो के निर्माता आदि वर्गोमं जो मंगट्प्रधान व्यक्ति होतेर्हैवे प्रायः नारे कद केहोतेरै।

पिंगललोचन–आं पीटली लल होती ै। ओंँख का तारा काल होता है–ौर उखके चारों यर सफेद भागे लारूरंगकी नस अधिक मात्रा में होती है-ेसा अनुभव है–नजर बाज्ञ जेसी तीक्षण होती है ।

प्रचंडदटृटवपु– सैनिकों का शरीर मजबूत होता है ।

दीप्ताच्निक्रान्ति- इसका अनुभव पहल्वान-पुलिस जवान आदि लोगों में होता है ।

मजावान- इसका तात्पयं मस्तिष्क शक्ति की बर्वत्ता से है । गणितज्ञ, कवि-ठेखक आदि लोगों में मस्तिष्कशक्ति बहुत बख्वान्‌ होती है । इस शक्ति का विचार मगर कौ स्थिति से करना चाहिए । |

रक्ताबर–मगर की शान्ति के लिए खाल्वल्रका दान किया जाता है।

हस्व-आङुचितदीप्रकेद्ा- मंगल के प्रभाव मे उत्पन्न व्यक्तियों के के छोटे-रहरीले ँघराठे ओौर चमकीले होते ई । परन्तु खियों के केश ठंवे, घने, कारे, चमकदार ओौर आकर्षक होते ई ।

१७८ षवमर्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक

तासस-रक्तवर्णं क्रोध यौर रक्तिका प्रतीक है–इसकिए मंगर तामसी परकरति कारै दया ौर पेम का वण सफेद-ल्जा का गुलाबी है–शमं का हरा-तथा द्वेष ओर मत्सर का काला है-एेसा इन वर्णो का ओर मनुष्य कौ भावनां का सम्बन्ध कदा जाता है ।

साहसिक- मंगल के प्रभाव में उत्पन्न व्यक्ति धेयं से साहसी काम करने वाखा, संक मे मी अग्रसर होने वाख निभंय होता है ।

विघातक्रुदल–पूरे दृटतामय निश्वयसे श्तु पर अधात करने वाला होता दै ताकि परिणाम मं शत्रु पराजय अवद्य हो |

रतिकेटिलोढ–उष्ण प्रक्ति के लोगौँ मे कामवासना अधिक होती है।

हिंख- युद्ध मे किसी का खून करने मं इसे हिंचकिचाहट नदीं होती ।

उग्रवुद्धि–वात को फौरन समञ्चता है ।

त्रिकौण– मंग कुछ ल्वे गो आकार का दिखलाद देता है, अतः निकोण नदहींदै। राशियोंकी दृष्टि से– मंग के फर ककं राशि में बहुत अच्छे मिलते दै–वृध्चिक-धनु मे साधारण दोतेर्दै-रिदमे कुछ बुरे होते है- मेष मे बुरे होते है–ृष-कन्या, मकर मे बहुत बुरे फर मिते है । मिथन, वल, कुम मेँ साधारण च्छे मिलते ई ।

मंगर का कारकत्व–

कृल्याणवमो-खलकमलः, तावा; सोना 3 र, पारा; मनःशि, भूमि; राजा, पतन, मूच्छ, पित्त तथा चोर इनका कारक मंगल हे ।

वैयनाथ- सामर्थ्य, रोग, गुण, छोटे भाई-वहिन, श्रु, जाति इनका कारक मंगल हे ।

परादार– साम्यं, घर, जमीन, पुत्र, स्वभावः चोरी, रोग, ब्राह्मण, भाई, पराक्रम, अि-सादस, राजपुत्र-इनका कारक मंगल हे ।

व्यंकट दामी-पराक्रम, विजय, कीर्ति, युद्धः साहस, सेनापतिपद्‌, परश्च कुटार इत्यादि राखो मे निपुणता, पैयै, कान्ति, गम्भीरता, कामवासना, कोध, दात्रुब्रद्धि-माप्रह, निश्चय, परनिन्दा, स्वतन्वता, ओँवटे का दृक्ष, जमीन, इनका कारक मंगट है| |

मन्त्रेश्धर–पराक्रम, जमीन, भाई, क्ररता; युद्धः साहस, देष, रसोद्ैघर, अचि, सोना, जाति-मल्र-चोर, शतरु-उत्साह-परदारगामिता, मिथ्यामाषण, वीरता चित्तविकास, पाप, सेनापतित्व, ्रण-इनका विष्वार मंगर से कतव्य है– मंगल कारत्व के रोग :–

बहुत प्यास, खून, पतन, पित्त, ज्वर, अचि, पिष वा राखो से भयः, कुष्ठ; नेचरोग, गस्म (अ्पँडिसाइटिख ) अपस्मार, मस्तिष्क के रोग, खुजली; अवयव कम हो जाना, राजकोप, शतु-चौर-मयः; भाई-पुन्न भौर मितो से श्रगड़ा, भूत-पिशाच-गन्धवविरा जन्य पीडा; शरीर के ऊपरी भाग के रोग-भौम दूषित दहो तोये रोगदोतेरह।

मगरुफर १४९

कालिदास-पराक्रम, जमीन, बल, राखरधारण, लोगों पर अधिकार जमाना, वीरक्षय, चोर, युद्ध; विरोध, राश्रु, उदारता, खार वस्तुं की रुचि, बगी्वों की मरकीयतः, वाद्यवादन; पेम, चौपाया जानवर, राजा, मूर्खं, कोध, विदेशयात्रा, धेयं, अओंविले का वृश्च, अग्नि; वाद विवाद-पित्त, उष्णता, जण, सरकारी नौकरी; दिन, ऊष्वंदष्टि, नायाकद्‌, रोग, कीर्ति, सीसा, त्वार, भाल, मन्त्री; स्पष्ट अवयव दोना, मणि, स्कन्द-तरुण, कड्वी रुचि, राजां का स्थान-अपमानः, मांस-ादार, परर्निदा; शत्रुविजय, तिक्तस्वाद, रात्रिबटी-सोना- धाठु-परीष्मक्छत-पराक्रम-शत्ुबल, गम्भीरता, शौय, पुरुष, शीट, ब्रह्म, कुरहाडी, वनचर, गाव का मुखिया, राजदशचन, मूत्ङच्छररोग, चौकोर माकार, सुनार, दु्ट-जरी हुई जगह, भोजन मेँ अच्छे रुचिकर पदार्थो की प्रियता, दुबलपतला- पन, धनुर्विद्या नैपुण्य, रक्तर्तोना, रंगविरंगे व्र, दक्षिण दिशा, दक्षिण-दिशा प्रियता, कामवासना, क्रोध, परनिदा, धर, सेनापतिशतप्नी, सामवेद, भाई, वन्य करर पञ्च-नेवृत्वः स्वतन्तता, खेती-सेनापतिपद सर्पस्थान, वाणी ओर विष्त का “वञ्चरू होना, घुडसवारी, रजोदशन, खून सूखना-

पाश्चात्यमत के अयुसार मंगर का कारकरव–उष्ण-रक्ष, दाहकः, उद्योगी, वध्या, पुरुषप्रकृति, साहसी, उबल्ने वाके पदार्थ, दाहजनक तेल, तीत्र यओौषध, अम्ल्पदाथं, उष्णपदाथ, दाहकारक रुचि, रोहा, फौलद, हथियार, षवाकू-कषवी, अगडे-चोरी-उकैती, अपघातः, लडाई, युद्ध मे सम्मान प्राप्ति, महत्वाकांक्षा, पौरुष, कामवासना, क्रोध, मानथादिमनोविकार, आग, बुखार, उन्माद-भय्करता, द्रोह; निंदा, पुठिस; खस्पकाल कारावास, मौत; पुरुष सम्बन्धी; डाक्टर, सजन; रसायनशा, वैलानिकः गोटदाजञ-शस्रकार मैके- निक, इंजीनीयर, टनौर, फिर, केथवकं करनेवाङे, टया आदि लोह कारखानो म काम करनेवाले, ति के बत॑न बनानेवाले, चाकू-कैची बनानेवाठे छहार, कंगन बेष्नेवाले, दंतवैय्य, कसाई-बेकिफ-नछ्ाद्‌, घड़ीवाङे, दर्जी -नाई, रंगारी- चमार, जुभरी, मस्तक-नाक, जननेन्द्िय; पित्त-पित्ताशय, मू्ाशयः, लायु- मासरज्जु-चेचकः गोजर, खून बहना, कटना-जल्ना-भागरगी-हूदईै जगह-भद्धी- ( सुनारकी, डहारकी-दोटलकी, कांचकारखानेकी, खोदे, तबि, या पीतल के बतनों के छिए, चूना बनाने की, शखर के लिए भद्ध ) रसायनशा, युद्धमूमि, सेनारिविर, तोपखाना, बारूद का सं्रह; शस्रों के कारखाने, अपघात स्थल ल्डाकूप्रदेश-विषेरे जन्तुं के स्थान; कसादैखाना, भाई-बहिन, सुख-दुख, चचेरे मादै-सोतेङे सम्बन्धी, अदूथुत बुद्धिमत्ता के काम ।

स्वर्गीय ह-ने-काटवे के अनुसार विविध विषयक मंग का कार. कत्व :–लोककमं विभाग ( 7. ५४. [). ) भूमिति, इतिहास, क्रिमनल-ख (अपराधविषयक कानून) प्राणिशाख्र, अस्थिरा; पुलिस इन्सधेक्टर, ओवरसीयर, उनकी शिक्षा संस्था-जंगल, कषिविद्ाख्य, स्वे विभाग, बायलर एक्ट-तं्रविन्या

१५० चमत्कारचिन्तामणि का तुलनात्मक स्वाध्याय

(चेकेनि कल) की शिक्षा इंजीनीयरिंग कालिज, बीडी-सिगरेट के कारखाने, मिल्मजदूरः शराव की भद्रि अर दुकान, आआवकारी इन्सपेक्टरः सिपादीः . पहल्वानः मोटर ओर उसके पुज वेष्वनेवाके, साइकठ या मोटर मरम्मत करनेवाले, टैक क्चर, टारपीडो, वाम्बर, विमान, पैट्रोल, सिरि, रोकेखतेल, फास्फरसः आइ- डीन, विजखी की आकंके लिए उपयोगी का्वंन के कारखाने; माचिस के कारखाने, कपास का सद्धा; रेस, घोडे-जौकी, ट्रेनर फायरत्रिगोड, बडे आप- रेरन, अैँडसादटिस, मूचक्रद-गंडमाला-टान सिल; मनः खूनखराव करनेवाके व्यसन, इग, फान्स, ग्रीस, इटली, जमनी; जापान? पंजाज, उत्तरप्रदेशः महाराष्र-कर्नाटक, कच्छ, सौरा, गुजसत, गंजखानः, नारक एसिड, एसेटिक एसिड, दाइङोसीनिक एसिड, आरैनिक, सोमल, गंधकः विषपचाने की ताकत मर्गा, गीध, वाज, चील-बकरा, कवूतर, चिडिया; विधी? क्रिश्चनः रेग्लोड्‌डियनः युरोपियन सिख, मराठा; राजपूत, जेन द्िगायत, गुजरात; ओौर सोराघ्र का सामान्य वगं | कारक का निश्चय - ग्र्होके सखाभाविक गुण-धमे-रूप;, रग तथा नेसर्गिक कुंडली मं उनका सथान एवं भावकारक ग्रहों पर से कारकत्व का निश्चय किया जाता ह । आलोचना -लाल कमल, तबा, सोना खारूरंग के पदाथं हँ अतः इन पर मंगर का अधिकार दै | गेरू भी लाक रंगकादै। मोटर दि वाहनों मे लोहा वैदरोक आदिं की भआवदयकता होती है अतः इन पर मगर का खामित्व है | क्िति- मेगल भूमिपुत्र माना गया दै अतः जमीन इसके कारकत्व मे हे पतन-यदि मगल अ्युम हो तो मानव कौ हाख्त गिरती नाती है । मूच्छ ओौर पित्त-दोनों दी उष्णता से होते ्ै–अतः मंगर के कार- कत्व मेँ ह | चोर- मंगल आर शनि का परस्पर अनिष्ट संबंधदहोतो चौय भी मंगख के कारकत् में आ सकता है| रोग-ेगों का कारण मूख्यतः उष्णता है–अतः रोगो का कारक ग्रह मंगल ह । | छोटे भाई- व्रतीय वा नवम मे मंगल हो तो माई जीवित नरी रहते– ट्स तरह भादयों के लिए मगल घातक ही प्रतीत होता है-एेसा अनुभव है| रिपु–पुलिस विभाग से शत्रुभों का सवंध निव्य ही रहता है । जाति- कोद जातिविरोष अभिप्रेत नहीं है–अपनी जाति का स्यागकर दूसरी जाति का स्वीकार करने की प्रवृत्ति का विष्वार मंगल से कतव्य दै– यह अभिप्राय है । इस पर प्राचीन शोक मी ₹रै- टग्ने चैव यदामौमः अष्टमे च रविबुंधः। ब्रह्मपुत्रो यदा जातः सगनच्छेन्‌ म्लेच्छ मंदिरम्‌ |

सगर्फर १९५१

मंगल के प्रभावसे धर्मया जाति का बन्धन शिथिल हो जाता है- यह ममं है॥

पुत्र–प॑चम भौर एकादश के मंगलसे ही पुरां के विषय में विचार किया जा सकता है । अन्य स्थानों से इका संव’ध नहीं है|

राजरात्र–बड़े अधिकारी पुरुष के प्रतिं प्रायः कनिष्ठ अधिकारी अनिष्ट चितन करते रहते दै–यदह परियिति मगल के कारकत्व मे है ।

पराच्म-ओौर विजय- शनि का अधिकार विजय पर है-मंगर का अधि- कार पराक्रम पर दै।

विख्याति-कीर््ति–सिपाद्यी प्राणों की बाजी लगाकर डते है परिणामतः सेनापति विख्यात कीर्वि होता रै । अतः कीतिं मंगल के सवामित्र मे दे।

संम्राम-किसी देश मे युद्ध चल रहा हो-किख को हानि व खम र्देगा- इसका विवार मंगल की सिति से ओौर उस देश की राशि से करना चाहिए । इसी प्रकार अदाख्ती च्चगडों मे किस व्यक्तिः की विजय होगी १ इसकां विचार भी मंगल से ही कर्तव्य है।

दंड-सैन्य–किखी देदा की कितनी सेना ै-उसकी व्यवखा कैसी है– आदि-आदि विष्रयों का विचार मंगल से कतव्य है ।

नेता- मंगल राजकीय नेता है, सामाजिक नेता नदीं-यद विचार ठीक ई ।

गांभीर्य-मंगल मै अर्हडपन भी है भौर गंभीरता मी है रेखा भनुमव है ।

दात्रवृद्धि- मंगर छटे, सात वा बारह खान मेँ हो तो रशनुबद्धि करता है–अन्यत्र नहीं ।

आग्रहावय्रह-राजदरनार मे मान-सम्मान वा अपमान होना मंगर पर अवलेबित है । शम होने पर मान-सम्मान; शनि से दूषित होने पर अपमान दोता है ।

परनिन्दा-पोर्व, सातवे, बारदवै स्थानम मंगरूहो तो यह फल मिक्ता हे-अन्यत्र न्ह |

स्वतंत्र-मगल के अधिकार के लोग स्वतत्रवृत्ति से जीवन यापन करते ईै-बहुतरे नौकरी भी करते है किन्तु यह उनकी इच्छा के प्रतिकूक होता द ।

क्रौर्य–मंगख का (क्ररताः कारकत्व किसी पाप प्रहकावेध होतो तभी अनभमव मे आता हं।

” परदारलोलट–उष्णता तथा शारीरिक साम्यम आधिक्य होने से पर

लियो स्वयं ही चिष्वी चली आती है–ती्र कामान शान्त करती ई ।

असत्यभाषण- मंगल दूषित होतो ही एेसा अनमव होता है।

चित्तसमुन्नति–राघ्र मे महान्‌ व्यक्तियों का उन्न होना, . बौद्धिक प्रगतिं भौर जगत्‌ की स्थिति मे सुधार होना-यह मंगल का कारकत्व है। द्वितीय; चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम-द्रादशस्थानों मे छम मंगल हो तो महान्‌ व्यक्तियों कामन ओर बुर्दि अच्छी तरह विकसित होते है) कमन, तृतीयः, पञ्चम, सप्तम, नवम;

१९५२ चमत्कारचिन्तवामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

ददाम, एकादश मंगर होतो यूनीवरसिरी की डिग्रि्यौ अवद्य मिलती ह परन्तु मन की अवस्था अविकखित हौ रहती हे । | | वाग्वाद- मंगल प्रन हो तो वाद्‌-विवादों मं विजय प्राप्त दोती दहं। मांसारी- मंगल रक्त वा मांस का स्वामी है-घनस्थान वा षष म यञि रादि में मंग दहो तो जातक मांसाहारी ओौर मद्रपी होता हे। चित्तचंचरखुता- मगर वार-बार वक्री ओर मार्गी होता है-यदि मङ्गल लद्म-सप्तम ओर दशम मं होता हे तौ ही चित्तचच्चल्ता का अनुभव होता है । चतुरसख- मंगर के अधिकार के सेनिक आदि वर्गों के रोग ऊँचे कद्के, लम्बेचेहरे के ओर सुदृद्‌ होते है । सुनार आदि वर्गो के गोट चेहरे के, नाटे- कद्‌ के ओर प्रभाणवद्ध भवयवों के होते है । चौकोर भौर त्रिकोण आति के नदीं होते ई। - | कुण्डटी मं शुभ मंगल के फट–यदि मंगल छम हो तो जातक साहसी, चिड़विडेस्वभाव का, हरी, मौके पर न उरनेवाल्ा;, दीर्घोद्योगी, खर्वीला, नाना- युक्ति से काम नानेवाखा; लोगों के कल्याण के दिए यलशीट, कपटदहीन, उदार, प्रेमी, चिन्तारदित, सुद्‌, धीरजवाख, वृसरो के प्रभाव मे न आनेवाख, व्यवहार मं सरल, सत्यशील तया प्रामाणिक; भाषण ओौर कृति मे नियमपाटक, परस्त्रियो मं अनासक्त; अनाय-दीनखियों का सहायक, क्रान्तिकरणोत्युक, सुखा- सक्त, धमश्रद्धालं परन्तु अकमेण्य-पलीवश-सद्यः स्थितिमय्न-मविष्यचिन्तक, वाद मं पराजित होनेवाल, प्रभाव्ाटी, टोकमत अच्छी दिशा में मरित करने वाखा, ये फल तमी होते है यदि कुण्डली मे मंगल विकसित हो । दूषित मंगर के फल–चन्द्र वा शक्र के संवेध से मंगल दूषित होता हे । इन ग्रहोंसे मंगल के बुरे गुणधर्म प्रभावी होत रहै। जातक परख्ियों को कुमागेगामी करता दहै-अतिकासुक, कामपूर्तिं के लिए किसी भी जाति की खी से सम्बन्ध जोड़ लेता हे । क्रोधी, तामसी, ठ्डाई-सगडे-खूनतक कर छेता दै । कजं के पेसे से मौज उडाटेता दै । खी-कष्टकर, परनिन्दक, आल्सी-स्वार्था दसय को उत्साहदहीन करता दै-गारी-गलोष्व करने का स्वभाव होता है, उधममचानेवाला होता दै-एकान्तप्रिय, भस्थिर-विक्षिमनोव््ति-भौर जङ्गल होता है । भवेत्तस्य किं बियमाने कुटुम्बे, धनेऽङ्गारके यस्य छ्ब्धे धने किम्‌ । ` यथा त्रायते मकंटः कंठदहारं पुनः सस&खं को भवेद्‌ वादभग्नः ॥ २॥ अन्वयः– यस्य धने अङ्गारके ( स्थिते ) तस्य विद्यमाने कुटम्बे किं भवेत्‌ । धने ठन्धे किं ( स्यात्‌ ); यथा मकटः कण्ठहारं ्ायते (न तत्‌ सुखं जानाति तथेव स लेयः ) वादमग्नः कः पुनः ( तस्य ) संमुखं भवेत्‌ ॥ २ ॥ सं. टीगयस्य धने द्वितीयमावे अंगारकः भौमः भवेत्‌ तस्य विन्यमाने न्धे धने वा सति कुम्ब स्वजन विषये किं न किञ्चित्‌ फटमिव्यथः। यथा मकटः वानरः कण्टहारं केनापि कण्डे समारोपितं गुञ्जादि रचितं हारं त्रायते रक्षति, तथा

मंगरफर १९५३

सोपि कृपणः धनं रक्षति न तद्‌ धनं कदाचिदपि कुडम्बोपयोगाय भवति इतिभावः तथा तस्य वाद्‌ मग्नः पराजितः पुनः भूयोऽपि विवादाथं सम्मुखं न कोपि भवेत्‌ अातेमुख्यतरः स्यात्‌ इत्याशयः ॥ ‡॥ अथेः– जिस मनष्य के जन्मव्यसे दूसरे स्थान में मंगल हो वह कुडम्बी होभीतोक्यालाभ। उसको धनप्राप्ि दा जानेसे भी क्या राभ होगा । जेसे बन्द्र अपने गठेमं पड़ेहुएदहारकी कंवलरक्षा ही करता दहै उस हार के सुख वा उपयोग को नहीं जानतादहै, वैसे ही मनष्यको कुटुम्ब ओर धन का सुख नहीं होता है। उससे वाद्‌-विवादमें हारा हुभा मनुष्य दोबारा उसके सामने नहीं आता है ॥ ८ ॥ तुटनाः-कुटम्बे माहे: प्रभवति यदायस्य जनने । प्रटन्धे वित्तेरो स्वजनजनतः किंफल्मलम्‌ ॥ यथा सुक्ताहारं क्षितिपतिजनैर्पितमिमं। गे सूत्रायन्ते सततमभितोमकटगणाः ॥ जी वनाथ अथे- जिस मनष्य के जन्मसमये मंग धनभाव में हो उसे अपने वन्धु-बान्धवों से धन मिख्ने पर भी क्या लाभ हो सकता है, अपितु कुछ नदीं क्योकि जिस प्रकार राजपुरुषो से पिना गई मोतियों कीमाला को वानर साधारण सूत्र समञ्चकर गे से तोड़ फैकता है, उसी प्रकार वह भी उस धन का दुरुपयोग कर नष्ट करदेता हे। रिप्पणी-भद्नारायण ओर जीवनाथ को एकसाथ पटा जावे तो प्रतौत होतादैकि धनभाव का मोम नन्धु-बान्धवों को, कुटम्नियां को देता तो अवद्य है किन्तु इससे कोई ठाम विरोष नहीं होता क्योकि वैमनस्य का कांटा परस्पर चुभता रहता है-कुटम्नियों का सौदहा्रपूण व्यवहार नहीं होता-जातक भी बन्धुओं को युखपूणं जीवनयात्रा करने के लिए उनकी सहायता रुपए पेसे से नदीं करता-आखिर संसार तो धनपिपासु-खुखलिम्यु परस्पर सद्भाव काभूखाहे)। संसारम युखोपमोगके लिए धन की आवदयकता भारी मारा मे रहती है । स्रीसुख, पुत्रसुख, मित्रसुख, खहसुख-सरो-सम्बन्धियोँ से सुख तभी मिता है यदि कांचन सम्पत्ति खत रहे-इन सुखां की प्राप्ति के लिए धनभाव का मंग धनमभीदेतादै किन्ठणेसादहोते हुए भी, आयाससेवा निरायास से धनप्रापि होने पर मी सुख प्रापि नदीं होती, क्योकि जातक कृपणता का मारा धन का सदुपयोग दी नहीं करपाता । बैकों मे लाखों रुपयों का हिसाब- किताब तो होता है। परन्तु यदि जातक का रहन-सहन का अध्ययन किया जावे तो पाया जावेगा करि जातक कद्न्नभोजी है-मेडे-कुचैके कपड़ोंवाला दै सर्वथा दीन-हीन-दा मेँ जीवन व्यतीत कर रहा है। इस परिस्थिति मे भारी संख्या में रुपयों का संग्रह व्यर्थं नहींतोक्याहे, किसीकविंने टीक ही कहा दै-“योनात्मजे न च रुरौ न च बंधवे दीने दयांन कुरुतेन च भव्ये” । एेसे कृपण का जन्म संसार मे नितांत व्यथे हे। अतएव रणेस प्राणी कौ उपमा

१८५४ चमत्कारचिन्तामणि का तलनात्मक स्वाध्याय

उस बन्द्रसे दी गई है जिसके गले मे बहुत कीमती युद्धमोतियों की माला तो पड़ी है परन्तु उसके लिए निरुपयोगी ओौर व्यथं है क्योकि वह उसका उपयोग नदीं करता-गोर वञ्च समञ्चकर तोड़-फोड कर मोती मपरिपर विखेर देता है । “दानं भोगोनारः तिखोगतयो भमवन्तिषित्तस्य | योन ददाति न शक्ते तस्य वतीया गतिभंवति | उस कज॒स को यह व्यथं यभिनान अवद्य होता है कि उसका दैवी यक वेखंसः” है परन्तु किस काम? जव दान मौर उपमोगमें इस्तेमाक्में खाया नहींजातादे तो नाश ही एकमात्र परिणाम होता है-राजदण्ड-चौरभय, अदाट्ती मुकदमे आदि मे धननाद्च देखने म आता है | “शधन गे कटन्नःः आचायंवराहसिहिर । अथ–धनमावगत भौम हो तो जातक कुत्सित अन्नमोक्ता होता है आचाय धनके व्रिषय में मौन है| ““्धातुर्वादकृषि - क्रियाटनपरः कोपी कुजे वित्तगे || वैद्यनाथ अथ– धातु, वाद-विवाद, खेती, निव्यप्रवास, क्रोधी, ये द्वितीय स्थान के मंगर के फ है । घन के विषय मँ वै्नाथजी मौन है| “निधनः कुजनेवेरमाध्रितो निद॑यः कशनभाग धनोपगे ॥°› जयदेव अथे द्वितीय मगल होतो जातक निधन; दुष्टों का वैरी, निर्दयी निकृष्न्न भोजी होता है । वप्वसि विमुखः निर्विदययाथः कुजे कुजनाश्ितः” मंत्रेश्वर अथ-यदि द्वितौयमावमं मंगलदहोतोयातो चेहरा अच्छानदहो,या बोखने मं प्रवीण न हौ, विद्याहीन, धनहीनः; हो, कुत्सित भादमियों की नौकरी में रहे। धने कुजे धनेर्दहीनः क्रियादीनश्चजायते | दीघंसून्नी, सत्यवादी पुत्रवानपि मानवः ॥ काल्लीनाथ अथे-घनमावमें भौमहोतो जातक निर्धन, क्रिया कर्मे रुचिन रखनेवाला, विव से कामकरनेवाला, सच्यवक्ता; तथा पुत्रवान्‌ होता है | भअधनः कदशरनवुष्टः पुरषः विकृताननः धनस्थाने | कुजनाश्रयश्च रुधिरे भवति नरो विद्या रहितः |> कल्याणवर्मा अथं– द्वितीयस्थमौम हो तो जातक निधन, कदन्नथुक्‌, बुरे मुखवाला, नीच लोगो के साथ रहनेवाखा भौर मूखं होता हे । “अधनतां कुजनाश्रयतां तथा विमतितां कृपयातिविदहीनताम्‌ । तनुतो विदधाति बिरोधतां धननिकेतनगोऽवनिनंदनः |” दृण्डिराज अर्थ-धनमाव के मंगर मे जातक निधन; असजनाश्रित, दु्द्धिः निर्दय, भौर विरोध करनेवाला होता है | “शधनगतप्रथिवीजे धाठुवादी प्रवासी, परधनङकृतचित्तः चुतकर्ता सहिष्णुः | षिकरणसम्थः विक्रमेल्मचित्तः कदातनुखुखभागी मानवः सर्वदैव ॥>° मानसागर

पर जख्म होता हे ।

मंगरुफल १८५५

अथ-घनमाव के मंगर मे जातक धातुओं का व्यापारी, परदेशवासी दूसरों से धन छेनेवाखा, जुरी, सहिष्णु, खेती करनेवाल्मः उन्यमी, पतलदे तथा सदा सुखी रहता रै । “कृषिको विक्रयी भोगी प्रवास्यङ्ण वित्तवान्‌ । धाठुवादी मतेनाशोदूतकाराः कुजे धने |” गणं

शधनेभौमे धनहानिः प्रजायते । पीडादेहे च नेत्रे च मार्याबन्धुजनैः कलिः ॥” गगं

अथे-खेतिदहर, विक्रयकुराल, भोगी, प्रवासी, अरुणवर्ण, धनी, धातुं का व्यापारी, मूर्खं, ज॒ञाड़ी, शरीरपीड़ा-नेत्ररोगः खरी तथा सम्बन्धियों से कर्ह- ये फल द्वितीय मौमक है |

“घने क्ररखेटा मुखेवाथ नेत्रे तथा दक्षिणांसे तथा कर्णके वा ।

भवेद्‌ धातपातोऽथवावेत्रणे स्याद्‌ यदा सौम्यं न युक्तं धनं चेत्‌ ॥ जागेडवर

अर्थ–धनस्थान मे क्ररम्रह दो तथा सौप्यग्रहकी उस पर दृष्टिनदहो भौर नाही युति हो तो उसे मख, ओखः, दाहिना कन्धा, अथवा कोन इन भार्गो

^“स्वे धननाशम्‌’` पराह्ञार अथे–घनदहानि होती है । “धनहानिः द्वादशोऽन्दे धनस्थश्च महीसुतः |” हिल्लाजतक अथै–१२ व वष॑ मे धनहानि होती दै। धप्रपीडितमखग्‌ नवाग्दे स्वनाशम्‌ ॥” बृहदेयवनजातक अथे–९ वे वर्षं मे खुधिर विकार से मृव्युवुस्य कष्ट होता है । धअघनतां कुजनोश्रयतो तथा विमतितां कृपय।तिविद्यीनताम्‌ । तनुतां विदधातिं विरोधितां धननिकेतनगोऽवनिनन्दनः ॥२॥ महेशः भावाथेः- जिसके धनभाव मे ( दूसरे भाव में ) मङ्गल हो वह जातक निधन होता है। ओर यदह दु्टस्वमावके रोगों के आधित रहता दहै! यह दुबुंद्धि होता दै । यह दयादहीन अर्थात्‌ कूरस्वभाव का होता है। प्राय

` दूसरों से लड़ाद-सगड़ा करता रहता है ॥

यदि भवति मिरीखश्वव्मखाने बहोः सुत धनसुखदारेः वर्जितः श्यूरगः स्यात्‌ । नसनयमूतफ्छिः दीनरक्तिः वदद; खलजनसमनबुद्धिः मानवः कजंदारः ॥ २॥ खानखाना

भावाथे–यदि मङ्गल द्वितीय भाव मे हो तो जातक बेहोश, खी-पुत्र, धन भौर सुख से हीन; सदा वितित, कुशूप;, शक्तिदीन, निदंयी; दुष्ट के समान बुद्धिवाखा ओर कजंदार होता है ॥ २॥

यवनमत–पुत्र, स्री, धनरहित;, युद्धश्चरः चिन्तावुर, कुरूपः निदयः नित्य दयी छणगरस्त । गार्णै, घोडे-मेडं, गाडयिँ मादि के व्यापार मे धनहानिः पत्रहानि-विकलवयव, बहूरोगी, होना-ये इस भङ्गर के फर ईदै–घोरुष,

क =

१५६ चम र्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

पाश्चात्यमत–वि्डिग के काम; मरीनों की सामग्री, पद्धओं का व्यापार, खेती, ख्कड़ी तथा कोयले का व्यापार, वेद्यक; नाविक, इन व्यवसायों में घनप्रापि होती हे । इस पर श्युभग्रह की दृष्टि हो, वा प्रहवल्वान हो तो अच्छा धन लाम होता ई । नीषग्रह मे, वा अन्यभ सम्बन्ध म हो तो भयंकर धनदहानि, मन को दुःख, ओौर रोगों से पीडा, ये फल मिलते है | श्रगुसूत्न-विद्याहीनः, खभवान्‌ । षष्ठाधिपेन युतः तिष्ठति चेत्‌ नेत्रवैपरीव्यं भवति । श्म इष्टे परिहारः । स्वोचे स्वक्षेत्रे विद्यावान्‌, नेवरविलखासः। तच पापयुतक्षेत्रे पापे नेत्ररोगः । कुदन्तः । वरपवहिचोरात्‌ भयम्‌ । विमवक्षयः | कामिनी कष्टं मवति | तत्र पापयुते पापक्षेत्रे, पापदृष्टे कामिनीहीनः। अथे–इसे विद्रत्ता नदीं होती; धनप्राति होती है। इसके साथ चरे कास्वामोहोतो नेवरोग होता है । इस पर श्युभग्रहकीद्ष्टिहो तो नेत्र ठीक रहते है । यह मकर वा वरधिकमेंहोतो ओंखोंके रोग, दोतोंके रोग, राजा, अचरि तथा चोरो से भयः धनहानि, ्लीकष्ट ये फल मिलते है । इसी योग मेँ द्वितीय स्थान का स्वामी मी यदि पापग्रह होतो सख्रीप्राि नहीं हेती | विचार-ओौर अचुभव-निङृष्टभोजनसंवष्टि पुरुषरारि’ का फर है । भोगी, प्रवासी; धनवक्ता होना, ये फठ खीराशियों मेँ मिलते ह । जीवनाय, काशीनाथ आदि के दिए हुए फठ खरीराशियों मे मिलेगें । पुत्रवान्‌ होना? यदह फल पुरुष रारि का है-पुत्रहीन होना, यह खीराधि का फल है । खेती, पञ्च, विल्डिङ्ग के कामों से लम होना, इस फठ का अनुभव मिथुन, तला, कुम्भ रारिमे होगी । मशीनरी-लकड़ी-कोयला व्यवसाय से लाम का होना, यह फल मेष, सिंह भौर धनु का हे | नेरोग्य-वैयक से लम-यह फल करक, वृश्चिक मीन राशि का है। दवितीय मङ्गल यदि मेष, सिंहः धनु मं हो तो एकदम धनप्रासि की इच्छा होती है । अत एव लाटरी, सद्ा-जू्ा आदि की ओर रुचि होती है । पर- स्रियो से धनलाम होता हे; परन्वु यद धन इसी व्यसन मे नष्ट दहो जाता हे । द्वितीय भौम यदि वक्रीहोता ह भौर मेष, कक, सिह-मीन रुन होता है तो मिली हई संपत्ति न्ट हो जाती है, यर नई की प्राति नद्य होती । इस योग परे मगल वक्री न होतो थोडा हूत धन किसी तरह मिरु जा ता है-इस मग की यही विरोषतादहैकियातो एकदम बहुत धन मिल्ेगा। वा मिलेगा ही नदीं । यह मंगल स्वराशि मं वा अग्निरारिमेंदहोतो पत्नी कीमूल्यु होती है। एसा युवावस्था मे होता हे । वचो के दि, घर-यहस्थौ चलने के दिए दूसरा व्याह करना पड़ता है । बषरःकन्या-मकर मे मौम हो तो स्त्री मरती तो नदी किन्तु अकारण कुछ कार पति-पत्नी विभक्त से रहते ह । मिथुन, वला, कुभमे हो तो धन का संग्रह होता है-खनं नहीं होता है डाक्टर को ओौर वकीलों को सच्छा धन मिल्ता हे (- यदह मंगल अ्योतिषियों के लि नेष्टहै। इनके कटे हए बुरे फट जस्दी मिग, श्चुभ फलों का अनुभव शीघ नहीं होगा |

मगर १५७

टिप्पणी-मेषादि राशिस्थं भौमफल–

मेष-मेष मेँ मंगल हो तो जातक प्रतापी, सत्यवक्ता, वीर, राजा, रणप्रिय, ताहसी, सेनापति, ्रामपति वा जनसमूह में मुख्य, हययुक्त, दानी, बहुत गाः बकरी, मेड ओौर अन्नसंग्रह करनेवाला, बहुत खियों का प्रेमी होता हे ॥ १॥

बृष–च्रष मे मगल दहा तो पतित्रताके व्रत को नष्ट करनेवाला, बहुभक्षी अस्पध्रनी, पुत्रवान्‌, देषी; वहतो का पोषक, अविश्वस्त, उद्धतसरूप से क्रीडा करनेवाटा, अपरियवक्ता, सङ्धीतज्ञ, पापी, बन्धुविरोधी, कुलकल्ड्की होता हे ॥२॥

मिथुन-मिथुनमे भौम हो तो मनोहर, सहिष्णुःबहुज्ञ, काव्य तथा शिव्पकला निपुण, प्रवासप्रिय, धर्मात्मा; मतिमान्‌; पुत्र-मिच्र-हितकारक, बहुत से कामों में तत्पर होता है ।॥३॥

कक–ककं मे मंगल होतो जातक दूसरे के घर म रहनेवालर, विकलता तथारोग से पीडित, खेतीवाला तथा धनी; बचपन मे राजायं जेसा उत्तम भोजन ओर उत्तम वस्नो को चाहनेवाला, परान्नभोजी, जलाशय से धनी, वोह वेदना से पीडित, अथवा ब्रुढापेमे वेदनां से पीड़ित; स्वमावमं मदु तथा सवभाव से दीन होतादहै॥ ४॥

सिह- सिंह मे भौम हो तो असहनशीक, प्रतापी, वीर, पराए धन ओर सन्तान को अपनानेवाला, वनवासी, गोसेवक, मांसमक्षणरुचि. जिसके पंख खी मरगई हो, व्याल, सर्प-भौर मृग को मारनेवाला, पुच्रहीन-धमंफल्दीन, बली कायं करने के किए सदैव उद्यत, देह में दृट्‌ होता है ॥ “^ ॥

कन्या–कन्या मेँ मगल हो तो जातक बहुत खं ओर थोडे पराक्रमवाला, विद्वान्‌, दटृपार्धवाला, शत्नुओं से बहुत डरनेवाख, श्रति-स्मृतिप्रतिपांदेत धमं को माननेवाला, रित्पक्ञ, स्नान में षन्दनलेपन मे प्रेम रखनेवाला;, मनोहर रारीर होता है ॥६॥ -

तुखा-ठलखा में मौम होने से जातक भ्रमणरील, कुस्सित व्यापार सम्बन्धी बाणी बोलनेवाला, अपनी बड़ाई करनेवाला; सन्दर-अङ्गहीन, परिवार थोडा युद्ध का शौकीन, दूसरे के भाग्य से जीनेवाखा, स््ी-गर्जन ओर मित्रंका प्यारा, जिसकी पदहिखी खरीमृतदहो ग्र हो, राराब वेषचनेवाला ओौर वेद्या के सम्पक॑ं से उपार्नित धन को नष्ट करनेवाला होता है॥ ७॥

वृध्िक-इधचिकका भौमदहो तो व्यापार मे सासक्त, चोय का सरदार कार्थनिपुण; युद्ध का उत्सुक, अतिपापी, अतिखपराधी, वैरियोंके साथ शठ, ्रोद-हिसा मे कुलुद्धिवाल, चग भूमिस्वामीः पुत्रवान्‌ तथा घ्री का मालिकः, विष, थिः शख्त्रण से पीडित होता है ॥ ८ ॥

धनु–धनुरारि में भोम होतो भारी चोयो के ल्ग जाने से दुज्छ देहवाला; कटोरवाणीवाला, शठ, पराधीन, रथ, गज पर सवा र होकर तथा पेद युद्ध करने- दाखा; रथ पर से बाण चलानेवाख; बहुत परिभ्रम से सुखी, क्रोध से धन ओर सुख को नष्ट करनेवाला, गरुजन-देषी होता दै ॥ ९ ॥

१५८ चमत्कछारचिन्तामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

मकर-मकर मं मंगल हो तो धान्य; धन संग्रही, उख-भोग-युक्त, स्वस्थ, श्रष्ठमति-विख्यात, राना का सेनपति; सुशीखा स्री कां स्वामी; रणविजेता, स्वदेरावासौ, स्वतंत्र, रक्षक, सुशील, वहत उपप्वारों मे प्रेम रखनेवाला होता है ॥ १०॥

कुम्भ–कुम्भमें मौमदहोतो नम्रता तथा पविता से हीन, बूटा दीखने- वाखा, मरणकाठ मे जिसकी दुगति हो-मत्सरता,+असूचा, मिथ्याभाषण से धन को नष्ट करनेवाला, रोमदा शरीर, जा में घन नष्ट करनेवाखा; मेला-कुचेडा रहनेवाला, दुःखी, मपायी ओर भाग्यहीन होता है ॥ १: ॥

मीन- मीन में मंगल हो तो रोगी, अत्पपुत्र; प्रवासी; स्ववन्धु-पराजित, तथा अपमानितः कपट तथा वंचनां (ठगी) के कारण धन को नष्ट करनेवाला, विषादयुक्त कुटिट-तीक्याशोकवाला, गुखजनों यौर ब्राह्यणो का अनादर करनेवाला; निदंयी, अभीष्ट वस्त॒ काज्ञाता, अपनी प्रदंसा से प्रसन्न होनेवाला, अन्तमें ख्याति प्राप्त करनेवाला होता है ॥ १२॥

मङ्ग पर सूयोदि ग्रहों की टष्टि-

मेष-स्वरारिस्थ मगर पर रवि की दष्ट से-घन, शरी, पुत्र से युक्त. राजमन्त्री वा न्यायाधीदा, वा विख्यात राजा होता दै। चन्द्र की ष्टि से- मात्रहीन, श्चतदेद-स्वजनद्ेषी, मित्रहीन, ईर्प्यावान्‌ ओौर कन्या सन्तानवाला होता । बुध कौ दृष्टि से-परधन लेने मे चतर, मिथ्याभाषी, कामी, द्वेषी, ओर वेद्याप्रिय होता है| गरुकी दष्ट से–पण्डित, कोमल वाक्य, सुन्दर, माद-पिवृ-मक्त) घनवान्‌ , अनुपम राजा होतादै। शुक्र कीदष्टिसे-्री के निमित्त बन्धनमागी ओर धन को नष्ट करनेवालादहोतादै। निकी दष्ट से–वल्हीन होने परमभी चोर को पकड़ने में चतुग, परस्री का पोषण करनेवाला होता है |

वरृष–दक्र रारिस्थ मगर पररविकी टष्टिसे-स्रीसे द्वेष करपर्वतर्मे विचरनेवाखा, बहू शत्रवान्‌ , प्रचण्डवेषधारी ओर घर्यवान्‌ होता है । चन्द्रमा की दष्ट से-माव्रद्ेषी, कुटिल, बहुत पत्नीवाला, स््रीप्रिय, सं्रामभीरु होता हे | उुध की दृष्टि से–कटषहप्रिय, वाचाल, कोमल्देह, थोडे पुत्र, थोडे धन- वाखा; दाल्वेत्ता होता है । गद कौ दष्ट से-गान-वाद्य जाननेवाला, माग्यवान्‌ बन्धुप्रिय; स्वच्छ स्वमावदहोतादहै। शुक्र कीद्षटि से राजमन्त्री वा राजपिय, सेनापति-विख्यात ओर सुखी होता हे! गनि की दृष्टि से-मुखी, विख्यात, धनी? मित्र तथा स्वजनयुक्त विद्वान्‌, नगर; ग्राम; वा जनसमूह्‌ का नायक होता दहै! |

मिथुन-बुधरारिस्थ भौम पर रवि क दृष्टि से–विद्या-घुन-गादि-युक्त, वन, पवत, दुगं का प्रेमी, महावटी होता है। चन्द्रमा की दष्टि से-सुखी, धनी, मनोहरः, कन्यायृह्‌ का रश्चक, स्रीजनयुक्तः राजा का गृहरक्षक होता है । बुध कौ दृष्टि से–टेखः काव्य-गणित मे निपुण, वक्ता, मिथ्याप्रियभाषी, राजदूत

मंगखफरु १९१९

रौर शसदिष्णु होता है। गुर की दृष्टि से–राजपुरुष बा राजदूत होकर विदेश जानेवाल्ण, सर्व॑कार्थकुशल ओर नेता होता दै। श्युक्रकी दृष्टि सेली कां सेवक, धनी, सुद्र, अन्न वस्र का भोगी होता है। दानि की ष्टि से- खान, पवत ओर दुगं मे प्रेमी, खेती करनेवाला, दुःखी-शूर, मलिन गौर धनद्यीन होता दै ।

कके–ककराशिस्थ भौमपर रवि की दृष्टि से–पित्त रोग से पीडित, तेजस्वी; न्यायाधीश भौर धीर पुरुष होता है । चन्द्र की इष्टि से—बहुरोग पीडित, नीष्वाचार, कुरूप भौर शोकयुक्त होता दहै । बुधं की रष्टि से- मलिन, पापी; ्ुदरकुडम्नवाखा, स्वजन बहिष्कृत ओर निक्ज होता है। ग॒रुकौदृषटिसे- विख्यात, राजमन्नी, बिद्रान्‌ , दानी; धन्य किन्तु भोगीन होता है । श॒क्र की दष्टि से-सख्री सङ्ग से उद्धिः उन्दी के दोषों से अपमानित तथा धनदीन होताडहै। शनि की दृष्टि से-जल्यात्रा से धनराम करनेवाला, राजतस्य, उत्तम चेष्टावालाः मनोहर होता हे ।

सिंह-सिदहस्थ मंगल पर रविकी दष्ट हो तो–विनीतजन हितकारी मित्र ओर परिजनों से युक्त, गोशाला, वन, पव॑त में प्रेम रखनेवाला, दोता है । न्द्र की दष्ट से–माता का अभक्त, बुद्धिमान्‌, कठोरदेह;, विशाल्कीर्तिः ख्री द्वारा धन लभ करनेवालादहोताहै। बुध की दृष्टि से-चिव्पक्ञ, लोभी; कान्यकला निपुण तथा कुटिलस्वमाव होता है । गुरुकी दृष्टि से–राजाका दरबारी, विन्या मे आचायै, श्रद्धबुद्धि, सेनापति होता है । शुक्र की दष्टि से- खी सुखयुक्त; खरीपरिय; सदा युवा, सानन्द होता है। रानि की दष्ट से-नुद जेता आकार, निधन; परण्ह निवासी ओर दुखी होता है ।

` गुरुराशि ८ धनु-मीन ) स्थ मङ्गर पर रवि की दृष्टि से–रोकपूञ्य,

सुन्द्र, बन-परवंत-दुगं मे वास करने वाखा क्रूर होता है ।

न्द्रटृष्टि से–विंकल, कलद-प्रिय, पंडित, राजा का विरोधी पुरुष होता है ।

बुध की दृष्टि से– मेधावी, का्यकुशक, रिस्पज्ञ, विद्वान्‌ होता है । ` श्र की दृष्टि से-खी तथा खुख से हीनः शत्नुभं से अजेय, धनी, व्यायाम करने बाला होता है ।

शुक की दृष्टि से-खरीपरि, चित्रज्ञ, आभूषणमागी, उदार, विषयसुख भोगी ओौर सुन्दर होता है । |

शनि फी दृष्टि से–कुत्वितदेहवाला; संग्रामप्रिय, पापी, घुमकड़, यख- दीन, परधर्मरत द्योता है । |

दानिराशि ( मकर-कुम्भ ) स्थ मङ्ख पर रवि की टष्टि से- कृष्ण- ` वणँ देह; सूर, बहुखीवान्‌ पुत्र तथा धन-युक्त, स्वभाव अतितीतर होता है । चन्द्रमा की दृष्टि से–चञ्चल, मात्रेषी; आभूषणमागी, उदार, चल मैत्री वाखा ओर धनी होता है ।

बुध की टष्टि से-मंदगामी, निर्धन, कार्यो मेः सफ़ल, निर्बल, कपटी अधर्म होता है ।

१६० चमत्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

| गुरु कीटृष्टि से-खुन्दर, राजाओंके गुणों से युक्त, कार्यो को आरम्भ | कर अन्त में सफक बनाने वाला, दीघरायु, जन्धुओं सै युक्त होता है । डुक की टृष्टि से-विविध-मोग-मोगी, धनाव्य, खरीपोषक, कल्हपिय, होता हे । दानि की दृष्टि से–राजा-बहुधनी, ज्रीद्रेषी वदू प्रजावाला, पंडित किन्तु सुखदहीन ओर रणद्युर होता हे । | कुतो बाहुवीयं कुतो बाहुलक्ष्मीस्तृतोयो न चेन्‌ भङ्गो मानवानाम्‌ । | सहोत्थव्यथा भण्यते केन तेषां तपश्चर्यया चोपहास्यः कथं स्यात्‌ ।३॥ | अन्वयः– मङ्गलः व्रृतीया न चेत्‌ ( तर्हिं ) मानवानां बाहुवौयं कुतः, बाहू ल्मी (वा) कुतः, तेषां सहोत्यव्यथा केन भण्यते, तपश्चयंया उपहास्यः कथ स्यात्‌ ॥ ३॥ सं टी बाहुषीयं भुजवलं कुतः, कुतो बाहुलक्षमीः स्वभुजोपार्जितं द्रव्य, सहोत्थव्यथा भ्रात्रपीडा केन भण्यते कथ्यते-न केनापीत्यर्थः । च पुनः तपश्च- यया उपहास्य जनासः कथं तेषां स्याद्‌ येषां मानवानां व्रतीयो मङ्गलो न चेत्‌ सह जस्थे भौमे एव एतत्‌ फं स्यादित्याशयः ॥ ३ ॥ अथे–जिस मनुष्य के जन्मल्यसरे तीसरे स्थानमें मङ्गल्नदहो उसे जवर करो होगा, भौर बाहुवर से सम्पादित लक्ष्मी उसे क्रय होगी, उसे सगेमाइयां कौ पीडा कहौ होगी ओर तपश्चर्या ते टोकोपह।स उसका कँ होगा । अर्थात्‌ तीसरे स्थान मेँ मङ्गल होने से दी वाहुवर, बाहुवरोपार्जितल्षमी, भ्रात्रपीडा ओौर तपश्चर्या मं लोकदहास्यता होती दै ॥ ३ ॥ तुखना–“यदागोचापुत्रे प्रभवति सहोव्ये तनुभ्तां बलं बाह्मोः पूर्णं निजभरुजवटेनैव सदने । स्थिरा विष्णोः कान्ता ठसति, सहजे कष्टमधिकं तपश्चर्या वर्या मवति च सपर्या विधिरपि ॥ जीवनाथ अथं–जिस मनुष्य के जन्मच्य से तीसरे मङ्गल होता दहै तो वह अपने पूणं मुजवबल से बल्वान्‌ होता दै, ओर वह अपने भुजवटसे ही विष्णु प्रिया लक्ष्मी को अपने घरमं स्थायीसूपसे स्थानदेतादहै। भाई को कष्ट अधिक होता दै। वह विधिपूर्वकं तपश्वर्या-मगवदाराघन, अनुषएठानादिक धार्मिक कार्य भी करता है ।

(मति-विक्रमवान्‌? । आचायदराहमिहिर। अथ– तृतीयस्य मङ्गल से जातक मतिमान्‌ तथा पराक्रमी होता है। ““खल्यातोऽपारपराक्रमः शठमतिंः दुधिक्ययाते कुजे ।› वेद्नाथ अथं- मङ्गल तीसरे भावमें होतो अपार पराक्रमी ओर शटदुद्धि होता है । “सुगुण धनवान्‌ दूरोऽधृष्यः सुखी, व्यनुलोऽनुजे ||” संदेभ्वर अ्थ–तरतीय में मङ्गल्दहोतो गुणी, धनी, सुखी ओौर शूर होता है। इसे कोई दुसरा दवा नदी सकता, किन्त छोटे मादो का सुख नदी होता ।

थ. मंगरफल १६१

““भूपग्रसादोत्तमसौख्यमुचेरुदारता वारु पराक्रमश्च । धनानि च भ्रातर सुखो चितत्वं मवेन्नराणां सदहजमदीजे ॥ ३॥ महेशः मावार्थं :–यदि वृतीयभावमे भौमदहोतो जातक महीपति कौ कपा कां पात्र बनता दै इसे उत्तम सख भिता है । जातक उदार तथा अच्छा पराक्रमी होता है। यह धनी होता है किन्तु इसे भ्रातृसुख नदीं मिक्ता हे ॥ ३ ॥ ““जरयुतुरजवादिरंलतंबूकनातेः सहजविमतिरोगेः संयुतोऽसयुतश्च । यदि भवति मिरीखः खूबरो वा मुखेदट्वजर फिवर संज्ञः स्याद्‌ विरादणदेन ॥ २॥ खानखान! भावार्थं :–यदि मङ्ख वृतीयभावमे होतो जातक धन) ऊट, जवादहिरात रल, तंबू कनात अटि से युक्त रहता रै 1. ओर रोग आदि से रहित होता हे । पराक्रमी, खूव्रसूरत, आओौर धन की आमदनी करने बाल होता है ॥ ३॥ ¢“नृपक्रुपः सुख-वित्त-पराक्रमी भवयुतोऽनुजद्‌दुःखयुतख्िगे ।* जयदेव अभथे- त्रतीय मङ्गल दहो तो राजा की कृपा बनी रहती ईै– जातक सुखवान्‌ धनवान्‌ , पराक्रमवान्‌ तथा रेर्यवान्‌ होता है । किन्तु उसे छोटे मादे कौ मृव्युसे दुख होता हे। “तृतीये भूसुते जातः प्रतापीरील संयुतः । | रणेशूरो राजमान्यो विख्यातश्च प्रजायते ॥ 2 काज्ञीनाय अर्थ- ततीय में मङ्गल हो तो जातक प्रतापी, सुशक, रणश्चर; राजमान्य- तथा संसार मे प्रसिद्ध होता हे। “सूरो भवव्यघ्ष्यो ्रात्रवियुक्तो मुदान्वितः पुरुषः । ॥ भू पुत्रे - सहजस्थे समस्तगुणभाजनो ख्यातः ॥> कल्पाणवर्मा अर्थ- तृतीय भागवत मङ्गल हो तो श्र, अजेय, भ्रात्रहीन, हृष्ट, सवेगुण- युक्त, ओर विख्यात होता हे । | “सहज भवनसंस्थे भूमिजेभ्रावरहंता रतनु सुखभागी वंगभौमो विलासी ।

(क)

धनसुख नरदहीनो नीचपापारिगेदे वसति सकल्पूरणो मन्दिरे कुत्सितेच ॥°

भानसागर

अथै- तृतीयम मङ्गल होतो ्रावृहीन ओौर कृशदेह होता दै। यदि

उचचमेदहोतो सुखी, विलासी होता है। यदि नीच, पापग्रह वा रात्रुराशि मं

होतो जातक सर्वथा भरपूर होता हुभा भी धनदहीन, सुखदीन-जनदीन यौर उत्तम गृहहीन होता है | अर्थात्‌ उसके सभी सुखनष्ट हो जाते रै । (भूपग्रसादोत्तम सौख्यमुचचै रुदारता चारूपराक्रमश्च ।

धनानि च भ्रात्रसुखो जितत्वं भवेन्नराणां सहजे महीजे ॥* दुण्डिराज

अथै–तरतीयभावमे मङ्गल होतो राजा की प्रसन्नता से उत्तम सुख

मिलता है। जातक उदार, पराक्रमी भौर धनी होता हे; किन्तु माद के सुख

से वंचित रहता है । (“भगिन्यौ सुभगे दे च क्रूरेण निधनं गते । कुमृव्युना भ्रातरौ दौ मृतौ शस्त्ादिभिस्तथा ॥* गग

१६२ षवमस्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

अथ- दो सुंदर बिन दोती है, किन्तु उनकी मृ्युदोतीदरै। दो भादयों कामी शस््रादिके द्वारा निधन होता है । ““पुवीरथै खचरे त्रतीय भवने दे च पूणैऽथवा। पश्रात्‌ पुत्रसमुद्‌भवो निगदितः पूर्वं हि कन्योद्‌भवः | सौरिकषेत्र विनष्ट गमं करणं विख्यात मवीदवरं भौमे | रौनक अ्थ– तृतीय स्थान मेँ पापग्रह हो मंगल हो, अथवा उसकी पूरणं दृष्टिहो तो पदिटे कन्या होती है । फिर पुत्र होता दै। यद शनि की रारिमे होतो गर्भ॑पात होता है । यदह प्रसिद्ध मत्री होता है, ।

“धविक्रमे भ्राव्रमरणे धन लाभः सुखंयशः ॥ परहार अथे-माई की मूल्यु, धन, सुख, तथा कीर्ति, ये फल मंगल के है । “धसग्रज प्रष्टजं हंति सहजस्थोधरासुतः | पराह्लर

अ्थ- बडे ओर छोटे भाई के छिएः त्रतीय मौम मारक होता है ।

“कुजो वा तदास्थिमगं विषजंभयं च करोति, दादञ्वलनाच चिन्हम्‌   '”पुःजराज

अ्थ–दड़ी टूटना, विषवाधा, जलने से दाग रहनाः । ये फट मंगल के है ।

““कथारतः यब्देऽनुज क्षितिसुतोऽनुजमुचविदवे 1? ब्रृहद्यवनजातक अथं- युके १३ वप्रं छोटे माई को तकलीफ होती दै |

१ शयोदरो वंुसौख्यं तृतीयः कुरुतेङजः । हिल्लाजतकः अथे– ५२ वै वपं वंधुयुख मिल्ता है ।

“ध्यह दचिद्रीहोताहै। इस मंगल के साथराहुहोतो जातक पनी स्री कात्याग करके परस्त्री से व्यभिचार करता हे । साहसी; शरीर, शत्रु के लिए निष्टुरः तथा संवंधिर्योंकीब्द्धि करनेवाला होता है। गोपालरत्नाकर

पाश्चात्यमत–गाड़ी, रेल, वाहन, इनसे मय होता है | पडोसियों से तथा संवधियां से गडा होता है | किसी. दस्तावेज पर दस्तखत करने से, वा गवाही देने से भयंकर आपत्ति आती ह । स्वभाव आग्रही भौर क्रोधी होता दै । बुद्धिमान्‌ किन्तु हल्के हृदय का होता दै। मकर के सिवाय अन्य रारिर्यो मे यह मंग हो तो मस्तक शूल, वा चित्तभ्रमो सकता है । अश्चभयोग मे मंगल होने से संवधिर्यां से वहत तकलीफ; प्रवास मं तकलीफ; गौर दारिद्रय होते है |

भ्रगुसूत्र- स्वस्त्री व्यभिचारिणी । मदे न दोषः । अनुजदीनः । द्रव्या लाभः । राहुकेवयुते वेदयासंगमः । भ्रावरदेषी; क्टेशयुतः सुभगः । अत्पसहोदरः । पापयुते पापवौक्षणेन भ्राव्रनाशः । उचचेसवक्षेतर यमयते भ्रातादीर्घायुः घैर्य॑विक्रमवान्‌। युद्धे यरः । पापयुते मित्रक्षेत्रे धृतिमान्‌ |

अथ–ख्नसे तीषरे मंगलदहोतो जातक की अपनी स्री व्यभिचारिणी होती हे । मगल श्चमग्रहच््ादोतो यह अनिष्टफल नहीं होता| छोया भाई नही होता निधनता होती है । मंगल ओर राहु एकत्र हों तो जातक वेदयागामी होता दै । माहईसे कपट करता है-दुःखीहोताहै। सुन्दर होता है। भाई

मगरूफर १६३

थोडे होते द । पापग्रहयुक्तं मंगलटहोवा पापग्रह इसे देखतेदहोंतो भात्रनार होता है | मंगर अपनी उच्राशि (भकर) मेदो; वा मेष, बिक (स्वरृह) में हो तो भाई दीर्घायु होता है । गंभोर ओर प्रतापवान्‌ होता है। संग्राममे द्यूर होता है | मंगल के साथ पापग्रहवैठे हों भौर मेगल मित्रक्षे्रमे वैठाहोतो जातक धेर्यवान्‌ होता है |

विचार ओर अललभव–चन्धुनाशः यह अञ्चुम फल प्रत्येक अ्रन्थकार ने कहा है–यह अश्भ फल सख्रीरारि का है । पयुख न होना यह अञ्युम फल पुरुषराशि का है । ग्ग-शौनक आदि का फलदेश-पुरुषराशियों का है । इस विष्य को स्पष्ट करनेवाला शशोक-

““्रातरदो खरीम्रदक्षस्थो भ्रात्रदौ पुप्रहक्षगो | सोदरेरकुजौ स्यातां भ्राव्रस्वससुखप्रदौ ॥

अथ- मंगर ््ीग्रह कौ राशिमे होतो बन्घुओं का सुख मिरूता है । पुरुषग्रह की राशि में तो बहनों का सुख मिखता हे ।

तृतीय मंग पुरुषराशिमेंदहोतोमाताकीमृल्यु होती है-सौतेटी माता आती दहै। मकर को छोड़कर अन्य स्रीराशिमेंदहोतो बड़े भौर छोटे भाद जीवित रहते द । पुरुषरारिमेंदोतो छोय भाई बिल्कुल नहीं होता । बहिन होती दै । अथवा गर्भाघात होता रहै। छोरी बहिन के बाद छोटा भाई होतो जीवित रह सकता है । भाई के साथ वैमनस्य रहता है । बय्वारा की परिसिति वन जाती हे किन्तु अदालत तक नोौबत नहीं आती । पुरुषरारि मं मंगल दहो तो रगडा अदाल्तमें जाता दहै वाद मं बयवारा हो जाता हे ।

मंगट- मेष वृध्चिकया मकरमं होतो जीवन अस्थिर रहता है| स्री राशि मेदो तो साधारणतः जातक खीर्थी ओौर धूतं होता है । यदा भूयुतः संभवेत्तयेभावे तदा कि प्रहाः सानुकूटा जनानाम्‌ । सुद्‌ बगेसोख्यंनकि च्छत्‌ विचिन्त्यं कृपावखभूमीः ठभेद्‌भूमिपाटात्‌।४।।

अन्वय :–भूसुतः यदा ८ यस्य ) तुयभावे संभवेत्‌ तदा जनानां सानुकूलाः ग्रहाः किम्‌ › ( तस्य ) सु्टद्वगं सौख्यं किञ्चित्‌ न विचिन्त्यम्‌, ( सः ) भूमि पाटात्‌ कृपावस्रभूमीः ्मेत्‌ ॥ ४ ॥

सं टी <-यदा भूसुतः भौमः व॒यंभावे चतुथ॑स्थाने संभवेत्‌ तदाजानानांग्रहाः सानुकरूलः श्चमफल्दाः किं किंतेन इत्यथः । तस्मात्‌ स॒दद्वगं सौख्यं वंघु-मित्ररह- माघ्रादि जनितं सुखं न किंचित्‌ विचिन्त्य, यथा भूमिपालात्‌ राज्ञः सकारात्‌ करेपा च दया च वस्रं च प्रसादं भूमिश्च ग्रामादिः ताः कृपावस्नभूमीः ल्मेत्‌ ॥ ४॥

अथ- जिस मनुष्य के जन्मल््मसे चौये सानम मंगल हो उसे ओर ग्रह अनुक्रूल होने से भी क्या होगा, अर्थात्‌ उनकी अनुकूलता चौये मंगल के आगे व्यर्थ होती दै। उसे मित्रवर्गो से कुछभी सुख नदींहोगा। राजासे सम्मान भौर वख तथा भूमि का लाम उसे अव्य होता है ॥ ४ ॥

९१६७ चमत्कारचिन्तामणि का तुख्नात्मक स्वाध्याय

तुरखना–चठथं भूपुत्रे भवतिजनने यस्य॒ स्वलाः किमन्ये रन्याद्याः सततमनुकूलास्तन॒ग्तः। सुदटद्वगात्‌ सौख्यं प्रभवति न किंचिन्‌ निजग्रहात्‌ रपारचोः श्चोणीनरपति कृपा वस्र पटली ॥ जीवनाय अ५–जिसके जन्मल्य से चतुथ॑भावमें मंगल होता है उस जातक की जन्मकुण्डली में सूयं आदि आठ ग्रह वलवान्‌ होकर विद्यमान्‌ होभी तो वे इक वा अकेटे-अकेठे कोड श्युभ फठ नदीं दे सकते-उनका सामथ्य॑-उनकी शभ फल दातृत्व शक्ति-सभी कुक व्यथं हो जाता है-ओौर मंगल का नाशकारी सामथ्यं सवमूधन्य तथा सवंशिरोमणि होकर विराजमान रहता है । जातक को अपने मित्र वगं से तथा अपने धर के ठोगो.से भी सगे संवंधियोसे भी किसी प्रकार का सुख प्राप्त नहीं होता । ग्रओं से भय की प्रापि अवद्य होती है) चतुथभावस्थ भौमका एक श्चुभफल अवश्य होता है-जातक को राजा की करपास्े धनी श्रेष्ठी आदि धनाब्य व्यक्तियों की कृपा से बखर आदि का खाभ अवद्य होता है। दुःखं सुद्‌ वादनतः प्रवासः कलेवरे रुग्बरताऽबरत्वम्‌ । प्रसूतिकाठे किर मंगलाख्ये रसातटस्ये फलमुक्तमार्येः ॥ ढं डिराज अ्थ–जिसके जन्मलम से चवुथं भावमें मंगल वैठता दै उसे मित्रसे मी दुःख, वाहनसे भी दुख होता दै अर्थात्‌ सुखदायक भी दुःखदाता हो जाते द । परदेश में निवास होता है-्रल्वान्‌ होकर शरीर पर रोग टूट पड़ते है ओर शरीर मं भारी निवता होती दै–सहनराक्ति का अमाव होता रहै। ये अद्युभ फट चतुथं मङ्गल के ह । बन्धुपरिच्छद्रदितो भवति चवुथंञथ वाहन विहीनः | अतिदुःखैः संतप्तः परि्हवासी कुजे पुरुषः ॥ कल्याणवर्मा अ्थ–चवुधंभावगत मङ्गल होने से निम्नटिखित अद्यभ फर प्राप्त होते हे बन्धु नहीं होते, खाने के छिए, अन्न ओर पहिनने के लिए, व्र नीं रहते, सवारी नहीं मिक्ती, सवप्रकार का दुःख चारों ओरसे आकर चेर ठेता है-रहने के छिए अपना धर मी नदीं होता । चठुधैभौम तो एक प्रकार से मूर्तिमती विपत्ति ही है-यही कहना ठीक होगा । जडमतिरतिदीनोवंधुसंस्ये च भौमे न मवति सखमभागी बन्धुदीनश्च दुःखी । भ्रमति सकठ्देरो नीचसेवानुरक्तः परधन-परनारी छन्धचित्तः सदैव ॥ मानक्षागर अ्थ–चतुर्थभावस्थ मंगल होने से जातकः की वुद्धि पर पर्दा पड़ जाता है अर्थात्‌ विचार बुद्धि नहीं रहती, दीन सौर बन्धुहीन होता है। खख होता ही नदही-दुःख अवदय होता है-देश-विदेश मारा-मारा फिरता है, कहीं पर मी स्थिरता ओर वित्तशान्ति नहीं मिल्ती-भारी पतन दहो जाता है, नीव सेवा अर्थात्‌ असेव्यसेवा करनी पड़ती है–इस पतन की सीमा यहीं तक नही-दूसरे के धन की ओर, दूसरे की छरी की ओर चिम्त खालायित रहता है ।

मंगरूफर १६८

चठथं सूखते कृष्णः पित्ताधिक्योऽरि निर्जितः । ॥ वरथाटनोदहीनपुत्रो महाकामी च जायते ॥ काञ्चीनाथ अथे–चुथमाव में मङ्ग होने से जातक का वर्णं काला होता है- रारीर मं पित्त का आधिक्य होता है । वैरी चारों ओर से चट्‌ आते है । व्यर्थ के कामों मे इधर-उधर भटकना पड़ता रै- पुत्र नहीं होता, जातक महा- कामी होता है।

„ ˆ खद्धदि विच॒हन्‌ मात्रक्षोणी-सुलाख्य वाहनः ॥» मंतरेश्वर अथे–यदि चतुथ में ङ्गक हो तो जातक मातृहीन, मिव्रहीन, सुखहीन- कषोणी-भूमिदीन तथा यहहीन तथा वाहनदहीन होता है। कहने का ताद्य यह हे कि चतुथमाव से जिन-जिन वातं का विवार किया जाता है उन सबके सुख मं कमी हो जाती है । .“असुखवाहन धान्यधनो विकल धीः सुखरे सति भूसुते |” जयदेव अथ–चठथभाव मे यदि मङ्गल होता दै तो जातक सुख से, वाहन से अननसेः धनसे हीन हो जाता ह । बुद्धिमी व्याङ्ुर रहती है अर्थात्‌ विचार बुद्धि का अमाव दहो जाता है।

“(विसुखः पौडितमानसश्चवुथ । वराहमिहिर अथे–चौथे मौम हो तो सुख नहीं दोता-मानसिक पौड़! रहती है । “ममे वंधुगते ठ वेधुरहितः खीनिर्जितः शौर्यवान्‌ | वंचनाथ ` अथे–चलु्थं मङ्गल दो तो पिर नहीं होता, जातकं च्रीवशवतौं ओर

पराक्रमी होता है ।

“कुजे बंधौ भूम्याजीवोनरः सदा ।› गं अथ–चतर्थस्थानस्य मौम होने से आजौविका खेती से होती ३ । ‘‘सभोमे विदग्धे, विभग्नं, यदा मंगले वुर्यमावं प्रपन्ने सुखं कि नराणां तथा

मित्रसौख्यम्‌ । कथं तत्र चित्यं धिया धीमता वा परं भूमि तो छाभमावं प्रयाति ।* जागेश्वर अथे- दूय पएूगा घर होता है, ओर वह मी जल्ता ३, मित्रों का तथा अन्य किसी प्रकार का सुख नहीं पिल्ता । बुद्धि नदीं दोती, किंतु जमीन से लम होता है। दुःखं यदद्‌ वाहनतः प्रवासात्‌ कलेवरे रुग्‌ बल्ताऽबित्वम्‌ । प्रसूतिकाले किल मंगठेऽस्मिन्‌ रसातटस्ये फलमुक्तमायेः ।1: बृहदयवनजातक अथे-मित्र) वाहनः प्रवास इनसे दुःख होता है । शरीर बहते रोग तथा दुबल्ता एवं प्रसूति के समय कष्ट होता है । “अस्ग्टसहोदरार्तिम्‌ । आवें वषं माई को कष्ट होता है। “पद करजविराड्वै नोतनूत्थं सुखं च समरघरधरायां धैर्ययुन्धी धनीनः | खरयुशनक वेददं कज॑मंदो हमेशः प्रभवतिष्व मिरीखो दोस्तखाने नरेत्‌ ॥४॥ खानखाना

१६६ चमस्कारचिन्तामणि का तुख्नात्मक स्वाध्याय

भावाथे–यदि मंगर चवथंभावमें दो तो जातक के हाय ओौर पौव लम्बे होते दै। इसे रारीर सुख नदीं होता है। यह रणम धीरज रखता है } यदह घनदीन, दारीर मं मजबूत, दया से दीन ओर सदा ऋण ठेनेवाला होता है ॥५॥

“भ्वतुथं बन्धुमरणं रत्रद्द्धिधंनव्ययः’” । पराशर

अथे–माई की मृत्यु, रात्नवरद्धि) तथा धन की हानि, ये फल चतुथभावगत

मंगल के है| “आरः सव्रल्श्चतुथं पित्तञ्वरो वा ॒व्रणरूग्‌ जनन्याः | भवेन्नितांतं त्रणातः पारश्वयवारे दहनेन दग्धः ॥ पुंजराज.

अथे–चतुर्थ मे वलवान्‌ मंगल दो तो माता को पित्तज्वर वा रणरोग होता हे । शरीर में व्रण होते है । विदोषतः पीट मे वा जलने से व्रण होते है|

भृगुसूत्र-गरदच्छद्रम्‌ । अष्टमे वपं पित्ररिषं मात्ररोगी। सौम्ययुते पर गृहवासः । निरोग रारीरी, क्षेत्रहीनः, घन धान्यदहीनः, जीण॑गहवासः । उचचेस्व क्षेत्र द्रभयुते मित्र्षेत्रे वाहनवान्‌, कषेत्रवान्‌, मात्रदी्घायुः । नीचक्षं पापमूत्युयुतेमावनाशः। सौम्ययुते वाहन निष्ठावान्‌ । बन्धुजन देषी स्वदेरा परित्यागी वस्वहीनः |

अथे-ख्न से चौयेमावसें मंगलूदहोतोधरमें कल्ह्‌ दहोताडै | वर्षे पिताको यरि ओौरमाताकोरोगहोतादहै। मंगकके साथ श्चुभग्रह वैरे दों तो दूसरे के षर में रहना होता है । शरीर में नेरोग्य, ग्ददीनता, धनराहित्य, धान्यरादित्यः पुराने दूे-पूटे घर मँ वास होता है । मंगल उच्च मे ( मकरमें ) हो, वा स्वणदी-मेषः वृध्िकमें हो, वा श्भग्रह से युक्त दो वा मित्रक्षे्रीदहोतो सवारीहो, षरदहो;, माता दीर्घायो, यदि मंगल नीष्व (कक)मे होवा पापग्रहयुक्त हो अथवा ष्टम स्थान के स्वामौसे युक्तहो तो माता की मृत्यु होती हे । यदि शुभग्रह युक्त दो तो वादन की इच्छा उत्पन्न होती है। भाई अर कुडम्बियोँ से वेर होता दै-जातक अपना देश छोड परदेश मे वास करता है-तथा वस्रदहीन भी होता है ।

यवनमत– यह मगल वलवान्‌ न होौँतोबुटढापे मं तकलीफ होती है| माता-पिता के साय विरोधदहोतादहै। धर के क्षयो मे व्यस्त रहता है । घर गिरना बग आग लगने काभव होता है| स्वभाव उद्धत होता दहै। दाथ-पैर लम्बे होते दँ । यद युद विजयी, कितु निर्दय तथा ऋणम्रस्त होता है ।

पाश्चात्यसत– बहत घूमनेवाखः; गडा, मां-बाप का घात करनेवाला तथा खुखदीनं होता हे । यद श्चुभ सम्नन्धमें होतो जीवनमें कमी दुभ्खी नहीं होता । इसके व्यवहार मे श्च ओर ्गडे बहुत होते दे। यह पागल जैसा माट्म होता है, ओर बहुत गलतियां करता हे । सहरी आओौर दुराग्रही होता है । इस पर पापग्रह कीदृष्टिदहोवा पापग्रह युक्तदहोतो दुघटनाओंका भय होता है ।

विचार ओर अलुभव-मंगल द्वारा सम्पत्ति का नष्ट होना है अतः इसे नाश्चकारी अ्रह मानना होगा । जमीन; षरबार, खेती बाड़ी का कारक भी र्मगल है

मंगरूफल १६

यह मान्यता मा सदिग्धसी हीदहे। सभी प्रन्थकासों ने मंग का फल अश्चुम ही बतलाया है। ये फट पुरुषरारियों के हैँ । ओर यभ फल स्त्रीरारियों के रै | किंसी को सम्पत्ति का सुख मिलता हेतो संतति का सुख नहीं होता है। संतति कष्टदायकं होती है। इसका उत्कर्षं २८ वै वष॑से ३६ वर्षतक होता हे । मेष, कक, सिंह वा मीन खमन दो ओर मंगल चतु्थंदहोतोमाताकी मृल्यु नदीं होती, द्विमायायोग भी नहीं होता क्योकि एेसी स्थिति में मंगल ककं, तखा, वृश्िक; वा मिथुन में होता दहै। अन्यराशियों मे माता-पिता की मृत्यु, तथा द्विभार्यायोग होता है । १८ वेँ-२८ वैँ-३८ वे तथा ४८ वैँ वर्षं मे शारीरिक कष्ट होता हे । जातक का उत्कषं जन्मभूमि में नदीं होता-बहुत क्ट ही होते ै। जन्मभूमि से दूर परदेश मं उत्कपं होता है । अपने उन्रोगसे ही षर-बार प्राप्त करना होता है । अग्निराशिका मंगलूदहोतो घर जरजाता दै। ककं, तुला; वृश्चिकः; मिथुन में मंग इहो तो अपना घर बनवाकर अंतिम समय वहीं काटने की इच्छा होती दहै। ओौर यह इच्छा सफठ होती है । किन्तु मृत्यु अपने धर मे नदीं होती । “कुजे पंचम जाठराग्निवंरीयान्‌ न जातं जु जांत निहन्व्येक एव । तदानीमनल्पा मतिः किस्विषेऽपि स्ययं दुग्धवत्‌ तप्यतेऽन्तः सदैव ।। ५॥ अन्वयः– कुजे पेष्मे ( सति ) जाठराग्निः बलीयान्‌ ( मवति ) तदानीं किल्विषे अपि ( तस्य ) मतिः अनस्पा भवेत्‌ ( सः ) सदैव स्वयं दुग्धवत्‌ अन्तः तप्यते, एक एव ( कुजः) न जाते जातं ( च ) संतानं निहन्ति नु ॥ ५ ॥ सं~ टी–पचमे कुजे जाठरः अग्निः उदराम्निः वटीयान्‌ प्रवङः, किस्विषे पापे अपि अनस्पा भूयसी मतिः स्यात्‌, स्वयं च अन्तः मनसि दुग्धवत्‌ तप्यते सदेव व्याकु; स्यात्‌ इत्यथैः, तदानीं एक एव कुजः अजातं अन्यत्‌ जाते अपत्यं निहन्ति नु मारयत्येव ॥ “५ ॥ । अथे–जिस जातक के जन्मलग्न से पंचमभाव में मंगठ होता है उसकी उद्राग्नि प्रबल हो जाती है पाचनशक्ति तीव्रहो जाती है इतनी भूख ल्गती दै कि श्वुधा शान्ति होती ही नदीं । उसकी पापक्म॑वुद्धि भी बहुत बट्‌ जाती दै- एक पापकर्म करने के अनन्तर दूसरा पापकर्म, फिर तीसरा पापकर्म-इस तरह उसकी बुद्धि पापकर्मा मे बट्ती दही जाती है । इच्छा प्रर होती जाती ह वरि होती नहीं पराम यह होतार किं वह अन्तरात्मा मे संतप्त रहता दै–नेसे उपलो की आग पर रखा हुभा दूष अंदर ही अंदर जता रहता है दसी प्रकार जातक अपने मन में अन्द्रअन्द्र जलता रहता है । पांचर्वे भाव मे वेटा दुभा भके ही मंगल जातक की उपपन्न तथा गभ॑र्िथित सन्तान को नष्ट करता रहता है ॥ ५ ॥ तुख्ना-““अपवयेक्षमा पुत्रे भवति जठराग्नेः प्रबरूता, न सन्तापो जीवत्यपि यदिः च जीवत्यपि गदी । सदान्तः संदापः खलं मतिरनत्पा धनिचये कृतेऽपि स्वर्गापिर्नहि जनिमतामथं निबहः ॥* जीवनाय

१६८ चमच्कछारचिन्तामणि का तुर्नात्मक स्वाध्याय

अ्थ–यदि मंगल पेचमभावमें हौ तो जठराग्नि प्रव दोती है अर्थात्‌ अधिक भोजन खाता है ओर पष्वा भीकेतादहै। इस जातक की संतान जीवित नदीं रहती दै-भौर जीवित रदे मी तो रोगी रहती दे । दय संताप ओर उदधि बड़ी होती है । पापसंचय करने पर॒ कदाचित्‌ स्वगंकी प्राप्ति हो सकती है, किन्तु धनसञ्चय नहीं हो सकता है अर्थात्‌ निधन ही रहता है । ताप्य यह है- जसे पापवराहूस्य से स्वर्गपरा केव स्वप्न का धन है इसी प्रकार अर्थसंचय भी एकमात्रस्वप्मदीदहे। “्सौख्यार्थं पुत्ररहितश्चल्मतिरपि पंचमे कुजेभवति । पिद्यनोऽनथप्रायः खख्ध विकटो नरो नीचः” | कल्याणवर्मा अ्थ-पंचममावमे यदि मंग होता है तो जातक सुखहीन, धन हीन, पुत्रहीन, चषल्मति पिद्यन, यनथंकारी, खट, विकल भौर नीच होता है । “तनय भवन संस्थे भूमिपुत्रे मनुष्यो भवति तनयदहीनः पापशीरोऽति दुःखी । यदि निजग्रहठुगे वतेते भूमिपुत्रः ` कृशमट्युतगात्रं पुत्रमेके ददाति ” ॥ । मानतागर अर्थ–संतानभाव मे यदि मंगल हो तो जातक पुत्रहीन, पापी भौर दुःखी होता है । यदि मंगल स्वण्हीदहोवाउचकाहो तोएक पुत्रहोतादहैजो देह से दुवंखा पतल होता है । कफानिलाद्व्याकरुल्ता कठ्त्रान्‌ मित्राच पुत्रादपि सौख्यदहानिः | मतिर्विंरोमा विपुलामजेऽस्मिन्‌ प्रसूतिकाले तनयाल्यस्मेः || ृष्डिराज अथ-जन्मलन से पंचममाव मेँ यदि मंगल होता है तो कृफ भौर वात से व्याङुक्ता होती हे, जातक को स्त्री-मित्र तथा पुत्र का सुख नदीं होता है- बुद्धि में विपरीतता आ जाती है। .

“असुतो धनवजितः त्रिकोणे” वराहमिहिर अथे-पर्चमभाव में मङ्गर होतो पुत्र ओर धन का अभाव रहता § । “अखतधनः कफवात्रवान्‌ विबुद्धः ख॒दटद्वल्म खुखवर्जितः सुतस्थे? | जयदेव अथं-पञ्चममावस्थ मङ्गल हो तो जातक पुत्रहीन, केफ-वात-व्वाधिवान्‌ ,

बुद्धिरदहिंत मिवखख, ख्रीसुख से हीन होता है। “करुरोऽटनश्वपठसाहसिकोविधर्मी भोगी धनी च यदि पञ्चमो धराजः | “धपुत्रस्थानगतश्च पुत्रमरणं पुत्रोऽवनेः यच्छति?” || वेदनाथ अथे–पञ्चमभाव मे मङ्गल होने से जातक करर घुमकड़, साहसी, अपना- धर्म छोड़कर दूसरा धमं अपनानेवाला;) मोगी भौर धनी होतादहै। पुत्र की मृत्यु होतीदै। “धविसुखतनयोऽम्थप्राय! सुते पिद्धुनोऽल्पधीः? || ` मन्चेश्वर अथ–यदि पञ्चम मे मङ्गल होतो सन्तान का सुखन हो, उसके माग्ध म बहुत सी.खरावी कौ बातें होती र्द । एेसा व्यक्ति बुद्धिमान्‌ नहीं होता ओर चुगुटखोर होता है ।

भरगरूफख . १६९

^पञ्चमे च धरापुत्रे कुसन्तानः सदाख्बः । बन्धुवर्गे विरक्तश्च नरो दीनोऽपि जायतेः” ॥ का्लीनाथ अर्थ–पञ्चमभाव मे मङ्ग होने से सन्तान अच्छी नदीं होती, स्वयं सदेव रोगी रहता रै; बन्धुं से वैमनस्य होता है, तथा दीन होता है । ““रिपृष्टष्टो रिपुक्षेत्रे नीष्वो वा पापसंयुतः । भूमिजः पुत्रशोका्तिं करोति नियतं ब्रणाम्‌? । गगं अर्थ- पञ्चम मङ्गक यदि शतु्रह की राशिमें, नीच रादि मे, पापग्रहसे युक्त वा दष्ट दो तो पुत्र की मघ्युनियमसेदहदोतीदहै। ` “कमफदमतदाना अङ्कखाने मिरीखः पिशरजरवजीरन्नेस्तदरखानये स्यात्‌ ) अनिलकफजयगर्व्याकुरो वेमुरौवत्‌ गुखवर बदअङ्कश्वोदरन्याधियुक्‌ स्यात्‌ ॥ ५ ॥ खानखाना भावा्थः–यदि मङ्गल पञ्चमभाव म दो तो जातक कमबोख्नेवारा, निदि पुत्र, धन ओर अच्छी नौकरी के सुख से रदित, बायुरोग भौर कफरोग से व्याकुक, बेम॒रौवत ८ शीलदीन ) क्रोधी ौर उद्र रोग से युक्त होता है ॥ ५ ॥ “महज सुते चेत्‌ तदासौ श्चुधावान्‌ कफेर्वातगुल्मैः स्वयंपीञ्यतेऽसौ प्रं वैकलनात्‌ तथा मित्रतोऽपि भवेद्‌दुखितेः रानुत्तशापि नूनम्‌” ॥ ८य॒दा मङ्गलः पञ्चमे वै नराणां तदा संतति्जायते नडयते वा” । जागेश्वर अर्थ–जातक को भूख बहत होती है, कफ तथा वातगुस्म रोग से पीडा होती है। खरी; मित्र तथा शत्रुओं से कष्ट होता है। सन्तान होती है किन्तु मरजाती ह । । मौमेऽग्िराखव्यथा प्रोक्तांगेषु सरतप्रजास्तु नितरां स्यान्‌ मानवोदुखितः ॥ पुञ्जराम अर्थ-अभिसे, वा शख्रसे दाहिने पैर को जखम होता है सन्ततिं जन्मते ही मर जाती है- बहुत दुःखी होता हे । | ““पञ्चमे पित्रहानिं च धनायतिसुतोयशः” ॥ पराज्ञर अर्थ–पिता की मृल्यु, किन्तु धनं सन्तति, कीर्ति प्राप्त दोते है । “अको राहुः कुजः सौरिरुग्ने तिष्ठतिपञ्चमे । पितर॑मातरं दंति भ्रातर च रिद्यून्‌ क्रमात्‌, ॥ लोमहसंहिता अर्थ–ख्य वा पञ्चम में रवि, राहु; मङ्गल, रानि होतोरविसे पिता का, राहु से माताका, मङ्ग से भाद का; एवं छनि से वचां की मृत्यु होती है । भगुसूत्र- निधनः पुत्राभावः, दुमार्गौः राजकोपः | षष्ठवषै आयुधेन किंचिद्‌दण्डकालः । दुर्वासनज्ञानशीख्वान्‌ ।- मायावादी, तीशा धीः । उच स्वक्ष ` पुत्रसमृद्धिः; अन्नदानप्रियः। राजाधिकारयोगः। शतुपौड़ा। पापयुते पापक्षेत् पुत्रनाशः । इुद्धिभ्रंशादिरोगः । रपरेरो पापयुते पापौ । वीरः । दत्तपुत्रयोगः ॥ पत्रार्तिः दुर्मतिः । स्वज्नैरवादः, । उद्रेव्याधिः । पली कष्टम्‌ ।

१७० चमत्कारचिन्तामणि का तुलनात्मक स्वाध्याय

अथे–पञ्चमभाव के मङ्ग दोन से जातक दरद्री, पुत्रह्येन, इराचरणी, राजकोप का पात्र होतादै। च्व वषं शस्रसे पीडादहोतीदै। बुरी वासनार्ट होती ह । ज्ञानी, किन्तु प्रत्यक्षवादी, संसारवादी, तीश्छबुद्धि होता है । मकर, मेष आ वृश्चिकमंहोतो पुत्र बहुत होते । अन्नदान करता है, अधिकारी होता हे । शत्रुं से कष्ट होता है । पापग्रह कौ राशि में या उससे युक्तदोतो पुत्रना होता दै । बुद्िभ्ंश आदि रोग होते । प्ष्ठस्थान के स्वामी से युक्त हो तो पापी किन्तु यूर होता है। पुत्रोक होता है। दत्तक पुत्र केना पड़ता दे । बुद्धि पापयुक्त होती है । अपने लोगों के साथ ज्जगड़ा करता है| पेटमें रोग ओौर पत्ती को कष्ट होता है।

पाश्चात्यमत-इस पर अघ्युमग्रह की दृष्टि दहो तोस्ट्रेकै व्यापार में बहुत नुकसान होता है । पुत्र उद्धत होते दै । उनके अकस्मात्‌ मरने का डर होता हे। धन ओर खरी का सुख मिल्ता है। शराब का व्यसन होता है । कुद्म्ब म॑दन्ति नीं रहती । स्वभाव खर्वा होता है । उच्च या स्वगृह में यह मङ्गल दो, अथवा श्चभग्रह की इस पर दृष्टि हो, तो सद्य, लाररी, रेस आदि वहत यरा मिलता है । कफ, वायु तथा पित्त विकार होते 1 बहुत प्रवास होता है । |

विचार ओर अलुभव- म्रेक ओाखकार ने प्रायः अश्चुभ फठ केर, ये पुरुषरारि्यों के हँ । जो कुछ अच्छे फल कटे है वे मकर को छोड़कर अन्य स्रीराशियों के ह । सव पापफल पुरुप्रराशियों के, तथा मकररादि वें ह | पाश्चात्यमत का श्चुभफक ख्रीयुख, स्ट मेंलाम मादि, ये श्चुम फल खीरारियों

केह । पराशरमत से पञ्चम मङ्गलपिता का मारक है। किन्तु पञ्बसस्थान

पिता का स्थान नहीं दै– भौर मङ्गक पिता का कारक नहीं है । दशमस्थान से पञ्चम आउवोँ स्थान है–संभव दै पराद्यर का यदह मंतव्य हो|

मकर को छोड़ अन्य खीरािर्यों मेँ तथा मिथुनराशि मे पञ्चम मङ्गल से सन्तान होती है ओर जीवित भी रहती दै। पदि पुत्र मरता है। अन्य राशियाँ मे गमपात, गमं के अन्द्र ही बच्चे का मरजाना, वा पौष्व वधं के पहिले ही मरजाना, एसे फल होते ई। एसे फर माता के पूर्वजन्मके दोषों के कारण होते ह । इसका मरत्यव माता की जन्मङकुण्डटीसे दो सक्ता । घ्री को सन्ततिग्रवन्धक रोग मी होतेह माचिकधमं की खरावीभी कारणहोता है योनिसंबन्धी रोग भी कारण हो सकते है । सन्ततिके न दोने के विषयमे कड एक बातें विचारणीय होतीर्दै। मङ्गल ख्रीरारिमेंदो तो तीन ठ्डके होते है परन्व॒ होते दै दुराचारी । पहिटी कन्या हो तो जीवित रहती है ।

ल््र-धनः, चतुथः, पञ्चम तथा षष्ठ स्थानां मँ पापग्रह होतो पिता की मृल्यु का योग होता है| तवृतीयस्थान मेँ पापग्रह दो तो माता की मृल्यु का योग होता

सततम, नवम, अष्टम्‌, _दराम तथा व्ययस्थानमें पाप्ग्रह दो तो भी माता का मृव्युयोग बनाते है ।

मगरुफड १७१

सूं से चौये स्थान का विचार कर पिताकौी मृत्यु कहना चाहिए तथा प्वन्द्र से पौँचवोँ स्थान का विष्वार कर माता की मृत्यु कनी चाहिए-इसी तरह ग्यारदरवे स्थान से बन्धु की मृत्यु का विष्वार करना चाहिए 1 एेसामत पराशर का दे। |

पम स्थान मे- मङ्गल हो तो अस्प धन की प्राप्ति होती है किन्तु कीतिं प्राप्त होती है।

पद्म मे ङ्गक दोना यह कीतियोग-मेष, सिह; धनु राशिमें पञ्चमभाव का मङ्गल हो तो सेना-विभाग, पुकिस-विभाग, फोरेस्टरी इंजनीयरिंग, विमानवि्या, मोटर ङाईविग, रैकनालोजी आदि की शिक्षा प्राप्त दोती है | इषः कन्या वा मकररािमे मङ्गल होतो स्व, भूमिति; ओवरसीयर आदि की रिक्षा मिलती दै । मिथुन, वला; कुम्भमं मङ्ग होतो वैदययक, डाक्टर; फौजदारो कानून आदि की शिक्चा मिलती है । मङ्गरू बख्वान्‌ होने से विद्यार्थी आनसं कक्षा में उत्तीर्णं होता है पञ्चमभाव का मङ्गल दहो तो अधिकारी द्वित लेते है गौर बहुत जल्दी पकडे जाते | पञ्चम मे मङ्गल तथाल्म्रमें राह यदि दहो तो बचपनसेद्ी गायन विदा की ओर प्रवत्ति होती दहै । मधुरभावाज से प्रसिद्धि प्राप्त होती दै।

पञ्चम का मङ्गल किसी भी रारि मे हो-परसिद्धियोग होता है । विदेश- यात्रा होती है। पञ्चम का मङ्गर वकीलों ओर डाक्टरोंके ठिए लाभकारी अओौर प्रसिद्धिदायक होता दहै । अपने-अपने कामों मेये सफल होतेर्ह।.

पञ्चम मङ्गल से दभाय योग मी होता है–कामुकता अधिक होती

न तिष्ठन्ति षष्ठेऽर्योऽगारके वै तद॑गेरिवाः संगरे दाक्तिमन्तः।

मनीषी सुखी मातुकेयो न तद्वत्‌ विरीयेत वित्तं रमेत्तापि भूरि ॥६॥

अन्वयः-षष्ठे अंगारके ( सति ) शक्तिमन्तः ( अपि ) ( तस्य ) अस्य तदंगेरिताः ( सन्तः ) संगरे न तिष्ठन्ति वै, (सः) मनीषी ( स्यात्‌ ) तदत्‌ ( तस्य ) मावुञेयः न सुखी ८ स्यात्‌ ) ( तस्य ) वित्तं विलीयेत अपि ( पुनः ) भूरि विन्त ल्मेत्‌ ॥ & ॥

सं: टी षट रिपुभावे अगारके भौमे सति राक्तिमन्तः सबला अपि अरयः शत्रवः तदंगेरिताः तस्य अंगैः अपाप्यादिभिरेव उत्सास्ताः संगरे संग्रामे ` न तिष्ठन्ति पलायन्ते इत्यथः; तद्वन्‌ मनीषा विष्वारबुद्धिः मात्तखेयः मावरसदहजं सुखी स्यात्‌ इतिरोषः, तथा वित्तं द्रव्यं विलीयेत नव्येत्‌ , अपि पुनः भूरि बह वित्त ठ्मेत ॥

अथै–जिस जातक के जन्मलग्न से छटेभाव मेँ मङ्गल हो उसके बहुत राक्तिशाली रातु होते है किन्तुये शत्रु युद्धभूमि मे उसकी भुजा आदि प्रबल दारीर के अङ्खों द्वारा परछाड खाकर सन्मुख ठहर नह सकते ई ` प्रत्युत पीट दिखा कर भाग जाते है | राजपक्च मँ अङ्ख शब्द का अर्थं अमात्य; सेनापति

आटि सात अङ्ग ममिप्रेत है । प्राचीनकार मे प्रधान योधा प्रायः इन्द्‌ युद्ध `

१७२ चमस्कारचिन्तामणि का तुरनार्मक स्वाध्याय

करते थे इसमें इनके युजवल की परीक्षा दोती थी } शरीर के अवयवो मेँ युजा एक रक्तिशाखी प्रधान अङ्ग समञ्ची जाती थीं । महामारत में यों वीर क्षतरियों का वणेन है वरहो उनकी सुजाभों मे हजारों हाथियों के बल ज्ञेसा वल था- एेसा वणन पाया जाता है ] कई एक व्यक्तियों की आंखों मे इतनी तेजः शक्ति पाई जाती है किं उनकी मोर गख उटाकर देखना कठिन हो जाता है-रतन मयाक्रान्त होकर नौ-दो ग्यारह हो जाते है (तदंगेरिताः” का यदी भाव प्रतीत होता हे । “तस्य षष्ठख-मङ्ग ग्रह॒प्रमावान्वित पुरुषस्य अङ्कैः नेवादिभमिः, अजादिमिवां अङ्कैः ईरिताः प्रक्षिप्ताः इतस्ततः विक्षिप्ताः पराजिताः” इतिसमासः | जिसके छटवे स्थान मं मङ्गल हो वह॒ जातक मनीषी अर्थात्‌ विष्ारवुद्धि सम्पन्न ोतादे। सुखीभी होता है। किन्तु यह मात्रपक्च के छिए-मामा आदि के ब््टि सुखदायक नहीं होता है । प्रत्युत कष्टकारक होता है । छटवँ म्ल के प्रभाव से इसका धन नष्ट होता है किन्ु दुबारा फिर से घनलाभ दोता है । ठलना- यदा शत्रुस्थानं गतवति कुजेजन्मसमये पलायन्ते भीताः सपदि समरे शत्रु निवहाः | विचारज्ञाप्रला भवति नसुखं माव॒ल्कुठे „ विलीयन्ते चार्थाः पुनरपि परार्थाप्ति रभितः ॥ जी वनाथ अथे यदि जन्मल्य से छटेभाव में-रतरुस्थानं मे मंग होतारहै तो उसके शातुगण भयाक्रान्त होकर संश्राम से शीघ्र हयी भाग जाते ह । बुद्धि विष्वार- रील होती ह । मानरकुल मे, मामा-मामी आदि मावरपक्ष म सुख नदी होता ओर संचित धन नष्ट हो जाता है । किन्तु पूवं घन के नष्ट होने के अनन्तर शीघ्र ही दुबारा अन्य धनों का लाभ होता है। भटनारायण ओर जीवनाथ वल के मनुसार शतरुस्थानस्थ मंगल के प्रधान ओौर सुख्यफल निम्रल्िखित ह भारी संख्या मेँ प्रवर शक्तिशाली शुभं का होना–किन्वु जातक की सामथ्यं के यागे युद्ध में पराजित होकर, मैदान छोडकर भाग जाना- जातक का विचारवान्‌ तथा सखी होना–मामा मामी-मातृकरुल के लिए जातक का कष्ट कारक होना–जातक के धन का नार ओौर पुनः धनलाभः | ्रावल्यं स्याद्‌ जाटरारर्विरोषाद्‌ रोषावेशः खछतरुवर्गोपरान्तिः । सद्धिः संगोऽनंगबुद्धिनराणां गोत्रापत्ये रातरुसंस्थे प्रसूतौ | हृण्डिराज < अथे–जन्मकाल मँ जिसके छ्ठेभाव मेँ मंगर हो उसकी भूख तेज होती दे पाचनशक्ति तीत्रहोती दहै हर समय क्रोध चदा रहता है, शत्रुगण शान्त हो जाता है–उसका मेल-जोल सजनो के साथ होता है-वह कामुक होता है । “शिपुख्हगतमौमे संगरे मृल्युभागी सुत-धन-पयिपूणैः ठंगगे सौख्यभागी । रिपुगणपरिदषटे नचगेक्षोणीपत्रे भवति विकलमूर्तिः कुत्सितः क्रूरकर्मा ॥* मानसागर अथे -च्टव भावम मंगलहोतोयुद्धसे जातक की मृत्यु दोती दै- नोट–धुद्ध मे मृत्यु” यह फर छटेमाव के प्रसङ्गानुकूल नदीं है-एेसा-

मंगरफर १७३

मानना होगा क्योकि जिस जातक के छटर्वोँ मगल होता है शत्रु पुंज तो उसके गे युद्ध मँ उहर दही नहीं सकता, भाग खड़ा होता है। उच का मंगल हो तो जातक धनजनपूण सुखी होता है । यदि शनुग्रह की दृष्टि दो, अथवा

भन कारो तो जातक विकट्शरीर, बुरा तथा कुकमं करनेवाखा तारहै।

धप्रनलमदनोदराथिः सुश्चरीरो व्यायतो बली षष्टे | रुधिरे सम्भवति नरः स्वचन्धघु विजयी प्रधानश्च |” कल्याणवर्मा अर्थ–छठे भाव मे मंगल होने से जातक की कामाधि तथां उदरायि तीत्र होती है– वह सुन्दर ओर दीर्देद होता है । अपने संबन्धियों पर उसका अधिकार होता ईै-्राम-जनसमृह में वह मुखिया होता दै । ‘रिपुजनपरिहंता खू्ररो हम्जवान्‌ स्यान्‌ | जरान जरजलाछैः युंडनदेवान्‌ जातः। यदि भवति भिरौखो मज॑खाने कदर्दान्‌ कृतकुरनननोखो मातपक्षे . कुठारः ॥ ६ । खानखाना भावाथ -यदि मंगल छटेभावमें हो जातक शत्रुओं के जीतनेवाला, सुन्दर स्वरूप, एेव, आनन्द, धन आदि सुखं से युक्त; रोगों की कद्र करने वाल, अपने कुल मेँ श्रेष्ठ, ओौर मातामह के कुर मेँ कुटार समान ( मातरपश्च का नाशक ) होता है ।.६॥। - | ^“ रिपुसमृद्धि च जयं वधुसमागमं, अथं इद्धिम्‌ ।। पराकश्चर अथं–त्रु बहत होते है । विजय होती है, सम्बन्धियों से मेलमिलाप होता है । धन खूब होता हे । “बलवान्‌ शतुजितश्च रातुजाते ।22 वराहमिहिर अर्थ–बख्वान्‌ ओौर शत्रुओं को जीतनेवाखा होता है । धस्वामी रिपुक्षयकरः प्रचरोदरामि श्रीमान्‌ यशोबर्युतोऽवनिजे रिपुस्थे ।.* वैद्यनाथ अथ–स्वामी रात्नुनाराक, धनवान्‌ , यशस्वी, तथा बल्वान्‌ होता है । भूख तेज होतौ हे । ८°िपुगणदहा प्रनखाचिकामावांश्च सुजनगतोऽरिगतो धरासजश्चेत्‌ ।* जयदेव ` अर्थ–रिपुसमूहनाशक, सजन संगी होता है–इसकी जटरापनि ओौर कामाधि तेज होती हे । | “ष्ठे भौमे शत्तुहयीनो नानार्थेः परिपूरितः। खाल्सः पुष्टदेहश्च श्चभवित्तश्च जायते ॥ काशीनाथ

अ्थ–शतरुहीन, धन-धान्य-सम्पन्न, खरीोलप, पुष्टदेह, तथा शम अंतः करण काहोताहै।

““प्रचख्मदनः श्रीमान्‌ ख्यातो रिपौ विजयी श्रपः ।’‡ मन्त्रेश्वर अथे–अतिकामुक, श्रीमान्‌ , प्रसिद्ध, विजयी, राजा होता दै । ‘भमहीजो यदाशात्रुगो वै नराणां तदा जाठरागिः भवेद्‌ दीप्ततेजाः । सदा मावे दुःखदायी प्रतापी सतां संगकारी भवेत्‌ कामयुक्तः ॥” जागेश्वर

१७४ चमत्कारचिन्तामणि का तुरुनात्मक्‌ स्वाध्याय

अथं–शन्रु भावगत मंगल होतो जातक की भूख तेज होती है। मामा कोदुःखदेता हे । प्रतापी, सत्छंगी होता दै गौर कामौ होता है।

““वहुदारातनि पुंस्कः स्यात्‌ सुकायो बलवान्‌ कुजे । गगं अथं-बहुत सियो का उपभोग ठेनेवाल, श्चभकममा तथा वख्वान्‌ होता है | “खधिरो यदा पञ्युभयं वा जाविकं चोधर च |> पुञ्जराम

अथ– “शष्ठ मे मंगट बलवान्‌ दो तो पञ, मेड बकरियोँ अथवा ॐ चराने का धदा करना पडता है|

“सारोरिपुभाव संस्थः शाखापि घात स्त्वथवायिदग्धम्‌ | करोति म्यस्य च मातुलस्य विषोत्थदोषेण विदूषितं वा|| अथं–जातक तथा इसके मामा को विष; सचि; तथा शालनी का भय दोता हे । पावस्वं स्याद्‌ जाटराघचर्विरोषात्‌ रोषावेदयः शतु वगेऽपि शान्तिः | सद्भिः संगो धर्मधीः स्याच्राणां गोत्रैः पुण्यस्योदयो भूमिसूनो ॥ वृहद्य वनजातक अ्थे-पाचनशक्ति भौर भूख तेज होते दे-बहुत क्रोधी होता है, शत्रु शान्त होते ह । सत्संगी तथा धार्मिक दोता हे-अपने कुडम्बियों की उन्नति करता हे । न्वात्यमत–इसे हत्के दज के नौकरो से तकलीफ होती है। मंगल- स्थिरराशि काहोतो मूनक, गंडमाला, हृद्रोग, आदि रोग होते द । द्विस्व- भावरारिमेंदहोतो छाती भौर फेफडं के रोग होतेै। चरराशि में होतो आग का भय होता ह, गजापन, यक्कृतरोग, तथा सधिवात, रोग होते है। नौकर अच्छे नहीं होते । मगल पर अञ्म ग्रहकी दृष्टिहोतो दुधेटना का भवहोता हे । काम करने की शक्ति बहुत होती है । वगासृत्र–मसिद्धः, कार्यसमर्थः, रातरुहता, पुत्रवान्‌ । सपर्विदातिवर्भे कन्यकाश्वादियुतः उष्रवान्‌ । पाप॑ पापयुते पापदटटेपूर्णफलानि । वातच्चूलादि- रोगः | बुधक्तर कुष्टरोगः । ञयभदषटे परिहारः | अथ कति प्राप्तहोती है। कार्थं करने का सामथ्यं होता है । शत्रुओं नारा करताहे। पुत्र पापि होती है) २७ देवर्ष क्न्या होती है ऊय षोड मादि होते है। मंगल पापग्रह के साथः उसकी राशिमे,वादृष्टिहोतो ~ ल अम होता हे। वात तथा चचूल रोग होते हँ । मिथुन या कन्या में मगल होने से कुघ्ररोग होता है | यभग्रह कौदृष्टिहोतोकुष्ठदूर होता है। विचार ओौर अनुभव- वर मिहिर से लेकर जीवनाथ पर्यन्त जो फल कटे हवे स्ीरारियो के है । प्कामुकता , भूख तेज होना, आदि फल पाश्चात्य त, मानसागरः बृहद्यवनजातक मेँ कदे हये फल पुरुषराशियों के है | मामा क) दुःख यह, फल पुरुषराशि कादे। मेड-बकरी, ऊट चराना; स्रीराशि का

फल हे । रासन, यप्र वा विष से मयः– यह फल मेष; सिह तथा धनु- राशिर्यो का दहै।

मगरूफल ` १७५

धष्ठ मगर वाले अधिकारी रशत कते ईै- तो भौ पकडे नदीं जाते । षष्ठ स्थान में मंगर पुरुषराशि में हो कामुकता बहुत होती है । एकाध पुत्र होता दैः चतु मृत्यु होती है । पहला वा दूसरा पुत्र धनोपार्जन करने की आयु मे मरता है, सिससे महान्‌ शोक होता है । कीतिं प्रास्त करने के पष्िले षष्ठस्य मंगरू के जातक को संघष॑मय परिस्थिति में से गुजरना होता ह । अवुद्धारभूतेन पाणिग्रहण प्रयाणेन वाणिज्य तो नो निवृत्तिः । सुहभगदः स्पर्धिनां मेदिनीजः प्रहारा्दनैः सपमे दम्पतिघ्नः ॥ ७॥ ` अन्वय :-( यदा ) मेदिनीजः सत्तमे ( स्थितः ) ८ तदा >) अनुद्धार भूतेन पाणिग्रहेण वाणिज्यतः प्रयाणेन निदृ्िः न स्यात्‌, स्पर्दिनां प्रहारादैनैः सृ मंगदःस्यात्‌ › दपतिप्नः ( च ) स्यात्‌ ॥ ७॥ सं° टी<-सप्तमे मेदिनीजः कुजः स्पर्धिनां वादिनां. प्रहारा्दनैः ताडन- पीडनादिभिः सुदुः पुनः पुनः भंगद्‌ः पराजयकारी, तथा दम्पतिन्नः खरीपुंसोः नाशकः, अथात्‌ पुंजन्मकुंडलिकायां सप्तमेविद्मानः सीः, कन्यका जन्म- कुःडस्यां च तत्पतिघ्नः इतिरोषः’ तथा अनुद्धारभूतेन निधितेन पाणिग्रहेण विवा- हेन हेवना; वाणिञ्यतः व्यापारदेतो; प्रयाणेन निदृत्तिः न पराब्रत्य आगमनं स्यात्‌ इत्यथः । विवाहाशयात्‌ व्यापार लोभाद्वा बहुका विदेशस्थोभवेत्‌ इतिभावः.॥ ७ ॥ ` अथ– जिसके जन्मल्य से सातवे भावम मंगल दहोतो विवाह के निथित हो जाने के कारण, अथवा व्यापारमे निश्चित खभ दहोनेके कारणसे प्रदेश से वापस घ्र पर जल्दी नहीं आता है । उसका शत्रुओं के प्रहार तथा पीड़ा से नार-बार पराजय होता है । ओर सातवां मंग स्त्रीपुरुष का.नाश्च करता है । अर्थात्‌ पुरर की जन्मकुंडली में सप्ममंगलू हो तोसख्रीकामरण होता है, ओर यदि स्री की जन्मक्रुडली मं सप्तममंगरूहोतो पुरुष काना होता है॥ ७॥ तुखना–“कुजे कांतागारं गतवति जनोऽतीवलघुतां समाधत्ते; युद्धे प्रजलरिपुणा सक्षततनुः तथा कांताघाती परविषयवासी खल्मति निडृ्ठो वाणिज्यादपि परवधूरंगनिरतः ॥ वा “परवधूरगविरतः । पाठंतरम्‌ । जीवनाय अथं- जिसके जन्मसमय में मंगर सप्तमभावमे होता है वह मनुष्व अत्यन्त टघुता को ग्राप्त करता है अर्थात्‌ अभागा होता है । युद्ध मेँ प्रवल रातु से उसका देह श्चत-विश्चत होता है अर्थात्‌ वह शत्र द्वारा पराजित होता है । भायादीन होता है–उसे परदेद्च मेँ वास करना पड़ता ई, वह दुष्टञुदधि होता दै-ग्यापार को छोड़ बैठता है । परल्लीरमण से विरत हो जातां ै। किसी टीकाकार ने “पर विषय वासी” विशोषण का अथं “अन्य विषयासक्त एसा किया है । इसी तरह “परव धू रंग निरतः” इस पाठांतर को स्वीकृत करके पर- ख्रीरमण करता है” एेसा अथं किया है । जीवनाथ ने “कांताघातीः विरोषण

१७६ चमत्कारचिन्तामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

देकर सप्तमभाव के मंगल का प्रभाव खरीनाश्चक दही माना दहै प्पुरुष मृत्यु भी होती है-एेसा संकेत नहीं किया है । ““नानानर्थैः व्यर्थचिन्तोपसर्गवैरिजातेर्मानवं दीन-देहम्‌ । दारारांगाव्य॑तदुःखप्रतप्तं दारागारेऽगारकोऽ्यं करोति ॥”दुंहिराज दारापत्यानंतदुःखप्रतप्तम्‌? इति पाठांतरम्‌ । अथ– जिसके जन्मल्य से सप्तमभाव मेँ मंगल होता है उसे अनेक प्रकार के अनथ पीडित करते है। व्यर्थं कौ चिन्ता होती है–रतुसमूद पीड़ा देकर उसके शरीर को दुर्बल कर देतां दहै। स्त्री के प्रति अव्यत आसक्ति उसे कद असंख्य दुःखों से संतप्त करती है । अथवा स्री केतथा संतान के नाश के कारण नातक असंख्य दुःखों से संतप्त रहता है । “कमराहवत करिरयांवदववेरो न हि स्याज्‌ जिहिलजलमजंगेयुंडन चाव्पः खमाणे । तनुधनगमवेदमस्नीखखेः वर्जिताऽज्ञो भवतियदि जलादुटकल्कको जन्मकाले ॥७॥। खानखाना भावाथेः–जन्म समय यदि मङ्ग सप्तमभाव येँदह्ोतो जातक खरी के साथ संयोग बहुत कम करनेवाला होता है । यद सदा तकलीफ से रहता है । यह निहायत जुर्म सौर ल्डाई करने वाखा होता है| इसे धन, यात्रा, घर, तथास््री का सुख थोड़ा होता है| ७॥ ““मुनिगरहगतभोमे नीचसंस्थेऽरिगेहे युवति मरणदुःखं जायते मानवानाम्‌ | मकर-णह निजस्थे नाऽन्यपत्नीश्वधन्ते चपलमति विशाखां दुष्टा चित्तोविरूपाम्‌ ॥ भानसागर अथे–सतमभाव मे नीचराशि वा शत्रु कीराशिमें मंगकहोतोस्रीका मरण होता है ओर उससे दुः होता है। उ्चकावास्वराशिका मंगल हो तो पत्नी मरण नहीं होता है किन्त उसकी खरी कुशीला अर्थात्‌ कुचखिा तथा कुरूपा होती है । “मरतदारो रोगार्तोऽमार्गरतो मवति दुःखितः पापः । „ श्रीरहितः संतप्तः शष्कतनु्म॑वति सप्तमे भौमे ॥ कल्यागवर्मा अथं सप्तमभावमेंमंगलहोतोखरी की मृष्ट होती है। रोगी-दुरान्वारी, दुःखी, पापी, निधन तथा दुबला होता है । ॑ “लीमिगंतः परिभवम्‌? बराह्मिहर अथे- खरी मनाद्र करती है । अनुचितकरो रोगार्तोऽस्तेऽध्वगो मतदारवान्‌ः” | मंतरेश्वर अथे–यदि ससम मे मंगल हो तो अनुचित कर्म करनेवाला, रोग से पीडित, मागं चलनेवाल ओर मृतदारवान्‌ होता है–भर्थात्‌ जातक कील्री की मृत्यु होती ह । ‘भवलागतगेह संचयो रगनर्थोऽरिमयोदयने कुजे ।” जयदेव

९२९ म॑गरूफर १७७

अथे–घर-बार प्राप्त होता है। रोगी, अनर्थकारी, राच्रुभों से भयभीत

होता हे । ““भूमिपुत्रे सप्तमगे रधिराक्तोऽपिकोपवान्‌ ।

नीचसेवीवंचकश्च निर्गुणोऽपि भवेन्नरः | काक्लीनाथ अथं–रक्त के रोगों से युक्त, कोधी, नीचडृत्ति ोर्गो का नौकर, ठगानेवाल; तथा गुणरहित होता ई । ˆ सीम प्रविखापको रणर्चिः कामस्थिते भूमिजे ॥* वं्चनाय अथं–स्त्री के छिए विलाप करना पड़ता है । जातक युद्धप्रिय होता दै । “शसखियां दारमरणे नीचसेवनं नीषचस्ी संगम । कुजोक्ते सुस्तनर कठिनोध्वकुचा ॥?’ पराश्चर अथं-पतनी की मत्युहोती है। नीचखियों से कामानल.गांत करता है | स्री के स्तन उन्नत तथा कठिन होते है| नानानथं व्य्थचित्तोपसरगँवखितेर्मानवंदीनदेहम्‌ । दारापत्यानंतदुःखप्रतपस्तं दारागारंगारकोयं करोति ॥ बुहद्यवनजातक, अर्थ—अनेक अनर्थो से मन को व्यथंही तकलीफ होती रै। रात्रुओं से पीडा होती है। रारीर दुबला होता है| स्रीं के बारेमे तथा भौर भी कई दुख से पीडित होता है । १७ वें वषं अचिभय होता है । “ध्यद्‌ा मंगल: सप्तमे स्यात्‌ तदानीं प्रिया मृव्युमाप्नोव्यवदयं क्वा । परं जाठरे कूररोगैश्च रक्ताद्‌ विचायत्विदं जन्मकालेऽथग्रदने । सुखं नो नराणां तथा नो क्रयाणां तथा पादमृष्टिप्रहारे हतः स्यात्‌ ॥ जागेश्वर अथे-सखौ की मयु होती है । व्रण तथा पेट के रोग ह्यते है । रक्त दूषित दोता हे । इन फलां का विष्वार जन्मकुंडली तथा प्रक्नकुडलो दोनो मे किया जा सकता है । इत व्यक्ति को सुख नहीं मिलता ह । व्यापार मे यच नहीं मिल्ता, मुक, खातों से अपमानित दोना पडता है । रद्धुभों के साथ स्पध करने से दानि होती है। यौवनारेप्यत्तीता । क्षितिजे नरस्य रमणी पित्ततरणेनान्विता दग्धा वा विसवहिना यदित्तदा दा बस्तिरोगान्विता। भूमिपुत्रे यूनमादोपयाते कांतादीनः सतत मानवः स्यात्‌ ॥ दु जराज, अथं-सरी तरुणा नहीं होती । वह पिम्तवा व्णरोग से . पीडित होती दै, वा विषसेथा भागम जल कर भरती है । अथवा योनिरोग से युक्त होती दै । इससे पतनी की मृत्यु अवदय होती है | भौमः किल सप्तमस्थो जायां ऊक्मनिरतां तनुसंततिं च || वषिष्ठ अथ–पतनी दुराचारिणी होती है | संतति कम होती रै | यौवनाव्या ङुजेऽपि ।” भपिशब्दात्‌ “क्रा कुटिला नातिुन्द्री च ।» । रामदयाल,

१७८ षवमस्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

अर्थ- मंगल बल्वान्‌ हो तो खरी तरुणः कूर, कुरिटस्वभाव की, साधारण- बहुत सुंदर नदीं होती है । ल्ली को शारीरिक कष्ट होते ह| यह मंगल पापग्रहोंसे युक्तदोतोख्री की मृ्युदहोती दहै | ञ्यभमग्रहोंसे युक्तदोतोमरत्यु नहीं होती । पेट तथा हाथ मे रोग होते ई । भाई, मामा, मौसि्योँ बहुत होती हँ । जातक बुद्धिमान होता ड | गोपालरत्नाक्रर, पाश्धात्यमत-ल्रीकटोरस्वभाव की तथा ञ्जगड्ाद्‌ होती दहै। विवाह सुख अच्छा नदीं मिलता । विभक्त रहना पड़ता है । हमेशा ज्चगडे होते ह । स्रीके किए ज्षगडेवा अदार्ती व्यवहार करने पडतेर्दै। व्यापारमं शत्रु की स्पर्घां प्रर भौर खुटेरूप से होती हे । सान्चीदारी मे यद नदीं मिर्ता | छोरी बातों पर विदट्ता है । यह मंगल ककंवा मीनराशिमेंतवतोसरी का स्वभाव बहुत ही तापदायी होता है। बहुत बार अपने मनके विरुद्ध बरताव करना पडता हे । अदालक्ती ्चगडोँ में पराजय होनेसे नुकसान होतादहै। स्थावर जायदाद्‌ नष्ट होती है। श्रगुसूत्र–स्वदारपीडा । पापक्षं पापयुते स्वक्षं स्वदारहानिः। दभयुते जीवति । सपत्यनाशः विदेरावासः। विगततनुः, मय्पानप्रियः, रणरुचिः । उचचमित्रस्वक्षेत्र ञ्युभयुते पापक्े्रे ईश्षणवशात्‌ कलत्र नाराः । चोर व्यभिचार मूटेनकल्त्रान्तरं दुष्टस्रीसंगः । भगचुम्बकः । मन्दयुते दृष्टे शिदनचुंबकः । चवुष्पा दमेथुनवान्‌ । केतुयुते बन्ध्या रजस्वल् छनरीसंभोगी । तत्र शत्रुयुतं वहुकलत्रनाशः। अवीरः, अदहंकारी । श्चुमदषटे न दोषः | अथ-पापग्रह की राशिमें; वा पापग्रह से युक्त मगल सत्तममे होतो पत्नी को शारीरिकि पीड़ा होती दै । यह्‌ वृधिकमेंदहोतो पत्नीकौ म्रव्यु होती हे । यह श्युभग्रहयुक्तहोतो पत्नीकी मरत्यु नहीं होती, किन्तु संतति जीवित नहीं रहती । विदे मे रहना पड़ता है । शरीर दुबला होता है। शराबी तथा ्गड़ाद्‌ होता ई । षचोरीवा व्यमिचारके छि स्वस्त्री को छोड़कर दुष्टिर्यो का सेवन करता है । यड छनि के साथ, वा उसके द्वारा दृष्ट द्ो तो ( सममेथुन करता है )। चौपाए जानवर गाए भस्त आदि से मेथुन करत। दहै | भगुम्बन करता है । शिश्चतुम्बन किया जाता है। केतु साथदहो तो बेध्या खथवा राजस्वला स्री से.भी कामतेवन करता है। रात्रुग्रहसे युक्त होतो अनेक पल्ियों की म्रत्यु होती है । नित्र॑ठ भौर घमंडी होता है । श्युभग्रह देखते हों तो उक्त अञ्चभ फट नदीं होता है । विचार ओर अनभव–खमी शाख्रकासें ने सप्तमभावगत मंग के फल अद्म कटे है–सख्रीकी मृत्यु, द्विमायायोगः खरी का स्वभाव क्रूर तथा ञ्गडाद्धर हाना, कुरूप होना, राचरओं द्वारा पराजय; व्यापार मं अपयद्; रोग, दुःख) पाप, निधनता आदि खभी अश्युभ फल हे । इनका अनुभव वृष; कक, कन्या

अगलफङछे १७९३

7 मीनरारियों मे होता है-अन्यरारियों मेँ श्चुभफक का अनुभव ताहै।

सतम का मगल किसी भी राशिमेँ दो मंगल प्रभावाच्ित व्यक्ति भरत्येक उग्रोग करने कौ इच्छा करता है किन्तु टीक तरह से किसी उदयोगमे भी सफ नदीं होता । श८वै वषंसे ३६र्वे वधं कुक स्थिरता होती है ओौर मंगल के क्रारकत्व का कोई एक उन्रोग करता है । पत्नी अच्छी किन्त कठ्हपिय, तथा पति को अपने वदा मेँ रखनेवाटी होती ₹ै ।

मेष, सिह बृध्िक, मकर, कुम राशियों मे मङ्गक होतो दिभार्या योग होता दै । व्रप्रवा वला में मङ्गल होने से पति पत्नी से बहुत प्रेम करता दै। कन्या वा कुम्म में होतो विवाहोत्तर भाग्योदय होता है, स्थिरता भी होती है । उनोग सफ़ल ओर धन मिता है । द्वितीय विवाह के बाद्‌ उक्करष्ट भाग्योदय होता है| ककं वा मकर मेँ मङ्गल होतो ३६ वधं तक उद्योग को सफर बनाने के लिः मारी परिश्रम करना होता है । भौर जीवनभर सवथा परिपूणैता रहती है । अन्व राशियाँ मे अस्थिरता रहती है ।

मेष, सिंह तथा धनुर्न मे मंगल हो तो त्रिरिगंरेख ओर जिर्निगपैख का व्यवसाय लाभदायक होता हे । वरप, कन्या, मकरलग्न मे वििंडग कन्दक, इमारती लकड़ी का विक्रय-तथा खेती-बाड़ी व्यवसाय के तौर पर खाभदायक रहगे । मिथुन) ठखा तथा कुम में साईकिक-मोरर का विक्रय, इनकी मरम्मतः विमान डाइर्विंग-ये व्यवसाय धनाजंन के छिएु ठौक रहते हँ । ककं, बृश्चिक तथा मीनरुन में सज॑री भौर इंजीनीयरिग अच्छे लाभदायक होते ई ।

सप्तममें मंगल वक्रो तथा स्तंमित, खगन मेँ श्युक्रवक्री, इसी तरह ष्वंद्र के सप्तम मेँ रवि; बुध, श्चक्र के केन्द्र में तीन पापग्रह, इस योग मे विवाह नहीं होता दै-मड टेटा, हमेशा रोगी, शरीर दुबला-पतला कद मंञ्चला होता है ।

मिथुन, कन्या, धनु; मकर, बिक तथा स्िहराशियों मे पति की कुंडली में पग होतो स्त्री संततिप्रासि के किए व्यभिचार करती दहै इस कर्मसे पति की समति मी संमावित हो खकतीदहै। मगल्स्त्रीरािमेहोतो संकटकाल में धवराहट होती है । पुरुषराशिमे होतो धैय मौर सहिष्णुता बने रहते | मित्र बहत कमः स्त्रीखुख भी कम मिल्ताहै। पतनीकेमां-बापमें सेषएट्क कीमृघ्यु रीघरह्यीदहोतीरहै। पत्नीका माई होता दी नदीं मथवा भाई कम होते ह ।

सप्तम मंगल डाक्टयौ के किए सच्छा है-चीर-फाड आदि करनेसे कीर्ति मिल्ती है । वकीटो की भी मंगल फौजदारी अपीलों मे विरोष यश्च मिक्ता रै- मेकेनिक;, इजीनीयर, टरनर, फिटर, इैवर आदि रोगो के किए सत्तम मंगल अच्छा दै । पुलिस तथा अधिकारी अफसरों के किए भी यह मंगर अच्छा है

१८० पवसस्कारच्दिन्लामणि छा तुरखनारमक स्वाध्याय

यदि खाथ काम करनेवाला आफिसर स्वी हो | सप्तम मग से बड़े अफससोँ से सदैव नीचे मातदत काम करनेवाखों का गडा होता रहता है । मेष, सिह, धनु मे नौकर ईमानदार होतेह किन्तुये ईमानदार नौकर कभी मालिक नहीं होते-नौकर ही रदेन ।

टिप्पणी-सखप्तम मंगल का विवाह के साथ गहरा सम्बन्ध है–विवाह्‌ के खमय वधू-वर्योकी पत्रिकां मेँ मंगल का बहुत विचार किया नाता दहै। अतः उपयोगी समञ्च कर एकदो प्रकाण्ड तथा अनुभवी ज्योतिःशास््वेत्ताओं के विचार उद्धत किए जाते ई।

“सप्तम पल्ली का स्थान है । सप्तम मं मंगल दोने से जातक प्रबल मंगलीक दोते दहै। इस कारण पत्नी मर जावे, यह छ्िखिादहै। किन्तु यदि पत्नीभी मङ्गटीक हो तो दोनों ( पतिपत्नी ) के मङ्गलीक होने से यह दोष नहीं होता, अर्थात्‌ इस दोष की निड्ृ्ति हो जाती है । जिस मनुष्य की कुंडली मङ्खटीक हो उसे मङ्गटीक कन्या से ही विवाह करना चादिए तथा जो कन्या मङ्खलीक हो उसका विवाह मङ्गलीक व्र से दी करना उचित है।

मङ्गल, शनि; राहु, केतु, सूयं, यह पांच रह क्ररर्है। रग्न से, द्ितीय, (दूसरा घर कुडव स्थान कदलाता ह ) पतनी कुटम्बः का प्रधान केन्द्रीय स्तम्भ है । यदि देन्द्रीयस्तम्म टूट जावे तो शामियाना गिर॒ पडता है। इस प्रकार यदि पली नष्ट ह्यो जावे तो कुडम्ब कैसे बदेगा । चठथं ( चतुर्थं सुखस्थान दै ) घर का विचारमी चोये धर से करतेर्ै। गहिणी-घरवाटीहीनरहे तो घर केला १ चतुथं में मङ्गल घर का खुल नष्ट करता है । सप्तम (पत्नी का स्थान ) अष्टम ( छिगमूल से रुदावधि अष्टमभाव होता हे ) इस भाग का सम्बन्ध पत्नी से स्पष्ट है । व्याख्या की आबद्यकता नहीं, पत्नी की कुंडली मे इस स्थान का पति से सम्बन्ध सुस्पष्ट है । विवरण व्यथं है । तथा द्वादश ( वारहवां घर ) रायन यख कहटाता है । शय्या का परमसुख कांता है । बारह मे मङ्गक शयन की

खखहानि करता है-इस कारण पाचों स्थानों मेँ ऋरह-मङ्गल, रानि, राहु, केतु, सूयं जिस भाव मेँ हो उस भाव सम्बन्धी सुख की कमी करने के कारण इनका विचार जन्मकुंडली, चन््रकुडली; ( चन्द्रमा जिस राशि मं हो उसे र्नमान ) तथा शक्र से ( शक्र “कामः का सधिष्ठाता है-सप्तमभाव का कारकं है, इसलिए

` वैवाहिक सुख विचार में शुक्र का महत्व है ) करना चाहिए

स्वियों की कामवासना का मङ्गल से विदोष विषार करना चाहिए । स्त्रियों के मासिकधमं प्रवाह का वणं रक्त है| पुरुष की कामवासना का विवार शक्र से ( इसी कारण शुक्र वीर्यं को मी कहते हँ जिसका सफेद वर्णं है) किया जाता है । मङ्गल मकर मे उच कादोता है; शक्र मीन मेँ उच्च होता है। इसी कारण कदपं, या कामदेव का नमि संसृत मं भकरध्वजः (मकर जिसकी ध्वजा या हंडिमें है) सौर मीन के तन (मीन जिसकेकंडेमे है) कहा जातादहै। न

म॑गकफक ` १८१

कामदेव नाम का कोदै शारीरिकजंत्र या व्यक्ति दै, न उसका कोई क्षंडा है। केवर एक विद्धान्त को व्यक्त करने वाङ ये विरोषण है । काम का जलकतत्व से विरोष सम्बन्ध है । समुद्र (जर) से लक्ष्मी हई । लक्ष्मी की उत्पत्ति समुद्र से इसी कारण मानी ग ह है । चन्द्रमा जल्तत्व प्रधान होने से लक्ष्मी का भाई माना गया हे । वसंतपंषचमी को, जब प्रायः शक्र उच का होता है-कामदेव का जन्म- दिनि माना जाता है, वनस्पति जगत्‌ मे पदर कटी होता ईै-दसमँ जो पराग होता है उसे “रजः कहते ई । कन्यां मेँ काम प्रकट होने का प्रथम लक्षण रजोददंन दै । इसी कारण दोनों क्यों तथा कन्याओं के सम्बन्ध मँ “रख, शब्द का प्रयोग किया गया दै। पुष्प विकसित्‌ रूपरहै। इसीलिए मासिक धमं मे जब स्ती होती है तो उसे संस्कृत मे पुष्पिणीः कते है । इन्ै-पुष्प को कामदेव का बाण कते ह । उसके पोच बाण है-जो फूलों के दै । शन्द-स्पद, रूपः रसःगंघः, इन्हीं पोच से मनुष्य मेँ कामवासना उत्पन्न होती रै-यही उसके पोच बाण । इस परकत्र ज्योतिषशास्त्रमे, जो निर्देश किए गद बेगू सिद्धांतों पर आधारित दै, केवर थोडा-सा दिग्दशंन करा दिया गया है । फठ्दी- पिका-भावाथंबोधनी व्याख्या मे सप्तमभाव के मङ्गल के विवरण मे पंडितमोपेश्च कुमार ओश्चा एम, ए, एल, ए नी; दैवशिरोमणि के विष्वार फठ्दीपिका-परथम संस्करण-१९६९ पृष्ट १८६-१८७ | `

सी विषय पर ज्योतिषी स्व० ह, ने, काटवे के बविचारः–“भारत में विवाह के समय वधू-वरो की पतिका मेँ मङ्गल का बहुत विष्वार करिया जाता दै । भमतौर पर मङ्गल के वर को मङ्गल कौ वधू ठीक समन्ची जाती है । मथवा गुड भौर .दानि का बरूदेखा लाता है। मङ्गल के मारकत्व के बारे मे एक छोक इस प्रकार है–“लग्ने-ज्यये च पाताे-जामित्रे-चाष्टमे कुजे, कन्या मर्तं विनाशाय भर्ता कन्या विनाश्चकः ॥ जिसकी कुंडली मे क्न, चतुर्थ, ससम, अष्टम या व्यय स्थान में मङ्गल दै उस कन्या के पति की मृत्यु होती है ओर उस परति कौ पनीकी मृत्यु होती है। इस योग के अपवाद भी ईै–ख्न मे मेष, चतुर्थे उ्चिक; ससम मे मकर, अष्टम मेँ ककं, तथा व्यय मँ धनुराशि हो तो थह मङ्गल वैधन्ययोग अथवा ददिमायौ योगं नहीं करता । |

कन्या की कुंडली से पति की विष्वार करते समय रवि ओौर मङ्गल, इन दो ग्रहों का विचार करना चाहिए । रवि की स्थिति से पति का बल, वय, शिश्चा, दिशा अर प्रेम इन विषयों का विचार करना चादिए | मङ्गङ की स्थिति से पति की यायु, उत्साह; सामथ्यं, इजतः, व्यवसाय, उन्नति आदि का विचार करना चाददिए । रवि-शनि द्वारा दुषितदो तो पति अधिक उप्र का, दुर्बल, रोगी, निदेय, दुष्ट मिक्ता है-एेसा पाश्चात्य ज्योतिषियों का मत ईै। मेरा अनुभव भिन्न है । एेसी स्थिति मेँ विवाह देर से होता £ै। प्वासर जगह यत्न करने के नाद सम्बन्ध पका होता है । विवाह के समय पिता दसी दोता है- अथवा उसकी मृत्यु के बाद विवाह होता है।

१८२ षवमस्छारचिन्तामणि चछा तुख्नास्मक स्वाध्याय

किन्त पति तरुण होता है ओर प्रेमपूवंक रहता है। विवाह के बाद पिता की प्रगति होती है। मङ्कल दानि दारा दूषित दो-इनमे युति, केन्द्र, द्विद्रादश, अथवा प्रतियोग हो या मङ्गल्से चोये, आरव स्थानमें शनिदोतो अञ्युम फर मिरते है- विधवा होना, पति से विभक्त होना, सन्तति न होना, आदि फल मिलते है । सन्तति नहीं हह तो ही संपत्ति मिर्ती है| पुच्रहोते द्यी दीवाला निकलना, नौकरी दूटना, सस्पेंड द्योना, स्थित खाने के अपराध में फंखना आदि प्रकार होते है ओौर आत्महत्या, अथवा देशत्याग का विचार करने गते हैँ |

जव जन्मस्थ मङ्गर से गोष्वर शनि काभ्रमण होता दै तव ये फल मिरते ह । पति बुद्धिमान्‌, कटक्ुरल, उत्साही होकर भी कुछ कर नहीं पाता । “र्व वषेतक स्थिरता प्राप्त नहीं होती । ेसी कन्या के विवाह के वाद उसका पति दूसरा विवाह कर सक्ता हे । सौत आने पर माग्योदय होता है ।

ख्नादि पौन स्थानों से अन्य स्थानों मे मङ्गल हो तो बाधक नहीं समन्चा- जाता जिन्त शनि द्वारा दुषित होतो उन स्थानों में भीयेद्ी अञ्चम फर मिर्ते ह ।

जिस कन्या कौ कुण्डली मेँ शनि-मङ्गल का अश्चभयोग है, अथवा चतुर्थ म शनि है अथवा धन, चतुथं या सततम मे पापग्रह ईै–उसका विवाह नहीं होता, ह तो संसारयुख नहीं मिलता, अथवा वैधव्य प्रा होता है । रेसी कन्याकेवर की कुण्डली मे शुक्र ओर शनि काअघ्यम योग होना चाहिए | युति; प्रतियोग, अथवा द्ि्ददशयोग दोना ष्वाहिए । उन दोनों का जीवन गरीथी म किन्ठ॒ समाधानपूव॑क बीतेगा जिख तरह कन्या की कुण्डली मेँ मङ्गल दूषित हो तो पति पर अनिष्ट परिणाम होता दै उसी तरह पति की कुण्डली में शुक्र दूषित हो तो प्ली पर॒ अनिष्ट परिणाम होता है । इस्एि इन दोनों अश्चमयोर्गो के इकट्टे यने से सुखमयजीवन बीतता है । अतः विवाह के समय सिप मङ्गल पर अवट्वित नदीं रहना ्वाहिए-रवि भौर शनि का संबन्ध भी देखना जरूरी है ।

इसी विषय पर कुछ ॒फुटकर विचारः “वर भौर कन्या की जन्म- पत्रिकां का विष्वार प्रथक्‌ -परथक्‌ करना षाहिए–भायु का विचार मुख्यतया कर्तव्य हे |

भौमदोष के विषय में मतांतर-मज्गल यदि जन्मलग्न से, चन्द्रस्य से ओर बृहस्पति से ररा, चतुर्थ, अष्टम; सप्तम, तथा द्वादश जन्मपन्नमें पड़ा होता है तो कुज दोष होता है–अपदार–वर-कन्या की कुण्डली मे परस्पर मज्गल-स्थिति एक जेसी होनी चादिष्ट । यदि भौम स्वक्षे्री दोनों कुण्डव्यिों मे दो तो भौमदोष नहीं होता । कन्या-वर दोनों मे एक के मङ्गल का दोष हो ओौर दुसरेके क्नसे साव, क्नसे चौये, आर्य्वै भोर बारहवै शनि र्दे तो मज्ञर्दोष नदीं होता–इसखी तरह राहु ओौर केतु के रहने पर मी कुल दोष नदीं

मंगङफर ३८३

होता । जन्मसमय में जन्मलग्न से वा चन्द्रकग्न से सप्तमध्थान में द्यभग्रह दावा सप्तमभावका स्वामी पडा हो तो दोष नहीं होता | केन्द्रमवा रिकोणमें श्युभग्रह हों भौर ३-६-११ में पापग्रह होतो दोष नदी-सप्तमाधीरा सप्तममे होतो दोष दूरदहोजातादहै। लग्न में मेष, चथ में बृश्चिक; सतम मं मकर, मष्टम मे कक तथा व्ययमे धनुरादि होतो यह मङ्गक वैधव्ययोग तथा द्िभा्यायोग नहीं करता कन्या की कुण्डली मे किसी मी स्थान में मङ्गल शनि से दूषित न हो, अन्यथा नेष्टफल होता दै । रग्न मे राहु-रवि, मङ्गल नदीं हों । कन्या के लग्न मे रानि बुरा दै) ख्न मे शनि, द्वादश मे राहू चन्दर, धनम गुरु नेष्ट ह| कुण्डली मे मंगलके पीछे रानि ने्ट-रवि-मङ्गल दानि के स्तममेंने्ट- मङ्ल रानि के पीछे तेष्र। छभास्तस्य करं खेचराः ङुयुरन्ये विधानेऽपिवेदष्टमे भूमिसूनुः । सखा किं न श्रूयते सत्करृतोऽपि प्रयल्नेकृते भूयते चोपसर्गः ॥ ८ ॥ अन्वयः-भूमिसुनः अष्टमे चेत्‌ ( तदा ) व्रिधाने अपि अन्यश्चभाः खेचराः तस्य । किं कुः, सत्कृतः अपि सखा किं न शरूयते, प्रयत्नेकृते च उपसगैः भूयते ॥ ८ ॥ सं< टी०–अष्टमे भूमिस्‌ नुः भौमः चेत्‌ तस्य विधाने माग्ये अपि अन्ये ्रभाः खेचराः किंकरः कुजस्य दुष्टफल्दत्वेन श्चुभफलप्रतिवन्धकत्वात्‌ । सक्कृतः मानितः पि सखा किं न शनूयते शात्रुरि आचरति । प्रयलेकृते अपि उपसरः विघ्नैः भूयते प्रारन्धकारये विघ्नाः संभवंति इत्यथः ॥ ८ ॥ अ्थे- जिसके अष्टममाव में मङ्गकूहोतो भाग्य आदि ्चमस्थानों मे पड़े दए वृहस्पति-शचक्र आदि श्भग्रह छभफल नदीं दे सकते, क्योकि मङ्गल स्वयं दष्टफलठ दाता होकर छ्यभफल प्राति में प्रतिबन्धक हो जाता है । अष्टमभावस्य मङ्गल के प्रभाव से प्रतिष्ठापूर्वक सम्मानित करते रहने पर भी मित्र रतरुवत्‌ आष्वरण करता है । कार्यो के अनुकूल उद्योग करने पर मी सफल्मनोरथ नरी होता, प्रत्युत विघ्नो से पीडित होजातादै॥ ८ ॥ तुखना–्मापुत्रे स्यौ कविगुरुबुधाः किं तनुभृतः प्रकुयुरयैषवान्येप्रमवतिविधानेऽपि नितराम्‌ । खलटायन्ते तस्य स्वजननिवदाः किं न सहसा प्रयतते यातेऽपि प्रवरगदजा विष्नपटटी ॥ जीवनाय अर्थ- जिस जातक के जन्मसमय मे मङ्गर अष्टमभाव मे हो, उसके बुध- रार-छयक आदि द्यभग्रह माग्य आदि छमस्थान मे होकर भी क्या शुभफल दे सकते है १ अर्थात्‌ नहीं, मङ्गल अपने अश्चमफल्दातृत्व प्रभाव से अन्य छम पफाटदाता ग्रहों की शक्ति को निर्व करके स्वयं विध्नरूप प्रतिबन्धक हो जाता है । जातक के मा-बन्धुभी सहसा शत्रु हो जातेर्ै। कई एक प्रबल रोग प्रादुर्भूत दो जाते है जिनकी चिकित्सा करने पर भौ कोई लाभ नदीं ताह

१८७ ष्वय्स्कारचिन्तामणि का तुरनात्मक्‌ स्वाध्याय

| ञओरये रोग विषघ्न दो जातेर्ह–उव्योग का फठ सफलता प्राप्त नदीं होती | | धन्य है दुष्ट रभाव अष्टमभौम का। “यदि भवति जल्दुल्‌ कस्ककोमौतखाने

सततमहितभाषी; गुह्यरुक्‌ ` खरीयुखोनः । मुतफकिंरवद।मे जौहरी सोऽथजख्मी, कमफहममनः स्याल्‌ लगरोऽखग्विकारेः ॥ ८ ॥ खानखाना

अथ–यदि मङ्गक अष्टमभावमें हो तो जातक सर्वदा अनुचित बोल्ने- वाला; गुप्तरोगवाला, खरीसुख से रदित, चिन्तायुक्त; रनों का पारखी, शरीर मेँ जख्मवाला, बुद्धिहीन, सधिरविकार से दुव॑ शरीरवाला होता है ॥ ८ ॥ “स्वत्पात्ममजो निधनगे” वराहमिहिर अथे– पुत्र कम होते है । ““रुधिरातोगतनिश्चयः कुधीः विद्यो र्नि्तमः कुजेष्टमे 1 जयदेव अथे- खून के रोग संग्रहणी आदि होते है, बुद्धि दवारा निश्वय नदौ कर सकता जातक निदंय, बुरेविचासे का बहुत हौ निंदनीय होता है। ““विनीतवेषो धनवान्‌ गणेशो महीसुते रन्धरगते त॒ जातः ॥” वनाथ अथं–कपड़े सादे होते दै । धनवान्‌ लोगों मे प्रमुख होता ३ । ““कुतनुरधनोऽल्पायुः छिद्रे कुजे जननिन्दितः ॥” मंतरेश्वर अथे–खराब शारीरवाख, अर्थात्‌ शरीर मे कटीँ रोग हो, धनदीन ओौर अल्पायु होता है, ओर खोग उसकी निन्दा करते ह । “अष्टमे मङ्गटे कुष्ठी स्वत्पायुः शत्रुपीडितः | अस्पद्रव्यः सरोगश्चनिगुणोऽपिमवेन्नरः ॥ काक्लीनाय अर्थ-कोट्‌ होता है जातक मल्पायुषी, यतुम से पीडित, निर्धन, रोगी तथा गुणद्यीन होता है । “न्याधिप्रायोऽत्पायुः कुदारीरोनीष्वकमंकर्ताच | निधनस्थे क्चितितनये भवति पुमान्‌ शोकसंतप्तः |” कल्याणवर्मा अथे-रोगम्रस्त, यस्पायुषी, शरीर मँ कोह रोग होना, दुराचार तथा शोकसन्तसर होता हे । “वैकल्यं स्यान्‌ नेत्रयोदु्मगव्वं रक्तातूपीडा नीष्वकमं प्रवृत्तिः | बद्धेराध्यं सजनानां च निन्दा रं्रस्थाने मेदिनीनन्दनशचेत्‌ ॥* दष्डिराज अथं-ओंखि यच्छी नहीं होती, कुरूप होता है, खून के रोग होते है– बुरे कामों की ओर प्रटृत्ति होती दै । विचार बुद्धि नदीं होती, सजनो का निन्दक होता है । ब्रहद्‌ यवनजातक का भीरा दही फल हे । “प्रख्यभवनसस्थे मंगले क्षीणनीचे व्रजति निधनभावं नीरमध्ये मनुष्यः | अदिगरगमुखमेषे सवदा चैवभोगी करपदग सनीखो मानवोदीर्धजीवी ॥”

संगरुकख १८५१

“घन कनक पराकः सर्वदा चैवमोगी* पाठान्तर । भानषागर अथं-सष्टमभाव सं नीचराशि का मंगरूदहोतो जातक पानीमे इबकर मरता है । यदि बृश्चिक, मकर वा मेषमें हो तो नीलवर्णं हाथ पैर वाला ( कोट से हाथ पैर नीठे होते हैँ) भौर दीर्घायु होता है। पाठान्तर से “सोना, चोँदी आदि धन प्राप्त होता है ओौर भोगों का भोगने वाला होता है “शदारीरं कृदो किं श्चमं तस्य कोरो परं स्वस्य वर्गो भवेच्छनरु तुल्यः । प्रवासे कृते नाशमायाति कामो यदा मल्युगो भूमिजो वै विलग्चः | जागेश्वर अथं-जातक का शरीर दुबला होता है, निधंनता होती है अपने ही लोग शत्रु के समान होते है ¦ बहुत प्रयास करने पर भी इच्छा पूरी नदीं होती | “सर्वग्रहा दिन कर प्रमुखा नितातं मध्युस्थिता विदधते किल दुषटबुद्धिम्‌ । रख्राभिघात परिपीडितगात्रभागं सोख्यर्विहीनमतिरोगगणेरूपेतम्‌ ॥ वशिष्ठ अथे–सूर्यं से लेकर सभी प्रह यदि अष्ममावमें होतेह तो बुद्धि दुष्ट होती दहै। शस्त्रो के प्रहार से अवयवो को पीडा दहोती है) सुख नहीं मिक्ता हूत रोग होते ह । | ““मृत्युगतो मृव्युकरोमदीजः राख्रादि दूतादिभिरथितो वा | कुष्टप्रणादोगहिणी प्रपीडा नयव्यधो नाद्क मानयेच | गं अथै- शख से, कोट से, शरीर के अवयव सडने से, वा जलकर स्यु होती दै पल्ली कोक्ष्ट होता है) अधोगति होती है। मृत्युभाव का मंगल भृत्युकर होता दै | | ८८१ संग्रामाद्‌ , २ गोग्रहणात्‌ › २ स्वहस्तात्‌, ४ निजशनुतः, ५ द्विजपार्वात्‌ » ६ अदमपातात्‌, ७ काष्ठात्‌ $ ८ कूपप्रपाततः, ९ भित्तिपातात्‌ , १० गुस्तरोगात्‌, ११ विषभक्षणतः, १२ चौरप्रहरणात्‌ भौमे मरल्युः स्यान्‌ सूत्युभावगे | काडथप अथं-मंगल क्रम्यः मेषादिराशियो मे हो तो आगे कदे हुए प्रका से मृत्यु होती दैः-१ युद्ध मे, २ गौं कौ चोरी का प्रतिकार करते हुए, ३ अपने दी हाथ से, ४ शत्तुओं से, ५ साप से, ६ पत्थर गिरने से, ७ लकड़ी के आधात से, ८ कु मे गिरने से, ९ दीवार से गिरने से, १० गप्तरोग से, ११ विष खाने से, १२ प्वोरोँ के प्रहार से। यबनमत-जातक को गुह्य रोग होते ह । खरी से दुःखी होता दै | चिन्ता- रस्त रहता दहै । अच्छा परीक्षक होता हे। रासनं के प्रहार से जखमी होता है- मंगल नीष्व का हो तो रक्तपित्तं रोग होता हे । पच्धात्यमत–इसे विवाह से. खम नहीं होता) रवि ओौर चन्द्रसे अश्म योग हो तो अकस्मात्‌ मघ्युदहोतीहै। मंग अकेला दहो तो मृत्यु जल्दी नदीं होतो । बंदूक की बारूदसे मृ्युहोतीहै। मंगल जट्राशिमे होतो पानी में ङइवकर, अभ्रिराशिमें द्योतो आगमे जल्कर, तथा वायुराशिमें हो तो मानसिक व्यथासे मृल्युहोतीहे। प्रथ्वीतत्वमे मंगलो तो श्चुभफल मिखता है |

१८६ वमत्कारचिन्तामणि का तुरुनास्मक स्वाध्याय

श्रगुसूत्र-नेचरोगी । मध्यमायुः । पिविरिषम्‌ । मूत्रङृच्छररोगः । अस्प पुत्रवान्‌ । वातद्यलादिरोगः । दारसुखयुतः । करवालन्‌ म॒ल्युः । श्चुमयुते देहारोग्य- वान्‌ । दीर्घायुः । मनुष्यादिवृद्धिः । पापक्षेत्रे पापयुते दश्चणवशात्‌ वातक्षयादि रोगः मू्रङ्च्छराधिकवे वा । भावाधिपे वल्यते पूर्णायुः ॥ अथै–ओंँखो के रोग, मध्यम आयु, प्रिता को अरि, मूचकृच्छर रोग, पुत्र कम दोना, वातद्यू इत्यादिरीग, खरीसुख, तद्वार के प्रहार से मौत, ये मगल के फल हैँ । अष्टमभावस्थ मंगर श्चभग्रहों से युक्त होतो नीरोग शरीर, दीर्घं आयु, तथा मन्यो आदि मेँ बृद्धि तथा घरमे समृद्धि होती है। पापग्रह की राशिमें, वा पापग्रहसेयुक्तवा दृष्ट्दोतो वातक्षयादिक रोग होतेह वा मूचङ्ृच्छर से अधिक पीडा होती हं । अष्टमभाव का स्वामी बल्वान होतो पूर्ण आयु मिट्ती दे । विचार ओर अनुभव-वैयनाथ को छोडकर अन्य सभी प्रंथकारों ने अष्टमभावस्थ मंगल के अञ्चभफठ कदे है| अद्चभफक पुरुषरारियों के है। वैद्यनाथ के श्चुभफलठ स्रीराशि के है। कई एक शाख्रका्े ने इस भाव मे संतति काभी फठ बतलाया हे। अष्टममाव संततिस्थान नदीं है । अष्टमस्थान पित्र स्थान से नवम, तथा मात्रस्थान से पचम रै–इस दृष्टिकोण से संतति होना- यह फल कहा है । मंगर पुरुषराशि में हो तो संतति बहुत थोड़ी होती है । खरीराशि मेँ कक; बृश्चिक तथा मीन मं, अधिक संतान होती है। वृष ओौर कन्या मे कम होती है-मकर में संतानाभाव रहता है। ल्रीराशि के मगल से लम होता है। अष्टमभावस्थ मंगर के अफसर बहत रिश्वत खाते है किन्त पकड़े नीं जाते । अष्टमस्थ मंगल का.जातक बहुभोजी होता है । बहुत खाने कौ आदत ३० वषं तक बरावर बनी रहती है–यतः उत्तर आयु मे अजीर्ण रोग के कारण मलेरिया, अर्धागवायु, व्टडगप्रेशर आदि रोग होते है । यदि ककं, च्रृशिक, धनुवामीनवल्यरदहो ओर इन राियोंमे अष्टम का मंगल हो-एेसे योग मेँ यदि कोई हठ योग का अभ्यास करता है तो सफट्ता मिलती है। इसी योग में यदि ल्य मेष, सिहवा धनुराशिका होतो जातक राजनीतिज्ञ होता हे । अस्पायु होना-यह फर कद एक ने कहा है, जबतक रवि, चन्द्र, रानि के संबंध से मंगल दूषित न हो तबतक यह फठ नहीं मिर्ता है । महोभरा मतिभोग्यवित्तं महोग्रं तपोभाग्यगो मंगरस्तत्‌ करोति । भवेन्नादियः इयाख्कः सोदरो वा कुतो विकमस्त॒च्छलाभे विपाके । ९॥ अन्वयः–( यस्य ) भाग्यगः तपोभावगः इतिपाठांतरम्‌ , म॑गलः ( तस्य ) मदग्रा मतिः ( भवति ) माग्यगः मगः ( तस्य ) महोग्र तपः ( करोति ) तं भाग्यवित्तं ( च ) तपोभावगः इतिपाठांतरम्‌ । करोति ( तस्य ) आदिमः इ्यालकः सदहोदरो वां न भवेत्‌; विक्रमः कुतः ( स्यात्‌ ) विपाके ( तस्य ) वच्छलभः ( स्यात्‌ ) (९ )।

मगलषफर १८७

सं° टी०-तपोभावगः नवमस्थितः मंगरः तं नरं भाग्यवित्तं भाग्येन वित्त द्र्य यस्य तं मोग्रं तेजस्विनं करोति; तथा महोग्रा अतिक्ररा मतिः भवेत्‌ $ आदिमः प्रथमः श्यारुकः वनिताभ्राता न; कृतः सोदरः स्वभ्रातापि न भवेत्‌ इत्यथः । तथा विक्रमः क्रियमाणः उद्यमः विपाके फर्काङे तुच्छलाभो भवेत्‌ ठच्छ स्वस्पः भः यस्येतिमावः ॥ ९ ॥

अ्थ– जिस मनुष्य के जन्मल्य से नवममाव मे मंगर हो वह मनुष्य मंग के प्रभाव से कुशाग्रमति-तीष्णबुद्धि होता रै। किसी टीकाकारने भमरोग्रामतिः का अर्थं बहुतक्रर बुद्धिवाा” क्रिया है। यह अर्थं प्रसंगानुकूल

हीं दै। किसी एक ने “उग्रबुद्धिः ेखा अथं करिया है-“बडाबुद्धिमानः रेखा

अथं ठीक है । मुष्य तेजस्वी होता है । प्रार्धदत्त अर्थात्‌ भाग्यदत्त धन से धनवान्‌ होता है । क्योकि मंगर के अद्युभ प्रभाव से उसका स्वयंकृत परिभम व्यथप्रयास होकर रह जाता दै । उतेजेठासाखावा जेठा सगा भाई नदीं होता है । उसका पराक्रम व्यर्थं होता है-मारी परिभिम-भारी यन्न वा भारी उद्योग करने भी लाभ बहत थोड़ा होता है ॥ ९ ॥

तुखना–““यदा भाग्यस्थानं गतवति कुजे जन्मनि मति;

मंहोा, भाग्याद्‌ वै घनमपि महोग्रं तनुभ्रताम्‌ ॥

तथा च्येष्ठ ०५१ नहि सहज सौख्यं च परितः;

ङतेऽप्युोेस्यान्नु फर्विपाकः खलं भृशम्‌ ॥ जीवनाय

अथे- नीतिशाख्र मे दो मत पाये जाते ईै-प्रथम–“उ्योगिनं पुरुष सिंह मुपेति लक्ष्मीः ।* द्वितीय-माग्यं फति सर्वत्र न्व विन्या नच पौरुषम्‌ ॥” नवम भाव का मंगर उन्योगी पुरुषि को यष्ट भ्रेयदेनेके लिए तैय्यार नहींदहै किं उसने अपने उदम से अपने जबल से धनाज॑न किया रहै; क्योकि वद अपने प्रभाव से किए हए परिभरम को फटोन्मुख होने नदीं देगा । दौ– जातक ने प्राक्तन जन्म मे किए हुए सुङ्कत भूयस्तव से; ओ इस जन्म मँ उसका प्रारन्ध वादेव है जिसे भाग्य कहा जाता है। यदि कोई धन संपत्ति पाई है नवमभाव का अर्थात्‌ भाग्यस्थान का मंगर उस धन संपत्ति के उपभोग मे कोई आपत्ति कोई विध्न-बाधा वा प्रतिबेध खड़ा नदीं करेगा-किन्ु उद्योग परिभम वां दारीरिक कष्ट से चाहे जितना भी यक्त धनार्जन के लिए किया जावे उसका फर परिथिम की वल्ना मे नगण्यी होगा । जिसके भाग्यस्थान मेँ मंगल होता है उसे बडा सास तथा जेठा माई नदीं होता है; अर्थात्‌ जातक जेठे साले सौर जेठे भाई के सुख से वंचित दी रदेगा । जातक-कुशाग्रबुद्धि अवद्य दोगाः किविरेसादहोनेसे क्या राम १ बुद्धिमता से बनाई गई किसी भी योजना को नवममंगर फटीभूत होने नदीं देगा । ^्धरमैऽघवान्‌? वराहमिहिर

अर्थ नवमभावस्थ मंगल के प्रभाव में उत्पन्न जातक पापी होता है।

१८८ चखयस्कारष्िन्तासणि ङा तुरुनात्मक्‌ स्वाध्याय

““घसरैऽथं संपत्तिवान्‌ ।* गुणाकर अथे- जातक धनवान्‌ दोता दै । “नरपति कुल्मान्यः संल्मो वंदनादौ भवति यदि जलादुस्कटकको वख्तखाने । परयुवतिरतःस्यान्‌ मानवो भाग्यवान्‌ वै पुरजसुखघुसिद्धौ दिजंगद॑श्च ठेखः ॥ ९ ॥ खानखाना भावा्थः- यदि मंगल नवमभाव मे होतो जातक राजकुलमान्य, सबसे वेदनीय, परखरीगामी, भाग्यवान्‌ , ग्रामो मे युख पानेवाल तथा बेकार घूमने वाखा दोतादहै॥ ९॥ ‘सीमायुतो भूपति मानयुक्तः सस्वो विधम नवमे धराजे ॥7* जयदेक अथे-नवमभावस्थ मंग का जातक भौर मर्यादित शक्ति का, राजमान्य, धनी, यर धर्मवर्बित होता है ।। “्ुपसुद्दपि देष्योऽतातः श्चुभे जनघातकः |> मंतरेश्चर अथै-नवमभावस्थ मंगल का जातक राजा का मित्र होता हैक लोग इससे देष करते है ¦! इसे पिता का सुख नदीं मिक्ता है । यह लोगों का घात करता है । नवममवनसंस्ये क्षोणिपुत्रेऽतिरोगी नयनकसरशरीरेः पिंगलः सर्वदैव । बहुजन परिपूर्णां माग्यहीनः कुचैल्ये विकलजनयुवेरी शीरवि्ानुरक्तः ।|* मानसागर अथै–नवममाव मे मंगल होने से जातक बहुत येगी, आंखे, हाथ तथा रारीर खाल-पीठे रगके होते है । यह अनेक छोर्गोसे धिरा हा, भाग्यहीन होता है। उसके व्र यच्छे नहीं होते । यह शीलवान्‌ तथा विद्यानुरागी होता है। । ““घ्म॑स्ये धरणीपुत्रे कुकर्मा गतपौरुषः । नीचानुरागी करश्च सकष्टश्च प्रजायते ॥” का्लीनाथ अथे–नवमभाव के मंगल से जातक दुराचारी, पौरुषहयीन, नीचो की संगति में रहनेवाला, करूर तथा कषटयुक्त होता ह । “’हिंसाविधाने मनसः प्रवृत्ति भूमिपते्गोरवतो.ऽत्पकन्धिम्‌ । क्षीणं च पुण्यं द्रविणं नराणां पुण्यस्थितः क्षोणिञुतः करोति ॥१ द्रुण्डिराज अथे-नवममाव मे मंगर होने से जातक की मानसचरृ्ति हिखा की भर रहती है । रानासे मान आद्र बहुत किन्वु लभ थोड़ा; थोड़ा पुण्य भौर थोड़ा धन होता है | “भूसूनौ यदि पितानिष्टसदहितः ख्यातः श्चभस्थानये ॥ वैद्यनाथ अथे–नवमभावमे मंगल्के होने से नातकके पिताका अनिष्ट होता है । जातक प्रसिद्ध होता है। |

मंगल फल १८९

अकुरालकमाँ देष्यः प्राणिवघपरो मवेन्नवमसंस्ये । घमैरहितोऽतिपापी नरेन्द्रकृतगौरवोरुधिरे ||” कल्याणवर्मा अथे- जातक कार्यं मँ निपुण नहीं होता, लोग इससे द्वेष करते ह, यह ईदिसक, घमंहीन, पापी, किंतु राजमान्य होता है । “परामवमनथ च धमं पापरुचि क्रिया ।2› षराक्ञर अथे- पराभाव, अनथ, तथा पापकर्म में रुचि होती है । ““कुजेरक्तपयानां हि मवेत्‌ पाञ्चुपती इत्तिः। भाग्यदहीनश्चसततं नरः पुण्यगहंगते | गगं अथे- यह बौद्धदहोतोभी रैवों के समान प्राणिवध में रुचि रखता है। ` अभागा होता हे । समोमे विषायथिपीडा शीलः कुलीलः परं माग्यहीनः पदेरक्तरोगी इशः क्ररकर्मा । प्रतापी तपेज॒जन्मकाठे यदि स्यान्‌ मरीजो यदा पुण्यभावं प्रयातः । जागेश्वर अथे–विष तथा आग से पीड़ा होती दै। व्यभिचारो, दुराचारी, माग्य- हीन; पांव मं रक्त रोगवाला दुब, कर तथा पराक्रमी होता ₹ै।

हिसा विधाने मनसः प्रवृत्तिः धरापते गोरवतोऽपि रन्धिः । क्षीणे च पुण्यं द्रविणं नराणां पुण्यस्थितः क्षोणिस्थितः करोति ॥”’ वृहदयवनजातक अथै हिंसक कामों की ओर रुचि होती है । राजमान्य, पुण्यहीन, तथा धनहीन होता है, २८वें वर्षं भाग्योदय होता हे ।

“आरौ भ्रात्रनाश्प्रदौस्तः । द्वाभ्यांदीनः 12 पु जराज अथे- दो भाइयों की मृव्यु होती है । “धमस्थिताः मूमिपुत्राः कुवन्ति धमरदितं विपति कुरीलम्‌ । व शिष्ठ

अथे–जातकवः धर्महीन, दुवुद्धि ओर दुराचारी होता दै।

पिताका सुखनष्टहोतारहै। नौकरी करता है। करर, व्यापार के ल्एि नाव यं घूमता गोपारत्नाकर

यदनसत-राजमान्य, विख्यात, परच्ियों का उपभोग करनेवाला, भाग्य- वान्‌ अपने गांर में सुखी ।

पाश्चात्यमत-कटोर स्वभाव का, दर्ष्याठु, चठ बोल्नेवाखा, प्रवासी; राकाशीट, दुराग्रही होता है) पानी के संवंधि्योसे हानि होती है | धमं पर थोड़ी श्रद्धा होती है। अध्यास के बारेमे दुराग्रही विचार होते ईै। अद्म ग्रहोकौ दष्ट होतो उद्धत ओौर दुरभिमानी होता दहै। मन पर संयम नीं होता । चाहे जैसा वतव करता है। अग्निराशि मे होतो उद्धत होता हे।

१९० चमर्कारचिन्तामणि का तुखनात्मक्‌ स्वाध्याय

पृथ्वी तथा जल तत्व की रारियों मे हो तो कुक अच्छा स्वभाव होता है । वायु- राशिमें हो तो कानून ओौर नीतितत्वों का उल्लंघन सहज ही करता है । धृगुसूत्र-पितरिष्म्‌ । माग्यदीनः । उच स्वक्षेत्रे गुरुदारगः, दे्ान्तरे- ` माग्ययोगः । श्चमे श्चमयुते श्चभक्षत्रे पुण्यशाली, धराधिपः | अथं–पिता को अरिष्ट होता है । अभागा होता है| यह उच अथवा स्वगृह में हो तो गुरुपत्नी से व्यभिचार करता है । बिदेश मे इसका भाग्योदय होता है । यह श्चमम्रहो से युक्तः अथवा उनकी राशिर्यो मे हो तो पुण्यवान्‌ होता है । यह राजयोग होता हे । विचार ओर अनुभरव–भाग्यस्थान के मंगल के फल मिश्रितस्वरूप के है-णेसा आववार्यो का मत है। वराहमिदिर, कस्याणवर्मा, पराशर, मानसागर, बृहद्‌ यवबनजातकः काशीनाथ तथा वरिष्ट ने पापौ, कूर दुराचारी, हिंसक, व्यभिचारी होना-यह फल कहा है । इसका अनुभव मकर यौर मीनरारि मं मिक्ता है। राजमान्य, धनवान्‌ , प्रसिद्ध होना, ये श्चभफल मेष, विह, धनु, कक, वृधिक तथा मीन्राशि मं मिलते ह। “भाई कौ मृ्युः यह फर पुखुषराशि काटहै। विद्धान्‌ किन्तु ध्म॑हीन होना, यह फल मेष, सिह तथा मकर को छोड़कर अन्यरादियों मे मिलेगा । “कानून ओर नीतिनियमों का उछ्छेघन करना, यह फर मिथुन, ठला ओौर कुम में समवित है) ओखिं नष्ट हो जाना, त्वचायोग-मादि-भादि” शरीर संबंधी अञ्चभफल नवममंगल के ई । इस स्थान के मंगसे विदेदायात्रा संभवदहै। संतान अभागादहोतीदहै। मोँबाप को कष्टकारक होती हे। मेष, सिंह, धनु, ककं तथा बृक्चिकराशिर्यो मेँ. उन्न अधिकारी, फति, उदार तथा मिलनखार होते ई । कुंभ, इशिक ओर मीन मे उन्न अधिकारी, कुछ स्वार्थी होते दै । ककं मेँ भच्छाफल मिक्ता दे । मोका सुख कम मिलता दै । यदि मंगल मिथुन, वला, ऊुंभ, वृष, कन्या तथा मकरमें होताहैतो इस योगम पत्नी यपनेसे भिन्न जाति की होती है, अथवः उसके स्वभाव में पति से भिन्नता तथा नवीनता होती है । नवमभावस्थ मंगल के युवक नश रौशनी के, तथा सुधारक प्रदत्तिके होते ई । इर्न्हे–विवाह पर यह एक पवित्र तथा स्थायी बंधन है रा विश्वास नदीं होता दै~चाहे कैसी खरी से सम्बन्ध हो जाए-एेखी इन की प्रचत्ति होती है। इस योग में अविवाहित रहजाना मी संमवदहे। द्विभायौयोग भी संमव है । पदहिखीखी के वचो की देखमाक के लिए–घर-गृहस्थी चाने के लिए दूसरे विवाह की भारौ आवदयकता होती है । ये रोग परसिद्ध होते दष भी अभागे होते दै। इस योग मे डाक्टर यच्छी कीर्तिं पाते दहै । इन्र किसी वस्तु की कमी नदीं रहती । बवकीरों के लिए यह योग बहुत अच्छा नहीं । दजीनियर फिटर, सुनार, लोहार भादि के चि यह मंगर खाभदायक है।

मगरुफख १९१

पुलिस तथा आबकारी अफसरों के छिएभी यह योग विरोष फलदाता नहीं इन्द अपने अफसरों से कड़-ञ्गड़ कर उन्नति प्राप्त करनी होती दै । यह मंगल खीरािमेंदहोतो भाह्यों की मृत्यु नहीं होती। बदहिनों को मारक होता है । यह मंगल पुरुषरारि मे दो तो बदहिनां को तारक ओौर भादर्यो को मारक होतादहे। इस योगमे भाग्योदय २७-२८ वें वष॑मेदहोतारै। इसयोग में उत्पन्न खोग डिस्टिक्टश्रोडं, रोकल्बोड, असेम्बली आदि म चुनाव जीतते ई ।

कक, वृश्चिक; मकर; मीनमे मंगल होने से विवाह के बाद भाग्योदय होता दै । ककं के मंगरू में स्वमाव बहुत विवि होता है । बृथिक मेँ स्वभाव मं धूतता होती ह । अपने स्वाथसिद्धि के छिए दूसरों का नुकसान भी करते दै। मकर ओर मीनमे मंगलदहोतो स्वभावमें नीचता होती है। ये लोग नि्लजः शठ बोलनेवाठे ओर अपनी डींग हांकनेवाके अहमन्य होते ई । कुठे तस्य किं संगरं मंगलखोनो जनैभूयते मध्यभावे यदि स्यात्‌ । स्वतः सिद्ध एवावतं सीयतेऽसो वराकोऽपि कण्ठीरवः किं द्वितीयः ॥१०॥ अन्वयः–यदिं मेगः मध्यभावे स्यात्‌ (तदा) तस्यकरुके मंगल न ( स्यात्‌ ) ( सः ) जनैः भूयते, ( असौ ) खतः सिद्ध एव अवतंसीयते, असौ वराकोऽपि किं द्वितौयः कटीरवः १॥ १० ॥ सं< टी०–यदि मध्यभावे दशमे नो मंगकः तस्यक्ुले किं मंगलं अपित्‌ स्वस्थे भौमे एव कल्याणकायस्यात्‌ इति अतिशयोक्तिः । तथा जनैः भूत्यैः भूयते ` बहुश्रत्यः स्यात्‌ इत्यथः । असौ नरः स्वतः एव स्वोद्यमादेव सिद्धिः संपन्नकार्थः अवतंसीयतें लोक्घु मेंडलायते, तथा वराकः दीनङुरोद्‌भवोऽपि द्वितीयः कंटीरवः किं सिह तल्यपराक्रमः स्यात्‌ इतिभावः ॥ १० ॥ अथे–जिस जातक के दशममाव में मंगर नहीं होता है उसके कुल मे विवाह आदि मंगककायं भी नहीं होते है, अथात्‌ अमंगलदहारी तथा मंग कायकारी मंग यदि दशमभावमें होताहैतो ही जातक के कुर में विवाह आदि मंगल्कायं होते रहते हैँ । टीकाकार ने ध्यह मंगर का वर्णन अतिदयोक्ति- पूणं है, एेसा का है । क्योकि जिनकी जन्मकुंडली मे दशमभाव मै मंगल नदीं भीदहोता दै विवाहादि मंगल्कायं तो उनके षयो में मौ होते रहते है । यहं द्शमभाव मं मंगर नदीं होता है ओर इस अभावे भी मंगल्कार्थं होते हए दिखाई देते ह वरदौ पर अन्य कड एक श्चमयोग होते है उन्हीं के प्रभाव से मंगल्काय-विवाहादि होते दै। भद्रजी का ताद्य यह दहै कि दश्चममाव का मंगल श्चमफठ देनेवाला दै । ““दशमेऽगारकोयस्य सजातः कुरूदीपकः> जेसे निबिड अंधकार मे दीपक उजाला कर देता है तद्त्‌ दशममावस्थ मंगल के प्रभाव मे उन्न मनुष्य भी अपने पराक्रम से, अपने भुजवला्जित धन से, तथा अन्य स्थावर जंगम संपत्तिसे;, अपने कुल को उजागर अर्थात्‌ प्रसिद्ध कर देता है। किसी एक ने णेता मी कहा दै–“द्शमेऽगार को नास्ति सजातः

१९२ चमस्कारचिन्तामणि का तुरुनाव्मक स्वाध्याय

किं करिष्यति? जन्मकाल में मंगल दरमस्थान में यदि नहीं होता है तो मनुष्य का जीवन अस्यन्तं साधारण बीतता है । इष तरह दशममंगल-मंगलका्य साधक हे बाधक नदीं, यह नारायणमट््‌ का म्म है जातक के काम स्वतः सिद्ध-अर्थात्‌ वहत प्रया के विना भी-अपने थोडे से उद्यमद्वारा सिद्ध दहो जातेर्है। इसके पास नौकर चाकर बहुत होते र्द। हीनङुल मे जन्म पाकर भी जातक अपने पराक्रम से सिंह की नाई प्रमाव्याखी होता है। जैसे वन्यजीव चित्रक आदि सिंह को राज्यतिलक नहीं क्गाते, यौर सिह अपने सामथ्यंसे स्वयं ही जंग का राजा बन बैठ्ता है–दइसी तरह दहीनक्रुर मे उत्पन्न होकर मी जातक दशममावस्थ मंगलके श्युभप्रमावसे लोगों मे अग्रणी तथा उनका नेता हो जाता है॥ १०॥ तुरखना–“यदाकममस्थानं गतवति कुजे यस्य॒ जनने + क्षमा-भरत्य-ग्राम-क्ितिपतिं कुटावाप्त विभवः । स्वतः सिद्धः दाश्वत्‌ प्रभवति समंतात्‌ परमसौ प्रताप व्रातेन व्रजति सहसा सिह खमताम्‌ ॥› जीवनाय अथे- जिस मनुष्य के जन्मसमय में मंग द्शमभावमेंहोतादहै उपे भूमि-व्य-ग्राम भौर राजकु से धन प्राप्त होता है। निरंतर सव कार्योमें सफट्ता प्रास्त होती है । वह जातक अपने प्रतापसे सिह के समान पूर्ण पराक्रमी होता है । जीवनाय के अनुसार मी दराममावस्य मंग शुभफल्दाता है। कथन का तास्थ यदहकिंजो खोग स्वयं स्वपरक्रमसे, स्वभुजब्ररुसे, उन्नत होते ह जिद अंगरेजी में ^सेल्फमेडः कदा जाता है; वे प्रायः ददामस्थ मगल के दयुम प्रमाव मे जन्म ठेते है। यहो पर मगल दशममावमे नहीं तौ मी उन्नति देखनेमें आती है वर्ह पर जातक को जन्मकुंडली मेँ अन्य द्ुभयोग होते है जिनमे असाधारण उन्नति होती दहै। इस तरह किसी शंका की ावद्यकता नहीं है। ““सुखद्ौयंभाक्‌रवे? ॥ वराहमिहिर अथ-सुखी तथा शूर होता है । ““तोषावतं सोपङृताथयुक्तः सत्‌ साहसेश्वर्ययुतोऽम्बरस्थेः | जयदेव अथं–जातक संत॒ष्ट-मूषणभूत, परोपकारी, उत्ताहयुक्त तथा रे्र्य॑वान्‌ होता दे। नभवि दपतिः करो दाता प्रधानजनस्वतः ॥ मरेश्वर

अथे–यदि ददाममें मङ्गल हो तो आदमी कूर, दाता, राजा के समान पराक्रमी दोता दै । बड़े मुख्य आदमी भी उसकी प्रशंसा करते हँ ॥

“मेपुरणस्थेऽवनिजे तु जाताः प्रताप-वित्तपरवटप्रसिद्धाः” ॥ वंचनाथ

अथे-जातक प्रतापी, धनवान्‌, वलवान्‌ तथा प्रसिद्ध होता है । यदह मङ्गर कक राशिमंदहोतो खखदेता दै ।

१३ मंगलफक १९

^दुकञामगत महीजे दान्तिकः कोशदीनो निजकुल जयकारी कामिनी चिप्तहारी । जलदसमशरीरो भूमिजीवोपकोपी दिनगुरुजनभक्तो नातिनीष्वो न हस्वः ॥ मानसागर अ्थ- जातक संयमी, निधन, कुरका उद्धारक, लियं को प्रिय, नीलवण देवाला; जमीन पर उपजीविका करनेवाख, ब्राह्यणो का तथा बडे बुदुं का भक्त एवं मंञ्रेकद का होता हे। “कर्मस्थाने महीपुत्र श्चभकमां श्चभान्वितः । | सुपुत्री स्यात्‌ सुखी चुर गर्विष्ठोऽपि भवेन्नरः ॥ काशोनाय अर्थ–जातक श्ुभकमं कर्ता-कस्याणयुक्तः श्रेष्पुर्रोवाला, सुखी, शूर तथा अभिमानी होता है । | “विश्वमरापतिसमत्वयतीवतोषं सत्साष्टसं परजनोपक्ृतौ प्रयम्‌ । प्व्॑दूविभूषणमणि विवधागमांश्च मेषूरणे धरणिजः कुरुते नराणाम्‌? ॥ डिराज अथे- जिसके दशमभाव मे मङ्गर हो वह मनुष्य एेशर्य तथा प्रतापमें राजा के समान, सन्वुष्ट-साहखी, परोपकार करने में यलनशीरू, सुन्द्र भूषण-मणि आदि विविध रलं को प्राप्त करनेवाला होता है । ““कमोयुक्तोदरमे अरोऽधृष्यः प्रधानजनसेवी । सुतसौख्ययुतोरुधिरे प्रतापबहुलः पुमान्‌ भवति? ॥ कल्याणधर्मा अर्थ–जातक क्रियाशील, पराक्रमी, अजेय, महानपुरुषों की सेवा करने- वारा; पुत्रसुखयुक्त तथा बहूप्रतापी होता है । ““यदालय्र चन्द्रात्‌ खमध्ये महीजः तदा साहसं कूरभि्छस्यदृक्तिः । भवेद्‌ दूरवासः कदाचिन्नराणां तथा दुष्टसंगः परं नीषचसंगः॥ दशमस्थोयदा भौमः शत्रुक्षेत्रे स्थितस्तदा । प्रियते तस्य बार्स्य पिता शीघं न संरायः ॥ जागेश्वर अर्थ-ख्यसेवा चन्द्रसे दसवें स्थानमें मङ्गल होतो साहसी, भीख जैसा करूर, जन्मभूमि से तूर रहनेवालख, दुष्ट, नीचसंसी होता है । यह मङ्गल दात्रुग्रह कौ राशिमेदहोतोपिताकीमृष्युहोतीदहै। | ““पुरफितरिति संज्ञः काजिखोनेककि्दा- नैयसमरिह लोके पूजितः साहसी च । मिहिरजरजलालञ्जारजेवर्युतो ना भवति यदि मिरीखो शाहखाने सखी स्यात्‌ ॥ १० खानखाना। भावार्थ–यदि मङ्गल दशमभावमे हो तो जातक धनी, होशियार, किफायतीः लोकपूजित, साहसी, धन, वख, रलभूषणों से युक्त तथा दानी होता द॑।। १०॥ “धनव्ययं च दरामे धनलाभं कुकमं चः” - राक्षर अर्थ–धन होकर सव्वं हो जाता है जातक कुकर्मी होता है ।

१९४ चमस्कारचिन्तामणि का तुरखुनाव्मक स्वाध्याय

८मौमः किलकर्म॑संस्थः कुर्यान्न रं बहूुकमेरतं कुपुत्रम्‌? । वशिष्ठ

अर्थ–दशमस्थ भौम होतो जातक दुराचारी होता दै–इसके पुत्र भी अच्छे न्दी होते ॥

पाश्चात्यमत-पे्यंशाली, अभिमानी, उतावला स्वभाव, लोभी होता दै। किसीर्वँक वा संस्थाका चाल्क हो सकतादहै। व्यापारमें प्रवीण होता है। कमी फायदा कभी नुकसान होता है । त्ति पारावी होती हे ! टीकाकार होता हे । यदह मङ्गल श्चभ संबन्ध में हो तो पैयंशाटी यर बहादुर होता है। सुख ओर दुःख दोनों मिरूते ई–स्थिरता नदीं दोती |

श्रगुसूत्र-जनवव्कभः । भावाधिपे बल्युतं भ्रातादीघायुः । विरीषभाग्य- वान्‌ । ध्यानश्चीट्वान्‌ । गुखभक्तियुतः । पापयुते कमविव्नवान्‌ । श्चुभयुत श्युभक्षेत्र कर्मसिद्धिः। कीर्तिप्रतिष्ठावान्‌ । अष्टादरो वषे द्रव्याजन समर्थः । व्यापारात्‌ भूमिपाक्तः प्रसादात्‌, साहसात्‌ बहिस्रात्‌ । सरवंसमथः | तेजान्‌ । यारोग्यम्‌ । टट गारः । चौरबुद्धिः । दुष्कृतिः । भाग्येश कर्मेशयुते महाराजयौवराज्यपद्धाभि- षेकवान्‌ । गुरुयुते गजातेश्वयेवान्‌ । भूसखमृद्धिमान्‌ ॥

अथे–लोकप्रिय होता है । द्मस्थान का स्वामी बलवान्‌ हो तो भाई दीर्घायु होता है । विरोष भाग्यवान्‌ होता है। ध्यान-धारणा करता है। ठथा शीलवान्‌ , गुरु का भक्त होता है। पापग्रहकेसायमेंदहोतोकिसीभी कायं मे विघ्न उपस्थित करता दहै । श्यभग्रह के साथवा उसकी रारिमेहोतो काम सफल होते ह, कीर्तिं तथा प्रतिष्ठा प्राप्तहोतीहे) श्रव वर्षमे व्यापार मे, याराजाकीङ़्पासे, वा साहस से धन प्राप्त करता है । वह्धि संबन्धी कार्यों सेवा शस्रोके कामसे धन कमादादै। सकेथा सामर्थ्यवान्‌ होता दै। तेजस्वी, नीरोग, मजबूत शरीर का होता दै । डि. चोर जेसी भौर आप्वरण बुरा होतादहै। भाग्य भौर कर्म॑स्थान के यधिप्ति भी मङ्गकके साथ दद्म मेही हां तो राजयोग होता दै । फलतः महाराज-युवराज-पटाभिषिक्त महाराजा हो सकता है । गुर के साथ हो तो एेश्वय.री होता है । घोडे-दहाथी आदि की सवारी भी प्रात होती है । जमीन बहूद होती हे ।

विचार ओर अलुभव–मानसागर-पराशर आदि ने कुछ श्भ-कुछ अश्चभ-रेसे मिश्रितफल कदे है| वरिष्ठं ओर ५श्वाव्यमत के अनुसार अश्चभ फल दै । अन्यग्नन्थकारों ने श्चुभफल कटे ह । अघ्ुभफट का अनुभव बृष, मिथुन, वला तथा कुंभ रारियीं मं होगा । खभफले का अनुभव मेष, सिह, धन, ककं, वृश्चिक तथा मीनमं संभवदै। दशम मङ्खलमं व्वपनमे माता-पिता की मृव्यु होती है । जातक किसी का टन्तक पुत्रहो सकतादहै। यह योग व्रष- कन्या ओर मकरमें होता है। पुच्रमृ्यु होती है । समाजमें कीर्तिं नद प्राप्त होती । नवमे ओौर दश्चमेद्य के साथ यह मङ्गट राजयोग करता है । गुरं कः साथ हो तो गजांत संपत्ति होती है । गजांत संपत्तिका यीग्‌ कट, सिह ~; मीन लग्न हो, भौर दशम में गुर मङ्गलदहोतोदहोताहे’

1,

मगरूफट १९९५

लनम खीराशिष्टो तो स्वपुरुषार्थसे, भारी कष्ट के बाद उल्नति होती दै। पुरुषराशि ख्नमेँं होतो विनायलल भी उन्नति होती दै भौर कीतिं मिलती है । दशममङ्खल्से वंशश्चय भी होता है-ेसा भी किसौ एकका अनुभव है ! इसका फल कई अशो मे लन के मङ्गल जसा होता ई | २६ वर्ष से कुछ भाग्योदय होता है । ३६ वे वषं मँ रिथरता ्राप्त होती है ।

दशमभाव का मङ्गल कक, उृधिक, मीन तथा मेष, सिंह, धनु मेँ साधारण अच्छे फठ देता दै । वृष; कन्या, मकर तथां मिथुन, वला, कुंम मे साधारण अञ्चभफल देता है ।

डाक्टरों की कुण्डटी में उशिक रारि में दरदामर्मे, मङ्गलो तो डाक्टर रोग सजंरी मे प्रसिद्धि पाते है । वकीलों के लिए भी यह योग अच्छा है। फौजदारी मुकदमों मेँ भच्छ यञ्च मिक्ता है । नौकरी मे बडे अफसरों से ्चगडे होते है ।

“ध्माने वा यदि पञ्चमे कुज-रवि-च्छायाकुमारेन्दवः | सदयो मातुल तात बाख्नननीनाश्चं प्रकुरवम्तितेः ॥

वैदनाय का यह्‌ शोक है

अथः- दशम वा पञ्चम में मङ्गल हो तो मामा का तत्काल नाश होता हे, रविद्ोतो पुत्र का, तथा चन्द्रहोतोमाताकानाद् होता हे। | कुजः पीडयेल्लाभगोऽपत्यशतरून. भवेत्‌ ससुखो दुयुंखोऽपिगप्रतापात्‌ । धनं बधते गोधनैः वा्टनैवी सच्ृच्छरुन्यतार्थे च पेञुन्यभावात्‌ ॥१६॥

अन्वय :–खभगः कुजः अपत्यशतून्‌ पीडयेत्‌ › सः दुमखः मपि प्रतापात्‌ सम्मुखो भवेत्‌ । ८ तस्य ) धनं गोधनैः वादनैः वा वधते, पेय्यूत्य भावात्‌ अथं सकरत्‌ दयून्यता च स्यात्‌ ॥ ११॥

सं० टी<-खाभगः कुजः भौमः अपत्यानिशत्रवश्च तानपीडयेत्‌; तथा दुमंखः आक्रोशकोऽपि प्रतापात्‌ तेजोऽधिकल्वात्‌ सन्मुखो रोकदशंनीय वक्तो भवेत्‌; गोधनैः वाहनैः वा निमित्तः अर्थात्‌ गोऽश्वादि भ्यापारेण घनं, वैचयल्य- भावा गुणीतिखोक प्रसिद्धात्‌ अथं चयन्यता द्रव्यहानिता. च सकृत्‌ एकवार भवेत्‌ ॥ १२१ ॥ ॑

अथे–लभमभाव का मंगल संतान तथा शत्रुं के छि अच्छा नहीं होता, क्योकि इस स्थान का मंगल इन दोनोंको ही पीडित करता किसी रोग . के कारण यदि मुख वित हो जातादहै तोभी जातकं का धनकरत प्रभाव इतना बदृष्वदृकर होता दै किरोग इसे सुमुख अर्थात्‌ ोकदश॑नीय मुखवाला ही समञ्नते हं–इसके सम्मुख जाने मेँ दहिचकिचाहट नहीं करते है । तात्पर्यं यह दै कि लक्ष्मी के प्रभाव के दुभुंलता, अङ्खदीनता, अवयव विकृति भादि सभी दुशुण छिप जाते ह । ऊरूप होता हुभा भी सुस प्रतीत होता है । मथवा जातक के रातु भी, जो पिले इसकी शान के विलफ़ बोलते ये, इसके प्रताप से दबकर इखकी प्रयंसा–इसकी बड़ाई करने लगते है । यह गाए-मैस आरि पश्चघन से, एपं घोड़ा-ऊंट-दाथी आदि सवारी के जानवरों के व्यापार से माटा-

१९६ ‘वसस्कारचिन्वामणि का तुरुनाष्मकर्‌ स्वाऽ्याय

मार डो जाता है–अद्ूट द्रव्यखम से समृद्ध हो जाता है। इसकी धनान्यता के बारेमे कोई चुगली न कर दे-कीं चोरों को इसकी घन संपत्ति कापतान लग जावे-इस कारण वद्‌ निर्धन-सा बना रहता है । किसी टीकाकारने दुष्ट परङ्ति होने से एकवार इसका धन नष्ट भी होता है” एेखा अर्थ किया दै ॥११॥ तुखना–“यदाये मदेयः प्रभवति बदादेव समरे जयत्यद्धाशचूनपि सुतविषादेन विकलः । धघन-ग्राम-क्चोणी-चपल तुरगानद कदस पराथं ग्यापारात्‌ क्षति मतित रामेव लभते ॥* जीवनाय अ्थ–जातक संग्राम में शत्रुओं पर॒ विजय पानेवाला, तथा पुत्रके दुःखं से पीडित होता है। इस मंगल के फलस्वरूप जमौन, धन, वादन आदि से सुख प्रा होता दै। किन्तु दुसयोकौदी हई परूजीसे व्यापार किया तो उखमें बहुत नुकसान होता हे । टिष्पणी-जीवनाथ के अनुसार लछामभाव का मंगल व्यापारियों के लिए बहुत खभ कर हो सकता दे, यदि वे अपनी पूजी से व्यापार करं । यदि कोड अपने व्यापारी धन से जमीन खरीद करता है तदनन्तर उस जमीन के इकडे बनाकर घर-बस्ती वसाने के लिए जमीन बेचता दै अौर इस जमीन पर एक कालोनी-एक नईबस्ती वख जाती दहै तो जमीनके मालिक को भारीलभमदहो सकता है । इसी तरह सारईैकल-स्कूटर-मोटर-मोटरसादईैकल के व्यापारसे भी भारी धनप्रापि हो सकती दै! को समयथा जब व्यापारीलोग चैरगाडी-गङ् से व्यापार करते ये–किंराया वसू करते ये-अब इनकी अपेक्षा टूक से अधिक आमदनी होती दै-यह सारा व्यापार तेजरप्तार के वाहनों से अधिक धन देने वाला दै] गाए-भस आदि चौपाए जानवरों के क्रय-विक्रय से बहुत भारी धनाज॑न नदीं दो सकता दै । यदि अच्छी डेयरी चलाई जावे तो दूघ-करीम-मक्खन आदि के विक्रय से भारी खाभ उटाया जा सकता है । इस तरह व्यापारी लोग कामभाव के मंगल की कृपा से अच्छे धनान्य हो सकते ई । किन्तु यह खाभ अपने धन के व्ययसे अधिक होगा ओौर यदि सूदपर दूसरेसे पूजी लेकर काम चलाया जाएगा तो नुकसान की आशंका मी हो सकती है यदह ममं हे । ““एकाद्शगे गुणवान्‌ पिययुखभागी तथाभवेच्ूरः । धन-धान्य-सुतैः सहितः क्षितितनये विगतशोकश्च 1 कल्याणवर्भा अ्े–जातक गुणी, युखी-द्र, धनौ -घान्य तथा पुरो से युक्तः तथा शोक- हीन होता है। “’धनसुखयुतोऽखोकः शूरो भवे सु शीः कुजे |” मच्रेश्वर अ्थे-जातक धनी-सुखी, शोकरदित, शर तथा सुशीर दता है । ““ताम्र-विदुम-सुञ्चोणवनमदूयान मानसदितो भवे कुजं 1 जयदेव अर्थ-एकादद् भावके मंगल्से जातक ताबा, पंगा, संद्र वख, हर, वाहन, मान-इनसे युक्त दता हे ।

मंगरुफर १९७

“लाभे प्रभूत धनवान्‌ ।’* वराहमिहिर अ्थै- जातक धनाढ्य ्टोता रै । “लाभे भौमे भूरि लाभो नानापक्रान्न भक्षकः । नीरोगोन्रपमान्यश्च देवद्धिजरतो भवेत्‌ ॥* काज्लीाथ अर्थ–लाभभाव के मंगल से लाम होता है उत्तम खायपदा्थं खाने को मिलते ह रोगद्ीन, शपमान्य-देव तथा ब्राह्मणो का भक्त होता हे । “यस्ये घरणीयुते चठुरवाक्‌ कामी, धनी, शौयंवान्‌ 1 वैद्यनाथ

अ्थं–जातक बोलने मे ‘वतुर, कामी, घनी ओौर श्र होता है । ““ताम्नप्रवालविर्सत्‌ कठ्घौतरक्तवस्नागमं सुलल्ितानि च वाहनानि । भूपप्रसाद सुकुत्‌हर मंगलानि दद्यादवातति भवने हि सदावनेयः |” दुण्डिराज , अथै–एकादशभाव का मंगल नातक को तावा, मुंगा, सोना, खर्व; उत्तमवादन, राजकृपा, ओर अनेक मंगल कायं प्राप्त करवाता दै । ‘जरमखमल्मर्ज्याजकरी साहिबीभिस्तुरगरथपदात्येः युगूजनश्वारिददीनः । यदि भवति नलादुल्कल्कको याफिखाने मदनसमरदश्चः पंडितः सत्यगता ॥ ११॥ खानखाना भावा्थै–यदि मंगर एकादश्चभावमें होतो जातक जरी; रेरमी, मख. मठी, जकंसी आदि वस्नं से युक्त, सांहिबी रखनेबाला, तथा हाथी, घोड़ा; गाडी नौकर आदि रखनेवाला होता है । शन्नुरहितः लियो के साथ क्रीडा करने मं समर्थ, पंडित भौर सच बोटनेवाखा होता है ॥१२१॥ “सुरजन हितकारी चायसंस्ये च भौमे दृपदवददमेषी चंचलः कोपपूणः । भवति च यदि ठुंगे सवंसौभाग्ययुक्तो धनकिरणनियुक्तः पुण्यकामा्थं लाभी ।।2 मानसागर अ्थ–लातक देवभक्त होता है राजा कौ तरह घर के काम करनेवाला; चवर-क्रोधी, होता है । यदि मंगल उच्च का तथा बली होतो जातक भाग्यवान्‌ पुण्यकाम करनेवारा तथा धनार्जन करनेवाला होता है । “लाभे घनं सुखे वसनं स्वणक्षे्नादि संमरहम्‌ ।> पराहार अ्थ–घन, सुख, वस्र, सोना-खेती आदि का खभ होता है । ““क्षितिजश्च नारीम्‌?” । वक्षिष्ठ अथै- स्रियो का लाम होता है। “प्रभूतघनवान्‌ मानी सत्यवादी दृटत्रतः। अश्वान्यो गीतसयुक्तो लाभस्थे भूमि नंदने ॥ विधेयः प्रियवाक शुरो धन धान्य समन्वितः। खाभेकुजे मूतोमानी इतवित्तोग्नि तस्करः ॥ गं

१९८ चमस्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

अथं-जातक धनी, मानी; सत्यवक्ता, मधुरभाषी; वरत का दृढता से पालन करने वाला, अर््वाोका स्वामी, गायक, सेवक, शूर, मृतजैसा निष्क्रिय तथा निरा अन्तःकरण का होता है। अगि ओर षोरोंसे हानि होती है,

““ताग्रप्वाट विलसत्‌ कठ्धौतरूप्य वस््रागमं सुललितानिच वाहनानि ।

भूपप्रसाद सुकुतूहल मंगलानि दद्यादवाप्निभवने हि सदावनेयःः

वृहद्य वनजातक

अथं सभी प्रकार की संपत्ति-जेसे तांवा, प्रवाल, चांदी, सोना + वस्च तथा वाहन का सुख प्रात होता है । राजा की कृपाप्राप्त कर मंगल हातादहै। रश्व वषं मे धन प्राप्त होता है।

“कुजेकादरो पुत्र चिता नराणां भवेज्‌ जाठरं गुल्मयेगादि युक्तम्‌ ।

प्रतापो भवेत्‌ स्वत्‌ तस्यनूनं ्रपात्‌ तुल्यता बा भ्रमस्तस्य दे है ॥ जागेश्वर

अथे-पुत्रविता होती है । पेटमें गुस्म आदि रोग होते है । इसका प्रताप सूर्यं जेसा ओर वैभव राजा जैसा होता है-किन्तु इसे भ्रममीदहो सकता है।

“(एवं भूमिय॒तेऽग्निशस््रजनिता यात्राधनेः साहसैः | स्वणे्वा मणि भूषणेषु नितरां द्रव्यागमः संवदेत्‌ ॥ पुंजराज

अथं-जातक को यासे, साहससे, अग्नि वा शस््रँसे, वा सोने वा जवाहरात के व्यापार से बहुत धन मिख्ता है ।

यवनमत-इसके वस्व रेशमी वा जरी के होते है | घर मे नौकर-चाकर होते ई । धोड़े-गाडी आदि वाहन होते है । जातक कामुक, पंडित, तथा सत्यभाषी होता है ।

पाश्चात्यमत-इस व्यक्ति के मित्र विश्वस्त नहीं होते | मित्रों दारा उगायां जाता है । किन्तु इसपर श्चुभग्रह कौ च्शिदहोतो मित्रों सेअच्छाखाभम होता है। जलतत्वकी रायि में यह मङ्गलो तो मित्रों के सम्बन्ध से आपत्ति आती रै) उनकी जमानत भरनी पड़ती है । यह अग्नितत्व कौ रारि होतो सद्धा, लारी, रेख ओौर ज॒ए में अच्छा खभ होता है । इस स्थान मे मङ्गल की आत्म- संयमन कौ शक्तिः प्रव होती है।

८८ = ~ -

भ्रगुसूत्र–““वहूक्ृव्यवान्‌ । धनी । स्वरुणः अमितलमवान्‌ । सिंहस्थे वा ्ेत्रेशयुते राज्याधिपत्यवान्‌ । श्चमद्वययुते महाराजाधिपत्ययोगः । श्रातवित्तवान्‌ । दरव्याथमानमोगी । संतति पीडा । विचित्रयानम्‌ । इम्यभूस्वणैटाभो भवति ।

अथे–जातक बहत काम करता है । धनवान्‌ तथा अपने रुणो से बहत लाभ प्राप्त करनेवाला होता है। यदह मङ्ग सिंहरारिमें अथवा रेशा के साथ दहो तो जातक बड़ा अफसर होताहै। दो श्चुभग्रहोंकेसाथदहोतो जातक बडे राज्य का अधिकारी होता है भाई का द्रव्य मिक्ताहै। धन तथा मान प्रा होता दै। खन्तानके बारेमे कष्टहोता दै। तरह-तरहके वाहनों में घूमता है । बडी बिष्डिङ्ग, जमीन तथा सोना-जवाहरात की प्रासि होती दहै।

मगरुफर १९९.

विचार ओर अनुभव-गर्ग-जीवनाय-मद्नारायण के कदे हए फ पुरुष गरिर्यां के है । अन्य शास्त्रकारप्रतिपादित फलों का अनुभव स्त्रीराि्यो में आता दहै)

एकादशभाव मे शज्ञल पुरुषरारि में-मेष-सिह-घनु, मिथुन-तल् वा कुम्भ राधि में दहो तो पुत्र नदीं होते-यदि हए तो जीवित नदीं रहते, अथवा गम॑पात हो जाता है । अथवा डे होकर मोँ-बाप से ज्गडते ह ।

मङ्गल स्नीराशिमंदहोतो तीन पुत्र होते है। यशप्रापि होती रै इस मङ्खर केः आफिंसर यदि स्द्ित ठ तो पकडे जार्णैगे |

इस स्थान मं स्वराशिके मज्गर से द्रव्यलाभ, तथा अधिकार पराप्तिके लिए यत्न करने की प्रत्त होतो है चाहे यलकैसाद्यीक्योंन दहो चाहे स्वपली काशीरकुतक भी बेचना पडे। डाक्ट्योँ के लिए यह योग अच्छा है, सर्जरी मे तथा स््रीरोग विरोषता में ` यदास्वी होते ह वकील के ठ्एिभी लभमाव का मङ्गल लखभदायक है धन- मिलता है, अदाल्तं पर प्रभाव भी पड़ता है-कभी-कमीणेलाभी होता है कि सनद्‌ रद्‌ होने का समय भी आजावे । इनको वादी-प्रतिवादी दोनों से रखिवत लेने की दत होती है-इसी से कटिनाई भी होती है । ।

यह मङ्गर एेजिनीयर, फिरर, सोनार, खोहार आदि के ल्एि भी अच्छा होता है ।. रताक्षोऽपि तत्‌ सश्चतो खोहघातैः कुजो द्वादशोऽथैस्य नाशं करोति । मृषा किंबदंती भयं दस्युतो वा किः पारधी हेतु दुःखे विचित्यम्‌ ॥१२॥ अन्वयः–दादशः कुजः अथस्य नाशं करोति, शताश्चः अपितहछोहधातैः सक्षतः ( स्यात्‌ ) तस्य मृषा किंवदन्ती, दस्युतः भये, कलिः वां ८ भवेत्‌ ) तस्य पारधीदेवु दुःखं विचिन्त्यम्‌ ॥२२॥ सं० दी०- द्वादशः व्ययभावगः कुजः अर्थस्य द्रव्यस्य नादं करोति, तथा शताक्षः इद्रः अथि लोहधातैः रास्त्रप्रहरिः सक्षतः तेन धातक क्षतेन सद वतमानः स्यात्‌ । स नरः अपि अरिषातकः भवेत्‌ इतिभावः । मथा किंवदन्ती मयं मिथ्याजनश्रुतिः, भयेभीतिः दस्युतः चोरात्‌ कलिः कलो भवेत्‌ । तथा पारधीदेव दुःखं भत्यजनित्तदेत्तु दुःखं विचिन्त्यम्‌ ॥ ९२ ॥

अथं–द्वादशभाव का मङ्गर धनानि करता है । द्वाद्यभाव का मङ्गल एसे शस्त्रो से भयंकर आधात करता है-इतनी भयंकर चोट लगाता है कि जिनसे इन्द्र के शरीरम भी त्रणवा चिह हो जाते रै, चटी अफवार कर्ती ईै- चोरो से भय होता है-क्षगड़े हो जाते है, परस्पर कलह वा वैमनस्य हो जाता दै। नोकरो के कारण मी दुःख होता है-अथवा पराधीनताजन्य भव तथा दुःख होता है-इस तरह जीवन कंटकाकीणं हो जाता है ।

२०० षवमरकछारचिन्तामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

एक टीकाकार ने निम्नलिखित अथं किया हैः-जिस मनुष्य के जन्मलग्न से बारदर्वे स्थान में मङ्गल हो उसके द्रव्य का नाश होता है। उसके शास्त्र के प्रहासे से इन्द्रभी घायल दहो सकताहे। तव मनुष्य क्या व्स्तुदहै। उसे ष्वोरी आदि का छा अपवाद ख्गता है । वोर से कर्द होकर उत्ते भय होता दै ओर उसे परतंत्रता का दुःख दोता है ॥१२॥

तुखना-कुजोऽपाये यस्य प्रभवति यदा जन्म समये । तदा वित्तापायं सपदि कुरुते तस्य सततम्‌ ॥ कल्क प्रख्याति पिश्चनजनतश्चौरकुकुतो । भय वा शस््रादेरपि रिपुङ्तं दुःखमधिकम्‌? ॥ जी बनाथ

अथे-जातक कौ तत्का धनहानि होती दै। चुरु श्चटे कटक ख्गाते ह ओर छटी अफवा्है फेखाते रहते है । चोरो से, रस्त से ओौर अन्रुभं से बहत भय होता हे । ““पतितस्तु रिःफे । वराहमिहिर अ्थ- पतित अर्थात्‌ स्वकर्म परिभ्रष्ट होता है । “परघनदहरणेच्छुः सवेदा नष्वलाश्चश्चपल्मति विदारी हास्ययुक्तः प्रष्ंडः। भवति च सुखभागी दवादशस्ये च भौमे परयुवतिविलासी साक्षिकः कमंपूरः” ॥ मानसागर अर्थ- द्वादशस्यमङ्गक के जातक को दुसखरों के. धनथपहरण करने कौ इच्छा होती हे । ओंखिं चंष्वल, बुद्धि चपट, ओर इच्छा घूमने-फिरने की होती है । हंसमुख, टद्दारीर, खुखी, परस्त्री से सम्बन्ध रखनेवाखा होता है । गवाह देनेवाखा ओौर कामों को पूरा करनेवाला दोता हे । “भौमे विरोधी धनदारदीनः” वद्यनाथ अथै- जातक विरोधी, धनदीन, स्त्रीदीन होता है। ८८ य॒दि भवति मिरीखः खर््बखाने गतश्च स्वजन हृदयमेत्ता ककरः ना वष्वोभिः । महमहवजजुर्मी साहिदोवेधनः प्राग्‌ जटर्द इनदरो नुहमेशः परेशान्‌ ॥१२॥ खानखाना. भावाथैः–यदि मङ्गल द्ादश्यभावमें हो तो जातक अपने कुड्म्बियों को कटोरवम्वन कहकर दुःखदेनेवाटा; विदोष जुर्म करनेवाला, क्रोधी ओर सदा परेरान °रहनेवाखा होता है ॥१२॥ “नयनविकारी पतितो जायाघ्नः सूपष्कश्चा | द्वादशगे परिभूतो बधन भाक्‌ भवति भूपुत्रे” || कट्याणवर्मा अथ- नेत्ररोगी, पतित, पत्नी घातक; सूचना देनेवाला, अपमानित, तथा कारावास में जाने वाखा होता है। “वंधनात्यययुतोऽस्पटगबरो मित्रन॒त्‌ कुमतिमान्‌ कुजेऽन्त्योः । जयदेव.

मंगरुफङ २०१

अर्थ– जातक कैद, मृप्यु के खमान आपत्ति आदि से युक्त होता है । यह नेत्ररोगी ओर दुख होता है । यह मित्रों को कष्टकारी गौर दुबद्धि दोता हे ॥ “नयनविङृतः क्ररोऽदारो व्ययेपिष्नोऽधमः” ॥ संत्रे्वर . अथं–जातक नेत्ररोगी, क्रूर, ख्रीदीन, चुगु ओर अधम दता है । “असदव्ययी व्ययेभौमे नास्तिको निष्ठुरः शठः । बटुवादी विदेडो ष्व सदागच्छतिमानवः | काक्लीनाय अथै–जातक बुरे कामों मे खष्वं करता है, नास्तिक; निदुर-शठ भौर वकवाखी होता है । यदह सदा विदेश जानेवाला होता हे । (स्वमित्रवैरं नयनातिवाधां क्रोधाभिभूतं विकलत्वर्मगे । धन व्ययं बंधनमस्पतेजो व्यये धराजो विदधाति नूनम्‌” ॥ इण्डिराज अर्थ–अपने मित्रों ते तैर, नेचरोग, क्रोध, अंग ( शरीर ) मे विकलता; अधिकं ख्व, कैद, तेज की हानि, ये द्वादश्चभावगत मंगङ के फल है ॥ “भूमिपुत्रे चेद्‌ म्ययस्थान संस्थे द्रभ्यं पुंखां नीयते श््रियैस्तत्‌ । धातः कय्यां दश्च वामे च पादे वामे कणे छोष्ने तत्‌ लिया वा ॥ पुण्याधिक्यादतल्पकं तन्दनार्योः पापाधिक्याचाधिकं वातदंगम्‌ । दग्धं वाच्यं वहिनावाऽयुधोत्थं घातं यद्वा सवरणं दीषंकालम्‌ ॥ कुजो वा व्ययस्थितश्चेन्‌ मनुजस्यनूलम्‌ । तदापित्व्यो निधनं प्रयाति पितृस्वसादृष्टयुतो न सद्धिः ॥ पुंजराज अथे-चोरो, उकैतो से द्रव्यहानि होती है। खरीके बड रके किसी अवयव को ओंख, कोन, पैर, वा हाथ को मपघात होता है। यह मंगर श्चभ संब॑धमेदोतो बख्म थोडे समय तक रहता है। यश्चुभम संब॑ध मेँदहोतो अधिक काल्तक रहता है । चाषा का ओर एूफा की मृत्यु होती है । “कोपनो बहुकामाव्यो व्यगो धममस्य दूषकः ॥ गग अर्थ- जातक क्रोधी, कामुक, अंगयीन, धर्म॑भ्रष्ट होता दै। जातक मित्रों भौर बंधुभो के साथ देष करता है। (सस्वमित्नवैरं नयनातिवाधा कोधाभिभूरतिं विकल्त्वमंगे । धनव्ययं बघनमस्पतेजो व्ययस्थभौमो विदघातिनूनम्‌ ॥ वुहयवनजातक अर्थ- मित्रों से वैर, ओंखों मे अधिक पीडा, बहुत क्रोध, अवयवो मे हीनता, धन का खच, कैद, तेज कम हो जाना, ये फल द्वादस मंगल के हैः ४५ व वषं धनानि दोती है । तथा कर्ण॑कंठे परार्तपीड़ा जने नैवमान्वः ।॥ जागेश्वर अ्थै-कान ओौर गले मे तथा खून ॒बरिगडने से बहुत पीड़ा होती दै । लोगों म मान्यता नदीं मिख्ती । |

°“क्षितिसुतो बहुपापभाजम्‌? । वशिष्ठ अथे–जातक बहुत पापी होता है ।

२०२ चमर्कारचिन्तामणि का तुरुनाव्मक्‌ स्वाध्याय

“व्यये नेत्रखुजं ्राव्रनादो च कुरुते । पराशर अथै- नेच रोग ओौर भ्राठरनाश् होता ई ।

यवनमत- वाणी कड़वी होती है । क्रोधी, दुःखी, वहत प्रवास से त्रस्त, उष्णता से ओंँखों का नाश, मोतियाविन्द्‌ होना इस मंगर के फल ई ।

पश्चात्यमत– गुप्त रतुर्जं से भय होता है-रनि के साथ अञ्युभयोग हो तो चोर-डाकुर्थं से भय होताहे) काराग्रहवास होता है। साहसी किन्तु कभी पागर होता है । नीचराशि मं अथवा अश्चमग्रहों क साथ यदह मंगल हो तो यह फर मिक्ता है । जुभा, रोग, साहस, हिम्मत, हिंसकवृत्ति, अनै- तिकता, ओर राजद्रोदयी प्रद्ृत्ति के कारण अपराध करने की प्रवृत्ति होती दै)

भ्रगुसूत्र-द्रव्याभावः। प।पयुते दांमिकः। शत्रुयुते राजवंधनम्‌ । द्रव्य- नाद्ादियोगकरः । दुबुद्धिमान्‌ । मात्रनाशस्तथा च श्रातृकष्टः अष्टाविंशतिवरे |

अथे- निधनता ओर दुंद्धि होती है । यदह पापग्रह केसाथदहोत्‌ दाभिक होता ह। रातरग्रहकेसाथहोतोकैद्‌ होती है। द्रव्यनाश होता है। २८ वैँ वषं माताकीमूल्युदोती है; तथा माई को कष्ट होता है।

विचार ओर अनुभव–मानखागर ने कुछ श्चभफल बतलाए ह, अन्य ग्रथकारो ने अञ्युभफल बतलाए दहै । ये फट मिश्रितरूप से सभी रारियोंमें अनुभूत होगे । तथापि मेष, सिह, धनु, कक तथा मीन में अश्चभफल मिलते है । मिथुनःठल्य, कुम में अञ्चमफल कुछ कम मिक्त द । इश्चिक, र मकर में बहत अञ्यभफच मिलते ह । भगुसूत्र के अनुसार २८ वेँ वषं माता कौ मृत्यु, आरातृकष्ट, होना बतलाया है-इसका अनुभव संभव ह । मानसागर ने जो श्चुभफल कदे है, इनका अन॒मव मेष, सिह, मिथुन, ककं तथा तुला राशिमे आ सकता ई ।

द्रादशभावगत मंग का जातक प्रायः बहुभोजी तथा कामुक होता है चिन्त खीसुख कम मिलता हे । एक प्ली की मत्य होतीहै भौर दूसरी से विवाह करना होता है । जातक, सत्यवादी, उदार, क्रोधी ओर त्यागी होता है । दानी होतादै। किसौ संस्था का स्थापक दोता है। द्वादशभावगत मंगल भाई ओर संतति के लिए मारक है। कदी-कहीं वंशक्चयकारक भमी होता है| संतति कम होती दहै। प्रायः पुत्र संतति नदीं होती, विदेशयात्रा होतीदहै जातक परयुवतिंगामी होतादहै। ८६ वै वषं प्रसिद्धियोग बनतादै। णेस मंगल के जातक क्रोधी ओर स्पष्टवक्ता होते ई । गिरपड़ना, विषवबाधा होना, अपघात दोना आदि का डर रहता है । सिरदर्द, खून बिगडना, गुह्यरोग, बुटापे में अपचन सादि विकार होते ह| इस योग मं धनसंग्रह नदीं होता। कभी कोद पैसा उठा ठे जाता है, कभी कोई उधार जाता है। अथवा रुपया कहीं गुम ह्यो जाता है। इस तरह इस मंगल के फर अश्चम ही है|

मगरूषफरु २०६४

अथ बुधविचार- बुध के पयय नाम-बोधन-चाद्रि-सौम्य-तारातनय-देम्नवित्‌-वित्‌ इन्दु पुत्र यामिनौ-नायपुत्र-तंग-गन्जापत्य-हिमकरयुंत-विषुपुच्र-तारापुत्र-शीतभानुतनुज-शीत- दीषिति-तनुज-शान्त-श्यामगात्र-कुमार-प्रभासुत-अतिदीघं-्-दशधरतनय-पंाचिस्‌- चाद्र-मसायंनि-एकांग-तारेय-रौहणेय | । बुध का स्वरूप– वराह मिदहिर–“ूर्वादयामोज्ञः? । - अ्थ- बुघ का रंग दर्वा के समान खावखा है। हरितःहरारंग दै । स्धेकट–““दवोदलाभः ॥ अ्थ–दूर्वारंग के समान स्यामरंग । कस्याणवमी–र्वादल श्यामलः, ! अथे– दृर्बासदश श्याम वणं । जयदेव–“दुरवववणेः” ॥ अर्थ–दूब के वणं समान । मंत्रेशधर-“दूर्बाख्ता इयामतनुः ॥ अर्थ– बुध के रारीर की कान्ति नवीन दूज के समान है। वैद्यनाथ–“”दुर्वाश्यामर कान्ति रिन्दुतनयःः। दूर्वा के सदश हरित वणं है ॥ विशेषवणन- [र वराहमिष्िर–“श्िष्टवाक्‌ सतत हास्यरुचिैः पित्तमारुत कफम्रङ्‌ तिश्च? ॥ अर्थ–गद्गदभाषी वा मधुरवाणीभाषी परिहासशौर इंसते रहने का स्वभाव, वात-कफ-पित्त मि्रित प्रकृति यह बुध का स्वरूप है। कल्याणवमौ-“रक्तान्तायतखोचनो मघुरवाग्‌ दुर्वादल्श्यामलः, त्वकखारोऽतिरजोऽधिकः स्फुटवष्वाः स्फीतस्तरिदोषातमकः। हृष्टो मध्यमरूपवान्‌ सु-निपुणो इत्तः शिराभिस्ततः सर्वंस्यानुकरोति वेषवष्वनैः पाखाशवासा बुधः ॥ अथे- ओवि विशार भौर आरक्त, वाणी मधुर, रंग दूर्वा के समान सांवलाः त्वा सुट, रजोगुणी प्रडृत्ति स्पष्टमाषिता, ष्ट पुषटदेह, वातपित्तकफ की मिश्नप्रृतिः रूपवान्‌ कायंचतुर, गोखकृति-नसों से व्याप्त-दूसों के बोलने की, ओर पोशाक कौ नकल करने के स्वभाववाखा, इरित रंग के वस्त्र पदिनने वाल बुध ग्रह दे। व्य॑कट श्च मौ–दुर्वादलाभः शरिजोऽतिविद्वान्‌ रजोगुणः सूतवाक्यजारः । हास्यप्रियः पित्तकफानिलसमा सद्यः प्रतापी ननु पुंधल्श्च ॥ अ्थै-दुर्वारङ्ग के समान इयामरंग-अतिविदवान्‌, रजोगुणी, मधुरवाणी बोलने वाला, दंखोड़ स्वभाव पित्तकफवायुप्रकृति-तत्कार प्रापवाखा ओर व्यभिचारी ` बुध ग्रह है । मंत्रेश्धर-“दुरवाकताद्यामतनुखिधाठुमिश्रः शिरावान्‌ मधुरोक्तियुक्तः । रक्तायताश्चो हरितांश्चकस्त्वक्‌सारो बुधो हास्यरुचिः समांगः ॥ अ्थ- बुध के शरीर की कान्ति नवीन दुर्वा के समान है । इसमें बात~पित्त कफ-त्रिदोषो का संमिश्रण है । तात्पयं यद कि जन्मङुण्डली में बुध यदि पीडित ` ह्यो तो अपनी द्ा-भन्तर्दशा मे वायु से उत्पन्न, कफ से उत्पन्न, तथा पित्त से

२०७ तमरकारचिन्तामणि का तुलनाश्मक स्वाध्याय

उत्पन्न, तीनों प्रकारकेरोग कर्‌ खकता है। यह नसोँ से युक्त ै–अर्थात्‌ दारीर मे जो स्नायुमंडल ( नव॑ससिस्यम ) है उसका अधिष्ठाता बुध है । यदि बुध पीडित हो तो नर्वस्तसिस्मं मे खरावी होगी । बुध स्वभाव से मीठा बोल्ने वाखा है। इसके शरीर के अङ्ग बराबर है। अथात्‌ स्व॑ंथा युडौर सज्ञां वाला हे) बुध मज्ञाक पसन्द्‌ है। जिन स्री वा पुरुषों कौ कुण्डलियों मे बुध-चन्द्र इक्डे होते है वे मजाक पसन्द होते ईै। जिस प्रकार मङ्गल मजा प्रधान है- बुध त्वष्वा प्रधान हे । बुघ अच्छा होने से त्ववा अच्छी हागी-बुध पापाक्रांत होने से त्वचाके रोग होगि। बुषके नेत्र खल ओर लम्बाई किए बुघ हरे वस्र धारण करता ई ।

डि राज-“शयामः रिराल्श्वकलाविधिज्ञः कुतूहली कोमट्वाक्‌ त्रिदोषी । रनोऽधिको मध्यमरूपधृक्‌ स्यादाताग्रने्रो द्विज रानयपुत्रः ॥>

अथं-रंग मेँ श्याम, नसो से बख्वाखा, कलसो को जानने वाला, कौतुकी स्वभाव का; मधघुराणी बोलने वाखा; कफ-वात्त-पित्त प्रकृति वाखा-मध्यम रूप वाला रक्त नेत्र वाला बुघ ग्रह दै। जयदेव “धुघलिदोषः श्चुभवा कचदृष्टस्त्वक्सार नाञ्यां तत॒ मध्यरूपः |

द वैवव्णो निपुणः सहासः स्थरोध्वजंः स्थूलनखौष्टदन्तः

अथे-वात-पित्त-कफ तीनों दोषों की प्रङृतिवाला, स्पष्टभाषण कता, प्रसन्न तथा आनन्दीत्वचाप्रधान; नर्सोवाला, मध्यम स्वरूप, दवा के समानवणे- चुर-मनाकरिया तन्रीयतवाला, मोटे केशा, मोटे नख, मोटे होट तथा मोटे जड़ दतां वाला बुघ अह है। वं यनाथ-“’दर्वादलृदयुतितनुः स्छुटवाक्‌ कृशांगः स्वामीरजोगुणवतामतिहास्यलोलः

हानिप्रियो विपुरपित्तकफानिलात्मा सद्यः प्रतापविभवः शरिजश्चविद्वान्‌ ॥ *”

अथे- दूर्वा के समान सावलावर्ण-स्पष्टबाणी-कृशद्यरीर, रजोगुणी मनुष्यो में मख्य, हास्यप्रिय दूस का नुकसान करने मँ आनन्द माननेवाला, वात- पित्त-कफ की मिश्रित प्रकृति, प्रतापी-पराक्रमी ओर विद्वान्‌ बुध ग्रह है।

वराह्‌-बुध- वस्र सड़ा हमा, स्यान -क्रौडास्थान, धावु-त्वचा, ऋतु, शरद्‌- रचि-मित्र, अवस्था-कुमार, धातु-सीप-

कैदययनाथ-शिरसान्ञः-इसका उदयरिरको रसे होताईै। शो विहगस्वरूपः–रूप पक्षी जेसा है । बुघाल्यग्रामचरौ रुरलो- गुर ओर बुध, येदो रह विद्वानोंके धर ओौरर्गोविके कारकर्है। राखाधिपो बोधनः– यह शाखाधिप है । देवता-हरि रल्-मरकत तथा गरुतमत्‌-गर्डमणि; दिशा- उन्तर-प्रदेश-विंध्यपवेत से गङ्गानदी तक ( िध्यान्तमार्य; सुरनिम्नगातं बुधः । ) जाति-चद्र-( चयुद्रकुलाधिपः शरिघुतः ) ज्ञः सरजोरुणः–यह रजोगुणी है । घंट प्रकृतिः पुरुषः शरिजः- यदह नपुंसक है ।

मंगरूषख २०७५१

पराष्र–तत्वं क्षोणी-ए्रथ्वी तत्व; ताराखुतः त्वग्धाव॒नाथः- यद ॒त्वष्वा धातु कां स्वामी है । दृष्टिः कटाक्षेण इन्दुसूनोः– बुष की दृष्टि तिरछी होती है । बलवान होने का समय-( वुधः सदाकाटजवीयं शालिनः )– नित्य दही बलवान्‌ दै–स्वभाव-चन्द्रसुतस्वुमिश्रः-मिभित स्वभाव । पराजय–असुर मन्निणाब्ुधःः–श्चुक से बुध का पराजय होता है| बलख्वान्‌ होने का समय–

कन्यानृयुग्मभवने निजवार वर्गे चापे विना रविभहर्निशमिन्दुसूनः ।

सौम्यायने च बल्वानपिरारिमध्ये खमे सदा यशोबलब्रद्धिदः स्यात्‌ ॥

कन्या ओर मिथुन रादि मेँ; बुधवार को द्रेष्काग तथा नवांशकुण्डली मे, स्वगृह मे, धनुराशि में (रवि केसाथन होतो) रातकोतथादिन को विषुव के उन्तरमें तथा राशिके मध्यमागमे बुध बल्वान्‌ होता है। यद ल््म्मेदहोतो यश भौर बल की इद्धि करता है।. भ्राहूरोषं बुधो हन्यात्‌ > । राहू के दोष बुधसे दूर दोते है । ‹ शरिजश्वतुथे विफलो मवति? । बुध चतुय स्थान मे निब टहोता हे ।

कल्याणवमौ- बुधो नरकाधिवासानाम्‌ । यह नरकलोक का स्वामी है । दाशिजोऽथर्ववेदराट्‌ । यह अथववेद का स्वामी दहै। प्रात््ुधः-वुघ प्रातःकाल मे बलवान्‌ होता है । शोषवणेन वैयनाथ के समान है |

जयदेव- बुधो ्रामचारी-बुध गब मे धूमनेवाला होता दै। बुधात्‌ जीवविता-जीव के विषय मेँ विचार बुघ से करे। ब्राह्मणोरोहिणीभवः-यद ब्राह्मणवरणं का रै । शिशुः सौम्यः-बुध बार है। शद्राधोसश्वदरपु्रः-यह श्र का स्वामी है । वल्–जलखद्र॑–पानी से भीगा हमा । धातु–युक्तिस्वरूप्यम्‌– कांसा–जस्ता ।

संत्रेश्र– वण-सांवला-घान्य-हरेरङ्ग के चने । प्रदेश-मगघ दक्षिण-विहार ।

वय-नखं २० वषं; दाहिने भाग पर कुछ निशान ।

रामदयाट-वुधोवेश्यः–यह वैद्यवणं का है ।

व्यैकटश मौ-विदुवै्यः-वैश्यवणं-वल्ंहरितं-दयामं क्षौमं -हरे वा सावठे रेशमी वलन ।

पुञ्जराज–ज्ञः तमश्वातियग्‌बुधः-तमोगुणी तथा मध्यलोक का स्वामी ह।

कालिदास - वल्-नया तथा गीला । ऋतु-देमन्त । अङ्ख-नामि -स्थान उद्यान तथा खेखकूद्‌ का मैदान ।

वेसीलिओ- पारे पर बुध का अधिकार है।

विखियमङिटी– व॒ध का रङ्ग धूसर, चमकता हा र्वदी के समान दै । दक्षिण की सोर अधिकतम शर ३ अंश २५ मिनट है, तथा उत्तर की ओर ३ अश ३३ मिनट है। इसे पुर्ष या स्री प्रह कहना ठीक नहीं क्योकि अन्य ग्रही का जैसा सम्बन्ध हो वैसे दोनों रुण धर्मं मिलते है । पुरषग्रह साथमेंदहोतो यह भी परुषपव्र्ति का होतादहै। खरी प्रहसाथमेंहो तो इसकीभी लखी

२०६ षवमर्कारचिन्तामणि शा तुख्नाव्मक स्वाध्याय

प्रडत्ति होती है । यह शीतल, रूखा ओौर उदास प्रवृत्ति का प्रह हे । कूटकार स्थान कराने वाला ग्रह हे ।

आटखोचना-रङ्ग- प्रायः शाख्रकारोने दुर्वाके समान सोौँबला माना है–किन्व॒ इसका रङ्ग आंखों को कुछ पीखा नी सा मादूम पडता रहै। किसी एक ने भनीलाः रङ्ग माना है-पाश्ाव्यज्योतिर्विद्‌ मे-पिक-स्छेट जेसा मिधित रंग मानते ह । ।

सवचा-त्ववा प्रधान बुध को माना है-जब व्व्वाके रोग होतेर्है तव बुध को दूषित होना वाहिए-किन्तँ अनुभव इसके विपरीत है । बुध जब दूषित होता दै तो पागलपन, फिट आना-दिमाग में खराबी; आदि विकार होते ह । त्वचा का स्वामी मङ्गल है ।

मेष-सिह-घनु-प्कर ओर कुम्भ मेहो तो त्वचा रखी ओर मोरी होती है

वृष-गौर बृध्िकमें हो तो त्वचा मोरी किन्तु नाजुक होती हे । मिथुन ओर तुला मे हदो तो वन्दा पतली किन्तु श्ट होती है। ककं-कन्या भौर मीन मेदह्ोतो त्वचा पतली किन्तु नाजुक । बुध अच्छी परिस्थितिमे हदोतोभी त्व्वा रोग होते है अतः त्वम्वा पर अधिकार मङ्गल का, अओौर मजा पर बुध का अधिकः. होना चाहिए |

स्थान–बुध कुमार है अतः इसका स्थान खे्कूद्‌ का मैदान दै-रेसा माना है आजकट विज्ञान की प्रगति को देखते हुए बौद्धिकषक्षेत्र मी बुध के अधिकारमे हे। एेसा माना जा सकता है।

वसख्-प्रायः सड़ा भौर भीगा हुआ वख बुध का है-एेसा शाखं ने माना है किन्तु कालिदास के अनुसार नया वस्र बुध का है-यह मान्यता उचित हे ।

धातु-सीप भौर पारा धाठ बुध के अधिकार में हे णेसा माना गया दै– किन्तु सीसा धातु मानना उचित होगा क्योकि इसको उपयोगिता छिखिने केकि है|

ऋतु-बुध का रङ्ग हरा है -शरद्‌ ऋत मे खेती हरी-भरी होती दै-अतः

शरत्‌ ऋत दी टीक है-देमन्त मानना उचित नदीं ।

रुचि–वुध के प्रभावे आए दए व्यक्ति ददही-छाछ-इमटी, अवार यादि मुख्यतः खट्टे पदाथं खाकर प्रसन्न होते ह । पथिमीय पण्डित शीतल अौर कवरैटी रुषि हे-एेसा मानते हैँ ।

अवस्था–कुमार-बुध आकार में सब्रग्रहों से छोय है-अतएव ध्वुघ कुमारः” ‘ेसा कहा है? बुधः राजयुत्रःः-एेता मानना दीक है ।

स्वरूप-वुध पक्षौ है ेसा मानः है–रेडियो- तार यादि के अमाव में संदेदा भेजने के लिए पक्षियों का उपयोग किया जाता था-अतः यह कल्पना है ।

निवासस्थान- बुध विद्वानों के घय मेँ तथा गावो मँ रहता दै-यह मानना उचित है ।

भंगरुकर २०७

देवता- बुघ की प्रसन्नता के ल्यि विष्णुसहखनाम का पाठ किया जाता है| इख तरह बुध चा अधिष्ठात्र्‌ देवता विष्णुरहै। बुध ज्ञान का कारक ग्रह है । अतः ्ानकी देदक्ता खरस्वती ही माननी उचित है-रेसा भी युस्चाव है । रन्न-मरकतमणि-किंसौ एकं की राय (ओपल्नामकरल होना चाहिए” । एेसी है । दिद्ा ओर प्रदेदहा-देवों भौर विलो की दिश्या उत्तर मानी गई है भौर बुध की दिशा भी उत्तर रै । बुध का अधिकार विध्यपवंत से गंगा नदी तक दं । वणे–्राह्मणव्णं मानना दीक है क्यों किं यड ज्ञान का उपासक है । गुण–प्रायः ओास्रकारो ने इसे रजोगुणी माना हे । यदि अन्यग्रहोंके. साथ बुध होता है तो उनग्रहों के गुण प्रकट करता है । | पौरुष-इसे नपुंसक मानना उचित नदीं क्यं कि पत्रोत्पादन के खामथ्यं प्र बुध का अधिकार नदीं रहेगा । बुद्धि की सन्तान, जो कि अन्य निर्माण है- पर बुध कादी अधिकार है। पुज उत्पन्न होकर नष्टष्टो जाते है-भपटितः निर्गणी अौर दुराचारी होकर पुत्र-पिता को कलकित भी करते ईै-परन् ंथ तथा साहित्य रूप सन्तान तो निर्माता को अमर बनाता दै-निर्माता की कीतिं अमर दहो जाती है। अतः ग्रंथ तथा साहित्य पर बुध का अधिकार दै-भतः इसे नपुंसक मानना दीक नहीं| तत्व-वायुतत्व पर बुध का स्वाभित्व है। पृथ्वी तत्व शनि के अधिकार म मानना दीक दोगा । बर– सवेदा बलवान्‌ है । स्वभाव-रजोगुणी दै । पराजय-बुध का पराजय श्ुक्रद्वारा होता दै। विफरुता–चौये स्थान का बुध -विफर होता है । यह चतुथंस्थान क्न से वा चन्द्र से है-इस विषय सें प्र॑थकार मोन ईै। टोक–बुध का लोक मृच्युलोक रै, एेसा मानना दीक होगा । बलवान–बुध प्रातः सूर्योदय के पिठ दो घंटे यह दृष्टि मेँ आता है यदी समय इसके बलवान होने का है । बुध का कारकत्व :- बुध के कारकत्व के बारे में प्राचीन तथा अवीचीन विचार– “श्रत छिखित रिर्प चेत्य नैपुण्य मंतरिदूत दास्यानाम्‌ | खगयुग्म ख्याति वनस्पति स्वणंमयप्रभुः सौम्यः ||” कल्याणवर्मा अथे–सुनाहूभा वा किलाह शाख, रिस्प, बौद्धगुहामन्दिर, निपुणता, मत्रिपद्‌-दूत, दास्य, आकाशसंचारी, ख्याति-वनस्पति तथा सुवर्णं पर बुध का सधिकार है । “विन्या बे विवेक माव॒ल्युहत्‌ वाक्‌कर्म्ृद्‌ बोधनः ॥” वैद्यनाथ

२०८ वमत्कारच्विन्तामणि का तुक्नाप्मरू स्वाध्याय

अथ- विन्याभ्यास-भाई वंद, विवेकराक्ति-मामा, मित्र; वाणी के काम-इन पर बुध का अधिकार है।

८“उयोतिर्विद्ागणित कायं नतन वैद्य हास भी कारको बुधः पराशर

अभै–ग्योतिष, गणित-ृत्य, वैययक-हास्य-नीति तथा संपत्ति का कारक बुध दहै।

| ““संतति, शांति-विनय, भक्ति, मति, ज्ञाति । गोत्र, समृद्धिः प्रज्ञा, वेदान्त, कारको बुधः ॥ व्यंकटश्र्मा अथे–संतति-शांति-विनय-बुद्धि, जाति-संबंधियों की समद्धि-ज्ञान-वेदान्त-

का कारक बुध दहै। “धप्रज्ञावत्‌ कमं विज्ञानं बुधेन तु विचिन्तयेत्‌ ।।> विद्यारण्य अथ्-जिनमें बुद्धिमत्ता की जरूरत है-रेसे कार्यो तथा-विज्ञान का विचार बुधसे होता है,

जीवनाथ–प्रवर काव्य पट्त्व विनोदकलादिकं प्रवरबोधमनः श्चचिमादिशोत्‌?? अर्थ–उप्तम काव्य मे चातय्य-विनोद-कलाओं मे निपुणता-उत्तमन्ञान, ओर मन कौ पवित्रता का विवार वबुधसे होता हे। मंत्रेशवर-“पांडिव्यं सुवष्वः कलानिपुणतां विद्रत्‌स्ततिं मातरं । वाक्षवातुयमुपासनादिपइतां विद्यासु युक्तिं मतिम्‌ ॥ यजे ` वैष्णवकमं सत्यवचनं शुक्तिं विहारस्थठं । ` रिस्पं वांधवयौवराज्य खुयदस्तद्‌भागिनेयं बुधात्‌? ॥ अथै-पाण्डित्य-सच्छावष्वन-कलाभों मे चातुर्य-विद्रानों द्वारा प्रशंसा का होना, मामा-भाष्णवाठुयं, उपासना मे कुशल होना-ज्ञान-बुद्धि-यक्ञ-विष्णुभक्ति- सत्यमाषण-सीप-खेलने का स्थान-रिस्प-भाईै-युवराजपद-मित्र-भानजा- इनका कारक बुध दहै । कालिदास–“वि्ाधौश तरङ्ग कोष ज्ञानानि वाक्य द्विजाः पादातं लिपि- ठेख्य-प्रासाद कारा तीथंयात्रासुवषवः प्रासंग देवालयाः वाणिज्यं वरभूषणं मृदुवप्वो वेदांतमातामहाः । दुःस्वप्नं च वैराग्य विचित्रहम्यभिषजः-अभिचाराः-विनयो ज्ञातिभ॑यं नतनं भक्ति-रामः नाभियोति समृद्धि पिश्रपटार्थानि आंघ्रमाषाधिपः। माषाचमत्कारता-कर्म-गोपुरग्यो-सत्पौराणिकशराब्द शास्र सुमहारलादि संशोधकः विद्रान्‌-मन्र-य॑त्र खमहा तंतादिकाः सौप्यतः?ः ॥ अथे–शन का स्वामित्व-घोडे-धनसंचय-वाक्य-त्राह्यण-पदातितैनिक-व्यापार- लिपि-लेखनकाय-बड़ी दमारतें-कारगार-तीर्थया्रा-ञ्चुभभाषण-देवाल्य-उत्तमभट- कार-कोमल्वाणी-वेदांत-नाना-वुरे सपने-वेराग्य-सुंदरण्ह-वै्य-मत्र-तं्-विनय-जाति- मय-वृत्त-भक्ति-शांति-नाभि-संबंधिर्यो की समृद्धि मिश्रपदाथे-भांध्रप्रदेश आओौर तिल्गुभाषा-चमत्कारपू्णमाषा-मन्दिरौ मे गोपुरगुप्तरदस्य-श्रेष्टपुराणवाष्वक-शब्द्‌- शाख्न-ग्युत्पत्ति-व्या करण-रल - संशोधक-वैञानिक विद्वान्‌ - मन्त्रतंत्रजाननेवाखा-इन विषयों का विचार बुध से करना चाहिए ।

९४. वुधफख २०९

रोगों का कारकत्व- “गुह्योदरादश्य समीरकुष्ट-मंदायि शूल ब्रहणी स्गायैः । बुधादिबिष्णुप्रियदाखभूतैरतीव दुःखं शशिनः करोति ॥”

अथे-गु्यरोग-उदर के रोग-वायुरोग-कोटु-मंदामि-्ल-संग्रहणी-तथा विष्णु के सेवक, भूतो द्वारा पीड़ा दोना-इन वाधा्भों परवुध का अधिकार है।

रोगो पर विलियमलिली–भलसीपन-खिस्वकराना-पागल्पन-दिमाग हटकर होना-मस्तिष्क के अन्यरोग-जीम के दोष-ज्यथं अभिमान-अकारण कर्प- नाों मे खोजाना-स्मरणशक्ति हास-गलारुकजाना-संधिवात-मूकता-बडबड़ाना- जञानेद्िर्यो के विकार बाल्ग्रह-चक्छर भाना-इन दोषों पर बुध काभधिकार रै!

विखियमिी -साहिव्यिक-तव्वज्ञ-गणितश्चाखरश्-ज्योतिषी-व्यापारी-कार्य- वराहु-लेखक्र शितपकार-कवि-वक्ता-वकील-रिष्चक-मुनिमारी का न्यापारी-मुद्रक- अटर्नी-7जदूत-कमिरनरल्िपिक-गणक-साहिस्ट र-कमी-कमी चोरी करना-बहत बोखना-मंत्री-व्याकरणकर्ता-दर्नौ-दुत-चपरासी- मृद्राविनिमय करनेवाला आदि का कारक बुध है|

जन्मङ्ण्डली मे उपयोगी कारकत्व-भरुत-ल्खित-नैपुण्य-मंभित्व-दत- हास्य-कीर्ति-विव्ा-वंधु-वरिवेक - मावर सुदत्‌-कतकर्म-दत - वैय-हास-भो-संतान- शाति-विनय-मक्ति-परज्ञा-वेदांत-प्रश्ञावत्‌ कमं-विज्ञान-प्रवरकाव्यपटुता-विनोदकला- प्रबोध - मन की पवित्रता-धृति-पांडित्य-शोभनभाष्रण-विद्वत्ता स्व॒ति-वा कूचातुर्य- सत्यवचन-भागिनेय-कोश-ज्ञान-लिपि-रेख्य-ती्थया्ा-वाणिञ्य-भूषण-मृदुवचन- मातामह-दुःस्वप्न-विराग-विचित्रहटम्यं-मिषज-अभिचार-र्विनय-भय-भाषाषचमत्कार- सच्छा पुराणों कौ कथा वाचनेवाल-रन्दशास्र-रतनसंोधक-विद्रान्‌-मन्त-यन्त- तन्त-तत्वज्ञान-गणित-ंकञ्योतिष-उ्योतिष-ज्यापारी-प्रधाननौकर ेखक-मूर्तिकार- कवि-व्याख्याता-जकौल-दिश्चक-मुद्रक-अरर्नी कपिदनस-मुद्राविनिमय-टिपिक-स।लि- स्टर-पेक्रेटरी-व्याकरणज्ञ-पवोर-दर्जी-द्‌ त-पदाति-साूकार - परिषितल्ोग- मित्र-पडोखी- दुभाषिए-नौकरचाकर-प्रवास-भाईनेधु-रिक्षासफलता - पुस्तक-विकरेता - व॑धुसौस्य- रनिद्ट्रार-द्लल-रोकसंग्रह-मस्तिष्क-ज्ञानतं ठ्‌-फेफडे-भांतडी-मजा-हाथ -जीम-गुह्य- रोग-पेट-वातरोग-कोट-मंदाभि-द्ूलरोग-संग्रहणी-डाक-तार-विभाग–तैक-नीमाकपनी- रववे-भिल-बड़ीफमं में काकं अनुवादक– ,

बुध की शयुभ-तथा अद्युभ रादिया-मेष-शिह-धनु जुभ-इृष-कन्या-मकर- साधारण । मिथुन-वख-कुम-उत्तम-कक-बृधिक-मीन अशुभ ।

मेषादिरारिस्थित बुधषर–

मेषे बुधदहोतो जातक संग्ामप्रिय विज्ञ माचा धूतं कृशदेह गान सौर दत्य मे व्यस्त मिथ्यामाषी रतिप्रिय लेखक नकली वस्त बनानेवाद बहुभोजी श्रम से उपार्जितधन को नष्ट करनेवाला, ऋणकेनेवाखा कारावाख सुगतनेवाला, रम्मी करनेवाला च॑र मौर स्थिर दोनों स्वभाव से युक्त होता है |

२१० चमर्कारचिन्तामणि का तुरखुनार्मकु स्वाध्याय

वुष- मे बुघ होतो जातक चतुर, टीट दानी विख्यात वेदास्रके समञ्चनेवाख; व्यायाम वस्र भूषण तथा माला का प्रेमी, स्थिरप्रकृति उत्तमस्त्री तथा धन से युक्त, मधुर ओर कोमल्वाणी बोटनेवाला प्रतिज्ञापाकक, संगीतदहास्य भौर सूरत का प्रेमी दहोतादहे।

भिश्ुन-में बुध दहो तो जातक सुवेष प्रियवक्ता विख्यात धनी; प्रवक्ता मानी सुखत्यागी अस्परति दो स्तयो का पतिं विवादी वेदशास्कलखा को जाननेवाला कवि, स्वतंत्र प्रिय दानी कमठ, बहुतपु्ों ओर मित्रोवाला होता हे ।

क-म बुघ होतो जातक पंडित परदेशवासी स्वीरति ओौर सगीतादि में आसक्तचित्त चपर व्यथं बोल्नेवाला अपने भाई बंदसे देषरखनेवालास्त्रीसे करृह करके धन को नष्ट करनेवाला, दुःशौक बहुत कामो मे व्यस्त अच्छा कविं पूर्वजो के यद्य से प्रसिद्धि पाता है।

सिह- में बुध होतो ज्ञान ओर कटा से रहित छोकविख्यात मिथ्याभाषी, स्मरणराक्ति थोडी धन निव भ्रानतृदेष्टा स्वीयुखदीन स्वतंत्र नीचाष्वारी मत्य संतान दीन अपनेकुल से विरुद्ध मौर दूस का मित्र होता है |

कन्या–मंबुधदहो तो धर्मात्मा प्रवक्ता चतुर केखनकला ओर काव्यका ज्ञाता विज्ञान सौर शिल्प का प्रेमी स्वीप्रिय अस्पवली श्रेष्ठसाध्ुओं में पूज्य मानी विनय मृ उपचार म तथा वाद्विवाद मे प्रेम रखनेवाल्म गुणों से प्रसिद्ध तथा उदार होता है|

तुमे बुध दहो तो शित्पन्ञ विवादरत वाक्ष्तुर धन का स्वेच्छानुखार व्यय करनेवाला जिसका व्यापार कई देशो मं फा हया हो त्रह्यण अतिथि देव गुर भक्त विहित उपव्वारो मे निपुण लोकप्रिय देशभक्त शठ ॒प्वंचल शौघ्रक्रोध जानेवाला तथा सीघ ही शान्त हो जाने वाखा होता दै।

वृ्िक- मं बुध होतोश्रम शोक यौर अनर्थका भागी सजनोंसे द्वेष रखनेवाला धमं ओौर ठ्ना से हीन मूख दुष्टस्वभाव लोभी दुष्टस्त्री का पति कटोर- दण्ड मं रत कपटी निद्यकायमें लीन ऋणी नीचानुरागी दृसयो कौ वस्तुओं का अपहर्ता होता है ।

धलु- मं बुध होतो ख्यात उदार श्रति शास्त्रवेत्ता चूर खंशीर राजम॑त्री वा राजपुरोहित कुट में प्रधान धनाल्य यज्ञो मं ओर अध्यापनम ल्गा हु मेधावी वाकृपट्‌ व्रती दाता टेखन ओर चित्रकला में निपुण होता हे। मकर-मंवुधदहो तो जातक नीच मूख नपुंसक दूसरों के काम करनेवाला कुल मादि गुणों से हीन नानादुःखपीडित सोने आर भ्रमणमें प्रेम रखनेवाला चग असत्यभाषी बन्धु से व्यक्त अन्यवस्थितचित्त मलिन यर भीर होता है ।

करुभ– मं बुध दहो तो सद्बुद्धि मौर सत्कमसे दीन नानाविध धर्मो मं प्रवृत्त विहित कायं को छोडनेवाल शच्रुभों से परिभूत अश्वि शलीखहीन मृखं

अतिदुष्ट स्तरीटे्टा भोगीन मृगा कुरूप अतिभीर मलिन नपंखक दूसरे का नौकर होता दै।

बुधफक २११

समीन- में बुध होतो जातक सदाचारी आवार शुद्ध विदेशवासी संतानदहीन दसि भाचारास्नी का पति निपुण सजनग्रिय इसरों के धम को भी माननेवाख सिरा आदि कामों मँ चर, विज्ञान वेद्ास््र कला से रदित दूखरे के धन को हथिया ठेने मेँ चतुर तथापि निधन अनेक संकस्प करने वात्म होता है ।

बुध पर ग्रह दृष्टिफल– `

मेष बृश्चिकस्थ सुध पर ग्रहटृष्टिफल-

कुजराशि ( मेष-वृश्चिक ) स्थित बुध पर रवि की दष्ट से जातक सत्यवक्ता सुखौ राजमान्य भौर क्षमाशीर होता है। चंद्रमाकी दृष्टि से स््रीप्रिय सेवकं मलिन तथा शीखहीन होता है । मंग की दृष्टि से मिथ्या तथा प्रियवक्ता कलद्‌- प्रिय विद्वान्‌ धनी राजप्रिय मौर श्र होता है। गुरु की दृष्टि से सुखी कोमल रोमयुत देह ओर सुंदर केशवाला अतिधनवान्‌ लोगों पर आज्ञा करनेवाख पापौ होता दै । शुक्र की दृष्टि से राजकाज करनेवाख जनसमूह वा नगर का मुखिया बोलने मं चतुर विश्वस्त ओर स्त्ीयुखयुत होता है। शनि कीद्ष्टिसे दुःखी उग्र हिंसक परिजनरहित होता है ।

बृष-तुलास्थित बुध पर अहटष्टिषटक-

शक्ररा्ि ( शृष वा व॒ल ) स्थित बुधपर रबिकी दृष्टि सेजातक दरिद्र रोगी परकार्थरत लोक में निंद होता है । च॑द्रमाकौ दष्टिसे लोकम विश्वस्त धनी देश्वरभक्त नीरोगस्थिर परिजनवाल्ा विख्यात, राजमंन्री दोता है । मंगट की दृष्टि से रोग ओर शत्रु से पीडित, राजा से भपमानित होकर देश से वदहिष्कृत होता है| गुरुकी दृष्टि से पंडित प्रतिज्ञापाख्क देश्च-नगर वा उनो का मुखिया, ओर विख्यात होता है । शुक्र कौ इष्टि से सुंदर सुखी वसन अलंकार का भोगी स्रियो का प्यारादहोता है । हानि की दष्टिसे सुखद्ीन बंधुोक से पीडित रोगी सनेक विपत्तिवाला मलिन पुरुष दोता है ।

भिथुन-कन्या स्थित बुध पर प्रहदष्टिफर-

स्वग { मिथुन वा कन्या ) स्थित बुधपर रबिकी दृष्टि से सत्यभाषी संदर राजा वा राजाका मित्र खदाष्वारी, लोगोंका प्यारा होता रै। चन्द्रमा कीदष्टि से प्रिय किंतु अधिक बोलनेवाला कठहरत शास्त्रप्रेमी सबल ओर सथकायं मेँ कुशल होता दै । मङ्गर की दृष्टि से क्चतदेह मलिन प्रतिभासम्पन्च राजा का प्यारा नौकर होता है। गुरु कौ दृष्टि से राजमन्त्री शष्ठ खुरूप उदार धन परिजन से युक्त, श्र होता है । शुक्र की दष्ट से पंडित राजसेवक वा राजदूत संधिपालक दु्टस्तरी मे आसक्त होता ह । इानि की र्ट से उन्नतिद्यीख विनयी कायसिद्ध करनेवाल् धन वस्त्र संपन्न होता दै ।

ककंस्थित बुध पर प्रहदष्टिफल-

ककगत बुघ पर रवि कौ ष्टि से जातक धोबी माटी घर बनानेवाला या मणिकारक होता दै। चन्द्रमाकौदष्टिसेस्त्ौ के कारण धन बलू र सुख से

२१द चमस्कारचिन्तामणि का तुखुनास्मक स्वाभयाय

हीन अतिदुखी होता हे । मङ्घर की टष्टि से थोडा पटा-ल्खा अधिक बोकनेवाला दूठ का प्यारा नकी वस्तु बनानेवाला चोर किन्तु प्रियवक्ता होता है । गुरू की दृष्टि से मेधावी, छोकप्रिय भाग्यवान्‌ राजप्रिय, विद्यापारगामी होता है । शुक्र कौ दष्ट से अति सुन्दर प्रियवक्ता गीत वाद्य जानेवाला सौभाग्यवान्‌ होता है । शनि कीदृष्टि से दंभी पापी वंघनभागी निगुण सहोदर ओौर गुर का द्रोही होता दै ।

सिहस्थित बुध पर प्रहदृष्टिफर-

सिंहस्थ बुध पर रवि की दृष्टि से जातक ई्ष्यावान्‌ , धनी; गुणी ईिंसक- द्र षवे्वकस्वभाव यौर निर्न होता है । चंद्रमा की दृष्टि से रूपवान्‌-चत॒र- काव्यकला-भौर संगीत मँ पट्धनी ओौर सशी दोताहै। मंगकीदृष्टिसे नीच-दुखो, श्चतदेह-चावयेदीन कुरूप, नपुंसक होता दै। गुरूकी द्षटिसे कोमलांग, पंडित, वचनपट़-विख्यात भ्रत्य ओर वाहनों से युक्त होता है । क्र करौ दष्ट से रूपवान्‌ , प्रियवक्ता बाहनयुक्तं धीर-राजा वा रानमंत्री होता है । हानिकी दषटिसे ल्म्वा शरीर कांतिदहीन, कुरूप, पसीने के दुगन्ध से युक्त होता है ‘

घलु वा मीनस्थित बुध पर प्रहट्टिषफएक–

धनु वा मीन स्थित बुध पर रविकीदष्टिसे द्र, कितु प्रमेह भोर मरगी रोग से पीडित गौर शांत होता है | च॑द्रमाकी दृष्टिसे ङेखकः; सुकुमारः विश्वत; खोकप्रिय, सुखी; यर धनाव्य होता ई । संगख की दष्ट से जनसमूहः नगर, वा चोर अथवा वनवासी का अध्यक्ष भौर केखक होतादै। गुरु कौ दि से स्मरणशक्तिवाल, लीन, संद्र-श्रेष्ठ वैज्ञानिक-रानमंत्री वा खजानवी होता है | |

शुक्त कीदटष्टिसे वालिका ओौर बाङक को लिखाने पटानेवारा, धनवान्‌; सुकुमार, भौर शौय॑सम्पन्न द्योता है । रानि की दृष्टि से वन ओर दु्गस्थान मं॑रहनेवाल; बहुत खानेवाला, दुष्टस्वभाव, मखिनि, सखवकाम मे असफल होता है।

मकर ओर कुंभर्थित बुधपर प्रददृष्टिफलऊ-

मकरवा कुम स्थितब्ुधप्र रबिकी दष्टो तो जातकं योद्धा, बली; बहुभोजी निडर, प्रियवक्ता श्रौर॒विख्यात दोता है । चन्द्रमा की ष्टि से जल ०.५ करनेवाला; धनी, पुष्प, मचय, ओर कन्द्‌ का व्यापारी, भयानकरूप मौर स्थिर होता है संगर की दष्ट से चंचल वष्वनवाला, सौप्यशौक; सर्जः आर सुखी होता है । गुक् की दृष्टि से धन र अन्न-वस्र से सम्पन्न ग्राम, शहर ओर जनसमूह से पूजित, युखी विख्यात होता है ।

शु की दृष्टि से कुषरि्ाल्ली का , पति, कुरूपः, बुद्धिहीन, कामी; बहुत पुरवाल होता दै | दानि कौ दष्टि से जातक पापी, दरिद्रि-नौकरी करनेवाक; अति दुभ्ली-दीन होता है। कव्थाणवमो, सारावली ।

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उुधषल २१

अथ बुधस्य ठन्नादि द्वादहाभावफलढम्‌- बुधो _ मूर्तिंगो माजेयेदन्यरिषवरिष्टाधिया वैखरी वृत्तिभाजः। जना दिव्यचामीकरीश्ूतवेष्ाश्चिफिससाविदो दुश्चिकित्स्या भवन्ति ॥ १॥

अन्वयः-मूर्तिगः बुधः अन्यरिठिं माजंयेत्‌ ; ( ते ) जनाः वरि्टाधिया अेखरीृक्तिमाजः दिव्यचामीकरी भूतदेहाः ( स्युः ) ८ स्वयं ) चिकित्ाविदः ( संतः ) दुशिकितस्याः भवंति ॥ १ ॥

सं° टी>–बुधः मूर्विगः रुम्स्थः अन्यरिष्टं अन्यग्रहजनितदोषं मार्जयेत्‌ नाशयत्‌ तथा वरिष्टाधियः शेष्ठः बुद्धयः जनाः दिग्यचामीकरी भूतदेहाः उत्तम- सरणनिभ शरीराः चिकित्साविदः भिषग्‌ विचाकुशलाः तेखरीडृत्तिभाजः वैखर्या ठेखन व्यवहारेण इकति कुडम्बपोषणादिकं भजति ते । अथवा वैखरी चत्तिना

` आश्रिता दुशिकित्स्याः दुःसाध्यः भवन्ति ॥ १॥

अथं–ल्म्रस्थित जुध अन्यग्रहजन्य अरिष्टो का नाश करता है-यदि जातक की जन्मकुण्डली मे दुः्टस्थानस्थित भोभ आदि अरिष्ट कारक दों भौर अकेला बुध ल्म्रभावमेंदोतो जातक के सभी अरिष्ट नष्टो जाते द| जिनके. लद्ममावमें बुधदोताहै वे मनुप्य भ्ठ ञुद्धिवाके होते दै । वे लोग वाष्वन पर ओर लेखन पर उपजीविका करनेवाे होते है । जिस समय छापाखाना नदीं होता था-पुर्तरके छापी नहीं जाती थी, कदमीर के लोग भागवत आदि पुराणों को हाथ से छिखकर वेष्वते ये-भौर इस जेखनकला से अपना निर्वाह कर- लेते थे । कर्मीरियों के हाथ के लिखे अरन्य आन दिन तक कद एक साव॑जनिक पुस्तकाल्यों मे पाये जाते है । पठित-भपठित सभी प्रकार के रोग ॐेखनकार्य म निपुण होते ये । अपठित ङेख्को के छि ही ^मध्चिकास्थाने मक्षिका” एेसा उपास वचन बोल्ने तथा खनि मेँ भता है। जिनके ख्म्मे बुध होता ह उनका शरीर तपे हुए सोने के ठस्य कान्तिमान तथा तेजस्वी दता है । इन्द वेयकडशास्र का ज्ञानहोतारै; तोभी बीमार होने परये असाध्यरोगी हो जाते है । “लग्नस्य बुध के रोग कूटनीति मेँ तथा कुटिलता मे एसे निपुण होते ह करिये किसी के वशौमूत नीं होते |” यह अथं एक टीकाकार ने कियादहै।

तुखना–““यदा ख्य स्थाने हिमकरयसुते यस्यजनने ।

न॒ किं सवारिष्टं विहगजनितं गच्छतिख्यम्‌ ॥ सदारूपं ‘्चाभीकरनिभमल्डकारखुसित । ` प्रतिष्ठा रुसारे प्रभवति वरिष्ठा तनुग्रताम्‌? ॥ जीवनाय

अ्थ- निस मनुष्य के जन्म समयमे बुध लब्नमावमें होता है उसके अन्यग्रह जनित सम्पूणं सरिषटोका नाश होता है। उसका रूप अलङ्कारा ठृत होकर सुवणं के समान कान्तिमान तथा तेनस्वी होता है । भौर वह संसार मे सभी के वीच अच्छी प्रतिष्ठा पाता दै।

२१४७ षवमस्कारचिन्वामणि का तुखनाव्मक स्वाध्याय

“विद्वान्‌? । वराहमिहिर अथे–लग्रस्थ बुध का जातक विद्वान्‌ होता दै । “८ तिदोषशतं बु धः वश्लिष्ठ अथे- यह सेकडों दोषों का ना करता दै | “ष्ठोऽष्टमस्तथामूतों जन्मकाञे यदा बुधः | प्चतुथवषं मृत्युश्च यदि रक्षति शंकरः” ॥ अथं–ल्यमे षष्ठमे, वा यष्टममें बुधो तो चौये वष मृत्यु होती है। अनुपहतदेदह बुद्धिः देरकला ज्ञान काव्य गणितज्ञः | अतिचतुरमधुरवाक्यो दीर्घायुः स्याद्‌ बुधे ठगने 1 कत्याणवर्मा अथ-ल्नमेंवुधदहो तो जातक सुन्दर देह, सुबुद्धि-देश-कला-ज्ञान- काव्य-ओौर गणित को जाननेवाला, चठुर-कोमल तथा मधुरभाषी, ओर दीर्घायु होता है । “भान्ति नीति-सुत-दार कलावान्‌ दान धेयं गुणवान्‌ तनुगे ज्ञे |” जयदेव. अथे–ल्यमें बुधो तो जातक शांतस्वभाव-नीतिनिपुण-पुत्र ओर स्री से स॒खी-गीत-दत-वाय आदि कलां मे निपुण-दाता-घेयवान्‌ ओर राणी होता दै । “धिना वित्त तप स्वधम॑निरतो लग्रस्थिते बोधने ।* वैद्यनाथ भअथ- जातक विद्या प्राप्त करनेवाला, धनी-तपस्वौ भौर अपने धर्मक नुसार वर्ताव करनेवाला होता है । ग्ने बुघे च गीतन्चो निष्पापो द्पपूनितः रूप ज्ञान यशओोयुक्तः प्रगल्भो मानवोभवेत्‌ | काक्ीनाथ अ्थ–जातक संगीत मे निपुभ-निष्पाप-राजमान्य, रूपवान्‌ ज्ञानी, यदास्वी तथा बुद्धि मेँ प्रगत्म होता है। “ष्ीर्घायुजन्मनि ज्ञे मघुरचतुरवाक खवशास्नाथबोधः | मन्त्रेहवर अथ-यदिल्मरमेंबुधहोतो एेखा व्यक्ति स्वंशास् मे विदान्‌, मधुर ओर चतुर वाणी बोलनेवाख, ओौर दीर्घायु होता है | “शांतो विनीतः सुतरामरदारो नरः सदाचार परोऽतिधीरः विद्वान्‌ कलाज्ञो विपुलात्मनश्च शीतांश्चसूनौ जननेतनुस्थे ।।” दण्डिराज अ्थे- जिसके जन्मसमय रग्न में बुघ हो वद जातक शान्त-विनम्र-भव्यत उदार, सदाष्वारी, धैयवान्‌ , विद्वान्‌ ; दत्त-गीत-वा् आदि कला्भो को जाननेवाला, तथा बहत पुरो वाखा होता है। “तनुगतशसिपुतरे कांतिमांश्वातिद्टृष्टो विमलमति विशालः पंडितस्त्यागशीलः | मित भृदुश्चचिभाषी सत्यवादी विलासी बहूतरसुखभागी सव॑काङ प्रवासी ।।* मानसागर अथ–बुध ल्य्रमे होतो जातक युन्दर-हृष्ट-निर्मबुद्धि-पडित-दानी-थोड़ा किन्तु महु ओर पवित्र बोलनेवाला-पाठंतर रमे, परिमित, युपष्व-तथा पवित्र

बुधषफटः २१५

भोजन करनेवाला, सत्यवक्ता-विखासी-सर्व सुख से युक्त आौर षदा परदेदा में रहनेवाखा होता है । | ““सुमूर्तिः निपुणः शांतो मेधावी च प्रियंवद्‌ः। विद्धान्‌ दयालुं रत्यथं विनाक्रूरं बुधे तनौ ॥* गं अथे- जातक सुन्दरनिपुण-शांत-मेधावौ,. मघुरभाषी; विद्वान्‌, बहूत दयाल होता है । बुध के साथ कोद्र क्रूर ग्रहन होंतोये फल पिरूतेै। तनो बुधे विलोकिते भिन्नव्णं शरीरकम्‌ । स्री उखं मध्यभागे ष वातपीडा तनौ मवेत्‌ ॥ ` विस्फोदिभवं दुःखं मद्कोऽथ तिरोऽथवा। | गुल्मोदर विकारो वा स्वव्पादारोऽपिजायते॥ देबज्ञविलास अ्थं– जातक के शरीर पर अनेकरग होतेै। मध्य अवस्थामेंल्नी सुख प्रासि दोती है । शरीर में बातजन्य पीड़ा होती है–फोडे-फुन्सी आदि रोगों से दुख होता है। शरीर पर तिर वा मस्ता होता है । गुल्म तथा पेटके रोग होते ई । भूख कम हो जाती है । “शांतो विक्रीतः सुतरामुदारोनरः सदाष्वाररतोऽतिधीरः। विद्वान्‌ कलावान्‌ विपुरखात्मजश्च शीतांश्चसूनौ जनने तनुस्थे 1 | वृह्यवनजावक अ्थं–जातक शांत, उदार, नम्र-सदाचारी, पैर्यंशाली, विद्वान-कलर्ओं में कुशर ओर बहुत पुत्रों से युक्त ्टोता है । “भवेद्‌ वंशच्छेत्ता-भवेच्छिस्पकारः । बुधेज्यौ विलग्ने स्थितौ वा धिपौ चेत्‌ बलिष्ठ वेदकोणम्‌ । जागेश्वर अथै–वंश नष्ट होता है-जातक रिस्पकार होता है–शरीर बख्वान्‌ तथा ष्वौकोर अथात्‌ सुडौल होता है । “ध्यदा लम्रगते सौम्ये युवा बालायते किख वद्रपुत्रे च तत्स्थे सन-स्तुवर प्रियः ॥* पुजाचायं अथं–यष् तरण होने पर भी बच्चे जैसा दीखता है। इसे ठवर की दार बहुत भाती है। | यवनमत- यह बुध अगम्नितत्व की राशिमेष्ो तो चपल, कुर क्रोधी नारको का शौकीन वक्ता तथा गणित में प्रवीण होता दै। धनु राशिमेष्टोतो साहसी होता है । इष, कन्या या मकम होतो इटी ओर कपरी होता है.। मिथुन-वुल या कुममेंदहोतो बहत बुद्धिमान वक्ता-कलमभों का ज्ञाता तथा वि्याभ्यासी होता है । इश्चिक में हो तो रसायनशास्रङ-वैय-वैक्ञानिक, स्वार्थी ओर ठगानेवाखा होता है। ककं वा मीन मेँ होतो चित्तस्थिर नहीं होता वाचन-ठेखन ओर पंडिताई में प्रवीण होता दहै। दानिके साथ बुध का अश्चुम योग हो तो बहुत बुरे फ मिलते ई ।

२१६ वमर्कारचिन्वामणि का तुरखनात्मक स्वाध्याय

शगुसूत्न-““वि्यावान्‌› विवाहादिवहुश्न॒तवान्‌। अनेक देरो सार्वभौमः मंजवादौ, पिदाचोच्ाटन– समयः । मृदुभाषी, विद्वान्‌, क्षमी, दथावान्‌ । स्विदयातिवषे तीथयात्रायोगः, बहुकामवान्‌-बहुवि्ावान्‌ । पापयुते पापक्षे्रे देदे रोगः, पित्त पांड़रोगः। शछमयुते ्यभकषेत्रे देहारोग्यम्‌ । स्वणंकांति देहः ज्योतिःशाखर पठितः, अंगदहीनः, सजनद्ेषी, नेत्ररोगी । सप्तदशवप भ्रातणा- मन्योन्यकलहः । वंचकः । उचस्वक्षेत्रे श्राव्रसौख्यम्‌ । श्रेष्लोके गमिष्यति । पापयुते पाप दृषटयुते नीचक्षं पाप रोके गमिष्यति । शय्यासुखवर्बितः, क्षुद्रदेव- तोपासकः । पाप मंदादिघुते वामनेत्रे हानिः, षष्ेशयुते नीचेशयुते बा न दोषः | अपान व्ययवान्‌ । पापहा । श्चभयुते निश्चयेन धनधान्यादिमान्‌ घार्मिदबुद्धिः | अस्रवित्‌-गणितशाख्रन्लः सौख्यवान्‌ तकंशास्रवित्‌, दटगात्रः || अथे- जन्मन मेँ बुधो तो विदावाला, विवाद करनेवाला, ओर बहुत शास्रं को सुननेवाखा होता है बहुत देख मे घूमनेवाला, वा यंत्र-्मच्र को जाननेवाल्म; भूत प्रेत को दूर करने म समथ-मनोहर-वाणी बोल्नेवाला-पंडित- क्षमा करनेवाला ओौर दयाङ़ होता है, २७ वे वषं में तीथैयात्रा हो आर त्यत लाभो, तथा नानाप्रकार कौ विद्या जाननेवाला होतादहै। बुधके साथ पापग्रहवेठे होवा यद पापग्रह के घरमे होतो शरीर में रोगवाला, तथा पित्त-पाड़ रोगवाखा होता है । यदि शुभग्रह युक्त दोवा ्चमग्रहकेषरमेहो, तो शरीर नीरोग होता दै । भौर खुवणे की काति के समान सुन्दर शरीरवाला ग्योतिषद्यात्र को पटनेवाला, भङ्ख से दीन, श्रेष्ठ मनु्यो से कपट करनेवाला, सौर नेत्ररोगी होता है । १७ वें वधं मेँ माइर्यो का आपस में लड़ाई-ञ्लगड़ा होताहै। टगहोताहै । बुध यदि उ्८(क्न्या) का हो वा अपने घर ( मिथुन-कन्या ) मेहो तो भाईयों काख्खहोतादै। ओर स्वर्गलोक जाने वाला होताहै। यदिबुधके साथ पापग्रहवेठे होवा इसे देखते हों तो, अथवा नीचराशि ( मीन ) मे दो.-तो नरकटोक जानेवाला होता है। भौर पठ्ग दि सुख से रदित; भौर क्षुद्र देवता कौ उपासना करनेवाखा होता है | बुध के साथ शनि आदि पापप्रहवैरेदोंतो बाणे नेत्र कौ हानि-षष्ठ स्थान का स्वामी युक्त हो वा वृहस्पति युक्त हो तो उक्त फठ नदीं होता है । अपन्ययकारी होता हे। पापनाश्चकारीहोतादहे। यदि बुध श्मग्रहसे युक्तो तो निश्वव ही धन-धान्यवाल होता दै-इसकी बुद्धि धमं करनेवाली होती है । शख्रविन्या व गणितशाल् को जाननेवाला, सुखी, एवं तकार को भी जाननेवाख होता दे ओर इसका शरीर इट्‌ होता दै ॥ विचार भौर अनुभव-शाखकारों ने जो फल बता है वे ुध अपने स्थान मं अकेला है एेसा समञ्च कर बत है । परन्तु बुध हमेशा रवि से आगे वारविसे पीके ३० अशोके भीतरदहीहोताहै। अतएव इसके उदय ओर अस्त होते रहते है, इसी प्रकार शक्र भी प्रायः बुध के समीप हौ रहता

चुधफर ` २१७

दै । कभी-कभी ओर प्रह भी साथमे दोते ै। अतः बुघ के खतंत्रफलों का वर्णन कठिन है । | शाल्रकारो के श्भफर पुरुषराशियों के दै भौर अञ्चुभफल स्रीराशियां केर्हे। घुधयदि ख्रीरारिमे होतो बहुत पुत्र होना यदह फल अनुमवमें आता है, वंराश्चय होना? यह फर मिथुन-धनु ओर कुम्भ के बुघ मे अनुभव म आता है। मेष, सिंह तथा व॒लामें एकाधदूखरा पुत्र रहतादहै। स्त्री रारि के बुधम ३२ व वधे तक बहुत खाने की प्रदृसि रहती है तदनन्तर आहारम कमीष्टो जातीदहे। भ्वोये वपं मृत्यु होती है–यह फल वरिष्ठजी का है परन्तु बुध से मत्यु काविवार नहींद्ोता है। ठेखनकला से उपजीविका करके जीवन निपौह ` करते है “यह्‌ फल नारायणमट् का ठीक है-समाचारपत्रों मे लेख भेजने ` वाङ मौज से जीवन चलाते है पुरुषराशिमें बुधकेदोनेसे शिश्वा श्ीघदही समास्र होती है लेखक, प्रकाशक वा सम्पादक होते ै। बुध यदि इषभ- कन्यावामकरमें होताहै तो इसके प्रभावमे आए हु व्यक्ति व्यापार करते है । बड़ी फर्मो मेँ नौकरी मिल जाती है। | ककं, वृश्चिक वा मीन में बुधके होने से प्रूफरीडर आदि का व्यवसाय उपजीविका का साधन दहो जातादहै। पुरुषराशिके बुधमें ३६ वे वषमे लम होता दै-लेखन कला से प्रसिद्धि प्राप्त होती है । यदि बृष~कन्या या मकरमें बुध हो तो एकान्तवास कौ प्रवृत्ति ्टोती है मिल्ना-जुल्ना पसन्द नदीं होता । कक, बृकिक तथा मीन में यह बुध हो तो स्वभाव कुछ अच्छा दोता दै–नीष्ता, स्वार्थिता-परखरीगामिता-अनुपकारिता आदि दुर्गुण नदीं दोते-ये दुगुण वृष्-कन्या या मकर मे बुध हो तो अनुभवमें भाते ै। यदि बुध बृधिक म हो समालोचक समालोष्वना मे कड्वी भौर तीखी भाषा का प्रयोग करता रै धनुराशि में यह बुध हो तो समालोचना निर्भीक; मर्मभेदी किन्तु सत्य पर निभैर होती है । मेष, सिद ओौर धनु मे बुघ होतो नकल करने की श्रचत्तिदोती दहै । धने बुद्धिमान्‌ बोधने बाहुतेजाः सभासंगतो भासते व्यास एव । प्रथुदारता कल्पन्क्षस्य तद्वद्‌ बुधैभण्यते भोगतः षटपदोऽयम्‌ ।॥२॥ अन्वयः–घने बोधने ( सति ) ( जनः ) बुद्धिमान्‌ बाहूतेजाः ( जायते ) सभासंगतः ( सः ) व्यास एवं भासते । कल्पवृक्षस्य ( यदूवत्‌ ) प्रथूदारताः तद्‌वत्‌ ( तस्य ) बुधैः < प्रथूदारता ) भण्यते । अयं भोगतः षट्पदः ( स्यात्‌ ).॥ २ ॥ सं^-टी<–धने द्वितीयभावे बुधे सक्ति अयं नरः बुद्धिमान्‌, बाहूतेजाः थुजप्रतापवान्‌ , सभासंगतः पंडितसमानस्थः व्यास एव भासते रोभते इति- ` रूपरकारकारः । भोगतः षरपदो भ्रमरः सवेभोगरसग्राही इत्यर्थः । तद्रत्‌ कस्प- बृक्षस्य प्रथूदारता बहुदानशक्तिमघ्वं बुधः पण्डितैः भण्यते वरण्य॑ते ॥ २ ॥ अथे-धनभावमें बुध हो तो धनस्य बुध प्रभावान्वित मनुष्य बुद्धिमान्‌ होता है–अपने ही युज से प्रतापी होता दहै। पण्डित समाज मेंवैठा

२१८ चमत्कारचिन्तामणि का तुखनात्मक स्वाध्याय

हया साश्चात्‌ व्यासदेव ही माल पडतादहे। भ्रमरकी भान्ति सर्वप्रकार के भोगोंका उपभोक्ता होतादहै। दान देने में कव्पच्रक्ष की दानशक्तिकी तरह इसकी दानरक्ति भी असीमित दोती है ओर इसी दानराक्ति की प्ररांसा विद्वान्‌ मी करते है|

रिप्पणी -भारत के इतिहास में सर्वमान्य एतिहासिक व्यक्ते व्यासदेवजी हए ईै। इन्होने चारों वेदों का यथाथंतः सर्वजन बुद्धिगम्य बनाने केलिए अष्टादश पुरार्णोकी स्वना की ताकिं सभी नातियां के छोग-सभी वर्णो के रोग; कथाओं के श्रवणमात्र से वेद प्रतिपादित धर्म का मर्म समञ्च ओर तदनुखार अपने-अपने जीवन का सुधार कर ठै-यहो कीं पण्डितसभा मं किसी प्रकाण्ड पण्डित का विरोष आद्र करना होता है, उसे व्यासासन पर वेटाया जाता है । अर यह विशेष आद्र व्यासदेवजी के नाम का हे | धन्‌मावगत बुध प्रभावान्वित व्यक्ति केवर बुद्धिमान्‌ दी नदीं होता प्रत्युत सवंशाल्र मर्मैवे्ता होने से, व्याखवत्‌ दी . नदीं होता, प्रत्युत व्यास ही प्रतीत होता ह । यद अभेदारोपण से रूपक-अल्कार का प्रयोग किया गया है क्योकि उपमालंकार मँ उपमान तथा उपमेय मे मेद बना रहता रै आर चमत्कारातिश्य द्वोतित नदं होता रै । नीतिदाखर मे धन के तीन उपयोग प्रतिपादित किए गए है–“दानं भोगोनाशस्तिस्नोगतयो भवन्ति वित्तस्य ॥ सर्वोत्तम धन का उपयोग (ददानः दै-परन्तु धन-तथा देय द्रव्य देने से व्यक्ति क्षीण होता दै-असीमित दान देनेवाले कौ अन्तिम गति दाख्दरिय होता है- धन देने की रक्तिमें हासो जानेसे मानसिक ङ्के होता है सदेव यह मोगा धन देनेवाटे व्यक्ति इतिहासे नदहोनेके बराबर ह । परन्तु कव्पच््च में तो सदैव प्रत्येक प्राणी को कल्पनानुसार पदार्थं देने कौ शक्ति-पत्येक प्राथ को खुले हाथ यह ्मोँगा धन आदि पदार्थोकोदेदेने की दाक्ति अक्षय रूप मँ निषित हे, एेसी कल्पना प्राचीनकारु से अ्ावधि चटी आ रही ३ । अतद्टव नारायणम ने धनभाव के बुघ के प्रभाव मे उत्पन्न मनुष्य की दान- दाक्तिं कौ उपमा कस्पवृक्षसे दीदै। यह रदी वात दानशाक्ति कौ; यहो तक मोगशक्ति का सम्बन्ध है–मनुष्य कौ उपमा श्रमरसे दी गई है। भ्रमर स्वभावसे ही अनेक पुष्प रसास्वादी दहै भ्रमर हरएक पुष्प पर चैता है चाहे उस पुष्प का रस मीठा हो, खद्धा हो, तीक्षण हो, कट हो–चाहे मिधित कोटिकाहो। धनस्थ बुध प्रमावोत्पन्न मनुष्य की उपभोगद्क्ति भी बदुी-चदी होती है सौर वह प्रत्येक भोगका उपभोग करता है। परन्तु धनस्थ बुध ग्रभावोत्पन्न प्राणी उख ही धन तथा सम्पत्ति को दानमे देता है मौर स्वोपभोग म खयं करता है जिस धन का संग्रह तथा जिस सम्पत्ति का संग्रह उसने अपने ही भुजबल से किया हमा दोता ईै–इस तरह इसका भुजबल तथा तजन्य प्रताप भी उच्चकोरिका होता है, यह मम॑ है।

बुधफरू २१९

तुखना–“विधोः पुत्रे वित्ते ्रवरमति रशोऽपि कृतिनां । | समाजस्थो वाचस्पतिरि सदा मास्त . इति ॥ प्रतापी गीतज्ञो भ्रमर इव भोगी क्षिति ते| महोदारः शश्वत्‌ सुरतरुखि शभीपतिसमः ॥ जीवनाय अ्थ–जिख मनुष्य के जन्मसमय मे बुघ धनभाव मेँ हो वह मूर्खं होता हभ भी प्रखरमति होता है। समामे सव॑दा बृहस्पति के समान सुशोभित होता है अर्थात्‌ इसकी वक्तत्वशक्ति बृहस्पति के समान होती है । यह प्रतापी तथा संगीत को जाननेवाला होता है। भ्रमर के समान भोगी होता है | प्रथ्वी पर कल्पवृक्ष के समान उदार आर पूणे धनवान्‌ होता है रिष्पणी-जीवनाथ ने धनभावगत बुध प्रभावान्वित व्यक्ति की वक्तुत्व शक्ति को सुरगुर बृहस्पति की वक्तत्वशक्ति से उपमित किया है–इसकी उदारता की उपमा कल्पदृक्ष की उदारता से दी है । कल्पद्क्ष अपनी उदारता से पात्रता कुपाज्नता के ्गडेमे न पड़कर एकसमान सभी प्रार्थियोंकी इच्छार्णै प्री करता है- किसी को खाली हाथ रौरने नदीं देता दै–इसी तरह धन भावस्य जुधका प्राणी खुले हाथ मँह मोगा धन देता है| घनपृणंता के कारण मूर्खं होते हुए भी यद ग्यक्ति सबकी दृष्टि मे विश्ञ होता है “सर्वेगुणाः कांचन माभयन्ते” शेस नीतिशतक का कथन है । “धनी । वराहमिहिर अथ–घन भावगत बुध जातक को धनवान्‌ बनाता रै । ““वनभावे चद्रपुत्रे धनधान्यादि पूरितः। श्चभकर्मा सुखी नित्यं राजपृञ्यश्च जायते ॥ काश्लीनाथ अ्थ- जातक, धन-घान्य से युक्त-श्चभकमं करनेवात्य, सुखी तथा राज- मान्य होता है । “ुध्योपार्जित वित्तरीढ गुणवान्‌ साधुः कुडम्बे बुघे ।” वंद्यनाय अ्थं–जातक शओीख्वान्‌ , गुणी, सदाचारी तथा अपनी बुद्धि से धनाजंन करनेवाख होता है । [र “्षेम-सौख्य-द्चचि-वित्त-सुखेथुंक्‌ सतक्रियोऽखिर सुद्धद्‌ धनसंस्ये > जयदेव अर्थ–द्वितीयभाव में बुध दोने से जातक कुशरू-सौख्य-पवित्रता-घन- ` सुख, इनसे युक्त होता है सत्क्मं करनेवाला तथा सभी का मित्र ष्टोता है ।

  • “स्याद्‌ बुद्धयोपार्जितस्वः कवि रमल्वचा वाचि मिष्टानभोक्ता ।”” मंतरेश्वर अथै–यदि दितीय मे बुधो तो भपनी बुद्धिस धनोपार्जन करता है । बुद्धिमान्‌ वा कविता करनेवाख होता । इसकी बाणी निर्भ॑ होती दै ओौर इसे भोजन म मिष्टान्न प्राप्त होते रहतेदै। “विमल शीख्युतो गुरुवत्सलः कुराल्ता करितां महत्‌ सुखः । | बिपुलकान्ति समून्नति संयुतो धननिकेतनगे शशिनन्दने ॥ दण्डिराज

२२० चमस्कारचिन्वामणि का तुखनाव्मक स्वाध्याय

अथे-दवितीयभाव में बुध हो तो जातकः सुरील-गुरभक्त-चतुरता से धनो. पाजैन करके सुखी, अच्यन्त सुन्दर ओौर उन्नतियुक्त होता रै | बुद्धोपाजित विभवो घनभवनगतेऽन्नपानमोगी च । रोभनवाक्यः सुनयः शरितनये मानवो भवन्ति ॥”> कल्याणवर्मा अथे-जातक अपनी बुद्धिसे धनार्जन करता है। इसे खान पान का सुख अच्छा मिक्ता है । बोलना तथा नैतिक प्रवृत्ति अच्छी होती है । भवति च पिव्रभक्तः सुर्षितः पापभीरः मूदूतनुखररोमा दीषंकेशोऽतिगौरः। धनगतदशरिसूनौ सत्यवादी बिदारी सकलयुखसमेतो वित्तवान्‌ वंघुमाश्च ॥ मानसागर अथ–घन्‌भाव्‌ मेँ बुध होतो पिता का मक्त; स्थिरचित्त, पापभीर, शरीर कोमठ ओर कठोर रोम लम्बे केश-गौरव्ण-सत्यवक्ता-सव सुख से युक्त-घनवान्‌ ओर बंधुमान्‌ होता है | “ुधे धने तिलोकिते वा धनाव्यो रानपूजितः पटभाषी धने नष्टे पुनरन्यचलभ्यते ||” | काछचितासणि अथे–जातक धनवान्‌ , राजमान्य तथा बोलने मे कुशल होता ईै- एक वार धन नष्ट हुभा तो किर प्राप्त होता है। “^त्वगृदोषं कुरुतेनित्यं सोमपुत्रः कुटम्बगः | भंगं अथ–दमेरा तवा के रोग होते रहते ई । “हरिवुधो यदि वा घटवाकपतिः वपुषि तत्‌ पुरुषत्रयजं घनम्‌ । समदुः चेदूधनमेत्यधिकारवद्‌ वहुतदास्य वधूधनग्द्‌ भवेत्‌ ॥> उदयभास्कर अथे-सिंहराशिमें बुघ वा कुम्भराशिमं गुरु धनस्थान मेँ हों तो तीन पीदिर्यो की सम्पत्ति प्राप्त होती दै। स्वभावनम्र होता है। अधिकार मिक्ता हे । दास-दासी बहुत होते ई । ज्ी-घन प्राप्त होता है | “विमक शील्युतो गुरुवत्सलः कुशलता कलिताथंमहत्युखम्‌ । विपु कांति सयुच्नति संयुतो धननिकेतनगे शरिनंदने ॥” वृहद्‌ थवनजातक अथे–नातकः शीलवान्‌ , गुरभक्त-कुरक, धनसंग्रह करके सुख प्रात करनेवाला, कांतिमान्‌ तथा प्रगतिशील होता है। धट्धिशकैर्धनकृतिमः । २६ वे वषं घनलाभ होता है। 4 ““कोरीश्वरः चन्द्रयुतः सदेव 1 यवगमत अथे–कोय्याधीरा होता है । “धने बोधने वक्तिमाधुरयमिश्रं धनंवर्षते वाहूतेजाः सभोगी। भवेत्‌ संसदि सिहत॒व्यः स वक्ता वदान्यस्तदुक्तं न व्यर्थं विरुद्धम्‌ ॥”‡ ९ जागेश्वर) अथ–जातक मौठा बोक्ता दै । धनव्द्धि होती है । मुजव्रल संयुक्त तथा भोगी होतादै। सभाम इसका भाषण सिहठल्य तेजस्वी तथा प्रभावयाली होता हे । उदार होता दै । इसका कथन व्यर्थ या विड नहीं होता |

॥.-

बुधफर २२१

नले वाग्मी स स्यात्‌ पुरुषः सौप्यवक्ः। स्याद्‌ बुोपार्चितस्वः कविरमल्वचा वाधिमिष्टा्न भोक्ता ॥> पु जाचायंः

अथे–जातक बोलने मे चतुर, चेहरा सौम्य-अपनी भङ्क से धनकमाने- वाला, भिष्टा्न खानेवाख, तथा निर्दोष वाणी बोलने वाला होता है |

पाश्चत्यमत-घनमभाव का बुध श्चुभयोगमें हो तो बहुत बख्वान्‌ होता दै । लेखन-वाचन-दलटी-ल्िपिक का काम-हिसाब का काम आदि व्यवसायों मे धन पराप्त करता है । रास््रीयज्ञान, व्यापार, ओर शिक्षा विषयक व्यवहार में प्रवीण होता है । नीतिमान्‌-अन्तश्ञानी, उद्योगप्रिय, न्याय करने मँ कुराल होता है । कार्यशक्तिः तीतर होती है । अकस्मात्‌ धन पासि होती रै । .

श्रगसूत्न–कोटीश्वरः, भोगी, वाचालः शाखरविषक्षणः, धनी, गुणाढ्यः; सद्गुणी, पं्चदशवधे बहुविदयावान्‌ धनवान्‌ खाभप्रदः । पापयुते पापक्षेत्रे अरि नीचगे विध्याहीनः, करत्वं पवनन्याधिः। श्चभयुति वीक्षणाद्‌ अधिविद्यावान्‌ । गुखयुते वौक्षिते वा गणित्ाख्नाभिकारेण सम्पक्षः। | |

अथं–करोडो रुपयों का माछिक, द्भ्य तथा लियो का उपभोक्ता–वाचाल, शाख्व््ा मे प्रवीण, ओर गुणवान्‌ होता है। १५ व वषं बहुत ज्ञान प्रास होता है, तथा धनवान्‌ होता है । पापग्रहसाथ हो-अथवा पापग्रह कीराचि म, वा नीचराशिमें होतो विन्याभ्यास नहीं होता। स्वभाव कूर होता दैः वातरोग होते ईह । छभग्रह साथहों या उनकौ दृष्टि होतो बहुत विद्याभास ० ह । गुरुके साथहो, या उसकी दृष्टि होतो गणितशाल्रमें प्रवीण ता ई।

विचार ओर अलुभव-धनभागवत बुध के शुभ तथा अद्युभ-दोनों प्रकार के फट शास्रकारो ने करे ह । उनमें श्मफर पुरुषराशियों के है, तथा अद्यभफल स््रीराशियो के ईै। ब्रइद्‌ यवनजातकर्मे, रेवै वषं धन प्रापि होती दै-ेला फल कहा है-इस फर का भनुभव होता है । स्व पृष्ठो तो बुध ग्रह सम्पत्ति प्रापिका कारक नदींहे। भारतमें भी जकर ठेखकों को अच्छा धन मिक जाता दै। गुजराती-मारवाड़ी आदि व्यापारीवर्गो को धनस्थान में बुध के होने से अच्छा धन मिलता है-प्रिन्तिपल-प्रोफैसर-डादरेक्यर ` आदि अफसरों को अच्छा वेतन मिक्ता है-यह भी धनभाव के बुधका प्रभाव का फठ है-एेसा कहना पडेगा ।

सष्व पूकछो तो वस्तुस्थिति यह दै कि श्चुक्र भौर रानि दोनों ग्रह विपुल धन प्राप्ति के कारक ग्रह ह । चक्र नकदी खुप दिख्वाता है र शनि स्थावर सम्पत्ति दिल्वाता है यदि कोई अन्य ग्रह भी धनस्थानमें होतादै तौभी उस स्थिति का परिणाम धन प्रापि हो सक्तादहै।

मिथुन ओौर कक को छोडकर अन्यख्यकी कुण्डलिया मे यदि धनेश क्री होतादैयो धनस्थानमें बुध दोने पर दाद्धिय योग बन जाता है-श्चम ग्रहों कौ दष्टिदो तौभी दाखदरध योग होता दै।

२२२ वमर्कार्चिन्तामणि का तुखनार्मक्‌ स्वाध्याय

पुरखषरायि का ल्यदहो; धनस्थानमें लख्रीराशिमें बुधघहोतो ओौर धनेश वक्रीनदहोतो यह योग अच्छा धन कभ करता है । धनेरावक्रीहोतो अस्प धन प्राप्ति होती है । किन्व॒ सन्तान नहीं होती । तृतीय माव- । “’वणिङमित्रता पण्यछ्रद्‌ वृत्ति रीखो वशित्वं धियो दुवेदानायुपैति । विनीतोऽतिभोगं भजेत्‌ संन्यसेद्रा ठृतीयेऽनुजेराश्रितो ज्ञे तावान्‌ । ३॥ अन्वय– जे तृतीये ( सति ) वणि मित्रता-पण्यङघद्‌इत्तिशीरः ८ जायते ) ( सः ) दुवं्यानां धियः वरित्वं उपेति, विनीतः ( मवति ) अतिभोर्ग भजेत्‌ वा संन्यसेत्‌ ; कतावान्‌ ( इव ) अनुजैः आश्रितः ( भवति ) ॥ ३ ॥ सं -टी<–तरतीये बुधे सति बाणिज्यं पण्यजीर्वितं मिन्रतया स्नेहेन पण्यज्तां कयकारीणां इत्ति व्यवहारं शौलयति भजतीति सः तथोक्तः, विनीतः सील्वान्‌ सन्‌ दुवंशानां अवदयानां धिया स्वबुद्धया वशित्वं व्शकारित्वं उपैति । अनुजैः भराव्रमिः ल्तावान्‌ वहीस्मिः द्रुम इव आश्रितः वेष्टितः अतिभोगं बहुविषयानुभवं मजेत्‌ वा, अनंतरा्थः; मोगानंतरं अंते वयसि संन्यसेत्‌ त्यजेत्‌ विषयान्‌ इति रोषः । यद्वा सहजैः ठतावद्‌ आश्रितः संकटं प्राप्तः विषयान्‌ सेवेत्‌ इति सन्वयः ॥ ३ ॥ अथं- जिस मनुष्य के जन्मल्् से तीखरेस्थान में बुध दो वह व्यापारी लोगो से मित्रता करके–“्यापार क्यो कर किया नाता रै-ग्यापार को चलने केषटिए कौनसे नियमों को वर्ताव तथा उपयोग म लाना होता ३ै– आदि आदि गुप्त रदहस्यों को बखूबी समञ्च कर व्यापार करता है । ओर व्यापारसे धन कमाता है । अर्थात्‌ जिसके त्रतीयभावस्य बुध होता दै वह एक प्रवीण भौर चतुर व्यापारी होकर व्यापार से जीवन व्यतीत करतादहै। करई एकणेसे छोग भी इसके जीबन मँ आते जिनको अपनी मुद्ध में रखना जीवनयाचा में सफलता प्राप्त करने के लिए अत्यन्त आवश्यक होता है, परन्तु ये लोग उदण्ड स्वभावके होते है; मौर इनको वश मेँ ले आना सहन नदीं होता है-तृतीय भावस्थबुध का व्यक्ति इनरोगोँ को भी; अपनी बुद्धि से अपनी व्यवहार कुशलता से, अपनी सधी मँ कर ठेता है; भौर इनसे भी आवदयक काभ उटाेता | यह नमप्रस्वमाव का होता दहै। यह व्यक्तियातो मत्यन्त विषयासक्तं होता है अर्थात्‌ विषयोपमोग लिति दी रहता है-वा तीव्र वेराग्यके कारण संसारसे पर-गृहस्थी से विरक्त होकर संन्यासद्ी ठे लेताहै। जेसे इष्चके इर्दगिर्द सहारा पाने के छिए लतां ल्टकी रहती है-उसी तरह आश्रय पाने के लिए इसके भाद बन्धु इसके निकट पड़े रहते है ओौर यह इच्छानुसार भाई बन्दो कौ आवद्रयकता के अनुसार, ओर अपनी राक्ति के अनुरूप इनकी सहायता करता ह । अर्थान्तर-रृतीयमावगत बुध के प्रभाव म आया हा व्यक्ति अपने बन्धुवगं से मिककर संसार के उत्तमोत्तम विषयों का ययेच्छ आनन्द रेता है; यर्थात्‌ माया कौ आवरण सौर विक्षेपशक्तियोंका शिकार होकर

बुधष्र २२द्‌

परेयमागं के चक्र मे आया हुभा स्री-पुत्र आदि के मोह जार में फैसकर अपने अमूल्य रत्नरूपी मानवजीवन को नष्ट करता है । अथवा विषयोपभोग शक्ति का हाषदहो जाने से, अन्तिमि अवस्था मे प्राक्तन जन्मङ्कत श्चुभकमं जन्य संस्कारों के उद्बुद्ध हो जाने के कारण तीव्र वैराग्य से संसार से नितांत विरक्त होकर सन्न्यस्त दो जाता दै ओौरश्रेयोमागं अर्थात्‌ मोक्षमागे पर अग्रसर दो जाता दहै।॥३॥ - वुखना—्वृतीये यस्य ज्ञे प्रसरति वणिक्‌इत्तिरमितः। सदा दुवश्यानां भवति च वरित्वंनिधि धिया ॥ सुखानामाधिक्यं निजसहनवर्गानु शरणात्‌ । ततोऽन्ते वैराग्याद्‌ विषय पटली गच्छति ल्यम्‌ ॥* जीवभाय अथै–जिस मनुष्य के जन्मसमय मे बुध त्रतीयभाव मे हो उसके व्यापार की षार्ोतफं वृद्धि होती है । वह धन की बुद्धि से ( रोङपता से ) दुष्ट इुद्धियो के बश मे रहता हे । उसे अपने सदहोदरनन्धु वर्गौ के अनुशरण से अधिक सुख

होता है, ओर अन्तम ( बद्धावस्थामें) वैराग्यसे विषय वासनां डत दो जातीरदै।

““प्रखलः ॥* वराहमिहिर अथे–रतीयभाव के बुध से व्यक्ति बहुत दुष्ट होता ह । “तृतीयस्थे बुधे जातः प्रशस्तोबंघुमानितः । धमेध्वजी यशस्वी च गरुदे वा््व॑को भवेत्‌ ॥

““स्वजनयुक्‌ जडधीवंहुसाहसः कुमट्ता कुमनाः तरिगतेबुघे ॥% काक्षीनाय

अथं–यद जातक यच्छे शरीर का, बन्धुं को प्रिय, धा्मिक-यशस्वी; तथा देव भौर गुरओं का आदर करनेवाला होता रहै । स्वजनों से युक्त-मन्द- बुद्धि का; साहसी; अश्चभविषचार करनेवाख होता है ।

“स्वजन युक्त जडधीः बहूुसाहसः कुमरूतः कुमनाः तरिगतेबुषे जयदेव

अथे-तृतीय बुध हो तो अपने लेगों से युक्त, मूख बुद्धि, बहुत साहसी दुष्टपाप से दु्टमनवाल्म होता है । |

“माया कम॑ परोऽटनोऽति चपलोदीनोऽनुजस्ये बुधे ॥ वनाय अथे–जातक मायावी, प्रवासी, बहुत चपल ओौर दीन होता ३ । “श्रमनिरतः (श्रुतिनिरतः) प्रियहीनस्तरतीय मावे बुषे भवति जातः । निपुणः सहज समेतो मायावहुलो नरथपलः ॥> बल्याण्शर्मा `

अ्थ- जातक परिभरमी ( वेदाम्यासी ) इष्टमित्र से इीन-कार्यं कुशल-

दोदरयुक्त, मायावी) ओौर चंवर होता दै । “शौर; समायुः सुसदज सहितः सशमः दैन्ययुक्तः ॥° भन्त्रेश्वर

अथे–यदि वरतीयमे बुध दहो तो मनुष्य शूरवीर दो किन्तु मध्यायुष्टो। उसके अच्छे भाई वहिन है । परन्तु एेसे व्यक्ति को भरम बहुत करना पड़ता है ओर यह देन्य युक्त होता है । |

२२४ चमर्कारचिन्तामणि का तुखनाव्मक स्वाध्याय

“साहसी निजजनैः परियुक्तधित्तश्चद्धि रहितोहत सौख्यः । मानवे निजजनेसित कर्ता श्चीतभानु तनयेऽनुबसंस्ये ॥” मानसागर अथे– घातक साहसी, जनो से युक्त, अपवित्र हृदय-युखदयीन-किन्तु अपने जनों का हितसाधक होता है । ““साहसान्‌ निनजनैः परिमुक्तः चित्तश्यद्धिरदहितो दत सौख्यः । मानवः कुशितेप्तितकतां शीतभानु तनयेऽनुजसंस्ये ॥” ढण्डिराज अर्थ–“भविषवारित काम करनेगराला है” इस कारण इसे अपने रोग छोड जाते है । यह मलिनहृदय तथा सुखदीन ओर मनमाना काम करने- वाखा होता है। साहसी च परिवारजनान्यश्ित्तश्चुद्धि रहितो इतसौख्यः | मानवः कुदाख्वान्‌ हितकतां शीतमानु तनुजेऽनुनसंस्ये ॥* बृहद्‌ यवनजातक अथे- यह साइसी तथा बड़े परिवार से युक्त होता है । इसका चित्त शद नदीं होता । इसका सुख नष्ट होता है । यद चतुर तथा दितकास होता हे। १२ वर्षं धनहानि होती है। “युघे प सहजस्याने इष्टिमिवां विलोकिते । भ्राठणां भगिनीनां च सुखं तस्य महद्‌ भवेत्‌ ॥ भ्रातरः पंचविद्यन्ते रातुदष््या मृत्तिवदेत्‌ | चतलखः पंचवा चेयाः स्वसारः शुभलक्षणाः ॥ कुजेन शनिना दृष्टे तासां वन्ध्यत्व मिष्यते | बुधो वा तत्र संस्थितः स्वखवाहूुस्यतां तस्य्रुवंन्ति नदहिसंरायः ॥ ` बुधौ त्रितये। बुधश्च शताधिपः। गं अथे- माई ओर बहिनो को बहत सुख प्राप्त होता है। इसे पोच भाई ओर चार पच बहिन होती है । इत पर रातरुग्रह कीद्षटि होतो भा्योकी मृत्यु होती है। शनि वामंगल कौदृष्टि होतो बहिन वेध्यादहोतीर्है। इसे बहुत मित्रहोते है| | धलगनात्‌ तृतीयभवने यदि सोमसुतोमवेत्‌ । दोपुत्रो कन्यकास्तिख्रो जायते नात्रसंसयः | वैष्णघतंत्र अथे-इसके दो लड़के ओर तीन ठ्डक्ियोँ होती रै । “नद्ध, अन्यभीतिम्‌?? | शश्चिषटठ अथे–यह समृद्ध होता दै इते दृर्ो का दर होता ई । “बुधे बुद्धिमान्‌ विक्रमे धर्मशीटो भवेल्छीखया रोगमाक्‌ सव॑कालम्‌ । स्वसारोभवति ध्रवं पंच खेगस्तथतासादसी चित्तश्चुद्धघा विहीनः? ॥ | जागेश्वर अथे- यह बुद्धिमान्‌ धर्मशील, सदायोगी; तथा साहसी होता है । इसे ५. बहरने होती ईै-दइसका चित्त अश्चद्ध होता है ।

१५ बुधफक २२५

पाश्चात्यमत-यह बुध वायुतत्व कीराशिमें होतो अभ्यास की भोर बृत्ति होती है । शास्रकार, अ्योतिष तथा गुप्तविद्याभों में प्रवीण होता दै। यह कक या मीनराशि मे होौर इसपर रनिकी दष्टिन होतो चित्त अस्थिर भौर डरपोक होता है । ठेखन, वाचन ओर भाषण में शुशरू होता हे । प्रवास से सुख भर छमदहोताहै। गुरुकीद्ष्टिहोतो न्याय करने की प्रवृत्ति होती है। मेगल के साय इस बुध का. शुभयोग हो तो भूगभंशाल्न मेँ प्रबीणता प्राप्त होतो है । परोपकारी इत्ति होती दै । पड़ोसियों अर परिचितो से प्रेम पूर्वक उर्ताव करते हँ । प्रवास बहूत करना पड़ता है ।

भरगुसूतच्र–भ्रात्रमान्‌ , बहुसौख्यवान्‌ । पंचदशे क्षेत्रे-पुत्र-युतः । धनलाभ- वान्‌, सद्गुणशाखी । भावाधिपे बलयुते दीर्घायुः । धेयेवान्‌ । भवाधिपे दुबे भ्रात्रपीडा, भीतिमान्‌ । बल्युतेश्राता दीर्घायुः | |

अर्थ–माई होते है । सुख बहुत मिल्तारै। १५ वै वं खेती तथा संतति प्राप्त होती है । धनवान्‌ तथा सद्गुणी होता है । तृतीय स्थान का खामी बल्वान ह्यो तो दीर्घायु ओर धैर्यवान्‌ होता है। वह दुब हो तो डरपोक दोता है-तथा मायां की तकलीफ होती है । बल्वान्‌ हो तो भाई दीर्घायु होता है ।

विचार ओर अनुभव नैसर्गिक कुंडली मे त्रतीयस्थान पर बुध का अधिकार है; तदनुसार शालकाय ने फ कहे ईै–तीसरा स्थान मिथुन क, ‘ है अतः खरी-पुरुष्र दोनों प्रकार के फर मिखते है, । अच्छा वक्ता, कवि-ज्योतिषी छेक. भादि के छिषएु व्रतीयस्थान अवद्य अच्छा होना चाहिए । इनका जीवन तभी अच्छा होता है यदि ये अपनेभाव-गपनेविचार स्पष्टतया व्यक्त कर सकते है । ध्यानपूरव॑क देख तो त्रतीयस्थान श्चभग्रहों के टिए अच्छा नदीं है । दाख्रकायों के श्यभफर मेष-सिंह-वल-कुम तथा मिथुन ओर धनुका र्वाध-एवं कन्या आर मीन का उत्तराधं इन राशियों म मिरते है । कन्या भौर मीन का पूरवा्ध-मिथुन ओर धनु का उत्तरधं-तया अन्यच राशिणए-दइनमे अञ्चभफल का अनुभव आता है यवनजातक ने १२ वे वषे धनहानि होती है- ेसा का है क्यों किबुधत्तीयमेंदहोतो रवि प्रायः धनस्थान मे, वा चतुथ ध्यान में होता है अतः पत्रकसंपत्ति नष्ट होती है ओर पिता दरी होताहै।

ततीय में बुध पुरषराशिमेंदह्ोतोरिक्ना पूरी होती है-दस्ताक्षर अच्छा लेखन सीध तथा संगत होता है-स्मरणशक्ति मी तीर होती दहै यह बुधस््री राशिमेंदहोतो अनुभव इससे उल्टा होता है। तीसरे बुध; धनश्थान मे शुक्त ओर दोनां स्थानोंमे सेकिसीएकमें सूयं हो, धनु-ककै, वा कन्यायदि का छग्न्‌ हो तो व्यक्ति ऽ्योतिषरा् कुरार देवज्ञ होता दै । धनस्थान में बुध ओर तीसरे शुक दहोतो भी उपर छिखा फर होता है । वृतीयभावगत बुध डाक्टर तथा न्यायाघीयो के श्ट भी अच्छा है-डाक्टरो की चिकित्सा भौर न्थायाधीशों का निणेय उत्तम होता है–ङेखन कार्य, छापने

२२६ चभमर्कारचिन्तामणि का तुरुनादमक्‌ स्वाध्याय

का काम-तथा प्रकाशन का व्यवसाय-वरतीय बुधदहोतो लाभकारी होतेर। तरतीयस्थ बुध यदि बल्वान्‌ हो तो भाग्योदय २४वें वषंसे होता है मध्यमवरी होतोरेण्वें वषंते, ओर यदि अदयम संबेध मेंबुध हो तोरेध्ववषंसे भाग्योदय होता हे ।

चतुथेभाव-

चतुर्थ चरेत चन्द्रजश्चार्‌ मिनो विदोषाधिकृद्‌ भूमिनाथो गणस्य । भवेल्‌ ठेखको छिख्यते वा तदुक्तं तदाशापरः पेवृकं नो धनं च ॥४॥

अन्वयः-८ यदि ) चन्द्रजः चतुर्थं रेत्‌ (तदा) (सः) चारमित्रः मवेत्‌ , विशेषाधि्त्‌ भवेत्‌, गणस्य भूमिनाथः, ठेखकः भवेत्‌, तदुक्तं तदाशापरैः छिख्यते, वा पैतृक धने च नो भवेत्‌ ॥ * ॥

सं2 दी2- चंद्रजः बुधः यदि चतुथे चरेत्‌ तदा सः चारुमित्रः चारुखुहयत्‌- भूमिनाथः गणस्य राजद्वारस्य विदोषाधिक्रत्‌ सर्वाध्यक्षः, ठेखकरः शोभनवणं ठेखी भवेत्‌-वा अथवा तदाशापरेः तद्‌शितान्यकेखाधिकारीभिः तदुक्तं तन्मुखनिगं॑तं वाक्यं लिख्यते इति छिड्ं कडि च पुनः पैवरकं पित्रोपार्जितं धनं नोमवेत्‌ पित्रधनाय न स्यादित्यथंः | ४

अथ जन्मल्गमन से यदि बुध चतु्थमावसंहो तो जातक का मित्र वगं उत्तम होता है, वह राजावागणका स्वामी अशात्‌ जनसमूह कानेतावा विरो अधिकारी होता है । यह ठेखक होता दे । अथवा इसका कहा दभा दुसरें द्वारा छ्खिा जाताहै। इसे पैतृक धनको प्राप्ति नहीं होती] यदि ““भूमिनार्थांगणस्य विदोषाधिक्रत्‌? पेसा पा्टातर स्वीकृत हो तो निम्नटिखितं अर्थं होगा-राजद्वार करा विदोषं अधिकारी अर्थात्‌ सभी दूसरे राजकमंचारियें पर जिसका विरोषं अधिकार द्ो-रोे दूज के राजद्‌रनार च नोकर्यो को उनके कामों पर नियुक्त करने का काम तथा उनके अच्छे बुरे कामों का निरीक्षण इसके अधथिकारमे र्हे। कई एक रियाखतों मे “सरदार ङ्योड़ीः नाम का अफसर नियत किया जाताया) इसका विरोष अधिकार राजाके इम्यं पर ( हरम्य-तराय पर ) दोता था। यह सरदार राजा वा महाराजा का विरोष विश्चासधात्र नौकर होता था-दइसकी आघा मौखिक होती थी आर उस आज्ञा को टेखवद्ध करनेवाञे आौर होते ये, जिनकी उन्नति वा अवनति इस सरदार की प्रसन्नता दा यप्रसन्नतता प्रर आधारित रदती थी इसकी सज्ञा का उङ्घन सहज नहीं था-इसका कोप राजकोप दी समन्ना जाता था कदे एक रिवासतो के राजा स्वये मपरित होते ये। उनके भौखिक आज्ञां को लेखनीवद्ध करने- वाला उनका मीरसंसी होता था-जो इन मोखिक आक्ञाओं को अपने टेखद्रारा चाट्‌ करता था-संस्छरत सै रेते राजकम॑चारी का नाम शटेखकः होता था। इसके >ेख की नकर करनेवाछे कई एक ओर कम॑चारी होते ये जिनका अध्यक्ष ‘लेखक्रः वा “मीरमुशीः होता था ।

बुधफरु । २२७

तुखना– “चतुथ यस्यजञेप्वरजनमैत्री श्ितितछे ऽधिकारोऽपिद्वारे भवति वसुघाभर्वरमितः ॥ तदाज्ञातः सर्वर्निजपरिज्मैरिख्यत उत प्रयत्नात्‌ तद्वाक्यं किमपि न सुखं पैवरकधनात्‌ ॥” जीवनाय अथे–जिस मनुष्य के जन्मसमय मेँ बुध वचतुथ॑माव मे हो उसकी सेनी संसार के शरेष्ठ मनुष्यो से होती है । इसे राजदरबार मेँ अधिकार प्राप्त होता दै। इसकी आज्ञा से परिवार के रोग इसके वग्वनों का विशेष आद्र करते है । परंच इसे पेतृकथन से कुछ मी सुख नदीं होता है, अर्थात्‌ यह अपने बाहुबल से अर्थोपाजंन करता है । “पण्डितः? वराहमिहिर अर्थ–चतुर्थभाव गत बुध से जातक पण्डित होता ह | ध्वतुर्थे व्वंद्रपुत्रे च वहुभृत्य यरोन्वितः । पडवाक्यो भाग्ययुक्तः सत्यवादी च जायते | काज्लोनाथ अथे–इसके बहुत नौकर-चाकर होते ह यह यशस्वी, बोल्ने म चतुर, भाग्यवान अर सत्यवादी होता है ।

“सधन वाहन गीतगुणोऽटनोखहसुखः सुखगः शारिजो यदा ।> जयदेव. .अथं-जातक धनी-बाहनों से युक्त, संगीत मेँ प्रवीण-मवासी, घर के बारे मे सुखी होता है | |

ˆ बन्धुस्थे रादिजे विब्रन्धु रमल ज्ञानी धनी पण्डितः ॥ वैधनाथ, अथे-जन्धुस्थानगत बुध हो तो इसके भास्मीय जन नहीं होते इसका ज्ञान श्चुदध, ओर यही धनी आौर पण्डितं होता है । “शधन जनसदहितः सुभगो वाहनयुक्तो बुधे हिबुक संस्थे । | सुपरिच्छदः सुबन्धुः भवतिनरः पण्डितो नित्यम्‌ ॥ कल्याणनवर्मा अथे– चतुर्थभावगत बुध हो तो जातक धन-जन ौर वाहन, सुवस् से युक्त; श्रशु्रन्धुवाखा भौर पण्डित होता है ।

“संख्याज्ान्‌ चाडवाक्यः सुदि सुखसुत क्षेज-घान्यार्थमोगी ॥ मंतरेश्वर

अथे–जातक गणितशास््वेत्ता, चाडइकारिता मेँ प्रवीण ८ मीठा बोलनेवाल ) सुखी, मित्रौवाला-क्षे्-घान्य-धन आदि का उपभोग करनेवाला होता है । दुसरा को प्रसन्न करनेवाला वाक्य चाडवाक्य होता है ।

““बहुतरधनपूणो भ्रावरहर्ता सपापे, बहुधन बहुषत्नी नेजगेहे स्वगे ।

तरलमतिरलजः क्षीणजंघः कृशांगः, रिञ्चुवयसि च रोगी बन्धुसंस्ये कुमारे ॥?

मानस्ायर

अथे–जातक बहुत धन से पूर्ण-पाप््रह से युक्त हो तो भ्रावरधातक, यदि यपने स्वग्ह वा उच्च मेँ हो तो अधिक धन भौर कई पलियोँ होती है । चंचल बद्धि.निर्ट्ज, कदादेह ओर बाल्पन मे रोगी होता है ।

२२८ ‘वसस्कछारचिन्वासणि का तुरखुनास्मक स्वाध्याय

सद्वाहनैः धान्यघनैः समेतः संगीत दृत्यमिरचिर्भनुष्यः | विद्या विभूषागमनाधिदश्याटी पाताल्गे शीतल्मानुसूनौ ॥* दण्डि राज अश-चतर्थभावमें बुघदहोतो जातक सुंदर वाहन, धन, धान्योँसे य॒क्त-गीत अर वत्य का प्रेमी, विद्धान्‌ ओर भूषणयुक्त होता हे । “वहूुमित्रो बहुधनो बन्धौ पापंविना बुधः। नानारखविलासी ष्च सपापे व्वन्यथाफटम्‌ ॥ चित्रं बुधे च वित्तेयं बुधे स्वणं गृहेतस्य। बुधश्च सवेकार्यघु मित्रो मिश्रफटप्रदः॥ गगं अथे-वुध पापग्रहोंसे युक्तभथवाच्छनदोतोवहुत घन मिल्तादहै ओर मिच बहत होते दै । नानारसं का उपमोग ठेता है | पापग्रह का सम्बन्ध हो तो उल्या एर मिलता है । रहने का स्थान चितच्र-विचिच्र होता है । इस बुध के फक मिश्रित होते द । ““सौम्ये ष्चाद्पसुतत्वम्‌ ॥2 वादराचण अथे–इसे पुत्र कम होते ई । ४ “’सौख्यान्वित च धनम्‌ ॥› वशिष्ठ अथं–जातक सुखी ओर धनवान्‌ होता है । “”बुधस्तुपलन्याहितवंषु सौख्यं बन्धौ परावासकृताधिवासम्‌ 1} यवनसत अर्थ-पत्नी ओर बन्धुभों का सुख अच्छा मिक्ता दहै। पाप्र्रहों का सम्बन्ध हो तो दूसरों के धर रहना पड़ता है । ““पुत्रसोख्य सहितं बहुमिघं मं्रवादकुशं च सुशीलम्‌ । मानवं किल करोति खटीलं शीतदीधितिसुतः सुखसंस्थः ||? वरहुद्‌थवनजातक अथे- जिसके जन्मट्य्र से चदुर्थं बुध हो उसे पुत्र सुख मिलता है | इसके मित्र बहूत होते है । यह जातक अच्छा सलाहकार ओर वाद्‌-विवाद्‌ करने में कुल अर्थात्‌ चतुर होता है । यदह सुशीर होतादहे। ररवैवष॑मरे चतुथं बुध धनदहानि करता है ॥ (्ञावित्तहा यमयमेः ||? अथं-२२ वे वर्षं धनानि होती है । „ “इषेवुयगे वैभवे दिष्टिकायैः पितुर्माग्यवान्‌ सुन्दरः |! जागेश्वर अथं-पिता के सम्बन्ध से माग्यवान्‌ मौर सुन्दर होता है । ‘टराविंदो चुथंगः पुरं च ||” हिल्छाजातक अथे- २ वें वर्षं पुत्र होता है। यवनमत-इसका शारीर पुष्ट होता है। पुत्रका दुःख पाक्त होता है। आरम्भ किए हए काय॑ से सफठ्ता मिलती है । यदह संगीतपरिय ओर मिष्ट- भारी होता है । जेखा बोख्ता दै वैखा बतौव नदीं करता है । अपने दिये वचन को तत्कार भूर जाता है । वहत आलसी होता है ।

दुफर २२९

पाञ्चात्यमत–यह बुघ मिथुनवा कन्याम होतो आयु का अन्तिम भाग यच्छा जाता है। इसे संसारके बारे मे बहुत चिन्ता होती है। स्मरण रक्तिं बहुत तीव्र होती है। तथा अन्तर्ञानमी दहो सकता है! इसका दानि के साथ अञ्युभयोगदहोतो चोरी या विश्वासधात से इसका नुकसान होता हे । मौ-बाप से अच्छा खभ होता है।

भृगूसुत्र-पैयवान्‌ । विशालाक्षः । मावु-पित्र-खख-युक्तः । विंभूषायोषागं प्रवर ठरगाणाम्‌ । ज्ञानवान्‌ सुखी । षोडशवषे दव्यापदार रूपेण बहुलाभप्रदो भवति [ गुरु-द्यक्र-रानियुते अनेक वाहनवान्‌ । भावाधिपे बलयुते आंदोिका प्राप्तिः । राहु-केत॒-शनियुते वाहन रिषटवान्‌ । क्षेत्रे सुखवर्जितः । बन्धु कुल्ढेषी ।

अथे–जातक पैर्य॑वान्‌-सुखी, अौर ज्ञानवान्‌ होता है । भं बडी होती है । माता-पिता का सुख मिलता है । चर्यो तथा आभूषणं का सुख मिता दै । अच्छे धोड़े मिरूते है। २६ वें वर्षं दूसरोंकेधन का अपहार करनेसे बहुत खम होता है| गुरु-शुक्र-रानिके साथदहोतो बहत से वाहन मिर्ते है । राहु-केतु या इानि साथदहोतो वाहनोंसे भयदहोतादहै। जमीन का सुख नहीं मिलता । बांधवों के साथ द्वेष करता है ।

विचार ओर अनुभव–विद्वान्‌ होना भौर ज्ञानौ होना इस फट का मिटना सन्देहास्पद्‌ है | यवनमत मे ‘पुत्रहुःखः ओर इहद्थवनजातक में ““पुत्रसुखः” एेसा परस्पर विरुद्ध फल का है । यदि रवि पञ्चमम हो तो यवन मत में दिया हुभा फक मिल सक्ता है । आओौर यदि रवि वृतीयमें द्योतो बरृहद्यवनजातक का फल मि सकता दहै ।

२२ वै वषं “धनहानिः { यवनमत ) इसी वर्षं पपुत्रखभः ( दिह्ठाजातक मत ) अनुभव में साते ह कुंडली मे बृष-कन्या वा मकरल्दहोतो “्वदुथं स्थान का बुध निवंख होता है यह मत ठीक है। शाख्रकारों के बताए शभ फर पुरुषरारिर्यों के दै । ओर अञ्चभफल श्रीरारियों केह । जातक का चतुथ॑स्थान `का बुध यदि पुरषराशिमें होतो जातक विन्याभ्यास्र करेगा किन्तु रकावयों के साथ संघषं करना होगा ।

यदि बुध मेष-सिहया धनुमंदहोतो जातक क्रोधी, एकान्तप्रिय-तथा लोगो का अनिष्ट चाहनेवाख होता-दै। मातासे वैमनस्य तथा व्यर्थंका सअभिमान-अनुपकारिता का स्वभाव तथा कृपणता-एेसे स्वभाव का जातक होता है ।

भिथुन- वला या कुम्भे बुधके होने से जातक का वैमनस्य पितासे दोता है-ग्यथं ही अभिमानी पण्डितंमन्य~ग्यथं व्ययकारितावान्‌ जातक होता हे।

खीराशिकाब्ुधहोतो व्यापार करने से अस्प धन प्रि दो खकतीदरै। किन्तु सहयोगी ग्यापारियों से ञ्जगड़ने की प्रवृति भौर घर-बार प्राप्तहोते दै । `

२३० चमर्कारचिन्तामणि का तुरखुनासमक स्वाध्याय

पद्चसभाव ““’वयस्यादिमे पुत्रगर्भो न तिष्ठेत्‌ भवेत्‌ तस्य मेधाऽथंसंवाद्यित्री । वु्भैण्यते पञ्चमे रोहिणेये कियद्‌ विदयते केतवस्याभिचारम्‌ ॥ ५॥ अन्वयः–( रौहिणेये पञ्चमे ( स्थिते सति ) आदि मे वयसि ( तस्य) पुत्रगो न तिष्ठेत्‌ , ( तस्य ) मेधा अर्थसम्पादयित्री ( मवेत्‌ ) कैतवस्य तस्य अभिष्ारं कियद्‌ विद्यते ( तत्‌ किसुवक्तव्यम्‌ ) ॥ ५ ॥ सं<-टी– पञ्चमे रौहिणेये रोदहिणी-जपत्यं बुधः अस्ति तस्य आदिमे वयसि पुत्रगर्भो न तिष्टेत्‌ तस्मात्‌ जातः चेत्‌ म्रियेत स्वानपस्यं वा स्यात्‌ स्यात्‌ , मेधा बुद्धिः अथंसम्पादयित्री द्रव्याजंने चतरा सामिचारं ममिष्वारः मारणोचचाटनादिमिः सह वतमाना कैतवं छटं कियद्‌ अपरिमितं बिद्यते इति बुधैः होराविद्धिः मण्यते कथ्यतेवयर्थः॥ ५ ॥ वाराणसी पुस्त मूटपाटपरिवतनं निस्नट्िखितम्‌ , “कियद्‌ विद्यते कैत- वंसाभिच।रम्‌? संबई पुस्तके त॒ “कियद्‌ विद्यते केतवस्यामिषचारम्‌” इत्येव पाटः स्वीकृतः स्पष्टार्थकश्च | अथं-जिस मनुष्य के जन्मल्यसे पचै स्थानमें बुध दहो उसे पहिली अवस्था मं पुत्र नहीं होता है कन्यार्पैँ होती है । अपनी बुद्धि से धनार्जन करता हं । उस कपटी मनुष्य के मारण-उच्चारनादि कर्म॑ कितने होते दै, यह कहा तक कहा जा सकता है–अर्थात्‌ वह अतीव दुष्ट होता है | टिप्पणी-विंशोत्तरीदशा के अनुसार मन॒ष्य कौ पूर्णायु १२० वषं की मानी गयी है । यदि १२० का चारमागोँमे विभाजन करिया जाए तो पहली अवस्था ३० वधं की होती है- पहिले तीस वर्षो मे २५ वषं ब्रह्मचर्याश्रम के ह तदनन्तर विवाह होता है–२५ अर ३२० की भयु मे एक दो सन्तान दो सकती द । इनमें यदि प्रथम गभं का परिणाम च्येष्ठ पुत्र होतारै तो वह पति-प्ली के लि प्रथम पुत्र मूृप्युजन्यसोकशस्य का कारण होता है । “प्रथम सन्तान-ओौर वह भी पुत्र, भौर उस सन्तान काभी जीवित न रहना यह सब कुछ माता-पिता के लिए असह्य मानसिक शोक का तीक्णातितीक्ष्ण कांटा-सदेव के टि विस्मरणीय दुःखजन्य चित्तश्ान्ति भंग कर्ता होकर गहरा घाव हो जाता है। अतः पति-पती.के छिएः आवदयक है किंवे ओौरसख वये पुत्र की उत्पत्ति के विषयमे ध्यान दी नदे । यदि २५-३० की आयु के अन्द्र कन्यार्णँ उत्पन्न होतीर्दै तो उनका स्वागत करं। यदि कन्याओं का उत्पन्न होना अभीष्ट नदो तो पति-पल्ली का व्यवहार एेसां होना चाहिए जिससे स्वानपत्यता रहे-भर्थात्‌ ३० वषं की अवस्था के अनन्तर ही संतान हो ताकि बह जीवित रहे। भट्नारायण का अभिप्राय है कि यदि प्रथम अवस्था के बाद गभ॑स्थिति दहोतीदै ओर उस गभंका परिणाम यदि पुत्र दहै तो वह पुत्र जीवित रदेगा-कन्यार्णै तो जीवित अवदय ररदैगी-इसमें ङु

बुधर्छ २३१

वक्तव्य नहीं है । रीक्रा मं (तस्मात्‌ जातः चेत्‌ म्रियेत ेखा कदा है-क्या इस कथन का गट ममं यह है कि “अन्यतः जातः चेत्‌ न म्रियेत इत्यादि ेसा यर्थंहो तो वह व्यभिचार की र सकेत करता है, पतित्रताधमं पथ- भ्रष्टता कीओर संकेत करता है; ओर यह संकेत आर्यं संसृति तथा आयं सभ्यता के नितान्त प्रतिकूक है-सती साध्वी च््ियों को भमी पथभ्रष्टादहो जाने के दिर भारी प्रोत्साहन देनेका कारण हो सकता हे; अतएव अत्यन्त निन्य दै । मौर यह अथं प्रसंगानुकरू मी नहीं दह। तुटना–“^तमीमतः पुत्रेगतवतिजनुः पुतरभवनं वयस्या्े यस्य॒ प्रथमसुतगभं क्षतिगपि। मनीषासद विन्त व्यवहति विधेरथं षतुरा। खरस्य व्यासंगात्‌ कपटपय्टी देतव्यतिमुखे ॥’ जीत्रनाथ अथे– निस मनुष्य के जन्मस्मय रः बुध पञ्चममावमे हो उसकी प्रथ- मावश्था मे उसकी स््रीका प्रथम गमं नष्ट होता हे! अर्थात्‌ अधिक अवस्था मे सन्तान होनेसे नष्ट नहीं होता है। उसकी घनोपाजन में चतुर बुद्धि अच्छे धन के व्यवहारमें लगी रहतीहे। तथा दुष्टांके सहवास से उसके मुख मं कपट भरी वाणी रहती ह । रिप्पणी-मड नारायण तथा जीवनाथ-इन दोनों ने ही पहटी अवस्था म प्रथम गमनाद होता है-एेसा फल कहा है करसे कर तक प्रथम अवस्था होती है-इसका निर्धारण तथा निणेय क्थोंकर किया जाए-यह एक

प्रन दै । अत्पायु-मध्यायु तथा दीर्घायु-यह तीन मेद है-णेसा ग्रन्थकारो ने अपने म्रन्थां मे लिखा है-अस्पायु ३२० से ३५ तक, मध्यायु ३५ से ६५-७०

तक-तदनन्तर ६५-७० से १०० तक ॒दीघायु-एेसा निण्य भी मिलता है-१०० से ऊपर पूर्णायु दहे किन्तु कौं तक १ १०० वषंसे आगे देवायु मानी जाती है | मने विरोत्तरी दशा के अनुसार प्रथम अवस्था पहिले ३० वषं कटी है । “मन्त्री? वराहमिहिर € अथे-सलखाह देता है। रिप्पणी-क्या पञ्चमभाव का बुध जातक को मन्त्री पद दिल्वाएगा १ वा पञ्चमभावस्थ वुधरसे जातक मन्तरशाश्चन्ञ होगा १ वा जादू-टोना आदि करने मे सिद्धहस्त होगा १ये प्रश्न भी उठ सकते ह ! “पञ्चमे रोहिणीपुत्रे पुत्रपौत्र समन्वितः सुबुद्धिः सत्वसम्पन्नः सुखीभवतिमानवः || काक्ोनाथ अथ-जातक पुत्र-पौां मं युक्त, अच्छी बुद्धि का बल्वान्‌ आओौर सुखी होता है । मित्र पुत्र सुखयुक्‌ श्चभशीटो मन्वशाख्रविदसौ सुतगे ज्ञे ||» जयदेव अथ-जातक मित्र-पुत्र तथा सुख से युक्त; शीलवान्‌ आौर मन्तरशास्न जानने वाला होता है।

२३२ चमर्छारचिन्तामणि का तुरुनात्मक्‌ स्वाध्याय

““मन््ाभिष्वार कुशकः सुतदारवित्त-विद्या यशोबल्युतः सुतगे सति जे ॥”’ वद्यनाथ अथे- जातक जारण-मारणादि मन्त्रँ मे कुश तथा सख्री-पुत्र-घन-वि्ा- कीर्तिं ओर बर से सम्पन्न होता दे । “पुत्र सौख्यसंहितं वहूुमिवरं मन्त्रवादं कुशलं च सुञ्ीलम्‌ । मानवं किक करोति सलीरं शीतिदीधितिसुतः सुतसंस्थः ॥› दुण्डिराज अर्थ- जिस जातक के जन्मलख्यसे पञ्चमभावमे बुध दहो उसे पुत्र सुख मिल्ता है । इसके मित्रों का सरकठ वड़ा होता ह । यह जारण-मारण-उच्याटन आदि मन््ों का कुशाल्तापूर्वक उपयोग कर सकता है। यह वाद्‌-विवाद्‌ करने मं चतुर अओौर तकंकुशल होता दै। यह चरित्रवान्‌ होत है । इसकी लीलाएं भी अनोखी होती ह ॥ भ“तनयमच्िरगे शरिनन्दने स॒तक्ख्च्रयुतः सुखभाजनम्‌ | विकजपंकजास्मखः सदा सुरगुरुद्विजभक्तियुतः शुचिः | मानसागर अर्थं -पञ्चममावमे बुधदहो तो जातक ख्री-पत्र से युक्तः सुखी, सुन्दर रूपवान्‌-सदा पवित्र, देव-गुर ब्राह्मणों का मक्त होता ई । ““विद्या सौख्य प्रतापः प्रचर सुतयुतो मान्त्रिकः पञ्चमस्थे |” मंत्रेश्वर अ्- प्चममें बुधो तो उसके सुख ओर प्रताप की वृद्धि विदा के कारण होती है-उसके पुत्र बहुत होते रई-मौर एेसा व्यक्ति मन्त्रर्ाख्का ज्ञाता होता हे॥ “धमन्त्राभिचारकुशखो वहुतनयः पञ्चमे सोम्ये । बि्यासखप्रमावैः समन्वितो हषंसंयुक्तः |» कल्याणवर्मा अर्थ. जातक मन््रविदया ओौर जारण-मारणमे कुशल होता है। बहुत पुत्र होत ै। विद्वान्‌ , सुखी; प्रभावशाटी तथा आनंदी होता हे। (चन्द्रसुते संजाते रतिगेदे दारिका बहुकः स्यात्‌ ॥ अर्थ- यह बुध सिंह राशिमेंदो तो कन्याएं बहुत होती है। “”पञ्चमस्थश्चन्द्र पुत्रः सन्तानं प्रकरोतिदि | अस्तंगतः राव्रुदृ्टश्चोत्पन्नस्य विनाशकः | मातुखा नयन्ति सौम्ये चाव्पसुतत्वम्‌ | गगं अर्थ- जातक को सन्तान प्राप्त होती दे। किन्तु यह बुध अस्तंगत हो या उस पर शत्रग्रह कीदृष्टिहो तौ सन्तान कौ मृष्युहोतीदे। मामाका नाश होता दै । पुत्र कम दहोतेरद। शाराग्दे मातः श्चयम्‌ ॥’” वृहद्यत्रनजा तक्‌ वें वर्ष॑माता की म्युहोतीदहे। ८ध्ुघश्च्वल्पात्मजं रजम्‌ ।’ वशिष्ठ अर्थ– सन्तान कम होती दै-रोग होते ह| (नज्ञे समा कन्यापव्यः |” पुञ्जराज

६ अय

बुधफर रररे

अर्थ- बुद्धि साधारण होती है। कन्या होती । यह बुध मकर या

कुम्भमें हो उस परर पापग्रह कीद्ष्टिनदोतो कन्याए होतौ ईै। “शुभमतिः ॥2 सुयंजातक अथे-वद्धि छम होती है । „ “डूर्विरो मावह पच्चमोदुधः ॥* हिल्लाजातक अथं–र६् वैँ वषंमाता की मृघ्युहोतीदहे। (विधौ विवाहतो नष्टः ।> जातकरत्न

अ्थे- पुत्र का व्याह होते दी उसकी मृष्यु होती रै ।

प्मरामार्कः च्छु दह्योतीदै। पिताको तकखीफ होतीहै। मां को सुख मिलता है। शारीरिक कष्ट होते है। राजदरतरार मे सम्मान मिलता दहै। भोति भोति के पोशाक करने की रुचि होती रै। विद्वान्‌; दाभिक, भौर कलदप्रिय होता हे ।› गोषालरत्नार |

भगुसूत्र-माठलगंडः माघादिसौख्यं पुत्रविध्नं मेघावी, मधुरभाषीः बुद्धिमान्‌ । सौम्ये स्वक्षत्रगते पञ्चमे पुजरभागू भवति । सिंहस्थितेऽपि चेवं नवमे वा वृतीयभार्यायाम्‌ । दिमयुतः गमंहानिं करोति । पुत्विघ्नं । भावाधिपे पापयुते बलहीने पुत्रनाशः । अपुत्रः दत्तपुत्रप्राधिः । पापकमीं ।

अर्थ-ल्त्रसे पचम बुध होतो मामा को गंडमाला रोग होता दै, माता को सुख, पुत्रसुख मे विघ्न, बुद्धिमान्‌ तथा मधुरमाषी होता है । बुष स्वगरहमेदहोतो पुत्र सन्तति होती दहै। रसिहराशि मँ व्रृतीयस्थान में अथवा नवन-स्थानमेदहो तोभौ पुत्र होते ह । पश्चमे निर्बरु हो अथवा पाप्रह कं साथदहोतोपूर्नो काना होतादै, गभं कीदहानि होतीहै। पुत्रन होने से दत्तक पुत्र ठेना पड़ता है । यद पाप कृत्य करता हे ॥

यवनमत- संतति भौर धन की प्रापि होती है । धैर्यशील, संतोषी, कायं म कुश्च ओर यशस्वी होता हे ।

पाश्चात्यमत- संतति, विद्या ओर वैभव की प्राप्ति होती ई । सटा; ज॒भा; साहस भौर चैन की ओर प्रवृत्ति होती है; यह बुध बेध्याराधिमे होतो वंशक्चय दोता दै । कक, वृश्चिक या मौन राशिमें होतो भ्चे पागल होते द। इस बुध के साथ दानि-मङ्गलकके योगहोंतो यह दोष दूर रहतादहै। गुर्‌ आर दानिकी श्युभटष्टिइसवुधपरहोतोसद्या भौर लखाटरीमे लाभ होता दै । इस पर चन्द्रकी दृष्टिहो तो खमदायक फक मिलते ह किन्तु यह एक व्यमिष्वार योग होता हे । | |

विचार ओर अनुभव–जारण-मारण ्मादि पर श्चक्र का अधिकार हे। अतः कस्याणवर्मां आदि का फल “मन्त्रविद्या ओर जारण-मारण आदि, बुध के अधिकारमे नदी आ सकता है । दूसरों के मंत्रों का प्रभाध बुधके प्रभावसे दूर वद्य हो सकता है ।

२३४ चमत्कारचिन्तामणि का तुख्नात्मक स्वाध्याय

बुध संतति दायक है इस पर प्रायः सभी य्रंथकारो का रेकमत्य है-इस परिस्थिति में बुध को नपुंसक रह मानना वस्वुस्थिति के विरुद्ध है। जो लेखक है-प्रंथ छिखिते है उनकी अमर संतान उनके प्रथ है।

मामा का विचार षष्ट स्थानसे होता है-मामाकौ मृघ्युका विचार भी उसी स्थान से होगा बुध जैखा सौम्यग्रह प॑चमभाव में वैठ कर मामा की मृल्यु का कारण नहींदहोखकताहै। २६ वैँ व॑में माता की मृत्यु होती दै- ेसा- फल हिद्छाजातक का है इसका अनुभव सदेहकोटि मेँ है वस्तुतः प॑ष्वमस्थान सेमाताकीमृल्युका विचार अनुचित दहै। रषि चतुथंमं दहो गौर बुघ पचम भावमेंदह्ोतो्मोँकीमष्यु काफल मिक्ता है ।

दास्रकारो ऊ छ्यभफल पुरुषराशिर्या मे मिलते हैँ । अश्चभफल स््ीराियों के है । यदि बुध मिथुन भौर वला राथियों में होता है तो अस्प संख्या मे पुत्रों का होना, वा प्रो का न होना-कन्यार्ण होना-ये फ मिरे ह ।

पचमभाव का बुध यदि पुरुषरारिमे होतो वाणी अच्छी बुद्धि तीक

तथा शिश्चा शीघ्र समाप्त होती है । २३ वषं कौ भयुतक रिक्षा पूरीद्ोजाती

दै । इस बुघ के प्रभाव से जातक ठेखक, कवि, नाटक रष्वयिता तथा उपन्यास- कार होता दै। पंचमभाव का बुध यदि मिथुन, तला, वा कुंभराि मे-दोतो सतति नी होती, वा एक टो संतान ही होती है ठेखक तो अपने प्र॑थोंकोदी

यपनी संतति मानते है क्योकि ये ग्रंथ उनकी कीर्तिं को अमर करते ईै-जबतक

ग्रन्थ रहते है उनके लेखक भी जीवित रहते ई ।

प्वमभावगत बुध ॒प्रभावोत्पन्य जातक नम्र, मायावी, एकान्तपिय तथा लोक समदाय में प्रभावशाली होता दै ।

मेष, सिह या धनु में यह बुधदहोतो जातक कुछ क्रोधी किन्तु सृक्ष्ममति का होता है । यह न्यायप्रिय, उदार, ओर खेर्गो से मिलजुक कर रहता है । बुध के वृष, कन्या या मकर मे होने से जातक अधंरिक्षित-अनुदार भौर ्चगडाद्‌ होता है । इसे संतति कम होती है भौर अच्छी नदीं होती यह व्यवहार कुरा होता है । कर्मो में दूसरों को भगे करता है अर स्वयं पीडे रहता हे ।

यद बुध कक, वृश्चिक या मनम हो तो संतान बहुत होती है-पदिले तीन वा पोच ठ्डकिंयांँ होती है फिर क्डका होता है। यह लडका विश्वस्त नदीं होता । यह बुध मेष, सिह या धनुमे होतो गणितः तत्वज्ञान, उथोतिष, कत्त आदि विषयों का अभ्यासी होता है। बृष्र-कन्या वामकरमें दहो तो पदाथ विज्ञान हस्तरेखा विज्ञान, का अभ्यासी होता है। मिथुन-वलछ वा कुम्भमं होतो रोग व्विकित्सा, वैयक, व्याकरण आदि मेँ प्रवीण होता है। कक, वृिक वा मीनमें हो तो याइपिग अंगूठे के निशानों का समञ्चना शन्दशास् भादि विषयों में कुश दोता दै । बुध की अच्छी स्थिति होतो दी अभ्यास अच्छा होता दहे।

बुषफरु २२५

षष्ठ भाव- भनिरोधो जनानां निरोधो रिपृणां प्रबोधो यतीनां च रोधोऽनिरानाम्‌ । बुधे सदूग्यये व्यावहारो निधीनां बलखादथेकृत्‌ संभवेच्छन्नभावे ॥ 8 ॥

अन्वयः– बुधे रात्नुभावे ( स्थिते ) जनानां विरोधः, रिपूणां निरोधः, यतीनां प्रबोधः, अनिलानां रोधः, सद्व्यये निधीनां व्यावदहारः, बलात्‌ अथंक्ृत्‌ संभवेत्‌ ॥ ६ ॥ |

सं० टी–वुषे शत्रुभावे षष्ठस्थे सति जनानां विरोधः जनैः कलहः, रिपूणां निरोधः प्रसह्यकारो गहस्थापनं, अनिखानां वायूनां रोधः अवरोधः वायुना बद्धकोष्ठः

इत्यथः । यतीनां संन्यासिनां प्रबोधः ज्ञानं संभवेत्‌ अस्य इतिदोषः । तथा स नरः

निधीनां द्रव्याकराणां सदुव्ययं व्यावहरति विदधाति इति; सः बलत्‌ स्वसाम्यात्‌ अर्थङ्त्‌ द्रव्योपार्जकः संभवेत्‌ ॥ ६ ॥

अथे–जिस मनुष्य के जन्मलग्न से छठेभाव मेँ बुधहोतो वह रोगों के साथ विरोध करता है। रात्रुओंको आगे बने से गेकरता है संन्यासियों के साथज्ञान की वार्ता करता रहै ओर इस ज्ञान्व्वी से इसे ज्ञानप्रापि होती है । ध्यतीनां प्रबोधः । इसका अथं “सन्यासियों को ज्ञान देता हैः? सुसंगत प्रतीत नदीं होता है । यों पचमी बा तृतीया के अथंमे षष्टी का प्रयोग किया गया दै | एेसा प्रतीत होता है । जठर वायु के रोधसे, सुकावटसे इसे बद्धकोष्ठता वातश्चूल आदि रोग होते है । वुध के दूषित होने से गह्यरोग, उदररोग, रहस्य- देशरोग, वायुरोग, कुष्ठरोग, म॑दाग्निरोग, वातच्यूरोग तथा संग्रहणी रोग होते ई । (अनिल नां रोधः” इसका अथं प्राणायामः करता है वा प्प्राणायाम आदि द्वारा वायु को रोकता है । सुसंगत प्रतीत नदी होता है । षष्ठस्थान रोगस्थान तोदहैदही भह ने वातावरोध से, वात च्यूलादि रोगस जातक दुभ्खी होता है यदह भाव प्रकट किया है प्राणायामस प्राणवायु को रोककर समाधिस्थ हो जाता है । यद अथं प्रकरणानुकूक तभी हो सक्रता यटि समाधिख्गानाः प्रणायाम करना? बुघ के कारकत्व मे होता षष्ठस्थान से विचारणीय विषयों की सूष्ची मे भी प्राणायाम

करना नहीं है । यदह जातक अच्छे कामो मेद्रव्यका व्यय करताहै ओर अपने

बाहुबल से धन संचय करता है । तुखना–“विरोधो बन्धूनामरिगण निरोधस्तनुभ्तां रिपौ ज्ञे वायूनां प्रभवति विकारोऽपि जटरे । यतीनां सम्बोधः सपदि श्भमागं व्ययष्वयो वराणां रलनानां व्यवहृत रतीवाथं जननी” ॥ ल्ोवनाथ अर्थ-जिस मनुष्य के जन्मसमय मे लग्न से बुध षष्ठमाव में हो वह बंधु- बध्वा से विरोध करता है । शत्रुसमूह को आगो आनेसे रोकता है अर्थात्‌ शत्रुओं को पराजित करता दहै । इसके पेट मेँ वायु का विकार होता है । अर्थात्‌ वायुप्रकोपसे वात्र आदि रोग होत ह । इसे संन्यासियों से अर्षात्‌ ब्रहमज्ञानियों

२३६ वम र्कारचिन्तामणि का तुलनात्मक स्वाध्याय

से ब्रह्मज्ञान की प्रापि होतीदै। आओौर यह ज्ञानप्राप्ति के वाद शीघ्री धार्मिक श्ुभकामों मं घन का व्यय करता है । ओर इसे उत्तम रलनादि के व्यापार से धन कालाममभी होता दहै) | “अरात्रः? ॥ वराहमिहिर अथे–जिसके शन नष्ट हो चुके है । “वादवितर ययुयुग्‌ गुणलाढी निष्रोऽक्सयु तोऽसरिगितश्वेत्‌ ॥ जयदेव अथे–षषठ बुध होने से जातक तारिक, शव्रवान गुणी निडर (कटोरवष्न) तथा आल्सी होता हे ॥ “शविद्याविनोद्‌ कल्हप्रिय कद्‌ विशील । वधूपकार रहितः शरशिजेऽरिजाते ॥ वंदयनाथ अथ–जातक विद्वान्‌, विनोदी, स्ञगडाद्ध्‌ शीलदीन बन्धु-बान्धवों पर उपकार न करनेवाखा होता है | “बुधः षष्ठेऽरिनरद्धिचा ज्ञेन नाभिषु । पराश्ञर अथे–शत्र बदृते ह । नामि के पास रण होता ह । “स्थान खभम्‌ । इन्दुजे मति विदीन मनत्परोगम्‌ |> वश्जिष्ठ अथे–जमीन मिलती है, बुद्धि नदीं होती बहुत रोग होते ह । संतप्त चित्तः’ । सप्ततरिके सौम्यः रात्र भयम्‌? ॥ बरहद्यवनजातक भथं-इसका चित्त सदासंतप्त रहता है । ३७ व वर्षं शत्रं का भय होता दै। | “ष्टे बुधे व्रशंसश्च विरोधी स्वबन्धुषु | दरष्याधिकः कामपरो विद्रानपिमवेन्नरः > काश्ीनाय अथे–जातक करूरा का विरोधी, ईष्युल, कामुक, कितु बिद्रान्‌ होता है | | नरपाट्स्य राततुः । नीचारिभवने संन्यासम्‌ । रिपून्‌ विजयते सौप्यः | नीचश्चास्तवक्रश्चषष्क्ष॑रिपुरिषटक्रत्‌ । कन्यापत्योऽथ मातुलः | गं _ अथं-यहराजाका ब्रिरोधी होता दै। यह दुध नीच वा रातुम्रह की राशिमंदहोतो जातक–संन्यासी होता है । अतु पर विजय पाता है। यह अस्त, वक्री, वा नीष्राशिमे होतो इसे शत्रुओंसेक््ट होतादहै। मामा को केवर कन्या ही होती है । “वाद्‌ विवादे कलहे निव्यजितो व्याधितः षष्ट बुघे | अलसो विनष्टकोपो निष्टुरवाक्योऽतिपरिभूतः ॥›* कल्याणवरता अथे-यह वाद विवाद्‌ मं सौर ल्मगडे में नित्य पराजित होता हे रोगी, आल्सी, भर क्रोधहीन होता है यह कठोर बोलता है ओर सदा अपमानित होता है । “जात क्रोधो विवादिर्िषि रिपुबरहंताऽलसो निष्ठरोक्तिः |° भन््रश्वर

बुधफर २६७

अथं- यदि ६ ठे मेँ बुध हो तो मनुष्य आलसी, निडुरवचन वोखने वाला; अपने शत्रुों के बल को नाश करनेवाला; किन्तु विवाद करने मे एेसे मनुष्य को बहूत जल्दी ओौर बहुत अधिक क्रोध हो जाता है। (“अरिनिकेतनवरतिंशशांकजो रिपुक्रुलाद्‌भयदो यदि वक्रगः। यदि ष्व पुण्यग्हे श्ुभवीक्षितो रिपुकुर विनिहंति ञ्भप्रद्‌ः ॥* मानसागर अथे- बुघ षष्ठमाव मेवक्रीदोतो शत्रुसे भय, यदिमार्गीहोः या छयुभग्रह वा स्वग्रदमेदहोतो शत्रुओं को जीतनेवाल्म होता है । वादप्रीतिः सामयो निष्टुराप्मा नानाराति त्रात संतप्त चिम्तः। निप्यारस्य व्याकुलः स्यान्मनुष्यः शतुक्षतरे रात्रिनाथात्मजेऽस्मिन्‌ ।। दण्डिराज अथं-षष् भाव में बुध हो तो क्चगडाट्‌, रोगी; निदुर-शत्रु पडत, आलस करने से चितित होता है,

“शानुस्थोज्ञः पुंसां नूनं स्वपमूत्युम्‌ ।› पंजराज अथे–असमय में म्॒युहोतादहै वा मृ्युठुस्य संकट आता है । पाश्रात्यमत–इसे बदमाश नौकरोसे कष्ट होतारहै। क्षयया श्वास के रोग होति ईै। छाती दुब॑ल होती दै। मानसिक दुःख से पीडाहोतौ हे। मन पर आधात होने से म्रद्युदहोतीहै। नौकर से फायदा होतार । स्वतंत्र व्यापारमे खम नह होता । रसायनशाश्क्ञ वा ठेखक होता है। त्रिर्टिगं प्रेस से संवेध होता है। इस बुध के साथ मंगख का अशुभ योगदहोतो पागल होने की संभावना होती है । आत्महस्या कर सकता है ।

भृगुसुतच्र–राजपूज्यः विन्याविष्नम्‌ । दांमिकः। त्रिंशद्रषै बहूुराजस्नेद) भवति । बहुश्रतः लेखकः । कुजक्षं नीलङ्ुष्ठादिरोगी । रानि राहु केतु युते वात श्रूलादिरोगी । ज्ञाति शत्रु कर्हः । भावापिपे बल्युते जाति प्रबलः । अरि नीचश्च ज्ञातिक्षयः |

थे–यह राजमान्य, दांभिक-बहुध्रत ओर लेखक होताहै। रिष्षामं

विध्न आता है ।२३० वँ वषं राजा से अच्छी मित्रता होती है। यह बुध मंगल की राशि ( मेष-इश्चिक ) मेदह्ोतो काला कोट्‌ आदि रोग होते ह । इसके साथ शनि-राहु-केव होतो वात श्य आदि रोग दोते ह । अपनी जाति के रोगों से द्चगडे होते ई । षष्ठ स्थान का स्वामी वल्वानं द्योतो जाति अच्छीहोती है) नीष्व अथवा शत्रुग्रह कीराशिमेंद्ोतो जाति कौ हानि होती दहै।

विचार ओर्‌ अनुभव–६ ठे भाव के श्चुभफर पुरषरारियोंके, भौर अद्यभफर खीरादियों के ईै। मामाके केवर कन्यार्पँद्यी होती ईै-रेसा पफाल गग का है । यह विष्वारणीय है–कयोकि पुत्र होने भी पाए गए है । छटवां

स्थान माता का कारक स्थान नदीं है। जुधमी मृ्युकारक ग्रह नदीं है

२३८ चमत्कारचिन्तामणि का तुलनात्मक स्वाध्याय

अतः माता की मृत्यु होती दै-रेसा फल सुसंगत गहींदै। छ्टेमे बुघ ओर सप्ममें रविकेदहोने पर माताकी मृत्यु का फ देखकर उनपर लिखा फल किसी ने कहा दहै। छ्टे भाव का जातक मध्यमञायु तक खूब खाता दै तदनतर मंदा ओौर बद्धकोष्ठता का विकार होता है। सप्रमभाव- सुतः शीतगोः सप्रमे शं युवत्या विधत्ते तथा तुच्छ बीय च भोगे । अनस्तं गतो हेमवद्‌ देदशशोभां न शक्रोति तत्संपदो वालुकम्‌ ॥ ५ ॥ अन्वयः-अनस्तगतः शीतगोः सुतः सततमे ( स्थित ) ( सन्‌ ) युवत्याः शं विधत्ते तथा भोगे तच्छ वीर्यं विधते, देमवत्‌ देहशोभां च ८ करोति ) तत्संपदः वा अनुकनु ( कथित्‌ ) न शक्रोति ॥ ७ ॥ सं< टी सप्तमे अनस्तंगतः उदितः शीतगोः वद्रस्य सुतः पुत्रः बुधः युवत्याः लियः शं सुखं विधत्ते, परं भोगे रतिसमये तुच्छवींयं स्वत्पकालस्थायि- वीयं च विद्ते | तथा देमवत्‌ सुवणं वल्यां देहशोभां शरीरकान्तिं च करोति, तत्‌ सपद्‌ः श्रियः अनुक्तं अनुविधातुं यः कथित्‌ न शक्रोति समर्था भवेत्‌ इति रोधः । तस्य कान्तिः लक्ष्मीः वा अति श्रेष्ठा स्यात्‌ इत्याशयः । अस्तंगतोबुधस्तु सवफट न विदधाति इत्यथः | ७ ॥ अथ- जिस मनुष्य करे जन्भलकन से सातवें स्थान में बुध हो परन्तु वह सस्तंगत न हो अर्थात्‌ उदित हो, तो उसे खौ युख होता रै, किन्तु रति समय उसका वीयं निवल रहता दै, अर्थात्‌ वह॒ पल्ली का समाधान मौर संतोष नहीं कर सकता हे; शीघ्र संयोगमान्नसे ही वीयं के स्विति हो जाने से पल्ली क आनन्दित नहं कर सक्तादै। उसके शरीर कीशोभा तपे हए सोते के समान चमकनेवाली होती है । उसकी संपत्ति की वरावरी दूस कोद कर नदी सकता है । यदि बुध अस्तंगत हो तो पूरा फल नहीं मिल्ता हे ॥ ७॥ तुटना–“्ुघे दारागारं गतवति यदा यस्य जनने त्ववद्यं रदोथिद्यं कुयुमशरांगोत्सवविधौ । प्रगाक्षीणां मत्त : प्रभवतिवदाकैणरहिते „ तदा कांतिश्च॑चत्‌ कनक सष्टशी मोहजननी ॥ जीवनाय | अथं- जिस मनुष्य के जन्मसमय मं बुध सप्तममाव में हो वहस्री संभोग गे अवद्य .दियिल होता है अर्थात्‌ उसका वीर्यं निर्वख होता दै। पर्व वह॒ अत्यन्त सुन्दरी मृगनयिनी खीका स्वामीहोतादहे। यदि बुध सूर्यक साथ नहीं, होतो मनको मोहित करनेवाली सुवणं के समान देदीप्यमान कान्ति होती हे। भावार्थं यदह है किं सप्तममावगत बुध के प्रभाव म उत्पन्न व्यक्ति को लीयुख होता है । उसकी स्री चित्ताकर्षक अत्यन्त सुन्दरी मृगाश्ची होती दै; किन्तु उसका उपभोग लेने के लिए उसके दारीर मे आवदयक बल ओर वीय नहीं होता है । संभोग समय वह कुसुम शर संगर सें बहुत देर ठहर नहीं खकता दे, शीर दही संपरक॑मा्रसे ही वीर्थपातदहो जानेसे वह्‌ पराजित हो

बुष २३९

जाता है भौर ठ्जित भी हो जाता है, बहुत समय पय॑न्त अस्खलित वीय- पुरुष दी मृगनयिनी सुंदरी पल्ी को संतुष्ट ओौर आनन्दित कर सकता है । यह ममं हे | “धर्मज्ञः ॥* वराहमिहिर अथै–घर्म जानता दै । “बुधो वदु पुत्रयुक्तो रूपान्वितां जनमनोहर रूपशीलम्‌ । पीडाम्‌ । षशिष्ठे अर्भै–इसकी पी सुन्द्र यर शीलवती होती है; उसे बहुत पुत्र होते है । शारीरिक पीडा होती ह । ॥ “ध्युद्धे सति पराजयम्‌ |” पराज्ञर अथ–ल्डाई मे ओर वादविवाद्‌ मे पराजय होता ह| ( वेश्यागमन करता है ) (तुरगभावगते ह रिणांकजे भवति चष्ल्मध्यनिरीक्षितः । विपुल वंराभवप्रमदापतिः स च भवेत्‌ श्चभगेरिवंशजे ॥ गर्भ अ्भ- इसकी दृष्टि चेचल होती है। इसकी पत्ीके पिता की संतति बहत दोती हे । ८तुरगभावगते हरिणां कजे भवेति ष्वखमध्यनिरीक्षितः । विपुल दंशभवप्रमदापतिः स च भवेत्‌ श्चुभगे रारिवराजे ॥ सानस्तागर अथे– सप्तम भावमे बुधदहो तो यह चंचल दष्टि-उचकुरोत्पन्न पत्ती का पति होता दै ¦ अर्थात्‌ जातक का विवाद किसी ऊँचे घराने मँ होता दे । ^“प्राज्ञोऽसो चारुवेषः ससकल महिमा याति भार्य सवित्ताम्‌ ॥ सन्त्रेश्वर अर्थ– यदि सप्तम मे बुध ददो तो णेसा व्यक्ति बुद्धिमान्‌ । स॒न्दर्‌ वेषवालाः सकल महिमा को प्रास्त होता है। ओर उसकी पली धनिक होती है अथात्‌ धनी कुल में विवाह होता दै अर ददेज मिरूता दे । “वारु शील विभवैरलटक्रतः सत्य वाक्य निरतो नरो भवेत्‌ । कामिनी-कनक-सून्‌-संयुतः कामिनीमवनगामिनीन्दुजे ॥। टण्डिराज अथ सत्तमभाव मे यदिदुधदहो तो जातक का स्वभाव उत्तम, रेशवय से युक्तं, सत्यवक्ता, भौर खी-धन-आओौर पुत्र से युक्त होता हे । ‘“तप्तसे सोमपते च रूपर-विदयाऽधिको नरः । युश्षीटः कामसाखनो नारी मान्यश्च जायते ॥°’ श्षग्तौनय अश्र बुघ ससमसेंदो तो जातक रूपवान्‌; व्रिद्वान्‌; सुशील) कामशास् का ज्ञाता, ओर नारी मन्य दोता ह । र्म वित्‌ सुवचनः छमशीलः कामिनी-कनक-सौख्य-युतोऽस्ते ।* जदेव अथे- सप्तम बुध हो तो जातकं धर्मज्ञ मधुरभापी भौर सुशीढ होता हे, इसे ख्री-सोना भौर सुख मिलते ई । | “प्राज्ञां सुचारु वेषां नातिकुटीनां चं कर्ह शीखांच । भार्यामनेक चित्तां यूने खमते मदखवं च |”) कल्वाणवर्मा

२७० वमत्कारचिन्तामणि का तुखनात्मक स्व्राध्याय

अथे– ससम बुध हो तो खरी विदुषी, सुन्द्री, साधारण घराने की, गडा

ओर धनवती होती है । स्वयं मी प्रतिष्टित पुरुष होता है । ¶ “ध्व्यंगः रितव्पकलाविनोद चतुरस्तारायुतेऽस्तंगते |” वंद्यनाथ

अथ–बुध अस्तंगत होतो रारीर मं कुछ न्यूनता रहती है । यह शिल्प कलाम चतुर ओर विनोदी होता ईह |

““चारूशीर विभवैरलंकृतः सत्यवाक्‌ सुनिरतो नरो मवेत्‌ ।

कामिनी कनक सूनु संयुतः कामिनीभवनगापिनीन्दुजे ।।*’ बृहद वनज तक

अथे-जातक शीलवान्‌, धनवान्‌-सत्यमाषी, सखरी-पुत्र तथा धन से युक्त होता है। ७ वधं चखरी मिलती दहै।

„+ षत्‌ श्यामा नील्व्णां बुधवार । पूंनराज

अथे-सअटपवयस्का सांवटे नीटे रंग की पत्ती होती है

“मवेत्‌ कामिनीनां खुखं सुन्दरः स्यात्‌ अनं गोत्सवे कामिनीनां कुवीर्यः ।

क्रये विक्रये छाभतो छन्धचित्तो यदा चाद्रि चंद्रानना गेह गामी ॥>

ज।गेश्वर

अथे- सप्तम वुधघदहोतो स्रीसुख मिल्तादै किंतु खरीसंभोग के समय स्वयं दीघं काल तक अस्खलित वीयं नदीं होता है। खरीद्‌-विक्री के व्यवहार मंलामदहोतादहै।

पाश्चात्यसमत-इसके विवाह के समय ज्लगड़े होते है। यह साञ्चीदार पर विश्वास नहीं करता | प्रवासमें काभहोतादहे | लेखन से कुक समय बडे सकट मं यते है । इस बुध पर अश्यभदृष्टि होतो बहुत तकटीफ होती है ।

भरगसूत्र–मात्रसौख्यं, अश्वा्यारूट्ः, धम॑ज्ञः उदारमतिः । दिगंत विशरुत- कौतिः राजपूज्यः | तत्र शुभयुते चदुविंशतिवधं आन्दोलिका प्राप्तिः । कट्त्रमतिः | अभक्ष्य मक्षणः । भावेरो बट्युतं एकदारवान्‌ । दारेदो दुबंले पापे पापकं कुजादि युते कठ््रनाराः । ल्ीजातकेः पतिनाखशः कलत्रं कुष्टरोगी । अरूपवत्‌ ।

अथे–सप्तमबुधदहो तो माताको सुख होता ह । स्वयं अश्वारोही, धमनज्ञ; निर्मल एवं बुधके साथ ्युभग्रहदहोंतो रथव वषं पालकी की सवारी प्रात होती है । यह खरी के अनुकरूट चरता है । भक्षण के अयोग्य पदार्थो का भक्षण करता है। सप्तमे यदि वलीग्रहदोंसे युक्तद्ोतो एकहीक्नली होती हे । यदि सप्तमे निर्बङ दो-वा पापग्रहसे युक्त हो वा पापग्रह की राचिमें मग्सेयुक्तहोतो खीकी मृघ्युदोतीदै। यदिच्रीकौ कुण्डली मे एेसा योग हो पति कीमृघ्युहोतीदहै घ्री कुष्ठी ओर कुरूपा होती है ।

विचार ओर अलुभव-वराहमिदिर के अनुसार सप्तमभावगत बुध प्रभावान्वित जातक धर्मज्ञ दोता दै किन्ठुरेसे फका विष्वार नवमभावसे किया जाना उवित होगा । वैद्यनाथ ने शरीर व्यंग होता है” एेसा फल कहा है किन्व॒ दस फक का अनुभव सन्देहस्पद है| शाश्रकारों के श्चुभफट पुरुष रारियोँके है, ओर अश्चम फल श्ीरारियोँंकेर्द। सप्तमभाव का बुध थदि

९१६ बुधफर २४१

पुरुषरारिमें होतो पत्नी सुन्दर होती है इसका चेहरा प्रभावशाली, केश काले, धने-लम्बे-शरीर पुरुष जैसा प्रमाणबद्ध होता है । यह क्षगङ़ाङ भी होती ` दै। यह बुध ख्रीरारिमे होतो पल्ली का चेहरा गोर, केश लहरीले ओौर रेराम जेसे कोमल, किन्तु स्वर मृदु परन्तु तीखा होता ई । र यह बुध-मिथुन-वला या धनु में होतो शिक्षक, प्राध्यापक, वक्ीर, पुस्तक विक्रेता, पुस्तक प्रकाशक आदि व्यवसाय होते ई । | बृष-कन्या या मकर मे बुध हो तो ग्यापारी-क्लक, राईपिस्ट आदि व्यवसाय होते है । कक, चृशिक या मीन मे बुध के होने से कम्पाउण्डर-सरकारी दप्तर का ककं आदि व्यवसाय होते ईै। | मेषया कन्याराशिमे बुहो तो विवाह के बाद भाग्योदय होता है- प्रवास बहत होता है । . अषटमभाव- “कतंजोविनो र॑भ्रगे राजयुत्रे भवन्तीह देशान्तरे विश्वतास्ते । निधानं चपद्‌ विक्रयाद्‌ वा कमन्ते युवद्युद्भवं कोडनं प्रीतिमन्तः ॥८॥ अन्वयः- राजपुत्रे रभरगे ( सति ) शतंजीविनः तथा इह देशान्तरे ८ च ) ( ते , विश्रुताः भवन्ति । ते प्रीतिमन्तः ८ सन्तः ) व्रपात्‌ विक्रयात्‌ वा निधानं लमन्ते । युवत्युद्‌भवं क्रीडने ( च ) कमन्ते ॥ ८ ॥ सं° टी<–रंभरगे अष्टमस्थे राजपुत्रे चंद्रसुते सति शतंजीविनः शतायुषः, इह स्वदेशो देशांतरे च विश्रुताः विख्याताः ते नराः न्रपात्‌ राज्ञः सकाशात्‌ विक्रयात्‌ वा व्यवहारात्‌ निधानं द्रव्यसञ्चयं, युवत्युद्भवं क्रीडनं खरीक, अन्तः मनसि पीति सुखं कमन्ते प्राप्नुवन्ति ॥ ८ ॥ अथे–जिन मनुष्यो के जन्मलग्न से आरव स्थान में बुध हो वे शतायु अर्थात्‌ दीधंजीवी होते है । स्वदेशे तथा परदेशमें वे परसिद्ध होते ै। वे प्रसन्नचित्त होकर राजा से अथवा व्यापार से बहूत धन कमाते है । उनको लियो के साथ हास्य विखास का सुख मी प्राप्त होता रै ॥८॥ रिप्पगी-“शशतायुवैपुरुषः? इसके अनुसार “शतंजीविनः, यह फल टीक दै किन्तु विंरोत्तरीदशा के अनुसार तो मनुष्यकी आयु एक सौ वीस वर्षं मानी गई है । अतएव शतंजीविनः का अर्थं दीर्घायु होते ईै-उवित रै । बुध के पर्यायना्मोँमें बुधका पर्याय नाम राजपुत्र” पाया नदीं गया दै । परन्वुः “बुधः कुमारः” इस ठेख के अनुखार यह टीक है | तुख्ना–““मृतावन्जापत्ये प्रभवति यदा जन्मसमये । चिरं बेजीवित्वं निजपरपुरे तस्य सहसा ॥ प्रविख्यातिः शश्वनरपतिकुलदथेनि चयः, । परस्नरीमिः क्रीडाः सुरतजनिता यस्य सततम्‌ ॥ जीवनाय अथे- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे बुध अष्टमभाव में हो वह दीर्घ- जीवी होता दै । वद अपने देश में तथा परदेश में विख्यातकीरतिं होता ३।

२४२ चमच्कछारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

अर्थात्‌ वह दिगन्तविश्रुतकीरतिं होता दे। उसे राज्कुरु से धन का लाम होता ई! ओर वह परस्ियों से रतिक्रीडा करता हे | । (धविश्रुतगुणः?ः वराहमिहिर अथे–अपने राणो के कारण प्रसिद्ध तथा यशस्वी होता हे । ““ट्यातिमान्‌ द्रपकरपः सविरोधोऽन्योपकार सहितो विदिरभरे ॥” जयदेव अर्थ- जातक प्रसिद्ध, राजाका कृपापात्र, छगोँसे विरोध करनेवाङा किन्तु परोपकारी होता दै । “्ुधेष्टमे कृतघ्नश्च कुबुद्धिः पारदारिकः । | कामातयोऽसव्यवादी रोगयुक्तो भवेन्नरः ॥* काश्ञीनाय अर्थ–अष्टमवुध का जातक कृतघ्न, दुष्टमति; व्यमिचारी कामुक-भसत्य- भाषी भोर रोगी होता दे। - ^मूपप्रसादाप्त समस्तसंपन्नो विरोधी सुतरांसगवंः । सर्व प्रयलनान्यङ्तापहरतरंप्रे भवेच्चन्द्रसुतः प्रसूतो ॥> दुण्डिराज अथर–द्तेराजाकी करृपासे सम्पूणं सम्पत्ति मिलती हे-यह लोगों का विरोधी तथा धमण्डी होतादै। दृसरे क किए हट कामको नष्ट करने वाला होता ह| “व्रिस्याताख्यश्चिययुः कुल्दधिपतिरंऽ््टमे दंडनेता |” भ्तरेहवर अर्थ-अष्टममे वरधंदहदोतो मनुष्य दण्डनता होता दहे अर्धात्‌ जिसे राञ्य से एेसा अधिकार प्राप्तो कि वद ओराको दण्डदे सके | एसा व्यक्ति बहुत विख्परात, दीर्घायु, अपने कुक का बालन करनेवाला ओर शेष व्यक्ति होता दे । “गनिधनवेदननि सव्ययुतः शुभो निधनदोऽतिथिमण्डन एव च । यटि च पापयुते रिपुगेदगी मदनकाम्यजवेन पतव्यधः ॥2 मानसागर अ्थ– जातक सन बोखनेवाला, तथा अतिधियों का आद्र करनेवाला होता दै । इसकी मृस्यु अच्छी स्थिति मं होती है । यद्‌ बुध पापग्रह करे साथवां शात्रु्रइ कौ राशिमंडो तो अति कामुकं होने से इसका मघः्पतन दता है । ‘विख्यातनामसारधिरजीवी कुख्धयो निधनसंस्ये | दारितनये भवतिनये ग्रपतिसमो दण्डनायको चाऽपि ॥;’ कंल्याणवर्मा अथै -अष्टम बुधो तो विख्यातयशा मौर बख्वाखः, दीर्घायु, कुपोषकः, राजा के तेल्य अथवा न्यायाधीश होता है। “विनीति वाहुल्यगुणग्रसिद्धो घनी सुधारदमिुतेऽ्टम्ये ॥’’ वेद्यनाथ अ्थ–जातक नम्रता आदिं युणों से प्रसिद्ध ओर धनी होता है । ““सवेग्रहा दिनकरप्रमुखा नितातं मृप्युस्थिता विदधते किल दु्टबुद्धिम्‌ । राल्रामिघात परिपीडितगाव्रयष्टि सौख्येर्विंदीनमतिरोग गणैरूपेतम्‌ ॥› वज्िष्ठ

बुषफर २७३.

अथे–अष्टमस्थानमें कोई भी ग्रह दहो उसका एक दी फल होता दै- वृह दुष्टबुद्धि का, बहुत रोगी सुखदहीन होता है। रास्त्रं से उसके शरीर को पौड़ हाती दहे। “प्रतो वुन्धुद्ीनत्वं वधनम्‌ ॥ पराशर अथे–~बन्धु नहीं होते-कारावास सहना पडता ह । “करोति मृत्यं निधनस्थितो बुधः सुखेनतीथं सुखदे निराविले । यटध्रजंघोद्ररोगपीडा पापः ` विधायांतकरो नराणाम्‌ }। गं अथ–इसकी मृघ्यु किसी अच्छे तीर्थं स्थान में सुख पूर्वक होती है । यह बुध अद्यमदहो तो श्ूढ जोँध-वापेटके रोग होते है| ““मूपप्रसादाप्त समस्तसिद्धिनंरो विरोधी सुतरांस्ववगे । सटग्रयत्नेः परतापहन्ता र॑प्रेमवेचद्रसुतं प्रसूतौ ।।?› वृहद्‌ एवनजातक अथ-राजाकी कृपासे सारा वमव मिलता दहै। यह अपने लोगों से विरोध करता हे } दूसरों के कष्ट दूर करता है। ““मन्वन्द्‌ के हि धनधाग्यविनाशकारी अथ–{४ वें वर्षं धन-धान्य का नाश होता है| पाश्चाव्यमत– मस्तिष्क ओर नसों के रोग होते है । समरणशक्ति अच्छी होती है| ग्त्यु के समय सावधान अवस्थामें होता है। गु्तविया ओर अध्यामशास्र का ज्ञान अच्छा होता है ‘ साञ्चीदारी में नुकसान होता दै । यह बुध उच वा श्चुभ योगम हो तो अकस्मात्‌ लम होता है अर्थात्‌ छाटरीसे धनप्रासि होती दे । शगुमूत्र–लामः, आयुः कारकः । सौख्यवान्‌ वहृक्षे्रवान्‌ । सप्त पुत्रवान्‌ । प्रमादः । पञ्च्विंशतिवघं अनेकप्रतिष्ठासिद्धिः । वपराजक्पारिपुक्षयः। कीर्ति प्रसिद्धः । भावाधि वल्युते पूर्णायुः । असिनीच पापयुते अव्पायुः । उचे स्वक्षेत्र वा श्चुभयुते पूर्णायुः | अथं–यह बुघ लाभकारक होतादै। आयु देतादे। सुख ओौर बहुत जमीन प्रपत होती है| सातपुत्रहोते है २५ व वषं नानाप्रकार से ऊँचा पद पिल्तादहे। राजाकी कृपाहोतीदहै। शत्रुओंका नाश होतादहै। कीर्ति मिलती ई । अष्टमेश बल्वान्‌ हो तो दीर्घायु होता दै! यह बुध उच, श्चभग्रहों से युक्तं या स्वण्डमंदहोतो दीय होता है । यह शत्रग्रह की राशि से, नीच वा पापग्रह केसाथ दहो तो अत्पायु होता है। विचार ओर अनुभव-्रृहव्यवनजातकमें १४ वर्षं संपत्तिका नाश होता है–“ेसा फल कहा दै । इस छोटी उमर मे स्वयं की पैदा की गई संपत्ति का नाश संभव नहीं-भतः इससे पेतरकसंपत्ति का नाश होता ईै- एेसा फल कहना उचित होगा । भृगुसुत के अनुसार “सात पुत्रो की उत्पत्ति होती है” यह फर पुरुष-

राशियों काहे; श्चमफल पुरुषराशियों म मिलते है भोर अञ्मफल ख्ली-

२७४ ष्वमद्कारचिन्तामणि का तुखुनारमक स्वाध्याय

राशियों मे मिलते है| बुघ मृष्युकारक म्रद नदीं है- इसके अश्चुभ होने पर भी मृत्यु नदीं होगो, हों भारी शारीरिक कष्ट अवद्य होगा । (मस्तिष्क का विकारः यह फल संभव है । बुध के अष्टम दोनेसे मनुष्यकी प्रवृत्ति राखरीय ज्ञान कीर दहोतीरै। इस बुध का “जातकः दैवक्ष हो सकता हे । इसकी प्ली रहस्यं को गप्त रखनेवाली होती है । पति के साथ आनन्द से रहती दहै, यह फर पुरुषरारि के बुध का है। यदि बुध ख्रीराशियां मे होतारैतो स्री अच्छी नदीं होतौ है-सगडाद्‌ होती है । घरके गुपरहस्य बाहिर निकाल देती है| परदाफास करनेवारी होती है । मस्तिष्क विकार मूघ्यु का कारण हो खकता दै । कई एक रयाख्रकार्यो ने राजकृपा-कीर्तिप्राप्ति आदि फल दिए ह-रेपे फल अकेटे अष्टम बुध के नहींदहो सकते-रवि का स्तम-अष्टमवा नवम में होना आवश्यक हे इस तरह यह मिधित फल कहा जा सकता है । नवमभाव-

घुघे धमेगे धमशीरोऽतिधीमान्‌

भवेद्‌ दीक्षितः स्वधुनीस्नातकोबा । कुटो्योतकृद्धाुवद, भूभिपालात्‌

प्रतापाधिको, बाधको दुमुखानाम्‌ ॥ ९॥

अन्वयः-वुषे धममंगे धर्मरीलः 9 अतिधीमान्‌ दीक्षितः स्वधुनीस्नातको वा भवेत्‌ । भानुवत्‌ कुरोयोगक्त्‌, भूमिपालात्‌ प्रतापाधिकः? दु्मुखानां बाधको ( वा ) भवेत्‌ । | सं~ टी– घर्मगे नवमस्ये बचे अति श्रीमान्‌ धर्मशीलः दीक्षितः सोमयायीः स्व्ुनीस्नातकः गंगस्नानव्रती; भानुवत्‌ कुलो्योतङ्कत्‌ स्ववशप्रकाशकः, भूमिपालात्‌ पादि प्रतापेन अधिकः, दुरसखानां मुखरदुर्जनानां बाधकः हिंसकः भवेत्‌ ॥ ९ ॥ अ्थ- जिस मनुष्य के जन्मल्म्मन से नवमस्थान मे बुध हो वह धमौतमा? बड़ा बुद्धिमान्‌ , वैदिक अथवा तांत्रिक दीक्षा को पानेवाला, ओर गंगास्नान करनेवाला होता है । सूर्थं के समान कुर को प्रकादित करनेवाला, राजासे भी अधिक प्रतापी ओर दुर्जनो को दबानेवाखा होता हे ॥ ९ ॥ तुखना–वुघे घर्मस्थानं गतवति सुधमा बुधवरो; नसे गंगाभक्तो यजननिरतः सद्धिरमितः ॥ पताका वंशस्य प्रभवति नरेशादपि सदा, प्रतापी संतापी पि्चनमनुजानां घनपतिः ॥ जीवनाथ अ्ै- जिस मनुष्य के जन्मखमय में बुध नवमभाव में हो वह धमासा, उत्तम विद्वान्‌, गंगा का भक्त, यज्ञकता* सजनो का संग करनेवाला, अपने कुल की पताका, राजा से मी अधिक प्रतापी दुजैनों को सन्ताप देनेवाल रीर पूर्णं घनवान्‌ होता है । भावाथ यदह किं जेते किसी देवालय के शिखर पर

कुफर २४५५

गाडी हद ध्वजा दूरसे ही मन्दिरमे प्रतिष्ठित ओर स्थापित देवता का महत्व- नाम, कीर्तिं दिको बता देती हे एवमेव नवमस्थ बुधप्रभावोत्पन्न ब्यक्ति अपने कृ को अपने ज्ञान से, अपने धन से, अपने यशा से उज्ञ्वक तथा प्रसिद्ध कर देता दहै-गओौर उखका प्रताप चुगुल ओर दुज॑नों को दुर्जन सुख चपेटिका का अनुभव कराता है अर्थात्‌ दुजनों का मुख हमेशा के किए वंद हो जाता हे। “श्म सुताथं सुख भाक्‌ |> वराह अथे– संतति, संपत्ति तथा सुख मिलता दै । “बुधो धमंक्रियासु निरतं कुरुतो । रुजम्‌ ।” वशिष्ठ अथै- धार्मिक कार्यो में रुचिवाला यौर रोग से पीडित होता है | धर्म बुधे धार्मिकश्च कृपारामादिकारकः। सत्यवादी च दांतश्च जायते पितुवत्सकः || काक्ीनाथ अथै– जातक धार्मिक-कुए-वगीचे भादि बनवानेवाखा, सत्यवादी, जितेद्रिय, ओर पिव्रभक्त होता हे । ‘धविनयार्था चार घर्मः सह तपसि बुधे स्यात्‌ प्रवीणोऽतिवाग्मी || मंत्रेश्वर अर्थ– जातक विद्वान्‌, धर्मार्थाचार का पालन करनेवाला, प्रवीण तथा अच्छा वक्ता होता है । ““उपकरति कृतिविद्या ष्वारुजातादरः स्यादनुचरधनस्‌नुप्रा्तदषो विरोषात्‌ । वितरणकरणो्न्मानसो मानवश्वेदमृतकिरणजन्मा पुण्य धामागतोऽयम्‌ ॥ | दण्डिराज अभै–नवममें बुधो तो जातक उपकार अौर विद्या से आदर पाता है। उसे नौकर, धन तथा पुत्रके द्वारा विदोष आनंद मिलता दहै। ओर वह दानी होता दै। “धन सुत सुखभागी ज्ञः सदर्षोपकारी, वितरणगुणयुक्तः सोन्मना धमम॑धाभ्नि]। जथदेव अ्थै- नवम बुध दहो तो जातक, धनी, पुत्रवान्‌ तथा सुखी होता है– विद्वान्‌, तथा सहष॑ं परोपकार करनेवाला होता है । दानी तथा उत्युक मन वाला होता दहै। बुध उपक्रति धाता चारुजातादरोयोऽनुचरघनपुत्रैः हर्षयुक्तो विरोषात्‌ । विकरृतियुतमनस्को घरम॑पुण्येकनिष्ठो ह्यम्रतकिरणजन्मा पुण्यधाम्रि यदास्यात्‌ । । वृहद्‌ यवनजा तक अथ–जातक परोपकारी, ज्ञानी; सुन्दर, सेवको से युक्त; धनी, अच्छे पत्रा से युक्त; आनंदी, घमनिष्ठ, सदा पुण्यकमंकता होता है! कभी इसका मन विक्त भी हो जाता दहे । ““गोदयन्दे माव्रमृतिमिदुसतः । दंताश्वसौम्ये स्मृतः ॥।> अथ–२९ वें वर्षं माता मरती है । ३२ वै वषं माग्योदय होता है ।

२७६ चमस्कारचिन्तामणि का तुलखनास्मक स्वाध्याय

नपरेदभाग्यो बुधै पापे नरो बुद्धिमदानुगः। भाग्यवान्‌ धामिको वापि श्चुमे सौम्ये तु धमगे।। ग्गं अर्थं–यह बुध अञ्यभदो तो भाग्य कम होता है। ओौर अपनी बुद्धि का धमंड होता है। यद श्म दो तो भाग्यवान्‌ ओौर धार्मिक होता दहै। “सौम्ये धर्मगते तु धमेधनिकः शाखी श्चमाचारवान्‌ । वैद्यनाथ अथं -यह जातक धार्मिक, धनी, शाखक्ञ ओर सदाचारी होता है । ८नवमरते मवति पुमानतिधनविद्यायुतः श्युभाचारः। वागीश्वरोऽतिनिपुणो . धर्मिष्ठो सोमयपुत्रे हि ।।” कल्याणवर्मा अर्थ–जातक घनाव्य, विद्वान्‌, खदाचारी; वक्ता; निपुण ओर धर्मनिष्ठ होता है| (नवम सौम्यगे शिनं दने धनकर्तरसुतेन समन्वितः । भवति पापयुते विपथस्थितः श्रतिविमंदकरः सततो्यमी ।।2 भानसागर ‘ अर्थ नवम बुध हो तो ओर श्चभराशिमेदोतो जातक धन-स्री-पुत्रसे युक्त होता है । यदि अश्चुम राशि मेया पपिग्रह के साथहो तो कुमागंगामी; वेद॒र्निदक र उन्योगी हाता दै । ^मवेद्‌ धर्मशीलो धियायोगटीलः श्रृतस्मातेकं कमं करता घनाव्यः । भवेत्‌ तीर्थक्त्‌ सुष्डुवक्ता यदा स्यात्‌ बुधः पुण्यभावे नराणां विरोषात्‌ ॥* जागेश्वर अर्थ जातक धार्मिक, बुद्धिमान्‌, योगाभ्यासी, वेद-स्पृतिप्रतिपादित कर्मकर्ता, धनी, वक्ता अर तीर्थं करनेवाला होता हे । पाश्चात्यमत-चपल, बुद्धिमान्‌; माषाशाख्रप्रवीणः, शोधकः बुद्धि काः नई चीजों की रुषि रखनेवाला होता है । इस बुध पर अश्चुम दृष्टि हो तो पागल के समान मटकना पडता है । शम योगमें होतो भाषाशा, कलाओंका ज्ञान वा रसायनश्चाख्र मेँ प्रावीण्य मिलता हे । भ्रगुसूत्र-बहू प्रजा सिद्धः । वेदश्चास्रविशारदः । संगीत पाटकः । दाक्षिण्य- वान्‌ धार्मिकः । प्रतापवान्‌ बहलाभवान्‌ 1 पित््रीायुः । पापयुते पापक्ेत्रे पाप- वीक्षणात्‌ पित्रनाशः पिव्रक्टेशकरः। रारुढेषौ मदमाग्यः । बुद्धमतानुगः । भावा- धिपे बल्युते पित्रदी्घायुः । तपोध्यानश्ीलवान्‌ । भाग्यवान्‌ । धामिकः । अर्थं -संतति ज्डूत होती दै । वेदशास्नो का पंडित होता है। संगीत पटाता है । विनयी, धार्मिक; प्रतापी, सौर भाग्यवान्‌ होता हे। यह बुध पापग्रहो के साथ, पपग्रहोकी राशिमे, या दृष्टि मेहो, तोपिताको कृष्ट होता है, या मृत्यु होती है । यह गुरु का देष करता है । भाग्य मंद होता हे। नौद्धमतावटंबी दो जाता है । नवमे वल्वान्‌ होतो पिता दीधाौयुदोतादहे। तपस्वी, ध्यानी, शीलवान होता है । विचार ओर अनुभव–शाख्कारो ने नवमभावस्थित बुधके जो श्म फठ बतार्पँ है वे पुरुषराशियो मेँ मिलें । अश्चमफठ खरीराशियों के ई । नवम

बुधफठख २४७

स्थान से शनि का श्रमण होते समयमाताकीमूत्युकायोग दोतादहै। ररव वर्षं भाग्योदय का फर विदोषं कते समय रवि के सम्बन्ध का विचार अवद्य करना चाहिए ।

नवमस्थान में जब्र बुध मिथुन, वला वा कुम्भराशिमें होतो विवाह के अनन्तर भाग्योदय होता है । नौकरी वा व्यवसाय में प्रगति होती हे।

संपादक होना, प्रकाशक वा ठेखक होना, स्कर मे शिक्षक का काम करना आदि व्यवसायों के करनेवाले प्रगति करते ई । ।

दि नवमभावका बुधमेषर सिहदया धनुमें हो तो गणितज्ञ, उयोतिषीः शिक्षकः, करक आदि व्यवसाय करना होता है। |

वृष, कन्याया मकरमें बुधो तो व्यापार करना होता है अथवा व्यापारी के पास नौकरी करनी पडती दै ।

यदि करव, व्रश्चिक वा मीन मे नवमस्थान का बुध हो तो टेटीफोन-पोस्ट-

आफिंस वा किसी सरकारी आफिस में छक की नौकरी होती है । दहामभाव- मितं संवदेन्नो मितं संटभेत्‌ प्रसादादिवेकारि सौराजवृत्तिः। बुधे कर्मगे पूजनोयो विशेषात्‌ ¦ पितुः संपदो नीतिदण्डाधिकारात्‌॥ १८॥

अन्वयः- बुधे कर्मगे ( सति ) ( सः ) पितुः संपदः, नीतिदण्डाधिकारात्‌ ( च ) विशेषात्‌ पूजनीयः ( स्यात्‌ ) ( सः ) प्रसादादिवैकारि सौराजवृत्तिः ` (स्वात्‌ ) (सः) मितं संवदेत्‌ नो मितं संमत ( पितु विरिष्टं लमेत ) ॥१०॥

सं< टी<–कर्मगे दशमस्ये बुधे पितुः संपद; विरोषात्‌ पूजनीयः लोक- मान्यः, नीतिदण्डाधिकारात्‌ प्रसादादिवैकारिणी म्रहानु्रहवती सौर्ये श्चभ राञ्यस्वे बृ्तिः व्यवहार शीखोयस्य सः मितं संवदेत्‌; न वाचालः स्यात्‌, मौ परितं अपरिमितं अर्थात्‌ दिव्यांवराश्वादि संलभेत्‌ ॥ ६४० ॥

अ्थ- जिस मनुष्य के जन्मल्य से दरशर्वैस्थान मे बुध दहोंउसे वैतरक संपत्ति प्राप होती दै ओर इस चैव्रक संपत्ति के कारण, नीतिनिपुण होने के कारण, तथा राजकीय अधिकार क प्रास्त हो जाने के कारण, ओर इस राजकीय अधिकार से निम्रह-अनुप्रह सामथ्ययुक्त दहो जानेके कारण इसका संसारमें विरोष आदर मान होता दहै; स्व॑साधारणलोगोंकी दृष्टि मे यह एक मान्य सौर पूजनीय व्यक्ति होता है । अच्छे राञ्य मँ इसका राजव्यवहार भी अच्छा होता दै भौर भपने अधिकार के अनुकू यह अपराधी को दण्डित करता है ओर राज्य नियमानुकूल चलने वालो को धनादि देकर प्रसन्न भी करता है। यह मितमाप्री होता है। कार्यानुक्रूक थोडे शब्द बोख्ता है, भौर व्यथंकी बरकद्यकर नहीं करतादहै। तौ भी इसे अमित धन आदि की धोडे-दाथी आदि

२७८ चवमस्कछारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

की तथा उत्तमोत्तमवस््नों की प्रापि होती है। दशमभाव का बुध व्यक्तिको सर्वथा सभी पदार्थो से परिपूर्णं कर देता ई । ु तुखना– “बुधे कमस्थानं गतवति यदा जन्मसमये,

पितुर्वित्तवरातेः सुखमतितरामश्वपय्टी ॥
गजश्रेणी भ्रत्यप्रवरमणिखशाखाम्बरम्वयः,

परानीतिः श्चोणीपति विहित वृत्तिस्तनभ्तः ॥ जीवनाय अ्थे– जिस मनुष्य के जन्मसमयमें बुघ दशमभाव मे हो उसे पैवृक संपत्ति से पूणं सुख, घोडे-हाथिययों का सुख-नौकर, उत्तमरल, वख, मकान आदि वस्तुभों का सुख होता है । यह उत्तम नीतिराख्र को जाननेवाला ओर राजा से आजीविका पानेवाल, अर्थात्‌ राजा का श्रेष्ठ कर्मचारी दोता है | ““सुखशौयभाक्‌ खे 2 वराह अथे- सुखी तथा शूर होता है । | ““रूपान्वितत्वं बुधः ।> वशिष्ठः अथे–रूपवान्‌ गौर सुखी होता है । “धीमान्‌ धीरो धर्मचेष्टो धर्म्॑रत्तियुतः सदा | सात्विकः कर्मगो सौम्ये नाना्ङ्कारवान्‌ |> गर्गः अथे– जातक बुद्धि में श्रे्ठ-वेववान्‌, धार्धिक, साविक बुद्धिवाला, नाना भूष्रण मूप्रित होता है। ““व्यापारगे चन्द्रसुते समस्त विद्यायशोवित्त विनोदी ॥” वैद्यनाथ, अथं-जातक सभी विया का ज्ञाता, यशस्वी, धनी मौर विनोदी होता है । “प्रवर मति कर्म॑चेष्टः सफलारभो विशारदो दशमे । धीरः सत्वसमेतः विविधाल््कार सत्वभाक्‌ सोम्ये | कल्याणवर्म अथ–जातक.श्रेष्ठ बुद्धिमत्ता के काम करनेवाला, प्रत्येक काय को आरंभ करके प्रारंभ मं दी सफलता प्राप्त करनेवाला धीर, बी; विविध भूषणो से युक्त ओौर सुखी होता है । | ““सिद्धारम्भः सुविद्या बलमति युखसत्कमंसत्यान्वितः खे ॥> मंत्रेश्वर अथे–दशममेंबुधहोतो जातक विद्वान्‌, बलवान्‌, बुद्धिमान्‌ , सुखी, सत्कमं करनेवाला, सप्यपर दृट्‌ रहनेवाला होता है ओर सफलता प्राप्त करता

९ | (० कायंको प्रारम्भ करता दै उसमे प्रारम्भं ही सफलता प्राप्त होती हे ।

“दशमस्य बुषे जातो धनधान्यसमन्वितः । बहूभाग्यश्च विनयी कांतियुक्तश मानवः ॥ काज्ञीनाय अथे–दशममे बुधो तो धन-घान्य युक्त, भाग्यवान्‌ विनम्र, तथा कीर्तिमान्‌ होता है । स सुमति श्चभवाक्यः सप्रतिष्ठोऽतिवित्तः | श्चुचितरवरकर्मा विक्रमी कमंणिन्ञे | जयदेवः

बुधप्ल २४९

अ्थे- जातक बुद्धिमान्‌, मधुरभाषी, प्रतिष्ठायुक्त, धनाल्य, शुद्ध तथा सदाष्वारी, ओर पराक्रमी होता हे । ज्ञान प्रज्ञः %ष्टक्मां मनुष्यो नानासंपत्सय॒तो राजमान्यः | न्रद्चखटीखावागविखासादिराटी मानस्थाने बोधने वतमाने ॥2 दण्डिराज अथ- जातक ज्ञानी-द्मकमा) नानाविध संपत्तियुक्त, राजमान्य सुन्दर चोल्नेवाटा भौर विलासी होता है । “गुरुजनस्यहिते निरतोजनो बहुधनो दशमे शरिनन्दने । निजथुजार्जित वित्त वरङ्गमो बहूुधनैर्नियतो मितभाषणः | मानसागर अथे–दशम बुध हो तो गुरजनों का भक्त, धनान्य, अपने मुजबल से धनोपाजंन करनेवाला, घोड़े रखने वाला ओौर मितभाषी होता है । “्ञाताऽत्यन्त श्रेष्ठक्मां मनुष्फे नानासंपत्‌ संयुतो राजमान्यः। चञ्चलटीलावागूविखसाधिशाटी मानस्याने बोधने वतमाने ॥ वृहद्‌ यवनजातक अथे–जातक ज्ञानी, श्रेष्ठ कार्यं करनेवाला, विविध वैभव से सम्पन्न, राज- मान्यः; चञ्चललीलखा करनेवाखा बोल्ने मं ऊश्च होता है । ¶विदेदीगोक्रुशरद्धन वः | १९ वे वषं धनप्रापि होतौदहै। बुधे काव्यविद्या तथा रिस्पकैर्वा सदा बाहनैर्मातरसौख्यो नरः । जागेश्वर अथे–जातक काव्य मं कुरा होता हे । उपजीविका रिप कला से होती हे, वाहनों का सुख तथा मानसुख अच्छा मिक्ता है । “सौम्ये काव्य कलाप विधिना शिस्पेनलिप्या वणिक | लोकै क्रौवजनेरध॑नेधघनचयं यत्साहशैरुमे; । पंजराज थे–कविता करने से, रिसव्पकला से, लेखन से, व्यापार से, कीं के साहाय्य से ओर साहस से धन मिक्ता है । पाश्चात्यमत-यह माषा तथा व्यापार में यरास्वी होता है, स्मरण राक्ति सच्छी होती है । प्रसङ्ग के अनुकर बोलने का कौरव्य होता है। गणित ओर माषाशाखर में प्रवीण होता है । दल्ली, लेखन ओौर शाहूकारी म अच्छा यश मिल्तादहे। य द्चभ फल तमी मिल्ते है जब यह्‌ बुध स्वगृहमे उच्च का होता ह । । भगुसूत्र–सत्‌कम॑सिद्धि; धपेयवान्‌ , बहुल्कीर्तिमान्‌ बहुचिष्तवान्‌ , अष्टाविंशतिवषे नेत्ररोगवान्‌ । उचचस्वक्षेत्र गुख्युते अथिष्टोमादि बहुकर्मवान्‌ । अरिपापयुते मूटकम विन्नवान्‌ दुष्कृतिः अनाचारः । अथ–दशम बुघ हो तो जातक पवित्र का्य॑को सिद्ध करनेवाला, गंभीर, अतुरकीर्ति, ओर बहूचित्त वाला होताहै। र८र्वे वर्षमे नेन्नमें रोग होता दे। बुध उच ( कन्या ) महोवा स्वण्ह ( मिथुन-कन्या) मे हो, अथवा हस्पति से युक्तदहोतो अथिष्टोमादि पविच्र यज्ञकमं करने वाखा होता है।

२५० चमर्कारचिन्तामणि का तुखुनात्मक स्वाध्याय

यदि बुधद्त्रु केषरमें वा पापग्रह केसाथदहो तोमूढक्मं करने मं विघ्न करने वाला होता है मीचकर्मं करता है ओौर आवारभ्रष्ट होता दे । विचार ओर अनुभव- प्रायः सभी शाख्रकारो दरामभावगत बुध के फर विरोष अच्छे कटे है। पुरुषरादियोंमें श्म फर मिलते ई । अश्मफल स्री राशियां कर्द ।. यदि मेष, सिह, धनु रारिय। में बुधदहोतो व्यक्ति गणित जाननेवाले, अध्यापक ओर ेजिनीयरिग डिपा््मट मं छ्कक होत । मिथुन-वुखा-कुम्भमें बुध दहोनसे स॑ डिपाटर्मेट, पी-डन्ट्-डी, पोष्टट डिपारमेट क्टकसिप का व्यवसाय रहेगा | तरृष-कन्या-मकर मे व्यापारी, कमीशनएजेन्ट, द्रैवलिङ्गएजन्ट यादि व्यवसाय होगा । कक, दृध्िक, मीन मं यदि बुधदहोतो इसकः प्रभाव मं उत्पन्न लोग समाचारपत्र संष्ाक्क, सम्पादक, मुद्रकः, प्रकाशक, स्टेशनर आदि व्यवसाय करते ह| वुध्र प्रनखुहो तो मात्रसौख्य प्रचुरमाच्रामं होता दहै। ऊपर छिखि फल अकेटे बुध के होते है । एक्राद्‌ शभाव- विना टाभभावस्थितं मेङजातं न खाभोन राबवण्यमान्रण्यमस्ति। कुतः कन्यकोद्‌ बाहद्एनं च देयं कथं भूमुरास्व्यक्ततृष्णा भवन्ति ॥१९१॥ अन्डयः-मेशजातं लाममावस्थितं विनान छामः, न लावण्य आनृण्यं च र्ति । ( तस्य ) कन्यकोद्वाहदानं देयं कुतः ( स्यात्‌ ) ( तेन ) भूसुराः त्यक्ततृष्णा कथ भवन्ति ॥ १ ॥ सं< टी<-खाभमावेस्थितं भेशजातं तारापतिपुच्ं विनान कखाभःद्रव्यादिः, न खावण्यं मनोहास््विंमादरण्यं ऋणरादिव्यं अस्ति, कन्यकोद्‌वाहदानं कन्या विवाह करणसामथ्यं देयं दातुं योग्यं द्रव्यं कुतः कथंच स्यात्‌ | भूसुरा द्विजाः व्यक्तवृष्णाः बहुदरव्येण पूर्णमनोरथाः भवन्ति, अप्रितु एकादशस्थे बुधे एव एवत्‌ सवं लामादिफट स्यात्‌ इव्यथः | ११ ॥ अ्थै- जिसके लामस्थान मे बुध नहीं है उसे द्रव्यलम, सौन्दर्य, ऋण- मुक्तता, ये वातं सिद्ध नहींहो सकती दहै उसके कन्याके विवाह मं दहेज देने के छिए सम्पत्ति कद्यसे प्राप्त होगी १ उसके घर ब्रा्यण कैसे सन्तुष्टो स्वगे १ अर्थात्‌ उपयोक्त स्थान में यदि बुधदहोगातो ये समी बातें प्राप्त होगी । तुखना—रतः कन्यादानं भवति सदने खाभभवने } विना जं वित्ताप्तिः कथम्रुणविमुक्तिः कथमपि ॥ समंताद्‌ भृदेवाः कथमपि वितृष्णा श्रमविनां ; कर्थं सूपे दिव्ये कथमरिकुखथौपदहरणम्‌ |> जीवना

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बुधफट २५१

अथै जिस मरेष्य के जन्मसमयमें बुध एकादशभाव मे नदीं है उससे कन्यादान कैसे हो सकता है। उसे धन की प्राप्ति; णस विसुक्तिः ब्राह्मणगण पूर्णरूप से सन्वुष्ट, दिव्यरूपः, रातुर्भो से धन का खम. आदि दुभफल केसे हो सकता दै । अर्थात्‌ जिसके जन्मसमय मे बुध एकादशभावमें हो उसे उपरोक्त सभी फलक शाक्त दते ह | ““लामे प्रभूत धनवान्‌ । 2 वराह अर्थ–इसे बहुत सम्पत्ति श्रात होती दहे । ८सौम्यो विवेक सुभगः । ‘सोख्वम्‌? । २ शिष्ठ अर्भ- जातक ज्ञानी माग्यवान्‌ तथा सौस्यवान्‌ होता है । “धस्रीवद्टभोऽतिगुणवान्‌ , मतिमान्‌ स्वजनप्रियः । लाभगे सोमतनये मन्दाधिः समपद्यते |” गं अ्थ-जातक लियं को प्रिय; अतिगुणी, बुद्धिमान्‌ , अपने खोगों को प्रिय होता दै । इसे भूख कम होती हे । (सानन्द विद्यः सधनः सुशीलो भोगी सदायः शरिजे भवस्थे । जयदेव

अर्थ– जातक आनन्दी-विद्वान्‌ , धनी, सुशील, भोगी, नित्य लाभ वाखा होता है । ‘्लामे सौम्येनित्यलामो नीरोगश्च सदासुखी । जनानुरागव्त्तिश्च कीर्तिमानपि जायते |> काज्ञीनाथ अथ- जातक को नित्यलाभ होता है जातक नीरोग, सदा ही सखीः लोगों से प्रेम से बरताव करनेवाला ओौर कीर्तिमान्‌ होता है । (“सौम्येखाभग्रहगते नि पुणधीर्विद्या यशस्वीधनी ॥°› वैद्यनाथ अर्थ–जातक निपुण, विद्धान्‌ , धनी-यश्षस्वी होता है | “ववहमायुः सत्यसन्धो विपुक धन सुखी लाभगो भृव्ययुक्तः ।?” मन्तरेश्वर अथ–यदि एकादश वुध होतो दीर्घायु, धनाल्य, सुखी-भौर सतव्यसंघ अर्थात्‌ प्रतिन्ञापाख्क होतादै। एसे व्यक्तिको नौकर का सुख मी प्राप्त होता है । धनवान्‌ विघेयभरत्यः प्राज्ञः सौख्यान्वितः विपुकभोगी । एकाददो बुधे स्याद्‌ बह्ायुः स्यातिमान्‌ पुरुषः | कल्याण सर्मा अर्थ– जातक धनी, विद्वान्‌, सुखी, मोगी, दीर्घायु-ओर विख्यात होता है | इसके आज्ञाकारी नौकर होते | ‘भोगासक्तेऽव्यंतवित्तो विनीतो नितव्यानन्दश्चारुशीखो बलिष्ठः । नानावियाभ्यासङ्ृत्‌ मानवः स्यात्‌ खामस्थाने नंदने शीतभानो ॥ वृहद्‌ यवनजातक

२९५२ चमस्कारचिन्तामणि का तुरखनारमक स्वाध्याय

अथे- जातक नानाविध भोगों मेँ भासक्त, घनाव्य, विनम्र, नित्य आनन्द म रहनेवाखा, सुरीट, वचि कई एक विद्याओं ओर विषयों का जिज्ञासु होता हे | शलः पञ्चवेदे धनम्‌-एकादरा बुध ४५९ वैँ वषं मे धनप्राप्ति कराता है । रारिजे कन्याप्रजः स्यात्‌ तथा ।’ पुञ्जराज अथं–इसे कन्यार्पे ही होती है| भ्रुतियतिः निजवंशदहितः कशः बहुधनः प्रमदाजनवछ्छमः | रुचिर नीख्वपु; श्ुभलोचनो भवतिषवायगते शरिजेनरः ॥” मानसागरः अथे–जातक वेदशाख्र सं श्रद्धा, स्वकुलदितेच्छु-निवंखदेह, धनाव्य, ख्रीवह्छम-सुन्दर दयामवर्णं तथा सुन्दर ने््रोवाला होता हे । “भोगासक्तोऽत्यन्त वित्तोविनीतो निव्यानन्दश्यारुशीटोवटिष्टः | नानाविद्याभ्यासक्ृत्‌ मानवः स्यात्‌ लाभस्थाने नन्दने शीतभानोः ॥ दृण्डिरान अ्थे– जातक भोगी, अति धनवान्‌ , नम्र, आनन्दी, सुशील-बषिष्ठ मौर कद प्रकार की विन्रा्भों को जाननेवाखा होता हे। पाश्चास्यमत-यदह बुध बट्वान्‌ हो तो सब तरहसे खाभदहोताहै। निर्बल होतो नकसान होता दै। राशियों के अनुसार इसके फल इस प्रकार ह-मेष-ञ्लगडाद््‌ । वृष-दुराग्रही 1 मिथुन-्पल । कक-नीष्वोँ का मित्र । सिह- यच्छों कः मित्र । कन्या-विद्वान्‌-शील्वान्‌ । ठवला-कलाकुशल रोगों का मित्र । बरध्चिक-ञ्चगड़ाद्. ओर ठग । धनु-दांभिक-गर्वा । मकर-कपरी-अविश्वासी । कुम्भ- विश्वास योग्य मित्र । मीन-गपिया-जिक्ञाखु । भ्रगुसूत्र–बहुमंग्प्रदः । शिस्प ठेखन व्यापारयोगे अनेक प्रकारेण धनवान्‌ । एकोनविंशति वर्षादुपरि क्षेत्र पुत्र धनवान्‌ । पापक्षं पापयुते हीनमूलेनं घनटखोपः । उच स्वक्षेत्रे श्चमयुते श्चभमृठेन धनवान्‌ । अ्थे– यह बुध कल्याणकारी होता रै । शिव्पकलखा ठेखन या व्यापार म अनेक प्रकारो से धन मिलता है। १९ वषं के बाद जमीन, सन्तति ओर धन की प्रािदहोतीदै। यह बुध पापग्रह की राशिमे या पापग्रह के साथहोतो बुरे मागौसे धनका नाश होता दे। यह उचचवा स्वगृह मे, या श्ुभग्रहों के साथ हो तो अच्छे मार्गो से धनवान्‌ होता हे। विचार ओौर अनुभव-जो फठ र स्रकारोने कहेर्हैवे ब हूत ही श्चम ह अवदय किंतुये फल जैसे बतलाए गए ईै-वेसेके वैसे मिलेगे वा नहीं यह एक प्रश्रदहै। बुधश्चुभयोगमेंमीदहोओौरउकामीदहोतौभमीये सभी फल नदीं मिते ईै-रेसा अनुभव मेँ आया है–कर्यकि बुध के समीप प्रायः रवि ओर शुक्र होते ई उनके फटों का प्रभाव भी पड़ता दहै। अतः रवि ओौर शुक्र कैसे ई १ इसका विष्वार करना आवद्यक दै । कद एकने प्रथमभावसे ठछेकर एकादराभाव तक धुध का फलक धनवान्‌ होना हैः एेसा कहा है-यदि यह फल टीकदहोतो संसारम धनवानोंकी सख्या तो कल्पनातीत होगी । किन्तु अनुभव इस फर के विपरीत है, क्योकि

बुधफर २९९३

धनदहीन मी भारी संख्याम पाए जाते रहै । अतः आवद्यक दहै कि जव ग्रहों. का फट वतखाया जावे तो उनके कारकत्व काभी विष्वार करना चाहिए) लाभस्थान में तुढाराशिमें बुधदहो, दशममे रवि, नवममे श्चुक्र, तृतीय में वक्री शनि-घनस्थानमे मङ्गल्होतो बुध क श्चुभफल नहीं पिल्तेर्हे॥ रह फल देने का सामथ्यं रखता है वा नही प्रथम इसी का विचार करना चार्हिए, ताकि प्देवज्ञ की वाणी मिथ्या है–एेसा कोई आरोप न कर सके |

एकादशभाव का बुध यदि मेष, -सिंह वा धनुराशिमें होतो एकवादो पत्रों का होना संमव है। यह बुध बडे भाई के लिए अच्छा नहीं है। यदि हस स्थान का बुध चृष-कन्या वा मकरमंहोतो व्यक्ति चित्रकार, शिद्पकार, टाईपिस्ट-वा कपाउण्डर आदि होता है । कक्-चृशचिक वा मौन का एकादश भावस्थित बुघ स्वतंत्र व्यापार करवाता है | मिथुन-वखा वा कुम में बुध होतो व्यक्ति रिष्चक, डिमानस्दरेटर आदि होता हे ।

द्ादश्भाव- न चेद्‌ द्वादरो यस्य हीतांश्ुजातः कथं तदुगरहं भूमिदेवा भजन्ति । रणे वैरिणो भीतिमायान्ति कस्माद्‌ दिरण्यादिकोशं शाठः छोऽनुभूयात्‌ ॥१२॥

अन्वयः- रीतांश्चुजातः यस्यद्वादरो न चेत्‌ तदृणं भूमिदेवाः कथं भजेति । वैरिणः कस्मात्‌ आयान्ति, कः शठः हिरण्यादि कोरा भनुभूयात्‌ ॥१२॥

सं टी<- यस्त द्वाददो शीतांश्चजातः शीतांश्चजन्माबुधो नचेत्‌ तस्यग्रद भूमिदेवा ब्राह्मणाः कथं भजंति आगच्छन्ति । रणे संग्रामे वैरिणः कस्माद्‌ भीतिं आयान्ति । कः शठः दिरण्यादिकोरं अनुभूयात्‌ संवित द्रव्यस्य कुतो व्ययं कुर्यात्‌ , भपि व्ययस्येन फरमिदं स्यादित्यथः ॥१२॥

अर्थ- जिस मनुष्य के जन्मल्य् से द्वादश्शभावमे बुधन होतो उसके धर मेँ ब्राह्मण लोग कैसे आवेगे १ तात्पयं यह किं व्ययभाव का बुध मनुष्य को म्यय करने के छिषए प्रेरित करेगा जिससे यश्ञ आदि-इष्टापूतंः मे सद्ष्यय करने कौ प्रद्रत्ति होगी– यज्ञादि करवाने के लिए ब्राह्मण रोग आमन्तित होंगे ओौर यज्पूजन सादि की कर्तव्यता के उपलक्चमे दक्षिणा दी जावेगी } यदि यज्ञादि कभी ओर प्रवृत्ति हीन होगी तो ब्राह्मण लोग इस मनुष्य के घर में क्यों आएंगे अर्थात्‌ वे नहीं आएगे। संग्राममे शतु किससे डरेगे १ द्वादशमावस्थ बुध प्रमावान्वित मनुष्य शत्रुविजेता होगा । शतुों पर विजय पनिके लिएि- शत्रुदल को मार भगाने के लपि जल-स्थक गगनगामी शक्तिथारी सुसजित सेना पर व्यय करना इसके लिए आवश्यक होगा-भौर द्वादशभाव का बुध मनुष्य को व्यय करने के छिए प्रेरित ओर बाधित करेगा जिससे इसकी विजय- पताका कहराएगी ओौर यदह यशस्वी दहोगा-यह अन्तर्निहितभाव है। कौन

२५१४७ चमत्कारचिन्तामणि का तुलनात्मक स्वाध्याय

दुष्ट इस मनुष्य के सुवणं आदि खज्ञाने का उपभोग करेगा १ यर्थात्‌ इसके खजाने को दुष्ट रोग छीन नहीं सकते है। अर्थात्‌ इसके संचित द्रव्य से मौज उड़ाने की यदि किसी की इच्छा होगी तो वह दुराशा होकर रह जाएगी ॥१२॥ तुलना–“वुधोऽपाये यस्य प्रभवति नोचेत्‌ तस्यसदनं कथं विज्ञातो भजति परितोऽपि द्दिजगणः। कथं युद्धं यांति प्रबक्यिपवो वा विमुखतां कथं कोशापाय प्रवरयजनेतीथविषरये ॥ जी वनथ अथं- जिस मनुष्य के जन्मसमयमें बुध द्वादशमाव मे न्वी है उसके घरमं विद्वान्‌ तथा ब्राह्मण लोग केसे आ सक्ते रह १ ओर वल्वान्‌ शात्रुगण से केसे विमुख हो सकते है ? तथा उत्तम यज्ञ तीर्थयात्रा आदि धार्मिक कार्यो मंधनकाखचंकैसेहो सकता? अर्थात्‌ जिस मनुष्य के जन्मसमयमें बुध द्वादशभाव मं है उसे उपरोक्त सभीफल प्राप्त होते रै । परति तस्तुरिःफ ` वराह अथ–स्वकम्‌ परिभ्रष्ट होता है। ‘द्याविदहीनः स्वजनोञ्द्ितश्च स्वकार्थदक्षो विजितात्मपक्षः | धूता नितातं मटिनो नरः स्याद्‌ व्ययोपपन्ने द्विजराजसूनौ ॥ दण्डिराज अथ–जातक निद्‌य-मात्मजनां से परित्यक्त, अपन काम मं चतुर, अपने पक्ष क] जीतने वाखा; धूतं तथा मलिन होता हे । बुधे व्यये व्ययी लोके रगीवंघु समन्वितः। पापासक्तः पराधीनः परपक्षौी च जायत ॥ काञ्ञीनाथ अथं– जातक खर्वला, रोगी, वंघुओं वादा, पापी-पराधीन-विरुद्धपक्च को समथन करनेवाला होता है । सत्सग॒कमापगतोऽदयश्च धूत: सपापो मलिनो व्ययस्थे ।* जयदेव अथ–जातक अच्छे पुरुषे के संगसे ओर अच्छे कर्मोसे दुर रहने वाला; धूतं, पापी तथा मलिन होता दै । वु द्वेषकरो धनी विगत धीस्तारायुते रिष्फगे ` वैता अ्थ–जातक वंघु्ओं का वैरी, धनी ओर बुद्धिरदित दता है। “दीनो बि्राविदीनः परिभवसदहितोलन्त्ये कृशंसोऽल्सश्च > मंतरेश्वर थ– दीन-अपटित, ल्सी-क्रर तरथा अपमानित होता ३ । सुगद्रीत वाक्यमलसं परिभूतं वाग्मिनि तथा प्राज्ञम्‌ । व्ययगः करौतिसौम्यः पुरुषं दीनं नृशंसं च ॥ कल्याणचर्मा अभथे-जातक वचन पाख्नेवाला, अपमानित, वक्ता, पंडित, दीन अौर करर होता है । भवति च व्ययगे शिनं दने विकलमूर्तिधरो धनवर्जितः परकल्रधने धृतमानसो व्यसनदूररतः कृतकः सदा |” भानसागर

बुधफड । २५५९५

अथे–जातक अगदहीन-निर्धन-परखी-परधन का खोभी-व्यसनहीन तथा उपकारी दोता है | न्॑द्रांगजो गतधनम्‌ । वश्िष्ठ अ्थ- निर्धन होता है । नरृपपीडन संतप्तं परवादेन पीडितम्‌ । व्ररास पुरुष ्चाद्रिः कुरुते व्ययराशिगः ॥ गं अ्थ– जातक राजकोप से संतप्त-खोकर्निदा से दुभखी, तथा क्रर होता दै । दयाविदहीनः स्वजनैर्विभक्तः सत्कार्यदश्चो बिजितासिपक्षः। धूता नितातं मलिनो नरः स्यात्‌ व्यपोपपन्ने द्विजराजसूनौ ॥> बृह दथवनजातक अथं–जातक निदंय-ात्मीयों से अट्ग रहने वाटा, श्चुभकायं मे निपुण शत्रुओं पर विजय पाने वाख धूतं ओर मलिन होता है । ध्ुधे वारमुख्या धनं वै भजंति दया तस्य बुद्धौ कुतस्तांतवगैः | स्वकीये च वे भवेद्‌दत्तहीनः परं शत्रुवगं जयेत्‌ तत्रलीनः ॥» भवेद्‌ धूतं धामा यदा चाद्रिरेत्ये | जागेहवर अथे–जातक वेदयाग्यसनी होता है । आत्मीयो पर उपकार नदीं करता दै–शतरुविजयी होता है, निटयौ, धूतं कवु नम्र होता है। इसके पिता आदि आप्त नहीं होते । े व्ययभावसंस्थे पितुः सहोत्थाः सुखिनः तदास्युः । बुघ न बिपुल धरित्री ॥ पुंजर॥जं इसके पिता के भाई सुखी होते ह । भूमि बहत प्राप्त होती है | पाश्चात्यमत-यह स्पष्टवक्ता ओर विजयी होता है । मकर या बृधिक में होतो इसके कपटी शत्रु बहुत होते है, साहस, कार्यं करता है । श्चुभ सम्बन्ध म होतो इसे अध्यात्मज्ञान, गूढशाख्र ओर असाध्य सिद्धियों की प्राप्ति होती दै | यह अधिकारयोगमी होता है। गुसूत्र–क्ानवान्‌; स्वतुंगये वित्तवान्‌ । विद्यावान्‌ बह्ुग्ययः । शपात्‌ भयम्‌ । पापयुते चचरचित्तः उपजन द्वेषी । विद्याहीनः । श्चभयुते धर्ममूञेन धनन्ययः । उच्चेस्क्षेत्रे छोकधुरीणः कायकत च | अथं–जातक ज्ञानी ओौर विद्वान्‌ हौतारईै। उका होतो धनवान्‌ होता दै किन्तु खर्बौलाहोतादहै। इसेराजासे भयदहोतादहै। पापग्रहोंके सायद्ो तो चच चित्तका -होतादै। राजा ओौरप्रजासे देष करता है। विद्वान्‌ नदी होतादहै। श्चभग्रहोके साथहोतो धन का खच श्चुभकमोंमें करता है। उच्वकाहोवास्वणहमे होतो खोगोंमे अग्रणी भौर दूसरोंके काम करनेवाख होता है

विचार ओर अनुभव-श्चमफल पुरुषराधियों के ओौर अश्चमफल ली- राशियोंकेर्ै

वायत

२५५६ पदमत्कारचिन्तामणि का तुखुनात्मक स्वाध्याय

वृहस्पति-विचार वृहस्पति के पयोय नाम- रुर, आर्य-गीष्पति-पिषण-अआां गिरस, चित्र- रिखंडिज, व्वसांपति, वाक्पति, जीव, इञ्य-देवेज्यः सुराधिप, देवमंत्री, विवुध- पतिगुरु, वृहस्पति, कुठिसकरनुत-गीर्वाणवद्य-प्रशान्त-त्रिदिवेदाव्॑, सूरि, सुरेज्य; ग्रहराजव्यौ-प्र्क्षस-मंत्री-वाचत्पति-सुराप्ाय-अंगिरा-ईङ्य, वासवरुर-प्राग्मब- प्राक्फास्गुन, अमरगुर । ब्रहस्पति का स्वरूप– | “पीतय॒तिः पिंगकचेश्षणः स्यात्‌ पीनोन्नतोराश्च बृहच्छयीरः। कपाफकः श्रेष्टयतिः सुरेड्यः सिहान्जनादश्च वसुप्रधानः ॥ मन्त्रो शवर अथे-चृहस्पति का पीलावर्णं दै किन्तु नेतर भौर शिर के केश कुक भूरापन किए हुए । इसकी छाती पुष्ट भौर ऊंचीदहै आर बड़ा शरीर दै। यह कफ प्रधान है। इसकी बुद्धि उत्तमहोतीरहै। इसकी वाणी रोर व शंख की तरह गंभीर होती है । गौर यह धन प्रधान प्रह है। िप्पणी-वैद्यकशाखर मे कफम्रकृति वाटो के जो लक्षण बताए गर ई, वे उस व्यक्ति मेँ घटित होगे जिसकी कुंडली मे वलवान्‌ ब्रहस्पति ल्मे होगा, वे बल्वान्‌ होकर नांदा का स्वामी हे। वृहस्पति बल्वान्‌ होने से मनुष्य बहुत बुद्धिमान्‌ होताहे। बुधसेभी उदधि देखी जाती है ओर बृहस्पति से भी। तत्रदोनोंसेह्ी बुद्धि का विचार किया जावे तो तारतम्य क्या होगा बुध से किसी वात को शीघ्र समञ्च ठेना । किसी विषय का शीघ्री हृदयंगम हो जाना आदि का विचार करना चादिए । किन्तु-बरहस्पति से विचार करने की दाक्तिद्द होतीहे। श्ेष्ठमति होना बृहस्पतिका लक्षणदहै। इसीलिए इसे देवताओं का गुर कहा दै । बृहस्पति यदि कुंडली मं अच्छाद्ोगातो मनुष्य धनी होगा । गोचर में जब ब्रहस्पति अनुकरूक होगा तो धन दिलाएगा । जन्मस्थ बृहस्पति जब पापा- क्रन्त हो मथात्‌ पापग्रहो से प्रीडित हो तो धननाश दोगा । बहुत-सी पुस्तकों मे ‘वसाग्रधानःः । एेसापाठ है । वसा का अर्थं चर्वी है | इस तरह ‘वसाप्रधानः । का अर्थ होगा जिसके शरीर मेँ चर्वी अधिक है अर्थात्‌ जो मोटा है। ब्रहत्तनुः पिंगलमूधजेक्षणो वृहस्पतिः श्रष्ठमतिः कफात्मकः > वराहमिहिर अथ- ब्रहस्पति का शरीर स्थूल अर्थात्‌ मोटा है । इसके ने लाल-पीञे- इसके केरा कपिल्वणं के दै बुद्धि धरमानुकरूल मौर शरेष्ठ .है–यह छेष्मा प्रधान प्रह है। “षत्‌ पिंगल लोचनः श्रुतिधरः सिदाच्छनादः स्थिरः; सत्वाल्यः सुविश्चुद्ध कांचनवपुः पीनोन्नतोरः स्थलः | शाश्वत्‌ धर्मरतः विनीतनिपुणो बद्धोत्कयाक्ष;ः श्चमी, स्यात्‌ पीताम्बरभत्‌ कफात्मक तनुः मेदः प्रधानो रुरुः || कल्याणकर्मा

१७ ब्ुहस्पतिफर २५५७

थे-इसके नेत्र शद्‌ के समान कुक खाल-पीठे रंग के है । इसकी वाणी शेर की भोति गमीर होती है। स्वभाव स्थिर ओौर सत्वगुणग्रधान होवा दै। इसके शरीर का वण तपे हुए सोने के सदश गोरा है । इसकी छाती चौड़ी सौर ऊंवी डोती है। सदैव धर्मनिष्ठ-नश्न, चतुर, क्षमायुक्त ओर शरेष्ठ सद्राक्च धारण करने वाला होत। दै । पीतवस्र धारण करनेवाखा; कफप्रधान प्रकृति- यर मोटा-एेसा ब्रहस्पति का स्वरूप है ¦ ठ्यंकटद्यमी- सर्वार्थचिन्तामणि- ४५६ श्रहस्पतिस्वदिख्गात्रयष्टिः कफात्मकः शेष्ठमतिः सुविद्वान्‌ । सत्वाश्रयः सवगुणाभिरामः रिगाक्षमूर्धन्यकचाभिरामः ॥ थे– बड़ा पेटवाला, कफप्रकृति, शेषठबुद्धि-अच्छाविद्रान्‌ , सत्वगुणी भौर संपूणं गुणों से युक्त वृदस्पति ग्रह है । इसके शिर के केश ओौर नेत्र पीले है ओौर यदह प्रसन्न रहनेवाखा है । जयदेव-जातकवंद्रिका- | शुर्गुणानम्यः कफवांश्च गौरः पीतो््वजो मांसल्दीषेदेहः । तथार्पिगेक्चषणवान्‌ सुधीश्च लोकेषु मान्योऽपिचमेदसारः ॥ अथ- गुणवान्‌ , कफप्रकृति, गौरवणै, पीरेके, पुष्ट भौर ठम्बा शरीर, पीठे नेत्र, विद्यान्‌ , खोकमान्य, तथा चनी से बली-ेसा स्वरूप बृहस्पति का ईै। दुंदिराज–जातकाभरण– ्दीर्घाकार्धाख्चामीकरामो मजासारः सुस्वरोदारबुद्धिः। दक्षः पिंगाक्षः कफी चातिमांसः प्राज्ञः सुज्ञः कीर्तितो जीवसं्ः ॥ अर्थ–त्रहस्पति–लम्बाशरीर, सोने के समान गौरवर्ण, चबौं मे बल्वाला, मुन्दरवाणी, उदार, चठुर, पीटी ओंँखोंबाखा; कफग्रकृति; अधिक मांसवाला आौर विद्ठान्‌ होता ह । वैयनाथ-जातकपारिजात- | बृह दुदरशरीरः पीतवणेः कफात्मा सकट्युणसमेतः सर्व॑शाल्लाधिकारी । कपिलदचिकचाश्चः साविकोऽतीवधीमान्‌. भल्घुद्धपतिचिहः श्रीधरो देवमनी ॥ अथं–्रृहस्पति-लम्त्रा पेट ओर कम्बे शरीरवाला, पीतवर्ण-कफप्रकृतिवाल, सर्वगुणसंपन्न खभी शासन मे अध्रिकार रखनेवाला; कपिलरंग के केश ओर नेत्रो- वाल-सतोगुणी-भव्यंत बुद्धिमान्‌ , बड़े राजचिहौं से संपन्न भौर लक्ष्मी को धारण करनेवाला होता हे । विदोषवणेन– वणे–चरृहस्यति का रङ्ग कुक पीटा गोरा ह । धातु-मेदा पर अधिकार है, बृहस्पति प्रभावान्वित व्यक्ति मोय होता है | वद्–कस्याणवमां ने षवीताम्बरभृत्‌› रेखा का है-वख का रङ्ग पीला होना दीक हे ।

२५५८ चमर्कारचिन्तामणि का तुख्नात्मक स्वाध्याय

धाठु-वैचनाथ ने रजत ( रौप्य ) धातु माना है-किसी का सुञ्चाव है किं कासाः घातु मानना चादहिए |

ऋ्तु-देमन्त वा शििर ।

रुचि-मधुर रुचि ।

दाखाधिपस्य– ऋगवेद ।

वल-समय–सायंकाल में बल्वान्‌ होता है-किसी का सुञ्चाव, प्रातः अर राधिकार है)

लोक–स्वर्गलोक

द्विपाद–मनुष्यादि द्विपाद प्राणी हीज्ञान मँ अधिकार रखते है अतः गुरु का अधिकार टीक है।

आयु–३० वधं ( नातकपारिजात ) सुञ्चाव हे कि भरर्वे व्षके वाद्‌ की यायु पर गुरु का अधिकार होना उचित है|

देवता– स्वर्ग का अधिपती इन्द्र-इसका मन्त्री बृहस्पति है ।

रत्न - पुष्पराग (‘पुखराज ) ( जातकपारिजात )

( इष-कन्या-वुलख यौर मकर राशि्यौँ जिनका ल्य हो उनके ए पुष्पराग धारण करना ठीक नदीं रदेगा-अ्थात्‌ दृचिकः धनः मिथुन, ककं, सिंह, कुम, मीन; मेष ल्यवाले ग्यक्ति पुखराज धारण कर सकते ह ।

दिद्ा-ईयान्य

प्रदेदा–गोदावरी से विध्यतक का प्रदेश गुर के अधिकार में है।

वणे–त्राह्मण-कुछ इसे वैदयवणं का भी मानते है-वैयनाथ के अनुखार गुरु का वणे ब्राह्यण है ।

गुण–सतोगुणी ( सत्वग्रधान )

आकार-पुरुषाङ्ति ।

तत्व-भाकाश तत्व ।

काट-महीना ।

वट-ल्य्र मं बल्वान्‌ होता है ( वैद्यनाथ )

खदु- मृदु शरीर के व्यक्तियों पर गुर का अधिकार है।

पराभव– मंग द्वारा गुरु का पराभव होता है ( वैचनाथ ) वृक्ष–फल्दार चृक्च गरु के अधिकारमें है,

दृष्टि- सम दृष्टि

उद्‌ डमुख– उत्तर की भोर गुरु थोड़ा चपट है-अतः शुरु उदडमुख माना दै।

मेष) सिंह वा धनु राशिर्यो मे बृहस्पति हो तो व्यक्ति की बाणी सिंहवत्‌ गम्भीर होती हे । बल्वान्‌ दौकर गुर कंडलीमे पड़ादोतो व्यक्ति विद्वान्‌ , बुद्धिमान्‌ ; रेखक, संलोधक आदि होता है। ली रासि कागुर होतो

त हस्पतिफलर २४५९

ारम्मिक व्यवसाय नौकरी तदनन्तर स्वतन्त्र व्यवाय होता है यदि गुर. पुरुष राशि्यो मे हो तो प्रारम्भ से ही स्वतन्त्र व्यवसाय होता है। ` द्शमस्थान मँ यदि गुरु हो तो खारी उमर नौकरी करनौ पड़ती है | यदि ङण्डली में गुर दूषित हो तो व्यक्ति व्यर्थं व्यय करने वाल होते है। दूसरों के साथ इनका व्यवहार अच्छा नहीं हाता-स्वस्नी से व्यवहार ठीक नहीं रखते किन्तु परकीया से धुले मिङे रहते ईै-न्यमिचारी, -निन्दक-तथा अहमन्य होते है | | | मेष-मिथुनः ह, धनु आर मीन में गुर के होने से अच्छे फर मिलते ई । दल्-इश्चिक, मकर वा कुम्भ में गुरु हो तो साधारण फल मिलता है। इृष-कन्या मर क्म मे गुरु अश्चम फल दाता होता है । बृहस्पति का कारकत्व- मागस्य धमं पौष्टिक महत शि्चा नियोग पुररा्म्‌ । यानान सुवणं धान्य पुत्र प्रसुजीव ॥ कल्याणवर्मा अथे मंगर कार्थ, षम, देह की देखमारूतथा दे को पुष्ट रखना, मस्व रि्षा-किसी काम मे नियुक्ति-शडर-देश-वाहन मोटर .ादि-गोखन-खवर्ण धान्य-घर-पुत्र-इन पर बृहस्पति का मधिकार ३ै। “रज्ञा वित्त ( नित्य ) शरीर पुष्टि तनय जञानानि वागीश्वरात्‌ । ` | आचाय देवगुरु भूसुर शापदोषेः शोकेच गुरमरजमिद्र गुरः करोति ॥> वँ दनाय अथे–सत्‌-असत्‌ विवेक करनेवाली बुद्धि-धन-शारीर को पुष्ट रखना, पुत्र-लान, आचाय-देव-गुर वा ब्राह्मणकेशापसे दुःख होना-तथा रुस्मरोग-ये सभी वृहस्पति के अधिकारमें है । | “वष्वन पडत्व वुरंगमसौख्यं तन्त्र विवार शेपार विनोदम्‌ । सन्तति सौख्यमलं निगमार्थं श्वान मुतांग बलं गुरुतश्च ॥› जीवनाय अथे–वाक्‌ पड़ता अर्थात्‌ व्याख्यानशक्ति, धोड़े का सुख, तन्त विचार, राजा से विनोद, सन्तति सुल-वेदार्थलान भौर शारीरिक शक्ति, इन पर गुरु का अधिकार है । | वाग्‌ धोरणी मन्त राजतन्त्र नैष्ठिक गजुरग याम॒निगम भाव बोध कमं पुत्र संपद्‌ जीवनोपाय कर्मयोग चिंहाखन कारको गुखः सर्वायंचिन्तामणि अथं–बाणी-दुरदशौ होना-मन्व-राजनीति-निष्ठा किया गया काम, दाथी- घोड़ा, निगम-शाख्र पदाना पुतर-सम्पत्ति-ानीविका का साघन-क्मंयोग-भर्थात्‌ निष्कामकमं, राजसिंहाखन इन समी विषयों पर बृहस्पति का अधिकार है | ज्ञानं सद्गुण मात्मजं च सचिवं स्वाचारमाषा्य॑कम्‌ | माहासमय श्रतिशालधीस्मृतिमतिं सर्वोत्नतिं सद्‌ गतिम्‌ ॥ देव ब्राह्मण भमक्तिमध्वरतपः श्रद्धां च कोशस्थलम्‌ । वैदुष्यं विजितेन्द्रिय धवसुखं सम्मान मीडघाद्‌ दयाम्‌ ।

२६० चमस्कारचिन्तामणि का तुरुनारमक स्वाध्याय

गुर्मांच्ञ्वर दोकमोहकफजान्‌ भ्रो्रातिं मोदामयान्‌ । देवस्थान निधि प्रपीडनमदही देवेशा शापोदूभवम्‌ ॥ रोगं किन्नरयक्ष देवफणभ्ृद्‌ विद्याधराद्यदूमवम्‌ । जीवः सु्यति स्वय बुधरुरू्कृष्टापष्वारोद्‌भवम्‌ ॥° मन्तरेश्वर अथं–ज्ञान-सद्गुण-पुत्र; मन्वी; आष्वार-धम-रुरू, माहात्म्य, वेद-शाख्-ज्ञान सभी प्रकार की उन्नति-मरत्यु के अनन्तर श्चुभगति-देव व्राह्मण भक्ति-यज्ञ-तप पर श्रद्धा-कोश, विद्रत्ता-जितेन्द्रियता-पतियुख पूज्यां की कृपा-सम्मान-इन सब पर गुरु का अधिकार दहै रुदर के अधिकार में आने वाटे रोग :-गुत्म-्ंतदियो के विकार, ञ्वर-कफ-शोक-मू्छा कणैरोग-देवाख्य के रुपयोंपेसों के डप करने से; वा ब्राह्मण के शाप से उतपन्न रोग-यक्ष किन्नर-नाग आदि देवां द्वारा उत्पन्न हुए रोग-इन रोगों पर भी बृहस्पति का अधिकार है। उत्तरकाटामृत मं वर्णित बृहस्पति का कारकत्व- ब्राह्यण-गुर, स्वकम॑-रथ-गौ-पद्‌ा ति-निक्षेपक; मीमांखा, निधि-घोडे-मैस, बड़े-बड़े अंग-प्रताप, कीर्ति-तकशाख्र-उ्योतिः शाख, पुत्रपौत्र, उद्ररोग-दोपाएः प्राणी, वेदान्त-परदाद्‌ा दि प्रासाद-गोमेधिक, बड़ा भाई, दादा-शिशिर्तु, रत्त-व्यापारी-नैरोग्य युन्द्र धर राजसम्मान-तपश्चर्या-दान-धर्म-परोपकार-समदष्टि- उत्तरदिशा-वर्दटाश्ति-पीटारग-ग्रामवासी-प्याया मित्र) दला-मेदा-मध्य-वल्न- नूतनय्ह, सौख्य, वृदं की सलाह -तीथ, बुद्धि-काव्य-गोपुर-समा सप्पुरुषों का आमोाद-प्रमोद-सिहासन, ब्रह्मदेव की स्थापना-सभीकाल-बलमदहीना-वेूय रत्- अथिष्टोम यज्ञ का फल) मधुर रुचि-सत्वगुणः सुख दुःख, ऊँ चाडई-स्वर्णाभूषण-तन्त्र- वात-शेष्मारोग, पुष्परागरत्रनिगमाभास-मरदुपत्थर-रशिवोपासना-नैष्िकता- चतुरता-प्रयाण । ८ पुस्तक कलेवर बद्‌ जाने के भय से मूल्पाठ नहीं ल्खिा दै) निश्नटिखित रोगां परर]र्का दी अधिकार है - जलोदर, यकत के रोग- फेफड़ां के रोग, मस्तिष्कं कौ रक्तवाहिनिर्यां के रोगः अत्यो कौ सुजनः, हृदय को घक्का पर््चना, पेयम शूलः; रीठ की इद्खी मं दद; घटसप-पसलियीं के तथा रक्तवादिनियो क रोग-खन का बिगड़ना-लव्वा बुखार । ( पपाश्चाव्यमत ) कारकत्वसमुच्च द्य, धम) पौ्िक) महत्व-रिष्षा-पान, सोना, घान्य-पुत्र-प्रज्ञा-ल्ान वित्त-शरीरपुष्टि-शाप-शोक-गुर्मःकामला-वात्तसेग.स्वकम-यजन गृह॒-वस्र पात्र-मिच्र-आन्दोखन-घुख-वाग्धीरणी-मत्र-राजतन्न; नष्टेक) गज-तुरग्‌- वोधकर्म-जीवन साधन-कर्मयोग सिदासन-वचन पडता; तन्त्रविचार, प्रव्चनकार; व्याख्याता-टेखक-प्रकाशक-विडम्बन-काव्य-राजज्पा-सचिवः, आवायं-शाखर-धी स्प्रति-मति-सवान्न ति-भाक्त-अष्वरतपः श्रद्धा वैदुष्य-घनसुख-सम्मान-द या-अंच्रञ्वर- मोद-कफजसेग, देवस्थान निधि के उपभोग मे नेसे उत्पन्न रोग; भाग्यः कीति-वद्धि-यरा-येत्री संरक्षण-विधानसभासदस्यः, धमगुरु, दीक्षागुस-आध्यासिक गुरु, न्यायाधीश, वकील, विद्यार्थी, ऊनीसूती कपड़ो का कारखाना-उसका मालिक व्यापारी-जे्ि-पेर-दादिनाकान-खषभी प्रकार का सुख-दपवदधिकार, लोकसंग्रह

बह स्पतिफक २६१

ग्रहणशक्ति, तीश्छावुद्धि-गन्थकवँत-स्थिरदृत्ति-पेर्य-संकटापन्न की सष्टायता- विवेक-खमय सूुचकता, निःसपहता-निभ॑यता-सादा रहन सहन-उचिकर भन्न- कोशस्थल, पुर-रा्ट्‌-न्याय- राज्यम्यवस्था-मन्ती-मन्तिमण्डल-संसद-विचापीठ-कुल्गुर- उपकुल्गुर-रजिसदरार द्वा तसमा रोह-(बी नगणित-वैयक-भारोग्यशास्र-्िन्दू-कानून सिविल-रा-अथंशाख-द्॑नयाख, पी. एच डी. भादि उचउपाधियौ-रिश्चाविमाग- फिस्मसेन्सर, वोडं-षचिवाल्य-शाला-फाटेज-रिक्षक-प्राध्यापकःवैरिरस्टर-राग्यपाल के सलाहकार । नोट नं<१–शिक्चा विषयक कारकत्व का अच्छा अध्ययन तव होता दै जब गुरु लगन मेँ व्रततीय; पंचम; सप्तम, नवम, एकादश स्थान म भौर द्चभराशि में हो। नोट नं०र~ग्यवसाय के विषय मं विशेष विष्वार तभी करना उचित होगा जने गुर खग्न,-सप्तमः वा दशमस्थान मँ हो क्योकि गुर प्रभावान्वित व्यक्ति जिस किसी व्यवसाय में भी अग्रसर होर्गे-यशस्वी ही होगे । अतः कारकत्व का वर्णन वद्यक नहीं है। ` | मेषादि राशियों में स्थित गुरु के फट- मेष-मेष में गुरो तो जातक-~वाद्‌-विवाद क्योकरं किया जाता दै एतद्‌ विषयक गुणो ते युक्त-यत्न से रत्नादि छाम करनेवाला, पुत्र-धन ओर बल से युक्त प्रगरम, विख्यातकमा, ओजस्वी, बहुतदतुओंवाला, बहत खं करनेवाला, क्षतदारीर, क्रोधी, चंड तथा उग्र देडनायक होता रै । वृष-वृष मे गुर होतो विशाल्देह, देवब्राह्मण भौर गाय का भक्त; मनो्ररूप, स्वपत्नीरत अच्छे वस््रघारण करनेवाल्म, कृषि आरं गोधन से युक्त, उत्तम वश्तुओं भोर उत्तम भूषणो से युक्त, समयानुकूक उचितभाषौ-सुबुद्धि-गुणी विनम्र भौर वैचक्रिया में निपुण होता दै। भिथुन–मिथुनमें गुखो तो धनी, सुमेधा-वैज्ञानिक, सुरोचन, वक्ता, चतुर, धम॑शीक, गुखजनों ओर माईै-ब॑धुओं से आदत, मंगल्शब्द्‌ प्रयोक्ता, कायंतत्पर भौर कवि होता है। | कके –ककं मे वृहस्पति हो तो पंडित, रूपवान्‌ , धमासा, -सुशीर, बली, यशस्वी, बहुत धान्य भौर धनवाला, सत्यभाषौ, स्थिर पुत्रवाला, लोकमान्य, विख्यात, राजा, सुकर्मी, मित्रों के अनुकूढ ओर उनसे मेम करने वाला होता दै । सिह- सिह में गुखुहोतो शतुओंसे बरु भौर पयं से वैर रलनेवाला, मित्रों से स्नेह करनेवाल्म विद्धान्‌ , धनी, शिष्टपरिजनों से युक्त, राजा वा पौरष म राजस्य, समामूषण, शत्रु को जीतनेवाल, शरीर में इद्‌ तथा शक्तिसंपन्न, बन-पवंत-दुगं मे रहनेवाख होता है | | कन्या–कन्या मे गुर हो तो बुद्धिमान्‌ , ध्माता, कार्यनिपुण-मीठौ-मीटी सुगंष ते युक्त वरस््रोवाखा; काम करने में दटसंकस्प, शास्र भौर शिल्प से घनी दानी, सुशील, चतुर, धनाढ्य-अनेक लिपिं को जानने वाखा होता §ै।

२९६२ षवमर्छारचिन्तामणि चछा सुखुनार्मक्‌ स्वाध्याय

तुखा-ठलरािमे गुरु होतो मेधावी; बहुतपुत्रौवाख विदेशवास का प्यारा, घनाल्य, भूषणमप्रिय, विनीत, नट-नतंकों द्वारा धनसंग्रह करनेवारा; मनोहररूप, शास्वज्ञ, अपने साथ के व्यापारियों मे श्रे्ठ-देवता मौर अतिथि सेवा में प्रेम रखनेवाखा होता दै । वृश्चिक–वृध्िक मेँ गुरु होतो बहुशास्ननिपुण, राजा, प्रों का भाष्य करनेवाला, चठुर, देवमंदिर बनवानेवाखा बहुत ओर सुशीला पलियोँ से युक्त पुत्रां वाला, रोग प्रीडित, परिश्रमी, अतिक्रोधी, दांमिक, अतिलोभी, निद्ञाचार- वाला होता हे । धलु–घनु मं गुर होतो त्रतो्यापन-दीक्षा-यज्ञ आदि मे आवचार्य-स्थिरधन- वाला-दानी-मित्रं का हिती, परोपकारी-शास््रो का प्रेमी, मांडलिकि वा मंत्री, बहुतदेशो में घूमनेवाला, एकांत गौर तीर्थस्यान मे रहने वाल होता है । मकर- मकरस्य गुरु होतो अल्पबली, बहु तश्रम ओर केश से युक्त, नीचा- चारी, मूखं, निर्धन, दूसरों का नौकर, मंगलकार्यो से होन, दया-पवित्रता, भाई बधुर्भो के प्रेम ओौर धर्मं से दीन, कृश, भीरु, प्रवासी, गौर विषादयुक्त होता है | कुभ-कुभमेगारुदोतो चुगुक्खोर, दुष्टस्वभाव;, नीच कार्य मे रत-गण का मुखिया, कूर, -रोभी, रोगी; अपने वचन के दोष से स्वधननाशक, बुद्धिहीन सौर गुरुतत्पग होता है । मीन–मीन में गुरु हो तो वेद-शास्त्रवेत्ता, मित्र॒ ओर सजनो का मान्य, दरपनेता, शछछाध्य, धनी-निर्भय, घमंड, ष्टसंकत्पवाला, राजा की नीति, शिक्षा, व्यवहार रण आदि के प्रयोग को जाननेवाखा, प्रसिद्ध ओौर सात होता है। गुरु पर रवि आदि ग्रहों की दष्ट के फल– रवि-मेष वा वृश्चिक राशि स्थित गुरुपर रविकौी दृष्टि होतो जातक धर्मात्मा, सत्यवक्ता, ख्यातपुत्रवाला, भाग्यवान्‌ › रोमयुक्त देवाला होता ई । चंद्र–चद्रेमाकी दृष्टि से इतिहास ओौर काम्यवेत्ता;, बहूतरत्नोवाल, सत्रीनह्ठभ; राजा ओर पंडित होता है। भोम- मङ्गल की दृष्टि से राजपुरुष, वीर उग्र, नीतिज्ञ, विनयी, धनी, कुश्टत्य ओर कुशीला स्त्रीवाला होता दै । बुध-वुध की दषटि से मिथ्याभाषी, धूत, पापी, परच्छिद्रान्वेषी, सेवा भौर विनय जाननेवाला ओौर कपटी होता ई । शुक्र-शक्रकी दष्टिसे गरह-शय्या-वस्त्र-गध-मूषण-स््री आदि विभवसे युक्त ओौर भीरु होता है । दानि-रनिकी दृष्टि से मलिन) लोभी, कठोर, साहसी; प्रसिद्ध, चष्वल- मेत्री भौर संतान वाला होता दै। वृष-तुखास्थित गुर पर ग्रहटृष्टिफल– वृष वा तुला मेँ गुरुपर रवि. की दृष्टि से जातक परिजन ओौर पश्च से युक्त भ्रमणङ्रील, ठंबाशरीर, पडित-आओौर राजमंत्री होता है |

ज्हस्पतिफल २६३

चंद्र-की दृष्टि से अतिधनी, अतिशन्त, माता कां भक्त; स्त्रीप्रिय ओौर अतिभोगी होता है । सङ्ट- कौ दृष्टि से युवतिप्रिय, पंडित, वीर, धनी, सुखी ओर राज- पुरुष्र होता है । बुध–की दष्ट से पंडितः, चठतर-शांत; सुंदरः, धनौ; गुणी ओर सुशील होता दै । शक–की दष्ट से अतिमनोहर, महाधनी, अलंकारधारी;, दया, उत्तम- दाय्या ओर उन्तमवस्त्र धारण करने बाला होता है । रानि–की दष्ट से पंडित, धनान्य, गोव ओर नगरवासियों मे. भेषठ, मलिन, कुरूप-गौर स्वी-दीन होता है भिथुन-कन्यास्थ गुरु पर प्रहटष्टिफट- मिथुन वा कन्या स्थित गुरुपर रवि की रष्टिसे भेष्ठ-गौव का मुखिया, परिवार स्वी-पु्न-धन युक्त होता है |

4 की रषि से– घनी, माव्रभक्त, सुख-स्नी-पु्रयुक्त भौर अनुपम सुन्दर

] दै। मङ्गल की दृष्टि से-सखव॑चविजयी, विङृतदेह, धनी सौर खोक- मान्य होता बुध की ट्ठि से- देवर, बहस्ीवाला, कई प्रकार के वष्वन बोलनेवाला, सूत्रकार होता है । | शुक की ष्टि से-देवमंदिर आदि कृत्य करनेवाला, वेश्यागामी, लिर्यो को मनोर रहता है । दानि की दृष्टि से- किसी जाति वा जनसमूह वा राष्ट वा ग्राम वा नगर का मुख्य सन्दर पुरुष होता है । ककस्थित गुरु पर महटषटिषटट- ककंस्थ गुरु पररवि की दृष्टि से जातक लोकप्रसिद्ध-जनसमूह का सअध्यक्च-पृवं मवस्था मं सुख-धन-स्री से हीन पश्चिम अवष्था मे इन ससे

युक्त होता है । चन्द्रमाकी - दृष्टि से-अति सखुन्दर-कोश-सवारी-उत्तमस्रीपुत्रवाल्म राजा होता हे।

मंगलकी दृष्टि से-बाख्वय मे ही विवाहित, सुवभूषणयुक्त-पंडित, वीर, ब्रणयुक्त देह वाखा होता है। बुध की दृष्टि से–वघु-मित्रयुक्त-धनी-कलहप्रिय-पापदीन लोकविश्वस्त राजमंत्री होता हे । शुक्र की दृष्टि से–बहुत ख्री-धन-भूषणयुक्त) सुखी ौर सुन्दर होता है । दानिकी रषि से-रगोँव-शहर वा सेना का अध्यक्ष, वक्ता, धनी ओौर बुटापे मं सुखभोगी होता है ।

२६४७ चमर्कारचिन्तामणि का तुरुनार्मक स्वाध्याय

सिहस्थ गुरु पर प्रहदष्टिफट– सिंहस्थ गुर पर रवि की दृष्टि से- सजन, प्रिय, प्रसिद्ध, राजा, धनाल्य यर सुरील होता है । चन्द्रमा की दृष्टि से- सौभाग्यवान्‌, मलिन, खरी-माग्यसे धनच्दधि वाडा, जितेन्द्रिय होता ह । मंगल की दष से– साधु भर गुरुजना का मक्त, सुकर्मकर्ता, प्रष्-चतुर, छदध, वीर ओर रूर होता ह । बुधकी ट्ठि से-रृहनिर्माण निपुण-वैज्ानिक, प्रियवक्ता, राजाका प्रधानमत्री ओर शाखज्ञ होता हे | शुक्र की दरि से-खीप्रिय-सुद्र-वरपमान्य-महावली होता है । रानि कौ दृष्टि से-अधिक ओर प्रियवचनवक्ता-सुखहौन-निदुर, चित्रकार, दुःशक खरी-पुत्र काला होता है । धनु वा मीनस्थित गुरु पर दृषटिफट– धनु वा मीनस्थ गुर पर रवि कीद्रष्टिसे जातक, राजाका विरोधी, धन सौर वधुभोंँ से व्यक्त होकर दुध्वी होता हे । | चन्द्र की टृ से-सर्वंयुखयुक्त, खीपरिय-मान-घन रेश्वर्य से गर्वित होता ह । मगखकीदृष्टि से- संग्राममे क्षतदेह, हिंसक, परोपकारक, परिार- हीन होता ह । बुधकी दृष्टि से-राजा वा राजमंत्री, पुत्र-धन-सौभाग्य सुख से युक्त सर्व- हितसाधक होता है | युक्र की दृष्टि से- सुखी, धनी, पंडित, दोषहीन, दीर्घायु-सुन्दर, लक्ष्मी- युक्त पुरुष होता है | | खानिकी द्रष्ट से-मलिनि, भीर, खोक मेँ निन्य, दीन-सुखध्मादिहीन होता है । मकर-कुभस्थ गुर्‌ पर प्रहटृणटिफट– मकर वा कुंभस्य गुरू पर रवि की द्रष्ट से जातक, विद्वान्‌ , राजा, सभाव से ही धनी, मोगी ौर पराक्रमी होता दै। चन्द्रकी दष से–पित्रमातरभक्तशरेष्ठ-कुखीनः, विद्वान्‌ , घनी, सुशील ओर धर्मात्मा होता है | मंगलकी टट से लोकमान्य होता हे । बुधकोद्रषटटि से-कामी-गुणियों में श्रष्ठ-घनवाहक, बिख्यात-मित्रयुक्त होता है। शुक की दृष्टि से-अन्न-पान-विमव, उत्तमण्ह-शय्या-खरी-मूप्रण-वसन युक्तं होता है।

वीर, राजा का सेनापति-वटी-सुन्द्र, विख्यात,

च्हस्पतिफर २६५५

इदानि की रषि से–अद्ितीय विद्वान्‌ श्रे्ठ-राजा-परिजन ओौर पश्चुञओं से युक्त धनी मौर भोगी होता रहै।

अथ गुरोः लग्नादि दादशभावफल्म्‌-

गुरुत्वं गुणेरेगनगे देवपूये सुवेशी युखी दिव्यदेहोऽस्पवीयैः 1 गतिभोविनी पारखोकी बिचिन्त्या वसूनि व्ययं संबठेन जन्ति ॥ १॥

अन्वय-देवपूज्ये लग्नगे गुणेः गुरुत्वं ( भवेत्‌ ) ( सः ) सुवेशी सुखी दिन्यदेहः, अस्पवीर्य॑ः ( च) ८ स्यात्‌ ) ( तस्य) भाविनी पारलोकी गतिः विचिन्त्या, संबञेन व्ययं ब्रजन्ति ॥ \ ॥

सं टि रूग्नगे देवपृञ्ये गुरो सुवेशी सुवस्रालंकारेण शोभाव्यः, दिभ्यदेषः बुंदरशरीरः, सुखी विषादरहितः, अस्पवीर्यः अस्पबरः नरः तथागुणेः पांडित्यलोकरंजनादिभिः रुरप्वं बहुमान्यत्वं भाविनी पारलौकिकी गतिः भविष्यति स्वगवासखूपाभवेत्‌ इति रोषः, वसूनि धनानि संबलेन भोगे न व्रजन्ति ॥ १ ॥

अथे–जिस मनुष्य के जन्मलग्न मँ बृहस्पति हो वह गुणों से मान्य होता है । इस संसार मे प्रायः सभी मनुष्यों की आन्तरिक इच्छा ओर अभिलाषा यदी रहती है कि वह संसार मे बड़ा माना जावे, इस बडप्पन प्राप्िके चिए कद एक साधन उपयोग मेँ लये जाते है । कोई मनुष्य अट्ट परिम करके- देश-विदेश में भ्रमण करके रुपया कमाता दै ओौर धन के प्रभाव से इसे बडप्पन मिलता है। कोई मनुष्य अपने बुद्धिवैभव से किसी यंत्रविरोष का आविष्कार करता है जिससे न केवर लखों रुपयों की प्रापि ही होती है अपितु संस्ारभर में यदश भी मिक्ता है, भौर यह यदश उसके बड्प्पन का कारण होता दै कोद एक उच्चकोटि की उपाधिरयं पीर एव० डी° डीटिय्‌ आदि प्राप्त करता है जिससे उसे पटे-खिखों की ओंखों में बड़प्पन प्राप्त होता है । कोई एक शारीरिकराक्ति से, बौद्धिकशक्ति से भौर युद्धशक्तिसेएक राष्र का निर्माता बनता है । इस राष्रीय निर्माण करनैः के उपयोगी मेधा रखने के कारण इसे बड्प्पन मिलता है भौर बह संसार मेँ उच्चकोटि का एक ही पुरुष माना जाता है ।–कोई एक अपनी वक्तृत्वशक्ति से; अपनी मघुर-क्णपरिय-युक्तियुक्त वाणी से भौर भाष्रणसे एक ही समय मं असंख्य उपस्थित नर-नासियों का मनोरंजन करता हे ओर इस मोहिनीशक्ति से इसे बड़प्पन प्राप्त होता दै। कथन का तात्पयं यह्‌ है कि कग्नभाव का गुरएक ही उपदेश देतादहै कि “शुणाः पूजास्थानम्‌ ।* पाठ को ही पदो-मौर इसी का मनन करो ! तदनन्तर इसी पाठ को अपने जीवन मे मादशच॑रूपेण काय॑परिणत करो । ` “गुणाः पूजा- स्थानम्‌” मे रुणशब्द्‌ व्यापक अथं मे प्रयुक्त करिया गया है यतः प्रत्येक प्रकार का गुण इसमे अन्तर्भावित हो जाता है । अतः “सवेरुणाः कांचनमाश्नयन्ते 1? इस नीतिवचन का अन्त्माव भी हो जाता है |

लग्नभावगत बृहस्पति प्रभावान्वित जातक का वेश ( वेष-पोशाक ) सुन्दर होता है । वेश्चयति भूषयति देदम्‌–इतिवेशः शोभनः वेशः असिति भस्य इतिं

२६६ चमत्कारचिन्वामणि का तुखनाव्मक स्वाध्याय

सुवेशी यह व्युत्पत्ति साध्य अर्थदं | जातक सुखी रहता है । इसका शारीर देवताओं के समान सुन्दर होता है १ किन्तु अत्पवीर्य–अर्थात्‌ अव्पवली– कमजोर होता दै । शरीर छोड़ने पर इसकी उन्तमगति होती दै अर्थात्‌ यह स्वगगामी होता है । ओौर इसका द्रव्य उपभोग से खच होता ₹ईै। नीतिराख् मं धन के उप्रयोग के विषय में ‘्दानंमोगोनाशस्िख्रोगतो भवति वित्तस्य | यो न ददाति न सक्ते तस्व व्रतीया गतिर्भवति ॥” एेसा कथन है- प्रथमकोटि काधन का व्यय ठान” दे। द्वितीयकोटि का धन का व्यय (उपभोगः है| अधमकोटिका धन काग्यव्‌ नारः है। लग्नभावगत गुरु प्रभाव मे उतपन्न जातक धन का व्यय उपभोग से करता है–उपभोग शब्द्‌ का अथ व्यापक रूपेण ठेना होगा– प्रत्येक सद्व्येय का इसमे अंत होता है । इसी तरह नाशः शब्द का अथं मी व्यापकरूपेण छेना चाहिए इससे ्राजदंड” आदि का भी अन्तमीव होता है। “गतिर्माविनी पारलोकी विचित्य का अर्थ “परलोक की गति के बारे मं चिन्ता करता है] चित्यहै। मजी का संकेत तो श्चममूलक सदृन्यय के विषय मेँ है । उनका गृट अभिप्राय दै किः ङ्गननभाव का गुर अन्तःप्ेरणा से जातक से साविक दान आदि सद्न्यय करवाता है– जप-तप-यज्ञ-दान दिं के करनेसे मृत्यु के बाद श्चुभकमं जन्यादष् का फल स्वगप्रापति-स्वर्गवास अवदयंमावी है दी–इसमे चिन्ता व्यर्थ है | तुलना-युख्त्वं लोकानां निजगुणगणेरेव सततं । सुखं, भव्याकान्तिः प्रभवति तनुस्थे सुरगुरोः | व्रजंति द्रव्याणि व्ययममितभोगेनकृतिभिः। गतिश्वांते चिन्त्या मुरहरपुरे तस्यभविता | नोवनाथ अथे–जिस मनुष्य के जन्मसमयमं वृहस्पति द्यम हो उसे अपने गुणसमृह से ही सर्वदा लोगों मं गुरुता ( शरष्ठता-बड्प्पन ) प्राप्न होती है । वह सुखी होता ह । उखका सरूप मनोहर होता दै । वह विविध प्रकार के मोगों मं धन का खव्वं करता है । जीवनयात्रा के अन्तमं उसे विष्णुटोक की प्राप्ति दोत्तीहै। शुरहरपुरः समासात शब्द का पदाथं मुरदैत्य के नाशक अर्थात्‌ (मुरारि विष्णु का पुर–अर्थात्‌ छोकः = विष्णुोक हे । तनुभावगत वृहस्पति के श्चुमप्रभावसे जातक को विष्णुलोकः की प्राति होती है यह समुचित अथदहै। महनारायण तथा जीवनाथ दैवज्ञका संकेत सकाम शुम कर्मो की ओर है कामना सहित किए गए श्युभकर्मो का फल स्वरम वां विष्णुलोकः प्राति हे। मोक्षप्राप्तिकेल्एितो निष्काम कर्मों का करना अत्यावदयक है– छभकर्मो के करने से अतष्करण की अद्धि होती दहै। तटन्तर साधनचतुष्टय सम्पत्ति के प्राप्त हो जानेसेज्ञान होता रै ओौर ज्ञान का फर मोक्ष है। ““विद्रान्‌ । वराहमिहिर अथे-तनुभावस्थ गुरु प्रभावान्ित जातक (पंडितः होता है| “शोभावान्‌ सुकृती चिरायुरभयो ल्रे गुरौ सात्मजः मभंत्रेश्वर

यु न “~ ~ नाय ` =

बह स्षविफङ २६७

अथे–यदिल्प्रमें ब्रहस्पति होतो शोभावान्‌, सत्कर्म करने वाल, दीर्घायु ओौर निभ॑य होता है । इसे पुत्रयुख भी प्राप्त होता दै ।

“विद्वान्‌ व्रपेज्यः सुतरामुदारो दारादि सौख्यस्तनुगो गुरश्चेत्‌ ।।» जयवेष

अथ-जातक विद्धान्‌, राजपञ्य-भत्यंत उदार, स््री-पुत्र आदि के सुख से

युक्त होता है ।

ख्ये गुरौ सुशील प्रगस्भो रूपवानपि। ॥ चृपाभीष्टश्चनीरोगी ज्ञानी सौम्यश्चजायते > काश्लीनाथ अथं-जातक सुशील, प्रगद्भ, रूपवान्‌, राजप्रिय-नीरोग-स्नी तथा सजन होता है | | ‘होरासंस्थे जीवे सुशरीरः प्राणवान्‌ सुदीघायुः । खुसमीक्षितकायंकरः प्राज्ञो धीरस्तथायश्च ॥* कल्याणवर्मा ,. अथं–जातक सुंदर शरीर वाला जली-दीर्घायु-विष्वार पवक काम करनेवाखा, डित, धीर भौर श्रेष्ठ होता दै। ८“जीवे लम्नगते चिरायुरमर ज्ञानी धनी रूपवान्‌ 1” वदनाय अर्थ-जातक दीर्घायु-निमंरचित्त, ज्ञानी, धनी सौर रूपवान्‌ होता दै । °धिन्यासमेतोऽभिमतो हि .राज्ञां प्राज्ञः कृतस्चो नितरामुदारः । | नरोभवेचारुकलेवरश् तनुस्थिते चित्रशिख॑डिसूनोौ ॥ दण्ठिराज अथं-जातक विद्याभ्यासी, राजमान्य-कृतल्ञ; अत्य॑त उदारचित्त ओर सुंदर शरीर.होता है । ^धविविधवख्रविप्णं ` कठेवरः कनकरत्तधनः पियदरानः नरृपतिवंशजनस्य च वछ्छभमो भवति देवगुरौ तनुगे नरः ॥ मानसागर थे– जातक सदा वसन तथा आभूणों से युक्त-सुवर्ण-र्ादि धन से पणं सुंदर स्वरूप-तथा राजकु का प्रिय ` होता है । (“जीवो टयेयदिवा केन्द्रगः । तस्यपुत्रस्य दीर्घायुः, धनवान्‌ , राजवछ्छमः । परश्चर थं– जातक दीर्घायु, धनी, राजा का प्यारा होता है। इसका पुत्र दीघायु होता है । (सुख कांतिदाः स्युः भयम्‌ ।।*` वशिष्ठ थ– सुखी ओौर कांतिमान्‌ होता है । इसे भय होता ह | “कविः सुगीतः प्रियदशनः श्चुचिदाताञ्य मोक्ता वरपपृजितश्च | सुखी च देवाचन तत्परश्च धनी भवेद्‌ देवगुरौ तनुस्थे। गरर्धनुषि मीनेच तथा कर््रटकेऽपिष्व, लग्र त्रिकोण केन्दरेवा तदारिष्ट न जायते॥ तनु स्थानगते जीये गौरवर्ण तनु भवेत्‌, वातशछेष्म शरीरे बाल्ये सुख संपदः । मिथ्यापवादजा पीडा शत्रणां विषदायिका, राजतो मानमवुकं धनप्राप्निरनेकधा ॥ गगं अथं–जातक कवि, गायक, सुंदर, पवि्र-दानी, घृतपक्रपदार्थभोक्ता, राजमान्य, सुखी-दैवपूजक ओर धनी होता है । यद गुर यदि ख्यम्मे, त्रिकोण

२६८ चमटकारचिन्तामणि का तुख्नातव्मक स्वाध्याय

मवा क्न्द्रमें दो, धनु, मीन वा ककं राशिमेंहोतो अरि नदीं होता है। जातक का दारीर भौर वणं गोरा होता है-शरीरमें वात भौर छेष्मा के रोग होते ह ! व्वपन में सुख मिक्ता है । चटी अफवाहों से कष्ट होता है । जातक रातरुओंँ के किए विषवत्‌ कष्टकर होता है । राजा से मान तथा धन मिलता है । “(क्ररदष्टिसमायोगे व्यथा काचित्‌ प्रजायते योयोविघ्नःसमुत्पन्नः स सब्रश्च विनदयति+। स्थिरप्रकृतिदः प्रकृत्या समवेद्‌ बृद्धो मान्यः सवंजनेषु च ॥ जातककलानिषि

अथे जातक को क्रूर ्रहकी टष्टिसे कुछ व्यथाहोतीदहै जो भी विघ्र हो गुर से उनका तत्काल नाश होता दै। स्वभाव स्थिर होता है। स्वभाव से प्रौट प्रतीत होता है तथा सर्वनन मान्य होता है।

"”विद्यासमेतोऽऽमिमतो हि राज्ञा प्राज्ञः कृतज्चो नितरा मुदारः | नरोभवेचार्‌ कलटेवरश्तनुस्थिते देवगुरौ वलाव्यः | ॥ व्रहदथबनजातक अथ–जातक विद्रान्‌-राजप्रियः; बुद्धिमान्‌; कतज्ञ-अत्यन्त उदारचित्त, सुद्र शरीर आौर बली होता दै। प्रजामष्टमवत्सरे सुररारः| आवै वर्षं संतान होती हे । “भयदा देवपृञ्यो विङ्ग्ने नराणां जनैः पृञ्यते भुज्यते नो कदन्नम्‌ । शरीरं द्दृ कोमलं कांतियुक्तं मनधितितं नैव व्यक्तं विधत्ते | जागेश्वर अथे–खोग इसका आदरमान करते है यह अच्छा उत्तम भोजन खाता दे इसका शरीर ददु-कोमल ओर मनोहर होता है । यदह अपने भाव पने मन मेही रखता दहे, ““लब्मस्ये च द्वितीये वा जीवे स्यान्‌ मघुर पियः। मधुरं व्वनं वक्ति सत्यं सवंहितावहम्‌ | पुंजराज अथ–यह मधुर प्रिय होता है यह सवेलोकदितकर, सत्य भौर मधुर व्वन बोलता है | ध्मृगराशि परित्यज्य स्थिते रने वृहस्पतिः । करोति स महीपालं धनपो वा भवेन्नरः। नारायण अथे- मकर को छोड़कर किसी दूसरी राशिमेगुरुख्नमें होतो जातक यातो राजा) वा बड़ा धनी होता दै । ““छग्नस्थे सुरराज मंत्िणि नरो यजप्रतापौ भवेत्‌, विद्यावाहन भोग भूषण धति प्रज्ञाप्रभावाधिकः | ख्यातो वंशधरादिको गुणगणैः संत्यक्त ॒वैरोबली, गौरांगः सुभगः !सुभामिनियुतोदीषांयुरारोग्यवान्‌ ॥” हरि वंज्ञ अथं–जातक राजा जैसा प्रतापी, विद्वान्‌, वाहनयुक्त-भोगी, परैर्यवान्‌ , बुद्धिमान्‌ › प्रभावी, प्रसिद्ध कुक मे उत्पन्न, गुणी; निर्वैरः गोरा, बुन्दर, भच्छी स्री का पति, दीर्घायु तथा नीरोग होता दै ।

ब्रह स्पतिफरु २६९

“लोके वेदे’ परसिद्धाः सकरफलहरा नीचगामपापखेगः ।

स्वोचा नैवप्रशस्ता विमल्फलदरा रधरिमप्फारियुक्ाः ॥

जीवः स्वस्थानदहंता वदति मुनिवरोरष्टिरस्यप्ररास्ता।

सौरिः स्वस्थानपालः परभभयकरी टदष्िरस्यप्रणष्टा ।।

तत्वप्रदीषजातक

अथ- नीव राशि के रह सभी फल नाश करते ह । उचचराशि में हो

| तौमी यदि षष्ठ-अष्टम वा व्ययस्थानमें होतो संपृणं श्चुभफल का नाश करते | है । गुरु स्वस्थानकेफरका नादाक होता है। किन्तु गुरु की दृष्टि जिस पर होती दै उस स्थान की बृद्धि होती है अर्थात्‌ उस स्थान के फल अच्छे

मिरते दै । शनि जिस स्थानसे होता है उस स्थानी बृद्धि होती दै, फल अच्छे मिलते ई । किन्तु शनिकी दृष्टि बहुत भयेकर होती दहै जिस पर यदह दृष्टि पड़ती दै उसके फलों का नाश्च होता हे ।

भ्रगुसूत्र- स्वक्षेत्रे शब्दशास्राधिकारौ । चिवेदी, बहुपुत्रवान्‌ , सुखी, चिगयुः, श्ञानवान्‌ । उच पू्ण॑फलानि । षोडशावषे महाराजयोगः । अस्नीष्दपापानां कषत्रे पापयुते वा नीष्व कम॑वान्‌ | मनश्चल्त्वान्‌ , मध्यायु: पुच्हीनः, स्वजन- परित्यागी, कृतध्नः, गर्विष्ठः;, बहूजनदेषी, व्यमिचारवान्‌ संष्वारवान्‌, पाप क्टेश भोगी ॥

अथेः– जन्म ल्मे गुरु हो गौर अपने स्थान ( धनु-मीन › मे दहोतो ग्याकरणशाख्् होता है । तीनों वेदों का जाता है । इसके पुत्र वहत होते ई । यद. सुखी, दीर्घायु ओर ज्ञानी होता है। यह गुरु उमे होतो श्चमफल पूरे मिते है । सोलदर्वे वषं मे महाराजयोग होता है । अर्थात्‌ बडे मधिकार की | प्राति होती है । यह शतुग्रह की रारिमे, नीष् राशि मे, पापग्रह की रािमेदो वा पापग्रहकेसाथदहोतो जातक नीचकमकती तथा चंषलमन का होता है। मध्यायु होता हे । पुत्रहीन होता है । पने लोगों से प्रथक्‌ हो जाता ईै। कृतघ्न, गर्वीय, बहुतो का नैरी, व्यमिचारी; मटकनेवाला अपने किए हुए

ऋ,

पापों का फठ मोगनेवाडा होता ₹।

पाश्चात्यमत-यह सुन्दर ओौर नीरोग होता है। यह गुरु अग्निराशिमें हो तो उदार, धेयंशाली, स्नेहल्-विजयी; मित्रो से युक्त, अभिमानी होता है । यह प्रश्वीरारिमं होतो स्वार्थी यमिमानी, विश्वासु, मदद करनेवाला, होता है | यह जल्राशिमेंदहोतो रेश करनेवाला खिलाड़ी, पैसे की किक्र न करने- वाला; धनप्राप्त करनेवाला; ओौर उदार होतादहे । यह वायुरारिमेद्ोतो न्यायी; उदार, समतो आष्वरणल का,” नि॥पक्षपाती, विश्वासु, हरएक की मदद्‌ केरने के लिए तत्पर रहनेवाखा दोता है। सामान्यतः लनम किसी भी रा्चि म रुखुहो तो वह व्यक्ति उदार; स्वतंत्र, प्रामाणिक, सम्ब बोलनेवाला न्यायी

२७० चमत्कारचिन्तामणि का तुरखुनार्मक स्वाध्याय

धाभिक तथा कार्तिप्राप्त करनेवाला अौर श्चभ काम करनेवाला होतार इसका भाल वडा ओर तेजस्वी दिखता है । विचार ओर अनुभव–“धोडशवर्पे महाराजयोगः । यह सूत्र भृगुसुत काहे । यह प्राप्वीन भारत के उससमय का स्मरण कराता है जब षोडशवर्षीय वयस्क माना जाता था । पोडरावर्पौय युवक वयस्क होते हुए समी प्रकार का उत्तरदायित्व रखता था | उस समव महाराज का पुत्र महाराज्ञ योगः का लाभ उठा सकता था अ्तन परिस्थिति इसके प्रतिकूल ह । आधुनिक न्याय अष्टादश वर्षाय युवक को वयस्क मानता है-इसी युवक को मतदान का अधिकार प्राप्त हे-““महाराजा का पुत्र महाराज हयी दोगा क्योकि वह्‌ उत्तराधिकारी है-इसीतरद रजाका पुत्र राजा होगावा राजपुत्र होगा इस मान्यता की जड़ प्रायः खोखली हो चुकी दै । यह प्रथा प्रायः नाममाव्रावरेष होती जा रदी है । एेसा क्यो १ क्योकि इस प्रथा के विरोध मे लोकमत है, भौर राजस्ता भी इसप्रथा को मत्रिष्य मेँ जीवित रखने के लिए सहमत नहीं है। प्रायः भावना यही कि ऊच-नीच का मेद्‌ कृतिम ओर बनावदटीदै। सभी वर्मं एक समान है। ‘‘समव्वं ब्रह्म उच्यते” की भावना बल्वती होती जारही है । इस परिस्थिति में ‘महाराजपद का अर्थं उपार से वड़ा अधिकारप्राप्त व्यक्ति-महाधनी” करलेना उचित होगा | उ्योतिषग्रन्थ उस्र समय में टछ्खि गए ये जिच समय ‘राजा-महा- राजा आदि दान्दांका वर्तव यथाथं वस्तुस्थिति को द्योतित करता था । तब -महाराजयोगसार्थक था | आयवे वधं संतति होती दै । यह मत वृहद्यवनजातक का है। युवक अर युवति वयः प्राप्त होकर यदि विवाह करते ह तभी-परिणय के कुछ समय वाद, सन्तति का होना सम्भव है। आर्ठ्वे वषं में सन्तति-उत्पादन का सामथ्यं भौर योग्यता ही नदीं होती तो यह सन्ततियोग भी अनुभव में नहीं आ सकता ह । मानवी मैथुनी उषिकरम मे रेखा होना सम्भव नदी-मानसी खि कौ कस्पना ही इस युग मेँ भखम्भावनाग्रस्त है । शास्त्रकारा के श्युभफक मेष, सिह; धन, मिथुन ओर मीन राशियों के रै । अद्म फक इन राच्या से भिन्न दूसरी राशियां के ई । देष-कन्या, मकर) कुम्भ-वृध्चिक राशियाँ में ख्यमाव का गुर दोतो आयु के उत्तराध मँ वातयेग होने सम्भवर्है। जिन व्यक्तियों का गुरु मिथुन वा ठुलारारि मे हो उसका रंग गोरा होता है ओर शरीर भी अच्छा होता है। यदि गुरु मंगल या शक्र के अश्चम सम्बन्ध में, कर्कराशिमं होतो ग्यभिचारी-दुराचारी होना-व्यसनासक्त हो जाना-नीचकर्मो मे मनोहृसि का होना आदि-आादि अनिष्टफट अनुभव मेँ भाते है यदि धनु भौर मीनमे गुरहोतो संकटनष्ट होते है-ककःल्य्में गुर हो तो संकटों का अनुभव बार-बार होता रहता दै । ।

बृहस्पविफङ २७१

यदि मेष, सिह-तथा धनु च्य्मेगुरुदहो तो ञ्चुमफलों का अनुभव आता है । व्यक्ति स्वभाव से उदार होता है। खोककस्याण इसे बहुत प्रिय होता हे । इस गुरु के प्रभाव में आए हूए व्यक्ति अपठित भी पठित ही प्रतीत होते ईै। ये व्यक्ति यदि प्राध्यापक वकील-वैरिर्टर-जज-गायक कवि -आदि होवेरहैतो इन्दे यप्राप्ि दोती है।

मेष; मिथुन, ककं, कन्या-मकर को छोड़ अन्य व्योम गुरुहो तो व्यक्ति भव्य माक का, विनोदी स्वभाव का, किसी विरोष हावभावसे बातं करने वाखा होता दहै।

मेष वा सिह ल्मे गुरुके होने से सन्तान मध्यम प्रमाणम होती दहै। धनु लग्न मे सन्तति नहीं होती इष भौर कन्याल्यमें सांसारिके सुख में कमी रहती है । व्यक्ति हदी-स्वार्थी तथा अहमन्य होते है। अपना स्वार्थं मुख्य है-यही इनकी धारणा दै इसके अनुसार दूसरों कौ सहायता करते ई । ,.

वृष, कर्क, कन्या तथा बृिक रादियों मे यदि गुर होता है तो बहुभोजी होते दै । गुर यदि मकरमें होतो प्रायः गाना-बजाना; नारक-तथा पटने की ओर इचि रखने वाडे व्यक्ति होते ईै-मीन का गुर व्यक्ति को वाङ्मय साहित्य का उपासक बनाता है। ।

गुर यदि बृष-कन्या, वला; मकर, कुम्भ व्रं मे होता दै अनिष्ट फल- दायक होता है । गुर यदि वृष; कन्या; दुख रारियोंमें होता दै तो अस्प धन प्रापि होती है। मकर ओर ऊुम्भ मे डा अभिमान अधिक मात्रामें होता है । सन्तति ओर धन-इन दोनो मे एक कीही प्राति होती दहै। ककं अर बृथिक लग्न में स्थित गुर से व्यक्ति अच्छेस्वभाव का, निर्दयी ओर क्रोधी होताहै। क्न मिथुन राशिमें गुरुोतो प्रथम युम दुःख भौर उत्तर आथुमें सुख होता है। मिथुन, वला; कुम्म ल्गनमं रुरुकेद्ोनेसे व्यक्ति निथिन्त भौर वेफिकर रहने वारे होते दै इन्दे आर्थिक कष्ट नदीं होता-इनका पेम सम्बन्ध सभीके साथ बहुत साधारण साहोतादहै।

मीन ल्म मे जिनके गुरु होता ह वे व्यक्ति विश्वव्यापिनी दृष्टि से व्यवहार करते है । वरिष्टजौ के मत के अनुसार गुर य॒दि केन्द्र वात्रिकोणमें होता है जो सखो दोषों को नष्ट करता है किन्तु इसके विपरीत स्थान हानिकरो जीवः स्थान वृद्धि करः शनिः । ेसा भी मत है । लस्य गुर हर चछ्टे वषं वा हर रदरव वर्षं विपत्ति कारक होता है धनदातान होनेसे घनसे दुर होने वाठे संकट बरा्रर चने रहते दै । गुरु महाराज ज्ञान ओौरविन्याके कारक ग्रहै | ज्ञानी भौर विद्यावान्‌ खिता की दक दल मँ सदैव फसे ही रहते द-भौर इनका जीवन कटकभेय होता दै। मेष-कक-तुलख-मकर ठ्य गुरु होने ते नीच ल्रीगामी होते ई। वृष, सिह; बृधिक तथाकुम्भ च्प्रमे यदिगुखदोतो निश्रवर्मं खीगामिता दोष नहीं दोता। पिशुनः कन्या, धनु, मीन च्मरमें र्ख्दो तो व्यक्ति वय मेँ शरेष्ठ कुटीन परक्रीया से सम्बन्ध जोडते ई।

२७२ ‘वमत्कारचिन्तामणि का तुरखनाव्मक स्वाध्याय

लद्मस्थ गुर के फठस्वरूप माता-पिता दोनो मंसे एक की मृत्यु बचपन मं सम्भव दहे इस स्थान का गुर द्विभायायोग करता दै। विवादहाभाव योग भौवन सकतादहै) डाक्टरोके लिए ककं, वृधिक तथा मीनल्य का गुस म हवे के लिए मिथुन, तुला भौर कुम्भव्यका गुरु श्चुभदहै। यह योग वकीलांके लिए भी सच्छा रै। ल्स्थगुरु पुलिस, सेना-मावकारी विभागों मंकाम करने वार्खोके ल्एि नष्टदहै। रसे गार वालों केलिए ये विभाग लामकारी नहीं होगे । रिष्चा-विभागमें जाने वाके व्यक्तियोंको लद्यस्थ रुद शष्ठ दहे । ल्द्मस्थ गुर कुम्भे होतो विज्ञान के लिए, तथा मीन, मकर सिह ल्य्रमेदहोतो माषा भौर सािव्यके प्रोफेसर होने के लिए अनुकूल चभ फलदाता हे | द्यस्य गुरु अद्म सम्बन्ध का अच्छा फठ नहीं देताहै। यस्थ गुरु चन्द्रयुति का फलमी नेष्टदै। ख्यस्य गुर का फल साधारणतः अच्छा हे परततु कष्ट भी करता हं । परन्तु यह कष्ट किसी तरह निम जाता ३ । द्वितीयभावस्थ गुरुषूटम्‌ कवित्वेमतिः दंडनेतृव्वदाक्तिः मुखे दोषधृक्‌ शीघ्रभोगांएव | कुटुम्बे गुरौ क्टतो द्रव्यखव्धिः सदा नो धनं विश्रमेद्‌ यल्लतोऽपि ॥ २॥ अन्वय–गुरौ कुडम्वे ( स्थिते ) कवित्वेमतिः, दंडनेवतरत्वशक्तिः, मुले दोष धृक्‌ ; शीत्रमोगात्तः एव ( शीघ्र मोगांत एव इतिपाठंतरम्‌ ) ( स्यात्‌ ) ( तस्य ) कृष्टतः द्रव्योपन्धिः ८ स्यात्‌ ) सदायलतः अपि धनं नो विश्रमेत्‌ ॥ २॥ सं° टी–कुदम्वे गुरौ द्वितीये सती कवित्वे काव्यकणे मतिः, दंडने- वत्वराक्तिः श्रपाधिकार्‌ करणे साम्य, मखे दोषधृक्‌ वाचालो वातरोमी वा, शीधभोगांतः सुरतांतः यस्य अल्पवीर्य॑त्वात्‌ , सदाकष्टतः प्रयासेन द्रव्योपटन्धिः स्यादिति दोषः । सदैव यलतोऽपि धनं नो विश्रमेत्‌ › स्थितिं नो ल्येत्‌ ॥ २॥ अथे–जिसके जन्म ल्य से द्वितीयभाव मँ वृहस्यति दो उसकी बुद्धि उसकी स्वाभाविक रुचि काव्यदास्र की अर होती है-अर्थात्‌ वह्‌ कवित शक्तिके होनेसे स्वये कविता करता है भौर अपना आयुका विरोष भाग दूसरे कविर्यो की रचनाओं के प्रटन प्राठन मे-उनके पर्ीलन मे लगाता जिससे उसे आनन्द की प्राति होतो दै । कवित्वं शक्ति का होना पूर्वजन्मङत्‌- पुण्यपुज्ञ का सर्वाह्कृष्ट फ दै। कवि की शक्ति सष्टिर्वयिता त्या सेभी वदु चद्‌ करहे। ब्रह्मा सृष्टि क्रममे समयानुक्रू दी छः ऋतुसो का सृजन कर सकता है। परन्तु कवि जव वचादे छः तुभों का खृजन कर दिखाता दै ब्रह्मा कौ भान्ति काखपेश्ची नदीं है। अतएव नारायण भट्रने कवितश्चक्ति को प्राथम्य दिया दै-कवि रेते आनन्द को मूर्तिमय खड़ा करा देता, सदयो के हृदयम से सस को सशरीर यास्वादन करादेतादै, जिस रस ओर आनन्द की तुलना ब्रह्मानन्द से की गई है। श्रद्यानन्द्‌ सहोदरः” सा साहित्य वचन है |

१८ जहस्पतिफर २७३

द्वितीयभाव का ब्रहस्पति दंडनेतृत्व शक्ति भमी देता हे-जो मनुष्य राञ्या- धिकार चला खकता दो उसे दंडनेता कष्टा जाता है-यह शक्तिः राजा की होती है | राजा ही निग्रह-अनुग्रह-श्ति, सम्पन्न होता दै । इसी राक्ति का उपयोग- जज-गोजिष्टरेट-न्यायाधीड भादि करवे है । ये मपराधौका निग्रह करते अर्थात्‌ उनके अपराध केः अनुखार उन दण्डित करते ईै-भौर जो प्रजा के रोग रषटीयविधानानुकू अपने जीवन को चलाते ह-भौर प्रजाहित के कामो में विरोष भाग ठेते ईै-ये दण्डनेवरत्वशक्तिसपन्न न्यायाधीश आदि उन पर भनुग्रह करते है अथात्‌ प्रसन्न होकर इन लोगों को श्चमक्मो की ओर प्रदृत्त करने के किए उत्साहित करते है । उक्कृष्ट पदवि्यो देते ई ।

द्वितीयभावगत बृहस्पति के प्रभाव मे उत्पन्न व्यक्ति वाचाल दोता ६ै- बोलने में प्रगस्भ॒दोता है; अथवा वह वक्ररोगी होता है । बहुत ` बोलना, वा भूक होना-दोनों ही जिह्वा के दोष है । द्वितीयभावगत गुरुप्रमावान्वित व्यक्ति शरीर म कोमल होने से, दद्द्यरीरशक्ति के अभाव मे रतिप्रिया कामिनीके साथ रतिप्रसंग मे विजयी नहीं दोता-क्योकि अस्पवीर्य॒दोता है । ओौर दीधेकाल- वधि-अस्खलितवीर न रहने से-अर्थात्‌ मेथुनक्रिया मे शीघ दी स्सटितवी्ं हो जाने से किन्नमना होता है-भानन्द-प्राप्ति तो होती दही नही, उल्टे मानसिक दुःख-मानसिक खेद होता है; क्योकि उसके विषयोपभोग का खातिमा (अंत) एकदम हो जाता है । कहना न होगा किं एेसे पुरुष की पतनी उसे भन्तरिकः- घृणा-दष्टि से देखने ख्गती है ।

द्वितीयभावगत बृहस्पति से प्रभावान्वित व्यक्ति को धनार्जन करने के ङिए एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है । बड़ी कठिनता से अर्जित घन यल करने पर भी स्थायी नदी होता रै-अर्थात्‌ आर्थिकक्ष्ट बनाद्धी रहतादै। , भारी मात्रामें धन की प्रापि ओौरधरमें धन का संग्रह ओौर तकत आर्थिकः कष्ट ते मोक्ष, ये फट द्वितीयस्थगुरु के नदीं ई ।

तुखना– धनस्थे काव्यानां सरसरवना चारुपटता- ऽधिकारी दंडानां प्रवरवसुधापाल्सदने | सदायासादर्थागम उतजनानां मुखरता खमेन्नो लोकेभ्यः स्थितिमपि धनं वासवगुरौ ॥ जीवनाय

अर्थ- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे ब्रहस्पति धनभाव में हो उसे सरस- सुद्रकाग्य के निर्माण में पडता दोती है । वह शरेष्टराजा के दरवार मेँ (८ अपराधी जनों को) दंड देने का अधिकारी होता है-अर्थात्‌ मैजिष्टरेट-कल्क्टर आदि न्यायाधीश होता है । इसे प्रयल से धन कालम होता है-वह रोगों के वीच सभा मे अधिक बोल्ने वाला होताहै। परचणखोगोंमे प्रतिष्ठातथा धनकी स्थिति नदीं होती रै । अर्थात्‌ लोगो की दृष्टि मे यह एक प्रतिष्ठित व्यक्ति नहीं होता दै ओर इसे रोग धनवान्‌ मानते ई । | |

२७७ चमत्कारचिन्तामणि का तुरख्नात्मक्‌ स्वाध्याय

““सुवा क्यः? वराहमिहिर

अथ-दसकी वाणी अच्छी होती दै-अर्थात्‌ यह मितभाप्री यथां ओौर मधुरभाषी होता ह । ‘“धनेजीवे धनीटखोकः कृतस वंधुसयुतः । गजाश्वमदहिषीयुक्तः कान्तिमानपिजायतेःः |¦ काशीनाथ अथे- यह व्यक्ति धनी, ऊृतक्ञ, भाई-वंधु्भोवाला ओर शरीर मे कांतिमान्‌ होता हे। इसके पास हाथी, बोडे-मेसे होती है, अर्थात्‌ यह पश्चुधनसेभी घनाठ्य होता हे । “वाग्मी भोजनसारर्वँश्च सुमुखो वित्ते घनी कोविदः | मन्त्रेश्वर अ्थ- यदि दवितीयम बृहस्पति हदो तो बुद्धिमान्‌, सुंदरसुखवाला, ओौर वाग्मी ( बोल्ने में कुशल ) `दोता दै। एते मनुष्य को उत्तम भोजन प्राप्त होते है । अर्थात्‌ द्वितीयभाव में जो-जो बातें देखी जाती है उन स्का सुख प्राप्त होता है। “त्यागी सुीला कृतिधीः सुविन्यः संव्यक्तवैरः सधनः धनेज्येःः || जयदेव अथ– यह दानी, सुखील, सुन्दर, बुद्धिमान्‌ ; विव्यावान्‌ , निर्वैर-सवजनप्रिय, ओर धनाढ्य होता है । | “सुरगुरौ धनमंदिरसंस्थिते प्रमुदितः रचिरप्रमदापतिः। भवति मानधनो बहूमौक्तिकागतवसुभविता प्रसवाहिके” ॥ मानसागर अथे- यह हृष्ट रहने वाल होता है इसकी पलनी सुन्दरी होती दहै | यह मान-प्रतिष्ठा को ही घन मानता है; यह मोतियांँ के व्यापार से धनवान्‌ होता है । “वाग्मी मोजन सौख्यवित्तविपुलस्त्यागी धनस्थे गुरोः ॥ वेनाथ अ्थे- जातक बोलने में कुशल, उत्तमभोजन का उपभोग करनेवाला, घनी, तथा उदार होतादहै। “धनवान्‌ भोजनसारो वाग्मी सुभगः सुवाक्‌ सुवक्त्रश्च । कल्याणवपुस्त्यागी सुमुखो जीवे भवेद्‌ धनगे ॥ कल्याणवर्मा अथे- यह धनौ, उ्तमभोजन खानेवाख; बोलने मेँ ष्वतुर, सुन्द, मधुर- भाषी, सुमुख, सुदरश्रीर भौर दाता होता है । . सद्रूप ॒वियागुणकीर्तिथुक्तः संत्यक्त वैरोऽपि नरो गरीयान्‌ । त्यागी सुशीलो द्रविणेनपूर्णो गीर्वाणवये द्रविणोपयाते” ॥ दुण्डिराज अथे- यह सुंदर, विदया-गुण कीर्तिं से युक्त निर्वर अर्थात्‌ शनुददीन, श्रे्ठ-दानी, सुशीक तथा धनाव्य होता है । “लक्ष्मीवान्‌ नित्यसुत्सादी धनस्थे देवतागुरौ। बुधे च॒ निःस्वभ्स्यादिति सत्ये प्रभाषितम्‌ ॥ भोमक्षेत्र यदाजीव षष्ठाष्टमदितीयकः | _. घटः वर्ष भवेन्‌ मव्यु्जीतकस्य न संशयः? ॥ गं

ल्ह स्पतिफल २७९

अथै– यदह धनवान्‌ , सदैव उत्खादी होता है । यदि इसपर बुध की दृष्टि

होतो व्यक्तिनिर्धन होता दहै। मेषवा वृश्चिक राशिमं गुरु, दुसरे; छठवें

वा आयवे स्थानम दहो तो बालक की मृत्यु च्टवें वषमे होती है। “शुरो धने ऽथवा इष्टे धनधान्यसुखं भवेत्‌ | विद्याविनयसंपन्नो मान्यः सवस्य जायते” | जातकरत्नाकर अथे- गुर धनस्थान में हो, वा इस स्थान पर गुरु कौ दृष्टि हो तो घन- धान्य का सुख मिलता है । यह व्यक्ति विद्या-विनययुक्त होता है तथा सबलोग इसका आदरमान करते ई | | नानाविधे धनचयं कुरुते धनस्थः | व्िष्ठ अथे–धनस्थ गुरु अनेक प्रकासे से धन का संग्रह भौर संचय करवाता दै । “सदूरूपविद्यागुणकीर्तियुक्तः संत्यक्त वैरो नितरां गरीयान्‌ । त्यागी सुशीलो द्रविणेन पूर्णो गीर्बाणवचे द्रविणोपयातेः” ॥ बृहद्‌ षवनजातक अथं–जातक रूपवान्‌ , विद्धान्‌ , गुणी, यद्यस्वी, वैरदहीन-शवुरदित; शरेष्ठ, दाता, सुरी तथा धनान्य होता है। २७र्वे वषं राजासे आदर पाता रहै । ““गुरुभद्वि भूपमानम्‌?* । “सजीवे धने काभ्यङ्ृष्ृष्वंचरो वै घनं तस्य वग विरोघस्तदानीम्‌ । परंशत्रवः प्रौटतां संप्रपन्नाः सुरूपं तथा भामिनीरंजितोऽयम्‌? ॥ जभेश्वर अथे-यह काव्यकर्ता, पंचल, धनी स्ववगं विरोधी, स्वयं न्दर तथा सुन्दरी स्त्री से संतुष्ट होता दै 1 किन्तु इसका रात्रुव्गं बटृता है | ध्दानी दीनदयाकरो नरवरो ज्ञानी गुणज्ञोगुणी- निर्लोभी निरुपद्रव च विनयी सत्संगमी साहसी । विद्ाभ्यास्ररतो विवेकसहितो युक्तो महिष्यादिमि- नानावाहन वित्तसंचयपरो वित्ते सुरेज्ये भवेत्‌? ॥ हरिवंश अथे–जातक दानी, दीनदयाड, ज्ञानी, गुणक्त, गुणी, निभ, निरूपद्रवी; विनम्र, सत्संगी, साहसी) विव्याभ्यासी विवेकसंपन्न, भसं आदि पञ्चु-घनयुक्त) अनेक प्रकार के वाहन-हाथी, घोडे, मोटर आदि से युक्त तथा धनस्य करनेवाला होता है । “धनस्थानगते जीवे धनी भवति वालकः । सर्वाधिराजः सुरराज मन्त्री | कर्थप अथं– जातक धनी अौर स्वाधिकार प्राप्तकर्ता होता है, शधन लाभं तथारोग्यं प्रमोदो वंघुवगंतः | प्रचडेः सदृदां भोगो देवेव्ये धनगे भवेत्‌? ॥ नारद अर्थ-घनखभ-नैरोग्य, वंधृओं से आनन्द प्राप्ष होता रहै-उत्तम उपभोग प्राप्त होते ई । ‘कोशस्थे चेद्‌ देवपूज्ये वाणी सः स्यात्‌ परषः सौम्यवक्त्रः” । पुंजराज अथे– जातक भाषण मेँ कुशल, तथा प्रसन्नमुख होता दै ।

२७६ पवमरकारचिन्तामणि का तुखनात्मक स्वाध्याय

श्गुसूत्र– धनवान्‌ , बुद्धिमान्‌ उचमाषी । पोडदावषं धनधान्य समृद्धिः । . वह प्राबस्यवान्‌ उचचक्षेत्रे धनुषि द्रव्यवान्‌ । पापयुते विद्या विन्नः । चोरवचनवान्‌ । दुवचाः अचरतप्रियः। नीचयुते पापक्षेत्रे मच्पायी; भ्रष्टः कुल्नाशः। कलत्रं तरयुतः । पुत्रहीनः |

अथे-धनी, बुद्धिमान्‌ ओर कुराल्वक्ता होता है । सोहे वषं धन- धान्य मिक्ता है । बहत बढी होता है । ककं भौर धनुराशि में ह तो धनवान्‌ दोताहं। पापग्रहसे युक्तदोतो रिष्षामे स्काव् आती । चोर, ठग पिथ्यामाषौ; अयोग्यभाषणकता होतादहै। नीचरारिमे, वा पापग्रह की राशि मेहो तो म्रपी, भ्रष्टाचार, कुलनाशक, परस््रीगामौ ओर पुत्रहीन दोता दै ।

पाश्चात्यमत-धन का संग्रह होता है। यद गुर बल्वान्‌ होतो श्रेष्ठ फर मिक्ता है । सरकारी नौकरी, कानूनीकाम, वेक, देवाल्य, धर्म॑संस्था मे यश मिता है । रसायनशास्त्र, ओर भाषाओं के ज्ञान मं निपुणता प्राप्च होती हे । कुटुंब के व्यक्तियों से अर पत्नी से अच्छा सुख मिक्ता हे }

विचार ओर अनुभव–गुर अतिश्चमग्रह है ओर धनभाव का गुर धनदाता है-गतः शास््रकार्यो ने इसका फर धनप्राप्ति बतलाया दहै । किन्तु प्रश्नदहै कि-क्यागुरुका संवंध धनप्राप्तिसे है १ नहींदहै; यदी उत्तर हो सकता है; क्योकि यह ग्रह धन का कारकग्रह नहीं । अनुभवदहै कि चाहे गुर अश्चुम संब॑धमेंनमभी दहो, ओर चाहे पापग्रहसे युक्तन भी हो तौभी धन- भावगत गुर प्रभावान्वित व्यक्ति साधारण स्थिति मंदी रहते र्द-घनस्थानस्थ गुर के व्यक्ति प्रायः भिक्षुक, ब्राह्मण, पाठशालओं मं शिक्षक, प्राध्यापक अथवा ज्योतिषी होते है; ओरये धनी नीं होते-जीवननिर्वाह केलिए इन्द जो कु मिलता है-करिसी से छिपा हुभा नहीं है । वैरिस्टर, वकी ओर जज छोग घनपात्र होते है । यह टीक है, कन्ये लोग साधारण सिति के अपवाद में है । अतः यह धारणा किं धनभाव का गुरु धन देता है-युसंगत न्हींदहै। यह एकमत है । इसी विषय पर दूसरा मत भीहे। इसी विषय पर दूसरे दृष्टिकोण सेभी बिचार करियाग्जा सकता दहै । अत्पधनता अओौर अनस्पधनता-ये शब्द परस्पर सापेक्ष है- तारतम्यता कै व्योतक है; गौर यह तारतम्यता प्रायः सर्वत्र पाई जाती है । इसका कारण प्रत्येक व्यक्ति की वंशपरंपरा, तदवंशीय वातावरण, व्यक्तित्व ओौर योग्यता भादि है । इस तारतम्यता का प्रधान कारण

प्राक्तन जन्मङृत शुमाश्चम कर्मपुंज है-ेता अनुमान है । प्राक्तन जन्मङृत य्भाद्चभकर्म ही अद्पधनता ओौर अनस्पधनता के देतु ह । धनभावगत ब्रृहस्पति धनार्जन करवाता है । परन्तु व्यक्ति को महान्‌ आयास ओर कष्ट उटाना पडता दै-धनार्जन उचकोटिकाभी हो सकता हे-मध्यमकोटिका भी तथा अधमकोटि कामी हो रकता है-दइसका कारण एकमाच्र व्यक्ति का परिभ्रमः यायाख तथा कष्ट होता ईै-जैखा परिभम, वैसा ही फरु-उदादहरण के किएट-एक व्यक्ति का जन्म य्थंत साधारण तथा निधन परिवार में दता है-दसकी जन्भ.

ब्रहरपतिफर ३७७

कुंडली में धनभाव में धनुराशि मे गुर की स्थिति है। कमेव यह ग्यक्ति किसी श्रीमान के घर मं दत्तक-पुत्र लिया गया-वंशपरंपरा के अनुकूर-परिवेष अथात्‌ तद्वंशीय वातावरण के अनुकूल्-अपने बुद्धिवैभव से, अट्ट परिभरम करके, महान्‌ आयास ओर कष्ट से मोतिर्यो के व्यापार से वा अन्य व्यापार से इसने खों रुपए कमाए-लखोँ की संपत्ति भी पेदा की । तदनंतर किसी अंतःप्रेरणा से सारा- धन-सारीसंपत्ति किसी भकमं को प्रगतिशील बनाने के छिए दान करदी ओर अपने को पुनः दखता के गतम डा दिया; क्योकि धन देने से बट्ता नहीं हं विद्यादान कीभांति धन की वदौत्री दान-धमं करनेसे नहीं होती है प्र्युत दीनता र क्षीणता आती है । क्या यह परिस्थिति धनभावस्थ गुरु की सुजन दै १ नदीं मं उत्तर दै। इस परिस्थिति का कारण व्यक्ति का पूव॑जन्मङृत श्चभा- यभ कमपुंज हे-इस परिस्थिति का दोष धनमावस्थगुरु पर थोपा नहीं जा सकता हे-धनमावस्थगुरुनेतो ेसी परिस्थितियों का सृजन किया जिसके कारण एक निधन-परिवार का व्यक्ति एकदिन अनस्पधनी अर्थात्‌ लक्षाधीश सेठ वनगया । अतः प्र॑थकारों की धारणा है कि धनभावस्थ बृहस्पति धन देता है- ठीक दे। इस धारणा को “मिथ्यावादं ओौर उचकोरि की अतिशयोक्ति दै”- एेसा कना श्रान्तिमूलक हे । यह दूसरामत है । जज-वकील ओर वैरिस्टर आदिभी गुरुके उपासक ओर बुद्धिजीवी दहै। रिक्चषक-प्रोफेसर-ज्योतिषौ आदि मी बुद्धिजीवी ै-एक मे अनस्पधनपात्रता है भौर दूसरे मे अस्पधन- पात्रता है, ओर यह तारतम्य उनके पूवंजन्म मे किए हूए सछम-अञ्चम कर्मो का फट दै। दोनों मे से कौन-सामत युक्तियुक्त रै-इसका निणय तककुशचल देवन्ञ कर सकेर्गे । यदं पर यह छिखना भी अनावद्यक न होगा किं जन्मकुडी मे ग्रहों की स्थिति पूवैजन्मकरृत ्यभाश्चमक्मो के अनुसार श्यभ-स्युम भावविरोषों मे होती दै कर्मो के फां का भुगतान कराने के लिएश्चुम वा अश्युम स्थानों में ग्रह अपनी स्थिति प्राप्त करते है|

यदि गुरु मङ्गक के साथ अञ्युम सम्बन्ध मं, मिथुन, वुला वा कुभराशि में हो तो सुखे दोषधृक = मुख में दोष होता ह यह फल अनुभव मँ आता है। गुरुजनोँ से, घर के बड़ों से विरोध करता है-इस फर का अनुभव मेष, सिंह तथा धनु रािमेंगुरुहोतो, होता दै।

कुटव के निवह के लिए धन को आवदयकता होती है किन्तु धन पर्याप्त मात्रा मं नदीं मिक्ता है-इस फट का अनुभव वृष; कन्या, तुला, मकर वा कुभ ख्गनदहोतो मिलता है| भ्रगुसूत्र के अनुसार दूषित गुरु का फल-मयपायी होना, चोरवाठण होना, वाचाट भौर श्रष्टाचारी होना आदि-संमवर्ै, अनुभवमें सा जाव । गुसूत्र मं “पुत्र नहीं होता है” एेसा फर कहा है-इसका अनुभव तव होगा जव गुरू मिथुन, वला वा कुम-वध्या ल्मनमें होगा। यदि लगन पुरुषरारि का हो ओर गुर स््रीराशिमे होतो संतति का मभाव रदेगा । २७ वें वषं राजमान्यता मिकेगो-यवनजातक का यह्‌ फल टीक प्रतीत होता दरै।

२७८ वय व्वछारचिन्वामणि का तुकर्नाष्मक स्वाध्याय

आजकल उचचवर्गा मे आयु के ३२से ३६ व वषे(मे, प्रौट अवस्था मे; विवाह संस्कार होता है! वाल्-विवाह की प्रथा निम्नवगं के छोगों म अभीतक वली आ रही है–उच्वर्गमे विवाह का विदट॑वसे होना-गारुका फल हो सकता है।

धनस्थानगत रुर के फट निम्नलिखित है, अर इनका अनुभव भी होता हैः-“पिता का सुख कम मिलता दै~व्यक्ति के धन का उपयोग पिता नदीं कर सकता है । पेतरकसपत्ति नही होती-हुई तो नष्ट हो जाती है, व्यक्ति द्वारा दत्तक पुत्र ख्या जा सक्ता हे । यदि पेवृकसंपत्ति अच्छी होतो पिता-पुत्र मे वेमनस्य रहता हे-अच्छे सम्बन्ध हां तो दोनों मेँ से एकी धनार्जन कर पाता है-इस भाव का गुरु रिक्षा क लिए अच्छा नदीं है, शिक्षा अधूरी रद जाती है । अपने दी लोग निंदक हो जात ह | उपकर्ता का विरोध करते है| `

जिस व्यक्ति कायुरु मेषमेंदहोता है उसकी वाणीम कटोरता होती दहे। वरप, सिह; वृधिक ओर कुम मं गुखदहो तो व्यक्ति सदैव आर्थिक कष्टम ग्रस्त रहता हे। धनुमेंगुरुहोने से दान-धर्म के कारण अस्पधनता होती है। इस राशि के गुरु के कारण पेवरृकसंपत्ति नद्यं मिलती है |

धनमावगत गुरु यदि ककराशिमेंदह्ोतो साधारण दरिद्रता की अवस्था रहती है । धनस्थान मे मेष, सिह, धनु; मिथुन, तखा, कुंभ मे गु के फट

स।धारणतः अच्छे होते है। स््रीराशिर्थो में साधारणतः मधभ्यमकोटि के फल मिलते ई ।

तृतीयभावस्थ गुरुफल-

भवेद्‌ यस्य दुिक्यगो देवमंत्री रघूनां खघीयान्‌ ;, सुखं सोदरा णाम्‌ । छरतघ्नो भवेन्‌ मिच्र सार्थे न मैत्री ठखाटोद येऽप्यथेखाभो न तद्वत्‌ ।॥ ३॥

अन्वयः- यस्य देवमंरी दुधिक्यगः मवेत्‌ (सः, ख्धूनां लप्रीयान्‌ (स्यात्‌) (तस्य) सोदराणां सुखं (भवेत्‌) (सः) इतघ्नः (स्यात्‌) (तस्य) मित्रसायं मेत्री न (व्यात्‌) स्लछाटोदये अपि तद्रत्‌ (तस्य) अथंलाभः न (मवेत्‌) ॥ ३ ॥

सं<टी<– यस्य दुश्चिक्यगः त्रुतीयस्थः देवमंत्री गुरः, स नरः लघूनां क्षुद्राणां मध्ये लघीयान्‌ अतिक्षद्रः, सोदराणां भ्राव्रणां सुखं कल्याणकरः) कतप्नः भवेत्‌) तथा मित्रसार्थे हितवर्गे मैत्री न, छ्लाटोदये भाग्येन जाते राजसमागमने अपि तदत्‌ अथलामो न भवेत्‌ इत्यन्वयः ॥ ३ ॥

अथे- जिस मनुष्य कै जन्मल्भ्रसे तीसरेस्थानमें वृहस्पति होतो वद बहुत क्षुद्र होता है । उसे सगेभादयों का सुख मिलता हे । वह कृतघ् होता दै, किसी के उपकार को माननेवाखा नहीं दहोतादै। यदह मितोंके साथ मिन्रों जैसा व्यवहार नहीं करता है, अर्थात्‌ यद ॒ विश्वसनीय मित्र नदीं होता है। भाग्योदय होने पर भी इसे संतोषजनक द्रन्योपरन्धि नहीं होती है ॥ ३॥

ब्हस्पतिफर २७९

तुखुना–्यदा वे दुधिक्ये सुरपति गुरौ जन्मसमये | कृतप्नो मित्रां प्रभवति ल्घूनामतिल्धघुः॥ सदा स्वभ्रातरणां प्रवरसुखकव्याणक्रदयं । गतोऽपि प्रख्यातिं नरपतिश्हे नैवसुखयुक्‌” ॥ जीवनाय अर्थ- जिस मनुष्य के जन्मसमय ` मे गुरु वृतीयभाव मे हो वह भपने मित्रों के प्रतिं कृतघ्न होता है अर्थात्‌ उपकार कोन माननेवाल्म होता है। यह नीच प्रकृति का होता दै। सव॑दा अपने भाईयों को उत्तमसुख भौर कट्याण करनेवाला होता है। परन्तु राजा के षरमे प्रसिद्धिपाकरमी स्वयं सुख भोगनेवाल नदीं होता हे ॥ (“कुःपणः? || उशहुमिहरि अथे-तृतीयभावस्थ गुर का व्यक्ति पण अर्थात्‌ अदाता मौर कंजूस होता दै । | “अति परिभूतः कृपणः सह जजितो मानवो भवति जीवे । मदाः स्वीविजितो दधिक्ये पापकमा चः; || ज्ञत्थाणवर्मा अथे–यह खोक मे अपमानित, कृपण, सहोद्रजित-मंदाचि, स्त्र से पराजित भौर पापी होता दहै। “श्रात्रस्थान गते रुरौ गतधनः स्त्रीनिजितः पापङ्त्‌? ॥ वैद्यनाथ अथे–जातक निर्धन, स्त्ीद्रारा पराजित, तथा पापी होता है । “सो जन्यहीनः कुपणः कृतघ्नः कांतासुतप्रीतिविवर्जितश्च | नरोयिमांद्रावर्तासमेतः पराक्रमे शक्रपुरोहितेऽस्मिन्‌” ॥ दृण्डिराज अथं–यह सजन नदीं होता दै-ओौर कृतघ्न होता है । इसे स्त्री तथा तरँसे प्रेम नहीं होता हे। इसे भूख नहीं लगती हे भौर यद दुर्बल होता है । ““सावज्ञः कृपणः प्रतीतसदह जः शौय.ऽघङ्ृद्‌ दुष्ट धीः? | मन्त्रेश्वर अथ–यह अपमानित, कृपण, पापी मौर दुष्टबुद्धि होता है इसका भाई प्रतिष्ठित व्यक्ति होता हे। “असुजनः कृपणो विमनाः कशः क्षुधयुतोऽल्समाक्‌ सहजे रुरौ || जयदेव अथे– यह सजन नदीं होता है-यह पण, उदासीन, कशः भूखा भौर आलसी दोता है । “जीवे वतीये तेजस्वी कमंदक्चो जितेन्द्रियः| मित्रास्तसुखसंपन्नस्तीथवाताप्रियो भवेत्‌” ॥ काञ्लोनाथ अथं–यदह तेजस्वी-काम करने मे चतुर, जितेन्द्रिय, मित्र तथा आत्तजनों के सुख से संपन्न भौर तीर्थयात्रा करनेवाला होता है । सदजमंदिरगे व बृहस्पतौ भवति सौम्यख्हेऽ समन्वितः । ङृपणतामपि गच्छति कुत्सिते धनयुतोऽपि सदा धनहानिमान्‌’ ॥ मानसाशर अथ–गुर यदि श्चुभराशिमं हो तो यह धनवान्‌, यदि अश्चुभराशिमें होतो कृपण, तथा धनदीन होता है |

पु

२८० चमत्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक्‌ स्वाध्याय

“श्रावरस्थाने रुरो भ्रावरभगिनौमभ्यः सुख वदेत्‌ | भ्रातरः पचचत्वारः करदृष्ट्या विपत्तयः ॥ क्रे शत्तुभिृष्टे स्वत्पं भ्रात्रूसुखं भवेत्‌ | धनवान्‌ निधंनाकारः कृपणः भ्राव्रसंयुतः। कुटुंबी दरपपूज्यश्च सहजे देवतागुरोः ॥ गगं अथ–इसे भाई-बहिनों का सुख मिक्ता है । चार-पांच भाई होते ईै। कूर्द की दष्ट हो तो माइयों पर विपत्ति यती हे । करर ओर शत्रग्रहोकीदष्टि होतो भादयोंका सुख कम मिल्तादहै। यह धनवान्‌ होकरभी निर्धन जेसा दिखता है । कंजूस होता है । भाई भौर कुटंब से युक्तं होता दै यह राजा द्वारा सम्मानित होता है। ““्टप्रात्‌ त्रतीयगे जीवे नराणां चैव वहन: | गौ रीजातक अथं– यह नरप्रिय होता है । “स्वक्षं जीवे भ्रात्रखौख्यम्‌? ॥ जातकमुक्तावलो अथे-धनु वा मीनमें गुरदहो तो भ्रावरखुख मिलता है। राताधिपो देवपुरोहितश्चः | यग्नज।तक्र अथ- सैकड़ों लोगों का स्वामी होता दै सहोच्थितानां बहर युखं गुरुस््रतीये सौख्यं त्रयाणां च सहोत्थितानाम्‌ । ञराज अथ–इसे भादयों का सुख बहुत होता है भौर तीन माई होते, दै । भवेट्‌ खघवं मानवानां विदोषात्‌” । जागेश्वर अथ–विरोषतया मनुष्यों में हीन होता हे। गुरस्त्रतीरयेठ॒रातुबरद्धि धनक्षयम्‌? । पराशर अ्थ-रातु बटृते ईै-धनकाश्चय होता है। ““सुधिषणं क्रंशम्‌? । वशिष्ठ अथे– वुद्धि अच्छी भौर ङ्के होते है। ` उन्माद्‌ कृत हीनतां कृपणता प्रीतिं कव्व्रेश्चभाम्‌ । अप्रीतिः सुतमित्रतोऽपिजनने मानं नरद्राश्रयात्‌ ॥ हरिवंश अथं–उन्माद्‌ से अपमान दोता दहै, कंजूस होता दहै, स्त्रीके साथ पेम होता है, पुत्र मौर मिनो से प्रेम नदीं होता है। राजा से सम्मान मिक्ता है। | भरगुसृञ्–अतिङन्धः ्रातृब्द्धिः दाक्षिण्यवान्‌ संकल्प सिद्धिकरः । बन्धु- दोषकरः, सुद्यदवंघुसमागमः, अष्टा्रिशद्वषे यात्रासिद्धिः, भावाधिपे बलयुते भ्राता दीर्घायुः, मावाधिपे पापयुते बंधुदोष्रकरः, भ्रावनाशः, धैर्वहीनः, जडबुद्धि दारिद्र् युक्तः थ–खोम बहुत होता दै ¦ माइयों की बद्री होती है । चतुर होता है, जिख काम का संकस्प करता है उसमें सफल्त। मिक्तौ है, वरंधुनाश्च होता है।

ब्हुस्पतिफल २८१

मित्रो तथा वंधुभो का समागम होता ह। ३८ वै वषेमें तीर्थयात्रा दोती है, तृतीये बलवान्‌ हो तो भाई दीर्घायु होता है, ठृतौयेश के साथ पापीम्रह होतो भाशयों का नाच होता है, इनसे संव॑ध अच्छे नदीं रहते, धेयंदीनः, जडबुद्धि तथा दर्द्रिता युक्त द्ोता है।

पाश्चात्यमत- छोटे-छोटे प्रवास होते है, केखन से छाम होता हे, य गुर धार्मिक यौर आघ्यासमिकं इत्ति का पोषक दे, यह विचारशील ओर बुद्धिमान्‌ होता है । किन्तु युक्तिवाद्‌ करता है भौर मत बद्कता दे, आं से इते धन लाभम होता है | यह गुर अधितत्व की राशियों में दहो तो संसार में विजय मिलती है, पृथ्वीतत्व की राशियों में होतो व्यापार सदा ओर साहस मे व्रिजय मिख्ती ई । वायुतत्व की राशियों मं हयो तो मानसिक ओौर ज्ञानसम्बन्धी कायौ मे रे होवा है | जलतत्व की राधियों मे हदो तो जल-प्रवास द्वारा सुख मिक्ता है।

विचार ओर अजुभव–वृतीयमाव मे यप श्चमग्रह होते है तो वे मच्छे अर श्चम नदीं रहते प्रव्युत अञ्चभ हो जाते है-एेसी धारणा दै । अतएव तृतीय स्थान का गुर, यद्यपि अतिश्चम है, दारय देता है । अतएव ग्रन्थकागें ने दा्दरिय, कृपणता, कृतघ्नता मादि अश्चम फले का वणेन किया हे । ये अश्चुभफछ करक, इृध्चिक, मीन तथा स््ीराशिर्यो मे अनुभव गोचर होते ई ।

तृतीयस्थान का गुड चाहे पुरुषराशि मेँ हो अथवा स््ीराशि मे हो पुत्र संख्या में जहत थोड़े होते ह । पांच पुत्र होते है-ेखा मत यदि किसी प्रथ कारका है तो इस फठढ का अनुभव प्राक्त करना उचित होगा, गगं ने-चार-्पाीच भाई होने का फल कहा है-दसका अनुभव स्टीराशियों मे होगा । पुंजराज ने- तीनभा$ होने का फल कडा दै इसका अनुभव पुरुषराशियों मेँ प्रास्त करना होगा । स्तक्डो रोगों का स्वामी होता है” एेखा यवनमत है, ेसे फरू का अनुभव पुरुषरादि्थो मे संभव है । काशौनाथ प्रतिपादित फलों का अनुभव मेष, सिह, मिथुन, वुल, कुम रायो मेँ भाना संभव हो सकता इे ।

पुरुषरराशि मे तृतीयस्थान कागुरूहो तो रिक्षाकेः लिए नेष्ट है-दिष्षा पूरी नहीं होती है । इख स्थान का गुरु यदि इष, कन्या तथा मकर राशि मं हो तो शिका पूरणं होती है । वन्तु इस योग मे शिक्षित अस्पसंख्या में होते ई, अधिक अशिक्षित ही रहते ।

कर्कं, इृथिक्र तथा मीन में गुरुके होने ते सुशिक्चित अधिक भौर अरि- क्षित थोड़े होते ह ¦ स््रीराशि का गुर स्वतंत्र व्यवसाय देता है–नौकरी को छोड़कर ग्यक्ति स्वतंत्र व्यवसाय करने ल्गता हे 1

इस योग मे भाईयों क संबन्ध बिगड़ जाते द । वे आपस मे ल्डते-ज्षगड़ते रहते है । कितु मापस के स्लगड़ को न्यायाल्य मं नहीं ठे जाते ।

वरतीयस्थान का गुरु पुरषराशि में हो तो उपजीविका नौकरी द्वारा होती है पिला चला हभ स्वतंत्र व्यवसाय भौ बंद करना होता है अर नौकरी करनी होती है । इस योग से बड़ेभाई होते द परन्तु बडी बहिन नही होतीं ।

२८२ चमट्कारचिन्तामणि का तुखनाव्मक स्वाध्याय

स्वीरारि मं तरतीयमावस्य गुरुके होनेसे छोटे भई आर छोरी बहिर्न होती है । वरतीयमावगत गुरु माइ्यों की एकसाथ प्रगति में रुकावर डालता है- सभी एकसाथ प्रगतिदीठ नदीं होगे । कोई एक निय्ह्ा अवदय ही वैटेगा ओर कुर उपयोगी न होगा । इस परिस्थिति मे प्रथकत्व अच्छा रटेगा | यह गुरु यदि मेष, सिंह, मिथुन, ठट वा कुभममेंदहो तो व्यक्ति अशिक्षित होते हुए भी विद्यावान्‌ प्रतीत होते है; अओौर इनके मिच्रभी विद्यावान्‌ होते है। स्ीराशि का गुख्होनेसे व्यक्ति विद्धान्‌ तो होगा किन्तु अप्रसिद्ध रदेगा। सरकारी नौकर होगा तो समव ते पदिटे अव्रकाय प्राप्त करेगा । धन होगा तो कीति नदीं मिेगी । कौतिमान्‌ होगा तो धनवान्‌ नहीं होगा । दोनो मसे एक बात होगी; जिनके जन्मांगमं व्रुतीवभाव मं गुम हो तो उनके लिए अच्छा व्यवसाय शिक्षक का; वः प्राध्यापक काटे! इस स्थान का गुर एकदम धनवान्‌ अओौर एकदम गरीब बनाता है अर व्यक्ति अधिकार से एकदम सामान्य स्थिति मंआआनजातादै। किन्तु यिश्चक वा प्राध्यापक कोग एेसी स्थितियों की परवाह नदीं करते दै । दारिद्रय मी इनकी शान्तिकाभंग नहींकरतादहै। ये रोग ग्मीर ओौर शांत रहते चतुथंभावस्थ गुरुफट– गृह द्वारतः श्रयते वाजिहेषा द्विजोच्चारितो वेद्घोषोऽपि तद्‌बत्‌ । प्रातस्पद्धिनः वेते पारिचार्य्यं चतुर्थं गुरो तप्तमन्तर्गवंच ॥ ४॥ अन्वयः- चथ गुरो गहद्र।रतः वाजिहेषा, तद्त्‌ द्विजोच्चारितो वेदघोषः अपि श्रुयते । प्रतिस्पद्विनः ( तस्य ) पाग्चिाय्व कुवते ( तथापि ) अंतर्गतं च ततं भवति ॥ ४ ॥ सं<टी–चठु्थं गुरौ सति द्विजोचारितोऽपि प्रपटितो वेदघोषः वेदोक्ता- ीवादमंतरध्वनिः, तद्रत्‌ एवे यदद्वारतो वाजिहिषा अश्वैरच(रितशब्द्‌ः श्रयते ¦ लिङ्थंलट्‌ प्रतिस्परद्धिनः रात्रवोऽपि पास्चिार्यं सेवां कुर्वते । तथापि अन्तर्मतमनः तसरं सोद्वेगं स्यात्‌ असंतोधादितिमावः | ४ ॥ अथ- जिस मनुष्य के जन्मल्य् से चतुर्थस्थाने बृहस्पति हो उसके घर क द्रवाजे पर बधेहुए बोड़ां कौ हिनदहिनादहट सुनाई देती है । भौर ब्राह्मणों दवारा पठित आशीर्वाद के वेदम का उचारण सुनाई देता है। अर्थात्‌ यह धनवान्‌ ओर ब्राह्मणाँ का आदर-सम्मान करने वाख होता है । इसके शत्रु भी इसक्रौ सेवा करते ह । तौमी इसका अन्तष्करण चिन्तायुक्त रहता है । रिप्पणी-प्राचीनकालमे रेश्वर्यं संपन्न रोगों की संपत्तिवत्ता का वाह्य चिन्ह घोड़ा होता था अत्र घोडेके स्थान मे कीमतौी मोटरकार दहै, धनी लोग आौर राजा खोग केवर सवारी के घोडे ही नहीं रखते थे प्रस्युत हाथी भी रखते ये-गौणँ भसे आदि मी होती थीं | यद्य अश्वरब्द्‌ उपलक्षणार्थक है । विजित दनुशण इसकी सेवामें तत्पर रहता था-यह उच्चातिउ् रेश्वय॑ पाकरमभी अन्तरात्मा से दुखी रहता था । क्योकि इसका मन असन्तुष्ट रहता था ॥

ब्हस्पतिफल २८६

“’सन्तोषाम्रततृप्तानां यत्सुखं शान्तचेतसाम्‌ । । कुतस्तदूधनडन्धानामितश्वेतश्च धावताम्‌ ॥ एषा नीतिवचन दै न, , वुख्ना–““सदोचेः श्रुयन्ते निगमधनपोषा द्विजसुखाद्‌ । गजाश्वादीनां वै करुकरवो द्वारि परसििः॥ सुखस्थाने यस्य प्रभवति रुरावेव सबले। प्रतिस्पर्धी भूमावतुक परिचर्या वितनुते ॥ जीवनाय अर्थ- जिस मनुष्य कै जन्मसमय मे बलवान्‌ बृहस्पति चतुथ॑भावमें हो उसके यहो सदा ब्राह्मणों के मख से वेदोंका धनधोष ओर हाथी-घोडोंका करकल शब्द सुनाई पड़ता है । तथा इस पृथ्वी पर शत्रुगण भी उसकी सेवा करते है । “सुखी? । वराहमिहिर अर्थ–च्रहस्पति के ष्वतुर्थस्थान मे होने से व्यक्ति सुखी होता दै। ‘धसुखेजीवे सुखील्ोके खमगो राजपूजितः। विजितारिः कुखाध्यक्षो गुरुमक्तशथ जायते ॥ काश्लीनाथ अ्थे- यह सुखी, सुंदर, राजमान्य; शतुविजेता, कुल मेँ मुख्य भौर गु- जनों का भक्त होता है। | | ““भवयुतो बहु वित्तमुदान्वितो प कृत खद सोख्ययुतः सुखे” । जयदेव अथे-यद धनौ, प्रसन्न, राजद्वारा दिए गए घर के युख से युक्त होटा है । ““बंधौ माव्रसुहृत्‌ - परिच्छद सुतस्ीसौख्य धान्यान्वितः | मन्त्रेश्वर अ्थ–दइसे माता, मित्र, वस्त्र; पुत्र; स्त्री, धान्य आदि का सुख प्रास होता है । “सन्मान नाना धनवादनाचेः संजातहषेः पुरुषः सदैव । नरपानुकपासमुपात्तसंपद्‌ दंभोकिभत्‌ मन्निणि भूतलस्य । दण्डि राज अर्थ-इसे मान-नानाविघ वाहन आदि कौ प्रापि से सदैव आनंद मिलता है। राजा कीङपा रे इसे धन मिख्ता हे। (सन्मान नाना धनवाहनायचेः संजातहषंः पुरुषः सदेव । दरपानुकपासमुपात्त संपद्‌ दमोलिभ्न्‌ मंत्रिणि भूतरस्ये ॥[ मनसगर अर्थ– यह लोक मे आदर पानेवाखा, नानाप्रकार के धन-वाहन भादि से सदैव आनन्दित, राजा की कृपा से धनप्राप्त करने वाख होता है । वाग्मी धनी सुखयशोबर रूपराटी । जातः दाटग्रकृतिर्ख . गुरौ सखस्य ॥ वंधनाथ अर्थ–यह वाक्पटु, धनी, सुखी, यशस्वी, बली, रूपान्‌ किन्तु कपटी होता दै। - “स्वजन पर््छिदवाहनयुखमति भोगाथसंयुतोभवति । शेष्ठः शत्नुविषादी चवथंसंस्थे सदा जीवे” ॥ कल्याणवर्मा

२८७ चमत्कारचिन्तामणि का तुलनात्मक स्वाध्याय

अथ– इसे आत्मीयवगे का वस्त्र ग्रह ओौर वाहन का सुख मिक्ता ₹ै। यह्‌ मतिमान्‌, भोगी, धनी, श्रेष्ठ-तथा शच्रुओं को ताप देने वाला होता है । भवन्ति वाट्म्राणि यस्य॒ पित्रगतो गुरः । दिन्यमालाम्बरकरीडा नानावाहनयोग्यता ॥ जीवः स्यात्‌ पितुः तस्य सुखंभवेत्‌ | जीव श्चामृतोपमम्‌ । एकोऽपि जीवश्चतुथंस्थः पापाश्चान्यत्र संस्थिताः ॥ तदादे हि जातस्य पूवज धनमुच्यते । अनंत सौख्यं सुरराजमंत्रीःः । लगे अथं- इसे वचपन के मित्र प्रास्त होते है । उत्तम वस्त्र मौर पुष्पमाला प्राप्त होती ह । करई प्रकार के वाहन चलने की योग्यता रखता है । पिता सुखी होता हे | कुणँ मे से पानी मीठा निकलता है । चतुर्थं में गुर अकेट हो ओौर पापग्रह अन्यस्थानोंमेंहों,तो पूर्वजो का धन भिक्तादहै। यह बृहस्पति अपरिमित सुख देता है । नोट :-वृहद्यवनजातक का फल दण्ठिराज भौर मानसागर के समान है । “चतुथं गुखः मित्रसौख्यं नराणां सु विद्याविवादो भवेत्‌ तस्यगेदे । गजाश्वादिलाभः परैः सेव्यतेऽसौ धिया कान्यकर्ता सुकमा इति स्यात्‌ |» जागेश्वर अथे–इसे मित्रों से सुख मिलता दै । इसके घर पर पाण्डित्यपूणैाख्राथ- वाद-विवाद होते दै । इसे हाथी-घोडे मिलते दै । इसकी सेवा इसके शत्रु भी करते ह । यह बुद्धिमान्‌ , कवि ओौर श्चभकममं॑ करनेवाला होता दै । “जीवे च सवंकव्याणं यद्‌ स हिबुके वसेत्‌” ॥ पुञ्जराज अथे– चतथ गुरु सभी का कव्याण करता दै । “भ्वतुथे च सेनापत्यं घनायतिः । जीवेनवितातु सुखस्यकार्या” ॥ पराज्ञर अथ–धन मिलता दै | सेनापति दहीतादहै। गुरु से सुख का विचार करना उचित दै । पाश्चात्यमत-भायु के अंतिमभाग मे विजय प्रात होती दै। यह रुरु बल्वान्‌ हो तो पिता की स्थिति बहुत अच्छी द्ोती है । शुभग्रह कीदषिहोतो वारिस के नाते अच्छी संपत्ति मिलती है । माता-पिता प्रर भक्ति होती दै। मौर उससे अच्छा लाभ होता है। भ्रगुसूत्र–सुखी, क्षेत्रवान्‌, वुद्धिमान्‌; क्षीरसमृद्धः, सन्मनाः, मेधावी । भावाधिपे बख्युते भरगुष्दरयुक्ते श्चभवरगेण नरबाहनयोगः। बहुकषेत्रः, अश्ववाहन- योगः; गृह विस्तरवान्‌ । पापयुते पापिनः दृष्टिवशात्‌ क्षेचवाहनदीनः । परगृह वासः | षर हीनः, मात्रनाशः, वंधुद्रेषी | अथ–चतुथभावस्थ गुर्‌ का जातक सुखी होता है-यह भूमिपति भौर बुद्धिमान्‌, अच्छे हृदयवाला तथा मेधावी होता है। इसके पास अच्छादूध देनेवाटे दुधार पञ्च होते हँ । अर्थात्‌ यह पश्-घन रुंपन्न होता है । यदि चठुधंश

बहश्पविफक २८५५

बलवान्‌ ग्रहों से युक्त हो, वा श्चक्र गौर च॑द्र से युक्त हो, अथवा श्चभवगे मेँ होतो मनुष्य की सवारी करने बाला होता है, अर्थात्‌ से वाहन पर बैठत है जिसको उठानेवाङे मनुष्य हों जेसे पालकी । यह बडा जमींदार दोता.दै। इसके पास सवारी के टि षोड़ा होता है। इसका घर खूबबड़ा विस्तृत होता है । यदि चथा के साथ पापग्रह हो, वा पप्ग्रहोंकीदषटिहोतो घर भौर वादन नहीं होते । दूसरे के धर रहना पड़ता है-जमीन नदं होती माता की मृद्यु होती है । भा-वंधुभों से द्वेष होता ै। |

विचार ओर अनुभव वैद्यनाथ ने “कपरी होता दै» । एेखा अञ्चभफल कहा है । अन्य ग्रन्थकारो ने श्चुभफक कदे ह । श्ुभफर पुरुषरारियों के ह । अञ्यभफल स्ीराशियों के है । चवुथ॑भाव का गुर चाहे किसी रारि मं हो स्थावर संपत्ति ( स्टेट ) का नाशक होता है । अर्थात्‌ पूर्वार्जित संपत्ति नदीं रहती- अपने यल से धनोपाजन करना होता है । पित्रूसुख शीघ्रनष्ट होता दै । माठजीवन म भाग्योदय नदीं होता है । यदि माता-पिता जीवित रहतो इन्द पुत्रोपार्जित धन का सुख नहीं मिक्ता । व्यक्ति स्वयं भी प्रगतिरीर नहीं दोता-नौकरी होतो इसमे शीघ्र उन्नति नदीं होती । व्यापार हो तो प्रगति में बहुत टीठ होती दै- यह व्यक्ति उतार-चटाव के चक्र मे पड़ा रहता है- कभी १२ वषं अच्छे, तो कभी १२ वधं बुरे बीतते है ।

मेष, सिंह वा धनु में चतुथेभाव का गुरुहो तो षर-बाग-बगीष्ा हो एेसी परल इच्छाः होती ई, किन्तु इस विषय में व्यक्ति चिताग्रस्त ही रहता है। आयु केअंतमेषरतो हो जाता है किन्तु अन्य इच्छा बनी रहती है, पूणं नहीं होती है । वृष-कन्या वा मकर मे यह गुरुहदोतो द्रव्य ओर संततिमेंसेषएटक का सुख मिक्ता है। मिथुन; दला, कुम मं इस गुरुके होनेसेप्रप॑च की व्विता होती है | चंष्वख्ता मायु भर बनी रहती है । अपनी स्टेट नद्य दोती- संतान भारी संख्या मे होती रहै । कोई एक गोदीपुत्र लिए जाते है । ककं, वृधिक) वा मीन में गुरु हो तो दत्तक पुत्रयोग की विशेष संभावना होती है । यदि दत्तक पत्रयोग फटीभूत न हो तो जन्मदाता माता-पिता कौ दशा दयनीय हो जाती है । दुःख दरिद्रता, बनवास आदि कष्ट अनुभव मँ आते ह ।

्तुर्थभावगत गुर का सव॑साधारण फल निम्निटिखित हैः-

पूर्वजो की संपत्ति का नाश-अथवा अभावः परिम अौर कष्टसे स्वयं धन का उपाजन, उत्तर आयुष्य कुछ अच्छा, भायु के पूर्वां मेँ कष्ट, पूर्वाजित संपत्ति का नाश्च अपनेदही हाथोंसे होना, अथवा किसी टस्टीद्वारा इसका इड़प हो जाना ।

पंचमभावगत गुर्‌ काफल–

विखासे मतिः बुद्धिगेदेवपूञ्ये भवेलस्पकः कल्पको ठेखको वा ।

निदाने सुते विद्यमानेऽति भूतिः फलोपद्रवः पककारे . फरुस्य ॥५॥

२८६ चमत्कारचिन्तामणि का तुरुनास्मक स्वाध्याय

अन्वयः–देवपृज्ये बुद्धिगे विलासे मतिः भवेत्‌, (सः) जस्पकः, कस्पकः, लेखकः, वा (भवेत्‌) सुते विद्माने अपि निदाने भूतिः (स्यात्‌) फलस्य पक्काठे फलोपद्रवः स्यात्‌ ॥ ^ | संच्टी<-बुद्धिगे पंचमस्थे देवपूज्ये सति विलासे भोगे मतिः, जल्पकः वक्ता; कल्पकः ताकिंकः, लेखकः सुकिपिः, फल्व्यपक्काले फलोपद्रवः कार्यविप्नः, सुते विच्माने सदहायभूते अपि निदाने परिणतस्य इव भूतिः समृद्धिः भवेत्‌ ` इतिरोषः ॥ ५ ॥ अथे-जिस मनुष्य के जन्मल्य् से प॑चमस्थान मे वृदस्पति दो उसकी बुद्धि विलास मं अर्थात्‌ आनंद प्रमोद में रहती है । अर्थात्‌ यह व्यक्ति विलासी मानंदी भौर चेनी होता दै । यह व्यक्ति उत्तमवक्ता धारावादी बोल्ने वाल, डय व्याख्यानदाता होता दै । यह उत्तम कल्पना करनेवाला, कुशल तार्किंक ऊदहापोह-तकं-वितकं करनेवाला नैयायिक होता है। अथवा उत्तम ङेखक होता हं । अर्थात्‌ इसका हस्ताश्चर बहुत दिव्य ओर संदर दोता है-अथवा सवप्रोदूभावित-मावपूणैगंभीरलेख ल्खिने वाला होता है, मथवा एक उश्च- कोटि का ग्रंथकार होता है| यहां ध्टेवकः शब्द अनेकार्थक है। इसका पुत्र भी इसका सहायक होता है-इतना सव्र ङु होते हृष भी इसकी संपत्ति सामान्य ही रहती है । अर्थात्‌ इसे अपने कार्य्यानुसार दी प्राप्ति होती है, अधिक प्राति नहीं होती-अर्थात्‌ इसकी जीवनयात्रा तो अच्छी चलती है, किन्त धन समृद्धि नदीं होती है, भौर इसे यथा लाभ संतुष्ट रहना होता है । कार्य की फलग्रातति के समय इते कुछ विघ्न प्राप्त दो जाते ह । अर्थात्‌ इसे अपने किए हए काम का पूरा फल नहीं मिक्ता दै । तुख्ना– “यदा प्रज्ञास्याने जनुषि मनुनो भोगकुशलः | सदुर्थानावक्ता; सदसिष्व सतकंः सुरगुरौ ॥ सदर्थः संपूर्णः प्रवरङृतिभिश्चापिमहितः। सदायोगाभ्यासौ तनयतनयानंद विसुखः | जीवनाथ अथं- जिस मनुष्य के जन्प्रस्षमंय मं ब्रहस्पति पचममावमें हो वह भोग कुशद, सभा मेँ तर्कनुकरूल उचित बोलने वाटा, उत्तम धनो से परियूणै, शरेष्ठ, महापुरुषो से पूजित योगाभ्यासी होता है किंत पुत्र ओौर कन्या का सुख इते नदीं होता है । अर्थात्‌ इसे संतानसुख नहीं होता दै। ““ धीमान्‌? । वराहमिहिर € अथ–जातक बुद्धिमान्‌ होता है । “सख-सुत-मित्र-सभरृद्धः प्राज्ञो धृतिमान्‌ तथा विभवस।रः । पवमभवने जीवे स्त्र मुखी भवति जातः” ॥ कलागमा

अथ – यदह सुखी, पुत्रवान्‌ मित्रवान्‌; पंडित, धीर स्थिरधन से युक्त अर सदा सुखी होता है ।

न्ह स्पतिफट २८७

“त्री गुणी विभवसार समन्वितः स्याद्‌- अस्पास्मजः सुरगुरौ सुतराखिजातेः ॥ वं्नाय अर्थ–यह मंत्री, गुणी, धनी, ओौर थोडे पुर्न वाला होता है । ‘मीनस्थोऽत्वत्पसंतानः चापस्थः कच्छ संततिः । असंततिः कुटीरस्थो जीवः कुंभेन संततिः॥ पुत्रस्थाने कीरे वा -मीने कुंभे शरासने । स्थितो यदि सुराचार्यः तप्फटं कुरुते चणम्‌ ॥ अ्थ- यदह गुर कुंभवा ककं राशिमे होतो संतति नदीं होती । मीनमें हो तो थोडी संतति दातीदहै। धनुमंदह्ातो कष्ट से संतति होती है। प्॑मश्थ गुरु विफल होता है “गुखः सु तेतु” ॥ ““बहूुधनश्च सुद्धदूजनवदितः सुरगुरो सुतगेहगते नरः । विपुरृशास््रमतिः सुखभाजनं मवति सवंजनप्रियदशंनः* ॥ मानसागर ` अर्भ– यह धनाल्य, मित्रां से पूज्य, अनेक शास्त्रा का ज्ञाता, सुखी ओौर टरानीय रूपवाला होता हे । “पुत्रैः केशथुतो महीशसवचिवो धीमान्‌ सुतस्थे गुगे ॥ मंत्रेश्वर अर्थ- जातक बुद्धिमान्‌ भौर राजाका मध्य होता दै। कितु पु्ोंके कारण दककेशयुक्त भौ होता है । पुत्र उत्पन्नन होना भी ङ्के है, पुत्र का अभाव भी पुङ्के है । पुत्र उत्पन्न होने प्र नष्टहो जार्वे यह भीपुत्रांसे ्े्डहे। तथा पुत्रों के आग्वरण से, व्यवहार से छं उठाना पडे, वा मन को ङ्के द्रो- यह भी पु्ोंसेङ्केदै। “सुमित्नपुत्रः ससुखाथमत्रः प्राज्ञः शुचिः श्रेष्ठतमः सुतस्थे” ॥ जयदेव अ्थ–इसे पुत्र; मित्र, खख भौर धन प्रा होता है । यह बुद्धिमान्‌; पवित्र भौर श्रेष्ठ होता है । ‹५सुतेजीवे सुतेयुंक्तो धामिकः पंडितः सुखी । ` श्ुद्धचेताः दयायुक्तः विनयी च भवेन्नरः ॥ काक्लीनाथ ४५ ति [] अथ–यह पुत्रों से युक्तः धामिकः; पंडित, सुखी, ्द्ववित्त, दया तथा विनम्र दहदोता दै) “’सनूमित्रपुत्रोत्तममतशास्मुख्यानिनानाधनवाहनानि | दाद्‌ गुखः कोमल वाग्‌विलासं प्रसूति कालेतनयाटसस्थः” || ठुण्डिराजं अथं-इसके मित्र अच्छे होते है-यह पुत्रवान्‌-धनवानू-वाहनवान्‌ होता है । यह उत्तम मंत्रश्ास््र काज्ञाता हाता है । यह कोमर-मघुर वाणी बाला होता है । “भसम्रृद्धो बहुपुत्रश्च दाता भोक्ता गुणान्वितः। धनी-मानी च सततं सुतस्थे देवता गुरौ जीवे मकरे याते पचममे भत्मजमृतिं विच्यात्‌ । मीनस्थितऽपि चवं नवमे ञ्भसंस्थितेऽस्पजीवी च ॥

२८८ चम व्कारचिन्तामणि का तुखनारमक स्वाध्याय

जीवे श्ुभामतिः । इन्दोववंदमनिजीवे पुत्रस्थे दारिका बहूटं स्यात्‌ । ताताम्विका सोदरमावुटाश्च मातामहः पिव्रपिता च सूनुः॥ सूर्यादिखेटैः खल पंष्बमस्थैः नश्यन्ति नूनं मुनयो वद्न्ति। गगं अथे–यह समरद्ध, बहुत पुत्रौ से युक्तः दानी, भोक्ता; गुणवान्‌ › धनवान्‌ ओर मानी होता है | यह गुरु मकरवा मीनमंदहो तो पुत्राँंकी मृत्यु होती हे। य॒द्धी नवम में श्चभग्रह हों तो अल्पायु होते दै । उदि श्चमद्येती है । यह कक रारिमेंदहोतो कन्याएं अधिक होती । प॑चममें रविददोतो पिता, चंद्र होतो माता, मंगल होतो माई, बुध होतो मामा, गुरु होतो नाना, शुक्र होतो दादा ओर शनि होतो पुत्रको मारक हदोताहे। पचम में गुरु केला होतो पांच पुत्र होते ई । शयुतपंचकदोरुरः” ॥ “कुर्वन्ति पुत्रवहुलं सुखिनं सुरूपम्‌ । वशिष्ठ अर्थ-बहुत पुत्र होते दै । खखी ओर सन्दर होते है । “’सनूमित्र पुत्रोत्तम मंत्रास मुख्यानि नानाधन वाहनानिः | बृहस्पतिः कोमल वाग्‌ विलासं नरं करोव्यासमज भावसंस्थः || “रिष्ट माव॒ल्गो मात लर्तिमू? । बृहद्यवनजातक अर्थ- उत्तम मित्र ओर पुत्र होते है, मन्त्रशास््रका ज्ञाता होता ईै। विविध प्रकारो से धन भौर वाहन मिरे ह । वाणी कोमल ओर मधुर दोती है । ७ वै वर्षमामाकोक्ष्ट होता ह। “रौ पंचमे पंडितोऽर्यप्रतापी खुतानां सुखं वाधके वै कदाचित्‌ । सदा प्रा्तिकाठे नराणां विरोधः परं वगराजो दपो वे घनेशः ॥ जागेश्वर अर्थ– यह पंडित ओौर प्रतापी होता दहै । उुटापेमें पुर््रोसे कदाचित्‌ ही सुख मिलता है । धन लाम के समय विरोध खड़ादहो जाता है। अपने वग का मुख्य भौर धनी होता है ।

पाश्चात्यमत-इसके पुत्र आज्ञाधारक होते है । मनोरंजक खे, सटा, जृमा, साहसीकाम, रेख, प्रेमप्रकरणों आदिं मे यह विजयी होता है । इत्ति न्यायशीक होती है । इस गुरुके साथरवि वा चन्द्रका मथवा दोनों का त्रिकोण योग होतो सद्वा लाटरी अथवा अन्य आकस्मिक साधन द्वारा धन प्राप्त होकर इखका आयुष्यक्रम बदठ्ता है ।

भ्रगुसूत्र-खमूषः । बुद्धि चादर्यवान्‌ । विालकायंकरः सुक्ञः । पिशाटे्चणः वाग्मी, प्रतापी, अन्नदानप्रियः, कुख्प्रियः धनवान्‌, मन््रविद्यावान्‌; अष्टादशवषं राजद्वारेण सैनापत्ययोगः, पुत्रसमद्धिः, भावाधिपे बलयुते पापक्ेत्रे अरिनीचगे पुत्रनाशः । एक पुत्रवान्‌, घनवान्‌, पापक्ेत्रे पापयुते अरिनीचगे राजमूलेन धनव्ययः, राहू-केतयुते सर्पशापात्‌ सुतक्षयः, शभ दे परिहारः ।

१९ ज्हस्पतिफड २८९

अर्थ– यह अच्छे वस्त्राभूषण पदिरता है। च्वुर दोता दै-महान्‌ काय करने वाखा होता है । रुमञ्लदार होता है । इसकी आर्ख बड़ी मोटी होती ह । कुःशलवक्ता-प्रतापी, भन्न का दान करने वाला, अपने कुलका प्रेमी धनी; मन्त्रविद्या जनने वाल होता दै १८ वँ वं राजाके द्वार में सेनापति होता दै । इसके बहत पुत्र होते है। यदि प्वमेश बलवान्‌ प्रहासे युक्तहोः वा पापग्रह के घरमेंहो, वा शतु तथा नीचराशिमे होतो पुत्रनाश्च होता है। अथवा एकी पुर्वाला ओर धनाढब्य होता है । राज्यसम्बन्धौी कारणसे क्वहगी मे धन काखचं होताहै। पचमेशके साथया गुरुकेसाथ रादु केतुहोंतोसप॑के रापसे पु्रनाशहोताहे। शभग्रहकी द्शिहोतोपुत्र सुख हःता है ।

विचार ओर अनुभव म्रेथकाो ने पंचम भावेगत गुरुके छम फल वर्णित कयि है । इनका अनुभव धुरषरारिर्योमें प्रप्तहोतादै। यदि पंचम भावकारुरु कक, मीन, धनुतथा कुभमें होतो पुतन होना अथवा थोड़े पत्रो का होना ओौर उनका रोगी होना” एसे फर का अनुभव आता दै।

ृष्मध्थ गुरु निष्फठ होता हैः यह मत वैद्नाथका दै। वृष, ककं, कन्या, मकर, मीन तथा धनुराशियों मे यदि एचमस्थ रर होतो निष्फलता का अनुभव संभव है । ेसे पंचमस्थ रुरुके प्रमावमे अए हए व्यक्तियोंकोन कभी धनखाभ ओर नाहीं पुत्रम होता है-इस तरह प्चमस्थ गुर निष्फल है; किन्तु अन्य राशियों मे इस स्थान के गुरं का फ अनुभव मे आता है ।

गर्ग– वशिष्ठ तथा वैद्यनाथ ने पंचम ओर दशमस्थान को मारक माना है । गर्गं के मतम रवि पिताको, चद्रमाताको; मंगल भाई को, बुध मामा को, गुरु नाना को, शक्र दाद को, शनि पुत्रको मारक होतादै] बरिष्ठ के मत में रवि पिताको, राहू माताको, मंग भाई को, शनि पुत्र कोमारक होता रै । वैचनाथ के मत में रवि पिताको, च्द्रमाताको, मंगर मामा को भौर शनिं पुत्र को मारक होता है । भाव यह है-कि कोर प्रह प॑चमस्थानमें हो तो वह जिस व्यक्ति का कारक ग्रह हो उस व्यक्ति के किष मारक होता है ।

ठ्न, पचम अर नवमभाव पूर्वं पण्यस्थान माने गए है ओौर दशममाव को पौरष केन्द्र माना है-दरामस्थान को विष्णुस्थान अर नवमस्थान को लक्षमीस्थान माना है-कदहने का तात्पयं यदह किये स्थान ती श्चुभस्थान है भौर इन तीन ग्रथकासे ने इसे अश्चुम माना है। इसमें इन प्र॑ंथकारों का व्यक्तिगत अनुभव ही कारण मानना होगा । ज्योतिषशाख् अनुभवदगम्य शखर तोहे दी।

जीवनाय ने “तनयतनयानंद विसुखः” ेसा कदा है अर्थात्‌ पचममावगत गुरु संततिं के च्एि अच्छा नहीं दै। वैद्यनाथ के मत में ककं, मीन) धनु तथा कुम कागुख्हो तो पुत्राभावदहोतादहै। मत्रश्वर ओर जगेश्वरका मतदैकि पत्र द्योते तो है किन्तु इनसे सुख नदीं मिक्ता है । तात्य वह्‌ है कि पंचमस्थ

२२० चमरकार चिन्तामणि का तुखनार्मक स्वाध्याय

गुड संतति के पश्च मँ अश्चम है। नारायणम ने “फलोपद्रवः पक्रकाठेफलस्यः? एेसा फल कदा दहै । पंचमस्थ गुर प्रभावान्वित व्यक्ति प्रायः पंडित, ज्ञानी ओर शाख्रपरिशील्न को ही एकमाच्र जीवन का ध्येय माननेवाले होते है-ये व्यवदहारकुशल नदीं होते ई ओर इन्हे फल की विता बहुत कम होती दै । इस परिस्थिति में फल्प्राप्ति के समय पर विलं का उपस्थित होना स्वाभाविक है- आश्चर्यजनक नदीं है । इन सभी अद्यभफलो का अनुभव सख्रीराशियों मे संभव है |

मेष, सिंह, मिथुन, तुहा वा कुम मं यदि पचमभाव कागुरुटहोतो रिक्षा के बारेमे श्म दहै-शिक्षापूणे होती दै। धनुके गुरु में शिक्षा पूरी नदीं होती- अधूरी रह जाती दे । पचमस्थ गु प्रभाव के व्यक्ति मापज्ञान मं, अथशा मे, द्दरानशास्रमें सुज्ञ होते र्है-यदि ये पार्यारयां मं शिक्षक द्‌-कालेज मं

. प्राध्यापक आदि रूपम काम करते हां तो इन्द प्रसिद्धि ओर ख्यातिगप्राप्त होती ` है । इन्दं संतति बहुत नदीं होती, एक दो पुत्र होते ह–परन्तु यह पुत्र संतति

पिता के हिरु अच्छी नदीं होती-पिता को कटंक ल्गानेवाली होती ई । पिता की मृघ्यु के अनन्तर इस संतति का भाग्योदय होता हं। भाग्यवान्‌ तथा यरास्वी होती हूर भी यह संतति धनपक्च मं विरोष अच्छी नदीं होती ।

यद्रि पचमस्थगुर चष, कन्या वा मकरराशि मं हो तो शिक्षा तो अधूरी होती दै। किन्तु इस गुर के व्यक्ति व्यापारी होते दह। इन्दं क्डकिर्यों अधिक भौर ल्ड्के थोडे इस तरह संतति भूयस्तव होता ह।

कक-वरृश्चिक वा मीन में यह गुरुदहदो तो संतति होती दही नहा।

गुर अगितत्व प्रधान, उष्णप्रकृति का ग्रह है ओौर यदि यह जलतत्वप्रधान रारिमं होतो निष्फल हो जाता है । अतएव खरीरारियां मं संतति ओर धन के विषयं मं इस गुरु का फ छ्ुभ नहीं होता दै। इस भाव के व्यक्ति वकील- एडवोकट, वैरिस्टरयदि होतेह तो इन्द प्रवीण होनेसे कीर्तिं मिलती है वैद्यक-दशंनशाल्ल-भापाविक्षान आदि मं ये प्रवीण होत | इनका प्रेम सभी लोगों से उदासीनताप्रणं होता दै। स्री के विषय मं भौ कोई विरोष चिन्ता नहीं होतौ-किन्तु पुरो क विधय मे चिरितत रहते ह्‌ | यातो पुत्र संतति होती नही-दोतीदहै तो पुत्रां से कुछ खाभविशोष नदीं दहोता है। प॑चमस्थ गुरु डाक्टर्यो भौर वकीर्खो के लिए अच्छा दै-लामकारी भौर कीर्तिदायी है। अन्य व्यवसायक्र छागां क लिए सामान्य है । षष्ठमस्थ गुरुफटप्‌- रुजार्ता जनन्या सुज: संमवेयू रिपो वाक्पतौ श्हंतृत्वमेति । वलादुद्धतः को रणे तस्य जेता महिष्यादिक्षमो न तन्‌ मातुखानाम्‌ ॥ ६ ॥

अन्वयः-वाक्पतौ सिपौ ( स्थिते ) रुजा आतः ( भवति ) रानुहं तृप्य एति, बलात्‌ उद्धतः (भवति) त्य रणे को जेता ( स्यात्‌ ) महिष्यादि शर्मा ( भवति ) तत्‌ ( खखं ) मावुखनां न ( भवेत्‌ ) जनन्या सुजः( च) संभवेयुः ॥ ६ ॥

ञ्हस्पविफल २९१

सं० दी रिपौ षष्टे वाक्पतौ जीवे सजातैः रोगपीडितः अपि शनुतृष्वं दात्रुहनन सामथ्यं एति प्रभोति, बखात्‌ उद्धतः रणे तस्य को जेता, न कोपि पराजय कर्ता इस्यथंः । मदिष्यादिमिः. शर्मा मोग भाव वेत्ता यस्यः सः, तथा माठुलानां न तत्‌ शमं, जनन्या मातः रजो रोगाः संभवेयुः ॥ ६ ॥ अथे– जिस मनुष्य के जन्म से छटे स्थान में बृहस्पति हो व रोगां रहतादहे। तौ भी शत्रुं का नाशक होता है, बह अपने बर से अभिमानी होता है। वह रात्रं के साथ युद्ध मे विजयी होता है । उसे भेसे-गार-घोड़ा आदि चारपाएः जानवरों का सुख मिलता है-किन्तु उसके मामा को सुख नदीं होता है | उसकी माता नानाविध रोगों से सगणा रहती है । तुखना-रिपावाजौ जता रिपुरतिबलत्तस्य पुरतो नतिष्ठव्यद्धा वै भवति जननी रोग निवहैः। परिव्यग्रा नित्यं न हि सहज वगेषु कुशल जनन्या जम्भारेगुंरुसयर कान्ता रति. ततिः ॥ जीवनाय अथे– जिस मनुष्य के जन्मसमय मे गुर षष्ठभावमें दो वह युद्ध मे शत्रुओं को जीतने बाला होता है । उसके आगे युद्ध म बलवान्‌ शत्रु भी नदीं ठहरता है । उसकी माता सद्‌ा रोगों से पीडित रहती है । ओौर माता के बन्धु वर्गोमेंभी (मामा आदिमे भी) कुक नदीं रहतारै। परंचसुन्दरी स्री से रति सुख मिलता है । “शन्तुः 2 वराहमिहिर हि अथे–जातक विगत शत्रु होता है-या तो रके मारे शु इसके सम्मुख नहीं भाते अथवा युद्ध मे पराजित होकर भाग जाते है । अतः इसके शतत नहीं होते । | ““सद्रीतविद्या दहतवचिस्षव्रत्तिः कीर्तिप्रियोऽरातिजनप्रहर्ता। ` प्रारन्धकाय्यालसङ्ृन्नरः स्यात्‌ सुरेन्द्रमन्बौ यदि रातुसंस्थः ॥ दृण्डिराज अथे-जातक सङ्गीत विद्या का प्रेमी होता है-यश् काग्रेमी, तथा शत्रु गण पर प्रहार करने बाला होताहै। जिस कामको हाथमे छेताहै उसे समाप्त करने में चीघ्रता नदीं करता है अर्थात्‌ आल्ख करता है । वषे गुरौ विध्रयुक्तो वहु शत्रुश्च निष्टुरः । उद्वेगी मतिदहीनश्च कामुको जायते जनः ॥› काक्षीनाथ अथं- इसके काम मे विन्न आते ह । शत्रु बहुत होते है । निटुर, षतरड़ाने वाखा, मूखं तथा कामी होता है । | हिस्नोऽल्सः कीर्तियुतोऽरिदहंता विरागवान्‌ शरुगदेगुसधेत्‌ | जयदेव अथं–जातक हिंसक-माल्सी, यशस्वी, शतरुहंता तथा संसारी विषयों से विमुख सौर विरक्त होता है । | “स्वस्पोद्राधि पुंस्स्वः परितो दुबरोऽर्सः षष्टे । स्रीविजितो रिपुहंता जीवे पुङषोऽतिविख्याति विख्यातिः ॥ कल्याणवम!

२९२ चवमरक्छारचिन्तामणि का तुख्नास्मर स्वाध्याय

अथे–इसे भूख कम होती है-पौरष कम होता है । पराभव पाता है- दुबला ओौर आलसी होताईहै। स्रीके वशमे रहतादहै। शत्तु विजेता ओौर प्रसिद्ध होता हे । “कामीजितारिररोऽरिगतेऽमरेञ्ये । वेद्यनाथ अथे–यह कामी, शत्रु विजेता, भौर दुर्बल होता रै | ““करिहयेश्र कृशांगतनुः भवेत्‌ जयति रात्रकुरं रिपुगेगुरौ । रिपु्हे यदि वक्रगते गुरौ रिपुक्रुलाद्‌ भयमातनुते विसुः ||” मानसागर अथ–यह जातक कृरा शरीर होता है। यह हाथी-घोड़ो द्वारा शत्रु पर विजय प्राप्त करता हे! यह गुरु यदि शतुगृहमें हो अथवाकक्रीहोतो रत्र काभयदहोतारै। “प्रष्ठ स्यादटसोऽरिहा परिभवी मन्त्रामिषारे पटुः] मन्त्रेश्वर अर्थ–यह आलसी, `रात्रुनाशक, यपमानित, तथा जारणमारण भारि मन्त्रँ मे कुशल होता हे | “जीवः करोति विकल शुचम्‌ 1 वशिष्ठ अर्थ-सोगी मौर शोक करने बाला होता है । “स्वगेहे दयुभगेहेवा षष्ठे गुरुरमित्रहा । रत्रुगेहेऽरिणा दष्टे शतरुपीडां ददाति सः । सलौ शत्रुगौ स्यातां तदा स्याद्‌ गोधनं बहु | गुरः रिपुगेदे यदा मवेत्‌ तदा श्रात्रस्वखणां च मातखानां महासुखम्‌ , यस्य जीवो भवेत्‌ षष्टे भवने तेजसा युतः | शुभं तस्य प्रवक्तव्यं जातस्य प्रच्छकस्य वा| सदैवं दोषान्‌ चन्द्रेण समः पतङ्धः ॥ ग्ण अर्थ–यह गुरु खण्मे वा छमग्रह की राशिमें होतो शत्तुनाश्चक होता है । रातरुग्रह की राशिमं हो अथवा शतरुग्रहकी दष्टिमेंहोतो शत्रुं से कष्ट होता दै । यह गुर बल्वान्‌ हो तो बहुत गौ होती है । यह गुर भाई ब्रहिनों के ए तथा मामा के लिष्‌ सुखकारी होता है | जन्मक्रुण्डलटीमे, वा प्र्क्रुंडटी मे बलीगुख दो तो श्चमफर् देता दै! यह गुरु च॑द्रके साथहोतो द्‌ःष करता है अथात्‌ अङ्भम फलट्दाता होता दे । “सद्गीतन्रव्याद्यत चित्तवृत्तिः कीरिं प्रियोऽथो निजशतुहंता । आरम्भ कालोद्यमङ्नरः स्यात्‌ सुरेन्दरमत्री यदि शतुसंस्थः || € | वृहुद्यवनजातक अथं–गाना, बजाना, नाचना, इसे प्रिय होते है- कीर्तिमान्‌ तथा अपने क प्र विजयपाने वाल होतादहै। का्यके प्रारम्भ मे यलनशीख होता ह ।

बृष्टस्पतिफर २९

^“घष्ठे भ्रातृनाशकरो गुखः ॥ अ्थ- छटारुङ भाईयों को मारक होता है । ८“ जीवे भवेष्येव शतुमादल्नाशङृत्‌ ॥* अथं-छटागुर रात्रुओं भौर मामाकेखिट भारक दहै। ““सुररुङः रवाभ्धौच शत्रोभंयम्‌ ॥ अथे–४० वे वषं शुभं का भय होता ह । “ष्ठे पराजयं व्याधि च कुरुतः गुरुणा रोगाभावे तु न।सिकायाम्‌ । षडवर्ष दाद शवे उवर रोगी “भवेन्नरः ॥* पराशर अथे-छ्टागुर पराभव भौर व्यापि देता है । रोग नदीं होते, यदि होते है तो नाक के रोग होते है । छ्टठ्वै ओर बारदर्वे वषं उवर होता है । ८५ सुरेज्यो वीर्यान्वितोऽरिस्थितस्तद्ग्रहं । बहुगोधनेन सितं वा सौरमेयेः धनैः ॥ वीयाव्येज्ये सुप्रजाः सौख्ययुक्तः। पुत्रापत्यभ्रातरसोख्यान्वितः स्यात्‌ ॥ पुजराज अर्थ–यह गुरु बटी होतो जातककेधर मे, गौर्प भौर कुत्ते बहुत होते ई । पुत्र ओौर भाईयों का सुख मिक्ता है । पाश्चार्यमत-यदह गुखुवल्वान्‌ हो तो शरीर प्रकृति अच्छी होतौ दै, नौकर गच्छे मिलते है । वैय, उाक्टरो कै टिए यह गुर अच्छा होता है। स्वास्थविभाग की नौकरी में ये यशस्वी होते ई । सावंजनिक स्वास्थ्य विषय में ये प्रवीण होते रै । स्वतंत्र व्यवसाय की अपेक्षा नौकरीके किए यह गुरु अनुकर होता है । यह गुरु यदि अश्म योगम हो तो यजत के विकार, मेदशृद्धि-तथा खाने-पीने की अनियमितता से अन्यरोगदहदोते्है। भ्र शुसूत्न-शतुश्चयः, ज्ञातिष्द्धिः; पौतरादिदशेनं त्णशरीरः शभयुते रोगाभावः । पापयुते पापक्ेत्रे वातशैव्यारिरोगः। मन्दकषेत्रे राहुयुते महारोगः ॥ अर्थ–रात्रु कानाश्च होता है; जाति की इद्धि दोती दहै । पुत्र ओर पुत्र केः पुत्र (पौत्र) देखने का सौख्य मिल्ता है । शरीर मं चिह होता है । इस गुर वः साथ श्चुमग्रहवैठतो रोग नदीं दोते। .पापग्रहकां योगदहोवा पापग्रहके घरमे यहगुरुहोतोवातके तथा शीतके रोग होतेर्है। यदह गुरु शनिके स्थान (मकरकुभ) में राहु के साथ बेटे तो भयंकर महारोग होते ई । विचार ओर अनुभव-शास््रकारो के अश्चभफल पुरुषरारियों में अनुभवगाष्वर हर्मि श्चमफलों का अनुभव स््रीरारियों मे होगा | ६ठे भाव.का शुर चाहे किसी राशिमेंहो मामा भादि के डिए अच्छा नहीं है । इस भाव का गुर कै्-डाक्टर ओर वकीलों के लिए श्चम नदीं है । सामान्यतः इसभाव के गुरं के व्यक्ति के तारे मे लोग संदिग्ध र संशयात्मा रहते ई । |

९७ षदमर्कछारचिन्तामणि का तुखनाव्मक्‌ स्वाध्याय

यद गुर पुरुषरारिर्यो मे दहो तो व्यक्ति सदाष्वारी नहीं टहोते-इन्दै जुभा; दारा ओौर वेद्या मं प्रेम होता है । इन्द मधुमेह; बहुमूत्रता; हार्निया, मेददृद्धि दि रोग होते ह | यह रुरु यदि धने होतो पैतरकसंपत्ति नहीं मिर्ती । यह मेष, कन्या; वा ककं ल्य वालं के लिए भाग्योदय में रुकावट डाल्नेवाखा है । मिथुन, ठला वा मकर मँ होतो ब्यक्ति सदेव ऋणी रदता है । इस व्यक्ति का सहायक दैव दही होता है-दैवी सहायता से आपत्तियों से छुटकारा मिक्ता दै । षष्टभावस्थ गुरु यदि मीन मे दो तौमी अच्छा नहीं द्योता ऋणकारक होता है । सप्रममावस्थ गुरुफलम्‌- मतिः तस्यवही विभूतिश्चवही रतिवंभवेद्‌ माभिनीनामवही । गुरुवेगकरद्‌ यस्य जामित्र नावे सपिंडाधिकोऽखंड कंद पेएव ॥ ७ ॥ अन्वयः यस्य जामिच्रमावे गुरुः (स्यात्‌) तस्यमतिः बही, विभूतिश्चवही (भवेत्‌) मापिनीनां वैभवे रतिः अबही (स्यात्‌) सः सपिंडाधिकः अखंडकंदरपैः गवत्‌ एवं (मवेत्‌) ॥<॥ सं टी<-जामित्रभावे सप्तमे यस्य गुरः तस्यवही मतिः विभूतिश्च धनादि समृद्धिः बही बहूका, मामिनीनां कामिनीनां रतिः प्रीतिः सुरतः अबह्ी सस्पा गर्व्कत्‌ अपि अभिमानवान्‌ सपिडाधिकः गोत्रजैः सवलः अखंडसोदयादिगुणपूणैः कंदप॑ः कामः एवमभवेत्‌ इत्यस्य सवत्र अन्वयः ॥ ऽ॥ अथे–जिस मनुष्य के जन्मल्य से सातवें स्थानम वृहस्पति हो उसकी बुद्धि बड़ी होती है, अर्थात्‌ उसकी बुद्धि साधारण लोगों की बुद्धि की अपेक्षासे बहुत ऊंची-दूखरे के मनोऽन्तगंतभाव को समञ्लने वाटी होती हे। अर्थात्‌ सस्मभावगतरुरुप्रभावान्वित व्यक्ति कुशाग्रबुद्धि होताहे। इसकी विभूति-घना- दिसमूद्धि मी दूचरो की अपेक्षा से वटृष्चद कर दोती हे । अर्थात्‌ इसका वैभव तथा एरय गगनचुम्बी होता दै । किंत अपेक्षाक्ृत प्रेम स्वियौ पर अधिक नहीं होता है | अर्थात्‌ इसे स्त्री पर आसक्ति नदीं होती । अपने माई-बहिनों से सरक्त होता है अथवा अपने कुल्के रोगों में श्रष्ठहोतादहे। रूप में यह काम देव के समान सुन्दर होता है। यहोँ पर ग्रथकार ने अमेदारोपणसे कामिया दै । सप्तमभावस्थ बृहस्पति के प्रभाव का व्यक्तितो दूसरा कामदेवदहीहोताहै अभेदारोप से सीदर्यातिदाय चोतित किया गया हे । यद अव्यत अभिमानी भमीदहोता है ॥ |] तुट्ना-रारौ दारागारे जननसमये यस्य॒ भवति व्रजन्युच्ैः पुंसः सपदिपरमववं दपक्ुखत्‌ । विभूतिः प्रज्ञापि प्रभवति ष्व बह्लीफट्वती | न परममदनाधिक्यममितः ॥ जीवनाय अथे- जिस मनुष्य के जन्मसमय में वृहस्पति सक्तमभावमें हो वहं व्यक्ति शीघ्र परम उच्चस्थान को प्राप्त करता दै। इसे राजकुकसे पणं धन का

ब्रह श्पतिफर २९५

लाम होता है-इसकी सद्‌-असद्‌ विवेककारिणी बुद्धि बहुत फल्दायिनी होती दै। इसे. स्व्ीरतिसुख अधिक मिरुता है, ओौर यह बहुत कामी दोता है। नारायणम ओर जीवनाथ का मतमभेद्‌ विचारणीय है । एक के मत में स्तमभाव- गतरुरुप्रभावान्वित व्यक्तिः स्वी रतियुख मँ अनासकत्त-सा रहता रै । टीकमभीदै ब्रहस्पति उपासक लोग प्रायः साहिव्यप्रेमी-क्ञानी-विषयविमुख ही होवे ह । किन्तु जीवनाथ के दृष्टिकोण से बृहस्पति के भक्त अतिकामुक होते ई ओर रतिक्रीडा विचक्षणा स्त्री म अत्य॑त आसक्त होते ईै। दोनों ग्रन्थकारो का अनुभव अपना अपना है-विचार की कसौटी पर ख्गाया हुभा नारायणम का अनुभव अधिक सुसंगत प्रतीत होता है। इस विन्वार की पुष्टि मँ वाचस्पति रचित भामती का उज्य्रल दृष्टांत है | “धपितरतोऽधिकश्चः | वराहमिहिर अथ- गुणों मे पिता की अपेक्षा श्रेष्ठ होता है । अर्थात्‌ यदि गुणों के दष्टि- कोण से पुत्र की वुलना उसके पितासे की जावे तो प्र अधिक गुणी होता है। “सुभगः सुरुचिरुदारः पितुरधिकः सप्तमेभवति जातः । | वत्ता कविः प्रधानः प्राज्ञः जीवे सुविख्यातः” ॥ क्रल्याणवर्मा अ्थ- यह व्यक्ति सुन्दर, भच्छी रुचिवाला, उदार, पिता से रुणो मे अधिक, वक्ता, कवि; श्रेष्र-वुद्धिमान्‌ ओौर प्रसिद्ध होता ईै। (“सप्तमस्य स॒राचाय॑ कामवितो मदहाबखः। धनीदाता प्रगत्मश्च चि्रकमाच जायते| काश्ीनाथ अथं- यह कामुक, बलान्य, धनी, दाता, बोल्ने मे-समा मे भाषण देनेमें कुशल, तथा चिच्रकर्मा-विचितच्र काम करनेवाला अथवा चि्रकार-फोटोग्राफर होता है। ॑ “प्राज्ञः सुमित्रो विनयी, सुमन्त्री, स्वीसौख्ययुक्‌ ससतभ्रगे सुरायै? । यदेव अ्थ–यह बुद्धिमान्‌ होता है-दइसके मित्र अच्छे होते ईै-यह अच्छी ओर्‌ श्म मंच्रणा देनेवाला होता है। इसे स््ीसुख मिरुता है-यह विनययुक्त होत है । ८“श्ास्ाभ्यासासक्त चित्तो विनीतः कांतावित्तात्यंत संजात सौख्यः | मजी मत्यः काव्यकर्ता प्रसूतौ जायामावे देवदेवाधिदेवः’ ॥ दुण्डिराज अ्थ–यह शास्त्रपरिशीट्न मे आसक्तचित्त होता रै-स्वभाव मे नघ्न होता है, इसे स्त्री ओर धन का सुख बहूत मिट्ता है-यद अच्छा सलाहकार ओौर काव्यरचना कुशठ होता है । “्वीरश्ारुकल्त्रवान्‌ पित्रगुरुदधेषी मदस्थे गुरौ, वागीरो गुणयुक्ता सुपुत्रिणी । नीचे गुरौ मदनगे सति नष्टदारः, विप्रवनितांजीवेः । वैयनाथ अर्थ– यदह पै्यसंपन्न होता दै-यह सुरूपास््री का प्रति होतादहै। यह ` पिता भौर गुखुजनों से देष करनेवालख होता है । यदि गुर नीचराशिमेंद्ोतो

२९६ ` ष्वमस्कारचिन्तामणि का सुरखनारमक स्वाध्याय

स्त्री की मृत्यु होती दै। इसकी पत्नी गुणवती ओर पुत्रवती होती दहै । इसका ब्राह्मणी से अवैष संबंध दोता दै । °“सत्पत्नी सुतवान्‌ मदेऽतिखुभगस्तातादुदारोधिकः” । मन्त्रेश्वर अ्थ- इसकी स्री र पुत्र उत्तम होते है । स्वयं सुन्द्र होता है । अपने पिता से अधिक उदार होता दै। °’्युवति मंदिरगे सुरयाजके नयति भूपति वल्य सुखं जनः । अम्रतराध्िखमानवष्वाः सुधीः मवति ष्वाखुवपुः परियदशनः ॥” मानसागर अथे-इसे राजा के समान सुख प्रास ददोतादहै। इसकी वाणी अमृतके समान मधुर होती है । यदह बुद्धिमान्‌ ओौर सुन्दर होता है, इससे मिलकर लोग प्रसन्न होते है अर्थात्‌ यदह मिल्नेम आकषक ओौर वद में करनेवाख होता है। | | “मद्नगते वाक्पतौ पुत्रचिता? । जातकालंकार अथं– पुत्रों की चिता होती है। रिप्पणी–“पुत्रचिन्ताः समाखांत दै । इसके कद एकं अथंदो सुकते है । पुत्र उत्पन्न दीन ददो तौभी पुच्राभाव से विता होती हे–होकर पुत्र की मृत्यु हो जावे तौभी पु्रमरण संबंधी चिता होतीदहै। पिताको करकित

करनेवाे पुत्र हों तौभी पुत्र चिन्ता होती दहै-पिताके साथ प्रतिदिन वाग्‌ ..

युद्ध करनेवाला पुत्रों से मन खिन्न रहता है–वैमनस्य-संबंधी मानसिकक्लेश होता है; यद भी पुत्रचिता है। पु्सुख के विषय में निम्नलिखित नीति- दाख का वष्वन है–““पुण्यतीरथ कृतं येन तपः क्ाप्यति दुष्करम्‌ तस्य पुत्रो भवेद्रदयः सम्रद्धो धार्मिकः सुधीः | पुत्रके ङ्एि आक्ञाकारो दोना परम सावदयक है । यह भाव हे । (“मानं बह्ुपुत्रयुक्तताम्‌ 1” वशिष्ठ

अथै- मान मिलता है, बहत पुत्र होते है ।

युवति मंदिरे सुरयाजके नयति भूपति व॒व्य सुखं जनः ।

अस्रतराशिखमानवचः सुधीः भवति चाख्वपुः प्रियदशेनः ॥

“पूज्ये रम्या सुतस्‌ः । “सप्तमे गुर सौम्यौ चेत्‌ तदैका वनिता भवेत्‌ ।> गणं `

अर्थ- राजा जैसा सुख मिलता ै। अग्रत के समान मीडा बोलता है। बुद्धिमान्‌ ओर सुंदर होता है। पल्ली सुन्दरी भौर पुत्रवती होती है। सप्तम मेरुखवाबधदोतोषएकदहीखरीददोतीदहे। | ^“शास्राभ्यासेऽ्यत सत्तो विनीतः कांता पित्रा स्यत संजातसौख्यः। मत्री म्यः कार्यकर्ता प्रसूतौ जायाभावे देवपूज्यो यदि स्यात्‌ ॥” ॥ | वृडुख बनजातक अ्थ-जातक शाख परिशीलन मे बहत आसक्त रहता है-विनग्र होताहै ।

इसे कान्ता ओौर पितासे युख मिक्ता है । मंन्नरी योर काम करनेवाला होता दै।

हर्पतविषफर २९७

(जीवे गौरवा नारी ।* पु जराज अ्थै- पल्ली गोरे रंगकीदोती हे । (वुः गौरगरिष्ाम्‌ 1”

अर्थ- पत्नी गौर वर्णं की होती दहै।

(‘मवेद्‌ बुद्धिमान्‌ सौख्य युक्तो नरः स्यात्‌ सुखं शत्रुजेता भवेद्वा ।

विभूत्याधिया को भवेत्‌ तेन स्यो यदा प्राण नामाख्येऽथो गुरः स्यात्‌ ॥*!

जागेहक्वर

अर्थ–यदह वुद्धिमान्‌ सुखी; शच जेता हता है। इसे खन्द्री सुखोचना ल्रीका सुख मिलता है वैभव तश्चा रेशववैमें तथा बउुद्धिवैभव में इसके ठस्य वुसरा कोड नहीं होता । -

“सप्तमे सेनापत्यं धनायतिः ।> परश्चर

अर्थ–यह सेनापति ओर धनी होता है ।

पाश्चाव्यमद–इसे विवाह के कारण सुख, धन्‌? ओौर विजय भिख्ता हे । न्याय के कार्यम यश मिल्तादरहै। यद गुरुमकरमेंदहो तो संखारघुखयीक तरह नदीं मिल्ता । पति या पत्नी उद्रार, न्यायी, सुश्वभावौ, प्रामाणिक आर स्ने होती है । विवाह से भाग्योदय होकर धन, श्रेष्ठपद आर मान्यता मिख्ती ६ । परनी या पति उ्चक्रुल का धनवान्‌ भौर खुखी होता है । शतुता दुर दती है, मित्र मिते है । साक्चीदार अच्छे होने से खाक्चेके व्यवहार में यर कष्वहरी ठे मामलो मे यद्या मिलता है । वकी्ल्ये केलिए सप्तम मे गुर वख्वान्‌ होतो सच्छा योग दोता है । क्योकि ये समन्लौत्ा करने मेँ कुशल होते्ह। किन्तु यही गुर अश्चभयोगमें या कन्याराशिमें दहो तो विशेष खाम नदीं होता ।

भगुसूत्र–विच्या धनेशः, बहुल्ाभप्रदः, वचिताधिकः, विन्यावान्‌ › पातिन्रत्व- भ्तियुक्तकल्तरः, सुनाभिकरिसंयुक्तः;, शभोररः सुखी । भावाधिपे -बलहीने राहुकेठरानिकुजयुते पापवीक्षणाद्वा कच्त्रान्तरम्‌ । छभयुते उचस्वक्षेत्रे एकदा- रवान्‌ कलत्र दवारा बहु वित्तवान्‌ ; खुखी, चतुश्िराद्षं प्रतिष्ठा सिद्धिः ॥

अथं–यह गुर धनेश वा प॑च्मेशदहो तो बहुत लाभद्ोताह। चिता अधिक होती है विद्धान्‌ होता है। इसकी स्री पतित्रता-पतिपरायणा होती दहे । इसकी नामि-कटि, ओौर पेट संदर होते ह । सुखी होता है।

सक्तमस्थान का स्वामी निर्बल हो, अथवा राहु, केतु; शनि ओौर मंगल ग्रहचैठे दों वा पापग्रहदेखतेहों तो परदारोपभोक्ता होता है। यदि सप्तम सान के स्वामी के साथ द्यभग्रहदहो, वा उच्चमे ( करकराशिमें) अधवा अपने रह (धन-मीन) मेंद्ोतोषएकदहीख्री वाद्यम हो जौरस्रीके द्वारा बहुत धनवाख हो तथा सुखी हो । र्वे वपम प्रतिष्ठा प्राप्त हो|

विचार ओर अल्ुभव-वैयनायने इख स्थानके गुर का फल अश्म भी बतल्या ई; ‘“पित्रगुरुढेषी” रेता अश्चभफरू कहा है। इसी प्रकार जानका्ंकार कर्तने भी ध्पु्रचिन्ताःः यह अञ्चभफर बतलाया है । इनका

२९८ चमत्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

अनुभव स्रीरारियों मे आएगा । शोष म्रन्थकारो के वतलाए शुभफलो का अनुभव पुरुषराशियों मं प्राप्त हो सकेगा |

मेषः सिंह; मिथुन वा धनु मे सत्तमभावस्थ गुर शिश्वा कं लिए अच्छा है। पूणशिक्षा प्राप्त कर लेने के भनन्तर व्यक्ति विद्वान्‌ बुद्धिमान्‌ शिक्षक, प्राध्यापक वकोट, वैरिस्टर आओौर एकाधवार न्यायाधीद भी होतारै। शिक्षा-विभागमें नौकरी के टिए्‌ यह अच्छा योग है |

मिथुन; सिह तथा कुम मे यह गुर हो तो पत्र संतति की चिता होती रै । यातो संतति होती नदीं, हई तो इसकी मस्य हो जाती है । बष-कन्या, कव, इधिक-ओौर मीन रारियोँ का गुर संसारखुलप्राप्ति क दिष्‌ नेष्ट है| पति- पली मं गडा हो जातादै, या पल्नीगायव होजाती दै, या विवाह विच्छेद होता है| कभी विवाह कै विरुद्ध विष्वार उठते है-अविवादहित रह जाना होता ह; वा पति-पत्नी अलग-अलग रहने लगते हैँ । ऊपर खी परिस्थिति कक, बृश्चिक वा मीन में विरोषतया देखने मे आती दै । यह गुरु तला, वा मकरमेंदहो तो दो विवाह होतेर्है, सख्रीरारि के रुरु से व्यक्ति व्यापार की ओर ञ्कतादै। पुरुषररारि मं गुर होतो व्यक्तिकाप्रेम पत्नीपर कमदहोता है-यह्‌ व्यक्ति मनस्यन्यत्‌ वचस्यन्यत्‌ कर्मण्यन्यत्‌ दुरात्मनाम्‌ । का ज्वटंत उदाहरण होता है । इसकी दषटिमे खरीपश्य सेभीनिम्नकोटिकी होतीदहै। ल्मे लीरारि मंगुरुहोतो यह व्यक्ति खरीपुत्रसे प्रेम करता दै। किन्तु इसव्यक्ति का वरताव बाहर विरोपष्र अच्छा नहीं होता । सपत्तमस्थान मं गुरु पुरुषरारिमें होतोखरीपरप्रेम होतारै। च्रीराशिमें यह गुरु दोतो खत्री वच्छ समञ्ची जातीदहे। इसस्थानके गुरसे पुत्रचिताहोती है। रेते व्यक्ति की पत्नी (“क्ा्यषुपत्री, करणेपुदासी, मोय्येपुमाता, शयने पुरभाःः इस प्रकार सभी कामोँमें कुशल होतीदहै। ककराशि में गुरुहोतो ेसी स्री प्राप्च होती दे। किन्तु युके मध्यभागं ही उसकी अचानक मृत्युहोती है। यदह अचानक मृद्यु इसी प्रकारकीहोतीदै जेसे राजा अज की रानी इन्दुमती की मृत्यु हद्‌ थी । अष्टमभावस्थ रुर्फटम्‌–

चिरं नो वसेत्‌ पैक चेवगेहे चिरस्थायिनो तद्ग तस्य देहम्‌ । चिरं नो भवेत्‌ तस्य नीरोगमंगं ुरखत्यगो तस्य वेक्रुंटगंता ॥ ८ ॥

अन्वयः- गुरुः यस्य मृत्युगः (सः ) पतक गेहे चिरन एव वसेत्‌ $ तद्ग्रह तस्य देहे च चिरस्थायिन (भवेत्‌), तस्य अंगं चिरं नीरोगं न मवेत्‌ । (सः) वेकुण्ठग॑ता (स्यात्‌) ॥ ८ ॥ |

सं टो— यस्य मृल्युगः अष्टमस्थः गुरुः स॒ नरः पैतृके गेहे पितरृयदे चिरं चिरकालं नो वसेत्‌ न तिष्ठेत्‌ , वैकुण्टगंता देहान्ते विष्णुलोकगामी वपुः, एवकारः यप्यथं । तस्य देहं रारीरं अपिनो, तद्णहं तत्‌ कृतं अपि गहं न चिरस्यापि

ब्रह स्पतिफङ २९९

बहुकालं एकचवाखी चिरं जीवी वान, इत्यथः । तथां तस्य अंगं नीरोगं रोगरदितं चिरं नो भवेत्‌ ॥ ८ ॥ अथे–जिख मनुष्य के जन्मल्य्य से आय्येस्थान में बृहस्पति हो वह अपने पिता के घर मे बहुत समय तक नहीं रहता है । उसका धर ओौर उसका देह बहुत समय तक स्थिर नहीं रहता है । उसका शरीर कभी निरोग नहीं रहता है । अर्थात्‌ वह सदेव रोगी रहता दै । शरीर छूटने पर वह वैकुण्ठ में जाता रहे । भावाथ यह कि अष्टमभावस्य गुरु प्रभावान्वित व्यक्ति अपने पिता को छोड़कर किसी अन्य स्थान में रहने लगता है-इस अन्यत्र निवास के कड कारण हो सकते है-पिता के साथ वागृयुद्ध वा वैमनस्य, इसकी खरी का अपनी शवश्रू के साथ प्रतिदिन का ठ्डाई-ञ्षगड़ा, नए मकान का वन जाना भौर पिता के धरसे इस नए मकान का अधिक सुखदायक होना, अथवा पिता से सदेव के लिए विभक्त दहो जानावा जीणं-शीणे पेतृक्णह का वर्षा-भूकंप आदि के कारण धरातल्यायी हो जाना । अष्टमभावगत गुरु प्रभावान्वित व्यक्ति देहांत हो जाने के अनन्तर वैक्रण्ठ मे अर्थात्‌ विष्णुरोक मे जाता दै-इसका अथं स्पष्ट नहीं है । क्या इसका अथं यह दै कि समी व्यक्ति, भिनके आयव स्थान मं गुरु दोगा, वैकुण्ठवाखी होगे १ क्या यह संभव दै १ जीवनाथ के अनुसार वह व्यक्ति, जिसके अष्टमभाव मे गुर होता है-देहान्त होने के अनन्तर विष्णु सायुज्य पाता है १ क्या इतनी सस्ती सायुज्यसृक्तिका प्राप्त होना संभव दहै १ दोनों म से किसी प्र॑थकारने भी किसी अन्य साधन संपत्ति की ओर संकेत नहीं किया है । क्या यह अत्यन्त श्चुभमफल अतिशयोक्ति्रस्त तो नदीं है १ मेरा विचार तो यह है कि इष्टापूतंकरण अनन्य विष्णुभक्ति-जन्मजन्मां तरकृत सात्िक श्भकमादिजन्याद््ट प्रावव्य से ही विष्णुटोकम्रासि-सायुज्यमोक्चप्राप्ति संभव हे । कथन का तात्पयं यह कि अन्य साधन से पति के साथ अष्टमभावगत गुर का होना भी आवदयक है। तुखुना-“गुरौ मृत्युस्थाने जनुषि न वसेत्‌ पेतृकगरहे चिरंजीवी किंत प्रभवति गदात्ता हि मनुजः कुटखालम्बी यस्याचर मति रसौ सुन्दरतनः सदावै देहांते व्रजति हरिसायुज्यपदवीम्‌ | जीवनाथ अथे- जिस मनष्य के जन्मसमथ मे बृहस्पति अष्टमभाव मे हो वह पिताके घरमे नहीं रहता है। वह चिरंजीवी होता है किंतु सदैव रोगी रहता है । यह कुलाचार-कुल्परपरागत परिपाटी का माननेवाला होता हे । यह स्थिर मति भौर सुन्दर शरीरवाला होतादै ओर देहांत होने पर विष्णु के सायुञ्य- मोक्ष का लाम करता दहै। °विरजीवीः होना; सदैव रोगी रहना ओर सुन्दर दारीर होना, ये फठ परस्पर विरुद्ध प्रतीत होते ईै-क्या यह संभव है कि मनुष्य सदैव रोगी होकर रोगदाय्या पर भी पड़ा रहे ओर इसका शरीर भी खुन्दर बना

३०० चमस्कारचिन्वामणि का तुरुनारमक स्वाध्याय

रहे १ रउग्णावस्था के कारण कोद मनुष्य सुन्दर दारीर नदीं रह सकता है-रोग से शरीर जीण-शीणं हो जाता है इसके अंग-प्रत्यंग पूव॑वत्‌ दृट्‌ नहीं रहते प्रत्युत टीठे पड़ जाते है जिससे सौंदर्यं नष्ट दो जाता है। नीचः” ॥ वराहमिहिर अथे- नीच होता है, अर्थात्‌ अपने कुल के अयोग्य काम करने वाटा होता हे। “प्रेष्यो मनुष्यो मलिनोऽतिदीनो विवेकदहीनो विनयोज्ज्ितश्च | निव्यालसः क्षीणकलेवरः स्यादायुविंरोषे वष्वसामधीरो ॥ दण्डिराज अथ-यह मनुष्य नौकर, मलिन; दीनः; विवेकद्ीन, विनयहीन, सदैव आलसी सौर दु्ब॑ख देह होता रै । “प्रेष्योऽतिदीनो मलिनोऽख्खः स्याद्‌ । विवेकदीनो विकृतोऽ्टमस्थेःः ॥ जयदेव अथे- यह दाख, दीन, मलिन, आलसी, विवेकदीन होता रै-इसे कई विकार होते है| ८’जीवेऽष्टमे सदारोगी कृपणः शोकसंयुतः बहूवैरी कुकर्मा च कुरूपश्च भवेन्नरः ॥ का्ञीनाथ अ्थं– यह सदा रोगी रहता है । यह कृपण (कज) रोकाकुर, शन्तं स पिरा हभ, बुरे काम करने वाला तथा कुरूप होता है । “परिभूतो दीर्घायुः श्रतकोदासोऽथवा निधनसंस्ये । स्वजनप्रेभ्यो दीनो मलिन खरी भोगवान्‌ जीवेः ॥ कल्थाणवर्मा अर्थ- इसका अपमान होता है, यदह दीर्घायु, नौकर वा गुलाम होता है- यह्‌ स्वजनों में नौकरी करनेवाखा होता दै । यह दीन यौर नीष्व वग कील का उपभोग करनेवाखछा होता हे | “व्रिमल्तीर्थकरश्च बृहस्पतौ निधनगे न मनः स्थिरता यदा | धनकलत्रविदहीन कृशः सदा भवति योगपथे निरतः परम्‌? ॥ मानसागर अथ यह्‌ उत्तम-उत्तम तीर्थां का संवन करता हे-इरसका मन चचटठ स्ता है-यह धनः भौर खी से हीन-ङृश शरीर ओर योगमाग म निरत रहता हं अथात्‌ योगाभ्यासी होता “”दीनो जीवति सेवया कदटुषभाग दीधायुखि्येऽष्टमेः ॥ मंच्रेश्वर अथ- यह दीन -कुकर्मकता ओर दीर्घायु होता दे-यह नौकरी से जीवन निवह करता है | °भमेघावी नीचकमी यदि द्विजगुरै र्रयाते चिरायु „ ॥ वंद्नाथ अर्थ- जातक बुद्धिमान्‌ , नीचकर्म॑कर्ता ओर दीधायु होत। ह । (ष्टम व॑धनं तथाः ॥ पराञ्च अथे- कारावास मोगना पडता दै ।

ब्रह स्पतिफरु ॑ २०१

“जीवे मूृत्युगते ज्ञानात्‌ सुती मरणं भवेत्‌ । शयुभर्षं स्वगृहे चेत्‌ स्यादन्यत्र मरणं श्रमात्‌ ॥ गगं अर्थ–यह गुरु शभराशि में वा स्वण्हमेंदहो तो ज्ञानपूवंक किसी उत्तम तीर्थ॑स्थान मेँ मृघ्यु होती है । इसके विपरीत ष्थिति में कष्टपूर्वक मृत्यु होती है । (धनाना रोगैः शूलरोगात्‌ कणंरोगात्‌ तथेव. च | स्वजनात्‌ › विषूचिकातः, अतिसारात्‌, निजमव्यतः ॥ रक्तकोपात्‌ , तुरगतः निजेशात्‌ , राजकोपतः। बहुभक्षणात्‌ भवेत्‌ मृष्यु्जीवि स्यात्‌ मृत्युभाव? ॥ कडयप अ्थे– यह गुरु मेषराशिमेंहोतो विविधरोर्गासे, वरप में हो तोदस्ूछ रोग से, मिथुनमेदहोतो कणं रोगसे, ककम होतो अपने दी रोगों से, सिंह मेहोतो विषूचिकासे, कन्याम होतो अतिसारसे, वलमेदो तो अपने नौकर द्वारा, बृधिक में हदो तो रक्तदोषसे, धनुमेंदहोतो धोड़े से गिर पड़ने से, मकरमें दहो तो राजा द्वाराः कुम मदहोतो राजकोपसे ओर मीनमेंदहो तो बदूभश्चण से सत्यु होती हे । ८धव्रेष्यो मनुष्यो मलिनोऽतिदीनो विवेकदीनो विनयोज्जितश्च | निव्याछ्खः क्षीणकलेवरेद्‌ आयुर्निरोषे वचसामधीरः ॥ वृहद्‌ प वनजातक अ्थै–यह नौकर, मलिन, बहुतदीन, अविवेकी, अति उद्धत, आलसी दुबला होता है । ३१बे वषं रोग होते ह । “शुररनदुरामे रोगम्‌ । ८वपररंपैठकं नैव धान्यं सुखं वा रदे नैव ऋद्धिः सरोगी नरःस्यात्‌ । कुतस्तस्य भाग्ये धनं क्षीयते वै यदाजीवनायाविनाशेगतः स्यात्‌» ॥ जागेहगर अर्थ- इसे पैतरक धन-घान प्राप्त नदीं दोता है। सुख, घन, भाग्य, दैभव, यह कुक नदं होता है । सदेव रोगी रहता है । पाश्चात्यमत–यह गुरु बल्वान्‌ दो तो विवाह से आर्थिक लभ होता है, भौर प्रगति होने लगती है । कसी के वसीयत द्वारा मथवा मल्यु क कारण धन मिक्ता दै । यह बलवान्‌ गुरु शनि के साथ शुभयोग करता होतो वसीयत द्वारा स्थावर-जंगम सम्पत्ति अवश्य प्राप्त होती है । किन्तु यही गुरु पीडितदह्लोतो इन्हीं मार्गौ से असफलता द्वारा हानि होती है। इस गुरसे दीर्घायु प्रात होती दै। मत्य शान्त अवस्था मे होती दै। अपने जन्म का साध्य पूरा हुा यह जानकर ही मानोंये लोग मृत्युका स्वागत करते रहै। शरगुसूत्र–मल्यायुः नीषङृत्यकारी, पापयुते पतितः । भावाधिपे शमयुते रप्रेदी्धीयुः। वरुहीने अस्पायुः । पापयुते सप्तदशवषौदुपरिविधवासंगमो मवति | उष्दस्वक्षेत्रे दीधायुः । बलहीनः । अरोगी, योगपोरुषः, विद्वान्‌ वेद- शाच्ञ विचक्षणः ।

३० चमस्कारचिन्वामणि का तुरनार्मक स्वाध्याय

अथ– यह अस्पायु ओर नीचकर्म करनेवाला होता है। इस स्थान के गुरुके साथ पापग्रहदहो तो यह पतित होता दै। अष्टमेश शभगरह से युक्त होकर अष्टमस्यान में हो तो दीर्घायु होता दै अष्टमेशा निर्बल हो तो अल्पायु होता हे । पापग्रह वैठे होतो १७ व्॑के वाद्‌ विधवासे भोग करतां है । यह गुरु उच (कक ) मेवा मपने क्षेत्र ( धनु-मीन )मंदहोतो दी यु होताडे। नित्रल्हो तो नीरोग, पुरषार्थी-पण्डित तथा वेदशाख्र जानन- वाला होता है ।

विचार ओर अनुभव–अञ्चमफल का अनुभव स््रीरारियोँमें आता हे । श्मफल्ये का भनुभव पु्षराशियों मेँ याता दै । पराश्चरमत से अष्टम स्थगुरु बन्धनयोग कररता है । यह बन्धन ( कारावास) चोरी आदि पराध वा कन्या का कन्यात्व नष्ट करने के छिष्‌ बल्मत्कार मेथुन करना आदि अपराधो मे दिया जानेवाला कारावास म॑ंतव्य नदहै। जोगी लोग ऋण चकानः नहीं च।हत-सम्भ्तिको द्ुपा देते है शाहूकारको हर प्रकारसे परेदान करते हं उन कज॑दारांपर प्रमाव डल्ने के लिए, इन्द कजं चुकाने के लिए मजवूर करने के लिए जो कारावास होता टै धन्धनः’ से उसका तासर्यं है ।

अष्टममाव मं मेष, सिह; धनु, मिथुन वा तलामेंगुरुहोतो वक्तीयत दरा सम्पत्ति प्राप्त होती दै। उत्तराधिकारी के रूपम मी सम्पत्ति मिल सकती है । धनु वा मिथुनराशि मं विधवा चर्यो कौ सम्पत्ति-जो ममानतके खूप रखी हुईं हाती दै-प्ात्त होती है। रेसा तब होता है जव विधवा मर जाती हं | इश्चिक वा कुम्भमें यह रुरुदहौतो विवाह सर विरोष भाग्योदय नहीं होता दै । व्यवहारयौर उच्रोगमें दील पड़ जाती है। पैठरकसम्प्ति नष्ट होती दै।यातो ससुर निर्धनदहोताद्ैवा विवाह केवाद्‌ निर्धन होता दहै कक का गु ऋणी बनाता है । धन नष्टो जाता है गरीत्री बद्ती है। पेतकस्षम्पत्ति धीरे-धीरे नष्ट होती रहती टै । य गुरु कदर्यो को ददि बनाता दहै-कई एक का वंशक्षय होता दै । अष्टममावस्थरुर दीर्घायुष्य देता दै। स्रीराश्िमेद्ोतो -६-९-१२) १५-१८-२१-२४-२७-३०-३३, इन वर्षा मे साप्तियौ भाती है | ॐ-१४-९६-२८-३५-९-१८-२७,-३६ वषं आपत्तियां के ई” यदि गुड पुरुषराशि मे होता है।

माग्याधिये विनाशस्थे नीषचरत्रुखरोक्षिते | कररारो नीचराइ्यादौ माग्यद्ीनो भवेन्नरः |° अथे-मष्टम मे मागये करर वा नीचराशि मँ, वा नीच वा शात्रु्रह द्वारा दृष्ट हो तो व्यक्ते भाग्यदीन होता है। यह गुर पुरुषराशि मे होतोषरके भेद वादिर प्रकट नदीं होते-प्नी ओर नौकर विश्वाखपात्र होते ह । लखीरादिका गुखुदोतोषरकी गुप्त बाते

लुहस्पदिफर ३०३

बाहिर निकल जाती है| यह गुर चादे किसी राशिमे हो व्यक्तिकी मूल्यु कै लिट नेष्ट हे-म्रत्यु बुरी हालत में होती हे। नवमभावस्थगुरुफलप्‌- | चतुभूमिकं तद्गृहं तस्य॒ भूमिपतेवेलमोबहभा भूमिदेवाः । गुरौ धमंगे बान्धवाः स्युर्विनीताः सदारस्यतोधमेवेगुण्यकारी ॥९॥ अन्वयः- गुरौ धर्मगे तद्ण्हं चतुभूमिकं ८ स्यात्‌ ) (सः) भूमिपतेः वभः ( स्यात्‌ ) (तस्य ) भूमिदेवाः ब्हछभाः ( स्युः) ( तस्य) बांधवाः विनीताः ( स्युः ) ( सः ) आख्स्यतः सदा धर्मवैरुण्यकारी ( मवति ›) ॥ ९ ॥ संन टी<धमंगे नवमस्थे गुरौ भूमिपतेः वह्छभः, सदां आस्यतः सदा अनवधानेन आलस्येन च धर्मवैगुण्यकारी संध्यावंदनादि नित्यकर्मणोऽपि लोपकरः इतिहोषः। अत्र टीकाकारेण (तस्य भूमिदेवाः व्छभाः स्युः, तस्य बांधवाः विनीताः स्युः इत्यस्य टीकैवनङृता अनवधानतां-मालस्यच, अयवा स्पष्टाथ॑ता प्रव हेतुः स्यात्‌ ॥ ९ ॥ अर्थ-जिस मनुष्य के जन्मल्त्रसे नर्वैस्थान मे ब्रहस्पति हो उसका धर चारखण्ड ८ चारमंजिक ) वा चार चौककादहोताहै। वह राजा का प्रेम पात्र होता है। उसका प्रेम ब्राह्यणों पर अधिक रहता है । उसके भाई-बन्धु उससे नम्र रहते ह । वह ल्प्य से धमं में उदासीन होता है, अर्थात्‌ निस्य- कर्म संध्यावंदनादि भी आलस्य से नहीं करतादहै॥ ९॥ तुकखना–चठम्शां पीतारणहरितचित्र खड्गं सदाक्षोणीभदंवहुतरङ्पा बांधघवगणाः | विनीता यन्ञाटी सुरपतिगुरौ धर्मभवने यदाधिक्येन्तस्य प्रभवन्ति तपस्या ठ्घुतरा ॥ जौवनाथ अथ-जिस मनुष्य के जन्मसमय मे ब्रहस्पति नवमभाव में हो उसका मकान पीला-खल-हरेरंग से चित्रित चौकोर चारमञ्ञिठ का होता है। इसपर राज्ञा की बहुत कपा रहती है । इसके माई-अन्धु इसके प्रति विनीत र विनघ्न व्यवहार करते है । यह बहुत यज्ञ करता है । किन्तु यदह मदोद्धत होता है, इसकी तपश्र्यां बहत थोड़ी होती ह । रिप्पणी-नारायगभद ने “चवभुमिकः शब्द्‌ का प्रयोग किया है । जीवनाथ ने भ्वतुःशाङ शब्द का प्रयोग करिया है| दोनों का अ्थंषए्कदही है| हिमाचल प्रदेश मेँ रहनेवारे पहाड़ी खोग कं पुरा ( एक मंजिल ) दि पुरा ( दोमंजिखा ) त्रिपुरा (तीनमंजिखा ) चौपुरा (चारमंजिला ) शब्दों का प्रयोग करते ईहै–“पुरा” का अर्थं ( मंजिल ) है । अरजी मे श्रोँडष़्ोरः फटी, सेकेण्डफ़ोर, थर्डफोर, फोर्थ॑फ़ोर आदि न्द प्रयुक्त होते ई । प्राचीनभारत में मी ऊँचे-ऊचे मकान (सप्तभूमिकः सात-खात मंजिले होते थे । बहुत ऊँचा मकान बहुत ऊँचे वैभव आर एेश्र्य का योतक होता था। “्चवुभूमिकः ओौर ववुःशाल, शब्द तो

३.०४ चमर्कारचिन्दामणि का तुलनास्मक स्वाध्याय

उपलश्चणमाच्र है । नवमभाव का वृहस्पति व्यक्ति को बहुत ऊचा भाग्यशाली; धनाव्य;, ओर देधयंशाखी बनाता है जिसमे वह शिखरी ओर (भाकाश चुम्बी दम्यं बना सकता है–यह म्मदै। तपस्वीः वाराहमिहिर अथं - यह तपस्वी अर्थात्‌ तपश्चयां करनेवाला होता दै | नरपतेः सचिवः मुक्कृती छती सक्ट्याछ्र कला कलनादरः । व्रतकरो हि नये द्विजतत्परः सुर पुरोधसि वै तपसि स्थिते ॥» दण्डिराज अथे- यह राज मंत्री, पुण्यकरमंकता, विद्वान्‌, सर्वद्ाखज्ञ, ती, श्रौरः ब्राह्मण भक्त होता है। नरृपाभिमानी युद्ती सुविन्यो विख्यातियुक पुण्यगते सुरेज्ये 1” जप्देय अ्थं–राजमान्य, पुण्यकमकरत्ता, विद्रान्‌ मौर प्रसिद्ध होता इ। “घमं जीवे धमकता साधुसगी च राख्रवित्‌ । निरीहस्तीथसेवी च व्रह्मज्ञश्च प्रजायत > काश्चीनाय अथे- यह धार्पिक, साधरुओं के संगति में रहनेवाला शाखज्ञ इच्छारद्ित तीर्थो का सेवन करनेवाला अौर ग्रद्यवेत्ता होता हे । रव्यातः सन्‌ सचिवः श्युभेऽथ मुतवान्‌ स्यादूधर्मकावासमुकः | सन्त्रेश्वर अथ-यह धषिद्ध, मंत्री, धनवान्‌ ; पुध्रवान्‌ ओर धमं कायं करने के दिए उत्सुक होता है। “सुरगुरौ नवमे मनुजोत्तमो भवति भूपतितुस्यधनी श्यचिः । स्वकरुल धर्मरतः कृपणः मुखी वहुधनप्रमदाजनवस्लमः ॥ प्रानसःसर अथे–यद मनुष्योमें श्रेष्ठ, राजा के समान धनी, स्वकुलचारपरायग कृपण, सुखी, धनान्य, ओौर छ्ियों का प्यारा होता है। इसका व्यवहार धद होता है। “देवतपितृकार्यरतो विद्वान्‌ सुभगो मवेत्‌ तथा नवमे । ृपमत्री नेता वा जीवे जातः प्रधानश्च > कल्याण्ग्ना अथ–यद देवपिवमक्त, विद्वान्‌ सुन्दर, राजमत्री, नेता, वा प्रधान रोता है | “ज्ञानी धर्मपरो ठृपाट्सचिवो जीवे तपरस्थानगे ।” वैद्यनाथ अथे–यह ज्ञानी, धार्मिक अौर राजाका मंत्री होता है । सव संपत्‌ समृद्धिं च नवमे राजसंपदम्‌ |” षराक्ञर अथ–सभी प्रकःर की संपत्ति बदृती है । राजा जैसा एेश्व्यं मिक्ता है | “नवम सुते पुत्रजा वासत्रेव्ये | अथ– गुरु नवम वा पचमस्थानमंदहोतो पुत्रचिता होती ई। सुखं सुरराजमंत्री धमक्रियास् निरतं कुरुते मनुष्यम्‌ ।2 व्िषटठ अथे- जातक सुखी, राजमंत्री, ओर घार्भिक कार्यं करनेवाला होता है ।

८० ब्स्प्िकर ३०५५

नव्रिविधती्थंकरः सुकठेवरः सुरगुरौ नवमे सुखवान्‌ गुणी । त्रिदश्यन्चकरः परमार्थवित्‌ प्रचुरकीर्तिकरः कुख्वधंनः ॥ गग “आयुः पयन्तं सुखयोगः ।” “गुरुमाग्ये मवेन्मन्तरी महाभाग्योऽसिटेश्वरः ॥” गर्ग अथे– वह तीथैयाचार्ट करता है, सुन्दर, सुखी, गुणी, देवयज्ञ करने वाला, ब्रह्मवेत्ता, विख्यात भौर कुर को बहाने वाखा होता है । जीवनभर सुख मिलता दै। यह बड़ा भाग्यशाली, राजमन्त्री ओर बहुतों का स्वामी अथौत्‌ पालक होतादहै। “नरपतेः सचिवः सक्ृतिपुमान्‌ सकलशास्रकला कलनाद्रः । ब्रतकरो हि नरो द्विजतत्परः सुरपुरोधसि वै नवमेस्थिते ॥” बृह॒दय धनजातक् अथै–यह राजमन्त्री, पुण्यवान्‌ , समी शाखो ओौर कओं मे ` पूर्णतया अभ्यस्त, व्रती ओर ब्राह्मणमक्त होता हे । | ५५ घें वर्षं पिता की मूत्यु होती है “जीवसितिश्यन्दके पित्मूर्तिच।* ‘जीवेषोडरा १४ वँ वप्छाभ होताहै। ‘मवेद्धाग्ययुक्तो नरः श्रेष्ठशक्तिस्दथातीयं पुण्यादिवातोयुसक्तः | भवेद्‌ बांधवैः सेवकैः संप्रयुक्तो यदा देवपूज्योभ्ुवंपुण्ययातः ॥* जागेश्वर अर्थ- यह भाग्या, शक्तिखम्पन्न, तीर्थयात्रा यर धार्मिक कार्यो में प्रेम रखने बाला होता है । यह माई वद्‌ भौर सेवकं से युक्त होता ई ।

भगुसूत्र-धार्मिकः। तपस्वी, साधुतारूढः, धनिकः । पञ्चत्रिराद्रषं यक्ञकत । पितृदीर्घायुः । सत्कमसिद्धिः । अनेक प्रतिष्ठावान्‌ ; बहुजन पाठकः । |

अथै–वह धार्मिक, तपस्वी, साधुस्वमाव सौर धनी दहोताहै। ३५ बे वमे य॒ज्ञ करता है। इसका पिता दीय होता है, अच्छे काम करता 8; अत एव बहुत आदर अओौर सम्मान प्राता हे । यह बहतो का पालक होता ३ ।

पाश्चात्यमत–धार्भिक, सच बोलनेवाला, नीतिमान्‌, विचारी, ओर माननीय होता है । इसे कानून के काम, छ्ृकं का काम, धार्मिक विषय, वेदात, दूर के प्रवास, इनमे लाभ होता दै! तिवाह सम्बन्धसे जो नए रि्दतेदार होते है, उनसे अच्छा सुखप्राप्त होता है । यह योग अध्याप्मज्ञान,` भौर योगाभ्यास का द्योतक है । अन्त्लीन या मविष्य का ज्ञान प्राप्त होता दै | न्यायकार्यं, ठेखन यदि के किए यह गुख्श्चभदहै। यह रुरु यदि पीडित हो त्तो ऊपरी दिखावा, वृथा अभिमान बहुत होता है । वाहिव्ात वर्ता से इसकी वेड्जतीं होती ह ]

विचार ओौर अलनुभव–समी ग्रन्थकारो ने भनवममावस्थगुद के फल बहुत छम दै–रेसा का है| मेष, सिंह; धनु ओौर मीन राशियों मे इन छम फलों का अनुभव्र प्राप्त होगा । अश्चुमफचं का सनुभव अन्य राशियों मे प्राप्त होगा । _

नवमभावस्यगुर का व्यक्ति स्वभाव से शान्त ओौर घदाचारी होता ै- ञ्चे विवासे का होता है। यदं गुरु मेष, सिह; धनु वा मीनमें होतो व्यति

३०६ चमत्कारचिन्तामणि का तुरखनात्मक्‌ स्वाध्याय

एम. एः, एलएल वी. पी, एच डी. आदिं ऊची पदवियां प्राप्त करता है इस व्यक्ति को प्रोफैसर उपकुल गुरु आदि पद प्राप्त होतेरै। यह गुरु वप, कन्वा+मक्रमं हो तो व्यक्ति एम-रस-सी आरि विज्ञान विषय-सम्बन्धी पदवियोँ प्राप्त करके शिश्चक होकर प्रगतिश्ीक होता है। व्यापारो दोना भी सम्भवदहै यदह व्यक्ति विचासोंमं संकुचित तथा सार्था होता हे। यह्‌ गुरु मिथुन, वल वा ऊुम्भमेंद्ोतोव्यक्ति प्रकाशक, संपादक, मुद्रक दि होता दहै। कव, वृश्चिकः मीने गुरुडोतो शिक्षा पूर्णं दोती है- व्यक्ति वकीठ वेरिर्टर, लाप्रेफैसर, न्यायाधीश भादि वड़ा अधिकारी होता ३ । पुरुषराशि का यह गुरं भाई-वहिन के लिए नेट है- भाई-बहन थोड़ी होती ह । च्लीरारि मे द्ान से संख्या मं भाई-वदिनें अध्रिक होती ह| किन्तु आपस मे प्रेम थोड़ा होता टै। अगड़े होते है नवमभाव का गुरु भाईयों कौ कुटम्बमें एकच स्थति क अनुकूल नदं दै–एकव्र स्थिति मे दोनों माई प्रगतिरीर नहीं हज । पुस्परादि का गुर अद्य सतति दाता है-एक वादो पुत्रहोत ड च्रीरादि्ा म, वृश्चिक मं संतति अधिक द्रोगी। कर्कं गौर मीन मे संतति का अभाव रहेगा वरृप-कन्या ओर मकर मं संतति होगी किन्तु जीवित नदीं रहनी; नवमस्यान कागुरु चिन्ता बनाए रलता दे । पुत्र योता नदी-ल्डकी होती दै-पुत्र चिन्ता बनी रहती हे । पुत्र होता दै, जीवित नदीं रहता है; पुत्र चिन्ता वनी रहती दै । जीवित तो रइता ई जिन्व॒ उच्छृ तथा विरुद्धाचारी द्योता दै। पुत्र चिन्ता वनी रहती हे । सुशिक्षित तो होता है किन्तु वरताव अच्छा नद्यं करता, पुत्रचिन्ता वनी. रहती दं । इष तरह इश स्थानका गुह साधाखतः पुत्र चिन्ता कारक दै । नवमस्यान परिरस्थान ईै। किन्तु माता की मृ्युदह्ाती है बृहद्यवनजातक का यदह फल भी सम्मव्रदै। माता-पिता दोनों कौ य्य भी सम्भव्र है । | द्‌ दामस्थगुरुफलम्‌– ध ध्वजामंउवे मंदिरे चित्रशाला पितुः पूर्वलेभ्योऽपि तेजोऽधिकत्वम्‌ । न तुष्टोभवेच्छमणा वुत्रकाणां पचेत्‌ प्रतयदं प्रस्थसायुद्रसन्नप्‌ ।६०॥ अन्वयः–( गुरौकमओै सति) मंद्पे्वजा, मेदििरेयिवयाला, नितुः पूर्वजेभ्यः अपि त ऽधिकं ( स्यात्‌ ) पु्रकाणां शमणा वतुः न ( भयेत्‌ ) प्रव्यह प्रस्थस्ायुद्र सन्न पचेत्‌ |} २० ॥ सं: टी<–ध्वजामंडपे ध्वजाशोभिते जना ये सभास्थाने विन्रशां नानाचित्रतदिताः याद्या खीद्‌ारकायहा यिन्‌ तन्म॑दिरे भवनं पूर्यजेभ्योपि पिठ: तजोऽधिकल्वं उभयेभ्योऽपि स्वस्य तेजस्वित्वं वा स्यात्‌ इति रोषः । तथा पुत्रकानां शम्णा सुखेन तष्टो न॒ भवेत्‌ सुतदवेषीस्यादि्यर्थः । प्रत्य प्रतिदिनं प्रस्थं षोडशपलपरिमितं सामुद्रं उवणं यस्मिन्‌ तत्‌ परिमितं अन्नं तत्‌ महान

बृहस्पतिफर ३०७

संपचेत्‌ वहून्‌ भोजयेत्‌ इति भावः, इदं फं दशमे. गुरौ इति प्रकरणात्‌ जेयम्‌ । अथवा घ्वजामंड्पे इत्यत्र शुरौ कमेः इति वा पाठः ॥ १० ॥ टीकाकार सम्मतः अन्वयः छोकस्याथं संदेहास्पदं करोति-इति त॒ न शोभते | । अ्थे–जिस मनुष्य के जन्मल्यय से दशवे स्थान मे ब्रहस्पति हो उसके मंडप पर, मथौत्‌ देवमन्दिर पर ध्वजा फदूराती है । उसके देवमन्दिर अथवा घर मं ब्रूत चित्र रहते है। उसका प्रताप अपने वाप-दादा भदिसे भी अधिक होता हे। वह अपने कुपुत्रो अर्थात्‌ दुपत्रो के सुख से सुखी नदीं होता है। अर्थात्‌ उसे दुष्टपु्रभी होते है। उसके घरमे भोजन बनाते में प्रतिदिन एकप्रस्थ ( एक-सेर ) नमक खं होता है । अर्थात्‌ उसके धर पर बहूत मनुष्य भोजन करते ह ॥ १० ॥ तुखना–““यदा राजस्थाने सुरपति रुरौ यस्य जनने , पताकामिधित्र यजनभवनं कांचनमयम्‌ | प्रतापस्याधिक्यं तनयसुखमव्पं द्विजगणाः + समंताद्‌ गुंजंते मधुरमनिशं कीर्तिरतुला ॥ जौवनाथ अथं–जिस मनुष्य के जन्मसमय में वृहस्पति दश्मभाव में हो उसे पताकां से सुशोभित स्वर्णमय यक्ञमंडप होता है । उसका प्रताप बटु-चट्कर हाता दै। किन्तु संतानयुख बहुत थोड़ा होता दहै। इसके द्वार पर ब्राह्मण अदहर्निरा मधुर शब्दों का, अथौत्‌ आशीवादामक वेदादि मतां खा उचारण करते रहत दै । इसकी कीर्ति मतल होती दै अर्थात्‌ इसके समान दूखरे लोग यशस्वी नद्यं होते है। टिप्पणी–प्राचीनभारत में प्रायः जनता समद्ध भौर सर्वथा सुखी होती थी-इस जनता मेंसेजो लोग विरोष वेभवसम्पन्न होतेये बे अपनी कमाई का वडा हिस्सारेसे कामों पर खष्वं करते थे जिससे सद॑साधारण जनता को लाम प्रहुचे-वे कुएं बनवाते थे-तालाव बनवाते थे, देवमन्दिर बनवाते ये- धरा मं यलमंडप वनवाकर यज्ञ करते थे-यनज्ञ करवाने के दिए आमंत्रित बाह्मण लोगो से .आशीवौद्‌ लेते ये, उत्तम-उत्तम स्वादिष्ट मोजन से बहुत को . भोजन खिलाते ये-रेसे श्म कर्मो ते इनका प्रताप ओर वश दूर-दूर तक कैलता था | भाज के भारत की परिश्थिति नितान्त विपरीत है। प्रायः लोग निर्धन है स्वार्थो ह । घनाव्य लोग इष्टापूतं के कामों कौ चि्टी उड्ाति है । “स्वाचारः सुयशा नभस्यति धनौ जीवे महीषप्रियः || मंत्रेश्वर अथ–यदिव्र्स्पति दशमभावमें द्यो तो जातक अव्यत धनी ओर राजाका प्यारा होता है। एेा व्यक्ति उत्तम आचरण करनेवाला, ओौर यशस्वी मी होता दै। “कमस्थिते सुराचायै पुण्यकीतिं सुखान्वितः | राजुल्यः सुरूपश्चदयाढजायतेनरः, ॥ काज्ीनाथ

३२०८ चमव्कारचिन्तामणि का तुख्नात्मक स्वाध्याय

अथे–यह्‌ जातक यशस्वी, सुखी, राजा के समान; सुन्दर भौर दयाङ होता है । | “सराज विहः सुविभूतियुक्तः सश्रीयुखः कम॑यहे रुरौ च ॥ जयदेव अथे–यह राजा के चिहण ते युक्त, सुन्दर, एेधर्थवान्‌, धनी ओर सुखी होता है। “सद्‌राजचिदहोत्तमवाहनानि मित्रात्मज श्रीरमणी सुखानि । यशोमिवरद्धि वहुधाविधत्ते राज्ये सुरेऽ्यो विजये नराणाम्‌? ॥ दुण्डिराज अथे– यह राजचिहयुक्त होता है.। इसके पास उत्तम वाहन होते है| इसे मित्रो का, पुत्रों का, धन भौरलखरी का सुख मिलता दै। यदह विजयी भौर यशस्वी होता हे । सधनः? ॥ वराहमिहिर अथे–यह धनवान्‌ होता ह । ““सिद्धारंभः साधुदृत्तः स्वधर्मा विद्धानाव्यो मानमै चामरेव्ये | अर्थाप्तिः पित्रजननीसपलमित्रभ्रातरृखरीमृतकजनात्‌ दिवाकरानेः॥ व॑द्यनाथ “मीनाछिचाप कर्के निजवर्गवारे , मध्यंदिनोदगयने यदि रारिमध्ये। कुमे च नीचभवनेऽपि बली सुरेज्यो , खग्ने सुखे च दशमे बहुवित्तदः स्यात्‌? ॥ अथे–आरम्म में ही सफठता पानेवाला, सदाचारी, कर्तव्य पाटन करने वाखा, विद्वान्‌ ओर धनवान्‌ होता है। दशममे रविदहोतो पिता से, चन्द्रो तोमातासे, मंगल्होतोशतरुसे, बुधदहोतोमित्रसे, रुरुहो तो मासे, ्क्रदोतोख्रीसे, रानि दहो तो नोकरों से धन मर्ता है । मीन, वृधिक, धनु ओर ककराशि मे, वगकुडटी मे; स्वण्ह में, मध्याह मे, विषुव के उत्तर मे, रारि के मध्य भागमे, कुम में तथा मकर में गुरु बल्वान्‌ होता रै रगे, प्वतुथं मँ तथा दशम में गुरु दहो तो बहुत धन प्राप्त होता दै। ““सिद्धारंभोमान्यः सर्वाोपायकुशलः समृद्धश्च | दशमस्य त्रिदशगुरौ सुखधनजनवाहनयसोभा कू ॥ कल्याणवर्मा पंचदशषटूसमेतश्चत्वारिंशत्‌तयेकर्विंशश्च । त्रिंशत्‌ चवुधिरात्‌ पंचाशदेवयथोक्तहोरायुः ॥ प्रत्ता सहजे तुये पंचमके सप्तमे च नवमे च। दशमे चेकादशके गेषु जीवस्थितौ वर्षाः ॥ अथे-इसे कामों के आरंभ मे ही सफठ्ता मिलती है। यद मान्य, “न समृद्ध, सुखी, धनी, कौर्तिवान्‌, लोगो भौर वाहनों से सम्पन्न होता इ)

बहस्पतिफट ३०९

गुर व्रतीयमेंद्ोतो १५; चतुथेमेद्ोतो ६; प॑चमदहो तो ४० सप्तम मेदोतो २९, नवममेंद्ोतो ३०) दशममेंदहोतो ३४५गौर एकादशमेंहो तो ५० वर्षं मेँ मृल्युयोग होता है। ‘व्दराममंदिरगे च बृहस्पतौ वुरगरतविभूषितमंदिरः। मवति नीतिगुणेवुधसंयुतः परवरोगणवर्जित धार्मिकः” ॥ मानसागर अर्थ–इसका षर घोड़ों भौर रलो से शोभायमान होता है । यह नीति विद्वानों से युक्त परस्री से वरिमख भौर धार्मिक होता हे। “दैन्यं गुदः ्चभक्रमंभाजम्‌ ॥2> वशिष्ठ अथं- दीनता होती रै-यह श्चुभ काम करता है ॥ ““यशोवाहन सौख्याथंगुण सत्य समन्वितः । सिद्धारंभोऽतिषचठयो मन्यकमं स्थितेगुरौ ॥* सर्भ अथे–यह यश्चस्वी, वाइन सम्पन्न, सुखी, धनी, गुणी, सच बोलने वाल अर चतुर होता है । यह जिस काम को प्रारम्म करता है वह पूरा होता ई । ““सद्राजविहयोत्तमवाहनानि मित्रामज श्रीरमणी सुखानि । यशोविन्रद्धिवहूधा जगत्यां राज्ये सुरेज्ये विजयं नराणाम्‌ ॥ वः इहद्यवनजातक अथे–इसे राजा के चिन्ह उत्तमवाहन; मित्र; पुत्र, धन, कीर्तिं तथा विजय की प्राप्ति होती है। ““कर्म॑संस्थो रुरुश्येत्‌ नानावित्ताभ्यागमं सः करोति। पुंसां नलं गोरवं भूमिपाखत्‌ सत्वाधिक्यं जीवनं चित्तदत्या ॥* पुञ्जराज अथ-जातक को कई एक प्रकार से धन मिता है, राजा से मान मिता ` है-ताविक ओर बुद्धिजीवी होता हे। | । पश्चात्यमत–यह गुर सम्मानः कोति, भाग्य, यश आदि के ठि श्चुभ दै। गुरुदशम मे या धनस्थान मेँ चम संबंध में वलवान्‌ हो वहत भाग्यदृद्धि करता है । बड़ा अधिकारपद प्रात होता है । आरण शुद्ध होता ई । य गुरु ककं, मकर, मीन ओर धनु मँ अच्छा होता है । मेष, सिह, इष, वुल, कुम तथा वृश्चिक में कुछ अच्छा होता है । | | भरगुसूत्र–घार्मिकः, श्चमकमकारी, गीतापाटकः, येोम्यतावान्‌ , पोट कीर्तिः, बहुजनपूज्यः । भावाधिपेबल्युते विरोषक्रतुषिद्धिः । पापयुते पापक्षत्र कर्मवि्नः । दुष्करृति यात्रा छामद्ीनः ॥ अर्थ–यह धर्मात्मा ओौर श्चभकमं करनेवाला होता है-यह गीता पाठ करता हे, योग्यः; उञ्वख यशवाखा ओर बहुत मनुष्यो का पूजनीय होता दै । दशमे बल्वान्‌ ग्रहों से युक्त होतो यज्च कृरनेवाल होता है। दशमेद्य पाप- ग्रह युक्त हो, वा पापग्रहके धरमेंहोतो कामम वित्र पड़ते हं दु्टकाम कियिजातेर्है, या्ामें ठभनद्ीहोतादै॥

३१० चमर्कारचिन्तामणि का तुखनारमक स्काध्याय

विचार ओौर अयुभव– दशममाव का रुर शुभफल देता है, यद विष्वार प्रायः सभी शाख्कारों का हं । किन्तु नारायणम मौर वरिष्ठने अयम फल भीक्डेर्ह। इन अदमफलों का अन॒मव मिथुन, ककं, तुला तथाकुभममें आता है । अन्य राशियां में छमफर मिकते ह । वैद्यनाथ के अनसार इस भावकारगुर मकरमंदोतो उत्तम धनलाभ होतादै। ६६ वा <४र्वे वषं मंपिताकी मृदु; वा गडा, पिता पुत्रका भाग्योदय एकसाथन होना, कजं का हो जाना; कारावास तक की नौवत; रोज का ख्चंन चल सकना, पिता को अपनी कमाई का सुख न होना, अपय दोना आदि अद्युभफलो का अनुभव इष, कन्या, वुखा, मकर, वा कुभमल्यहोतो विदोषतः आता है। द्शमस्थान मं गुरु पुख्षराशिमं हदो तो संतान थोडीहोतीदै) घ्री रामं होतो अधिक संतान होती दै। दशमस्थ गुरु फिन व्यवसायों के लिए लाभकारी है यह निश्चयामक कहना कठिन है । इसमं सभी प्रकार के व्यवसायी पाए जाते ह -भिक्षुक भी व्यापारी ओौर जज भी रै-ायात-निर्यात के व्यापारी भौर जज भी ईहै–आयात-निर्यात के व्यापारी मी पाए जाते है| एकाद राभावस्थगुरुफटम्‌- अकुप्यं च ामे गुरौ किन मभ्यं बदन्त्यष्टवीमन्त मन्ये मुनीन्द्राः । पितुः भारश्रत्‌ स्वांगजास्तस्य पंच पराथेस्तदर्थो न चेद्‌ वैभवाय ।\११॥ अन्वय :–गरौ रामे ( स्थिते) तस्य किं अकुप्यन लभ्यं ( स्यात्‌ ) अन्ये मनीद्राः ( तं ) अष्टधीमंतं बदन्ति, ( सः ) पितुः भारत्‌ ( भवति ) तस्य स्वांगजाः पञ्च ( भवन्ति ) चेत्‌ तदुर्थः ( तदा) परार्थः ( ज्ञेयः) वैभ- वाय न स्यात्‌ ॥११॥ सं° टी०-लमेगुरशवेत्‌ रकि अकुप्यं स्व्णरूप्यादि न लभ्ये अपितु सर्व॑ ल्मेत्‌ । अन्ये प्रसिद्धाः स॒नीन्द्राः इन्द्रादयः वैयाकरणाः ते धीमंतं अष्टावधानं वावदन्ति । पितः भारभृत्‌ पितुः पोषकः, तस्य स्वांगजाः ओौरसपुत्राः पंच तदथः तद्धनं परार्थः अन्यमोगाय, न वैमवाय, दानधर्मं भोगार्थंन मवेत्‌ इत्यथः कार्पण्यं स्यात्‌ इतिभावः, पितुः भारमृत्वं स्वर्गाय | ११॥ अथे- जिस मनुष्य के जन्मल्य्से ग्यारह स्थानम वृहस्पति हो उसे सोना-चांदी यादि यमूस्य पदाथ क्या नदीं मिते है । अर्थात्‌ उसे उत्तम भौर समस्य वस्तु प्रात होती द ! बड़े-बड़े प्राचीन आवार्य उसे अष्टावधानी अर्थात्‌ आट विषयों को एकदय सुनकर सव विषयं का ध्यान रखकर अटग-भट्ग उत्तर देनेवाला कते हँ । एक टीकाकार ने (अष्टमुनीन्द्राः तं धीमन्तं वदन्तिः एसी योजना करके “इन्द्र यदि माट वैयाकरण इसे बुद्धिमान्‌ कहते ई फसा अथं किया दै। वह अपने पिताके भार को संभाल्नेवाला अर्थात्‌ सपने पिता का पोषक वा सहायक होता है। इसे पांच आओरस पुत्र होते रै । इसका द्रव्य ( धन ,) दस्र के ए होतादहै। इसके उपभोगके लिए नहीं

ज्रहस्पतिफल ३११

होता है। अर्थात्‌ यह पण होता है अतः दान-मोग आदिमं अपने घन का उपग्रोग स्वयं नदीं करता है-भौर इसके धन का आनन्द दूसरे ठेते ईै.।११। तुटना-रुरावायागारे ल्सति च विसारे जनुषितं स्तुतेति श्रीमन्तः सदसि सकला भूसुरगणाः यरूम्यं कं भूमौ सपदि समरेयांति विमुखाः विपक्षाः सत्पक्चामुदितमनसस्तस्य सहसा ॥ जीवनाथ धे– जिस मनुष्व के जन्म समय में बल्वान्‌ बृहस्पति एकादशमाव मेहोतो उसकी सभामें धनवान्‌ तथा ब्राह्मणगण स्तुति करते ई प्रथ्वी पर उसके लिए कुक मी अलभ्य नहीं होतादहै। रातुगणसंग्राममें शीघ्रही | विमुख होकर भाग जाते रहै । ओर अपने पक्ष के लोग सहसा प्रसन्न होते ई ॥ । | सलाभः । षराहेमिहिर अथै–रसे लाभम होता रै । ‘भअपरिमिताय द्वारो बहुवाहन भृव्यसंयुतः साधुः । एकादशगे जीवे नचातिविद्यो न चातिसुतः॥» कल्फाणवर्मा अथं–इसके धनप्राि के मागं अपरिमित भौर असंख्य होते है । इसके वाहन-नौकर चाकर बहुत होते है, यह साधु स्वभाव होता दै। विद्या बहुत नदीं होती; पुत्र मी वहूत नहीं होते | ““धनायुषीज्यः खाभम्‌ । वशिष्ठ अर्थ– यह धनी, दीर्घायु; तथा लाभवान्‌ होता है ॥ °धसायस्थेऽमर मंत्रिणि प्रवटधीः विख्यातनामा धनी ।> वैद्यनाथ अथ–यह कुशाग्र बुद्धि, प्रसिद्ध भौर धनवान्‌ होता है | व “सविक्रमायाम्बरमान वित्तः सुकीर्तिंसामर्थ्ययुतो मवस्थे ।> जघदेव | अर्थ–यह पराक्रमवान्‌ , धनी, मानी विविधवन््ो से युक्त, यशस्वी भौर वल्वान्‌ होता है । ` “लमेगुरौ विवेकी स्याद्‌ दस्स्याश्वादिधनैर्युतः। प्वप्वटोऽपिसुरूपश्च गुणवानपिजायते ॥ काक्लीनाथ अथं– यदह विष्वारवान्‌ हाथी घोडे आदि धनसंपत्ति से युक्त होता ै- ह वच, सुद्र ओर गुणी होता है) नीरोगो ददढवीयश्च मत्रवित्‌ परशाख्रवित्‌ | नातिविद्मीऽस्पतनयः साधुरेकाद्यो गुरौ॥ गं अर्थ–यह नीरोग, वलवान्‌ , मंत्रजञः दूसरों के शाख जानने वाखा ओौर साधु स्वभावका होताहे। यह बहुत विद्वान्‌ नदीं दोता है–इसके पुत्र कम होतें ह । सामथ्यमं्थागमनं च नूनं सद्र वख्रोत्तमवाहनानि । भूपप्रसादं कुरुते नराणां गीर्वाणवं्यो यदि लाभसंस्थः > बडद्यवनजातक

३.१२ चमरकारचिन्वामणि का तुखनात्मक स्वाध्याय

अथे–यह वल्वान्‌ ओौर धनवान्‌ होता है । इसे उत्तम रल्ञ, वख ओर उत्तमवाहन प्रास्त होते है । यदह राजमान्य; दोता हे । “व्रजतिभूमिपते; समतांधनैः निजकुल्सविकासकरः सद्‌ा | सकटधर्मरतोऽर्थसमन्वितो भवति चायगते सुरनायके ॥” भानसागर अथ–वह राजा के सदश धनी, अपने कुर की बटौत्री करनेवाटा, धार्मिक ओौर धनी होता है । (“गुरौ विद्यया पुत्रसौख्यान्वितः स्याद्‌ भवेद्‌ धार्मिके; साघुोकैः प्रसंगः | सुवणादि धावु; भवेत्‌ तस्यगेदे दृपाणां सुमान्यः सुधानं प्रभूतम्‌ । यदा देवपूञ्यस्य ामे स्थितिः स्यात्‌ ॥” जागेडवर अथं–यह विद्वान्‌, पुत्रवान्‌, भौर सलीदोतादहै। यह धार्मिक भौर सजनो की संगति मं रहता है । इउख्के पास सोना; चांदी आदि धातु होते | यह दृपपूज्य यर धनधान्य से परिपूर्णं होता इ । (सामथ्यमर्थागमनानि नूनं सदूवख्ररलोत्तमवाहनानि । भूपप्रसादं कुरुतेनराणां गीर्वाण वंद्यो यदि लामसंस्थः |> दुण्डिराज अथे–यह वली, धनी, उत्तमरल्-वस्र, तथा उत्तमवाहनों वाखा होता दै । यह राजकृपायुक्त होता हे | ८धअआयस्ये धनि कोऽभयोऽस्पतनयो जेवाव्रकः यानगः ॥ मन्त्रेश्वर अर्थ- यह धनिक, निर्भय सौर दीर्घायु होता है। इसके पास सवारियाँ भी बहुत होती ह । किन्तु संतान थोड़ी होती हे । श्रगुसूत्र- नरेश यज्ञगजभूज्ञानक्रियामिः। आयुरायेग्यनैश्चयं जायापत्य सुदत्‌ खखम्‌ । वणां चतुष्पदप्राप्िः देवेज्यो लामगो यदि । विद्धान्‌, धनवान्‌, दवाविंशद्वधं बहुलभः । अनेक प्रतिष्ठासिद्धिः । इभपापयुते गजलामः | भाग्य वृद्धिः । चंद्रयुते निक्षेपकभः | अथे-इसे राजा, यज्ञ, हाथी, जमीन, ओर ज्ञान कीक्रियासे छाभ होता दे । यह दीर्घायु, नीरोग ओर शेशचयैवान्‌ होता रै । इसे सी, पुत्र ओर मित्रां खख मिक्ता हे । इसे चौपाए पञ्च मिलते है । यह व्िद्रान्‌ › धनवान्‌ होता है । ३२ वें वषं बहुत लामदहोतादै। कई प्रकार से प्रतिष्ठाप्राप्ति होती दै। भ अओौर पापग्रदो से सम्बन्धहोतो दाथी की प्रापि होती रै–भाग्य में ब्रद्धि होती दै । चंद्र की युति होतो धरोहर रखा हुमा धन मिता दै । पाश्चाव्यमत-यह प्रामाणिकः, सच बोल्नेवाला, भाग्यवान्‌ , उदार, ओर अच्छे मित्रों से युक्त होता है। यह गुरु स्थिरराशिमें दो तो गरविष मौर अभि- मानी होता है । चरराशिमे होतो साहसी, कार्यकुशल होता है। द्विखभाव राशि में होतो धार्मिक ओर संसारदक्ष होतारै। इसे राजा द्वारा सम्मान अर कमि के विलक्षण योग प्राप्त होते रै। इस स्थान मं रुरु बल्वान्‌ होना डे भाग्य क्रा रक्षण हे। श्रीमान्‌ सौर खानदानी लोगोंसे मित्रता होती दे। मिर््रोकी मद्द्‌ से माश्ारं ओौर महत्वाकाक्षाएं पूरी होती है । उनकी सलाह

बृहस्पतिफङ ३१३

उत्तम ओर फायदेमंद होती है। अपने कामों से सभाजमें नामदोताहै। ओर श्रेष्ठत प्राप्त होती है। धनप्रा्ि अच्छी होती है। संतति सुख अच्छा मिख्ता है । पुत्र के जन्मसे भाग्योदय श्चुर होता है। इस स्थानके गुरुके साथ प्वंद्र, रवि, हष वाशनिकी युति श्चुभ होती रै) मंगल-शनि ओर इषं से अञ्चम संबंध नदीं होना चाहिए | |

विचार ओर अनुभव–“लाभस्थाने ग्रहाः सवै बहुल्मभप्रदाः । इसके अनुसार सभी म्रथकारों ने पायः श्युभफल वतलाए है। किंतु कल्याण वर्मा ओर ग्गं ने कुर अश्ुभफल भी कटे है–र्रेश्चा न होना । “अल्प संतान होना !› ये अञ्युभफल है । इस परिस्थिति मे ‘लाभध्थान के सभौ फल द्भ ही होते हैः | यह्‌ धारणा पूर्णतया स्य नदीं टहरती रै | |

श्यभफल्ये का अनुभव कक, कन्या ओर मोन को छोडकर अन्यराशियों मे आता दहै)

संतति-संपत्ति ओौर विन्या, इन तीनां मे से एकका अच्छा लाभ, एकाद्चस्थ गुरु का सामान्य फल है कथन का ताष्प्यं यह दै कि य॒दि संपत्ति अच्छी होगी तो दूसरी दोनों संतान भौर विद्या कम हांगी । पृ्वजिंत संपत्ति प्रात नदीं होती या अपने हाथोंनष्टहो जाएगी वादूशरे हडपकरस्गें। एकादशम गुरु होतो पुत्र बहूत दुराचारी होते ह । मां-बाप से ञ्चगड़ते है, मारपीट करने से भी पीछे नहीं रहते । निरपयोगी होते ह । अपना पेट भी भर नहीं सकते। पिता-पुत्र दोनों का भाग्योदय होता हे।

यह गुर कक, कन्या, धनु वा मीन मेँ हो तो संतति यातो होती नदीं, होती है तो मृत होती है। अथवा खी पुत्रोत्पत्ति मं अयोग्य ` होती है । इस गुर के प्रभाव स्वरूप विपत्तियों की भरमार रहती है । स्वयं रोगी होना, पल्ली का रुग्णा होना, परली से वेमनस्य, द्वितीय विवाह, कन्याएं ही होना) बडे माई की मृत्यु, निनी, ऋण ठेना;, चुकाने मं असमथं होने से जेर जाना–व्यवसाय मेँ तुक- ` सान; परिणामतः वेइजत होकर गांव छोड़ अन्यत्र वास करना आदि-आदि अश्चुभ फल मिलते दै | द्वाद रास्थगुरुफटम्‌- यराः कीरं सदूठ्यये साभिमाने मतिः कोटौ वंचनाचेत्‌ परेषाम्‌। विधिः कीट सोऽर्थस्य नादो हि येन च्रयस्ते भवेयुः व्यये यस्य जोवः ॥१०॥

अन्वय :–यस्म व्यये जीवः (स्यात्‌ ) ( तस्य ) साभिमाने सद्व्यये ( सति ) यशः कीदशं ( स्यात्‌ ) परेषां वञ्चना चेत्‌ ( तस्य ) मतिः कीदशी ( भवेत्‌ ), येन ( तस्व ) अथस्य नाशः ( भवति ) (सः) विधिः कीदशः ( स्यात्‌ ) ( तस्य) तं चरः भवरेगुः॥ ५२॥

सं° टी यस्य व्यये द्वाःरोजीवश्च तस्य सामिमाने सगव सदव्ययेऽपि कौशं यशः, अपितु अयश एव, अपरेषां वचने या मतिः सा कीदशी, किन्तु कुवेर एव येन अथस्य परमार्थरूप परलोकस्य नाशः ब्रथाद्रव्यहानिः वास

३१४ चमत्कारचिन्तामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

कीदशः विधिरेव इत्यथः | ते तरवः ष्रगार्वृवं्ु विषयक व्ययः परर्वचकता अविधिना द्रव्यव्यागः, एठं एते भवेयुः ॥ १२ ॥ अथे - जिस मनुष्य के जन्मल््र से वारहवे स्थानम शुर हो तो उसका द्रव्य व्यय अच्छेकामांमं होने पर भी अभिमान केसाथ होने से उसको यज्ञ कैसे मिल सक्तादहै। सदा दूसरोंको वह यट्गाकरता है तो उसकी उत्तम बुद्धि केसे हो सक्ती है १ उसक्र कामोंमंद्रव्यकीदहानि दी होती है तो उसके अच्छ काम केसे कह सकते है । अर्थात्‌ वारव स्थान में ब्रृहसति होतोये तीनां वातं होती ॥ ६२॥ दिप्पगी–दान मे खर्च किए गण्‌ द्रव्य को सद्भ्यय कहा जाता हं । परन्तु यह दान सातिक होना चाहिए ओौर निरभिमान ` होकर सदव्यय करना चाहिए्‌। जिस दान मं विचशाठ्य भौ रहता है, यद वित्तशाख्च दान को तामस बना देता दे । वित्तशाठ्य का अर्थं है (आहंताः भयभिमान– यने दान किया दे-में दानी दह” इस प्रकार की अदंता ओर समिमान । दातव्यमिति यद्‌दानं दीप- तेऽनुपकारिणे । देशकाले च पात्रे च तदानि सालिके विदुः ॥ जो दान योग्य आर अनुपकारी व्यक्ति को तीर्थं यादि उत्तम देश मे ग्रहण आदि पर्वकालमें दानचेने वाठे की पात्रताका ध्यान रखते दए, दिया जाता है वह दान सालिक.दोतादै। रएेसेदान का फल अपरकीर्तिं अपयदा नहीं हो सकता है। स दान से पुण्वपराति होती है । जिस बुद्धिसे दृखरे की द॑चना की जावे वह बुद्धि बिचारबुद्धि नहीं होती यह प्रतारणा चातुर्यं तो प्रतारक को दुटबुदि बनाता दै-रेसी टगनी बुद्धि से तो परोपकारिणी मूखता दी यच्छी होती है । इसी प्रकार विधिहीन क्या हुमा श्चमकर्म मौर एते शचमका्यं पर किया हुआ धन व्यय व्यथही दहे क्योकि जो कर्म विधिपूर्वकं नदीं किया जाता उसका पल भ खोक प्राति हो नदीं सकतादै। भाव यहदहै कि साभिमान करत दान, परवचना निमित्त बुद्धि का दुखपयोग, विविद्धीन कृत दयुम कर्म व्ययये तीनों दी व्यथ दह भौरये तीनो द्वादशमावस्य रुरु का मञ्युमफल है! तुलना “पाये जंमारेगुंसपि न भद्रं सुवि यदा| भ्रं दम्भाधिक्व तनुभृत उता व्यृयचयः || मतिव्यग्रा नियं भवति परवि्तापहरणे गुरणा वंधूनामुपकृतिविधाने शिथिलता ॥* जीवनाय अथं- जिस मनुष्य के जन्मसमय ने वृहस्पति द्वादशानाव मे हो उसे कल्याण भौर प्रवी पर यदा नहँ होता है) वह अधिक अहंकारी होता है ; वयर्थदही खघ्वं की अधिकता ओर सदा दूसरे के धन का अपहरण करने में उसकी बुद्धि व्यग्र रहती है । गुरु तथा बंधुजनो का उपकार करने मेँ रिथिट्ता होती दहे खलः 2 वराहमिहिर अथे–द्रादशभावस्थ गुर का व्यक्ति ख अर्थात्‌ दुजन होता है।

बृह स्पतिफर ३.१५

“अलसो लोक टेष्यो क्यपगतवाग्‌ देवपक्ष मरो वा। परितः सेवानिरतो दादश संस्थे रुरौ भवति ॥ कल्याणवर्मा अर्थ–यह आलसी, खोगों के साथ देष करने वाख; बोलने म अस्हड़ सेवक ओर भाग्यदहीन होता है| | “रिफ चोर हृतस्वं वु नेत्ररोगं पराजयम्‌ 1 परार अ्थ–इसका धन चोरे जाते है, यह नेत्ररोगी होतादै। इसका पराजय होता है । ‹धिषणः कृशांगः पीडां च 1 वरिष्ठ अथे– यह दुबला पतला ओौर पीड़ा युक्त होता है । “व्यये बृहस्पतौ रोगी, व्यसनी परक्मं कत्‌ । बधुेरी नीचसेवी गुष्दरेषी च जायते ॥ काञ्ञोनाय अथे–यह रोगी, व्यसनी, नौकर, भाई-बंधुभां का वैरी; नीचों की सेवा करने वाखा आओौर गुखजनों से दे¶ करने वाख होता हे । “नाना चित्तोद्रेग संजातकोपं पापात्मानं सारसं व्यक्तट्जम्‌ । बुद्धयादहीनं मानवं मानहीनं वागीरोऽयं दादशस्थः करोति ॥> ढण्टिराज अथ–जातक कड प्रकार के चित्तके उदवेग से कुपितः पापी, आलसी निद्टज-मतिदीन, भौर मानहीन होता है । पवार्वाकी चपलोऽटनः खलमतिः जीवो यदोत्येगतः | गीशेदुसिता यदि व्ययगता वित्तस्य संरक्षकाः॥2 वं्यनाय अथे– यदह चावाकमतानुयायी; चपल, भ्रमणशील ( प्रवासी ) तथा दुष् होता है । गुरु, शुक वा ष्वन्द्र व्ययस्थानमेंदहोतो घन की रक्षा करतेर्दै। प्वावीकमत संक्षेप मे ‘खाभो पभो मोज उड़? है । इस मतके रोग प्रत्यक्ष कोदह्ी प्रमाण मानते रहै, परटोक को नहीं मानतेर्दै। जो कृच रै वह पञ्चभूतास्क शरीर ही है । मौर कुछ नदीं है, “भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः 12 यदह मत च्रावाक काहे अर्थात्‌ ये पुनज॑न्म नदीं मानते । इनके अनुसार स्वग-नरक कुछ नीं ह । ईश्वर की सत्ता भी नदीं मानते । इनके अनुसार यज्ञ आदि श्चभम कमं व्यर्थं है| एेसी बातें सभी को पसंद रै। अतः एेसी बात कहने वालों को चार्वाक कहते है | छः नास्तिक दशनो मे पहिला चार्वाक दान ₹ै। ध°रिःफस्थानस्थितश्चेत्‌ गुरुगुसतरोगी नितांतम्‌ । वागीदोयानभूषावसनहयमवा चामरच्छन्रचिन्ता” | जातकालंकार थं-इसे गु्त रोग होते ई । वाहन, भूषण, वख, घोडे, चामर आदि की चिन्ता होती है। ‘“उच्छित व्ययकायी च रिःफगे देवतागुरौ। सेवाविज्ञो महाक्रोधी साल्सो रोकर्विग्रही॥ ग्ययेऽन्नदाता धिषणः | । गुरुव्य॑ये यदा परगोधनदहेमसं पदः” ॥ गर्ग

३१६ चमस्कारचिन्तामणि का तुरनात्मक स्वाध्याय

अथ–जातक वट्‌-चटृकर खत्वं करता दै, सेवा करने मेँ चवर, महाक्रोधी, आलसी, रोगों से ्रगडने वाटा होता है । इसे अन्न की कमी नदीं होती | इते वख, गौरे, धन, सोना ओर सम्पत्ति प्राप्त होते ई । ““नानाचित्तोदरेगसंजातकोपं पापात्मानं सासं व्यक्तख्जम्‌ । बुद्धयाहीनं मानवं मानहीनं वागीयोऽयं द्वादशस्थः करोति? ॥ बृहद्‌ यउनजातक अथं–इते चित्त उद्विग्न रहने से क्रोध वहत आता दहै । यद पापी; आलसी निट्ज, बुद्धिहीन मौर अपमानित होता है । ““रिद्वयः समये हदि रोगवानुचितदानपरांङ्मुख एव च | पिधनेन धनी कुदाभिको मवति पापहे च बृहस्पतौ ॥ मानसागर {यहं बाल्पन मं हृदयरोगी; उचित दान नहीं करनेवाला, पिताक घन से धनी होता है। यदि गुर नीच वा शतुरारिमंहोतो दमी होता है। ॥ “द्वेष्यो धिक्‌ङकतवाग्‌ व्यये वितनयः साधोऽल्सः तेव क | स्नत्रे्वर अथ–इससे दूसरे लोग द्वेष करते ह । बुरे शब्द बओटनेवा खा; संतानहीन, पापौ, साल्सी भौर सेवक ( नौकर ) होता है । “शसोदेग चिताटसपापकोपोऽत्रीडो विमानी कुपितो ग्ययेग्येः | जयदेव अथ–जातक उद्वेग, विता, आलस, पाप ओर कोपसे युक्त होता है । यह निट्ज, मानदीन यर क्रोधश्चील होता है । देज्यो व्यये संस्थितः संचयं वै धनानां छासः । भवेत्‌ कोपयुक्तस्तथा चिन्तया सौ भ्रुवं लखल्सो मानहीनः कुबुद्धिः। स्वयं पापरूपः खलानां च रूपो ॥ „+ व्वये देवपूम्ये न दृष्टश्च पापैः | जागेहवर अथ जातक धन का संचय करनेवाला तथा लोभी होता है । क्रोधी, चितितः मानदीनः दुबुदधि, दुष्ट तथा दुरो की सहायता करनेवाला होता है। जीवो व्ययभावसंस्थः पितुः सदोत्थाः सुखिन स्तदास्युःः ॥ पु”जराज अथं–पिता के माई सुखी रहत है | शगुसूत्र- मदेन््रेजये प्रयच्छति व्ययस्थे विपुलं धनम्‌ । स्वजनविग्रहं दुःखं क्षयोसतिः धनव्ययः । प्रवासो ृपतेर्भातिर्दवेच्ये व्ययसंस्थिते | निधनः, पठितः, अद्पपुत्रः, गणितद्याखरज्ः; अरंयिव्रणी, अयोग्यः, ब्राह्णल्रीभोगी, गर्भिणीसंगमी, धममूेन धनव्ययः । उच्चे स्वक्षेत्रे जनहितकारी रा्सेवकः । स्वग॑लोक प्रासिः ! पापयुते पापलोकः | अथं–इस गुरु से विपु धन प्रास्र होता है। अपने लोगो से जगडे होते हः दुःख होता है । क्षयरोग होता है। धन व्यय होता है । प्रवास होता है । राजासे भय होता है । निर्धन, पठित, गणित जाननेवाला होता है । पुत्र संतति थोड़ी होती हे। प्रंथित्रण होता है। अयोग्य होता रै। ब्राह्मणी

ज्हस्पतिफक ३१७

यर गर्भिणी स्री से सवास ओर खगम करता ई । धर्म मेँ ख्व करता है । यह गुरु उच्च वास्वण्ह मे हो तो लोकहितकारी भौर देशसेवक होता है इसे स्वगंरोक प्रा होता है । पापग्रह से युक्त हो तो नरक मे जाता ३ । पाश्चात्यमत– यह शुरु विजय प्रास्त कराता है। किन्तु शत्रु बहुत होते है । अध्यात्मविद्या ओर गृटशाख्रो मँ सुचि होती है| शत्रु द्वार लाम होता हे। आयु का मध्य तथा उत्तरार्धं अच्छाजाता दहै) वैय, घर्मगुर, वेदज्ञानी, छोकसेवक आदि के लिए यह गुरुश्चुभम है) पुरानी रीतियोंके वारे मे आदर होता दै। लोगों को अकस्पनीय ठेते चमत्कारिक प्रकारो से लछम होता है । यह गुर पीडित वा सञ्चम सम्बन्धे हो तो विवाह में कुक गड्घड़ होती है। छम सम्बन्धमेंहोतोरे०दे वंके वाद मित्रों से गप्र साहाय्य मिखकर अच्छा उत्कं होता है | यह युर बल्वान्‌ हो तो दानाध्यक्ष, सार्वजनिक संस्थाओं में कार्यकर्ता, अस्पताल, धाक संस्थार्ण आदि के व्यवस्थापकके रूपमे सम होता है। इस गुर से एकांतवास मेँ होनेवाङे कार्यो मे यश, लाभम मौर कीर्तिं प्राप होती है। देशत्याग; अज्ञातवास तथा दृरप्रदे्ोमे प्रवासे कीर्तिं तथा लाभ प्राप्र होते ईै। दाददस्थान का सम्बन्ध परोपकार तथा विश्वपेमसे ईै। अतः ये फल कहे ह । बड़े-बड़े दान देने की पवृत्ति भी होती है] यदी गुर पीडित हो तो आटसी, विवेकहीनः, किसी साव॑जनिक संस्था के आश्रय से जीवन बितानेवाला है । कन्या, मकर तथा बृधिक में यह गुरु बहुत अञ्चभ होता दै। विचार ओर अनुभव–गर्गं ने व्र, गौरैः सोना तथा सम्पत्ति मिर्ती है-यृद् शुभफल बतलाया है । यह फटठ अनुभवगस्य है । अन्य अ्ंथका्ये ने प्रायः अद्यभफरू ही बतलये द्वादश दुष्टस्थान है। इसके बुरे फट अनुभवगोचर होते ह | । प्रायः देवज्ञ बृहस्पति को अति यभ ग्रह मानते द । जन्मङुण्डली म पड़े हए बृहस्पति का फल प्रायः श्मदही कहते ओर इनकी धारणाहैकि वृहस्पति सदेव वम फठ दाता द्यी होता है । इस सन्दभं में पुराण का शोक छ्लिा जाता है ताकि देवज्ञ अश्चुम फठसे मी परिचित हो सकै- ८जन्मलम्ने गुर्शैव रामचंद्रे वने गतः। तृतीये बखिः पाताठे चतुर्थं हरिशन्दरः॥ प्रष्ठ द्रौपदो हरणं च हंति रावणपष्टमे। दममे दुर्योधनं हंति द्वादशे पांडु वनागतम्‌?” | अथे–ल्न में गुर होने से राम को वनवा हुआ | वतीय मेँ गुशुसे बलि पातालम गया। वचवुर्थं के गुर से हरिथन्द्र के सत्य कौ ्रीक्षा हुई षष्ठ के गुरु से द्रौपदी का वस्र हरण हृभा। आवे गुर ते रावणका नाद हृभा । दस्मे गुरु से दुर्योधन का भौर बारहवे गुखुसे पाण्डु की मृत्यु हृदं ।

भ्र

३१८ चमच्कछारचिन्तामणि का तुरखुन।त्मक स्वाध्याय

भीष्मके दवितीयम गुरु से भीष्म राञ्याधिकारसे वंचित रहे) दशरथ के पचमम गुरु से दशरथ को पुच्रगोक हुभा। अजराजाके सप्तम में गुरु से पत्नी वियोग हा । विश्वामित्र के नवममें गुरु से विश्वामित्र ने अभक्ष्य मक्षण क्य तथा नल के लाभध्थान मं गुरु से राञ्यभ्रष्ट-वनवास, पत्नीवियोग तथा सपंदंश आदि अघ्युम फट नल राजां को प्राप्त हुए । ऊपरके खसे यह खष्ट दहो जातादहैकि जव गुर अञ्यभम स्थितिमं दोतादहै तो अद्युभ पफलदेतादे। दयक विचार- युक्र के पयोय नाम–युक्र, काव्य, सित, अच्छ, भृगुसुत; आस्फुजित, दानवच्य, भृगु, उद्ना; भागव, मार्गवसुत, भार्गवस्‌नु, काण; कवि, देत्यगुरु, रत्न, देव्व्ऋतिक्‌ , पुण्डरीक) धिष्ण्य) दैत्याचार्य, ऋतु-मरधती ( २२ ) शुक्र का स्वरूप-सितश्चनदनः, दानव्रपूजितश्च सचिवः, शक्रः इयापः, चवर सितः; शयनस्थानं) वस्त्रटं, मक्ताधाठुः) वसतः, आम्करसः । मदन अर्थात्‌ काम पर छक्र काञधिकार हं । यह दैत्यों का गुरु दै । इसका वण द्याम अर्थात्‌ नदी वब्रहूत गोरा ओर नाहीं वहत काला दहै। चित्र-विचिच्र वस्त्रधारण करने वाटा इका देश शवन स्थान द । इसका वस्त्र दृ पका मजबूत ३ै। इसका रत्न सुक्ता-मोती है । इसकी ऋतु वसंत है-इसकी रुचि खद पदार्थं परदहै। इसकी अथिष्ठात्री देवी इंद्राणी है। इसकी दिशा पूर्वं दक्षिण-यदीस्त्री ग्रह है । यद जलका स्वामी है। इसकी जाति ब्राह्मण दहै यह रजोगुणी दै। यह सदेव श्म हे। “गुः सुखी कांतवपुः खुलेचनः कफानिलात्मा सित वक्रमूद्ं जः? ॥ वराहमिहिर अथ-खदैव घुख मँ आसक्त दशनीय शरीरवाखा;, आर्य सुंदर, केश काञे सौर कुरिड (छडरीढे) शे्मा भौर वातग्रधानप्रकृति-एेसा भरु का स्वरूप दै | “यामो विकृटप्वां कुटिलाऽनितमूधंजः सुखीकातः | कृफवातिको मधुरागू्‌ भ्रुपुत्र; श्क्रसारश्ः, | कवुनातक (वराहमिहिर) अशे–वण स स्यामः विरल्देद सन्ध्यां वाख, केश काके भौर लदरीे, युलाभिलासी, सुन्दर; मधुरमापरी, कफवातप्रघान प्ररृति-वीयं से बलवान्‌ भ्वगु हे | “शुक्रः सुखी कांतितनुः सुनेवः शछोष्पानिखत्मा मघ्रुरोगिराच । विकर पूवासितवक्रकेश रेतः सतेजाः किलक्रष्णदेदः” | जयदेव थे– सुखी, संद्रशरीर, सुन्द्रनेत्र कफवातप्रकृति मीरीवाणी ददरमंथि, काञे ठहरीठेकेश वौय से तेजस्वी; इयामररीर-ेसा स्वरूप शक्र का है ।

शु ऋविचार ३१९.

“श्वार्दीधरभुजः पृथूरुवदनः श्यक्राधिकः कांतिमान्‌ ठुःष्णाक्रुचितसृक्ष्म॒टंवितकचः दूवादल इयामलः | कामी वातकफात्मकोऽतिसुभगध्चि्रां वरो राजसो । लीटावान्‌ पत्तिमान्‌ विशालनयनः स्थूलात्दे हः सितः || कल्याणवर्मा अथ–यह सुन्दर, ट्म्वे हाथों वाखा, चेहरा मोग सौर चौड़ा, केशकाठे लहरीटे, बारीक आओौरच्वेहोतेर्है। :ग दुर्वा जैसा. सांवल्य र एकृति कफवात कीदहोतीदहे। वीर्यं अधिक होता रै। वह कान्तिमान, बुद्धिमान्‌, आराम से रहन वाला ओौर मोटा होता दै। रजोगुणी भौर चित्र-विचित्र वस्र पहिनने वाला हाता ह । ओवि बड़ी हती है। . दिदा–भायेयी, क्रः सौम्यः, दाची इन्द्राणी विप्रः, स्तरीणांस्वामी, यजुर्द्‌- पतिः सितः, पितणां वंधुः, स्वक्षेत्रे मागवः बरी, शक्रोनियार्धं | अथे- यह यय्ेयदिशा का स्वामी ्युभग्रह है । इसकी देवता इद्राणी है। यह ब्राह्मणवणं का, स्वरियांक्रा स्त्रामी, यचुरवेद का अधिपति, प्ठिकोक का दयक है । स्त्रीराशिमं, अधैरातरि के समय, तथा वचतु्थस्थानमे यह भृगु बरल्वान्‌ होता है । “भृगुः वीयंग्रदायक॥ रजःस्वभावः, इक्षुः पुष्पत्रश्चान्‌ भ्रगोः सुतः |” पराशर अथे–यह राजस स्वभाव का प्रह दै। वीर्यं देनेवाटा है। मीटी सुचि तथा पूलँ के पौधों पर इसका अधिकार दै। इसका जलतच्च पर सपिकार है । ““असितकरुटिल्करेशः श्वामरसादय॑शाली समतररुचिरांगः सौम्यदक्‌ कामशीलः । अतिपवनकफात्मा राजसः श्रीनिधानः सुखवलसुरुगानामाकरश्चासुरेज्यः | वे्यनाय अ्थ–केश काठे ओर धुंघराठे, रंग सांवला किन्तु सुन्दर, अवयव सम ओर मोदक, दृटि सौम्य, प्रवर्ति कामुक तथा वातकफ की, रजोगुणी, धनवान, सुखो, बल्वान्‌ तथा गुणवान्‌-परेखा शुक्र का स्वरूप ₹ |

(क्रः चितांगः, शिरसा शक्रः, सितो द्विपात्‌ जलाशयान्‌ , सुरासिवि्यः, पोडशवत्सरः सितः, शाखापिपः सितः, कठुरः, समुराचार्यस्य वज्रः, रलं, सित- स्ततो गौतममिस्मं तभूयः, कालः प्रक्षः दृष्टिः कृटाक्षेणकवेः, जेतायक्रसमागमे, भृगुजो लधुस्वमावः, कामः सितः अण्िद$, सोमेन शुक्रः ।

स्वोच्चे स्ववगदिवसे यदि राशिमध्ये शत्ुष्ययानुजगृहे दिुेऽपराहे ।

युद्धे च शीतकरः संगम वक्रघारे शयुक्रोऽस्णस्य पुरतो यदि शोभनः स्यात्‌ ॥

अथे–धरगु दघ्न व्णंकादहै। सिरकी ओरसे उदय होताडहै। दो पार प्राणी ओर जलाशयो का स्वामी ह । मायु षोडश वर्षं की है। यह शाखाषिप दे | इसका रंग वितकवरा दै । (न°प्र) रत मे हीरा, एकपक्ष करा काल, तथा

३२० चमर्कारचिन्तणि का तुटनाद्मकस्वाध्याय

कृष्णा नदी से गोदावरी तक का प्रदे युक्रके अधिकारमेंदहै। इसकी दष्टितिरछो है । वक्र्रह के साथदहदो तो विजयी होता दहै । इसका स्वाभाव हल्का है। सप्रम स्थान मे यह्‌ संकट उत्पन्न करता हे । यह्‌ चन्द्र द्वारा पराजित होता हे । अपनी उच रामे द्रेष्काण तथा नवांश कुडटी मे स्वगरृहमे हो तो, रारि के मघ्यमभाग मे, ततीय, चतुथं, पष्ठ-वा व्यय स्थाने, संध्या समय, य॒द्धके समयचंद्र के साथ दहोतो, वक्रीहोतो तथा सूयै के अगदो तो श्युक्र ग्रह शुभ फट देता भौर वल्वान होता हे । यह पष्ठ स्थान मे विफट होदा हे । (चित्राम्बरा कुचित कृष्ण केशः स्थृलांगदेहश्च कफानिंलात्मा | ूर्वाक्कुराभः कमनो विशाल्ने्ो भगुः साधित शुक्र वृद्धिः | भत्रे्वर अथं–रंगविरंगे कपड़े पदिने हूए रै। काले परपराले केश रदै। शरीर रौर अवयव स्थूकर्है। कफभौरवात की प्रघानतादहै। दू के अंकुर की भोति उञ्ञ शरीर दे । युक्र देखने मं बहूतसुंदरदै। इसके विशाल नेत्र ह | वीर्यं पर इसका विशेष अधिकार है । ८ववेदथावीध्यवरोधाः, देवता लश्मीः. कीकरोदे शः, रोौप्ये, सप्त, वह्छी अथ–श्ुक्र के स्वामित्व मं वेदयार्ो कर निवासस्थान, अंतःपुर, कीकट प्रदेश, सातवषं की आयु, चोटी धातु तथा वेल, मं इनका समावेश होता दै | इसकी देवता लक्ष्मी ह । देवता इन्द्रः; यतिचुह्कस्वुसितः मध्यमः, ख्िग्धो | विचछमो विपुल सदीिः, खनीक्षेत्रगः वीयुंबुतः सितः ॥» पुंजराज अथं– इसका देवता इन्द्र है । यह बहुत सफेद तथा मध्यम आयुका है । शांत ओर तजष्ठी किर्णांसे युक्त भौर वक्री होतो यह बख्वान्‌ हे । खी रायो मे यह प्रबल दहोतादहे। (सजलजल्दनीटः दछेष्पल्श्चानिलात्मा कुवलख्य दठ्नेत्रोवक्रनीशखाख्कश्च | सुसरल्भुजशाटी राजसश्चःतिकामी मदयुत गजगामी भार्गवः श्युक्रसारः | ट्ण्डिराज अथे–जलयुक्त मेघ क समान वण्वाटा, कफवात प्रकृति, कमल पत्र के समान नेत्र वाखा, काले धराद कशां वाला; सुन्दर युजावाला;, रजगुणी, कामी, ओर मदयुक्तदस्ती के समान गति वाखा शुक ग्रह दै॥ विवेचन का टश्न सूर्यास्त के वाद्‌, ओग सूर्योदय के पिके मी होता दै। प्राचीन ग्रथकार्गोने सूरवास्त के बाद नजर यने वाले शुक्रका वर्णन ही मुख्यतः करिया है। यह बहुत तेजस्वी ओर आकषक प्रतीत होता रै। यह शुक्र अष्मवा नवम स्थानमेंदहोतारहै। सूर्योदय के पडिठे का शुक्र खन स्थानमें होता है यह विरोष तेजम्वी नहो होता है

१ शुक्रवि चारे ३२१

^९।

आचार्यं वराहमिहिरने “्वितश्च मदनः। कामवासना पर श्चुक्र का अधिकार दै एेसा कहा है । यह अष्टमस्थान का कारकत्व है । अष्टमस्थान वृध्चिकरारि का है, ौर इसका अधिकार गुप्त इन्द्रियों पर है। अष्टमस्थान दी संध्या समय को बतानेवाला है। कामवासना की जागृति संध्या समय से होने लगती है-इस तरह कामवासना पर शक्र का अधिकार है। प्रातःकार काम- वासना शांत होती दै-यद समय प्रतिभाके लिए विरोष उपयोगीदहे। इसी समय कवि रोग ॒काव्यर्वना करते है-उपन्यास लिखने बाले-नाटक लिखने वाठे इसी समय अपने काम करते है ।

“ष्दानवपूजितश्च सचिवः? आचाय वराहमिहिर ने कहा है । इसका कारण पुराणों मं देव्यराज ब्रपपवा का गुर शक्र है” यह वर्णन है । `

वणे-दयाम- देखने में श्यक्र सफेद है किन्तु लयस्थ वा सप्तमस्य क्र का व्यक्ति काठेरङ्गका भीपाया जातां) ल्स्थश्चुक्रहोतो पल्ली काठ रङ्ग कीहोती दहै अतः श्याम वणंभृगुका है एेसा कहा है।

“चित्रः सितः– वस्र का वणं चित्र-विचित्र है” एेसा कहा है | शयु घ्री ग्रह है चियों का प्रतिनिधि दहै। चियोंकोनएसे नए भौति-माति के रङ्गदार कपडे पहिनने का °डौक रहता है । वस्र का विचार वृषराशि तथा धनस्थान सेहोतादे। व्रृषराशि चित्र-विचित्र-रङ्क को जतलानेवाटी राशिदहे। भतः ८धचितच्र विचित्रवर्णः कहा हे |

धातु-बीये- यह कारकत्व सप्तमस्थान का है ।

दा रनस्थान–सोने की जगह पर शुक्र का अधिकार है।

वस्-दट-व्रषराशि दृटता बतलाती है । यह वर्णन धनस्थान सौर बृष- राशि के स्वरूप के अनुसार है|

धाट-मोतो- मोती के समान गोल अौर श्युभम दिखता रै-अतः मोती धातु है-रेसा कहा है |

ऋतु-वसंत-शक्र शीतल भौर आद्र होने से वसंत तु पर अधिकार रखता है ।

रुचि-मधघुर-पराशर के मत के अनुसार भगु की रुचि मधुर वस्तुओं पर दे-“श्चिःध्ाप्ट’ यह वणेन कई एक का टीक नहीं प्रतीत हेता है।

दि दा-आमरेय-अनुभव दृष्टि से यह वणन दीक दै ।

स्वभाव-सौम्य–सप्तमस्थान वुकि का दै-तलाराशचि शान्ति की प्रतीक है ।

देवता-षृन्द्राणी- मन्त्ेश्वर के अनुसार “लक्षीः देवता रै-दोनों ठीक ई ।

वणे-वेदय–सूयं ओर चन्द्रमा से अतिरिक्त रेष प्रह दो-दो राशियों के स्वामी ई अतः उनके दो-दो वर्णं अवकदड़ा चक्र मे कहे ई जैसे :-

३.२२ चमत्कारचिन्तामणि का तुखनात्मक स्वाध्याय

मेष-मङ्गल-श्चत्निय , वृधिक-विप्र-त्राह्यण, मिथुन-बुध-यद्र कन्या-वेद्य धनु-गुर-क्षत्रिय मीन-विग्र वेषम-शक्र-वेद्य त॒ल-यद्र मकर-शनि-वैदय ` कुम्भ-युद्र

मेष मेँ मङ्गल ओरधनु मे गुरसेनावा पुल्सि मं अधिकार दिल्वाते है, कषत्रिय वणं का यह तात्पर्यं है । इृधिक मे मङ्गल आर मीन में गुरु अध्ययन सध्यापन-तपश्चवां आदि कराते ईहै-वह ब्राह्मण वर्णका खर्प है| मिथन में बुधः वामं शक्र, तथा कुम्भ मे शनि नौकरी करवाते है, यह चचुद्रव्णं का स्वरूप है । कन्या में बुध, दृषम मेँ छक्र तथा मकर मे शनि व्यापार करवाते ह-यह वेरयवणं का स्वरूप है । इस तरह शकर के दो वर्णं कहे है ।

वेद्‌–यजुरवैद्‌ का स्वामी श्क्र है ।

छोक-श्क्र पितृलोक का स्वामी दै ।

बल–्गु चठथंस्थान मेँ बली होता है। नैसर्गिक कुण्डली म धन आओौर सततमस्यान छक्र के है । चठु्थस्थान चन्द्रमाकादै। किन्तु चतुर्थमे क्र हो तो अन्यग्रह अश्चुम होने परममी साधारणतः उमर युख से व्यतीत होती है। स्पल्ए भगुको च्ठुधंमे वटीमानाहै। खरी रारियोँमंभी क्र बलवान्‌ होता है मतः पुरषो को ठीक है । ख्यो की कुंडली मँ सखरीराशि के शुक्र का फर अयम होता हे | मध्यरात्रि मे शुक्र वल्वान्‌ है एेखी मान्यता दै । ओर यह इसलिए कि दंपति का रतिक्रीड़ा समय मध्यरात्रि है ।

वीय-घातु–पराशर के मत मे द्ुक्र वीरयदायक दै । यदह कारकत्व सत्तम- स्थान कादहै।

स्वभाव–रजोगुणी-यह भी वर्णन सप्तम स्थान काह ।

वेख– शूले की लता्भो पर, मोगरा, जूह्वी आदि सफेद परो पर शक्र का स्वामित्व है ।

उद्य–इसका उदय शिर की भोर से होता दै

द्विपाद्‌- मनुष्व भौर दोपाए्‌ जानवें पर शक्र का मधिकार ई ।

जखादाय- शरीरम बीय॑दहै इसी तरह खषिमं जलस्फेद्रंग काद इस पर शुक्र का स्वामित्व है |

आयु– षोडश वपै-दसी आयु मे पुरषो मं वीयं उत्पन्न होता है किन्तु
पूणे तरणावस्था पर भी शुक्र का अधिकार दै  

दाखाधिप-पराश्चरनेव्रक्षोकी शाखामों पर शुक का अधिकार माना दै वेयनाथ ने मूल पर भृगु का अधिकार कहा है ।

रग-चितकबरा-प्र्करुडली मँ नष्टवस्तु के विचार मेँ रग का वर्णन आव- दयक होता है ।

शुकऋविचार ३२३

. रल्न-हीरा-सफेद रंग का हीरा तेजस्वी रत्नै । इस पर श्चक्र का अधिकार है। कटाक्षुटृष्टि- शक्र की नजर तिरछी दहै पुराणो में भृगु को भांख से अंध मानादहै। ^

वक्र समागम- मंगल ओर गुर वक्री हो, ओर उनके पास जाकर शुक्र क्रंतियुति बा मेदयुति करे तो वह बल्वान्‌ होता है) इस शक्रसे वक्री मगल ओर गुर के अश्चुभफल कम होते है । किन्तु वक्री बुध भौर शनि के सथश्चुक्र की युति हो तो शुक्रका बर कम’होता है, ओौर उसके फल अञ्चम होते है|

सानबल–भपनी उच्चराशि मे; द्रेष्काण ओौर नवां कुण्डली मे, स्वगृह मे, दिन मे, राधि के मध्य मे, त्रतीय, चतुर्थ, षष्ठ तथा व्ययस्थान में, तृतीय प्रहर मे, युद्ध के समय, चन्द्र के साथ वक्री मवस्थामें, ओर सूयं के अगे गया हआ शुक्र बट्वान्‌ होता है । वैयनाथ षष्ठ के शुक्र को विफल मानता है श्री नवाये के मत में सप्तम मे श्चक्र अरिष्टनाश्चक है ।

-अन्तःपुर- जैसे वेदयाण्ह वैसे दी अन्तभ्पुर पर श॒क्र का अधिकार है ।

देर-सौराघ्र ( कीकर ) ओर गुजरात प्रदेश पर श्चक्र का मधिकार रै- क्योकि इनकी इत्ति धनाजेन मेँ अधिक होती दै । |

धातु-चादी–्चोदी सफेद है भतः इस पर शुक्र का अधिकार है ।

किरण –जव शक्र सूये से दूर होता रै इसके किरण छान्त होते ह तन यह शुभ फल देता है । यद स्थिति नीचरि-कन्या मे होती हे |

भाग्य की कसो–श्क्र धनदाता मरह है मतः भाग्य की कमी नहीं होती ।

शुककी शुभस्िति–श्चक्र ्यमस्थिति में हो तो व्यक्ति का स्वभाव दान्त होता है । क्षगङ़ादट्‌ नदीं होता, फसाद नहीं करता, अतएव कानून का अवलम्ब नदीं चेता । यदह सनन्दी; पवेनी हंसोड़-मजाकिया, अच्छे कपडे पहिरनेवाला होता है । पीने की भर सुचि अधिक होती है-परेमपाश में पैसता है-प्रियाराधन करता है, संगीत आदि मनोरंजनों मे अधिक मेम रखता है- विश्वास सदसा कर ठेता है । परिभिमी नदं होता, अविश्वासु भी नदीं होता ।

अङुभख्िति–श््र ` अश्चमस्थिति मे हो तो व्यक्ति ज्चगड़ाद्‌, ख्चला सौर स्रीप्रेमी ओौर अवैध सम्बन्ध जोड़नेवाखा होता है । पच॑चर भौर अविश्वावु होता रै। शराव के व्यसन मं धन नष्ट करता दहै । इसकी मिता पर भरोसा नदीं हो सकता । अव्यवस्थित वित्त तथा धमं मे उदासीन होता ई ।

पूवं का शयुक्र धन; ल्म भौर ग्ययस्थान मे होता है । पधिम का श्युक्र छठे, सातवं तथा आव स्थान में दोता है। धन; षष्ठ भौर सप्तम स्थानों मेँ शक्र दिखता नदी है । ठ-ग्यय तथा अष्टम स्थान का श्यक्र नजर आता है ।

शुक्र पधिम की भोर उदय होता है तब सूर्यं के पीछे होता ह। इस समय सो्रला श्चभ्रवण दिखता है । अतएव इसे ¶दबीदल्दयामलः कहा ह ।

३.२४ पवमस्कारचिन्तणि का तुख्नास्मक स्वाध्याय

जव शुक्र पूर्वं की ओर दहो तो सुयंके भगे होता हे। इस समय इखका व्ण अति शुभ्र भौर तेजस्वी होता है । शर प्रान व्यक्ति सुखी होते ई । कन्या ल्म्रमें शुक्रहो तो व्यक्ति प्रथम फोटि का सुखी होता है-इससे कुछ कम-कम मात्रा मे कमराः अकर, मिथुन ओर कुंभ लग्र के व्यक्ति सुखी होते हैँ । कांतिमान–कामेच्छा अधिक-माकाशस्य शुक्र सुन्दर दृष्टिगोचर १डता रै-सप्तम खानमें हो तो कामेच्छा अधिक रहती हें । स्थूखदेह ( समतर रुचिरांग )–यद वणन धनस्थान ओर सप॒मस्थान का हे | धनस्थान में बृषभराशि के स्वरूपानुखार व्यक्तं स्थृल्देह होता हे । सक्तमस्थान. मे तकरा के स्वरूपानुसार व्यक्ति ऊँचा पतला देह हाता हे । शुक्र दो रारियों का स्वामी है यतःमेद ह । शक्र का स्वभाव आप्र ओौर शीतल है अतः कफवात प्रकृति ह । धनस्थान नें ्यक्र होतो व्यक्ति कवि, हाथी की तरह मस्तानी चाल का, धनवान्‌ , सौम्दृष्टि तथा मधुर भाषण करनेवाला होता हे । य॒दि शक्र सद्मस्थानमें हदो तो व्यक्तिं बहुत केशवाखा; वीयवान्‌ तथा सुन्द्र शरीर होता हं | लुक दी बख्वत्ता- क्र वल्वान्‌ होने से मनुष्य का जीवन अच्छा बीतता है । यश-सम्पति-सन्तति आदि की प्राप्ति दोतीदे। एक से अधिक लियं होती है । किन्तु व्यक्ति पर्या की ओर से विस्ख होता दै। तृतीयः पष्ठः, अष्ूम वा व्यरस्ान का शुक्र ुभकफटः नदींदेतादहै। निर्व इच्छ छक नर्वैल दयो तो परखियो से सम्बन्ध होता टं अर इस सम्बन्ध से सभ्य हता है। परिणामतः समाज मं मानहानि होती है। शक्र का कारकत्व- “वस्-मणि-रत, मूघण, विवाह-गन्वे्टमाल्ययुवतीनाम्‌ । गोमयनिधानवि्याधनश्क्ति रजतग्रभुः शुक्रः” ॥ कल्याणवर्मा अ्थ–कपरड, मपि, रत्त-अलंकार, विवाह सुगन्धित पदाथ, पुष्पहार; युवती; गोमय ( गौ ) घनसंचय-विया, सीप-चदी–इन पर छक्र का अधिकार ई । “्पक्ती वादन भूषणानि मदन व्यापार सौख्यं स्वगो” ॥ वच्नाव “कांता विकरारननिमेदद्जायरायेः स्वेष्टंगनाजयङ्कते मेवमायुरे्यः” ॥वयनाथ | अ्थं-पली-वाहन-भूषण काम-बिषयोपभोग, सुख का विचार श॒क्र से होता | है! सियो कं संग से उत्पन्न होनेवाले प्रमेद्ठादि रोग तथा प्रेमिकामों से भयः यह्‌ शुक्र का अधिक्रार हे । ““संपदूबाहन वल्रभूषबणनिधि द्रव्याणि तौयत्निक › भाया सौख्य सुगंघपुष्प मदनव्यापार शय्याल्यान्‌ । श्रीमत्वं कवितासुखं बहूवधूसंगं विखासंमद्‌ं 9 साचि्यं सरसोक्तिमाह भ्रगुजाद्वाह कमोस्खवम्‌ ॥” भतरेश्वर

शकऋषिचार ३२५

अर्थसंपत्ति, सवारी, वख-भूषण, निषि मँ रखे हुए द्रव्य, नाचने, गाने तथा बाजे का योग, सुगंपि, पुष्प, रति, शय्या ओर उखसे संबंधित व्यापार, मकान, धनिक होना अर्थात्‌ वैभव; कविता का सुख; मत्री दोना, सरस उक्ति, विवाह वा अन्य श्चुभकर्म, उत्सव आदि का विचार श्चुक्रसे करना प्वाहिए |

“कलन कामुक सुख गीत शाल कान्य पुष्प सुकुमार यौवनाभरण रजतयानग्वंलोक मौक्तिक विभव कवितारसादिकारकः शुक्रः ॥

भ्गोर्विवाह कमणि भोगस्थानं „ च वाहनम्‌ । वेदया लीजनगाच्राणि शक्रेणेव निरीक्षयेत्‌ ॥’ पराशर

अथे–सखरी-कामयुख, गीत-शाख्र, काम्य; पुष्प, कोमलता, यौवन, आमः रण, रजत, मान; गर्व-लोक, मोती-एे्वयं, कविता तथा पारा आदि पर शक्र का अधिकार दहै। विवाह के कार्ं-उपभोग के स्थान, वाहन ओौर वेद्या सियो के अवयवो का विषार श्युक्रसे करना चाहिए । जन्मकुण्डली में यदि शक्र प्रचर हो तो बालक पारासिद्ध करनेवाला, धातुं का भसम बनाने वाखा; थोडे ग्रंथ ल्िखिनेवाला तथा प्राङृतग्रंथों का अभ्यास करनेवाला कविं होता दै ।

“संगीत साहिप्यहास्य रसादूथुत मदन युवति रति केल्िविलखासर विचित्र कांति सौँदयंराजवशौकरण राजमुख वशीकरण गार्डन्द्रजार माला वैराय म्िमाणिमायष्े | |

श्यं काय्य कला संभोग कख्त्र कारकः शुक्रः |” भ्यंकट श्भा अथे-संगीत, सादित्य-नौकरी; रख, अदूयुत बार्ते, काम विकार, तरणी लों से क्रीड़ा; विचित्र सुंदरता गौर कांति, राजा को वश करना, गारुड ओर इन्द्रजाल्-जादुगरी दार-स्प्रष्टत, अणिमा आदि आठ सिद्धियां, काव्य; कटा संभोग तथा खत्री इन विषयों का विचार श्चक्र से करना होता है ॥

सुक्र का रोग विषयक कारकत्व-““पांड्‌ श्टेष्ममरुत्‌ प्रकोपनयन व्यापत्‌ प्रेहामयान्‌ , गुह्यस्थामय मूत्रङृद मदनव्यापत्ति शुक्र॒ खतिम्‌ । वारखीडतदे कांति विदत्तं शोषामय॑ योगिनीः यक्षीमातृगणाद्‌ भयं प्रियसुद्धदभगं सितः सृष्येत्‌ ॥› सन्रेहवर |

अर्थ पादरोग, कफरोग, वातरोग, भांखों के रोग, प्रमेह, गुतेन्दरि रोग, मूत्रावरोध, कामसुख मे बाधक रोग, वी्॑ल्लाव, वेदयागमन से शरीर का तेजोहीन दोना, सूखा रोग, योगिनी, यक्षी वा मात्रदेवता्ओं द्वारा कष्ट; प्रिय मित्रँसे संबंध का टूट जाना इनका विचार श्चक्रसे होता दहै।

‘छुन्नरवाहन कीर्तिञ्चदारषितां च श्युक्रतः” ॥ विद्यारण्य

अर्थ– छत्र, वाहन, कीर्ति, खरीविषयक ध्िता-इनका विचार श्चकसे हाता है।

३२६ चमरकारचिन्तामणि का तुरखनाव्मक स्वाध्याय

“संगीतसादहित्यकटा कलाप प्रहाद्‌ कान्तारति गीतवाय्म्‌ । च“ © ^~ [कव्‌ ४ [क कलत्र सादयं विनोद्‌ विद्यावेखानि वीयाणि कवेः सकाशात्‌ | जोगनाथ

अथ–ंगीत-सादित्य, भांतिभांति की कलर्ै-आआनंद, खीसुख, गायन, वाद्य, खरीसों द्य, विनोद्‌, विन्या, बल ओर वीर्यं का विचार शुक्र से होता है ॥

“श्वेत छत्र सुष्वामराम्बर विवाहायद्विषात्‌ स्री द्धिजाः। सौम्यश्रेत कलत्र कामुकयुख हस्वाप्ठ पुष्पाज्ञकाः ¡¦ कौर्तियौवन गर्व॑यानरजताग्नेयप्रियक्षारकाः | तियगृहकू पक्षराजसदटा समुक्तायचुर्वेहयकाः । सौदर्यक्रयविक्रयाः सरलसष्टापो जलास्थानकम्‌ । मातगस्तुरगो विचित्र कविता व्रत्यं च मध्य॑वयः। गीतं भोग- कलच्रसौख्यमणयः हास्यप्रियः खेचरः । गव्यो भाग्य विचित्र कान्तिसुकुमारा राज्यगंधल्लजः । वीणावेणुविनोद्‌ चार्गमनाष्टेश््य॑षार्वगता । स्वत्पाहार वसंत- भूषण बहुख््ीसंग्रदप्राड मुखाः । नेत्रे सत्यवचः कलानिपुणता रेतोजखात्‌ पीडितः । गांभीर्यातिशयश्चतुराद्यं नाटकाट्करृतिः । . केलीटोक्क खंडदेहमदन प्राधान्य- सन्मान्यता । युक्त %तपयग्रियो भरतशाखरं राजमूद्राप्रयुः। गोरी श्रीभजनेरति- गरदुरतिक्कांतोदिवामाठकाः । काव्यादौ रचनाप्रवंध चतुरस्यानील्केशः श्युभम्‌ | गुह्ये मूत्रचुनागलोक सरणे तत्रापराहं तथा । जामित्रं स्थलजं रदस्य स॒दितं सर्व वदेत्‌ भणंवात्‌ ॥ कालिदास-उत्तरकालामृत

अथे-सफेद्‌ छतर, ववर, वस्र, विवाह, धनलाम, दो पाए प्राणी, खी, ब्राह्मण; सौम्यस्वभाव, सफेद रंग; पक्ती, कामुकता, सुख, नाटाकद्‌ खदरी रचि, पूल, आज्ञा; कीर्ति, तारुण्य, गवं, वाहन) चांदी; आग्नेयदिशा, नमक, तिरछीद्टि, प्च; ददता, राजा; मोती, यजुवद, व्यापारी सुंदरता, खरीद-विक्री, सरस बोलना, जलाशय, हाथी-घोडे, कविता, ब्य, मध्यम अवस्था, गीत-खरीसुख, रत, हसी; नौकर, भाग्य, तेज, सुकुमारता, राज्य, सुगंधित पूछ के हार, वीणा बांसुरी; विनोद-आढ प्रकार के रेर्थ, थोड़ा आदार, वरस्तऋतु-अलंकार, पूवं मुख, आंख, सच बोलना, कलानि पणता, वीर्य, जट के रोग, गंभीरता, वाद) नाटक, क्रीडा-सम्मान, सफेद वख, राजमुद्रा, लक्ष्मी वा पावती की उपासना, थकावर, नीटे केश, राह्यांग, सन्ध्या समय; स्थानविषयक रहस्य; नागलोक ।

राक के सामान्य फट–पुरुषों की जन्मकुण्डली मं पुरुषराशि मं ओौर ओर चयो की कुंडटीमें खरीराशिमे शक्र अश्म फल देतादहे। र्न का श्र रात्रुनाशक है। धनस्थान का शुक्र धन दाता है। संपत्ति दाता है। त्रतीयस्थान का शुक्र सुखदाता रै। चतुथं का भृगु धन दाता है। प॑चमभाव का शुक्र पु्र-संतान देतादै। षष्ठस्थान का शुक्र रातुबद्धि करता है । सप्तमस्थान का शुक्र रोक कारक है । अष्टम का शुक्र धनदेताहै। नवमस्थान का शुक्र विविध वस्रोका सुख देता दहै। दशमस्थान का श्युक्र अश्चभ फल देता रै। दभस्थान कां शुक्र धनसंचय कराता है । व्ययस्थान काभीश्क्र धनप्राप्ि कराता है।

शुकबिचार ३२७.

मेषादिराशिस्थ शुक के फट -(धविस्तारभय से छोक नदीं लिखि रै । )

मेषरारिमें शुक्र हो तो जातक राव्यं, दोषी, दुषटस्वभाव, परख्री- वेद्यागामी, वन में रहनेवाला, स्री के कारण बन्धन में पड़नेवाला;, कठोर, सेनापति वा ग्राम कवा अध्यक्ष, अविश्वासः दीठ होता है।

वृष मे शुक हो तो बहुत स्रीवारा, कृषक, रक्वस््रादि से युक्त, गोसेवा से जीविकावाल-दानी, बन्धुपोषक, सुरूप, धनी, बहुविध, प्राणिर्यो का उपकारी तथा रणी होता हे। |

मिथुन से शुक्र हो तो विज्ञान, कला, शाख म विख्यात, सुरूपः कामी, लिखने भौर काव्यरष्वना मे चतुर, छोकपरिय; गीत ओर व्रत्य से घनलाभ करने वाडा, मित्रों से युक्त, देवब्राह्मण का भक्त, टदुमैत्रीवाला होता है ।

ककं मे शुक हो तो मतिमान्‌ , धर्मात्मा, पंडित, बली, शान्त, गुणियों मे रेष्ठ, अभीष्ट सुख से युक्त, सुन्दर, नीतिज्ञ, स्री-मपान के कारण रोग से पीडित तथा अपने कुल के दोषसे दुःखी होता है।

सिंह स्थित शक्रो तो स्री मे सक्त, सुख धन सित, अस्पबलः बन्धुप्रिय; नाना सुख होते हए भी कभी-कभी दुःखी, परोपकारी, गुख्जनों का आज्ञाकारी, बहुत चिता से रदित होता है। |

कन्या मेँ शुक्र हो तो जातक थोड़ी चिन्तावाख, सुकुमार, चतुर, परोप- कारी, कला में निपुण; प्रियभाषी, नाना प्रकार कै कायं मेँ यत्न करनेवाला, दुष्टा खरी का पति, दीन, सुख भोगीन, अधिक कन्या थोड़े पुत्रवाटा तथा तीथं ओौर समभा में पण्डित होता दहै। |

तुखारािमेशकदहोतो भम से धनोपार्जन करनेवाला, वीर, वल भूषणप्रिय, परदेशवासी, अपने जन का रक्षक, कठिन से कठिन कायं मे निपुणः धनी, पुण्यवान्‌ ; देव-ब्राह्मण का भक्त, पण्डित ओौर सुन्दर होता दै ।

बृश्चिक मेँ शुक्र हो तो लोकदेषी, निर्दय, धर्महीन, विवादी, शठ, सहोदरं से विरक्त; भाग्यहीनः; शत्रुजित्‌; पापी, पीडित, कुल्य से देष करनेवाला; हिंसकः, बहुत ऋण वाला; दरिद्रः नीच ओर गुप्तयोगी होता दै ।

धनु में शुक्रहो तो जातक धर्म, अर्थ, कामके फल से युक्त; लोकप्रियः सुन्दर, शरेष्ठ, कुक्कमल्दिवाकर, विद्वान्‌, गोपालक, भूषणप्रिय, धन; ख्रीसेयुतः राजमंत्री, चतर, मोया यौर लम्बा देह, खोक मे पूज्य होता है ।

मकर मे शुक्रदो तो खं भय से दुःखी, दुर्बल्देह, ब्द्धाल्ली मेँ आसक्त, हृद्यरोगी, घनलोमी, मिथ्याभाषी, धूतं, चुर, नपुंवक; चेशदीन, दूसरे के कायं में रत, मूखं ओर केश सहन करनेवाल होता है ।

कुंभ मे शुकदहदोतो उद्वेग से दुभ्ली, व्यर्थका्रत, परदार, अधर्मी, गुरुजन ओर सन्तान का शत्रु, लानां उपभोग तथा वस्र-भूषणादि से हीन ओर मलिन होता है ।

३२८ चमरकारचिन्तामणि का तुरुना्मक स्वाध्याय

सीन में सक्र दो तो उदार, दानी, गुणी, धनी, शत्रुजेता, छोक में ख्यात; रेष्ठ, विोष कायकत, राजप्रियः; वक्ता, बुद्धिमान्‌, ताघुजनो से धन ओौर मान लाभ करनेवाखा, वचनपालक; कुट्पोषक र ज्ञानी होता है । मेष-वृश्चिक स्थित शुक्र पर प्रहदष्टिफल– .

मेष वा वृश्चिक स्थित छुक्र पररवि की दृष्टिसे-घ्रीके कारण धन सुख से हीनः दुःख से पीडित किन्तु राजा भौर पण्डित होता है। च॑द्रकीटष्टि स-

बन्धन भागी, कामी, दृष्ट स्री का पति होता हे । संगट कौटष्टि से–धनसुख

भौर मान से हीन, दूसरे का कार्यकता, मलिन होता दै । बुघ की रृष्टि से- मूख, टीट), नीच, भाई से ल्ड़नेवाला, विनयहीन, चोर, ्ुद्र-करर होता है । गुरु की दृष्टि से-खुलोचन, उत्तम स्रीवाटा, सुन्दर ओौर ल्म्वा शरीर, बहत पुत्र बाला होता है। रानि की रष्टि से-मलिन, आलसी, भ्रमणशील, अपने स्वभाव के मनुष्य का नौकर ओर चोर होता दे।

वृष या तुखा स्थित शुक्र पर रवि की ष्टि से-उत्तम खी, धन, सुख से युक्त होता हे । उत्तम पुरुष किन्तु स्रीवश होता दै । चंद्रकी टष्टि से- कुटीना माता का पुत्र, सुख; धन, मान ओर पुत्रसे युक्त, श्रेष्ठ ओर मनोहर रूप होता है | मंगको दृष्टि से-दुःशीटा स्री का पति, खरी के कारण घर सौर घन का नाश करनेवाला, कामी होता है। वुध की दृष्टि से-मनोदर, मृदुल, सन्दर, सुख, धेयं, बुद्धि से युक्त, बली, सवगुणयुत भौर विख्यात होता हे | गुरु की टष्टि से-खरी-पुत्गरह रवारी आदि के सुख से युक्त, स्वामीटकार्य साधक होतादै। दानि की टृष्टि से-थोडे सुख भौर धन वाला; दुष्ट स्वभाव, कुशीटा खी का पति ओौर रोगी होता दै।

मिश्चुन या कन्या स्थित क्र पर रवि की दृष्टि से-राजा, माता ओर स्री का उपकारक, पण्डित, धनी, सुखी होता है| चंद्रकी टृष्टि से-ङृष्णनेत्र, सुतश, शय्या, सवारी आदि का भागी मनोहर होतादै | मंगरकीटष्टि से- कामी, सुन्दर, स्री के देतु धननाशक होता हे । बुध कीट से-पण्डित, ग्रदु, धन), परिजन जौर सवारी से युत, सुन्दर, गर्णो का नायक्र वा राजा होता दे । गुरु की दृष्टि से-अति सुखी, प्रतापी, नकली घातु बनाने मेँ पड़, पण्डित सौर आचाय होतादै। इानि की दष्ट से-भति दुःखी, लोक मे अपमानित, च्ल, रोगां का द्वेषी ओौर मूर्खं होता है ।

ककं स्थित शुक्र पर रवि की दृष्िहोतो जातक की सखी यहकार्यमें तत्परा, कोमलंगी, रोषरयुक्ता, राजपुत्री र धनवती होती रै! चंद्री द्रि

-सोतेी माता को सुख देनेवाल, प्रथम सन्तान कन्या तथा अधिक पुत्र

वाला, सुखी मोर सुन्दर होता है । मंगट की टृष्टि से-कला को जानने वाला, अति धनी, स्री के लिए दुःखी, बन्ुर्भोका पोषक होता है। वुधकी द्रष्ट से- पण्डितास्त्री का पति; बन्धु्मोंके देतु दुःखी, श्रमणद्ील, धनी मौर पण्डित

शक्रफर ॥ ३२१

होता दै। गुरु की दृष्टि से-नौकर, पुत्र, भोग, बन्धु, मित्र से युक्त ओर राजा का प्रिय होता ई । दानि की दृष्ट से-खरीवश, दणि, नष, कुरूप, वंच ओर सुखदहीन होता है | |

सिंहराशि सित शुक्र पर रवि की दृष्टिहो तो जातक ईष्यौवान्‌ › खी प्रिय, कामी, सख्रीके देतुसे धनी ओौर हाथी रखनेवाला होता है च॑द्रकी टृष्टिहो तो सौतेशी माता का पिण्डदाता, खी के देत दुश्खी, धनी, अनेक प्रकार की चंचल बुद्धिवाला होता दै । मंगल की दृष्टि से-राजपुरुष, विख्यातः चर्यो का प्रिय, धनी, बुन्द्र, परदारग होता है । बुध की दृष्टि से-धनसंचय- कारक, लोभी, खरेण, परदारग, योद्धा, शठ, मिथ्यावादी, धनी दोता है । गुरु षी दृष्टि से-सवारी, धन भौर नौकरो से युक्त, बहुत खी का पति भौर राजमंघ्री दता दै। रानिकी दृष्टि से-राजावा राजा के तुस्य, प्रख्यातः कोरा ओौर अनेकं सवारी से युक्त; विधवा खरी को रखनेवाखा, रूपवान्‌ भौर दुःखी होता है ।

धनु वा मीनस्थ राक्र पररवि की रृष्टि से–जातक तीक बुद्धि, चरः पंडित, धनी; छोकपरिय आर विदेशगामी होता है ।

चद्रकी रष्टि से–बिख्यात, राजपुरुष, भोजनादि विविध भोगों से युक्त ओर अदुल धनवान्‌ होता है । मंगल की रष्टि से-खियो का देषी, नाना प्रकार के सुख-दुःख भौर घन से युक्त, गोगाख्क तथा श्रेष्ठ पुरुष दोता है । बुध की ट्ट से-सब् प्रकार के दस्र, भूषण, अन, पानादि का भागी ओर धन-वाहनों से युक्त होता दै गुरुकी दृष्ट से-हाथीः घोडे, गाए, बहुत पुत्र, खर से युक्त, अतियुली महा धनवान्‌ होता है । इनि की दृष्टि से- नित्य धनलाभ करनेवाला, सुखी, भोगी, धनाल्य अौर संद्र होता है।

मकर या क्रुंभस्थित शक्र पर रवि की ट्ट से-जातक चि्यंका परम प्रिय, महाधनवान्‌ ; सत्य मौर सुखो से युक्त शूर पुरुष होता है । चंद्रमा की दृष्टि से- तेजस्वी, च्यर भौर धनी होता है। मंगख की दृष्टि से-खीदीनः अथंहीन, रोगी, भ्रमसे युक्त होता हुमा अंतमे सुखी होता दै। बुध की दृष्टि से-पडित, धनसंग्रही विधानज्ञ, सत्यवक्ता ओर सुखी होता है । गुरु की दृष्टि से-दच्छितवस्र माला सुगंधादि से युत, सुकुमार शरीर, गान-वाय में निपुण भौरसतीषखरी का पतिदहोतादै। शनिकीदृष्टिसे नौकर, सवारी धन भोग से युक्त, मलिन, इ्यामवण, सुन्दर ओौर विशाल शरीर बाल होता है । प्रथमभावस्थ शक्रफर– | |

समीचीनमंगं समीचीनसंगः समीचीनबह्न गना भोग युक्तः ।

समी चीनकमौ समीचीनश्चमी समीचीन शक्रो यद्‌।लस्नवर्ती ।। १॥

अन्वयः–यदा समीचीन श्चक्रः ल्रवर्तौ ( स्यात्‌ तदातस्य ) समीचीन अंगं ( स्यात्‌ ) ( सः ) समीचीन संगः, समीचीनग्रहंगना भोगयुक्तःः. समीचीन कर्मा, रुमीवचीनशर्मा ( च ) स्यात्‌ ॥ १॥

३.३.० षवमस्कछारचिन्तामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

सं< टी<- यदा समीचीन स्थानादि षडवलखाव्यः श्चुक्रः लयवर्तीं तदा अगं सुन्दरं, सः समीचीनसंगः सत्संगः समीचीनानां सीदयंचातुय्यादि गुणयुतानां वहं गनानां वह्ुखीणां मोगेनयुक्तः; समीचीनानि वियुक्तानि कमाणि यक्षदानादीनि यस्य सः, समीचीनानि इह परत्र वा विषयमोगासमकतत्कमंफलनि यस्य सभवेत्‌ इति दोषः ॥ १॥ अथ-जिस मनुष्य के जन्मल्यमे शुक्रदो, ओर वह श॒क्र समीचीन अथात्‌ षड्बर संपन्न हौ-द्युभस्यान स्थित दहो तो उसका शरीर सुन्दर होता दै। रारीरका सौर्यं क्यारईै१ तैरोग्य है-व्याधिग्र्वन होया, सभी अंग- प्रत्यग-समी अवयव सुंदर हांतो सादयंवान्‌ कहटाता है। तनुभावस्थ शुक्र प्रभावान्वित व्यक्ति उत्तम पुरुषोंका संग करता है। “संगः सर्वासनात्याञ्यः सचेत्‌ व्यक्तंनशक्यतेसद्धिः सहकर्तव्यः सतां संगोहि मेषजम्‌”” ॥ एेसा शाख वचन हे । सत्संग शन्दरका अर्थं (्रह्मसंगः है ब्रह्म से अतिरिक्तं सभी कुछ असत्‌ हे अर्थात्‌ प्रतीतिमाच्न है। ब्रह्म की सत्ता से समौ पदार्थं सत्तावान्‌ रै । ब्रह्म की मित्ति पर इनकी .प्रतीति रूपसत्ता है, इन पदार्था की अपनी सत्ता यत्‌ किञ्चित्‌ भी नदीं ह । इस तरह सम्पूणं जगत्‌ ब्रह्मरूप है ्रह्मसत्यं जगन्मिध्याः ब्ह्मचितन, ब्रह्मस्मरण-वरह्मध्रवण-त्रह्ममनन-बरह्मनिदिध्यासन में मग्र ब्रह्मरूप भ्यक्ति सत्पुरुष होते है उनका संगी समीचीन संग होता दै-यह ममं दै। व्यावहारिक सत्तासंपन्न भौतिक जगत्‌ के विषयों का यहां तक सुख दै यह सुख स्री सुख से निम्नकोटिका सुख दै । आलंकारिकं ने विषयानन्द को ब्रह्मानंद सहोदर माना दहै । श्रंगाररसशाच्नियों की दृष्टम स्वकीया के खाथ विष- योपभोग को विषयरस दै-रेसा माना ईै-परकीयारति को रसाभास माना दे.संकेत यदी है किं विषयानन्द स्वकीयाछ्रीसुख तक ही सीमित होना चाहिए । अर्थात्‌ परकीयाख्ियों से, जिनमें वेद्यार्णं भी है विषयोपभोग नहीं होना चाहिए | नारायण भह का ्बहंगनाः शब्द भृगु की व्यभिचारी इत्तिकी ओर भी संकेत करता है-मथवा बहूविवाह प्रथा की आर संकेत करता दहै, क्योकि यदि एक पुरुष बहत स्यो से परिणय कर लेता हे तौ भी वहंगना? शब्द्‌ चरितार्थो जातारै। अंगनाशब्दसे उसस्रीका वोधहोतादै जो अंग-प्रन्यग में सादयरुण सम्पन्ना हो श्रुगार्शास्ि्यां ने स्निर्यो के नखरशिख वणनमेख्रीके टि एेसे, विरोषण वणित किए है जिनसे मादव भौर मनो- हारिता प्रकट हो-कोमल्ता प्रकट करने के लिए शिरीषपुष्पांगीः कडा है- आंखो के साद्य की उपमा कमल सेदढी है ‘कमल्नयिनीः कहा है चंचल्ता य्ोतित करने के लिए (मृगाक्षी भ्मृगनयिनीः आदि विदोषरण छ्खि है । उन्नत- कटिनस्तनीः मादि शब्दों से अपना मनोरंजन क्रियाहे। इस तरह संद संपन्ना रतिद्ास्र विचक्षणा रतिक्रीडा कुशलान्निर्यो को समीचीन अंगना कहा है-एेसी उत्तम शिर्यो का उपभोग दी उच्चकोटि का विषयानंद होतारै भट जी का यही भाव है-एेता प्रतीत होतादै। भट्जीके शब्द थोड़े किन्तु

श््छषट ३३१

सारगर्मित । (भारवेरर्थगौरवम्‌ की भोति (भट्स्याथंगौरवम्‌ः एेसा कथन उचित होगा । शर॑गारदाख्वेत्तायों ने नायिकामेद्‌ के वर्णन मेँ नाविका के अंग-परस्यंग का वर्णन किया है इनकी नाई सासद्िकशाख्वेत्ताओं ने मी सिया केः मेद-उनके अच्छे-वुरे अंगों का वर्णन किया दै-श्रगारशाख्रवेत्ताभों की अपेक्षा से सामुद्रिकशाखजञों का वर्णन विस्तृत आौर रोचक है । नर-नारी लक्षण विषयक सामुद्रिकशाख्र के उद्धरण कई एक ज्योतिष के फलितो मे भी पाये जाते है-पठितग्य है ॥

पांचभौतिक संसारमें प्राणी कई प्रकारके काम करता ईै-कोई कमं म ई, भौर कोई अश्चम कर्म है-कई एक कमं श्यभ-अघ्चभ तथा मिधित कमं कहलाते ई । जिनका उदर्क-उत्तरफल स्वर्गादि श्चुम टोकप्राप्नि है, वे यभ कम॑ ई-कोई कमं नित्य है। ओर कोई कर्मं काम्य, ओर कोई कर्म नैमित्तिक होता दै । नारायणम का संकेत दान-जपयन्ञ आदि श्चुम कर्मो की भोर है। व्यावहारिक सत्तासंप्न इस संसार मे समीचीन अर्थात्‌ श्चभकमं दी करने चादहिए-ेसे कर्मो का उत्तरफलठ मनुष्य के किए सर्वथां भौर सवदा भ्रेयस्कर दोता है यह भाव है। सअश्युमक्मोका फल परिणाममे नरक आदि अद्यभ लोकों की प्राप्ति कादेठदोता है। अञ्चभ कर्म द्वारा मनुष्य-मनुष्ययोनि से इतर योनियो म भरकता हुआ नानाविध दुःख भोगता दै । तनुभाव का शक्र व्यक्ति को समीचीन कर्मके करनेके छिए अन्तभ्पेरणा देता है। व्यक्ति द्भकमों पर सदव्यय करने से उत्तमोत्तम सुख भोगता है ॥ १ ॥

तुखर्ना–“समीचीनं सूप तनुभवनगे दानवगुरौ ,

समीचीनः संगः प्रबररिपुभंगश्चसहसा । रतिक्रीडानिव्यं हरिण नयनाभिस्तनुभरतः, श समी्वीनं कम॑ प्रभवतिच कद्याणमभितः ॥ जीवनाय

अथे जिस मनुष्य के जन्मसमयमे श्क्रख्यमेंहो उसका रूप सुन्दर होता है। सत्पुरुषो का संग ओौर प्रबल शुभं का सहसा नाश होता दै । सुन्दरी मृगनयिनी चछ्ियाँ से नित्य रतिक्रीडा होती है। यह्‌ उत्तम कमं करने वाला होता है । इसका सदा कस्याण होता है ॥ |

रिप्पणी-नाययणमद्ध ने छः वेर समीचीन शब्द का उपयोग किया दै। जीवनाथ ने कोद दोवेर समीचीन शब्द का उपयोग किया है। अभिधादृत्ति से समीचीन शब्द का अथतो एक है। किन्तु म्रंथकर्तानि यह शाब्द अनेका- थंकता मे प्रयुक्त कियादहै। उदाहरणके छि देहके विषयमे समीचीन शण्द्‌ का अथ सुन्दरता है। संगके विषयमे समीचीन शब्द का अर्थं साधु; महाप्मा, तथा ब्रह्म है। नारी के विषय मे समीचीन शाब्द का अथं रतिक्रीड- कुश्चला-रतिश्चा्रविचक्षणा चित्ताकषंक मनोहारिणी कुसु्मांगी ल्री है । कर्मो के विषय मे समीष्वीन शब्द दान-तप-यज्ञ भादि श्चुभक्मोका चयोतकहै। युख के विषय मे समीचीन शब्द का अथं धनसुख पुप्रयुख, पितर-माव्रुखः; वाहन

३.३२ चमर्कारचिन्तामणि का तुरुनार्मक स्वाध्याय

सुख-गौठे-भेसे आदि षौपाए्‌ प्राणियों का सुख आदि-दि दै । यह्‌ “समीषीन खन्द की अनेकाथकता उसौ तरह की रहै जेसे “संध्याज्ाता?? प्रयोग कौ प्रति व्यक्ति भिन्न-मिन्न अभिप्राय द्योतक दोने से अनेकार्थकता है, ‘संध्याजाताः का अभिप्राय कामुक के छिए “छीसुख लेनेका समय आ गयादै चलो प्रेयसी के घर वटैः एेसा है । ऋषियों ओर तपसियों के टिए ‘सध्याजाताः काजभिप्रायहे किं संध्याकालीन संध्या कर्तव्य है चलो नदीतटपर वा किसी मंदिर में वेठ कर संध्या करं। गाए-मंस चरानेवठे के लिए “सभ्या जाताका अ्थ॑दै ्वलो घर चले गोदोहन आदि कायं करं। गुख्कुरु के विद्याथिरयोंके छि “संध्यानाता” कावुकछभओौर ही अर्थं होता है “वलो भीतर चे, गुरजी भौर गुरुपत्नी जी की सेवा कर ओर उनसे आशीर्वाद मरा्त कर” । इस तरह (सध्याजाता’ प्रयोग अनेकार्थक है । यहां पर समीचीन शब्द्‌ के प्रयोग भूयस्तव से आटंकारिक ्मत्कार पैदा दहो गया है। यह चमत्कार नारायणमट कौ रचनारौटढी का है । २ स्मरनि पुणः सुखितश्च विलग्ने । वराहमिहिर अथे- यह कामक्रीड़ामें निपुण यौर सुखी होता दहै। “भसुनयनवदनरारीरं सुखिनं दीर्घायुषं तथा भीसम्‌ | | । युवतिजननयनकांतं जनयति होरागतः शुक्रः ॥; कल्याणवर्मा अथ– इसका शरीर, मुख ओौर आंखें सन्दर होती ह । यदह सुखी, दीर्घायु, भीर, युवतियों के लिए आकण्क होता दै। “’तठुलामेष विलग्नेषु प्रायः श्चक्रोः भवेद्‌ वली ।* पराशर अथ- वुल, मेष, ल्मे होतो शक्र वलवान्‌ होता है । “शुक्रो वा यदि केन्द्रगः । तस्य॒ पुत्रस्य दीर्घायुः धनवान्‌ राजवह्छभः ॥> पराशर अथे- केन्द्र स्थान में शक्र दोने से व्यक्ति घनवान्‌ ओर राजप्रिय होता है। इसका पुत्र दीर्घायु होता है। ““कामौकांतवपुः सुदारतनयो विद्वान्‌ विलग्ने भगौ || वे्नाथ अथं–यदह जातक कामी, सुन्दर, अच्छे स्री-पुव्रोसे युक्त तथा विद्वान्‌ होता है यदि इसके दक्र ल्यमेहो। “(कार्त शत्नुनाशम्‌’ । ननिहं तिदोषान्‌ त्रिरातं भृगुश्च ॥* वशिष्ठ अथ–इसका शरीर कांतिमान्‌ अर्थात्‌ तेजस्वी होता दै । इसके शतु नष्ट होते है । यह ्युक्र अन्यग्रहों क ३०० दापों को अथात्‌ अश्चुभ योगों को दूर करतादहै। ‘‘वाष्वाकः चिद्पशीलाव्यो विनीतो गीततत्परः। काव्यशाख्रविनोदीच धार्मिको ख्गनस्थं भ्गो॥ तनुस्थानस्थितेश्ुक्र ृष्टिभिवाविलोकिते | गोरवर्णोभवेदेहो वात्त पित्तसमन्वितः ॥

सक्रेफर २३.

कटि पारश्वौदरे गृह्ये ्रणोवाथतिखोथवा । । श्व-श्रगिभ्यो वायुतो वा पीडा देदे प्रजायते ॥ गर्ग अर्थ–यह जातक बहूत बोल्ने वाला होता है। शित्पकला मँ निपुणः सुरी, नम्र, गायन मे चठुर काव्यशाख परिशील्न मे अनन्द केने वाखा अौर धर्मात्मा होतादै। ल्नमें छ्रहोवा उसकी दृष्टिहोतो व्यक्तिका र्ग गोरा होता है इसका स्वभाव वातपित्तप्रधान होता है अर्थात्‌ इसे वात सौर पित्त के रोग होति ई । कमर, पीठ, उद्र वा गुह्यस्थान मे कोई व्रण वा तिरु होता रै । इसे कत्ते से, सीरगोबारे पश्च से कष्ट ओौर भय होता है । वातरोग होते है । शक्र से व्यक्ति. स्थिरस्वभाव का होता है-“कविः स्थिर प्रकृतिदायकः । (तनो घुतनुहक्‌. प्रियं सुखिनमेव दीघौयुषम्‌ 1” मत्रेश्वर अर्थं यह सन्दर, आंखों को प्यारा सुखी तथा दीर्घायु होता दै । धसदा सुकर्मा विमलोक्ति इद्गुणीसभूति कंद्फ॑सुखस्तनौ कवौ ॥ नयदेव अ्थ–सदैव ञ्चमकमं करता रै श्वम वचन बोलता है । गुणी, धनी, भौर खरी सुखवान्‌ होता ह । “ध्यदि शक्रो खगनस्थो द्वादशान्दे भवेत्‌ तस्य मस्तके चिन्ह दशनम्‌ । यदि तनौ श्रगुजञः सिंहगतोक्चिहरस्तदाः” जातक मूक्तावली अथै-यदि शक्र ल्मे होतो प्राणीके श्रव वषं मस्तक पर कोद चिद प्रकट होता दै । श्रल्घमे दहो तो चक्षुः माक होता हे। ““बहुकटक्रुशरो विमलोक्तिङृत्‌ सुवदना मदनानुभवः पुमान्‌ । अवनि नायकमान धनान्वितो भृगुसुत तनुभावञुपागते । दैत्येश्वरः सपतभूःदारान्‌॥”‡ | | वृह॒दय त्रनजातक अर्थ– जातक अनेक कलार्थो मे कुशल, श्चभवचन बोटनेवाला, उत्तम- उत्तम छखियों का उपभोगलेनेवाख, राजमान्य तथा घनी होता है । ८८जनुषि वै तनुगेभृणुनन्दने भवति कारतः परपण्डितः । विविधरि्पयुते सदने रतो भवति कोवुकयुग्‌ विधिचेष्टितः ॥” मानसागद्‌ अर्भ–जन्म समयमे शक्र ल्यरमेहोतो मनुष्य सत्र कामों मे चतरः दूस को उपदेश देनेवाखः. मनेक चित्रकङायुक्त घर मेँ रहनेवाखः कौवुके; भोग्यभरोसे रहनेवाखा होता है । | लग्ने शुके सुरीलश् वित्तवानपि सुन्दरः । चिर्विद्धानमनोक्षश्च कृतघ्नश्च भवेन्नरः ॥ कश्णीनाय अर्थ-ल्घ्रमे शुक्रदो तो जातक सुशील, धनी, युन्द्र, पवित्र; विद्वान्‌- सर्वप्रिय तथा कृतघ्न होता ह । | “बहुकलाकुरलो विमलोक्तिङत्‌ सुबदनानुभवः पुमान्‌ । अवनिनायक मानधनान्वितो भृगुुते तनुमावगते सति ॥ इण्डिराज अर्थ–जातक अनेक कलभो म षवुर, उत्तमबाणी “बोलनेवाला, सुन्दरी लियो का उपमोग नेवा, राजमान्य, तथा धनी होता है ।

३२३४ चमर्कारचिन्तामणि का तुलनाव्मक स्वाध्याय

““भ्वृगोदशनाथो यदा लद्यनाथः सगौरस्तथा खण्डितांगो बलीयान्‌ । परं पुण्डरीकं भवेन्नत्रकोणे वधूनांगणे सेवते शक्तिवीर्यात्‌ ॥ जागेश्वर ` अथे–यह गौरवणै, सर्वावयवपूणं शरीरवाला, बल्वान्‌ होता है । ने्ररोग- वान्‌ होता हे। बहूत शक्ति सम्पन्नतथा वीय॑वान्‌ होने से बहुतच्ियों का उपभोग करता हे । | (“मागवो विलय्रगः आम्लक्षारप्रियोनिव्यम्‌ ।” पुंजराज अथ- भोजन में नमकीन ओर खद पदार्थं इसे प्रिय होते दै । “भृगो विल्यगे नयोऽतिसुन्दरो निरामयी , सम्रद्धिमानट्कृतभ्युमो बहुविभूषणेः | सुभामिनी सुखाच्ितः बरृपोऽथवा नरृपोपमः + कुलप्रदीपको भवेत्‌ सुपण्डितः पराक्रमी |” हरि वंश्ञ अथ–वह अतीवसुन्दर, नीरोग; समृद्धिमान्‌ भूषणो से सुशोभित, खी मुखयुक्तराजा वा राजा जैसा प्रतापी, कुरभूषणः पण्डित आर पराक्रमी होता है । श्रगु सू त्र-गणितशाखज्ञः, । दीधायुः, दारप्रियः, वख्राकरप्रियः, रूपलावण्य- प्रियः, गुणवान्‌ , स्त्रीप्रियः, धनी, विद्धान श्मयुते अने कमूषणवान्‌ , स्वणकांतिदेहः पापवीक्षितयुते नीचास्तंगते चौरः, वंचनवान्‌, वातश्छेष्मादि रोगवान्‌ | भावाधिपे राहुयुते बृहदूवीजोमवति । वाहने श्चभयुतगजांतेश्वयैवान्‌ स्वंसौख्ययुतः । स्वक्षेत्रे महाराजयोगः | रपरे अष्टव्ययाधिपे श्करेदुर्टेखीद्यम्‌ । चंष्वटमाग्यः रुरुद्धिः | अथे– यदह गणितज्ञ, दीर्घायु, खीप्रिय, वख अचङ्कार रूपयौवन .ल्री-भौर गुणो का प्यारादहोतादहै। धनी भौर विद्वान्‌ होता दहै। यदि यह शुभग्रह योग मं होतादैतो व्यक्तिका शरीर सोने जैसा चमकीलादहोतादे भौर इसे नाना प्रकार के भूषण प्राप्त होते हें । यदि पापग्रहसे युक्तवादृष्टदहोवा नीचराशि मवा अस्तंगतद्ोतो व्यक्ति चोर-ठग भौर वातरोगादि से पीडित दोताहे। ल्ग्नेश राहुके साथहोतो ब्रृहदूवीज होताहै। शुभग्रहके साथहो तो गर्जा वैभव होता है । सब सुख मिरते है । स्वण्हमेंदहोवा अष्टमस्थान का स्वामी वा द्वाद्स्थानका स्वामीवा निर्बलहोतो द्विभार्यायोग होतादहे। शक्र अपने स्थान में वृषर-तुला राशिमे होतो बडा राजयोग होता है । पाश्चास्यमद– यदह विलासी, सुन्द्र, चैनवाजहोतादे। इसे चिवो को वश करना सहजसाध्य होता दै स्वभाव अच्छा, -आनन्दी, सञेहयुक्तं होता है । गायन-वादन-चि्रकला आदि का शौक होतादहै। ल्यमें दक्र, वषर; मिश्रुन; ठलखा; कुम था मौीनराशिमं दहो तोश्चम होता है। मेषः, इश्चिक, कन्या मौर पकर ख्य म यह्‌ ञ्युम नहींहोता। वृधिक ल्मे श्चुक्र मगल द्वारा पीडित हो तो व्यभिचारी, ररावी, नीच, दुष्टप्रकृति काहोताहै। मंगलके साथ श्चुभ योग मं द्यक्रहो तो चिघकार, शिद्परकार, नट, गायक आदि रूपमे प्रसिद्ध होते ह । नाटक मण्डी या जिसमे लोकसमुदाय से सम्बन्ध आता हो-रेसे अन्य

शुक्रफरु २२५

व्यवसाय मेँ सफलता परिटती है-ेषा रफेक आदि ने कदा है । इककी भाषण- रखी मोहक, बरताव मदुतापू्णं ओर स्वभाव प्रसन्न तथा आकर्षक होता है । किन्तु आरोग्य यौर आयुष्य के छिए यह शक्र अच्छा नहीं होता । अति विलास ओर खुखोपभोग से सामर्थ्यं क्षीण होकर शिथिलता या जाती ३। |

विचार ओर अनुभव- तनुभाव में मेष, सिह या धनुमें श्क्रहोतो विवाह विखन्र से होता ह । खी अच्छी; पति-पल्ली मे मेम अच्छा । धनुराशि मे शक्रहोतो ३६ वषंकीओयु हो जाने पर विवाह होता है| अथवा दिल चाहता है किं विवाहक्ियाहीन जाए । इस स्थान काश्चक्र दिभार्यायोग भी करता है । व्यक्ति भावी होता है। मधुरवाणौ भौर आद्रपूर्वक व्यवहार से लोग इसका आद्र करते है । नौकरी वा षन्धा-टीक कते ह । भाग्योदय क लिट कष्ट उठाना पड़ता है । सन्तान थोड़ी होती है ।

इषराशि में श्क्र हो तो पत्ती तो अच्छी होती तो मी भ्रमरवृत्ति अर्थात्‌ व्यभिचारी प्रवृत्ति होती है । कन्याराशिं में ल्यमस्थश्चुक्र हो तो व्यक्ति परख्री पराङ्मुख तथा विमुख होता है ओर स्वकीया से सन्तुष्ट रहता है । चित्त घर- हस्थौ से विरक्त अविवाहित रहने की इच्छा होती है ।

मकरमेंश्ुक्रदहो तो बहुत सी ठ्डकिरयो देखकर नापखन्द ठहरा जाती है, अन्त मं साधारण ठ्डको से विवाह करते है। पत्ीका रंग सोल होता दैतौमीग्रेम से रहते ह । नौकरी में स्थिर रहते है| छोगोँ मे अग्रणी होने की इच्छा नदीं होती, ठजाङ होते ह । मिथुन, तखा तथा कुंभ मेँ शुक्र होने से ये रोग सोकरिया परस्त्रियो क) प्रथ भ्रष्ट करने का यल्ल करते है, यय्पि इनकी अपनी पत्नी सुरिष्चित खेपूणं तथा सुष्ठु होती है । कर्व, इधिक राशियों मे खीसुख, अच्छा मिख्ता हे, पतनी एक दही होती दहै। इनका अधिकमेम खी की पेश्वा बस्चो से होता ₹है। |

मीन मं श्चकर दो तो दो-तीन विवाह होते पैसे कीबेकिक्री होती दहै। ये रोग अपने विचारों मे स्थायी नदीं होते, मत बदर्ते रहते है । सामान्यतया क्र यथेच्छ धन देता दे, तौ भौ धनसंचय नहीं हो पाता । पुरुष कंजूस हो तो पनी द्वारा भधिक खचं होता है । खन में श्चक्र हो तो व्यक्ति कवि-नाटककार, उपन्यासङेखकः, गायक; चित्रकार आदि होते हैँ ओर यश मी प्राच करते ईै। लगन में मिथुन, वला, धनु वा कुभराशिमेद्युक्रद्ो तो व्यक्ति प्रोकेयर आदि वुद्धिजीवी भी हो सकते है । इस स्थान का श्ुक्र गह्य येग योग॒ भी करता है। मिथुन, वला; बृधिक वा कुम ल्नमेंश्चक्र होने से लियो मे बन््यात्व भी होता दै । इन ध्या लियो की दष्ट वच्चो के लिटि घातक होती है; किन्तु यही दृष्टि पुरषो के लिए मोहक होती है । द्वितीयभावगत शुक्रफट – - | |

युखं चारुभाषं म॒नीषापि चावीं सुखं चारु चारूणि वासांसि तस्य । कम्बे स्थितः पूवदेवस्य पूज्यः कुटुम्बेन किं चार चार्वगिकामः ॥२॥

३.६ चमव्कारचिन्तामणि का तेटनार्मक््‌ स्वाध्वाय

अन्वयः-( यस्य ) कृडम्बेस्थितः ग्ृगुः ( स्यात्‌ ) तस्य सुखं चारभाषं ( स्यात्‌ ) तस्य मनीषा अपि चार्वी स्यात्‌, तस्य मुखं चार स्यात्‌ , तस्य वासांसि चारूणि ( स्युः ) ( सः ) पवदेवस्य य्य स्यात्‌ , सः चाव॑गिकामः स्यात्‌ , ठस्य कुटम्वे चारुकिन स्यात्‌ १ अपि सवं एव चारु स्यात्‌ ॥ २\॥ अत्र कुटुम्बे स्थितः? इत्यत्र गुः इति पूर्वतः अध्यादाय्य॑म्‌ । सं टी<–ङुडम्बेस्थितः धनस्थः पूर्वदेवस्यपूम्यः, तस्य मुखं वारमापं खुवाणीक मनीषा अपि चार्व कुशाग्र धमिषएठा वा, सुखं विषयजं चार नाना- प्रकारः । टीकाकारेण भुखं चारुः इव्यस्यस्थाने सुखं चारुइति पाठः स्वीकृतः । एषोऽपि पाठः समीचीन एव । वासांसि चारुणि विविधानि, कुटम्वेन स्वजनेन, किं चार गोभायनं अपितु न रविवित्‌ टीकाकारस्य एतादश्ची योजनां प्रसंगानु- कूटान्‌ इति मे मतिः । चार्व॑गीकामः, सुवनितामिटाप्रः स्यात्‌ ॥ २॥ अथं–जिस मनुष्य के जन्मकालमे भृगु धनभावमें होता है वह्‌ मुखसे मधुर वचन बोल्ता है । उसकी बुद्धि कुशाग्र ओर धार्पिकमावपूर्णा होती है । उसका मुख सुन्दर होता है । यह्‌ उत्तम, विविध रंगों के स्वच्छवश््न पदिरता हे । यदह धर में परम्परा से चली हई देवतायों की पूजा चाद रखता है । यद सवविध सोन्द्यंसम्पन्न चखियों क उपभोग लेने का इच्छुक रदता दै । इस तर इसक कुडम्न मं क्याहे जो सुन्दर नदीं होता अर्थात्‌ इसके कुडम्बमे भी सभी कुछ सुन्द्र अथात्‌ उत्तम होता है ॥ २॥ रिप्पणी– यहो पर “चार” शब्द्‌ की पुनरा्रत्ति आलंकारिकं चमत्कारजनक होने से सहृदय हृ्यानन्ददायिका है । तुखना–“कुडम्बरस्थे शुक्रे परमकमनीययं जनिवतो , मुखं रूपं धन्यं प्रभवति मनीषा च महती । सदा मिष्टावाणी चपठनयनानां प्रियकरी, दुकूलाथं त्रातेरुत वृत्तमटं कोषभवनम्‌”” ॥ जीवनाय अथ- जिस मनुष्य के जन्म समयमे श्चक्र घनमावमें हो उसका सुख ओर शरीर सुन्दर होता है । बुद्धि बहुत तीव्र होती है । सदा चंच नेत्रवाडी चियोँ को प्रसन्न करनेवाी मधुखाणी होती है ओर बचन तया धनादि से भंडार परिपू रहता है । (“सुवाक्यः ॥ वराहमिहिर अथे जिसके धनस्य शुक्र दो वह्‌ मधुरभाषी होता दै । “विद्या कामकला विलास धनवान्‌ वित्तस्थिते भागवेः ॥ वयनाथ अथे– जिसके धनभाव में शुक्र हो वह विचावान्‌, काभ्रुक, कलाकार, विलासी ओर धनी होता है| ““भृगुनन्दनो वा नानाविधं धनचयं कुख्ते धनस्थः ॥ राक्र अर्थं–जातक को विविध रीतियोँ से धन का संचय होता दै।

९१ .~९॥

टयुक्रफच्छ ३३७

“धविद्याजितधनो निव्य स्रीघनोऽथवा धनी । धने शक्रे वीक्षिते वा धनवांश्च बहुश्रतः॥ | मुखे च कक्षितावाणी सभायां पटुता तथा? ॥ गर्गं अथ–यह विदाद्वारावा स्नीसे धन प्राप्त करतादहै। धनमेंश्ुक्र हो धाश्चक्रकी दृष्टि हो तो यह धनवान्‌ मौर बहुश्रत होता है। यह मधुर बोरता है-यह सभा में विजयी होता है । “करोति कविरथगः कविमनेकवित्तान्वितम्‌?› ॥ मन्त्रेश्वर अथे–यह जातक कवि ओर धनी होता दै | “धने शुक्रे धनी विद्धान्‌ बंधुमान्योव्रपाचितः। यरास्वी गुरुभक्तश्च कृतज्ञश्च भवेन्नरः” ॥ काक्ीनाय अ्थे–यह धनी; विद्वान्‌ बन्धुमान्य, नरपपूज्य, यशस्वी, गुरुभक्त ओर कृतज्ञ होता है सुभोजनी सदुन्यखनी सुवाग्‌ धनी खकीर्तियुग्‌ धान्यगते भ्रगोः सुतेः? ॥ जयदेव अथ-इसका भोजन अच्छा होता है। यह शाख्रादि अच्छे व्यसनों में परेम रखता. है । मधुरभाषी; धनी ओर यशस्वी होता है । . सदन्नपानाभिरतं नितान्तं सद्रख्रभूषाध्नवाहनाल्यम्‌ । विचित्रविच्रं मनुजं प्रकुर्यात्‌ धनोपपन्नो भ्रगुनं दनोऽयम्‌? ॥ दण्डिराज अथ-इसका भोजन उत्तम, इसके पेयद्रव्य उत्तम, इसके वस्र, अलंकार, धन ओर वादम सभी उत्तम होतेदै। यह कई प्रकार की विद्याओं को जानता है । प्रचुरान्न पान विभवं श्रेष्टविखासं तथा सुवाक्यं च । कुरते द्वितीयरारौ बहुधनसदहितं सितः पुरुषम्‌” | कल्वाणवर्भा अथे–इसे खाने-पीने को खूब मिक्ता है । यह धनी, विलासी ओौर अच्छा बोलनेवाखा होता है । “’परधनेन धनीघनगे भ्रगौ मवति योषितिवित्तपरो नरः रजतसीसधनी गुणसंयुतः कृशतनुः सुवच! बहूपारुकः ॥ मानसागर अथं–यह पराये धन से अपने को धनी मानता दै । इसका चित्त सियों की ओर रहता है । यह चौँदी ओर सीसा के व्यापार से धनी, गुणी, दुर्बल श्षरीर, प्रियवक्ता ओर बहूुपालक होता है । “सदन्नपानाभिरतं नितातं सद्रस्नभूषाधनवाहनान्यम्‌ । बिचित्रविनं मनुजं विध्यात्‌ धनप्रपनो भृगुनंदनोऽयम्‌?” ॥ वृहदयवनजातक अथ-इसकी रुचि अच्छे खाने-पीने की ओर होती है । इसे वस्न-भूषण वाहनं; धन अच्छे दज के मिकते है । यह अनेक विव्य जाननेवाल्म होता है । “सश्ुक्रे घने सुन्दरं तस्यवक्तरं वदेन्‌ माधुरं बुद्धिमान्‌ वीयंशाली | कुटम्बेसुखं कामिनीकामकामी क्रयीविक्रयी कोशजातं प्रभूतम्‌? ॥ जागेश्वर

३३८ चम रकारच्िन्तामणि का तुरुनास्मक स्वाध्याय

अ्थ-इसका मुख सुन्द्र होता दहै । यह मीटा बोक्ता है । यह वुद्धिमान्‌ , बलवान्‌ › वां ध्वं मं सुखी, सुन्दर स्रियां का उपभोग करने की इच्छा वाला, क्रय-विक्रय का व्यापार करनेवाला होता दहै । इसका कोश भरपूर होता है|

‹“सदन्नभोजनं युव्रवाहनादिसंयुतं विचिच्रविश्वमुज्ज्वलं चरित्रियोभनैर्नरम्‌ । योदया सुसंस्कृतं करोति भूपपूजितं धनैः सुपूरितं धने सुरद्विषां पुरोहितः?” ॥ धनस्थाने श्गुयंस्य सुमूर्तिः प्रियमाषणः। सुबुद्धिः धनवान्‌ पुण्यदानादि मतितत्परः ॥ हरिवंश अथे–इसे खाना-पीना अच्छा मिक्ता दै । कपडे वाहन आदि अच्छे मिरते ह । यह सुन्दर, मधुर बोलने वाखा, स॒वुद्धि-घनी-दान-पुण्य आदि करने वाला, दया, कीर्तिमान्‌ , सुशील, राजपूजित होता है । सदाचार भरे चरो से इसका उजञ्ञ्वल यश विश्व मे फलता है ।

भ्रगुसूत्र–षमंवान्‌, धनवान्‌ , कुडम्बी, सु भोजनः, विनयवान्‌ , नेत्रविलासः, सुखः, दयावान्‌ › परोपकारी, दवार्िराद्रषं उत्तमस्रीलाभः, भूमिलाभः । भावाधिपे

दुवले दुःस्थाने नेवैपरीत्यं भवति । शशियुते निशांधः, कुडम्बहीनो नेत्ररोगी, घननाशकरः |

अथे– यद धर्म, घन, नम्रता, सौर्य, दया, परोपकार इन गुणो वाला दोताहै। इसका कुटुम्ब बड़ा होता है । भोजन यच्छा मिक्ता है । भिं सन्दर होती ह । ३रवं वरं उत्तम घ्री तथाभूमिकालाम होता है। धनेश दुबल होवा अञ्यम स्थानमे ( ६-८-स्वेस्थानमें) होतो ओंखोंक रोग होते हं! यह श्क्रचंद्रके साथदहोतो राव्यंधता होती है। कुटम्ब नष्ट होता दे | ओंखोंकेरोगदहोतेदै। धन की हानि होती है।

पाश्चात्यमत-यह शुक्र बट्वान्‌ होतो षिजय मिखातादहै। पापग्रहसे युक्त हो तो रात्रौ होता है खिर्यो, कपडे, अलंकार, जवाहरात ादिका शौकीन होता है । विविध चेरत ओर मनोरजनों मे भाग ङेता है। श्रंगारसाधन बहुत प्रिय होते ह । इस पर शनि की श्चुम दृष्टि हो तो अच्छा घनसंचय होता हे । व्यापार अच्छा वचल्तादै। च॑द्रकीश्चम दष्टिदहो तो खियों भौर अन्य लोगों से छाभदहोतादहै। यष्ट.बिदेशोंमें यशस्वी होतादहै। मित्र को दिल्मर शराब पिटाकर अपने काम वनाल्ेतादै। इस श््रके साथशनि हो तो दाद्िय ओर धननार करा योग होता है। इख स्थान में बलवान दुक व्यवसाय मं यश देता हे, जिसे पेसा बहुत मिक्ता है । किन्तु वख, अलंकारः, मनौ रंजन सदिमेंये रोग खूज् खनं करते दै । फिर भौ कभी सम्पत्ति की कठिना नहीं होतौ। ये साधारणतः लोकप्रिय होते ई मित्रौँसे इन्द व्यवसाय मे अच्छ लाभम दोता है।

विचार ओर अलुभव- ्ाछ्रका्ो ने प्रायः श्चुमफल बताये है क्योकि नेसर्गिक कुण्डली मे श्चुत धनस्थान कास्वामी दै) श्चुमफलठ पुरुष राशियों मे पिते है सौर अश्चम फर्छे का अनुभव च्रीराशियों मेँ मिलता है । धनेश दुब

शश्छफर ३३९

हो तो ओर चन्द्रमीसाथदहो तो नेत्ररोग आदि अद्युभ फल होते ई-दनका सनुभव यदि च्य सिह, धनु भौर कुंभो तो मिलेगा। क्योकि इन छ्मनोंमें चन्द्र षष्ठ, अष्टम ओौर व्ययस्थान का स्वामी होगा ओर इस चन्द्र का सस्वन्ध शक्र से अश्वम होगा । मिथुन लग्न होने पर चन्द्र ही धने होगा अतः इसके सप्जन्ध से सश्चुमफल नदह मिेगा ।

मेष, सिह वा धनुराशि मे शक्र हो तो नौकरी से धनल्मभ होता है-यैवरक सम्पत्ति मिलती हे किन्तु स्थायी नहीं होती । . जातक सद्धा, लाट्री, रेख आदि का शौकीन होता है । सहसरा धनसंचय करन चाहता है किन्तु असफल रहता दै । इष, कन्या वा मकरराशियों में श्चक् हो तो पैव्रक सम्पत्ति होती नदी, हो तो मिख्ती नहँ । धरगति सरकारी नौकरी में होती है । पल्ली सदा बीमार, अतः इलाज पर भारी खं होता है । च्ियों द्वारा धनग्रासि होती दहै । मिथुन, वला वाकुभमेश्ुक्रहोतो व्यापार से उन्नति किन्तु पुत्राभाव से चिन्ताग्रस्त रहता दे । कक, इश्चिकवा मीनमेंश्क्र हो तो विरिष्ट ठेखक होता है, असिद्धि पाता हे । स््रीसुख कम, कन्या सन्तान बहुत । इस स्थान का शयक्र द्विभार्या योग करता है । इस स्थान के शुक्र का सामान्य फठ है कि धनार्जन मेँ स्थिरता नहः किन्तु घनामाव मी नहीं । विवाह के बाद भाग्योदय दोतादै। ्रीभी धनाजन करती दै । आयु का पूर्वार्धं कष्टमय, मध्यकाल सुख-खमद्धि । ल्घ मे मेष हो तो विवाहिता खरी से हमेशा गडा होता दै । धन ौर ठृतीय स्थान मे रवि ओौर बुध का योग हो तो ज्योतिष में प्रवेश अच्छा होता रै ।

तृतोयभाव गतशुक् का फट– रतिः सखीजने तस्य नो बंधुनाशयो गुर्य॑स्य दुश्िक्यगो दानवानाम्‌ । न पूर्णो भवेत्‌ पुत्रसौख्येऽ।प सेनापतिः कातते दानसंप्रासकाठे ॥ ३॥

अश्वयः–दानवानां रुरः यस्य दुशिक्यगः ( स्यात्‌ ) तस्य स्रीजने रतिः नो ( स्यात्‌ ) तस्य वंधुनाश्चः ८ नो ) स्यात्‌, सः पुत्र सौख्ये अपि पूणः न मवेत्‌ › सेनापतिः अपि दानसंग्रामकाले कातरः ( स्यात्‌ ) ॥ ३॥

सं टी०–यस्यदुशचिक्यगः वरृतीयस्थः दानवानां गुरूः श्चक्कः तस्य छ्रीजने रतिः प्रीतिः नो, वंघुनाशः, किमुततन्युखं तथा पुत्रसौख्ये पूर्णः जातमनोरथः न? सेनापतिः अपि दानसंग्रामकाठे कातरः मुरो भवेदितिसर्वत्ररोषः ॥ ३ ॥

अथं–जिस मनुष्य के जन्मल्य्रसे तीसरे स्थानम शक्र हो वह स्रियो से प्रीति नहीं करता है, अर्थात्‌ खयो म भसक्त नहीं होता है-दाधारण प्रेम रहता हे । इसका संकेत पति-पल्ती मे वैमनस्य भी हो सकता है । विवाहिता पली कौ ओर उदासीनता का व्यवहार, मौर परकीया छिरो की सर विरोष साकषण-यह भी अन्तग॑त भाव हो सकता है । यदि शल्लीजनः शब्द का अथं खीमात्र लिया जावे ओौर स्वकीया-तथा परकीया खी कौ भोर संकेत न समन्ना जावे तौ मोष्षमागं की भर भी संकेत हो सकता है । मोक्षमार्गं मेँ अग्रसर होने से बड़ीभारौ भर्गल;, बड़ीभारी उकावट सीजन है- मोक्षमार्गं मे कारे

३.७० पवमर्कारचिन्वामणि का तुखुनाव्मक्‌ स्वाध्याय

निखेरने वाटी छी है–स्री र्पो गतपात से बचकर चलने वाटा कोई एक संत दीदीद्ो सकता दे। परन्तु वृतीयभावस्थित शुक्र अपने अभाव से जातक को मायारूपिणी नारी मे आसक्त होने से दूर रखने का यल्ल करता है–यह अन्तगत ममं है । इसके वंधु-वांधवों का नाश नहीं होता है, अर्थात्‌ इसके वंधु-वांधव- जीवित रहते है, ओौर इसे परिजनों से खख प्राप्त होता दै। वांधवहीन प्राणी अकेखा संसार मं सुखी नहीं हो सकता है } त्रतीयभावस्थ श्चुक्र परिजन सुख दाता है-यह भावदहै॥ । पुत्र, पुत्रप्रापि से होता है-केवल एक आध पुत्र संतान से जातक का मनोरथ पूरा नदीं होता है। अतः पुत्र ग्स्यामें अधिक हों, एेसी इच्छा बनी रहती है ॥ वरतीयभावगत शुक्र पुत्र दाता तोदै किन्तु इससे जातकं का मन सवुष्ट नहीं होता है। पुत्रप्रा्ि त्रष्णा जातक को असंतुष्ट रखती दे । (्वरमेकोगुणीपुत्रः न वच मूर्खशतान्यपि” जातक के ष यह नीतिवन सतनव्य हे । त्रतौयभावगत श॒क्र के प्रभाव से जातक सेनापति तो होतार, किन्तु दान देने के समय तथा संग्राममे शत्रु पर आघात करने के समय यह कातर होता है अर्थात्‌ यह जातक्रन तो दानश्यूर होता है भौर नादी संग्राम चर दोतादै। पीछे हट जने की प्रृत्ति से अपवाद्‌ का विषय होता दै– दान लेने वाले ओौर युद्ध मे डाकू शत्रु लोग इसकी खिद्टी उड़ाते है ॥ ३॥ वुखना–“”गतेभ्राठुः स्थानं जनुषि यदि श्चक्रे तनुभ्रता मतिः प्रीतिः शश्वत्‌ कमल्वदनायां सुतसखे । न त्तिः पणेऽपि प्रकट धनदाने कृपणता „ न. सेनाघीशत्वं रणथुविं न च्यूरत्वमधिकम्‌ ॥ जीवनाय अथं–जिस मनुष्य के जन्म समय में श्चुक्र त्रतीयभावमें हो उसे कमल- खी खदरी लियो मं निर॑तर अत्यंत प्रेम होता है। पूणं पुत्रखुख होने पर भी तरति नहीं होती दै । पूणं घनदान मे कृपणता होती दै । वह रणस्थमेंन सेनाधीश होतादै अओरन शूरदही होतादै। जीवनाथ के अनुसार तृतीय भावस्थ शुक्र के प्रभाव से जातक श्रमरवत्‌ कमल्नयनियों सौर शिरीष पुष्पवत्‌ सुकुमार देहवाटी च्ियों के इरद-गिदं हयी नितान्त धूमता रहता है । इनके चक्र से वादहिर होना इसके लिए अत्यंत कठिन होवा है । ॥ “तृतीये कृपणः | वराहमिहिर अथं–धन के सद्‌ उपयोग मेँ जातक कृपण होता दै दान्चूर नहीं होता हे ¦ ध ` शतुद्धि धनक्षयम्‌ ।” पराज्ञर अथे–शत्रु बटते है-षन कम दोता जाता ह । (सुविनीत वेषं सौर्यम्‌ ।” व्ञिष्ठ अथे- वेष साधारण होता है । यह सुखी होता है । “भ्रात्रस्थाने भरुगोः पुत्रे भगिन्योबहूुलः स्मरताः । भ्रातरश्च त्रयःप्रोक्ताः क्रुरेण निधनं गताः ॥

य॒क्रफक १

सहजस्थानगो दत्ते गोरांगीं भगिनीं भ्रगुः। अरीतिनाथो भ्गुनं दनः ॥ गर्ग अथ–इसकी बदिन बहुत होती है । भाई तीन होते ह । साथ मे खद होने से उनकी मृत्यु होती है । इसकी बहिन गौरवर्णा दती है । इसका पिर ८० छोगों का होता है “सुखधनसदहितं श्यकरो दुधिक्ये स््रीजितं तथा कृपणम्‌ । जनयति मदरोत्साहं सौभाग्यपरिच्छदातीतम्‌ ॥ कल्याणधर्मा अथे–यह सुखी, धनी, पण तथा खरी के वरीभूत होता है उत्साह कम होता दै। शश्युक्रे सोद्रगे सरोषवष्नः पापी वधूनिजितः सोदरातिगः शुक्रः दरोकरोगभयप्रदः | तत्रेव शमकारी स्यात्‌ पुरतो यदि भास्करात्‌ ॥ वैधनाथ अथे–यह कडवा बोलता है ओौर क्रोधसे बोच्तादहै पापी भौरी वशवर्ती होता है । तीसरे ओर ष्ठे मे शुक्र होतो रोगकारक भौर भयकारी होता हैः किंतु रवि के अरे होतो इन्दी स्थानों मे शम फल देता ३ ॥ “सहजगे सहजेः परिवारितो भगुसुते पुरुषः पुरु पैः नतः स्वजन बधु विवंधनतां गतः सततमाश्चगतिर्मतिविक्रमः॥ रल्नखतः प्रकरोति चार्थम्‌ ॥ ` वबृहुद्यवनजातक अथ–सहोदः वधु से विरा रहता है । काम मे शीघ्र गति होती है । ऽत्साह संपन्न; सपने रोगों को बंधन से हछुडाने वाल माननीय होता है। २९ वें वषं घनलम होता है । ““कृशांगयष्टिः कृ पणोढुरातमा द्रव्येणहीनो मदनानुतक्तः । सतामनिष्टो बहूदु्टचेषटो भृगोस्तनूजे सहजे नरः स्यात्‌ ॥* दुण्डिराज अथे -जातक दुबल शरीर, कृपण, दुषट-निर्धन, कामुक, सजनो को अनि करने बाल होता है इसकी चेष्टा बहुत बुरी होती है ॥ “सहजमदिरवर्तिनि भागवे प्रचुरमोहयुतो मगिनी युतः । भवति खोचनरोगसमन्वितो धनयुतः पियवाक्‌ च सदम्बरः ॥” भानसागर अथे–दसे मोह बहत होता दै । इसकी वहिनं होती है । इसे आंखो केरोग होते है । यह धनी तथा मघुरभाषी होता है। यह अच्छे कपडे पहिनता है ॥ “रशो दुरात्मा कृपणोऽधनोऽसरः कुचेष्टितोऽनिष्टकरस्वुतीयगे ।* जयदेष अथे–यह दुला, दुष्ट-कंजू्, निध॑न-मद कामामि भौर अनिषटकार्य करने वाला होता है–इसकी चेष्टा बुर होती है ॥ भार्गवे सहजेजातो धनधान्यसुतान्वितः। नीरोगो. राजमान्यश्च प्रतापी च प्रजायते ॥ काक्लीनाथ

३.४२ ववमरकारचिन्तामणि का तुरनात्मक स्वाध्यायं

अथे–यह घन-धान्य तथा पुत्रों से युक्त-नीयेग, राजपूजित तथा व्रतापी दोला है | “°विदार सुखं संपदं कुपणमपियं विक्रमे ॥ भंत्रे्वर अथे–वह खी-सुख तथा संपत्ति से वंचित होता दै। यह कपण होता ई रोगों को यह पसंद नदीं होता है ॥ ““कदांगो रतिः च्रीजने कातरोऽसौरणे वै सुताद्‌ दुःखितो द्रव्य्यूल्यः । नरः स्याद्‌ दुराच्ारथुक्तो न जायाप्रसृतिः भवेद्‌ भूयसी भ्रावरदयक्रे |” जागेददर अथे–यह दुबला, च्ियों मे आसक्त रहने वाला, युद्ध मे कायर-पीठ- दिखाने वाख; तथा निर्धन हौतादहै। पुत्रसे दुःखी रहतादहै॥ दुराचारी होता हे ॥ इसकी छी हूत वार प्रसूता नहीं होती है ॥ -घ्रतौयगेहगे भृगौ उांग यावुरः पमान्‌ उद्यमो दुराग्रहयी सुशीलसत्य वर्जितः । कुकासुकः कलिप्रियः व.ट्त्रकर्मकारको भवेत्‌ पराभवः परैः सहोदरः समन्वितः ॥ हुरवश अथ–जातकं निर्वल्देह, आतुर, उन्मी, दुराग्रदी, सीर से रदित, मिथ्यामाषी, अवेध मार्गं से कामाग्नि शांत करनेवाला, ्गडाद्, लियो के काम करनेवाला, शनुओं दारा पराजित होनेवाला, तथा सगे भादइयों से युक्त होता हे | शगुसूत्र-अतिङ्न्धः। दाक्षिण्यवान्‌ । भ्रातब्रद्धिः। संकत्पसिद्धिः पश्चात्‌ सहोदराभावः । करमेण भ्रातृतत्परः । वित्त भोगपरः । भावाधिपे बल्युते यचसवक्षत्र ्रातररदधिः । दुःस्थाने पापयुते भ्राठरनाशः । अथ–थह बहुत लोभी; नम्र, संपत्ति का उपभोग करनेवाला होता है । भायां की ब्द्धि होती है । छोटे भाई नहीं होते। मन के संकल्प सफल होते ह । ठतीयेश वलवान्‌ उच मे, स्वच्ह मँ हो तो भाईयों की बृद्धि होती दै। उञ्चमस्थान मं वा पापग्रह से युक्त हो तो भाइयों की मल्यु होती है । पाश्चात्यमत-इसे वधु, मिनन, पड़ोसी दि से भच्छी मदद मिरती है | पटने की सुचि होती है । कलायो का ज्ञाता, भाषाशा्लज्ञ कवि, गायक या चिघ्रकार होता है । यद शुक्र अघ्चभ योग मेहो तो व्यमिष्वारी; रंगीला होता है ओर उसे बहूतनुकसान सहना पडता दहै । यह आनंदी मौर उत्साही होता रै । प्रवास सुखपूणं होते ह । ओर प्रवास करते समय नए परिचय होते है । पत्र व्यवहार से मी मित्रता वदती है । इसी प्रकार विवाह की बातचीत पक्छो होती है| विचार ओर अनुभव-तृतीय स्थान के छक्र के फल श्म-मद्यम दोनों प्रकार के शाघ्रकारों ने वतलाए है| अकेला शक्र अश्म फलक्देताहै। रवि यदि धन, वतीय वा वचतुर्थस्थानमेंहो तौमी अश्भफलों का अनुभव प्राप होताहै। रवियदिल्यमे वा पंचमस्थानमेंदहो तो श्चभ फलों का अनुभव प्रास्त होता है । शुक्र के लिए ३-६-८-१२ वां स्थान अश्चभ दहै-रोष स्थान श्चम ह । अतः तृतीयस्थान का शक्र अश्चभम होता दै। इस शुक्र के अश्चभफल

दाक्फर ३७द्‌

विवाह के विषय मे अनुभव गोचर होते ई । विवाह में विश्न, पल्ली से वैमनस्य, एक से अधिक विवाह होना, विजातीयस्री काना; पल्लीसे दुर रहना, पुनविंवाहित खी का होना-विवाह के बाद आधिक कष्ट आदि अश्चुभ फठरहै। इस स्थान के श्युक्र के प्रभाव मे आए हूए व्यक्ति आशु मे अधिक सनी को पसंद करते है–कामीदहोतेर्है। इन्द दिनिमे मी खरीसंग की इच्छा रहती दै। पदिटी स्री कौ मृल्युके वाद दूसरा विवाह शीघ नदीं दोताहै। चखियोंको इनपर सदैव संदेह रहता है । इस तरह सख्रीसुख पूरा नहीं मिलता है । पुरुष राशि मं यह शक्र होतो पत्नी स्व॑था योग्य मौर आकर्षक, किंतु घमंडी होती दै। खरीरारिमें हो तोस्नी नितांत साधारण तथा व्यवहार से श्यूल्य होती दे । पुरुषराि में श्यक्र हो तो जातक अति कामुक होने से अन्य लिया से अवैध संवेध जोड़ केताहै। स्री राशिमेहो तो जातक धरम ही संतुष्ट रहता है। मंगलसे दूषित शुक्र व्रतय मेंदहदोतो अनैसर्गीक चेष्टां से कामानख शांत की जाती हे! इन खोगोंके हाथ पर श्युक्र ककण चिह्न भी दिखता है। इस शुक्र से धन के विषय मं स्थिरता नहीं होती । व्यवसायमें हानि खाम होने से आर्थिक कष्ट बना रहता है । शक्र के कारकत्व मे माए हूए व्यवसाय करने पर भी हानि होती है। पुरुषराशि का श्रुक्र संतति कमदेतादै। एक दो पुत्र होते है । कन्याएं नदीं होती । भाई-बहन क्म होती ई, वा दोती ही नदीं । मिथुनः वुख वा कुम्भ मेँ यहश्युक्तदहोतो ४५ वर्षृसे बधिरता दोष होता है । ५५ वषं तक एक कान पूरा बहरा हो जाता है, यह शक्र स्री राशि मेदहोतो रखिकता नदीं होती; पुरुषराशि मे श्रो तो जातक बहुत सी लड़कियां देखता है । अन्त मे किसी साधारण छ्ड़की से विवाह करता है । सुन्दर ख्डकियों को नापरुदं करता है अन्त मे पश्चाचचाप होता दै । चतुथेभाव का शुक्रफछः- महित्वेऽधिको यस्य तुयेऽऽसुरेऽ्यो जनैः किं जनै चापर रुष्टः तुष्टैः । कियत्‌ पोषयेत्‌ जन्मतः संजनन्या अधीनापिं तोपायनै रेव पणेः ॥ ४॥

अन्वयः–असुरेज्यः. यस्यतुर्यं ८ स्यात्‌ ) ( सः ) जनैः मदिस्वे अधिकः ( स्यात्‌ ) अपरैः जनैः र्तुः ( तस्य ) कि (स्यात्‌ ) ( सः) अधीनार्पितो- पायनेरेव पणेः ( भवेत्‌ ) जन्मतः संजनन्याः पोषयेत्‌ ॥ ४ ॥

सं< टी>–यस्य वुयं मावे चतुथं भसुरेउयः श्रुः सः महस्वे उत्वे पूञ्यत्वे . वा अधिकः भवेत्‌ । रषटवटः कद्ध; दयाडभिः वा सपैरः जनैः ख्यादिमिः निजैः जनेः अपः स्त्यादिमिन्ैः किं स्यात्‌-किमपि न स्यात्‌-यदि स्वदीयता्या जनाः अथवा स्वकोौटुम्बिका वा यदि प्रसन्नाः, रुष्टाः सपरसन्ना वास्युः तैः तस्य न किम- पिप्रयोजनम्‌ । यतः अधीनः स्वाभितजनैः अर्पिताः ये । उपायनाः उपहारः तैः एव पूणः दृप्तः । जन्मतः स्वजन्मारभ्य मातुः किं यत्‌ अपरिमितं सम्मुखं पोषयेत्‌ अतिरायेन कुर्यात्‌ ॥ ४ ॥

३२४७४ पवमच्कछारचिन्तामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

अथे- जिस मनुष्य के जन्मल्न से चोये स्थान मेंश्चुक्र हो वह रोगों द्वारा अधिक सम्मान पाता है । अथवा उसका चित्त पूजा तथा उत्सव के कायो मे बहुत ख्गता हे । वह बड़े-बड़े महत्व देने वाके कार्यं करता है, जिस कारण रोग उखका अधिक से अधिक आदरमान करतं है। स्रीवा पुरुष, अपने वा पराए कोई भी दौ-वे इससे प्रसन्न वा अप्रसन्न अन्तकरण सेजेसे मी रहै- समश्च मं इसकी पूजा वा आदर दही करते हँ । अर्थात्‌ साधारण लोगों क क्रोध अथवा प्रसन्नता से इसकी क्या हानिवा पुष्टि बटौत्री होसकतीदहे। यह प्राणी अपनी चार से मस्ताना चला रहता है किसीकी प्रसन्नता से इसका चित्त दर्ष्ठास से प्रफुलित नही होता है–यौर किसी की रष्टता वा अप्रस- नता से इसका चित्त विक्त वा खिन्न नहीं होता दै। वह अपने मधीन नोकर-चाकर आदि लेोगोँकीरमेटसे ही पूणं मनोरथ होता दै। यह मनुष्य जन्मसे दी माताका पालन-पोषण करता है-इसे माव्रखख प्रात्त होता है आर यह ॒मात्रभक्त तथा मातृसेवक होता है-यह भाव दै ॥ ४॥

तुखना–“सखुख स्थाने दक्र प्रभवति यदा जन्म समये महत्वं पूज्यत्वे भवति च समत्वं तनुभ्रतः। सदार्टेतुषटे जनन समयान्मातुरधिकं सुखं गोमातंगप्रवर तरैः सौख्यमधिकम्‌ ॥ जी वनाथ

अथं- जिस मनुष्य के जन्म समय में शुक्र चतुर्थं भाव में दो वह महान्‌ पूजनीय होता है । दूसरा के रुष्ट वा वुष्ट रहने पर भी वह सदा एक समान ही रहता ह ॥ जन्म समयसे ही उसे मान्रूचुख अधिक होता है । ओर इसे गाए, हाथी भौर उत्तम घोड़ों का अधिक सुख होता दै। भाव यह कि जिस मनुष्य कौ जन्म कुंडली मं चतुर्थमावमें शुक्र होता दहै वह एक विरोषतः आदरणीव व्यक्ति होता हे, रोगा इसका आदर मान करके अपने को धन्य मानते है| “दु खेष्वनुद्धिग्नमनाः सुखेषु विगतस्प्रहः । ेसी योगिजन वृत्ति का यह्‌ पुरुष होता है। इसे मात्रखख विरोषतः प्राप्त होता दै। इसके दरवाजे पर गौभों के दशन होते हाथी विघाते है भौर घोडे हिनहिनाते है । अर्थात्‌ यह प्राणी सवविध एेश्वयं का उपभोग करता है । ““बधुसुहृत्‌ सुखसदहितं वाहनपरिच्छद समृद्धम्‌ । ख्लितमदीनं सख॒भगं जनयति हिदुके नरं शक्रः |” कल्यःणवर्मा अथ- जिस जातक के ्वतुर्थभावमें शरदो तो इसे ब॑धुसुख, मित्रच, वाहन यख; अन्न तथा वस्र कातथा गृहका सुखहोतादहै। यह शरीरसे सुन्दर, स्वभाव से उदार पुरुष होता है। अथात्‌ शक्र के चतुथभाव में होने से जातक को सभी प्रकार के भौतिक सुख प्राप्त दोतेै॥ “स्री निर्जितः सुखयशोधन बुद्धि विद्या वाचाखको श्रगुसुते यरि वयात ॥” वे्ताथ

रुक्रक्क ३४७९५

अथे-चवुर्थं (बधु) भावम श्क्रके दोनेसे जातक शी के वशवर्ती हेता है । इसे सुख, यदा-वन-बुद्धि तथा विया प्राप्त होते ॥ मौर यह बहुत बोल्नेवाख दोता हे । . प्रधानं धनासिम्‌ । वशिष्ठ अ्थ– यदह प्रधानमंत्री तथा धनी होता है ॥ ‹“परद्यित विचित्री वासवासी विलासी बहुविध वहूभोगी राजपूञ्यधिरायुः । व॒रपरिकर भाया भार्गवे वंधुसंस्ये भवति मनुजवर्गः सवेदा विक्रमी च ॥”” क्रे ष्व तस्ये धनं रोप्यमयंवहू । प्रचुरं च तथा घान्यरसाश्च बहुला णे । कस्तु दाराभ्रय सौख्यदृ्तं खग्‌ वख सौभाग्यदं विदध्यात्‌ ॥”” गर्ग अर्थ–चतुर्थमावस्थ श्चक्र का जातक दूसरों का मित्र; विश्षितस्वमाव का घर म ही भधिक रहनेवाका, विलासी, कै प्रकारके उपभोग बहुत खमय तक प्राप्त करनेवादा, राजपूज्य, दीर्घायु, पराक्रमी ओर उत्तम खरी तथा परिवार से युक्त होता है । चांदीकेसूपमे इसके धर बहुत धन रहता हे ॥ विपुल धान्य ओर वुध-ददी रमे होताहै। खरी के आश्रय से सुख मिख्ता हे । पूय के हार, वल्र आदि से इसका घर सुंदर ख्गता है ॥ ““सुभूमिमिन्नालययानयानसुदूत सुखी धमंमनाः सुखेखिते ॥> जयदेव अर्थ–यह भूमिपति होता है । इसके मित्र अच्छे होतेह इसे धर का ओर वाहन आदि का सुख मिलता है । यह मानी, सुखी; आनंदी तथा धार्मिक इत्ति का होता है ॥ । ¢सुखे भागव वैभवं मानवानां सुखं दीयते वै जनन्या यथेष्टम्‌ । परं राज्यसत्कारवत्वं नराणां गहे गायकाः, पंडिताः वेदवन्तः ॥” जागेइवर अ्थ-चदुर्थभावमे शक्रके होनेसे मनुष्यको माता का सुख यथेष्ट माना मे पिल्ता है। यह राजा द्वारा सम्मानित ओर रेशर्यशाटी होता है। इसके आश्य मेँ गायकः पंडित ओर वेदपाठी विद्धान्‌ रहते ई ॥ (सुखे शुक्रे सुखी विज्ञो बहुभार्योधनान्वितः । ग्रामाधिपो विवेकी स्यात्‌ यशस्वी च भवेन्नरः ॥?` का्ञीनाथ अर्थ–श्चक्र के सुखभाव में होने से जातक सुखी, विद्वान्‌ › धनी, प्राम का सखिया, विवेकसम्पन्न-तथा कीर्तिमान्‌ होता दै । यह बहुत लियं से युक्त होता है । ‘“्लग्रात्‌ चतुथंगे शुक्रे जन्मकाले गतेसति । कफ़ादितोऽश्चरोगीच जन्मतो धनवर्चितः ॥’ गौ रीजातक अर्भ-ल्घ्नसे नतु्थं श्ुक्रके होनेसे जातक जन्मसे ही निधन, कफ रोग तथा नेन्न रोग से पीड़ित होता है॥ ८पमिनच्न-कषेत्र, म्राम-सद्व्राहनानां नानासौोख्यं वदनं देवतानाम्‌ । निव्यानन्द मानवानां प्रकुर्यात्‌ दैत्याचारयस्तुयभावस्थितोऽयम्‌ ॥* इुण्डि राज

३.७६ चमर्कारचिन्तामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

अथं-चवुर्थं भावमें श्ुक्रके होनेसे प्राणी को मि्रोंसे, जमींदारी से, अपने भ्राम से, उत्तम वाहन-मोटर आदि की सवारी से कई प्रकार के सुखप्रास्त होते है । यह देवपूजकः तथा सदैव आनन्दी होता है ॥ “मित्र क्षेत्रे प्रामसद्वाहनानां नानासौख्यं वन्दनं देवतानाम्‌ । निव्यानंदं मानवानां प्रकुर्याद्‌ देत्याचायंस्तुय॑मावस्थितश्ेत्‌ ॥ वरहद्‌यवनजातक अथं–इसे मित्र सुख, क्षेत्र ( भूमि ) सुख, ग्राम सुख, उत्तम वाहनों का सुख प्राप्त होतादहै। यद देवताओं का भक्त तथा पूजक दहोतादहै। सदेव नन्द मं रहनेवाला होता ₹ै॥ “भवति बन्धुगतं भृगुजे नरो वहुकटत्र सुतश्च समावृतः । खुरमृते सुरगेहवरे गदे वसन पान विलास समात्रतः ॥* मानसागर अथ-जन्धुभावगत श्चक्र क होने से जातक वहत खरी-पु््र से युक्त होता है । इसका घर देवघर से मी अधिक सुन्दर होता दै । यह अच्छे कपडे पिनता रै; अन्न पान आदि अच्छे होते है, भौर आनन्दी तथा विलासी होता है। “सुवाहन सुमन्दिराभरणवस्रगंधं सुखे ।* स्न्रेश्वर अथ–सुखभावमं भृुपुत्रके होने से जातक को सच्छा घर, अच्छा वाहन, यच्छे आभूषण, वस्र तथा अच्छे सुगंधित पदां प्राप्त होते ई ॥ ‘जनाधिपं पुराधिपं कुटाधिपं करोति च समस्तसौख्यसंयुतं च देवदेवताप्रियम्‌ | नर सुविद्ययान्वितं सुवाहनादि संयुतं सुदत्‌सुरद्विषां खटद्‌खदं गतः सुत्‌ लियम्‌ ॥? | हरिवंश -अर्थ– चतुथं मावगत शुक्र हो तो यदह अपने कुढुम्ब, शहर, तथा लोगों मं प्रमुख, सुखी, देवभक्त; विद्धान्‌ अच्छे वाहनों से सम्पन्न भौर स्री-मित्रौ से युक्त होता दै। “चतुर्थं सुखी ।*2 वराह मिहिर अथे–चतुर्थ श्युक्र से जातक सुखी होता दै ॥ | धरगुसूत्र–शोभनः बुद्धिमान्‌ क्षमावान्‌ सुखी । भ्राव्रसौख्य॑ माव्रसौख्यम्‌ । विशद्वधे मश्ववाहन प्राप्तिः । क्षीरखमद्धिः । भावाधिपेवलयुते अश्वांदोटिका- कनकचतुरगादि ब्द्धिः। तत्र पापयुते पापक्ेत्रे अरिनीचगते बलदीने क्षेत्रवाहन- हीनः, मातुक्टेशवान्‌ कलतरां तरभोगी | अथ–चतुर्थभावमे शुक्र होने मे जातक बुद्धिमान्‌; खुन्दर; क्षमाशील तथा सुखी हौतादै। इसे माता अर माद्यां का खख अच्छा मिक्ता हे । तीसव वषं घोडे ओौर वाहन मिलते है, गोधन-दू ध-ददही खूब होते ह । चतथ नख्वान्‌ होतो घोडे-पाक्की सोने के आसन आदि वैभव प्राप्त दोताहै। यह पापग्रह युक्त हो तो, अथवा पापय्रह कौ राशिमं, शत्रुराशिमें, वा नीष् मे दुबंल्हो तोखेती, वाहन आदि नदीं दोते। माताकोौ कष्ट होतादहे। एक से अधिक न्ियोंका उपभोग करता है ॥

दक्रफक ३४७७

पाश्चाव्यभत- यद श्ुक्र पीडित न हो तो जीवन भर यच्छा चुख मिलता है । पत्रक सम्पत्ति मिलती है । माता-पिता का सुख अच्छा मिलता है आयुका उत्तराधं उत्तम होता रै । मृत्यु अच्छी स्थिति मे दोती है| रविं भौर चन्द्र से श्चम योग हो तो विजय ओौर छोभ प्राप्त होता है । स्थावर अस्टेट मिती द । मङ्गल से अश्यभयोगदहदोतो भयु के अन्तिमि भाग में बहुत ख्वं करना पड़ता है ।

विचार ओर अनुभव- प्रायः समी शाख्रकारों ने ्वतुर्थभावस्थ श्चक्र के फल शुभ बतलाए दै । इनका अनुभव पुरुषरारियों म पिल्ता ₹ै । गौरीजातक- कार ने अतीव अश्चुभ फल बताया है । यह शुक्र पुरुषराशिर्यो मे हो तो मात्र- सुख पृण नदीं मिख्ता है । यदि माता जीवित रहे तो सदैव रोगग्रस्ता रहती दै। जातक को पेतृकसम्पत्ति की प्रापि होती है। किन्तु एेश्-आराममें अथवा भारी-भारी व्यवसायों मे भारी खनं करने से सम्पत्ति नष्ट दहो जाती है। तदनन्तर अपने भारी परिम से धन प्रापि होती है। लियो से मदद अच्छी मिव्ती है । चतुथंभावस्थ श्युक्र के जातक नौकरी भीकरतेर्दै साथी ओर धेदे भी करते रहते है ।

शकर यदि ख्रीरारि का होता है तो पितखुख पूरा नदीं मिल पाता । जातकः भारी कृपण ओर कञ्चेस होता है | मीटा बोलकर अपना काम बना चेता रै । ` अपना स्वाथ सिद्धिहोतादहोतो दूसरोंकीमददमी करतादईै। ३६ वर्षं तक अस्थिर रहता है । कुछ समय नोकरी, कुछ समय कोई भौर व्यवसाय करता है–अन्त मे व्यापारमें स्थिर दहो जाता दै ओर कीर्तिलाभ करता ₹ै।

पुरुषराशि का चतुथभावस्थ शक्र होतो जातक की खरी न्दर भौर आकषक होती है । खरीराशिमेश्क्रहोतोस्री साधारण होती है । इष वा तुल काश्ुक्रहोतोष््नी बहत ही साधारणवा कुरूपा होती है ।

वृष; कन्या, मकर तथा मीन राशियोंमें श्चुक्रदहोतो द्िमार्यायोग होता है । ककं बृश्चिक तथा मीनमें शुक्रदो तो धरवार नहीं होता। इस स्थान का साधारण फल यह है किं विवाह के बाद भाग्योदय होता है। अपना धरबार होता है। आयु का अन्तिम भाग अच्छा बीतता है। किन्तु यह समयसख्रीके वामे रहने काोतादहै। ब्डेखोगोंसे स्नेह होतारहै। उनसे सहायता मिरूती है । प्रथम पुत्रसन्तति होती है । जैसे तीसरे स्थान का श्ुक्र खरीचिन्तन करवाता है; वैसे ही चतुथभाव का श्र हमेशा भर्थिक चिन्ता करवाता है । आयु के २४-२६ भौर ३६ वै वधं में शारीरिक कष्ट बहुत होता है। तीसरे वाचछ्ठे वषमे घरमे किसी स्येष्ठ व्यक्तिकी मृ्युहोतीदहै। मातावा पिता मसे किसी एक की मघ्यु ब्पनमं होतीदरै। जो जीवित रहे उसका युख ४५९ वै वषं तक मरिलता है | |

प्चमभाव का शुकफट- सपृत्रेऽपि किं यस्य शुक्रो न पुत्रे प्रयासेन किं यल्नसम्पादितोऽथैः | व्युदकं विना मन््रमिष्टाशनाभ्यामधीतेन किं चेत्‌ कवित्वेन हाक्तिः ॥५॥

३७८ पवस टकारचिन्वणि का तुलनात्मक स्वाध्याय

अन्वय :-श्युक्रः यस्य पुत्रे न ( अस्ति, तस्य ) सपुत्रे अपि किं ( फलम्‌ ) येन सम्पादितोऽथैः (न, स्यात्‌) (तेन) प्रयासेन किं (फलम्‌ ) व्युदकं विना मन्तरमिष्टारनाभ्यां (किं ) ( फलम्‌ ) कवित्वे शक्तिः न चेत्‌ ( तदा) अधीतेन किं ( फलम्‌ ) ॥ “५ ॥ सं° टी<–यस्य पुत्रे पञ्चमभावे शुक्रः न, स सपुत्रः अपि किं पुत्रजन्म- फठं न इत्यथः । येन न सम्पादितः अर्थैः तेन आयासेन परिभ्रमेण अपि किं निकिञ्चित । फलमित्यर्थः । ग्युदकं विरिष्टोत्तरफटं ेश्वय्यौदिरूपं उदरतृपि मनः सन्तोषरूपे च विना मन्वमिष्टाशनाम्यां-मन्तरजपेन-मिष्टाहदारेण वा किं (नकि मपि फलम्‌ ) यत्‌ अध्ययनात्‌ कविस्वे काव्यकरणे मतिः न, तेन अधीतेनापि किं, अर्थात्‌ पञ्चमे श्चक्रे सफल पुत्रजन्म, अर्थाजंको यल्तः-ेश्वयंकारको मन्त जपः वृत्तिः मनस्तोषकारकोत्तम भोजन सामग्री कान्यकरण सामथ्याध्ययनं च भवेदित्यर्थः ॥ ५ ॥ अथं–जिस मनुष्य के जन्मल्यसे पोच स्थानमें श्चक्रन दो इसे पुत्र केहोतेहएटभी सपुत्रहोने का फल प्रास्त नदीं होता दै। जिससे द्रव्यप्रापनि नदीं होती हे, उस उद्योग कामी कोई लाभ नदीं है। यदि उत्तर फल अर्थात्‌ दोनेवार फल नीं है तव मन्त्र-जप, ओौर उत्तम भोजन ( हविस्यान्न तथा मीठे भाजन) से क्या फल दै। काव्य बनाने में शक्ति नदींहै तो उस अध्ययन सेमी क्याफठदहै। अर्थात्‌ पोँचवां शुक्र हो तो पुत्रसुखः द्रग्यप्राप्ति; छ्भफल, ओर उत्तम कवित्वशक्ति उपे प्रास्त होती है। संक्षेप से तात्पयं यह कि अच्छे पुत्र होते ई । विदोष प्रयास न करने पर मी धन मिक्ता ह । मन्त्र ओर मिष्टान्न प्राप्त होते ै। कविता करने की शक्ति अच्छी होतीदहै। यह श्चुभम प्रभाव पञ्चमभावगत श्चुक्र का है ॥ ¦ ॥ तुखना-““खुतस्थानं शुक्रे गतवति यदाजन्म समये द्रुतं पुत्रमरात्तिः प्रवरधनलमोऽपि सहसा । जपात्‌ सिद्धिः सर्वा प्रभवति जनानामपिमनौः कवित्वं पाण्डित्यं सतत युतमिष्टाशन खखम्‌ ॥ जी वनाथ देषज्ञ; अथे- जिस मनुप्य के जन्म समय मे शुक्र पञ्चमभावमें हो उसे शीघरही पुत्र की प्राप्ति) तथा सहसा प्रचुरधन का लाभमीहोताहै। मन्त्रकंजपसे सवद्रकार की सिद्धिहोतीदहै। रोगों के मध्यमे कविता करने की शक्ति होती हे; मौर सदा मिष्टान्न भोजन का सुख होता है। दिद्रदोन– नारायण मड ने सामान्यतया पुत्रप्राति होती है-रेसा कहा हे, किन्तु जीवनाथने विरोषतया शीघ्र पुत्रप्रासि पञ्चम शक्र का फर है-रेसा कथन किया हे। नारायण भटर के अनुसार उन्योग का फट धनप्रापि आवदहयक फाल हे-परन्तु जीवनाथ के अनुसार पञ्चम शक्र के होने से सहसा प्रचुर धन प्राप्ति होती दै-इख तरह स्वल्प मतमेद है ।

शक्रकल ३४९

°’सुखयुतमिन्नोपचितं रतिपरमतिधनमखंडतं क्रः । कुरुते पंचमराशौ मंत्रिणमथ दण्डनेतारम्‌ः ॥ कल्याणवर्भा ( सारावकलि ) अ्थ-प॑ंचमभाव में यदि दश्युक्क दो तो जातक सुखी; पुत्रवान्‌, मिसे युक्त, विलखसप्रियः अतीव धन सम्पन्न, खवप्रकार से वस्तुं से परिपूण, राजमंची वा न्यायाधीश होता है। | (तनयगते सुखिनः” ॥ वराहमिहिर अ्थं- यदि”पंचमभावगत शुक्र हो तो जातक सुखी होता है | “पुत्रबहुलम्‌?” ॥ वशिष्ठ अर्थ-बहूत पुत्र होते द । अर्थात्‌ कन्यां की अपेश्चा पुत्र संख्या में अधिक होते दै । अर्थात्‌ प॑चमञ्चक्र पुत्र ओर कन्यार्णँ दोनों प्रकार की सन्ततिं देता है । ध५सत्पुत्रधनवानतिरूपशाखी सेनातुरंगपतिरात्मजगे च चक्रे” ॥ वे्यनाय अथे–यदि शुक्र पवममाव मे हो तो जातक सुपुत्रवान्‌; धनी-सौन्दयं सम्पन्न, सेनापति भौर षोड का पति होता है। “भसुतसुखवि विधोपचितं परमधनं पंडितं शक्रः । कुरुते प॑ष्वमराशौ मंत्रिणमथ दण्डनेतारम्‌? ॥ गर्ग अथं-पचमभावमंश्चक्रके होने से जातक पुत्रयुक्त, विविध प्रकार के सुखां का उपभोक्ता, अत्यन्त धनी, पण्डित, मंत्री अथवा न्यायाधीश होता है सकलकान्यकलामिरखेकृतः तनयवाह नधान्यसमन्वितः नरपतेगुंरुगौरवभाक्नये भ्रगुरते युतसद्मनि संस्थिते” ॥बृहदयवनजातक अथं–यदि जातक की जन्मकुण्डली मे शुक्र पुत्रभाव में ( पंचमभावमं) हो तो जातक कविता आर कलाओं से सर्व॑था कुशल भौर निपुण होता है। धनधान्य पुत्र तथा वाहनों से सम्पन्न होतादहै। णेता व्यक्ति राजा द्वारा सम्मानित होता है। “‘सकककानव्यकलभिरल्कृतस्तनयवाहनधान्यसमन्वितः नरपतेशंख्गौरवमाडनरो भरगुसुते सुतस्यनि संस्थिते” ॥ दृण्डिराज अथे–यदि शक्र पष्वमभावमें बेडा दो तो जातक सम्पूण काम्य कला को जाननेवाला, पुत्र, वाहन तथा धन्य से युत ओर राजा से आदर पानेवाला होता है “शुक्रे सुते समृद्धश्च सुरूपश्च सदोत्तत । पुत्रीपुत्रशतैर्थुंक्तः सुभगोऽपिभवेन्नरः” ॥ काशीनाथ थे–श्यक्र पोच्वे स्थान में हो तो जातक समृद्धिवान्‌, सुन्दर) सदैव उन्नत, सेकड़ों पुत्र ओर पुत्रियां से युक्त होता है । टिप्पभी–वतैमान समय मे, ज्रकिं परिवार योजना चली हुई है-सेकड़ पुत्रों ओर पुत्रियां का होना असम्भव कस्पना रहै । शतश्ब्द का प्रयोग अधिकता मँ साथक हो सकता है ।

३.९.५० चमरकारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्व!ध्याय

““तनयपन्दिरगे भ्छगुनन्दने बहूसुतः दुहिवुरवरपूजितः। बहु धनो गुणवान्‌ नरनायको भवति चापि विखाखवती प्रियः ॥ भानसागर अथं-पंचममभाव मे श्युक्र हो तो जातक बहुत पुत्रवाखा;, जामाता से पूजितः बहत धनवाला-रुणी तथा श्रेष्ट नेता होता दहै। कामक्रीडामें निपुण च्िए इसे प्यार करतौ हवा यह्‌ विलासिनी चत्री का पति होता है। टिप्पणी-मानसागर के अनुसार पुत्र संख्या मं बहुत होते है । कन्या भी होती ह । अतएव जातक को दामादों के सत्कार में व्यस्त रहना पड़ता दै । पचमभावस्थित शुक्र एेते जातक को जन्मदेता है जो प्रामनेता;, देश्चनेता ओर राजनीतिज्ञ होकर प्रजा के लिए हितकर हो खकता दै-यही नहीं प्रद्युत बरूटनीतिन्ञ मी हो सकता है | “नानागमी भूरिधनात्मजः सुखी, समानदानः सुतगे श्वगोः सुते ॥ जयदेव अये पंचमभावमें चक्र के होने से जातक अनेक चां का शाता होता ह । जातक बहुघनवान्‌, बहुपुत्रवान्‌, सुखी; मानी तथा दानी होता ह | „ “‘अखण्डितधनं दपं सुमतिमात्मजे सात्मजम्‌? ॥ सत्रेश्वर अथ-यदि शुक्र पेचमभावमें हो तो जातक पणं धनयुक्त; राजा के समान वेमव वाला, पुत्र सौख्य से युक्त, स्वयं बहुत बुद्धिमान्‌ होता दै । ‘ष्टद्यात्‌ पंचमगः द्युक्तो जन्मकाले यदा भवेत्‌ । बहुकन्यासमायुक्तो धनवान्‌ कीर्तिवनितःः ॥ गौरीजाटक्‌ अथ- शुक्र के पचममावगत होने से जातक बहुत कन्यां का पिता होता है । यह धनी भी होता दै । किन्तु कीर्विरदित होता है। रिप्पणी–श्ुक्र विलासी अह रहै-रागरंग ओर विलाचिनी तथा कामुकी स्यां का प्यारा प्रह है। अतएव इसके प्रभाव मे उत्पन्न जातक परस््रीगामी होन से यशोहीन होता है । यदहो चरि नदीं वदो कीर्तिं की सम्भावना क्योकर हो सकती है । बहुत कन्या्ओं मे से कोद दुश्चरित्रा भी निकल जावे तो भपयद्च र अपकीतिं आवदयकतया स्वाभाविक दै । “यदा प्चमेभार्गवः सौभगः स्यात्‌ परं विद्या काव्यकद्पः सकस्पः। परं पण्डितेर्टिख्यते यत्तदुक्तं खुते राजमान्यैः प्रतापी भवेद्‌ वा” ॥ जागेइवर अथे–पंचमभावगत श्युक्र का जातक धनी, विद्वान्‌, कवि तथा ठेखक होता है | इसके पुत्र राजा द्वारा सम्मानित होते दै । यह प्रतापी जीव होता है। “स्वलेकृेतः सुविद्यया सुकराग्य कौशलं पुमान्‌ सुराजमंत्रवित्‌ सखा युध्मकमं संगी । सुरूपवान्‌ सदोन्नतः सुभाग्य मोगभूषणेः, सुताधिको भवेद्श्रगोः सुते खुताल्य॑गते ॥ हरिवंक्ञ अथं-यदि जातक के पंचमभावबर में श्चुक्र होतो यद्‌ विद्वान्‌, कवि, राजनीतिक, उम तथा विश्वसनीय मित्र, धार्मिक; कमठ, सुंदर, भाग्यवान्‌ ,

दाक्रफल ६५५१

उपभोग ओर अरकार प्राप्त करनेवाछछा होता है। इसे बहुत पुत्रों का सौभाग्य प्राप्त होता है। $

श्रगुसूत्र–कषित्वे मतिः | मंत्री-सेनापतिः । मातृसेवकः, मातामहीदश्वा । काव्य शक्तियौवन दारपुत्रवान्‌ | प्रगत्भमतिमान्‌। राजसन्मानी । सुक्लः। स्री प्रसन्नताड्द्धिः । लौकिकः, न्यायचृत्तिः। तच्च पापयुये पापकेत्रे अरिनीचगे बुद्धि जाञ्ययुतः । पुत्रनाशः। तत्र ज्मयुते बुद्धिमान्‌ नोतिमान्‌ । पुत्रप्रािः, वाहनयोगः ॥

अथं-पंचमभाव का श्युक्र जातक को कवि, मत्री-तथा सेनापति बना ` देता है । यह जातक मात्ृसेवक तथा दादी को देखने वात्म होता है। यह प्रौट्‌ बुद्धि होने से काव्यकत्रँतवशक्ति सम्पन्न ता है। इसे तरुणा खी तथा प्रो का सौभाग्य प्राप्त होता दै। यह राजा द्वारा सम्मानित होता है। यह सुज्ञ होता है। इसकी स्त्री सदैव प्रसन्न रहती है। यह व्यवहार्वतुर ओर न्यायप्रिय तथा न्यायपरायण होता है । यदि यह पंचम शुक्र पापी ग्रह के साथ मेडोवा पापग्रहके क्षेत्र (राशि) मेदो, शनुक्षे्रीद्ोवा नीष् राश्चिगत हो तो जातक बुद्धिजड अथात्‌ मूखं होता है । इसके पुत्रों का मरण होता दै । यदि यदह शक श्चुभ सम्बन्धमें हो, तो जातक मतिमान्‌ तथा नीतिमान्‌ होता है । यद जातक वाहनों से समृद्ध होता रै, अर्थात्‌ इसे गाडी, घोड़ा, हाथी, स्कूटर मोटर आदि वाहनों का सुख रहता है । ` |

पाश्चात्यमत–यह वैभवशाली होता है । यह सियो मे आसन्त रष्टता है । इसे पुत्रो से कन्या अधिक होती है । यह साहसी, विद्याभिल्मषी ौर विजयी होता है । यह शान्तचित्त तथा दुःखेषु अनुद्धि्ममनाः, सुखेषु विगत- स्पृहः का प्रकाण्ड उदाहरण होता है। म्यवहारी तथा लौकिक सुख प्राप्त करनेवाला होता है । यदह नाटक-सिनेमा आदि देखने का शौकीन होता है । सन्तति बहुत होती हे । इसके पुत्र सुन्दर, श्ञाकारी, मो-बाप को प्रसन्न रखने वाठे होते ह । यह पचमभाव का शक्र बल्वान्‌ हो तो सट्टा, खाटरी, यूत आदि से आकस्मिक लाभ करवाता है । पदिली सन्तान ( पुत्र हो वा कन्या ) बहत सुन्दर भौर आकषक होती ई । यदह सन्तति खलितकलां मे अभ्यास रखतौ है । यदि यष्ट शुक्र शनि वा मंगल से पीड़ित होतो अश्चम फल देता ई।

विचार ओर अनुभव–पंचममावगत श्चुक्र का फल शुभ होता है-रेसा प्रायः सभो ग्र॑थकेखकों का मतृ है। यह बात उद्धरणोंसे साफदहो जाती रै। नितान्त श्चुभ फल ही होताहै ओर अञ्चभफर कभी होता ही नदही-रेखा कहना युक्तियुक्त न होगा-कद दफा अश्चभफल ही अनुभव मे आता है ।

यदि शुक्र पुरुषराशि मेंहोतो पुत्र होते है-कन्याषएक दीरहोतीदै

ओर यह एक कन्या भी कई पुत्रके अनन्तरहोतीदहै आौर कभी एकमभी कन्या नहीं होती रै । यदि शुक्र मेष, सिंह तथा धनुराशिमे होतादहैतो इष

३५५२ चमत्कारचिन्तापरणि का तुखनामक््‌ स्वाध्वाय

शक्र के प्रभाव में उत्पन्न व्यक्तिः अर्ध॑शिक्षित होते हुए भी विद्धान्‌ माने जाते ह । ये लोग आरामपसन्द होते ईै-खर्चलि होने से पैसा बचता न्दी-आर्थिक कष्ट तरं ग्रस्त रहते है । इनकी प्रसिद्धि नट के रूप मेंहोतीहे। ३६ वं तक अस्थिरता मेँ रहते ई । बहुत कामुक होने के कारण पक्लीत्रत होते हूुएमभी परच्रियां से अवैध सम्बन्ध रखत है । सन्तति दहो, वा न हो-ये खोग सन्तति से निरपेक्च हाते है । जिनका पचमभाव का शुक्र मिथुन; वला तथा कुम राशिमें होता है, वे रोग पूणंतया यिक्षा प्राप्त कर वी० ए०; एम ए° आदि उपाधियोँ प्राप्त करते है । ये यति कामुक भी होते ह भौर विष्ठान्‌ भी होतेह । ये शिश्चक प्राध्यापक आर ठेखक मी होते दै । इन्द सन्ततिषख नीं होता-गोर इन्द मर्थो के कारण कीर्तिं मौर प्रसिद्धि ग्राप्त हौती दै-इनकौ सन्तति अ्रन्थ ही होते है | इन्द एक दी अभिलघा होती है ओौर वह यह कि इनकी नी बुद्धिमती, सुशिक्षिता तथा मित्रसम्मितादहो। रेखा नहीं हो तो उदासी छाई रहती दे। यह योग चन्यं को कष्टकारक होता है-मासिकधमं के विषय मे यह योग हानिकारक रहता है । प्रदर आदि रोग तथा बन्ध्यात्व होता है । ककं, बृश्चिक, मीन एर्वं वृष, कन्या तथा मकरररियौ मं यह शुक्र हो तो जातक विज्ञान- सम्बन्धी उपाधिर्योँ वी एस० सी° आदि प्राप्त करते र्है। कन्या सन्तति अधिक होती है-पुत्र यातो होत न्दी, अथवा होकर मर जाते अथवा वुदूषेमें कहीं एक पुत्रहोतादहे। ये लोग छ्रीजित नदीं होते-इनका व्यवहार अपनी खरी के प्रति मी अनासक्तिकाहोता है। घर में इनका व्यवहार मुसाफिरों जेसा होता है-ये अपने मं, अपने काम-धन्धों में मग्न रहते है-खोगों कौ तरफ इनका ध्यान होता ही नहीं । एचम शुक्र जातक को अवैध स्रीसुख प्राप्त करते की इच्छा ट्व वसे द्वीपैदा कर्‌ देता ई ।

पुरुषरादि काक्र दोतो लियो के प्रति आद्र-भाव होतारै। शरीराशि का दक्र विवाह को सफल बनाता है। सन्तति आरामपसंद अतएव दरिद्र होती हे | स्रीराशि काशयुक्र होनेसे री के वारे में विदोषं आदर वा तरेम नहीं होता । धंचममावगत शुक्र होने से द्विभार्यायोग मी सम्भव है।

षष्ठभावगत शुक्र का कट- “सद्‌। दानवेच्ये सुधासिक्त शत्रः व्ययः रात्रगे चौत्तमौ तो भवेताम्‌ । विपदेव संपादितं चापिक्रत्यं तपेन मन्त्रतः पूञ्यसीख्यं न धत्ते ॥ ६ ॥

अन्वयः–दानवग्ये ` शत्रुगे ( सति ) सुधासिक्तः शतुः व्ययः च, तौ उत्तमौमवेताम्‌ । ( तेन ) संपादितं च अपिक्रत्यं विपच्रेत, सः मंत्रतः तपेत्‌, पूञ्यसौख्यं न धत्ते ॥ ६ ॥

सं< टी –दानवेज्ये शुक्रं शत्रुगे षष्ठस्थे ( सति ) खुधासिक्तः, अपृत- सेवितः, अमरवद्‌ दृदृः अनिवारणीय इति यावत्‌ , स्वव्ययः द्रव्यत्यागः, तौष् उत्तमौ भवेताम्‌ , स्वतः जातिगुणक्रियामिः शेष्ठः रिपुः, सन्मागंदरग्यव्ययश्च भवे-

२३ शयुक्रफज् ३५२

दिव्यर्थः। च पुनः संपादितं .कृतं कृत्यै काय विपयेत नद्येत, मंत्रतः कुमचात्‌ तपेत्‌ संतापं आप्नुयात्‌ ; पूज्यात्‌ गुरोः पूज्याय वा सौख्यं न धत्ते ॥६॥ अर्थ–जिस जातक के जन्मसमय मे शुक्र षषठमावः अथात्‌ क मे होता है, उसके खत कभी नष्ट नही होते, मानों उन्दोनि देवता कौ भति अग्रतपान कररखा है । अथात्‌ छ्ठेमाव का शक्र प्रवल शतुवग को अन्म देता है भौर यह शत्रुव्गं सदैव जातक कोदुमखका दातातथा मानसिक शांतिके भंगका कारण बना रहता है। जातक का खप्वे भी बद्चद्‌ कर होता रहता है-घनग्यय ष्वाहे सन्मार्गे मेँ हो, वाहे कुमागं मे, मय से भारी माचा मे होता ै जिससे दायि तथा ऋणग्स्तता जातक .की अशान्ति तथा मनोब्यग्रता बनी रहती है । अपने से जातिमे, गुणों मेँ ओर काथैकरण में भारी सामथ्यं रखनेवाके प्रबल शन्रुओों से सदेव धिरे हए रना, ओर भाय से अधिक ख्व का होना, यह छ्टेभावके शुक्र काफलदै जोकि जातक के जीवन को कण्टकमय बनादेतादै। कायं को फलोन्मुख बनाने के किए भारी उन्ोग आओौर यत्न करने पर मी जातक की कायेसिद्धि नहीं होती, प्रत्युत काम दही गिगड़ जाता दै। कुंज के जपसे दुःख उठाना पडता दहै। जातक को पूजा गुखजनों से वा पूज्य माता पिता आदि से सुख पापि नदीं होती दै । अथवा पूजाहं गुरुजनं को जातक से युख प्रापि नदीं होती प्रत्युत जातक का रुख वा रवैया गुरुजनों के विरोध में रहता है ॥ ६ ॥ | तुखना–“यदाशत्रौ शुक्रे भवति अनने यस्यपरितः । सुधासिक्तारातिः सतत मिह वित्तम्ययष्वयः ॥ तथाक्रत्यं यत्ञादपिच खडसम्पादितमरं | „ ` म्रणदयत्यद्व वै कुम्॑रजपतो नश्ष्यतिकुलम्‌ ॥ जीवनाथ अथे- जिस मनुभ्य के जन्म समयमे शुक्र षष्टमावमेदहो उसे अमरतसे सिचित शन्रुवगं होते दै, अर्थात्‌ उसके रान्ुभों का नाश कभी नदं होता दै । निरतर धनन्यय की इद्धि होती हे, तथा यत्तसे संपादित का्य॑भी शत्र दी नष्ठ दो जाता दै भौर कुत्र के जपसे कुल का नाश होता है॥ (‘अधिकमनिष्टं खीणां प्रचुरामित्रं निराकृतं विभवैः । विक्छ्वमतीव नीष्वं कुरते षष्ठे भृगोस्तनयः | कल्यणवर्भा अर्थ- यदि षष्ठभावमें श्ुक्रहोतो जातकल्रीके प्रति द्वेषबुद्धि रखता दै । इसके शत्रु बहुत होते ६ । यदह धनदीन होता दै। जातक विहृ अौर नीचप्रङृति पुरुष होता है ॥ | ““पष्ठेऽशतरुः 12 वराहमिहिर अर्थ– यदि शक्र छ्ठेभाव में दहोतो जातक शनु्ीन होता है भर्थात्‌ इसके रात्र नदीं होते । | टिष्पणी-नारायणमट्, जीवनाथ तथा कस्याणवर्मा के अनुसार छटा श॒क्र भारी मात्रा मेँ शन्न बाधा करता है, परन्तु भाचायं वराहमिहिर के भनुसार

३७५७ पवमस्कारचिन्तामणि का तुरुनास्मक स्वाध्याय

छटेभाव के शुक्र के प्रभाव में उत्पन्न जातक विगत शत्रु अर्थात्‌ रात्र रदित होता है । अनुभव प्राप्तव्य है॥ “काम्यः मति विद्ीन मनस्परोगं रिपोः साध्वसम्‌ ॥?* व शिष्ठ अथे-च्टेभावमें श्क्रके होने से जातक बुदधिद्यन होता है। इसे प्रचुरमात्रा मे रोग होते ह । शत्रुओं से भय होता है ॥

““नीष्वास्तगामी रिपुमन्दिरस्थः करोतिवैरं कल्हागमं च । अन्यत्र शुक्रो रिपुदप॑दारी स्वक्षेतु षष्टे हि सदातिसिद्धिः ॥ ॥ भीरः भूरिरिपुः स््रीणामनिष्टो विभवोम्ित । विज्कवश्च भवेत्‌ लथ्राद्‌ भाग- वेरिपुराधिगे ॥ श्वगुः रिपुगेदे यदा भ्रावरष्वखणो च मातुलानां मदायुखम्‌ । कन्यापत्योऽथ मातुलः । दञ्ाधिपस्तीक्षणकरः प्रतिष्ठः सहख्नाथो रजनीकरश्च | वक्राकजौ हीनद्रौ सदैव दोषाणि चन्द्रेण समाः पतंगाः । गर्ग अथ-चछटेभाव मेँ शुक्र अस्तंगत वा नीचराशिमें हो तो ्लगडे भौर वैर निर्माण होते दै । अन्य राशिमे होतो शत्रुं का पराभव होता रै ॥ वरृषवा त॒ुलामंश्चुक्रहो तो सर्वदा सफलता मिल्तीहै। श्युक्रके प्रभाव में उत्पन्न जातक डरपोकः, बहुत शनुर्भो से पीडित, छियों को अप्रिय, धनेप्ु यर दुञ्छहोतादै,च्टेमें सूरं दश्च दोष उत्पन्न करता है। चन्द्र, बुध, गुस तथा क्र हजार दोष उत्पन्न करते है । मंगल भौर शनि दोष रहित होति है | छ्टेमावमें शक्रो तो माई, बहिनोंतथा मामाको सुख प्राप्त होता है। मामा कौ कन्या संतति होती है ॥ षष्ठे पराजयं व्याधिम्‌ > पराश्चर अथ–चछ्ठा छक्र हो तो जातक शत्रुओं से पराजित होतादै’ इसे शारीरिक व्याधि होती है | ॥ ‘शोकापवाद सहितो श्रगुज रिपुस्थे ॥” वेयनाथ अथ–यदिच्टे मावर में शुक्र होता है तो जातक को सोक तथा निन्दा के अवसर बहुत भते ह ॥

  • विदयतुमधनं क्षते युवति दूषितं विङ्कवम्‌” ॥ मंत्रडवर अर्थ यकर यदि ख्टं भावमेंद्ो तो जातकके कोई ष नहीं रोते । वह धनहीन होठा है । इसका सवैध सम्बन्ध अनेक युबतियों से होता है। अतएव यह रुण रहता दै मौर दुःख भोगता है । दिप्पणी– आचार्यं वराहमिहिर ओर मंेश्वर का प्ररस्पर एेकमत्य है यदह तक शात्ुराहित्य क्रा प्रश्नहै। “लीसौरख्यहीनस्तनुरोगमाङ्‌ नरो विभूत्युक्तोमलिनः सितेऽसि ॥ जयदेव अथे–यदि शक्र रिपुभाव ( छ्टास्थान) मे दहो तो जाक को खरी सुख तथा रेश्वयं तथा वैभवसुख नदीं मिक्ता है। जातक मलिन भौर रोगी रहता है 1.

शुक्रफछ 2५५५

टिष्पणी-खरीयुख से तात्प स्वकीया पी सुख हो सकता है । ठीक भी है । परकीया ख्यो से अवैध सम्बन्ध स्खनेवालों को स्वकीया प्ली का सुख होना सम्भव नदीं । अनेक युवतियों से अवैध सम्बन्ध रखने से धनदहानि- अपवाद ओररोग का दोना स्वाभाविक दही रहै। “शष्ठ शुक्रे मवेद्‌ दंभौ जाञ्यहानिमयान्वितः | दुःसंगी कठी तात देषी चैव सदानरः” ॥ काक्ीनाथ अथं–यदि जन्मकुण्डली मे जातक के च्टेभावमें शक्र होतो यह द॑भी, जडबुद्धि, धनदहीन-इरपोकः, -बुरी संगति में रहनेवाख-अगडाद तथा पिता से देष करनेवाला होता है । हर तरह इसे नुकसान सहना पडता ई । “सदा गीत ब्रत्ये भवेचित्तदृत्तिः परं वैखििन्दस्य नाद्यो नराणाम्‌ । सदा तो भवेद्‌ रोगयोगादि चिता यद्‌। शततुगोऽदेवपूज्यो न पूज्यः” ॥ जागेइवर अथे–यदि जातक के रिपुमाव मे शक्र हो तो जातक नावनगानों में आसक्त रहता है । इसे शतुभों के समूह पीडित करने को उद्यत दोते है किन्तु यद उन सबका नाद्य कर देता है। इसे सदा रोगों से चितित रहना पडता दहै ` भौर इसका आदर-म्मान कदी नहीं होता ₹है। रिप्पणा-्चक्र प्रह रगीता ग्रह है, इसे गायन-गृत्य सदैव प्रिय ईै। युवतियों का शौक भी प्रचुरमात्ना में रहता है। अतएव इसके प्रभाव में आया हुभा जातक भी गीत-दरव्य आदि ठित करं मं आसक्त रइता है । युवती दूषित होने से रोगों का होना स्वाभाविक है। युवतियोंके कारण दही, सम्भवतः श्तुखमूह का सामना करना पड़ता हे । । | मवति वै सुकरुलेद्धवपण्डितो रिपुहे श्रगुजेऽस्तगते नरः । जयति वैरिलं निजवुंगगे निजग्रहे मुदितः किल्षष्ठरोः” ॥ भानसागर अर्थ–यदि जातक की जन्मङुण्डली मे शत्रुभाव अर्थात्‌ छठे भाव मेँ क्र होतो जातक का जन्म श्रष्ठकुर मे होता है-यह सुशिक्षित भौर विवेकशील विद्वान्‌ होता है । यदि श्रं अस्तंगत टो तो शत्रु बखनाश्चक तथा शतु विजेता होता रै । यदि अपनी उच्चराशि मीन में शुक्र हो, अथवा यह ॒श्चक्र स्वग्रही अर्थात्‌ वृष वा वला राशि मं दो तो जातक सदैव प्रसन्नमुद्रा में रहनेवाला होता है । [र धा रिप्पणी–प्रायः अन्य प्र॑थकारो ने चै श्क्रके बुरे फलदी बतलयेहै, परन्वु मानसागस्ने श्म फल हयी बतलाये ह । यह मारी मतभेददहै। “श्तुस्थाने यदाश्च्रस्तदा मातृष्वसुः सुखम्‌ । त्रयाणां च दयोर्वापि वक्तव्यं दैववेदिना? ॥ पुञ्जराज . अथे–रातुस्थान मं क्र के होने से जातक की मौसिरयाँदो या तीन होती दै इन्द सुख मिलता है ।

३९५६ चमरकारचिन्तामणि का तुरुनात्मक्‌ स्वाध्याय

खमिमतो न भवेत्‌ प्रमदाजने नन॒मनोभवदहीनतरो नरः| विकलता कलितः किलसम्भवे श्ृरुखुतेऽरिगतेऽरिभयान्वितः’ ॥ बरहद्‌यवनजातक अर्थ-च्टेमावमे यदि शरदो तो जातक को चर्ण प्रेमदृष्टिसे, अमिलाषापूणः नजर से नहीं देखती ह । जातक को च्िर्यो के उपभोग की इच्छा प्रवल नदीं होती । यह दुवंल, डरपोक तथा शत्रुभयाक्रान्त होता है | “अमिमतो न भवेत्‌ प्रमदाजनं ननुमनोभवदहीनतरो नरः| विवल्ताकलितः किठ्सम्भवे भररासुतेऽरिगतेऽरिभयान्वितः, ॥ दुण्डिराज अ्थं–जिसके जन्मकाल मेँ श्युक्त षष्टमाव मे बैठा हो वह जातक च्ियों का अप्रिय, कामेच्छा बहुत कम, दुवंल ओर रानरुभँ के भय से युक्त होता है । ‘“अकामुकः सुकामिनी सुपौरुषेणवजिंतः | कलिप्रियः कुकम॑ङृवेत्‌ कुसंग संरतः ॥ रुजांग॒दुवैखो जडोति दंभलोभसंयुतः | कुशंकया नरः सुरारिपेऽरिगेहगोऽकविः” ॥ हरिवंश अथे–यदि शुक्र चट भावमेंदहोतादै तो नातक सुन्दरी चर्यो के मिलने पर भी कामेच्छाहीन रहता है । यह पौरषदहीन, ज्लगड़ाट्‌, रोगी, बुरे काम करनेवाला; बुरी संगति में रहनेवाखा, बुद्धिहीन; टोगी, लोभी भौर सदां दांकाङटचित्त होता है | ‘अकामुक’ उसे भी कह सकते जिस पर कामवासनापूर्ति का भूत सदेव सवार नहीं होता है | रिप्पणी–कामेच्छा का नितान्त अभाव, दूसरे शन्दो म नपुंसकता दोष- म्रस्तता षष्ठ शुक्र का असामान्य फल है । हरिवंश का यह फर अनोखा ई । जो जातक अनेक युवतियों से अवैध सम्बन्ध जोडता है वद्‌ नितान्त कामेच्छाहीन क्योकर हो सकता है भौर नपुंसक के साथ तरुण परकीया चिर भी क्यांकर सम्बन्ध जोड़ सकती है | पाश्चात्यमत-षष्ठ भावगत शुक्र के प्रभाव मे उत्पन्न जातक नीरोग होता है किन्तु अतिभ्रम से स्वास्थ्य विगड़ता है ¦ उसके मित्र अच्छे होते है । यह नियमित नहीं होता । इसे सुख ओौर वैभव अच्छा मिल्ता है| अपने नाम से स्वतृत्र व्यवसाय म इसे अच्छा लाभ नदीं होता । नौकर के रूप मे यरास्वी होता है । अच्छेर्नौकरोंसे इसे छाभम होता है। . यह शुक्र श्म सम्बन्ध में हो तो अच्छे कपड़ों कौ श्वि होती है । नौकरी से भौर नौकरी से खभ होता दै । विवाह के वाद्‌ आदहारविहार नियमित रखने से प्रकृति अच्छी रहती ह । यदौ शुक्र अञ्चम सम्बन्धमें हो तो अति विंषयभोग से स्वास्थ्यं बिगडता दै

जननेद्रिय सम्बन्धी गुप्त रोग होते है। मू्रपिंड के विकार, प्रमेह, उपदंश आदि तथा गलेकेरोग होते ईै॥

शचक्रफट ३९१९७

भरगुसूत्न-ज्ञातिप्रजासिद्धिः शनुक्चयः पुत्रपौत्रवान्‌ । सपान व्ययकारी मायावादी, रोगवान्‌ , आयं पुत्रवान्‌ । भावाधिपे बख्युते रातुज्ञातिब्वद्धिः । रातु- पापयुते नीचस्थे भावेशे इन्दुस्थे शत्रज्ञातिनाशः ॥

अथें–ख्गन से छठे स्थान में श्ुक्रहोतो जातक जाति वा सतानवाखः, ` रात्रुओं का नाश करने वाला, तथा पुत्र ओर पोर वाखा होता है । यह जातक अपने धन का खम्वं अनुचित प्रकारसे करता रै; यदौ धन का व्यय होना चाहिए वहो व्यय नदीं करता है । यह कपटी भौर रोगी होता है॥ इसे रेष्ठ पुत्र होता दै ॥ यदि षषेश बलवान्‌ हो, वा बलवान्‌ प्रदो से युक्त होतो रात्र ओर अपनी जाति के रोगों की इद्धि होती है । यदि यह शक्र रत्तु तथा पापग्रह से युक्त हो, वा भपनौ नोच राशि (कन्या) मेदो, अथवा षष्ठेरा के साथ चन्द्रमाचैढादहोतो शत्रु ओर जाति का नाश होता रै ॥

विचार ओर अनुभव- कई एक ग्रन्थकारो ने षष्ठमावगत श्चक्र के फल बहुत श्चभ के है, ओर कद एक ने बहुत बुरे °तथा बहुत अश्चुभ बतव्मएट

है। शछभफलठ पुरुषराशि के है ओर अञ्युभफल खीराश्चि के ईै-रेसा प्रतीत होता है।

यदि धष्ठभाव का शुक्र; ष्रष; कन्या वा मकरराशिका होतो जातक को अच्छी पकी मिल्तौ है जो क्गड़ाद्‌ होनेपर भी प्रेमपूर्वक रहती दहै। ये लोग कामुकतो होतेर्है, तौ भी कुमागंगामी-बाहरके मार्गौ का अभवख्म्ब नदीं ठेते । ये सदैव ऋणी रहते द । इनकी मृत्यु भी ऋणी अवस्था में-ऋणी स्थिति में होती दहै। इनकी कन्या विधवा होकर पिता के आशित रहती है । व्यवसाय मे प्रगति नदीं होती | सम्मान भी शीघतासे प्राप्त नदीं होता। पत्ती गरीब घर की, संतान थोड़ी होती है। सदैव कंठ भोजन करने की

आदत से रोगी रहते है । कक, इृिकया मीनमें शुक्र के होने से व्यभिचार की आर चिचाव रहता है ।

पुरुषराशि का श॒क्र होतो खरी खुन्दर, बोलने मँ ऊुछ ककंश तथा सुकेशी होतीदै। ख्ीराशिका श्क्रदहोतो कोमल्मंगी पत्ती होती है-परन्तु इसके विचार पुरुषों जेसे होते द। सन्तान अस्पमा्ामें होती है। अपने धने यदि कोई व्यवसाय किया जाता दै तो असफल रहता है । शुक्र के कारकल्व के व्यवसाय भी नुकसान के कारण बनते है । यदि कोई धन्धा बिना पूजी का होतादहै, तोलाम हदोतादहै। ख्रीराशि के शुक में मामा-मौसियों की स्थिति अच्छी नहीं होती । पुरुषराशि का श्युक्रहोतो सुख प्राप्ति होती दहै।

सप्रमभावगत शयु का फट– कलत्रे कटत्रात्‌ सुखं, नोकख्त्रात्‌ , कटर” तु शुके भवेत्‌ रत्नगभम्‌ । विखासाधिको गण्यते च प्रवासी, प्रयासार्पकः के न सुद्यं॑ति तस्मात्‌ ॥ ५॥

४५८ ‘वमरकारचिन्तामणि का तुरनात्मक स्वाध्याय

अन्वय शक्रे कलत्रे ( स्थिते ) कल्वात्‌ सुखं ८ भवेत्‌ ) कलत तु रलगभं ( भवेत्‌ ) सः विलासाधिकः प्रवासी च गण्यते: सः च प्रयासाल्पकः गण्यते, तस्मात्‌ के न मुह्यन्ति ॥ ७ ॥ |

सं° टी कलत्रे सततमस्थे शुक्रे सति कठ्त्रात्‌ वनितायाः सुखं भवेत्‌ + कख्करात्‌ श्रोणिप्रदेशात्‌ सुखं नो भवेत्‌, कटिव्यथा भवेदित्यर्थः, “कटनेश्रोणि- मायेयोः? इति अमरकोशात्‌ । कल्चर खरी रकगर्भं सपुत्रगमाभमवेत्‌ । विखासा- धिकः अतिक्रीड्‌ः, प्रवासी विदेश्गमनशीलः, प्रयासास्पकः स्वस्पो्यमः गण्यते कथ्यते । तथा के तस्मात्‌ पुरुषात्‌ न सह्यन्ति-चातुय-मोहिताः स्युः उत सवे ॥७॥

अर्थ–यदि जातक के ससमभावमे शक्र होतादै तोउसेखरी सुख प्राप्त होता है । यँ (अमरकोषः के अनुसार कल्चशब्द भार्यावाचक दहे | समभव ( कल्तरभाव ) का द्यक्र खरी खखकारक माना जाता है | किन्त कटर से अर्थात्‌ किप्रदेश से सुख नहीं मिलता है– अर्थात्‌ जातक की कमरमें पीड़ा होती रहती दै । यहोँ दूरा कल्चर शब्द्‌ कमर (श्रोणि ) के अर्थम प्रयुक्त हुआ हे । जातक की भार्या के गर्म से रलवत्‌ श्ुद्ध-सचसि्र तथा माग्य- वान्‌ पुत्र पैदा होते है । जातक विासौ, परदेश मे रहने बाला-धोड़ा प्रयास करने वाल अर्थात्‌ माराम तल्ब होता है । कौन एसे है जो इसके सुन्दररूप पर मोहित न हो–अर्थात्‌ यह जातक बहुत आकर्षक होता दै । अथवा यद जातकं इतना व्यवहारष्वतुर होतादै करि इसके चातुर्य्य से सभी मोहित होते है ॥ ७॥

वुख्ना– “कवौ कान्तागारं गतवति कल्त्रादतिसुखं, कटिग्रान्ते कष्टं भवतिविषमे वातजनितम्‌ | अपत्यानां सौख्यं रतिरपि वरस्रीभिरधिका, न के वै मुह्यन्ति प्रवररसिकास्तस्य कल्याः” ॥ जीवनाय अथं–जिस मनुष्य के जन्म समय मेँ श॒क्र कल्त्रमाव अर्थात्‌ स्तमभाव मंदहोवहस्रीसे पणुल प्रात करता है । किन्तु वातजन्य कष्ट कमर मे मायी कष्ट काकारण होता है। इसे सन्तान सुख प्रचुर माराम प्राप्त होता है । खन्दरी छ्ियां के उपभोग का सुख अधिक से अधिक मिल्ता है । यह एक श्रष् कलाकार होता है, ओर इसकी कला से सब रसिक श्रेष्ठ रोग मोहित होते है । “प्रियकलदहोऽस्तगते सुरतेप्सुः? आचायंवराहमिहिर अथय शक्र जातक के सतमभावमें होतो यह कलहवल्छम भौर सुरताभिलाषी होता है | “अतिरूपदारसौख्यं बहूविभवं कलहवनितं पुरुषम्‌ । जनयति सप्तमधामनि सौमाग्यसमन्वितं शुक्रः” ॥ कल्याणवर्मा

श॒क्रफर ` ३५९

अथं- सप्तमभाव स्थित शुक्र रेते जातक को जन्म देता जो अतीव खन्द्र होता है । इसे ख्रीषुख प्राप्त होता है । यह वैभवयपू्णं होता है । यद किसी से ल्ड़&-्गड़ा नहीं करता है-यह भाग्यवान्‌ होता है ।

टिप्पणी-षराहजी क अनुसार जातक करहप्रिय होता है परन्तु कल्याण

वमा के अनुसार जातक किसी से व्ड़ाई-्षगड़ा नटीं करता रै भौर शान्तिप्रिय होता है ।

““वेश्यास्रीजनवह्छमश्च सुभगो व्यंगः सिते कामगे? | वैद्यनाथ अथे- जिस जातक के सप्तमभाव मे शक्र दो उसे वेद्यां से पेम होता है । सिय मौ इससे प्यार करती है । य सुन्दर स्वरूप होता दै । इसके शरीर मे कुच व्यंग होता ई । | “श्चक्रे मन्मथरारिगे बल्वति स्रीणां वहूनां पतिः । शक्रे सौभाग्यसंयुक्ता श्रीमती च बलान्विते” ॥ थे अथं- जिसके सप्तमभाव मेँ शुक्र बख्वान्‌ हो वह जातक एक से अधिक

स्रियो का पति होतादहै। यदि किसी खरी के सप्तमभावमे शक्र दहो ओर यदह शक्र बल्वान्‌ हो तो वद भाग्यवती तथा धनवती होती है |

“युवतिमंदिरगे शरगुजे नरो बहूुशुतेन धनेन समन्वितः । विमल्वंश्चमवप्रमदापतिः भवति चाख्वपुः मुदितः सुखी ॥ करे यौवनाढ्या । गौरी सुरूपां स्फुटपंकजाक्षीं सितः दयमक्ष श॒भदष्टयुक्तः । मोपां्कगते शक्रे भौमक्षेत्रगतेऽथवा- भौमेनयुतदश्वा परस्रीभोगमिच्छति” ॥ गर्भ अथं– शुक्र यदि सप्तममाव ( कलत्रस्थान ) मेँ हो तो जातक पुत्रों से तथा धन से युक्त होता है। यह सुंदर होता है। यह प्रसन्नमनाः तथा सुखी होता

दै। इसकी पकी कुलीन होती है । यह श॒क्र यदि श्चभराशि मे, श्चभ अह के साथवा श्युभग्रहकीद्ष्टिमेहोतो जातक की परली तरुणा होतौ है ओर बहुत

सुन्दर, गोरे वणे की तथा प्रफुछित कमल जैसी ओंखों वाटी होती है । यद शक्र मगल के साथ; दृष्टि मे, नवां मे वा मंगल की रारियों ( मेष-बृश्चिक ) में हो तो परल्रीगमन की इच्छा रहती ह । | “धुवतिमंदिरगे भृगुजे नरो बहुखतेन धनेन समन्वितः । विमट्वंश्चभवप्रमदापतिः भवति-चारुवपुः मृदितः सुखी? ॥ भमानसागर अथं–सप्तमभाव मेँ श्चक्र हो तो जातक बहत पुत्र भौर धन से युक्त, शरेष्ठ कुल मे उपपन्न स्री का पति, सुंदर, सदा प्रसन्न ओर सुखो से युक्त रहता ई । “बहुकलाकरुशलोजलकेलिकरद्‌ रतिविलासविधानविषक्षणः। अतितरां नटिनीङृतसौहद्‌ः सुनयना भवने भृगुनंदनः” ॥ दण्डिरान

३६० चमर्कारचिन्तामणि का तुटनार्मक्‌ स्वाध्याय

अ्थ–जिखके जन्मकाल में सत्तमभाव मे शुक्र स्थित होता दै वह जातक अनेक कलाओं में चठुर, जलक्रीडा करनेवाला ओर वेद्यां से प्रेम रखने वाखा होता है। टिप्पणी-आपटे की डिक्शनरी के अनुसार नरौ-नणिनी एका्थंक है| न्नी आर वेद्या एकार्थक दहै। नाचनेवाी वेद्याँ होती है| नट अर्थात्‌ सूच्तधार कीसी मी नदी वानयिनी होती है क्योकि अभिनयमें सहायक होती है | “बहुकलाकुरालोजल्केलिकरद्‌ रतिविलासविधान विचक्षणः अधिक्ृतान्तु नेटीवहुमन्यते सुनयनाभवने भरगुनन्दने? ॥ वृहद्‌ यद नजातक अथं-सप्तमभाव में शुक्र के होने से जातक अनेकविध कलाओं में निपुण यौर चुर, जलक्रीडा करनेवाला, कामक्रीड़ा म चतुर तथा किसौ एक नटी पर प्रेम करनेवाला होता दै | रिप्पणी-इसे १४बें वधं स्त्रीप्रापि होती है । “सप्तमे भ्ररुपुत्रे च धनीदिव्यांगनायुतः। नीरोगः सुखसम्पन्नोवहूुमाग्यः प्रजायते” ॥ काल्लीनाथ अर्थ-जिखके सप्तम में शुक्र होतो वद जातक धनी, सुन्दरी तथा उत्तम सत्री से युक्त; नीरोग, सुखसम्पन्न तथा बहुत भाग्यश्चाी होता हे । «’जनमनोहरा, स्योकम्‌?› ॥ व शिष्ठ अथे-इसकी स्त्री बहूत आकर्षक होती है । जातक को शोकमणग्न होने के अवसर बार-बार आते है । ““सपतमेतुस्थिते शुक्रेऽतीवकामी भवेन्नरः यत्रकरुचस्थिते पापयुते स्त्रीमरणं भवेत्‌” ॥ परश्चरहौरा अ्थ–यदि शुक्र कल्त्रभावमें हो तो जातक अत्यन्त कामुक होता दहै। पापग्रह युक्त होकर यदि किसी ओर मावमेंहोतोस्त्रौीकीमृ्यु होती हे, “शुक्रे कलत्रे त्वतिकामुकः स्यात्‌ । गर्भिणीसंगमो भगौ | जलम्‌ । वाणिज्याद्‌ विभवागमम्‌* ॥ वेंकटेश्वर अथं–कल्त्र स्थानगत शुक्र हो तो जातकं अतीव कामुक होता रहै। गर्भिणी ते भी कामक्रीडा करता है। जलक्रीडा करताहै। इसे व्यापारसे घनलखम होता है। “कलिश्रियो गीतरुचिः रतिप्रियः शेष्रोऽम्बुखीटाकुशकः सितेऽस्तगे? ॥ जधदेव अथ-सस्तभाव अर्थात्‌ सप्तममावमें श्ु्रके होने से जातक स्चगड़ादट- गायन तथा कामक्रौड़ा मे आसक्तः जलक्रीडा मे निपुण भौर श्रेष्ठ दोता हे । ““सुमायमसतौरतं मृतकट्नमाव्यं महे” ॥ मन्त्ेश्वर

दक्रफर 2६१

अथः सत्तम में श्यक हो तो जातक की पल्ली सुन्दरी-रूपवती तथा कुरखीन होतो है किन्तु इसकी मव्य शीघ दयो जाती है । यदह धनवान्‌ होता हे । यं कुष्वरित्रा जधनचपल्म, कुल्यास्ियो का प्रेमी होता दै । ८“ृगुः गौरर्णी वरां । कखत्रात्‌ सुखं भ्यते तेनपुंसा । भवेत्‌ किन्नरः किन्िराणां च मध्ये ॥ स्वय॑ कामिनी वै विदेरो रतिः स्यात्‌ । यदाञ्चक्रनामा गतः श॒क्रभूमौः? ॥ जागेश्वर अ्थः- इस जातक कीस््री गरेरंग कीौर शरेष्ठ होती है। जातक को स्त्रीसुख मिलता है । यह गानविदया मे निपुण होता है। यह परनारो आसक्त होता है । | ““लद्नात्‌ सप्तमगः श्चक्र।जन्भकाठे यदा भवेत्‌ । पुरुषार्थैविद्धीनः स्यात्‌ शेकितश्च पदे पदे’* ॥ गौरीजातक अर्थ- जिसके जन्मकाल मे श्चक्र स्तममावमे हो तो वह पुरुषाथंदहीन होता है भौर सदा शंकायुक्तं रहता दै । ‘“उदारबुद्धिसुज्वलांगस॒जतिं कुलेऽधिकां गरृपग्रतापमूजितं प्रसन्नतां प्रवीणताम्‌ । .. न रोगतां युभोगतां करोति मानवस्य चेत्‌ , सुकामिनीसुखाधिकं भृगुः सुभामिनीगहे* ॥। हरि वंश अ्थै–यदि जातक की कुण्डली मे स्तमभावमें शुक्र हो तो जातक की ` बुद्धि उदार, शरीर उञ्वरु, छु उन्नत तथा प्रताप राजा जैसा होता हे । जातक प्रसल्न, प्रवीण, नीरोग, उपभोगों से युक्त होता है। यह खरी से खुल ` प्राक्त करता हे । | श्रगसूत्र-भति कामुकः, भगयुम््रकः। अर्थवान्‌ । परदाररतः। वाहनवान्‌। सकल्कार्यनिपुणः । स्व्ीदेषी । सतूप्रधानजन्घुकल््ः । पापयुते शनुक्षेत्र अरि नीचगे कलत्रनाशः । विवाहद्यम्‌ । बहुपापयुते अनेककल्वांतरपातिः पुत्रहीनः। शुभयुते उच इषे ठे कख्रदेशे बहुवित्तवान्‌ । कलत्रमूजेन बहुप्रावस्ययोगः । स्नीचिन्तकः । स्वीगोषटि-पाठातरम्‌ । | | अर्थ ससममाव में शक्र हो तो जातक बहुत कामुक, परस्त्रियो मे आसक्त; धनी, वाहनों से युक्त, सकल काय निपुण, स्वियों से द्वेष करनेवाला होता हे | यह अपनी विवाहिता खी से वैमनस्य रखता है । यह अथं मी संगत दै-तभी तो परकीया मे आसक्त स्देगा । इसे खलाह देनेवाले आस, स्त्री आदि अच्छे होते है । यह शक्र पापग्रह के साथ चतुग्रहकीराशि मे वा नीच राशिमेदहोतौ पदिटी पती की मृव्यु होती है भौर दूसरा विवाह होता है । इस श॒क्र के साथ बहुत पापग्रह दों तो अनेक विवाह होतेह! पुत्र नीं दते ई । यद छक्र द्भग्रह के साथ वा उच्च राशिमें वा वृष अथवा तुखराशिमे हो तो जातक

३६२ षमसर्कारचिन्तामणि का तुलनास्मक स्वाध्याय

धनवान्‌ होता है । स्त्री के सम्बन्ध से इसे बहुत उन्नति प्रास्त दती है। स्री के विषय मेँ इसे भारी चिन्ता रहती है । पाठान्तर- यह स्तर्यो के समूह में रहनेवाला होता हे | पाश्चात्यमत–इस स्थान मं शुक्र निसर्गतः वल्वान्‌ होता है | इस व्यत्ति का विवाह छोटी मायु मेही सुन्दरी मौर सद्रण सम्पन्ना युवती से होता दै तथा विवाह सुख अच्छा मिलता ईै। विवाह के बाद भाग्योदय होता हे, विपुल धन खाभदहोताहै। इस शुक्र से साञ्लीदारी मे तथा कवचहर्यों के मामले मं सफलता मिल्तौ है । गायन, नायक आदि लोगो के मनोरञ्जन ॐ साधनां से सम्बन्ध रहता है । सार्वजनिक स्वरूप के व्यवहारो में यह॒ अच्छी सफल्ता प्राप्त करता है । इन व्यवहारं मे ज्गौ की सम्भावना मी नहीं होती । इस व्यक्ति की स्वरी, पुत्र, मित्र, सान्चीदार भादि से अनुकूल व्यवहार प्रात होने से सुखी जीवन ध्यतीत होता है। पुत्रों पर विशेष प्रेम होता है। यह शक्र इश्क यामकरमं हो तो व्यभिचारी मानसिक वृत्ति होती रै। यह शुक्र दूषित हो तो विवाह देर से होकर स्व्ीसुख अच्छा नहीं मिल्ता। साञ्चीदार तथा मिघ्रांसे हानि होती है। विचार ओर अनुभव- सत्तमस्थान का श्रुक्र निसर्गतः वलवान्‌ होता दै; क्योकि. निसगकुंडटी मे यह सप्तमेश होता है ¦! अतः आआवदयकतया सप्तमस्थान म श्चम फल ही मिल्ने चाय । शक्राच दैत्यो का शुर माना गयां है । इसे ज्ञानी मी कहाहै। सप्तमकी व॒लछाराशि का स्वप्र भी ज्ञान भौर फौरष का ्ोतक हे । कड एक ग्रन्थकारो ने शुभफल बतलाये है भौर कई एक ने अश्चम फल कहे हँ । शुभफल का अनुभव पुरुषराशि म तथा अञ्यभफल का अनुभव स्त्रीराशि मं अच्छा प्रात होता है। नैसर्गिक कुण्डली में धन ओौर सततम, इन दोनों मारक स्थानों का स्वामी छक्र दै, अतः कुछ अ्न्थकारों ने अद्युभ फल कटे है | | शक्र यदि मेष, मिथुन वा वुलामें हो तो स्त्री पुरुषवत्‌ सुन्दर होती है। यह स्त्री बुद्धिमती, सांसारिक व्यवहार मे चतुर, कुटम््र में मिल्जुक कर रहने वाटी होती है । यह पति की प्यारी, कामुकी, घेयंवती, आनन्दी, कलं में निपुण तथा सुशिक्षित होती है । पति पर अधिकार रखती है । सन्तति थोड़ी होती है । पति की सतिकामुकता से इसका शरीर विजत हो जात। है ओर इससे इसे कष्ट होता है । | सिंह वा कुममें शुक्रदो तोस्ती स्थूलकाया, गम्भीर चेहरे की भौर मञ्चले कद कीहोतीहे। यह संखारके कामों मे मग्न तथा बुद्धिमती होती है) पुखषरारि काश््रहोतोस्ी संसार मे विशेष आसक्त नहीं होती । विपत्ति मे इखका धे चयूट जाता दै । किन्त दैवी सहायता से किसी तरह ॒बेरोक-गोक इसके व्यवहार चरतं रहते है |

शक्रफख ३६३

धनु राशिमेंश्क्रके होने से स्वरौ सुन्दरी, ऊचे कद की, प्रमाणबद्ध शरीर कौ होती है । यह स्त्री “विपदिधै्म्‌” की उदाहरण होती है । इसे कामेच्छा कम होती है-रहन-सहन मे अव्यवस्थित नदीं होती । अनुभवी बृदौ स्त्री कौ भोति सोच-समञ्च कर व्यवहार करती है । पति को नेकं सलाह देती ई । खेद है कि यह पति को विरोष धिय नहीं होती है ।

ककं, चृधिक वा मीन में यह श्क्रहोतो स्त्री का शरीर दुबला-पतत्म; कद ऊग्वा, चेहरा खम्बा, चमकीली अखि, लम्बे आर वचमकदार केश, त्वष्वा कोमल ओर मनोहर होती दै । यह स्वार्थी, कलहप्रिय, कुटुम्ब मेँ मिलकर न रहनेवाटी तथा खर्चौटी होती है। अपने हाथ मे सत्ता रखने की चेष्टा सदैव रखती है ।

ष कन्या वा मकर रारिमंश्चक्र हो तो स्तौ किंचित स्थूलकाया, कद छोटा, गो चेहरेवाखी होती है । केश थोडे किन्त॒॒घने होते है। सत्ताकी इच्छुक, धरवार सम्मालने वाली, सम व्यवहार करनेवाली, रोगियों की सेवा करनेवाली होती है । |

यदि शुक्र खरीराशिका होतो स््रीके गुण पूर्णतया विकसित होते ई। अविवाहित रहना, पदी से विभक्त हो जाना, दो विवाह का दोना, सत्तम कर के अद्यभफल है । इस प्रकार के फलों का अनुभव, वृषभ, ककं, वृश्चिकः मकर तथा मीन राशियों मे .विरोषतया होता है। पुरुषराशियो मे, मिथुन ओरधनु में भी यदी फल अनुभूत होता दै पुरषराशि का श्चुक्र बहुत कामुक बनाता है ॥ | |

मेष, वृश्चिक, मकर तथा कुम्भमें यदि श्चुक्र हो तो पत्नी विजातीया, अथवा आयु में भधिक होती है ॥

सिद ओर मीनमेंश्युक्र होतो विवाह के बाद भाग्योदय होता है| किन्तु जब तक स्त्री जीवित रहती है तभी तक वैभव बना रहता है । प्रथम आयुमें ४० वरं तक स्थिरता वा युख नहीं मिकते ॥

पुरुषरारि में यह शुक्र हो तो २१ से २६ व॑ तक, अथवा २८ से ३२ तक विवाह योग होता है। शुक्रप्रधान व्यक्ति मुख्यतः स्वतन्न व्यवसाय करते है । ख्रीराधिकाश्चुक्रहो तो नौकरो भेयस्कर होती ₹है। लीराशि में व्यवसाय अर नोकरी दोनों अच्छे रहते ई । साञ्चीदारी पसंद नदीं होती ॥

मेष, मिथुन; दला तथा धनुमें श्क्रदहो तो गायन, वादन; भभिनय आदि मे अथवा ठेखन;, अध्यापन, मुद्रण आदि मे प्रृत्ति होती है। अन्य राशियों मे जातक व्यापारी होते ह । प्रवृत्ति वित्मसी, तथा रंगीटी किन्तु विरोषता यह कि स्री का सम्मान मी करते्है। ल्ञीके प्रति हीनता की दष्ट नदीं होती ॥

३६४ ‘वमस्कारचिन्वामणि का सतखनास्मक्‌ स्वाध्याय

खीराशिमें श्रदहो तो चक्ति इसके प्रतिकूक होतीहे। खरी को तुच्छ तथा कामवासनापूतिं का साधन माना जाता है ॥ अषटमभावगत शक्र का फलट– जनः श्षुद्रवादी चिरंचारु जीवेत्‌ चतुष्पात्‌ सुखं दैत्यपूञ्यो ददाति । जनुष्यष्टमे कष्टसाध्योजयाथेः पुनः वधते दीयमानं धनर्णम्‌ ॥ ८॥ अन्वयः–जनुषि अष्टमे ( स्थितः ) दैव्यपूञ्यः चदुष्पात्‌ सुखं ददाति । ( सः ) क्षद्रवादी ( स्यात्‌ ) चिरं चारुजीवेत्‌ , ( तस्य ) जयार्थः कष्टसाध्यः ( स्यात्‌ ) दीयमानं धनर्णं पुनः वधते ॥ ८ ॥ सं टी<– जनुषि जन्म समये अष्टमे देव्यपूज्यः शुक्रः चतष्पदां गोऽश्वादीनां सुखं ददाति । तथा क्षुद्रवादी दुष्टवक्ता; चिरंबहुकाटं चार सुखेन एव जीवेत्‌ । जयः अथ॑श्च कष्टसाध्यः यत्नेन साध्यः । धनणं उत्तमत्वे अधमर्णाय दीयमानं पुनः वदधते ॥ ८ ॥ अथे- जिस मनुष्य के जन्म खगन से आवे स्थानम श्चुक्र हो उसे गाय; भस, बकरी घोडा आदि से सुख होता दहै । वह व्यर्थं का वाद्‌ करता है-भर्थात्‌ जातक का बोलना नीचं जैसा होता है। जातक बहत समय तक सुखसे जीवन व्यतीत करता दै-अर्थात्‌ यह दीर्घायु होता है। इसे विजय भौर धन लछामकष्टक्ते प्राप्न होतेर्दै। बार वबारदेत रहने पर इसकाक्रण बटृताही जाता है-अर्थात्‌ सूद बदटृता जाता दै ॥ ८ ॥ तुटना- -“यदा श्चक्रे मत्य गतवति कठोर प्र्पनं | चिरंवैजीवित्वं गजतुरगगोभत्यनि करः ॥ सुखं कष्टादर्थः पुनरपि घनण तनुभृतः । प्रवद्ध सगच्छत्यपि रिपुजयः कष्टकरणात्‌ । जीगनाथ अथे- जिस जातक के जन्म समय मं श्चक्र अष्टमभावमे हो वह कटोर वचन बोल्नेवालछा होता है । यदह चिरजीवी-अर्थात्‌ दीर्घायु होता है। इसे पोपायों से अर्थात्‌ हाथी, घोड़ा, गाय, ओर नौकर सेसुखहोतादै। धन का लाम क्ष्टसेहोतादहै। कमी धन कीव्द्धि अर कमी ऋणकी वृद्धि होती है । यह शत्रुं पर कष्ट से विजय प्राप्त करता है ॥ ८८अष्टमे नीचः 1? अचायं नराहमि्टिर अथ– अष्टम श्रक्र हो तो जातक नीष्व अर्थात्‌ रवकुखानुचित करम्॑रत्‌ होता है । “दीर्घायुः सवंसोख्यातुख्वल्धनिको भागवे चाष्टमस्थे ।” भेद्यनाथ अ्थे- चक्र अष्टमस्थान मेहो तो जातक दीर्घायु, सर्वसौख्य युक्त, अतीबरटी सौर धनिक होता हे । ८“चिरायुषमिटाधिपं धनिनमष्टमे संस्थितः ।। संत्रेश्गर

शक्ररुल ३६९५

अथं-अष्टम में श्चुक्र हो तो जातक धनी, दीर्घायु ओर भूमिपति होता है । (“अष्टमस्थे दैत्यपूज्ये सरोगः कलहप्रियः वृथाटनाः कायदहीनों डनानां च पियो भवेत्‌ ॥ काञश्चीनाय अथी-मा््व स्थानम यदिश्युक्र हो तो जातक रोगी-ञ्चगङाद्‌; व्यथं घूमनेवाला निकम्भा तथा मनुष्यों का प्यारा होता है। नीचः सकातो विधनः शटोऽमयः सख्रीपुत्र चिन्ता सहितोऽटमेभूमीं । जदेग अभ-अष्टममे ्चक्रदहो तोजातक वंशके छिए अनुचित कमं करने वाला; स्री सहित, दस्र; दजन तथा निभेय होता है-दइसे स्री ओौर पुत्र की चिन्ता बनी रहती दहै । ` “दीर्घायुरनुपमथुखः शुक्रे निधनाभिते धनसमृद्धः भवति पुमान्‌ दृपतिसमः क्षणेक्षणे ` छन्धपरितोषः? ॥ कल्याणवर्भा थ– क्र यदि अष्टभावमें दो तो जातक दीर्घायु, बहूतसुखी, धनवान्‌ ; राजठुस्य, तथा सवथा संतुष्ट होता है । । प्रसन्नमूर्तिः दरपमानठन्धः शटोऽतिनिभ्शंकतरः सगर्वः । खरी पुनचितासदहितः कदाचिन्नरोऽ्टमस्थानगते सिताख्ये ॥ इण्डिराज –जिस जातक के अष्टमभाव में श्चक्र हो वह प्रसनचिप्त, राजमान्य; शठ, निभयः षमंडी, कभी-कभी खरी तथा पुत्र की चिता से युक्त होता है । नषनसद्मगते भृगुजे जनो विमलघ्मरतो अपसेवकः भवति मांसप्रियः पृथुरोचनो निधनमेति चतुर्थवयस्यपि ॥* मानक्षागर -अष्टमभाव मं शक्र हो तो जातक धर्मात्मा, राजसेवक, मांसभोजन- प्रिय; विशालनेत्र, होता है । ७५ वषं के बाद इसका मरण होता दै ।

अन्रृणें पिव॒राघत्तेती्े मरणमेवच । नयेत्‌ पिवकुखंपुण्यं रंभ्रगोभररुनन्दनः ॥

सूयादिभिः निधनगैः निधनं हुताशनौकायुधञ्वरजमामयजंक्रमेण । कफात्‌ च सनिलात्‌ । गुखुसितेन्दुखुता निधनेऽथवास्थिरभगाः सततं बहु कष्टदाः ॥°

ग्गं `

अथे-अष्टमश््रहोतो जातक पिताका ऋण चुकाता है। तथा कुल कौ उन्नति करता है | इसकी मृत्यु किसी तीथं क्षे्रमें होती है । इसकीौ मृ्यु वात-कफ सेया क्षुधा से होतीहै। यह श्चुक्र यदि स्थिरराशिमें होतो सतत कष्ट होता है | ^तृष्णातः सुखरोगाच दन्तदोषात्‌ त्रिदोषतः | विभूच्या वनसप्वेन भुजंगात्‌ विषभक्षणात्‌ ॥ लूतया विषकण्टेन’ सुरतोत्थप्रकोपतः। | बहुदुःखाद्‌ भवेन्‌ मल्युः मृस्युभावगते सति? ॥ काश्यप अथे–अष्टमभाव का शुक्र यदि मेषमेंदह्ोतोत्ृष्णासे, इषभमेंहोतो मुखरोग से, मिथुनमें होतो दंतरोगसे; ककमें त्रिदोषसे, सिंह में विषूची

2६६ चमर्कारचिन्तामणि का तुरुनाव्बक स्वाध्याय

से; कन्या मं जंगी जानवर से, वला में पि से, दृधिक मे विष खाकर, धनु

मं दत्‌ से; मकर में विष प्रयोग से; कुम म अतिकामभोग से, मीन में अति दुभ्खसे म्रत्यु होती है। “प्रसच्मूतिः व्रपन्धमानः सदादहिश्ंकारदितः सगर्वः | खी-पुनरचताखहितः कदाचिन्‌ नरोऽष्टमस्थानगते सिताख्ये ॥* वृहद्यवनजातकष अथे–अष्टमभावगत ज्क्र हो तो जातक देखने मे सुन्द्र, राजाद्वारा सम्मानितः निमय-गवींला, खी तथा पुत्रों की चिता से युक्त होता ई । ““नरो नीचवक्ता पञ्युथयुक्तः धनं वद्ध॑ते रोगकरतग्रहः स्यात्‌ | चिर्‌जीवते मत्युगेदेचनूनं खदाचाष्टमे भागंवः स्यात्‌ तदानीम्‌ ॥” जागेश्वर अथे-अष्टम शकर हो तो जातक ेसा वष्वन बोलता है चैसे गवौ छोग बोूते ह । यह पञ्यभों के छंड का माछ्िकि होता है । यह धनी, रोगी तथा दीर्घायु होता है। थृगुसूत्र–सखी । चथ वषे मात्रगंडः । मध्यायुः । रोगी । दितदारवान्‌ | असंव॒ष्टः । ञभयुते भक्ते पूर्णायुः । तत्र पापयुते अल्पायुः | अथे- जातक सुखी, मध्यायु, रोगी, असंव्॒ट होता है । इसके चये वधंमें माता परसंकट आता है। इसकी पल्ली इसका हित चाहने वाटी होती हे | यमग्रह की राशिमे, वा युति में यह शक्र हो तो जातक पूर्णाय होता है। , यदि शुक्र पापग्रह के साथहोतो अस्पायु होता दै । पाश्चात्यमत-यह शुक्र बल्वान्‌ हो तो विबाहसे, स्ट्ेते, वा वारित के रूप मं अच्छा धनप्रातत होता है । स्री-घनप्राप्त होता दै | वा किसी आप्तस्रीकी म्त्यु से धनप्रा्त होता दै। मृत्युप्रसे, साश्चीदारीसे लाभ होता है| यह शक्र पीडित होतो पत्नी खर्चौखी होती दहै। इस शुक्रसे वीमे के व्यवहार में खमदहोतादहे। मृघ्युशांतिये होती दै। दुर्घयनाओंका भय नहीं होता। यही शुक्र निवंख्डो तो वीमे कौ रकम पूरी नहीं मिल्तौ। मूताशय के रोग होते ह । ट्रस्टी होकर अच्छा धन प्राप्त करते है। विचार ओर अलभव–आर्वँ स्थान मृप्युस्थान है । इस स्थान मे यदि शुभग्रह हो तो मायु मं थोड़ा बहत सुख मिल्ता दै) आर्थिक, शारीरिक वा स्रीविंषयक सुखोंमेषे कोद्र एक यु प्रयत माघ्रा मेँ मिलता है! इस स्थानम ख्रीराशिकावा पुरुषराशि का मेद नहीं दै। काञ्चीनाथ का बतलाया दमा अञ्युमफल भी अनुभव मे आता है । गायन-वादन आदि कलभं में छोटी उमर मेँ सफठतारूपी शुभफल का अनुभव ट्र, पंचम, सप्तम, नवम वाएकादश्च मँ श्युक्रके होनेसे मिख्तादहै। यदह फक अष्टमस्थान के शक्त कानदींदहै। जिन व्यक्तियों के जन्ंग मे अष्टमस्थान म शुक्त होताहैवे विद्वान्‌ ओर सदाचारी होते ई । इस श्युक्र से पत्नी स्वामिमानिनी, पेयंसंपज्न, रेष्ठ स्वमाव वाली, मधुरभाषिणी तथा दिश्वास्योग्य होती है ।

शक्रषले ३६७

ने

यदि अष्टम शुक्र मिथुन वा बृश्चिक राशिमेंष्ोतो स्री प्रौ से कलह होती है । सल्रीसुख नहीं मिरुता । घन स्वल्प, व्यवसाय अव्यवस्थित तथा अस्थिरता रहती दै । यदि इस स्थान का श्युक्र वृष; ककंवा धनुराशिमें दो तो प्रकृति ठीक नदीं रहती । मधुमेह, उपदंश; प्रमेह आदि रोग होते है । अर्थात्‌ इस शक्र का व्यक्ति व्यभिष्वारी प्रडृत्तिवाला होता है । सिंह ओौर मकरराशि मे होने से व्यक्तिका पुत्र से वैमनस्य अर्थात्‌ ञ्चगड़ा रहता है। सन्तान अस्प. पत्नी सुख अतप, किन्तु परस्ियों से सुख ओर धन प्राप्त होता है | यदि ञयुक्र मेष भौर कन्याम हो तो विवाह के अनंतर भाग्योदय का नाश होता है। आर्थिक संकयो का भृयस्त्व, व्यवसाय वा नौकरी मे असफलता, ऋणग्रस्तता अनुभव मे आते ईह । यह शक्र कुंभ, मीन ओर व॒ल का दो तो सव कुक दीक चलता है। साधारण सुख तथा धन होते है । विधवा, निवसिता परच्ियों से अवैध सम्बन्ध रहता है । यदि श्चुक्र ककं, सिह वामीनमेंहो तो व्यक्ति मपी होते ह । इधिक ओर कुंभकेश््रदहोनेसे व्यक्तिं अफीमची होते ह । शक्र दूषित होतो गुप्त रोग होते है । अतीव कामुक होने से अनैखर्गिक संभोग की बार आती है । मीनराशि का शक्र अतीव अश्युम फठ देता है। पनी पुरुष-प्रकृति की ओौर पुंश्चली, कारावास ौर व्यवसाय मे हानि ।

नवमभावस्थित शुक्र का फल-

भगौत्रिकोणे पुरे के न पौराः कसोदेन ये बृद्धिमस्मै ददीरन्‌ ।

गृहंज्ञायते तस्यधमंभ्वजादेः सहोत्थादि सौख्यं शरीरे सुखं च ॥ ९॥

अन्वयः- गौ चित्रिकोणे ( स्थिते ) (तस्य) पुरे (ते) के पौराः्ये अस्मि कुसीदेन इद्धि न ददीरन्‌ ( सवं अपिदच्यः ) तस्य यहं धर्म्॑वजादेः ज्ञायते, सहोत्वादिसौख्यं शरीरे सुखं च ( स्यात्‌ ) ॥ २ ॥

सं० टी०-त्रित्रिकोणे नवमे भूगो तन्नगरे मस्म पुरुषःय ये पौराः पुरवासिनः कुसीदेन वृद्धिजीविकया बृद्धि व॒ ददीरन्‌ ते के तत्पुरे तदधर्मणव्यतिरिक्ताः न संतीत्यथः । तथा तस्यधमध्वजादेः दांभिकत्वाद्‌ हेतोः गं श्ायते प्रसिद्धया इति रोषः । सहोत्थादिभिः श्राव्यः सौर्यं शरीरसुखं च भवेदिति रोषः श्वर्मष्वजी दिगृत्तिः’ इत्यमरः । लिगं तद्‌ धर्मिवेषधारिणम्‌ ॥ ९ ॥

अथे–जिस जातक के जन्मांग के नवमभावमें श्चक हो उसके नगर- निवाक्षी समी मनुष्य इसे व्याज (बृद्धि) देते रै कोई भी इसके ऋण से खाली नदीं रहता, अथौत्‌ यह अपने गांव मेँ विशेष धनान्य होता है| यह

सूट पर रुपया देने कां व्यवसाय करता है ओौर खभी पुरवासी सुद पर कजं

ठेते ह । इस तरह इसके धन की उत्तरोत्तर शद होती रहती है । यह धार्मिक उत्ति होने के कारण सदावतं, दान आदि धमं के कार्यं करता रहता है जिससे इसकी दूर दर तक प्रसिद्धि होती रहती है । कोग संदावतं से भोजन खाते है-

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३६८ वमरकारचिन्तामणि का तुलनाव्मक स्वाध्याय

याष्वकों को कपडे आदि वितरण होते है ¦ इस कारण छोग इसके घर को सीघ ही पद्ि्ान ठेते दै । यह जातक धर्मध्वजी अर्थात्‌ दम्भी होता है। यह अथं मनोरोचक नहीं है । सम्भवतो यहरै कि इस जातक के घर के आगे घमं नैमित्तिक कोई ध्वजा गाड़ी गई हो जिससे रोग इसके घर को शीघ्र ही पहिचान ठेतेहों। दान का, घर्मका फल यदातो है ही-प्रसिद्धि भी आवद्यक हीह) इसे नौकरों से-दासों से-ओर अपने बर॑धु खोगोंसे सुख मिल्तादै। इस सुख के अतिनिक्ति शरीर का पूणं सुख होता है ॥ ९ ॥ तुटना–““खगौ भाग्यस्थानंगतवतिकुसीदेन नगरे ददीरन्नास्मये के सततमपि वबृद्धिम्ल्ियदा। पताकामिः युक्तं यजनभवनं दश्यत इह , प्रदुराद्‌ भ्रातृणां सुखमवुल मंगेन च सुखम्‌ ॥ जीवनाथ दे वज्ञ अथे - जिस मनुष्य के जन्म समय मेँ श्युक्र नवमभाव मे हो उसके म्राममें कौन से मनुष्य होगे जो व्याज (सुद्र) से इसकीधन की व्रृद्धिन करते हों अपितु सव्र खोग उसके ऋणी होते है । अर्थात्‌ यह मनुष्य अपने गांव में बहुत बड़ा धनवान दहोताहै। दूरसे ही पताकार्ओं से सुशोभित उसको यन्ञ- राला दिखाई पड़ती है । भादर्योका सुख ओौर शारीरिक सुख भी मधिक होता दै । नोट-ध्वजा सौर पताका समानाथंक शाब्द द। नवमभावगत शुक्र का जातक यज्ञ, दान, सदावतं आदि धार्मिक कार्य करता है ओौर इनके संबघ से ध्वजां ओर पताका गाड़ी जातो, रथे पताकार्णँ धर के रिखर पर फहराई जाती है-इनसे लोग जातक के धरको दूर से पहचान रेते ह। यदी अर्थं प्रासंगिक है दांभिकता-प्रासगिक नहीं-इससे तो भाग्यभावगत शक्र का अशुभ फल दही सूचित होगा। भट जी तथा जीवनाथ देवज्ञ कामत शुक्र शुभ फलदाता है यदि नवमभावमें होता दहै” एक समान हे । (नवमे तपस्वी ।» घाचाये वराहमिहिर अ्थ– “तपस्वी -“विन्यमान तपः-यदि नवममाव में श्चक्रहो तो जातक तपस्वी होता है, अर्थात्‌ जातक पवित्रासमा होता है । पवित्रास्मा धनिक रेग दही यज्ञ, दान-दृष्टापूतं कर्मो मे अपनी गाटी कमाई ख्यं करत ईहै-यदी लोग गरीब केलिए लंगर लगाते है-गर्म कपडे पदिरनेको देतेर्है-नवमभाव का शुक्र अन्तः प्रेरणा से जातक की रचि धार्निक कार्यो की ओर खीचताहै। यदी मत नारायणमहजीकादहै। ८विमलायत तनुवित्तोदार युवति खख सुद्जनोपेतः । भृगुतनये नवमस्ये सुरातिथि रुर प्रसक्तः स्यात्‌ ॥°’ कल्याणवर्मा ‘सममायतनुवित्तः” इतिपाटांतरम्‌ । अथं–नवमभावमे श्चक्रदहो तो जातक पुष्ट अथात्‌ टट शरीर वाला; घनाढ्य, उदार, शरी सुख युक्त, मि से युक्त ओर गुरु कौसेवामें निरत,

२.४ दयुक्छफल ३६३

देव ओर अतिथियों का सेवक होता है। अर्थात्‌ नवमभावगत शुक्र का जातक देव तथा अतिथियों का आदर करनेवाखा होता है-इसे समी प्रकार के भौतिक सुख ब्रा होते है। जो व्यक्ति पवित्र स्वमाव के होते हैवेही देवताओं का तथा गुरुजनों का आदर करते है । जिनका इससे विपरीत स्वभाव होता है वे देवनिन्दक, गुर्जननिन्दक माता-पिता के देषी, दान, यज, पुण्य- कमो के विरोधी होते है। इसी माव तथा अभिप्राय को मनोगत करते हुए स चायजी ने (मुख्यफलः (तपस्वी? का वर्णन किया है। “वविदयावित्तकटतर पुत्र विभवः श्चक्रे शचभस्थे स्थिते ।” वैद्यनाथ अथ-नवमभावस्थ शक्र का जातक विया; धन, खरी, पुत्र आदिसे सम्पन्न होता है । | “मवति माग्यविधिः धनवह्छभो बहुगुणी दविजभक्तिपरायणः | निजञुजाजित भाग्यमहोत्सवे भवति धर्मगते भृगुनन्दने ॥* गर्गं अथे- यदि जातक के नवममावमें शक्रहो तो वह भाग्ववान्‌, धन- प्रिय, बहुत रुणो से सम्प, क्षणो का आद्र करनेवाला, अपने मुजवर से, अपने उन्योग ओर परिभम से ऽन्नति करनेवाला होता है । “अतिथि गुर सुरार्वा तीर्थंया्ोत्सवेषु पितृङत धनसंधात्य॑त संजात तोषः | मुनिजन समवेषो जातिमान्यः कराश्च भवति नवमभावे संस्थिते मार्गऽवेस्मिन्‌ ॥” वृहुद्यवनजातक अथे–नवममावस्य छक्र का जातक पिता से प्रात हई सम्पत्ति का व्यय तीथं या्ा, उत्सव, देव, गुरु तथा सतियिरनो के पूजन आदि मे करता है । भदत संद, खनि के सदश सादे वेष मँ रहनेवाख, दुब शरीर, ओर अपनी जाति मे माननीय होता है। इसे घन लाम ९५ वँ वषं तथा भाग्योदय २५ वध्र होता है। “हद्‌ वख्रलाभम्‌ ॥” वश्चिष्ठ अथ–नवममावगत छक्र के नातक को अच्छे वख की प्रापि होती है। “सदार सुटदासनं क्ितिपन्ध भाग्यं शमे ॥» सतरेद्र अथे- यदि शक्र नवमभावमें होतो जातक स्री, पुत्र; मित्रों से युक्त, वं राजा से भाग्योदय प्राप्त करनेवास्म होता है । ` (विमल तीर्थपरोऽच्छतनुः सुखी सुरवरद्विजवणरतः राचिः | निजञुजा्जित माग्बमहोत्सवो भवति षरम॑गते भृगुजेनरः ॥* मानसागर अथे-नवभमाव में शक्र हो तो जातक नि्म॑ल शरीर तीथं करनेवाल, पुखी, दे वन्राक्ण भक्त, पवित्र हृदय, भपने बाहुवरु से उपार्जित घन को भोगने- ला होता है ॥ | धमं शके घर्मपू्णः शनष्ृद्धः सुखी घनी । नरेनद्र॒ मान्यो विजयी नराणां च प्रियः सदा ॥ काश्ीनाथ

केक

३.७० चमट्कारचिन्तामणि का तुलनात्मक्‌ स्वाध्याय

अथ–यदि शुक्र धर्म॑भाव अर्थात्‌ नवमभावमें होतो जातक धार्मिक, ज्ञानी; सुखी, घनी, नरपति पूज्य, विजयी, ोकप्रिय होता है ॥ “स कलसुकृत कमा पापरता सतोषः विगतसकटरोषः धर्म॑गे भागवेऽस्मिन्‌ ॥ जयदेव अर्थ-नवममावगत शुक्रका जातक पापकार्यं छोडकर अच्छे कार्यं करता हे । सन्तोषी ओर क्रोध रहित होता ह ॥ “अतिथि रु सुराचातीथंयाच्ापिताथेः प्रतिदिन धनयानाव्यन्त सञ्ञातदषः। मुनिजन समवेषः पुङषस्तक्तरोघो भवति नवमभावे सम्भवे भारवेऽस्मिन्‌ ॥ दु ण्डिराज अथं– जिसके नवमभावमें श्ुक्र हो वह जातक अतिथि; गुर, देवतां का पजक तौीधयान्रा के लिए धन संचित करनेवाला; सदा धन, वाहन, से आनन्दित, मनि क समान सादा कपड़ा पहिननेवाला अर्थात्‌ सादा लिवास रखनेवाला ओर क्रोध रदित होता है ॥ सुखसुत ङे द्रपप्रतापपूर्तितं सुकीर्तिसुज्ज्वलं युधमं कमं संग्रहैः। सुविद्यया प्रवीणतां समृद्ध वंश्चजाततां करोति भाग्यमव्यये नरस्य भाम्यगो भरुः ॥? हरिवंश अथं-यदि शुक्र नवमभावमेंदहोतो जातक राजाकी पासे कुर्की उन्नति करता है । यह सुखी, यशस्वी, धार्मिक कायं करनेवाला; विद्वान्‌ ओर धनवान्‌ होता है । यह सदेव भाग्यवान्‌ रहता ह ॥ भ्रगुसूत्र–धार्मिकः, तपस्वी, अनुष्ानपरः । पादे ब्रूम लक्षणः । धर्मी भोगवृद्धिः, सुतदारवान्‌ पिन दीर्घायुः । तत्र पापयुतं पित्रारिष्टिवान्‌ । पापयुतं पापक्षत्रे अरिनीचगे धनहानिः, गुरुदारगः। शभयुते भाग्यव्रद्धिः; महाराज- योगः । वाहन कामेशयुतं महाभाग्यवान्‌ । अश्वान्दालि-भादिवाहनवान्‌ । वच्रा- लकार प्रियः ॥ अथे- नवमस्य ज्ुक्र का जातक धार्मिक, तपस्वी, तथा जएाटिक कार्य करमैवाला होता है । इसके पोषि पर अच्छे खामुद्रिक लक्षण होते ह । उपभोग मिक्ते है भौर मोगब्द्धि होती है। यह ख्री-पुर्वोसे युक्त होताहै। इसका पिता दीर्घायु होता है | पापग्रहक्षाथदहो तो पिता पर सङ्कट आता है । पापग्रह के साश् उसकी रारिमे, शतरुम्रह की राशिमें; वानीचमंदहोतो धनदहानि होती है । गुरुपल्ली से व्यभिचार करता दहै। श्चमग्रह साथदहोतो भाग्योदय होता है । अधिकार पद प्राप्त होता दै। चतथ तथा सतमेश के साथहोते बहुत भाग्यवान्‌ होता है । धोड़े, पालकी आदि वाहन प्रास्त करता दै । विचित्र कपडे भौर आभूषणं का प्यारा-शौकीन होता ह ॥ रिष्पणी– अव रयाजार्ओं भौर महासजामों का चलन नदीं रहा है । राजा- महाराजा आरि अधिकार वा पदवि्यो विढ्प् तथा उच्छिनिमूल दो गई ह ।

शुक्रफक ७१

श्न शब्दों से महत्ता प्राप्त घनाव्य व्यक्तियों का बोध करना होगा-इसी तरह राजयोग तथा महाराजयोग के अर्थ मे मी परितंन आवहयक है |

पाश्चात्यमत-नवमभावस्थ शक्र का जातक प्रवासी; आनन्दी; सुस्वभावी; लेहल, धार्मिक, शद्ध चित्त का, काव्यनाटकादि पटने वाका; परोपकारी; विचा व्यासङ्गी होता है । यह समुद्री प्रवाखभी करता दहै। अलभ्य वस्तुं की प्राप्ति के ल्पिभी यत्र करतादहै। विवाह में होनेवाञे आसो का साहाय्य इसे अच्छा मिक्ता है ॥ ।

विचार ओर अनुमभव-प्राचीन रेखक ने नवमभावगत श॒क्र के फल प्रायः श्चुभ बतला है । इनका अनुभव तब होता है जब नवमभाव का श्युक्र मेष; सि, धनु, ककं, बृधिक तथा मीन राशियोंका होतादहै। जो कोई अञ्यभ फल किसी लेखक ने बतलाए है, उनका अनुभव रोष राशियों में मिलता है ॥

ताम्बे का सोना ब्रनाना;, असाध्य रोगोंकी चिकित्साके लिए दवादयोँ खोजना, खरी को पुरष मं परिितन आदि की खोज की र प्रवृत्ति जातक की तभी होती है जब शुक्र ककं, वृधिक तथा मौनं राशियों मे होता है-रेसा प्रतीत होता है। नवमश्चुक्र से केवर पिता ही दीर्घायु होता है-रेसा दी नहीं है किन्तु माता मी दीर्घायुष्य प्राप्त करती हई देखी गहै है । माता का दीर्घायु होना विरोषतथा अधिक मात्रा मे पाया गया है।

यदि श्चक्र पुरषराशि में हो तो माई अधिक अौर बहिन अस्प संख्या में होती है । लड़के कम भौर लड़कियां अधिक होती है। ल्ीराशिकाश्चक्र हो तो भाई-बहिनों ओर पुत्रों की स्थिति पुरुषराशि के समान ही होती है । पत्री साधारण, तौ मी पति-पली प्रेम पूवक रहते है । यदि शुक्र मिथुन, ककं, धनु तथा मकरराशिका होतो बिवाह के अनन्तर भाग्योदय होता दहै । व्यवसाय करने के लिए ख्ियोंसे धन मिरूतादहै। क्न्तुल्लीकी मुघ्युके बाद सारा वैभव नष्ट हो जाता है। यदि यह शक्र कन्या ओर कुम्भ राशिमे होतो संतति से भाग्योदय होता दै। पिले कन्था संतति दह्ोतो वैमव स्थिर रहता दै। पदिले पुत्रो तो पिले अच्छी स्थिति होती है, बाद मे भवनति होती है। मिथुन भौर बिक मँ यदि श््रदोतो मृत्यु समयमे स्थिति वैभवशाली होती है । मेध, मिथुन, सिह, ठा तथा धनु राशि का शुक्र हो तो पल्ली प्रत्येक प्रकार से सुन्दरी होती है। भार विदाल, अओंखि विशाठ र वचमकीटी, केश लम्बे; काले भौर चमकीटे, स्वभाव आनन्दी, संसार मे अनासक्ति, संतति के छि विरोष इच्छा का अमाव ।

नवमस्थान के शुक्र मं गायन, वादन; सिनेमा आदि ठ्टितकलयों में निपुणता तथा कीर्तिं प्राप्त होती है। अभिनय मेँ निपुणता स्वाभाविक होती है। यदि श्युक्र कक. बृधिक भौर मीनमेंहोतो प्ली गौरांगी, निर्भीकः

३७२ वम स्कारचिन्वामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

हावभाव से बोख्नेवाली, प्रभावद्ाखिनी, घर में अपना अधिकार स्थापित करनेवाली होती हे । यदि शुक्र वृष, कन्या ओौर मकररारिमे होतोचखरीका चेहरा गोल, अभिमत्ताभरी, तथा कोपयुक्ता होती है इसकी किसी से भी बनती नदी, स्वाथभरी प्रदृत्ति होती ह । यदि यदह शक्र दूषित हो तो विवाह विजातीय, वायुम व्ड़ीखरीसेवा विधवासे होता है। अथवा इनसे अवैध सम्बन्ध रहता है । इस स्थानके शक्र का जातक माता-पितासे विरोध रखता है। स्वयं स््रीवशवर्त्ती रहता हे । यदि मीनमेंश्चक्रदोतो इसका फल त्रतीय स्थान के समान होता है। जातक की रुचि अनैसर्गिक लखी सम्बन्ध की ओर रहती है। यह जातक रिते मं बड़ी सिया से एूफी, मौसी, मामी, तथा मित्रपल्ली से अवेध सम्बन्ध रखता है । द्दहमभावगत शुक्र का फट- थृगुः कर्मगोगोत्रवीयं (गोत्रवीजं) रुणद्धि क्षयार्थोश्रमः किन्न आत्मीय एव । तुखामानतो हाटकं विप्रव्रस्या जनाडम्बरेः प्रत्यहं वा विवादात्‌ ॥१०॥ अन्वयः–कमंगः भृगुः ( तस्य ) गोचवीर्यं॑रणद्धि, आत्मीयः एव भ्रमः क्या्थः किं न ( स्यात्‌ „) प्रत्यहं वि्रद्या जनाडम्बरेः बिवादाद्‌ वा तुलामानतः हाटक ( स्यात्‌ )॥ १०॥ सं टी<–कमगः दशमस्थः भृगुः गोचवीर्य॑वंशवीर्यं॒वंशबीजं संतानवनं किं न रणद्धि, आत्मीयः स्वकीय एव भ्रमः नीतिविस्मरणरूपः चित्तविक्षेपः श्चयार्थ दरव्यनाशाय किं न, प्रत्यहं विप्रबरस्या ब्राह्मणजीविकाया जनाडम्बैः प्रतिष्ठाप्य स्थापितया पारिपाश्चकेः, विवादाद्‌ वा हारकं सुवणं तुलामानतो परूपरिमितं न ना किम्‌, अपितु सर्वं फट स्यादेव ॥ १० ॥ अथं–जिस मनुष्य के जन्मल्य्म से दशमस्थानमे श्कर हो तो वंडाके उत्पन्न करनेवाले वौय को रोकता है । अर्थात्‌ सन्तान उत्पन्न करने योग्य उखका वीयं नदींदहोताहै। उसे अपनाद्दी भ्रम सपने कार्यं के नाश ऊँ लिए क्यानहीं हो सक्ता है १ अर्थात्‌ अपने भ्रम से उसके काय बिगड़ जाते दै। वह मनुष्य सवंदा व्राह्मण कौ वृत्ति से अर्थात्‌ भिक्चाद्त्ति से अपने साथ टोगी मनुष्य को रखकर लोगों से विवाद कर तुलम परिमित सुवण अर्थात्‌ सौ पठ मापका या चारसौ भरी माप कासोना कमाकर अपने पास करचक्ेतादहै॥ १०॥ नोट-ऊपर का अर्थं पण्डित गणपतिदेव राखी का है। शुक्र दशमभावमेदहो तो इतनी सन्तान होती दै कि उनके इकट्े देखने मं “यह मेरा पुत्र है वा किंसी भौर का, एेसा भ्रम हो जावे अर्थात्‌ ( बहुपुत्र ) सन्तानरूपी वन जैसा हो जावे । धनानि के विष्य में भ्रम रदे अर्थात्‌ धनश्चय न होने देवे प्रस्युत, ब्रह्मवृत्ति से अथवा विवादकर्मं से नित्य ( सुव्ण॑तुला ) सो पर सुवणं वा इसमे भी अधिक विरोषतः लोगों को आडम्बर दिखाने के लिट अपने पास रक्खे जिस व्त्तिसे पिता का आजीवन भया उससे अतिरिक्त

शक्रषल ॑ 2७३ `

अधिक कर्म से धनवान्‌ तथा रेशवयवान्‌ होवे, धन धर्मयुक्त सुदीर पुत्रवान्‌ सुरूप सवंसिद्धि वाखा होवे ॥ १० ॥

नोर-ऊपर छिखा अथं पण्डित महीधर शर्मा का है।

“यह पुत्र सन्तति के होने में विन्न उत्पन्न करता ई सोने-चोरीके व्यवहार में धन प्राप्न करवाता है। जातक लोगों से हमेशा विवाद करता है| जातक अपने बारे मे बहुत आडम्बर बतत्यता है ।* | ।

नोट– यह ऊपर छा तीखरा अथं ज्योतिषी स्व० ह०ने काटवेकाहै। कौन सा अथं ठीक वा रत्निकर है-पाठक्रगण स्वयं जच कर सकते है । |

रिष्पणी-भड नारायण के अनुसार दश्चमभाव का शुक्र गोघनव्दधि मे बाधक होता हे । वंश्डृद्धि के लिए पुत्र सन्तान का होना मावद्यक है-इसके लि पुरुष अमोघ वीये तथा पुटवीयं होना चाहिए । सदाचारी-एकनारीत्रत पुरुष ही मोष वीयं हो सकता है-मृगुपुत्र श्चक्र तो रगीठे है-म्यमिनारी इत्ति की सर ठे जानेवाछे ईदै-अनेक नारी-उपभोग तो पुरुष को निर्वल्वी्यं ही बनाता है। यदि पोँचके स्थानम दश का खर्वो तो धनश्चय अवदयंभावी है। दशम शुक्र धनाजन के टि जातक को बहुत से उपाय बताता है, जिनमे एक है भिक्षादृक्ति, दुसरा टोंगीपना गौर तीसरा रै विवाद ।

विप्रवृत्या–“विप्राणां इत्ति” विग्रदृत्ति, तया विप्रवृत्या । विप्र = बराह्मण, इत्ति = अजौविका का साधन । एक टीकाकार ने णविपरवृत्ति का अर्थ (मिषा उत्ति” किया है । इस टीकाकार के अनुसार ब्राह्मणों की आजीविका भीख मोँगने से होतौ थी एसा अथं करना होगा. किन्तु बह अर्थं आर्थसम्यता ॐ विरद है। प्राचीन भारत मे ब्राह्मण याजन-अध्यापन से अपना जीवन निर्वाह करते थे । निग्रह-अनुग्रह-समथं भूसुर कष्रने वाले ब्राह्मण मिखमगे क्योकर डो सकते थे । चक्रवर्ती महाराज भी उनके पावों को दछुकर अपने को कतङ्कत्य ओर धन्य मानते थे । जेते स्वगं में देवगण पूज्य था, इशी प्रकार प्र्वी पर भूसुर “ह्मण पूजाहं समञ्च जाते थे । मायं-सम्मत वणं -आभम-व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण अग्रगण्य थे । यह व्यवस्था उस समय तक अक्षुण्ण चली रदी जबतक भारत पर॒ यवन दियो के भाक्रमण नीं हृ । यदि मापृद्‌ धर्म के तौर पर ब्राह्णो ने याजन्‌-अध्यापन आदि इत्ति को छोड़कर कोई भौर हीनदृत्ति को अपनाया हो तो यह दूसरी नात है| इसते.यह प्रमाणित नहीं होता कि विग्रचत्ति भिक्षा्त्ति थी। किसी टीकाकार ने विपरचरत्तिका सरथ बरह्मरत्ति किया हे । दीकाकार का मन्तव्य क्यार? स्पष्ट नहीं दै। दशमभावगत क्र के जातक ““भिखमंगे-भाडम्बरी तथा श्षगड़ाद्‌ मी होते है“-क्या यह अर्थं रोचक नहीं हो सकता है १ पसा इकट्वा करने में रेमे लोग एक ही होते है । द्म- भाव का शुक्र यदि वंशबृद्धि वाधक है तो बहुपुत्रदाताः नहीं हो सकता ३। ये दोनों बार्ते परस्पर विरुद्ध ई।

३७४७ चमव्कारचिन्तामणि का तुखनास्मक स्वाध्याय

तुख्ना-““गगौ कमस्थानं गतवति कुलं नयति तदा + तथा वित्तत्यागात्‌ प्रभवति सदा विभ्रमगणः। द्विजानां व्यावृत्या रिपुजनविवादेन ल्यं । परगच्छव्यद्धा शतपलमितं स्वणममितः | जी वनाथ अथे–जिस मनुष्य के जन्म समय में शक्र दशमभाव मे हो उसके कुल काना होता है। धन के त्यागे अर्थात्‌ खचं से अनेक भ्रम उसन् होते ₹ै। तात्पयं यद है कि श्रमवश पोच के स्थानमे दद देते रहनेसे सदा उसका घन नष्ट होता रहता ह । अपने दरवाजे पर से ब्राह्मणों को अपमानित कार टौटान से तथाण्याचरुभआं ऋ साथ विवाद करने से एक सौ तोला सोना नष्ट होता है, अथात्‌ अव्यधिक धन नष्ट होता है। रिप्पणी– नारायणम भौर जीवनाथदेवज्ञ मे दश्चम शक्र के विघयमें भारी मतमेद दृष्टिगोचर होता है। मद्र नारायण के अनुसार दशमस्थ शुक्र का जातक दूसरों पर आतक आौर प्रभाव डालने के च्ि भारी माामेंसोना इका करता है । किन्तु जीवनाथ के अनुसार दशमस्थ शुक्रका जातक देवता तथा ब्राह्यणा को पूज्य नदीं मानता दै; यदि किसी कारण ब्राह्मण लोग इसके दरवाजे पर आ जातं ह तो यह उनको अपमानित कर गलहस्तावित करता दै । परिणाम यद्‌ होता है कि यह ब्राह्यणो से शापित होता दै अतएव इसका धन भूयसी मात्रा मं नष्ट होता दै-त्राह्यणों का तथा अतिथयो का अनादर आौर अपमान कई एक विपत्तियो का कारण बनता है, यह बात यापामर प्रसिद्ध रै। द्रमभावगत श्रु बुद्धिविभ्रम उपपन्न करता है, अन्यथा पोँचके स्थानमें दस रुपये क्यांकर दिये जा सकते है। भटजी के अनुसार दशमस्थ श्चुक्र भारी संख्या मं सन्तानोत्पत्ति करवाता है । किन्तु जीवनाय के अनुसार दशमस्य शुक्र कुख्नाशक होता है | इस तरह दशमस्य शुक्र अत्यन्त अश्चुभग्रह होकर अश्युमफर्दाता होता है | प्राचीन साहित्य के अनुसार श्चुक्र महाराज दैव्यो के गुरूदहै। दैत्य तपस्वी भीये। तथा मदोद्धमत भी होते ये। मदोद्धत व्यक्ति ञ्जगडाट्‌ तथा विवाद. प्रिय होतेर्है। इनका धन शत्रुभंके साथ विवाद करनेमं नष्ट होता है- एेसखा प्रायः देखने में आता है । “नं मदाय के अनुसार इनका धन प्रायः न्यायाव्योँ मे नष्ट होता है। न्यायाल्यां में वाद-विवाद वर्षो तक चरता रहता है न्यायाल्यों के विषय में यह बात प्रसिद्ध दहै: “जीतासो हाराः” “जो हारा सो मारा, अर्थात्‌ अन्यतन न्यायालयं की “जीत वा हार” दोनोँहीनाशके देतु है । क्या रिपुजन विवाह प्रवृत्ति अत्यन्त श्युभग्रह शक्र का अव्यन्त अश्युभफर नहीं है १ देवज्ञ ही विचार्गे | धस धनः | वराहमिहिर अ्थ–दशमभावस्थ शुक्र जातक को धनवान्‌ बनाता है;

राफफर ३७५५

के कम॑स्थानगे कषकाच स्रमूलात्‌ वा लन्धवित्तो विभुः स्यात्‌ ॥» वनाथ अथ-यदि जातक के कमस्थानमें शक्र होतो इसे किसानों से, छियों से, धनम्रास्त होता है । इस तरह दशमस्य शक्र का जातक विथु अर्थात्‌ धनान्य होता है । | रिप्पणी–वराहमिदहिर ने केवल धनवान्‌ होना कट मुख्यतया बताया है, किन्तु धनप्रासि के घवाधन नहीं बतला है| वैद्यनाथ ने धनप्रासि कृषि कमं द्वारा तथा लियो द्वारा बतखयी दै । “’कमेस्थिते भगोः पुत्रे कम॑वान्‌ निधिरतनवान्‌ । राजसेवी धार्मिकश्च जायतेदविताप्रियः ॥> काशीनाय अ्थ- जिस जातक के दशमस्थान में श्चुक्र हो वह कर्मण्य होता रै, यद अफसर खजाना होता है-यह रलो से पूणं होता है। इसे राजा की नोकरी मिलती है-वद धर्म मेँ श्रद्धा होता है । उसे खियौँ प्रेम दृष्टि से देखती ई । ““सजनयुतकलत्रप्रौतियुक्तः सवित्तः श्चुचितरवरचिष्तः सन्मतिः कर्मसंस्थे ॥ ” जयदेव अर्थ-कर्मभावगत शचक्र का जातक सजनो से युक्त, पकी पर प्रेम करने वाल्य, धनवान्‌ ; श्र॒द्ध हृदय तथा सद्‌ विचार रखने बाला होता है ‘“नमस्यतियराः युत्‌ सुखित दृत्तियुक्तं प्रभुम्‌ ॥° संत्रेश्वर अथ-जिखके दरामभाव मे शक्र हो वह जातक यशस्वी, मि से युक्त; व्यवसाय में सफल तथा प्रभावशाली होता ई । ‘“सौभाग्यसन्मान विराजमानः कांतायुतग्रीतिरतीव नित्यम्‌ । भृगोः सुते राज्यगते नरःस्यात्‌ स्नाना्च॑नध्यान विराजमानः ॥7 भूगुजोऽत्र सौख्यम्‌ ॥ बृहदयथनजातफ अथे–जिस जातक के दशमभाव मे श्चक्र हो वह भाग्यवान्‌; आदरणौय; तथा खान, ध्यान; पूजन आदि मे मद्र रहता दै। वह ख्री-पुत्रों पर बहत प्रेम करता है। इस तरह दशश्मभावगत शुक्र इखदाता होता है । “टरम मन्दिरगे श्रगुवंशजे वधिरबन्धुयुतः स च भोगवान्‌ । | वनगतोऽपि च राञ्यफरं ल्मेत्‌ समरयुन्द्रवेशसमन्वितः ॥” मानसायर अर्थ– जिस जातक के दशमभाव म श्चकर हो वह वधिर होता है अथवा उसका भाई वधिर होता है । अथवा वह स्वयं वधिर होता है ओौर भाश्यों से युक्त होता रै | यह जातफ भोगी होता है । युद्ध के वेद्य मँ सुन्दर दीखता है । इसे जंगल मे भी राजा जेते मोगविरास प्राप्त होतेर्है। “धसौमाग्य सन्भान विराजमानः स्नानाचंनध्यानमना धनाव्यः। कांतासुतप्रीतिरतीवनित्यं भगोः युते राञ्यगते नरस्य ॥* दण्डिराज् अर्थ- जिस जातक के दशामस्थान में शक्र बैठा हो वह माग्यशाली होता है । खोग इसको आदरणीय ओर माननीय मानते दहै। इसका मन स्नानः;

` ३७६ पवमर्छारचिन्तामणि का तुलनास्मक्‌ स्वाध्याय

पूजन तथा ध्यानम मय रहता है। यह धनाढ्यहोताहै। इसे अपनौ खरी तथा पुत्र बहत प्यारे होते है । ८“उत्थानविवादार्जितयुखरतिमाना्थं कौतंयोयस्य । ददामस्थे श्रगुतनये मवति पुमान्‌ बहूुमतिख्यातः ॥” कल्वाणवर्मा अथ-ददामभावमें श्चुक्र हो वह जातक अपने पौरष से ओौर विवाद से

खुख, रति; मान, धन भौर कीतिं को प्राप्त करता है। वह अपनी चतुर्मुखी बुद्धि से विख्यात होता दै । | “पप्रय नरोत्तमं प्रभुं सुभाग्यभूषितं भवेत्‌ ।

सुय्चदान संस्तुतं खुकीतिविस्तरतम्‌ ॥ धनैः ` सुपूरितं दारीरसुंदरं मनोहरं । सुकाव्यकर्मकौश् करोतिकमंगः कविः | हृरिवंा

अथ–कर्मभावस्थित छक्र जातक को राजाका प्यार, मनुष्योंमे श्रेष्ठ प्रभावद्याली, भाग्यशाली यज्ञदान आदि करने से प्ररंसा का पात्र, यरास्वौ, धनाव्य, . रीर से सुन्द्र तथा आकर्षक; मौर काव्यरचना म कुशल बनाता हे।

“यदा कमगोभागंवो वै नराणां भवेत्‌पुत्रसौख्यं तथा कामिनीनाम्‌ ।

श्रवं वाहनानां सुखं राजमानं सदासोत्छवो विन्या वै विवेकी ॥* जागेश्वर

अथै–कमंभावगत शुक्रकेदहोनेसे जातक को पुत्र तथाख्री का सुख मिक्ता है । इसे धोड़ागाड़ी, मोटर आदि वाहनों का सुख सदैव प्राप्त रह्ता दे । यह राजमान्य होता है-यह सदैव उत्सवो मे भागचञ्ेने वाटा होता ३ै। यह विद्वान्‌ ओौर विचारसीट होता है |

भ्रगुसूत्र-बहुपरतापवान्‌ । संकल्प सिद्धिः । ञ्चभकमंकारी, अनेकवाहनवान्‌ । मणिगोयौप्यचयः । पापयुते कर्मविघ्नकरः । गुरुचन्द्रबुधयुते अने कवाहनारोदणवान्‌ । अनेकक्रतुसिद्धिः । दिगंतविश्र॒तकीरतिः । अनेकराजयोगः । बहुभाग्यवान्‌ | वाचाकः । खधनयुशील्दारवान्‌ ॥

अंथे– जिसके ददामभावमें शक्र होता है वह जातक बहुत प्रतापी होता है । यह शभक करनेवालम होता दै । इसे संकत्पसिद्धि प्राप्त होती है अर्थात्‌ इसके संकल्प पूणं होते है । इसे सभी प्रकार के वाहन-घोडा-गाड़ी- हाथी-मोरर आदि प्रप्त होते ै। इसके पास रल, ओर ्चोदी आदि बहूमूर्य की वस्तुएं रहती है । यदि दश्चमश्चुक्रके साथ को$ पापग्रह रहतादहैतो इसके कामों में विघ्न माते दै । गुर-चन्द्र ओर बुध साथ रहै तो बहुतेरे सवारी के वाहनों का युख मिक्ता है। टशमभावगत श्युक्रका जातक कई एक यज्ञ करता हे । इसका यदा सर्वत्र फैला रहता है । इसे राजदरवार मे अधिकार पद प्रास्त होते ह । यह जातक बहुत भाग्यशाली होता है । यह बहुत बोलने वाखा ओर अच्छा वक्ता होता है । इसकी छी धनी तथा सचरित्रा होती है ॥

शयक्रफल ३७७

रिप्पणी–भ्रगुसू्र के अनुसार शुक्र अत्यन्त श्चभगरह होने से अत्यन्त श्चभफल देता हे ।

पाश्ात्यमद-यह श॒क्र चम सम्बन्धमेदह्ो तो सव तरह से रेश्वयं देता है । नौकरी-व्यवसाय, सम्मान; इजत, कीतिं भदिके छिए यह श्चुक्र श्म होता है । जीवन सुखी दोता है। सभाव शांत ओर मिल्नसार होता है । जगडे नितांत नापसखन्द होते है । खरी से अच्छा लाभम भौर सम्मान प्राप्त होता है । प्रसिद्ध वा भीमानकुक की तरणी से विवाह होता है । विवाह से भाग्योदय यौर धनाम होता है । गायन; वादन; सादित्यर्वना, चिच्रकारी आदि लिति कलाओं मँ रुचि होती है । इन कलाभों से सम्बन्ध रखनेवाल व्यवसाय करता है । सम्पर्ति का कष्ट सहसा नदीं होता है । नैतिक भष्वरण अच्छा होता है । दशमस्यश्चुक्र पीड़ित वा अश्म सम्बन्धमेदहो तो सैराचारी वत्ति से अपमान ` होता है। यदि य शुक्र बषः तुल ओर मीनमेंदहोतो इस शुक्र के बहत अच्छे फट मिकते है । जन्मस्थ चन्द्र से शुभयोग हो तो भर्थिक ओौर कौटुम्बिक सुख अच्छा मिक्ता दहै । जातक नीतिमान्‌ ओौर विजयी होता है । दुरदुरके देशों में प्रवास करता है। रवि भौर चन्द्र कीश्चमदष्टिदह्ो तो कई उपाधिरयं मिलती हँ । जातक किसी की शरण जाना स्वीकार नद्यं करता है । गुणवान ओौर धनवान होता है । अभिजित नश्च जिस प्रकार सर्वविजय बतत्मता रै वैसे हयी दशमस्थ श्रु सर्वोन्नति कराता है।

विचार ओर अनुभव- वृहस्पति ओौर शुक्र अत्यन्त श्चमग्रह माने जाते ह । इस कारण दशमस्थ शक्र के फल श्युभ ही होने चादिए । प्ररन्वु नारायण- भङ् ने पुत्र संतति कां प्रतिबन्धक होना रूपौ अश्चुभफल भी बतत्मया दै। इसका अनुभव पुरषराियां मे, कवित .मीन मे अनुभव मे भता दै । श्चुभफल अन्य राशियों मे अनुभव गोचर होते है|

दशमस्थश्युक्र ॒पुरुषराशिमं हो तो अविवाहित रहने की अर प्रच्त्ति होती है । खी से सम्बन्ध पसन्द नहीं द्रोता है । विवाह का विचार तभी होता है जब धनार्जन होने ठ्गता है। ख्रीसे वैमनस्य रहता है| संतति के रिण चिन्ता जनी रहती है । ल्री-पृत्र सुख यदि मिलता है तो व्यवसाय सुखपुवंक नदीं चलता है । कहीं-कहीं द्विभार्यायोग भी हो सकता है । मीनराशि में भी एसे ही फल मिलते ई । माता-पिता की मृत्यु बचपन में होती है ।

यदि दशमस्थ शुक्र स्रीरारिकाद्ोतो विवाह के अनन्तर भाग्योदय तथा स्थिरता दीखने मे आते; एक दो पुत्र सन्तान होती है । दशमस्य श्युक्र के जातक नौकरी करना पसन्द नदीं करते । व्यवसाय करना पसन्द करते है । मेष, मिथुन, सिह, वला; धनु तथा कुम्भ मे दश्चमस्थश्रुक्र हो तो वी° एस सी आदि वैश्ञानिक उपधियोँ प्राप्त होती है ¡ वनस्पतिशाख्ज, चिकित्सा आदि कार्यो मेँ नैपुण्य प्राप्त होता है । गणित मौर ज्योतिष में भी.जातक निपुण ओौर प्रवीण दष्टिगोचर हए हँ । गायन, वादन; सिनेमा-फोटोग्राफी, डाइर्विंग आदि

३७८ चस र्कारचिन्तामणि का तुलखनास्मक स्वाध्याय

मे व्यवखाय के तोर पर दनि होती दै । खीराशिके श्ुक्रसे व्यापार वा नौकरी मे प्रगति होती देखी गई है ।एदस शुक्र के जातक उदार, मिखनसार ओर लोकः परिय तो होते ई किन्तु किसीन किसी व्यसन के यधीनमभी होते है। रुपया खू् कमाते ई किन्त संग्रह नहींदहो पाता अतः संकट आते । यदि दद्छमस्थय्ुक्र दूपित हो तो च्ियों के साथ अवैघ सम्बन्ध होने से अपवाद यर अपमान होता दै। परख्रीटोटपता से धन व्यय भारी मात्रा में करते है। मेगल से श्चुम सम्बन्ध होनेसे जातक सचरित्र होते है| यदि दशमस्थश्युक्र पुरषरारि का होतो पित्रूुख नहींदहोतादहै श्य॒क्र के कारकत्व के व्यवसायों मे यद्रा ठौर कीर्तिं प्राप्त नहीं होती जातक सभी प्रकारके व्यवसाय करना चाहते ह भौर करते मी हँ परन्तु सफलता किसी एकमे मी नहीं मिल्ती हे । एकाददाभावस्थित ञुक्र के फट–

८“भरगुः खाभगो यस्य ठप्रात्‌ सुरूपं महीपं च कुय्योच सम्यकू ।

ङस्‌ कीर्तिं सत्यानुरागं गुणाढ्यं महाभोगमेश्धययुक्तं घुरीटम्‌ ।१९१॥

अन्वय :-यस्य ल्यात्‌ काभगः श्रगुः ( स्यात्‌), सः( ्रगुः) खाभदः ( स्यात्‌ तं जातकं मिति दोषः ) ( खामगः श्वरः) क्सत्‌ कीतिं सव्यानुरक्त गुणाव्यं महाभोगं एे्वययुक्तं सुरीञे सुरूपं महीपं च सम्यक्‌ कुर्यात्‌ ॥ ११ ॥

संर टी <-यष्य लग्नात्‌ लाभगः एकादशस्थः कामदः द्रव्यलामकारी भृगुः तं नरं य॒रीटं गुणाव्यं गुणैः युतं, लसत्‌ कीतिं सत्यानुरागं कीर्तिं सत्यवाक्य लछोकरज्ञनादिभिः शोभितं महाभाग्यं उत्तमभाग्यवन्तं रेश्वययुक्तं॒प्रभुखाय्यं एतादृशं खम्यक्‌ महीपं राजानं कुयात्‌ ; बल्तारतम्यात्‌ प्रथक्‌ प्रथगेव फलं स्यात्‌ ॥ ११ ॥

रिप्पणी–“वेयाः श्चुमदा कामे स्वै, नेष्टा व्यया्टमगाः ॥ इति मनसिनि धाय खाभभावस्थितस्य भृगोः सवमेव शुभ फट प्रतिपादितं नारायणभङ्ेन किन्तु बख्तारतम्येन प्रथकः-प्रथक एव फट स्यात्‌? इतिं ज्ञातव्यं वि्ञेः ॥

अथे- जिस जातककेल््रसे एकादशमावमे शरक्रहो तो वह धन लाभं करता है । वह जातक गुणवान्‌-अच्छे स्वभाव का; देदीप्यमान कीर्तियुक्त, सत्यभाषण करनेवाला, सवविधि भाग भोगने वाला; एेश्वयवान्‌ , प्रभुत्व साम्य वान्‌ राजाके समान सामथ्ययुक्त; एक प्रकारसे राही होता रहै। यह्‌ सुन्दर स्वरूप तथा सदाचारसम्पन्न होता हे । यदि शुक्र अधिकबलीदहो तो ऊपर बतलाए हए फलों मँ से अधिक फल्दाता होता है-यदि मध्यमबली हो तो फल भी मध्यम दजं का मिस्तादै। ओर यदि शुक्र दीनबखीहोतो हीन फर प्राति होगी । इस तरह वठतारतम्यसे फठ का आदेश करना होगा । राजा शब्द किंसी प्रधानव्यक्तिका द्योतको सकतादहै। राजा शब्द से उस व्यक्तिका भीवोधहो सक्तादहै जो निग्रह-अनुग्रह सामथ्यंयुक्त दो अर्थात्‌ प्रधान अधिकारीदो। प्राचीन भारत के राजे-मदहाराजे आजकठक्के भारते

शाकररुक ३.७९

कानूनन पचलित नदीं रहे है | किसी एक टीकाकार ने लाभभावस्थित शुक्र का फट उदारता, राजमान्यता तथा कन्याभूयस्त्व बतलाया ई । तुखना–““टृगावाय स्थाने गतवति सुशील त्वमधिक ; परषवंचद्रुपं सदसि पडता चाथं .विसुता | महीमवुः शश्वद्‌ व्रजति खल कौतिस्तनुरतां ; ससूद्रांतं भद्रा प्रभवतिन निद्रा सुर्विरिपोः॥ जीवनाय अथे- जिस जातक के जन्मस्तमय में शुक्र एकादशमभाव मे हो वह अत्यन्त सुशील होता है । उसका स्वरूप अच्यन्त देदीप्यमान, सभा में वचनवचातुरी ओर पूणं धनवान्‌ भी होताहे। उसे राजाथों की आससुद्रान्त . निमंल्कीर्ति निरन्तर प्राप्त होती है। अर्थात्‌ बह राजा अथवा राजा के समान होता दहे। अर प्रथिवी पर उसके शत्रुओं को निद्रा नदीं होती है अथात्‌ उसका दानुगण उससे सतत मयभीत रहता हे ॥ | रिप्पणी-राज दीपौ धाठु से राजञा शब्द्‌ बना हा है । राजा = नरपति- शासक-स्वामी आदि करई एक अथंरहै। राजा शन्द का अथं बड़ा जमींदार भीदोताहै॥ . “एकादशं स खाभः | गराहमिहिर अथ-यदि किसी जातक के एकादशमावमें श्रहोतो उसे छाम करवाता है ।

“लाभस्थे भ्रगुजे सुखी परवधू लोलोऽहनो वित्तवान्‌ । शुक्रः सीजन काव्यनाटककला संगीत विद्यादिमिः॥ गैद्यनाथ अर्थ–जिस जातक के .एकादशभावमे श्चक्र होता है तो जातक सुखी परस्री रतिरोढप, प्रवासौ आओौर धनवान्‌ होता है । रिप्पणी–“सवेगुणाः काञ्चनमाश्रयन्ते ॥ इस भव्रंहरि के वष्चन को मन में रखते हए आचायं वराहमिदहिरने एकादशस्थ श्रुक्र का मुख्यफल धनलाभः ही दिया हे । किन्तु वेद्नाथ ने ओौर गौणफठ भी बतलाणए ह । दरशम- स्थश्चुक्र के जातक को सियो से, कविता, नाटक, खद्धीत कलाओं से धनखभ होता है । इसका निर्देरा भी धन की मुख्यता की ओर दै ॥ | “शुक्रः करोति सुगुण धनाम्‌ ॥ वशिष्ठः अ्थं–एकादशस्थ श॒क्र होने से जातक गुणवान्‌ ओौर धनी होता है । “सीरत वर ॒रल्लाव्यो स्वस्थ रोक विवजितः। सम्पन्न धन भ्रव्यश्च मर्त्यो लाभगते सिते॥ गर्गः अर्थ–यदि लखाभमावगत श्क्र हो तो जातक रत्नरूपा उत्तम स्री तथा रलं से युक्त होता है । इसका शरीर नीरोग होता है-इसे किसी प्रकारका शोक नही होता है । यह धन सम्पन्न तथा नौकयें से युक्त होता रै ॥ “’्धनाल्यमितराङ्गनारतमनेक सौख्यं भवे ॥ सोत्रेदवर

३८० चमस्कारचिन्तामणि का तुरखुनाव्मक स्वाध्याय

अथै-श्चक्र के एकादशमभावमें स्थित होने से जातक धनी, सुखी भौर पराज्ञना मे आसक्त होता ह । ८वहुधनागमवान्‌ खमतिः पुमान्‌ नरनगौत विदायगते सिते ॥ जयदेव अर्थ–यदि शुक्र लाभभावमं हो तो जातक धनी, बुद्धिमान्‌ तथा वृत्य गीत का विरोषज्ञ होता दै । खमे शक्रे सदाखभो वश सत्यगुणान्वितः। धनी भोगी क्रिया शुद्धो जायते मानवोत्तमः |> काक्ीनाथ अ्थे–यदि शुक्र खभभावस्थ हो तो जातक नरश्रेष्ठ, यशस्वी; गुणी, घनी, भोगी; सदा लाभयुक्त ओर सदाचारी होता है ॥ “वछभमन भावगते भ्वृगुनन्दने वरगुणावदहितोऽप्यनल्नतः । मदनठुल्यवपुः सुखमाजनं मवति हास्यरतिः प्रियदशनः ॥” मानसागर अथे–लाभमावगत श्रुक्र के होने पर॒ जातक उत्तम गुणों से युक्त, अथि- पूनक-अथ्िहोची कामदेव के समान सुन्दर तथा कमनीय शरीर वाखा सुखी, हास्यप्रिय तथा आकर्षक शरीरवाला होता ई ॥ धप्रतिरूपदासभ्यत्यं बह्ायं सर्वंशोकसन्त्यक्तम्‌ । जनयति भवभवनगतो श्रगुतनयः सव॑दा पुरुषम्‌ ॥* कल्याणवर्भा “वेद्या खरी संयोगेः गमनागमनैः धने मवति पुंसाम्‌ । यायेसितेऽपि चैव मुक्तारजतादि भूयिष्ठम्‌ ॥ ““नगरपुरबन्दयोगैः स्थावर कर्मं ॒क्रियामिरपिवित्तम्‌ ॥ अर्थ–यदि शक्र लाभभावस्थ दहो तो जाक के दाख भौर भूत्य इसकी आज्ञा के अधीन चलने बाले होते ै। इसे भारी मालाम लाम दोता रहता हे । यदह सदैव शोकरदित होता दै । इसे वेद्याथों के सम्बन्ध से, धूमने-फिरने के व्यवसाय से मोती-चोदी भादि के व्यापार से काफी धन मिलता है गोवि वा शहर के सम्बन्ध से मौर इमारतें बनवाने के कामोंसे धन का लखाभ होता है॥ ‘सद्गीत श्त्यादिरतो नितातं निव्यं च वित्तागमनानि नूनम्‌ । सत्कमं धर्मागम चित्तवृत्तिः भगोः खतो खामगतो यदिस्यात्‌ | वृहृद्यउनजातक अथं–यदि भृगु पुत्र शुक्र लभभावमे होतो जातक की सचि गायन विद्या, व्रत्य आदि कल्म होतीर्दै। प्रतिदिन धनागम होता रहता है, अथात्‌ जातक की धनवृद्धि प्रतिदिन दिन-दूनी रात-चौगुनी होती रहती है । सकी वित्तवृत्ति सदा श्रुभक््मो कौ अर लगी रहती है इसका आचरण ास्रानुकूक तथा धार्मिक होता है । संगीतव्रव्यादरता नितांत नित्य च चितागमनानि नूनम्‌ । सत्कमधमांगम चित्तवृत्तिः भृगोः सुतो खाभगतो यदिस्यात्‌ ॥» दण्डिराज

शक्रफरु ३८१

अर्थ- जिसके एकादशमावमें शक्र दो वह जातक संगीत भौर द्य का आदर करनेवाद्म होता है। इसे सदैव मानसिक ॒चिन्तार्पैः लगी रहती ह । यह सत्कर्म करनेवाला होता है । इसका मन धमं मेँ ख्गा रहता है ।

“सदा गीतद्रत्यं धनं तस्य गेहे युकमौं सुध्मागमे तस्य चित्तम्‌ ।

टट विद्यया हश्वरे तस्य चित्तं यदा भागेवो कमभाव प्रयातः ” जागेश्वर

अथ-लामभावमें श्चुक्रके होने पर जातकके धर पर नित्य नाष्वना गाना होता रहता दै । इसे धन प्राति होती है । यद सत्कमं करनेवाला होता है, इसका चित्त धमं म तथा शाख्रानुकूढ भाचरणमे ख्गा रहता ह । यह ज्ञानवान्‌ दोने से ईश्वरभक्त होता हे । ““सुसौख्यवाहूरं सुवित वादनादि वाद्रुलं समभूत्यवाहूुकं कुटम्ब वाहक नरस्य च । सुभाग्यवाहूरं सुभोग भूषणादि वाहु सुराभदो पात्‌. करोति लाभगो शयुः ॥”

  । हरिगंश

अर्थ-लाभभाव मे श्क्रके होनेसे जातक को सुख विपुलमात्रा में मिता दै । इसे धन, वाहन; आदि भूयसी मातरा म प्रास्त होते ई-नौकरः कुटुम्ब, सौभाग्य, भोग, भूषण आदि भी मारीमाघ्नामें प्रात होतेरहै। इसे राजासे लाम होता हे,

भ्रगुसूत्र- विदान्‌ , बहुधनवान्‌ ; भूमिखमवान्‌ ; दयावान्‌ । शुभयुते अनेकवाहनयोगः, कनकसमृद्धिः । दिव्यकाया सुकान्तिः । पापयुते पाप मूलात्‌ धनलाभः । श्चमयुते श्चम मूलात्‌ । नौचक्षे पापर्प्रे्ादियोगे लमद्ीनः।

अथ–यदि किसी जातक के एकादशभाव में शक्र होतो वह विद्वान्‌; बहुधनवान्‌ , भूमिलाभवान्‌ तथा दयावान्‌ होता है । श्चुभग्रहों के साथ स्वध हो तो शरीर बहुत कान्तिमान्‌ होता है। इसे. बहुत प्रकार के वाहन, धोड़ा- हाथी-गाड़ी-स्कूटर मोटर आदि र बहुत सोना प्राप्त होता है। यदि यदह ` छुक्र पापग्र्होसे युक्तषोतो बुरे कामोंसे धन का खभ होतारै। ओौर यदि श्चुभग्रदों से युक्त होतो अच्छे कामोंसे धनलाभ होता है। नीचराि मे, पापयह के साथ वा अष्टमेश्चसे युक्त होतो खभनदींहोताहै।

पाञ्चात्यमत-एकादश्भाव का शुक्र अच्छे मित्रं की मदद से प्रगति करता रै । व्यापार मे सफ़रता प्राप्त करते दुष धनलाम प्राप्त करता है । इसे विवाह से भी धनलामदोतादहै। चयो के आशय से भाग्योदय होता ई। इच्छार्थे पूरी होती ई । पुत्र बहुत होते ह | मित्रों के परिवारों से विवाह सम्बन्ध होति ई । यह श्रुक्र दूषित वा निव॑ङ नहीं होना चादि । यदि एकादश शुक्र मंगल, शनि, ह॑ वा नेपच्यून से युक्त हो तो भश्चभफख मिक्ते है । रवि से श्चभयोग हो तो लियं से, चन्द्र से श्भयोग हो तो मनोरंजक चखे्खे से, मंग से योग हो तो आकस्मिक प्रेमसे; बुधसे योगो तो चालक रोगों से, गुखसे योग होतो मित्रों से अच्छा लखमदहोतादहै। शनिके साथंयोग होतो शोकमय परिस्थिति पेदा होती हे ।

३८२ पवमत्कारचिन्तामणि का तुरुनारमर्‌ स्वाध्याय

विचार ओर अज्ञुभव-एकादद्यस्थान का शुक्र श्म होता है अतः प्रत्येक अ्रन्थकार ने अच्छा फर लेखनींविद्ध किया है! एकादशस्थ श्चुक्र यदि पुरुषराद्ि मं होतादहै तो पुत्र संख्यामं कम ओर कन्याएं मधिक होती दह। यदि यह श्युक्र मेष, सिंह, तथा धनुमं होतो पुत्र नहीं होतेवा होकर मर जाते है ¦ वड़े भ्राता काखचं उठाना पडता दै | धन प्राप्ति भी बहुत, भौर खचं भी बहूत होता दहै । व्यापारो वा नौकरी, व्यवस्थित रहते ह । यदि यद्‌ शुक्र स्रीराियोंमे होतो पुत्र अधिक ओर कन्याएंकम होतीर्है। एका- दास्यश्च के जातकों का आचरण दुषित होता ह। पथभ्रष्टाखिर्यो से अनुचित तथा अवेध सम्बन्ध रहतादै। ये कृपण ओौर कलजूस होते है । इनके विरुद्ध अफवाहों का वाजार गमं रहता है-ये स्वार्थ तथा मित्रता की पक्र न करने वाठे होते है। ककं, वृश्चिक तथा मीनमेश्ुक्रहो तो संतति का अभाव रहतादहै वा केवट कन्या होती ह । इस स्थान के शुक्र के होने से द्विमार्यायोग दो सकता दहै ।

यदि जातक का जन्म नीच वगंकादहो तो भाग्योदय २२ वषं से सम्भावित होतादहै। यदि जातक उचचवर्गसे हो तो भाग्योदय की सम्भावनारेरर्व वप्रेसे होती दै । व्ययस्थानगत शुक्र के फट- कदाप्येति वित्तं विीयेत पित्तं सितो द्वाददो केलिसत्कमे शसा । गुणानां च कीर्तः क्षयं मित्रवैरं जनानां विरोधं सद्‌ाऽसौ करोति ॥ १२

अन्वय :-( यदि) असौ सितः द्वाददो ( स्थात्‌) ( तदा ) कदा अपि वित्तं एति, पित्तं विटीयेत । ( खः ) केडिसत्कमं शम † ( स्यात्‌ ) गुणानां कीतंश्च क्षय, सदा भिघ्वेरं जनानां विरोधं ( च ) करोति ॥ १२॥

सं< टी<—द्वादरो सितः श्चुक्रः असौ केलिसत्क्म॑शचमं क्रौडासद्‌न्ययजनित- सोख्यं गुणानां कीर्तेश्च श्चयं नां, मित्रवैरं जनानां विरोधं कलहं सदा करोति | तथा कदापि वित्तमेति धनं प्राप्नोति, पित्तं विलीयेत रीनं स्यात्‌ कफाधिक्यं स्यादित्यथः | नित्यमिति कचित्पाठः सुगमः ॥ १२ ॥

अथं- निस जातक के जन्मल्यसे बारह स्थानम श्ुक्रहदो तो उसे कभी धन प्राप्तहो जाता है। ओर उसका पित्त शान्त हो जाता है-अर्थात्‌ जातकरके शरीरम पित्तकी अपेक्षा कफ अधिक मात्रामें रहता है । यह जातक क्रीडा ओर श्चुमकर्मं से युखी रहता ह। अथात्‌ यह जातक अपना

समय क्रोडा तीत करके सुख मानता दहै आओौर अपने धन को दयुम कर्मौ <- ख्व करके सद्व्ययजन्य सुख प्राप्त करता दख जातक का गुण सौर यश्च <-

नष्ट होजाता है| यह अपने मिन्रोंसे तथा लो्गोंसे भी वैरकरत 1 है ॥१२॥ | टिष्पणी–ग्ययभावगत शक्र धनदाता अवद्य है। किन्तु व्ययाधिक्य भी करवाता है । परिणाम यह दै कि जातक धनाल्य नहीं हो पाता, प्रस्युत निर्धन-

छक्रफट ३८३ प्राय दी रहता है । एकनबात मच्छी भी है-जातक का व्यय श्युमकर्मौमें होता है अतः यह व्ययी श्रेयस्कर दोताहै। क्रीडा शब्द का अर्थं (साधारण कोतुक-मनोरंजन आदिभी रै ओौर रति-विखास भी रै-रक्र ख्रग्रह होते ` हए रंगीखा रह है । अतः दोनों प्रकार की क्रीडां मन्तव्यदहो सकती ै। कफ प्राधान्य से कफ सम्बन्धी रोग प्रायः दख के कारण बनते ई । “करोति भः शछेष्ममर्त्‌प्रकोपम्‌” गदावली मं शछेष्माजन्ययेग शक्र के बतखाए दै । नारांयणभट्क ने णपित्तंविखीयेत एेखा फल द्वादश्चभावगत श्चक्र का कदा दै। इस कथन के ग्म मेँ एक बन्धक सत्य निहित है–वातपित्त-कफ तीन धात्‌ होते है-इनको धात इसलिए कटा है क्योकि इन्हीं तोनोंसे देह का धारण होता है। प्राणिमात्रे शारीर मे तीनों धात्‌ पाए जाते है । जब तक इनकी साम्यावस्था रहती है शरीर पुष्ट भौर कायं करने योग्य बना रहता है-जब इन तीनों मसे किसी एक का आधिक्य अौर करिसी एक की हीनता होती दहै, रोग प्रादुभूत होते ईै-जिख कीसी प्राणी मे अर्थात्‌ उसके शरीर मेँ पित्त का दूसरी धातुओं की यपेश्चा से, आधिक्य हो जाता है-उसे साम्यावस्था मं खाने के लिए वैदयविहोष यत्ल करता है। शमनोप्वार किए जाते है । युवावस्था में प्रायः साम्यावस्था रहती है । अतः शरीर नीरोग रहता ३, व्याधि कम आती है–रोगों पर प्राणी का आधिपत्य होता है। बद्धावस्थामे कफ का आधिक्य होने से शछेष्मा सम्बन्धी रोग प्रज हो जाते ईै-स्वाखसम्बन्धी रोग प्राणी के लिए कष्टदायक हो जाते ईै-जीवन सुखमय न होकर, कष्टमय हो जाता है । इस परिस्थिति का कारण बृद्धावस्था होती है–इसके राज्य मे सभी मङ्ख टीले पड़ जाते है, निबल्ता का साभ्राञ्य स्थापित दहो जातादहै। इस तथ्य को जत- खाने के िषएटः “पित्तं विलीयेत” एेसा का है- रेता प्रतीत होता है । श्यक्र प्रभाव मे आए हूए पुरुष विलासी ओर व्यभिचारी इत्ति के होते है भतः शील भ्रष्टता तथा अपकीति अवद्यभावी है । परस्पर मि्रोंमे वैमनस्य तथा बेर सौर विरोध खि्यो के कारण प्रतिदिन देखने मे भाते ह । कथन का ताप्पयं यह दहं कि द्वादशद्यक श्भ-सश्चम दोनों प्रकार के फल देतादहे क्योकि द्वादश्स्थान नेष्ट स्थानदहे।

तुखना–“कदाचिद्‌ वित्ताप्तिः प्रतिदिनमपायस्तनुगरतः ,

सिति रिष्फिागारं गतवति यदा जन्म समये।

सद्‌ा काम क्रीडा प्रभवति महत्कर्मकरणं ,

शुणानामस्पत्वं दहितजन विरोधश्च सहसा ।।’ जौोवनाथ थ– जिस जातक के जन्म समयमे शक्र द्वाद्णभावमे हदो तो उसे कदाचित्‌ धन का लाभ दहोता है, किन्तु खं प्रतिदिन होता है। सदा काम क्रीड़ा ( रतिविखास ) होती है । जातक शेष्ठकर्मौ को करतादै। गुणों की भस्पता होती ई जौर सहसा भित्रा से विरोध होता है ।

३.८४ ‘वमरकारचिन्तामणि का तुरखुनातव्मक स्व।ध्याय

रिप्पणी-नारायणमङ तथा जीवनाथका द्वादशभाव का फट प्रायः मिक्ता जुख्ता हे । धन कालाम कदाचित्‌ होता हे। किन्तु खर्च प्रतिदिन होता ह–““भमदनी कम ओौर ख आमदनी से बहुत अ्यादह, यह परिस्थिति गरहस्थिर्यों के छि अवांछनीय हे । ‘भय अधिक मौर व्यय अस्प यह परिस्थिति सभी के ठिएु अनुकूल ओौर वांछनीय हे । सदेव “कामक्रीडा शक्तिहास तथा विविध रोगों की जननी अवश्य हो सक्तीदहे। ऊचे दके महत्व प्राति कराने वाटे युभकम द्वादश्चभावस्थ श्यक्र के फल अत्यन्त श्युभ है । ‘द्राददो खलः” वराहमिहिर । अथ-यदि जातक के द्वादशमं शुक्र हो तो जातक क्रस्चेष्ट होतां हे। टिप्पणी-द्वादश्चभाव का शक्र यदि मीनराशिमें हो जादक धनवान्‌ होता हे । ““शक्रे बन्धुविनाशकोऽव्यगृहगे जारोपचारोऽधनी ।”° वनाथ अथ–यदि जातकके द्वाददाभावमं राक्र हो तो वह बन्धुनाश्क, व्यमिचारबुद्धि ओर निधन होता है। गतसुकमक्रियः स्मरचेष्टितः कलिरुचिः सधनो म्ययगेभ्रगो” || जथदेव अथ–यदि जातक कं राक्र द्वादशदहोतो वह दुष्कमं करनेवाला अथात्‌ दुराचारी; कामुक, कलह प्रिय अर्थात्‌ ज्लगडाद्‌ तथा धनवान्‌ होता है । रिप्पणी- वैद्यनाथ के अनुसार द्रादशस्थ शक्र के प्रभाव मे उत्पन्न जातक निधन होतादहै। किन्तु जयदेव कविके अनुसार द्वादश्चभावगत शक्रका जातक धनवान्‌ होता है | दृष्टिकोण में भारी मतभेद रै , “भ्यये शक्रे व्ययाठ्यश्चगुरुमित्रविरोधवान्‌ | मिथ्यावादी बन्धुवर्गे गुणदहीनोऽपिजायते ॥ काश्ीनाथ अथ-यदि राक्र द्वादश हो तौ जातक खर्चा होता है । अर्थात्‌ जातक अपनी साय से अधिकं खचं करने वाला होता है, “भर्थात्‌ आमदनी अञ्न्नी तो खचं है रुपया” इस कहावत के अनुसार जातक व्यवहार करता है- इसका परिणाम निधनता, होती दै-यह ध्वनि “व्यालय शब्द से निकल्ती है यह जातक मित्रं मौर वडांसे न्गडने वाला होता है। अठ बोलनेवाला भौर वधु मं गुणङ्धीन होता है | राक्रो वहूव्ययकरो व्याधिकरः ॥ वशिष्ठ अथ- द्वाद राक्र होतो खर्च वदत होता है । ओौर रोग होते र । श्रद्धाहयीनो घ्रणाहीनः रदाररतः सदा | व्ययस्थानगते राक्र गेगातः स्थूक देहकः || गर्ग अथ– जिस जातक के द्वादशभावमें शक्र हो वह श्रद्धादीन-दयाहीन परस्रीगामी-रोगी तथा स्थल शरीर होता है | ष्युः जनयतिव्यये सरतिसौख्यविन्त्तिम्‌ ॥” भेन्वरेहवर

२५ डकफर ४८०

अथे–द्वादशभाव का शक्रो तो जातक को रतिसुख, अर्थात्‌ खरी के साथ संयोग होने का सुख प्रप्र होता है । जातक वैभवयुक्त तथा तेजस्वी होता हे । “अलसं सुखिनं स्थूल पतितमृष्टारिनं भृगोस्तनयः । शयनोपचारकुशरं ` द्वादशः खीजितं जनयेत्‌ ॥ कल्याणवर्मा अथे–द्वादशभावका रुक्र होने से जातक भर्खी, सुखी; स्थूल शरीर, यचारदहीन दुरा्ारी, शओोधित अन्न खाने वाला, कामक्रीड़ा में निपुण तथा स्री क अधीन रहनेवाख होता है । | | ““जनितनोः व्ययुत्रर्विनि भागेवे मवति रोगयुतः प्रथमं नरः | तदनु दुभपरायणचेतनः कदाबरो मलिनः कृपणः सदा.॥ भानसागर अथे–दवादशमावस्थ शुक्र का जातक वचपन मं रोगी, पीठे नीरोग होकर कपटी; दुर, मलिन ओौर सदा कृपण होता है । ““संत्यक्तसत्कमंगतिः विरोधी मनोभवाराधन मानसश्च । द्याट्धता सत्यविवर्जितश्च काव्ये प्रसूतो व्ययभावयाते ॥ दुण्डिराज अथं–जिसङे व्ययभाव में शुक्र दो वह जातक अच्छे काम बिल्कुल नदीं करता हे । यह विरोधी कामक, दयाडताहीन ओर मिथ्याभाषी होवा हे । `” संव्यक्तसत्कमंगतिः विरोधी मनामवाराधनमानसश्च | द्याद्तासत्य विवर्जितः स्यात्‌ काव्ये प्रसूतौ व्ययभावयाते ॥* अहै अथे-जिस जातक के द्वाद््यमाव में श्चक्र हो वह शरेष्ठ कर्मके मां को त्यागदेताहै। वह दूसरों के साथ विरोध करने वाल्य होता है । उसका चिन्त कामदेव के माराधन में ख्गा रता है, अर्थात्‌ उसके मन पर चखीसहवास करने का भूत सवार रहता है । दयालता ओौर सत्यभाषण इस जातक के निकट भी नहीं भाते ह अर्थात्‌ यह ॒कूरस्वभाव तथा मिथ्याभाषी होता ई । ““साहवलर्वा वदकार कमसदहथ मानवो य॒दितः । „ बदभद्कः किर जोरा खष्वमकाने दि रुस्वरो मवति ॥* ख(नखान। अथ– जिस जातक के द्वादशमाव में शक हो बह बहत ख्व करने

वाख, _ खर्र काम करनेवाल, किसी की बात न सने वाला, दुंद ओर क्रोधी होता है । क + “संप्यक्तसत्कमविधिः विरोधी मनोमवाराधनमानखश । दयाढ्ता सत्यविवजितः स्यात्‌ काव्येप्रसूतौ व्ययभावयाति ॥ | वृहुधवनजातक अथं–जिस जातक के जन्मसमय श्र द्वादश्चभावमे हो तो वद्‌ अच्छे काम शिख्कुरु नहीं करता । यह कामुक आओौर निर्दय तथा च्ूठ बोलने वाला होता है। स्वयं सत्यहीनो दयानाश पीनः प्र्प॑ची भवेत्‌ कामवातीवरिष्ठः | त्यजेत्‌ सतूक्रियां पापवार्तागरिषठः कुशलः कुलीलो व्यये श॒क्रनामा ॥ जागेह्वर

३८६ षवमरकारचिन्तामणि का तुरखनाष्मक्‌ स्व।(ध्याय

अ्थं–द्वादश्भावस्थश्चुक्र का जातक चूडा, निर्दय, स्थूलकाय, संसारी, कामुक, पापी आओौर दुराचारी होता है । “स्वमानवेषु रात्रुतां तथा परेषु मित्रतां,

तथा दयाविदहीनतां तथारारीरदीनताम्‌ | मलिनतां कुकमतां कटोरतामसव्यतां , भरुः व्ययाल्यतांकरोति व्ययाल्यगतः ॥* हरिवंश

अथे–द्रादशभावस्थ शरुक्र प्रभावान्वित जातक आस्मीय सजनां से रातरुता करता है, तथा अपने शन्नुओंसे प्रेम करता दै। यह जातक निर्दय, दुर्बल, मलिन, दुराचारी, कटोर, डा ओर खर्वीला होता है । पाश्चात्यमत- जिस जातक के जन्मकालमें शुक्र हादशभाव मेदहोतो इसका विवाद जल्दी होता दे। यह व्यमिचारी होता है । गप्तरीति से विषय- सुख प्राप्त करना चाहता है । ययभग्रह से सम्बन्ध दहो तो ये सम्बन्ध गुप्तं रहते हे । किन्तु रानि, मंगल, दषल वा नेपच्यून से अश्चम सम्बन्ध हो तो दुष्कीर्ति, ओर संसारयुख का नाश्च होतादहै। कद वार विवाहिता ल्ीको छोडकर रखेल के साथ रहते ह । इधिक, मकर, कन्या; ककं तथा मेष मे यह शरक सय्यभ होता है। यह पीड़ित शक्र स्ियोंको शत्रुता ओर उससे धनहानि का फल देता हे । इस स्थान मेँ वल्वान शुक्र पद्यपाल्न की रुषि ओौर उससे लाभ वतलाता है। इस शक्र पर शनि की अश्चभद्ष्टि होतो पकी की मृघ्यु, खी- व्रियोग; तलक्देना आदि प्रकारोंसे छख्रीयुख नष्ट होता है। चन्द्र भौर मंगर का शुम सम्बन्धदहोतो इसका व्यभिवार गुप्त रहता दै। यह चन्द्रश्रर्वे स्थानमं होतो व्यभिचारी प्रवृत्ति बहुत तीत्र होती है। यह शक्र पीडित होने से ठगो द्वारा बहुत नुकसान होता है । धरगुसूत्र–“वहुदारिद्रयवान्‌ । पापयुतेविषय लोम परः । श्चुभयुक्तशेद्‌ बहु- धनवान्‌ । शय्याम॑चकादि सौख्यवान्‌ । श्भलोक प्राधिः । पापयुते नरकप्रातिः | अथं–द्वादशभावगत शक्र प्रभावान्वित जातक बहुत दस्र होता ह। पापग्रहके साथदहोतो विषयी होतादै। इसे मत्युके वाद नरक प्राप्त होता हे । शुभग्रहके साथहोतो धनवान्‌, शय्या मादि सुख से युक्त होता है। तथा मृत्यु के अनन्तर अच्छी गति प्राप्त करता है। विचार ओौर अनुभव-द्वादशमावगत राक्र प्रायः अशभफल देता दे यह प्रायः सभी प्रन्थकार्योका मतदहै। क्यों क्योकि यह ग्रह किसीन किसी, अशम स्थानका स्वामीदहोता रहै | मेष ल्य होने परर यह दाक्र धनेश अर सतमेश (मारक स्था्नोका) स्वामी होता है। वृषल्य्र मेँ षश, मिथुन लग्र मं व्ययेशषः सिह मँ व्रतीयेश्; कन्या में धनेश, तुला मे अष्टमे, बृश्रिक मे व्ययेश तथा धनु ल्य्रमें षषे होता दै। यदि यह शक्र मकर ओौ

शनिविष्वार ३८७

ङ्भवल्यमं डो ती थ राजयोगकारकदहोतारहै। मीनल्यमे-भी अशभदी हे क्योकि अष्टमेश ओौर व्रतीयेस् होवा दै |

यदि द्वादशभाव का शक्र मेष, सिह, धनुराशियों काहोतारहैतो जातक की खरी गडा होती है । यदि मिथुन, वला ओर कुम में यह शक्रहोतो पलनी आकषक होती है| यह राक्र नौकरी में सफलता देता है, तौभी स्वतंत्र म्यवसाय करने की ओर इच्छा रहती है । अतः मानसिक अस्थिरता रहती है । धनलाम साधारण होता है। नैतिक आचरण अच्छासख्री तथा मित्रके प्रेम की इच्छा रती है । कन्तु अपने मे योग्यता नद्यं रहती । यह राक्र जातक को कवि-लेखक, चित्रकार, गायक, नर्तक, आदि कलाकार नाने मे समर्थं होता है। यदि यह दक्र खीराशिका होतो जातक कामुक ओर व्यमिषारी प्रवृत्ति का होतादहै।

दादश शुक्रदो विवाह करवाताहै। अर्थात्‌ दो विवाह होने सम्भव द । द्वादशराक्रके होनेसेखरीके साय कलह रहता है । यदि शनि से दूषित हो तो यह श॒क्र विजातीय स्री से विवाह का होना सम्भावित करवा देता है। अथवा अविवाहित रहने कौ ओर रुचि रहती रै । सरैध सम्बन्ध निभाने कौ ओर यल होता है । आर्थिक स्थिति साधारण, क्ण ख्गा रहता दहै । मृत्यु के समय कऋणरादित्य सम्भव होता है ।

दानि-विचार–

हानि के पयोयनाम–शनि, मन्द, छायासुत-पंगु, पंगुकाय, कोण, तरणि तनय, च॒मणिखुत; पातगी, मृदु, नीरः कपिखक्ष, कशांग, दीं, छायात्मज; यम, अकपुत्र, सौरि, करोड; क्रूरलोचन, दुःख, काल |

खनि का सामान्य-विदोषस्वरूप-

“मन्दोऽलसः कपिख्टक कृशदीर्घगानः स्थूलद्विजःपरुष . रोमकब्ोऽनिखतमा ॥ गराहमिहिर

अथे–शनिप्रधान पुरुष भाल्सी, पिगल्वण, दष्टियुक्त, दुबला तथा खम्बा देहवाला, मोरेदांतोवाल होता है । इसके रोम मौर केश र्खे होते है । यह वातप्रङृतिप्रधान होता हे । सूयपुच्र चनि दुःखदायक, काले वर्णं का होता है। लाय, कूड़ा करकट फकने की जगह फटे-पुराने कपड़े, लोहा, शिरिर-क्तु तथा नमकीन इउविपर शनि का अधिकार है ॥ |

“पिगेक्षणः कृष्णवपुः शिरालो मूर्खोऽलः स्थूटनखोऽनिलासा ।

क्रोधी जरावान्‌ मलिनः करांगः स्नायाततः सूयंसुतोऽतिदीर्घः ॥>’ गुणाकर

अथे-शनिप्रधान व्यक्ति कौ ओति पिङ्गल ( पीटी ) छरीर काला, नाखून बहुत बडे; कद्‌ लम्बा; भौर स्नायु विस्तृत होते है । यह क्रोधी भौर आलसी तथा मन्दबुद्धि होता है। इका शरीर दुबल होता है-यद देखने मेँ बढा

३८८ पवमरकारचिन्तामणि का तुटखनारमक्‌ स्वाध्याय

मादू पड़ता है । इसकी प्रकृति वातप्रधान दोती हे) इसकी नँ मोरी-मोरी दीखती है ॥ “िद्खो निम्न विलोचनः कृरातनुः दीर्घः शिराोऽल्सः, कृष्णाङ्धः पवनात्मकोऽति पिश्चनः स्नास्वाततो निर्घृणः | मूखंः स्थूलनखद्विजोतिमटिनो रुक्षोऽश्रचिस्तामसः; रोद्रः क्रोधपरो जरापरिणतः ङष्णाम्बरो भास्करिः ॥ कल्प्राणवर्स् अ्थे–पिङ्खल्वण, गहरे नेत्रां वाला, कृददेह, लम्बाकद, नशो से व्याप्त, आलसी काल्वर्णं, वातग्रकृति, चुगुख्खोर, स्नायु में वख्वाला, निदेयी, मूर्ख, मोटे नाखून ओर मोटे दिवा, सअतिमलिनि वेश, कान्तिहीन, अपवित्र, तमोगुणी-देखने मे भयंकर, क्रोधी, बूटा, काटेव्ोवाखा खनि है ॥ “काठिन्यरोमावयवः चात्मा दूवासिताङ्गः कफमाश्तात्मा | पीनद्धिजश्वारपिराङ्गदष्टिः सौरिस्तमोबुद्धि रतोऽल्सः स्यात्‌ ॥ वंद्यनाय

अथे–रानिप्रघान व्यक्ति कै केश यौर अवयव किन होते ै। इसका शरीर दुब होता है । शरीर का रङ्ग दूर्वां जेसा काला होता है । इसकी प्रकृति कफवात की होती दहै। इसके दत मोटे होतेईद। दृष्टि पिद्खल्वणे की; यह तामसीबुद्धिवाखा तथा आख्सी होता है । शनि का उदय प्ष्टभागसे होता है। यदह चोपाया) पर्व॑त तथा वनो मे घूमनेवाटा, सौवषं कौ आयु का; मृटप्रधान होता है। इतका देवतः ब्रह्मा है, इसका रल नीलम है| इसका प्रदेश गङ्ञा से हिमालय तक है। यह वायुतत्वग्रधान कसेटी रचिवाखा, निग्न दष्टिवाख ओौर तीशा स्वमाववाखा होता है। वला, मकर, कुम्भराशिमे; खी स्थानमे; विषुव के दक्षिण खयन मँ, द्रश्काणु कुण्डली मं, स्वरह मे, शनिवार मे, अपनी द्या मे, रारि के अन्तमागमे, युद्ध के समयमे, छृष्णपक्मं, वक्री दोनेके समय किसी मी स्थान मे, शनि बलवान्‌ होता है ॥ ““कृच्छदीर्यतनुः शौरिः पिदङ्गडष्यानिखस्कः । स्थूलदन्तोऽखञः पडकः सररोमकचो द्विजः ॥ कराश्चार अथे–शनि का रीर दुव॑ यौर ट्म्ा होत्रा है । यड पिद्गल्वणे टि का, तया वायुव्रधान प्रछ्तका होतार) इसके दति भ्रोटेहोते ष । यद याट्सी होता दै । इसके सेम अौर केश तीखे भौर कठिन होते है । शनि शुद्र हे । तामसप्रकति का ई-दिन के अन्त मँ बख्वान्‌ होता है-यह देखने सें खुन्दर नहीं है; प्रत्युत भयावह है । अनि भाग्यहीनो तथा नौरसवस्तुभां पर अधिकार रखता है) ` “क्रियास्वपटः.कातराक्चः कृष्णः कृरदीघांगो बह ददन्तो । रूक्षतनुरुहो वांतासा कटिनशाक्‌ निन्यो मन्दः ॥ अहादेव

शनिविचार ३८९

अथ–शनिग्रधान व्यक्ति कायंकुशल नदीं होता है । इसकी ओं डरपोक प्रतीत होती ईै। इसका रङ्ग काला है। इसका शरौर दुं ओर लम्बा होता है। यह बड़े ओर मोटे दातोवाखा होता है। इसके रोम सूखे दते ह । यह वायुप्रधान प्रकृति का दै । यह कठोरवाणी बोता दै । यह निन्दनौय होता है ।

“शानिः कृशः इ्यामल्दीषंदेदोऽलषोऽनिखात्मा कपिटेक्षणश्च ।

पृथुद्धिजः स्थूलनखौष्ठकेशः राठः . शिरौजाः पिश्चनः स्वभावात्‌ ॥* जयदेव

अर्थ– दुर्बल, कृष्ण, लम्बादेह, -भलस्ययुक्त, वातप्रकृति, पीलेनेत्र, दीषं- दन्त, -दीर्धनख, मोटेहोट, मोटेकेश; शाट, तेजस्वी नाडियों वाखा, स्वभाव से दी

चुगुरुखोर शनि होता है । रानि पथिमदिशा पर अधिकार रखता है । यदह बूटा; पक्षीस्वरूप; भूमिका

स्वामी तथा संकर जाति का है । यह संष्यास्तमय बलवान्‌ होता है ॥ “मूर्खो ऽर्सः कष्णतनुः कृशाङ्गः स्यात्‌ सायुसारोमलिनोऽतिदीः । क्रोधी जरत्‌ पिङ्गटशोऽकसूनुः सपैत्यवाथुः प्रथुरोमदन्तः ॥ ` पुञ्जराज अ्थ–शनिप्रधान व्यक्ति मूखं-भालसी, काल्मशरीर, दुर्बल, नाडयो द्वारा नटी, मलिन, कद बहुत लम्बा; क्रोधी, बृटा, पौलेनेर्नोवाला; पित्तवातप्रधान प्रकृति, मोटे केश तथा मोटे दांतोवाला होता है ॥ | | पड्र्नम्नविलोचनः रातनुदीषः शिरारोऽर्सः , कृष्णाङ्धः पवनासकोऽतिपिश्चनः स्नास्वासमकोनिर्घणः | मूखैः स्थूलनखद्विजः परुषरोमाङ्गोऽद्यचिस्तामपे , रौद्रः क्रोधपरो जरापरिणतः कष्णांबरो भास्करिः ॥ संत्ेहवर अर्थ-शनि ठगड़ा है । इसकी ओं गदेदार ई । शरीर दीं किन्तुङ्स है । नस बहुत है । स्वभाव से मर्सी है । शरीर कारङ्गकालादहै। वात की प्रधानता है । स्वमावसे कठोर हृदय ओौर चुगुख्खोर है । मृखं है । इसके . दांत ओौर नाखून मोरे दै । इखके शरीर के अवयव सौर रोम कठोर है । यद अपवित्र, देखने मे मयानक यौर स्वभाव से क्रोधौ है । काठेवखर पदिनता दै । बद्ध अवस्था है। विशेषतः तमोगुणी स्वमावकादहै। निम्नधरेणौ के. रोगों के निवासस्थान, अपविच्रश्थान; पश्चिमदिशा के स्वामौके स्थान; परर शनिका अधिकार रहता है । स्परेन््रय, रोहधावु, सोवषं की उमर, ज्ञानप्रापि; प्रवास; सौरा प्रदेश-तिल, काल, वायुतत्व, ये शनि के अधिकार के विषय ह| ‘इयामलोऽतिमलिनश्च शिरालः सालसश्च जयिलः करादीर्षः | स्थूलदंतनखपिंगलनेत्रोयुक्‌ शनिश्च खख्तानिख्कोपः ॥** दृण्डिराज अथे–शनि द्यामवर्णं, हृदये से भर्थात्‌ अन्तरतमा से मलिन, नसं से व्याप्त देह वाला, स्वभाव से आलसी, जटायुक्त, दुब॑ङ तथा लम्बा शारीर, दांत ओौर नाखून मोटे, पीत वणं की आंखोवाल, दुष्टस्वभाव, क्रोधी तथा वायु- प्रान प्रकृति का होता हे ।

३९० ष्वम स्कारचिन्तामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

एटनलियो का मत- दयम तथा एकाददा रादियों पर-नि का अधिकार हे; अर्थात्‌ मकर ओर कुम राशिका स्वामी शनि दहै। इसका उच्च स्थान सप्तम रादि तुखा है । शनि सीमामग्रह कदलता है क्योकि यहां पर सूयं का प्रभाव समाप्त होता है वहां पर दानि के प्रभाव का प्रार॑म होता हे।

कायकुशल्ता, गंभीर विचार, ध्यान भौर विमशं-ये सभी शनिके प्रभाव मे आते ह । आत्मविश्वास, संकरुचितचरत्ति, मितव्ययता, सावधानता, धृतता ये सब शनि क स्वभाव विदोष होते है। इसकी इच्छाराक्ति प्रबल होती दै। यह शांत; सहनशीरू) स्थिर तथा इदृग्रवृत्ति का होता हे। उद्टास, आनन्द, प्रसन्नता, ये गुण प्रायः इसके स्वभाव मे नदीं ह । ब्द्धावस्था पर शानि का अधिकार दहं। यह समाजमे किसी की श्रेष्ठता नहीं मानता। ईसी-मजाक का वातावरण बनाने की प्रवृत्ति इस ग्रह कीह।

शनिप्रघान व्यक्ति व्यवहारज्ञान यौर कुता अच्छी रखते है । अतः इनका रोगां क साथ वरताव में यर व्यवसायमें चातु रहता है। योग्यता देखकर छोरगो से कामकराछेते दै! ये महत्वाकांक्षी, दूरदर्शी तथा योजना बनानेवाठे होते हं किन्तु इनकी योजनार्पैः बहुत समय के बाद सफल होती दै । जगत मे सचे ओौर स्लुठे का भेद समञ्चना, इनि का विष ग्ण दहे । यह कष्टकारक तथा दुव लानेवाख ग्रह है-विपत्ति, कष्ट ओर निधनता बहुत बड़ गुरु तथा रक्षक हँ । जव तक शानकी सीमासेप्राणी बाहिर नदीं दोता-संसार में उन्नति संभव नदीं ।

विलियम लिली–शनिग्रधान व्यक्ति का शरीर साधारणतः शीतल भौर . सक्च होता दे । मज्ञा कद्‌, फीका काटारंग, मांसे बारीक भौर काटी, टि नीचे की ओर, माल भव्य, कैश काके भौर लदरीले तथा रुक्ष, कान डे ल्टकते जैसे, भी की हई, होट ओौर नाक मोटा, डादी पतली, इस प्रकार स्वरूप बतलाया जा सकतादहै। इसका चेहरा देखने से प्रसन्नता नहीं होती । शिर छका हा भौर चेहरा अयपटा सा लगता दै । केघे चौड, फैले ओर टेढे-मेढे होते है । पे पतला, जंघाएं बारीक तथा घुयने ओर पैर भी टेटे मेढे होते ह । चाल शराबी जेखी ल्डखड़ाती प्रतीत होती दै । घुटने एक दूसरे से सटे रखकर चरते है । शनि पूर्वं की ओर हा तो प्रमाणवद्धता ओर मृदुता कुछ हदतक होतीहे। कद्‌ नाया होतादहै। पशिमकी र होतो ङश, ओर अधिक काटे रगका होताहै। शारीर परकेश बहत कम होतेहै। दानिकेदरकमहांतो कृदाता उ्यादह होती है। रार अधिकहोंतो मसर हरीर होतादहै। दक्षिणदारहोतो मांसर दारीर होकर चाल जस्दी होती ३। उत्तरदार होतो केदा बहुत ओर दारीर मांस होता दै । स्तंभित शनि दहो तो साधारण मोटापा होता है। मागं होते

समय स्तंभित रानि मोटा, टेढा-मेढा ओर दुरबैट शरीर देता है ।

डानिविचार ३९१

यह पुरातन ग्रहों मे ससे दूर का ग्रहदहै। गुरुसे भी इसकी कक्चाबाद म है । यह बहुत चमकीला अथवा प्रकाशमान नदीं तथा टिमटिमाता नीं है । इसका रंग फीका, राख जैखा निस्तेज है । इसकी गती बहुत मन्द्‌ है । रारि चक्र की परिक्रमा.यह ग्रह २९ वषे, ५ मास, २७ दिन ५ घंटों में पूरी करता है । इसकी मभ्यमगति २ कठा, १ विकला है । दँनिकगति ३ से ६ कटा रहती है तथा यह दक्षिण की ओर २ अंशा ४९ कला रहता हे । यह १४० दिन वक्री रहता है तथा वक्री होते समय ओर मार्गी होते समय “^ दिन स्तंभित रहता है ।

दानि के अधिकृत स्थानों में रेगिस्तान, जंगल, अज्ञात धायियां, गुहा, गन्हर, ` पर्वत, कव्रस्तान, चर्व का मैदान, खंडहर, कोय की वार्त, मेखी बदनृ- दार जगह, कार्याल्य आदि का समावेश होतादहै) इस अह का स्वभाव छीतल, रुक्ष ओर उदासीन है । यह पुरुषग्रह प्रथ्वीतत्व का स्वामी हे। ुर्देव खानेवाखा, एकांतभ्रिय, सनि पापग्रह है ।

बृहत्‌ संहिताकार आवार्यं॑वराहमिहिर ने रनैश्वर्वाराप्याय मेँ, शनैश्चर किंस व्ण का कैसा फलदेता है-इस विषय पर मारी प्रकाश डाटा है-दुसरे लेखकों ने, शनैश्चर श्म संबंध में केसा फल देता यौर अघ्यम संब॑धमेंहोतो केसा फल देता रै । इस विषय पर भारी प्रकाश डाला है। ्यभ-अश्युम स्बध काक्या फल होता है-इस विषय पर कुछ छिखने के पिठ शनेश्वर कीदष्टि पर कु प्रकाश डालना आवश्यक प्रतीत होता है । कषा जाता रै कि शनैश्चर की दष्ट विषमयी है-जिस पर रानि की टृष्टि पडती है वहां पर विनाश. हीहोतादहैः। शनि का जन्म होते ही पदिले-पहर इसकी दृष्टि अपने पिता पर ( मर्थात्‌ सूर्यं पर ) पड़ी, उससे तत्काल ही सूयं कुष्ठरोग से पीडित हया, उसका सारथी अरुण पंरु हुभा ओर उसके घोडे अंधे हो गए । तात्पर्यं यह करिदानि कीदष्टि महती अनथं तथा विनाराकारिणी है। अत्व शानि के नाम भी अश्चुभसूचकीर्है यम, काक, दुःख, देन्य, मंद आदि नाम सभी अञ्यभ सुचकर है। किन्तु शनिकी दृष्टि महाविनाशकायी तमी होती है ज यह कुडटी मे अश्चम संबध में हो, अन्यथा श्चुभ सबेध से कृपायुक्तं शनि सुख- आनन्द का दातामी होता है। जिनकी जन्मकुंडली मे शनि श्म संबेषमें हो इन्हे सामाजिक ओौर आर्थिक क्रति की इच्छा होती दहै इस इच्छा को पूणे करने के लि प्रयल्ञ भी करते ्ै। ये खोग उपभोग करते हए भी त्यागी होते है । लोककव्याण के लिए प्रयल्लशीक रहते रै। ये अभिमान रितः; मिलनसार, उदार, रष्रोपयोगी कायं मेँ तत्पर, अनेकों के घर बसानेवाठे, परोप- कारी वृत्तिके होते रहै। ये विद्वान्‌ , संशोधक, मंत्री, आध्यासिक ज्ञानप्रातति के इच्छुक होते ै। इन्द विश्ववंधुस्व स्थापित करने की पवित्र भावनां विक- सित होतीर्दै-जो कोईैभी शाख इनके हाथमे पडेये उस शाल्लका गम्भीर

३.९२ चमत्कारचिन्तामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

अध्ययनकरते ई ओर उस शाख की तह तक खोज करते है। गाश्च का गूटु अभ्यास; ठेखन; प्रकाशन, तत्व ज्ञान का प्रसार-आदि आदि प्रदृ्तियां इनके स्वमावमं होती । ये यशदायक संस्थाओं के स्थापक, अन्याय का प्रतिकारक करनेवाके, अपने सुख की रसे वेफिक्र, दूसरोंका सुख चाहने वाले मघुरभाषी होते दे । ये लोग सौजन्ययुक्त, कार्यम दृद्-अंगीङ्ृत काम को मारी प्रयत्न से पूणे करनेवाले-दीर्घायु होते है । कथन का तार्यं यह कि शनि खम सम्बन्ध मं आकर शनिप्रधान व्यक्तिर्यो को श्युभ कीञरले जाता जिससे आनन्द प्राप्ति होती है! यदि जन्मुडली मे दानि अद्यभ सम्बन्ध सें हो तो शनिप्रधान व्यक्ति स्वार्थी, धूतं, दुष्ट, स्वेच्छाचारी वर्ताव करनेवाला, मानसिक). दुबल्तायुक्त, आलसी) मंदमति, उन्ोगदीन, यिश्वासी, घमंड; नीचचत्ति, अगड़ाटू › विरोध को वटावा देनेवाखा होता दै। यह पैनीवाईज प्रु होता दै । इसे सच छट की पद्िचान नहीं होती, दूसरों की उन्नति इसे पसन्द नहीं होती । यह कंटोर भाषण करता दै । यह असन्तुष्ट- न्यसनासक्तः स्री-विघय लोप; विषय नञ्ज-दुराचारी, विश्नसन्तोषी-रुदैव अपना स्वाथं सिद्ध करनेवाटा-दृसयेँ की गलतियों को वताकर प्रसन्न होनेवाल, पर- धनापहारी, धनवेष्णा परिभूत-सत्ताप्रापति के दिए सदैव यल्लशील, सत्ता प्रात होते ही जुल्म तथा दुराचार करनेवाला, अहमन्य, क्रोधी, दाभिक, उपाधियों कौ प्राति के टि श्च का आश्रय ठेनेवाटा; गदार, दर्ितायुक्त व्यक्ति होता रै ।

रानि का मृटत्रिकोण-कुम्भ

, शनि का उच वटा-२० अंश

दनि का स्वगृह १० मकर, ११ कुम्भ | दानि का कारकत्व-

उत्तरकालामृत ब्योतिष ग्रन्थ के रचयिता काल्दास ने सभी प्राप्चीन ग्रन्थों से अधिक ग्रहं के कारकत्व का वणन किया है। अतः सर्वप्रथम शनि का कारकत्व उत्तरकालमरत से उद्धत क्रियाजा रहा है- पुस्तक का केवर बहुत न बटू यतः शोक उद्षत नहीं किए गए है|

रानि से विचार योग्य बातेंः-जडता वा आलस्य, उकावर, घोड़ा, हाथ चमड़ा, साय, प्रमाणः, बहुत कष्ट, रोग, विरोधः दुःखः, मरणः खरी से सुख, दासी, गधा, वा खचरः चाण्डाल) विकृत अंगोवाटे;, वनां में भ्रमण करनेवाले, डरावनी सूरत, दान, खामी, आनु, नपुंसक, अत्यजः खग, तीन अधिय, दासता का कमे, अधार्मिक कृत्य, पौरषदहीनता मिथ्यामाषण, चिरस्थायी, वायु, वृद्धावस्या; न्ये, दिनि के मन्तिममाग में वटी, शिरिरकछतु, अत्यन्त क्रोध, परिश्रमः, नीचजन्मा, इरामी, गोलक, गन्दा कपड़ा) घर, बुरे विचार, दुष्ट से मित्रता; कारा, पापकम, क्ररकर्म, राख, काटेधान्य, मणि, लोहा, उदारता, वध. द्र, वेदयः पिता का प्रतिनिधि, दूसरे के कुल की विद्या का सीखना,

शनिविचारं ३९३

खगड़ापन) उग्रता, कम्बल, पथिमामिमुख, -जिखने के उपाय, - नीचे देखना, कृषिद्वारा जीवन निर्वाह, शस्रागार, जाति से वाहिर स्थान वाले, ईशान दिखा का प्रिय, नागलोक, पतन; युद्ध, भ्रमण, शल्य विया, सीसा धातु; शक्ति का दुरुपयोग, सुष्क, पुराना; तेल लकड़ी, ब्राह्मण, तामसरुणः, विष, भूमि पर भ्रमण, कठोरता, डर, लम्बा, निषाद भदेवाल ( केरा ) जनतन्त्र, मय, बकरा-भस आदि, कामानन्द इच्छुक, वस्रं से सजाना, यमराज का पुजारी कुत्ता, चारी चित्त की कटोरता आदि ।

प्राचीन मरन्थोँमें दिया हया दानि का कारकत्व–विस्तारभय से शोक नहीं दिए गर ई :-

व्यंकट रामौ (स्बीथंचिन्तामणि)- छोभ-मोह, विषमता, दूसरों को कष्ट देना, ना करना; निष्टुग्ता, दुटबुद्धि; दख्रिता, बुराक्रोध; वातरोग, उगना, भसः यवागु+ काठेधान्य ( तिर, उडद; चणा आदि ) आयुष्य तथा जीवन के उपाय, इनका कारक ग्रह शनि है!

परारार–भायुष्य, जीवन के उपाय, दुःख, मय्‌, शोक, नाख, मरण, मेंस, हाथी, ते; कपडे, श्रगार, प्रवास, राज्य, ख्कड़ी के बने हुए आयुध, धर के गड रद्र; नीखरत, विघ्न, केश, शल्य, शटरोग, गुखम ।

वैदयनाथ-यायु-मृत्यु के कारण, सम्पत्ति भौर विपत्ति का विवार शनि से कर्तव्य है। दारिद्रय, पिशाचवाधा, चोरी, संधिरोग, ये खव शानि के

अधिकारमेंह। मन्त्रेधर-तेक के व्यापारी, नौकर, नीच, वनचर, इदार, दायी कोकिल, सपेरे, बोद्ध; गधा, बकरा, मेडिया; ऊट, सोप, को, मच्छर,

खरमल, कृमि, उस्द्‌ आदि पर शनिं का अधिकार रहै, वात, कफ, पेयो के रोग; आपत्ति, तन्द्रा, श्रम-भ्रम, पसल्यों का दद, अन्द्र की उष्णता, नौकरों का नाश, स्री पुत्रों पर विपत्ति-यवयव टूटना, हृदय का कष्ट, उक्ष वा पत्थरसे आधात, पिशाष्वों की वाघा, ये सं शनि के अधिकार है । कस्याणवमी- रीन, सीसा, लोहा, हल्के धान, प्रेत की अर्थी के वाहकः

नीच, खियों का व्यापार, गुलम, बद्ध, दीक्षा, इन विषयों का कारक शानि दै ।

` विलियम खिकी-शनिप्रधान ग्यक्ति साधारणतः किसान, भरमिक; इद्ध साधु; साम्प्रदायिकः भिश्चुकः; विदूषक, पुत्र-पौों से युक्त होते दै । व्यवसाय की ष्टि से-चमार-रात के काम करनेवाले, ्रमिक, खानों मे काम करनेवाले भमिक, टिन का काम, कुम्हार, श्चाङ््‌ बनानेवाले, नर लगानेवाठे, ईट बनाने वाले, रसोइये, चिमनी साफ करनेवाले, प्रेतवाहक, खोदनेवाङे, साईस, कोयले

व्यापारी, गाड़ी चलनेवाले, माटी, मोमनत्तागनानेवाले, काठे कपडे, ग्वार ये शनि के कारकलमें है|

३९४७ चम व्कारचिन्तामणि का तुरखुनार्मक स्वाध्याय

रोगो का कारकत्व-दोँत, दादिनेकान के रोग, चौये दिन का बुखार, खीतस्वर, उष्णता से ओौर उदासीनता से उत्पन्न ज्वर, कोट्‌, रक्तपित्त, क्षय, कामला; अधौगवायु, कम्प, निरथंक भय, पागलपन, जलोदर, सन्धिवात, अतिरक्त्राव, हडवांका टूटना आदि दानि सिंह वा इध्िकमें हो, वा ्चुक्र कीअन्युमदृष्टिमेंहोतो इन रोगों का उदय होता है:

निम्नलिखित विषय भी दानि के कारकत्व में है –

प्रक, सूद च्ने-देने का धन्धा, मिह्छ-कारखाने, कारखानों तथा मिह सम्बन्धी कानून भृगामंशाख््, म॒स्लिमिकानून, मिल्माटिक, साञ्चीदार, पिरिग प्रेस, कोयचे का व्यापार, वड्ी-बड़ी कम्पनिर्यो, जिननिङ्ग परेसिज् फैक्टरी, इस्टेट ब्रोकर, खदानों के कानून, बीमाकम्पनी, इन्द्युरेसविनजिनस, लोदे की चीज, वैक सम्बन्धी कानून; कषिविद्राल्यः पञ्ञीपति, तेर के व्यापारी, कारखाने, इस्टेट सम्बन्धी कानून, भूमिसम्बन्धी कानून, रोमन कानून, पुरातत्व संशोधन, स्नायुाख, हठयोग, उचचन्यायाल्य, न्यायाधीर, नगरनिगम, जनपद, जिलापरिषद, विधानसभा आदि के सदस्य, जमींदारः, खनिजपदा्थ, रसवत, दुष्टतापूर्णकाम, खलनायक, कैद) दण्ड, राजनीति ओौर व्यवसायमें हानि, सरकारकी रसे चलाया हा मुकदमा, छोटेभाई-वदहिन, चोटी, जेलर, जेल्सुपरिटेडैट, बिदेश- मन्त्री, विदेशनीति; सन्धि, शतुता वा मित्रता; इन्जेक्शन, काटरमास्टर, इडया के व्रणः दाद्‌, फोड़े, सन्धिवात, यकृत ओर प्टीहारोग, पैर ओर घुटनों के रोग, मट-मून्न-उस्सजंक इन्द्रियों के येग, हाथीरपोँव, पसीने में दुर्ग॑ध, गुंगापन । मेषादिराशिस्थित शानि के फट-

मेष -जन्मसमयमे मेषे शनि हो तो जातक-व्यसन आर परिश्रम से खिन्नः प्रपञ्ची, बन्धुदरेषी; निद्र, टीट, वहत बोकनेवाखा, निन्य, निर्धन, कुरूप, क्रोधी, नीचाचार, प्रियजनों का शत्रु, शट; निर्दयी, ओौर पापी होता है|

वृष–वृषरारि मं शनिदहोतो धनहीनः, भूत्य, अनुचितमाषी, सत्कर्म हीन, बद्धा स््रीगामी, दु्टमित्रोवाखा, परस्रीसेवक, कपटी; वहत कार्यं मे आसक्त ओौर मूट्‌ होता है ।

मिथ्ुन- मिथुन में रानि होतो कर्जदार, बन्धन ओौर परिश्रमसे दुःखी, दम्भी, सद्रणदहीन, छिपकर रहनेवाखा, कामौ, कपरी, क्रोधी, शठ, दुःशील, क्रोडानुरक्त होता है |

कक–ककंमे रशनिदहोतो सुशीखख्री का पति. वचपन मे धनदहीन, रोगी, मात्रृहीन, मदुस्वभाववान्‌ , विरोषकाय॑रत सदारोगपीडित, यौवन मे श्तु विजेता, ख्यात, बन्धुओं से विरुद्ध, कुटिल, राजा के समान भोगी होता है ।

सिह- चिंह में शनिदहोतो पटृने-छिखने मे तत्पर, विषयाभिज्ञ, ठेखों मे निन्दित, शीलरहित, ख्रीरदहित, नौकरी से जीनेवाखा, एकाकी, दषंडीन,

हा निष ३९९

निन्दक, क्रोधी अनेकश्रकार के मनोरथो से भरित, भार तथा मागंके भ्रमसे खी होता है । कन्या-कन्या मेँ रानि हो तो नपुंसक जैसा, शट, परा्नभोजी, वेद्यागामी

सस्पमित्रवाला, शिस्पकला से अनमिज्ञ, विशिष्टकार्यं का इच्छुक, पुत्र ओौर धन से युक्त; आलसी, परोपकारी, कन्या को दूषित करनेवाठे कायं मेँ तत्पर, सोच- विचार कर काम करनेवाला होता है ।

तुखा–ठला मेँ रानि हो तो जातक धनसंग्रही, मृदुभाषी) विदेशाया्ा से धन तथा मान प्राप्त करनेवाला, राजा वा विद्धान्‌ , स्वजनरश्चित धनवान्‌ ; समाज मे श्रेष्ठ, वचन प्रभाव से खान प्राप्त करनेवाला, साधु, कुट्टा; नतकी ओर वेद्या से प्रेम करनेवाला होता है ।

बुधिक-इ्चिक में रानि हो तो रोकदवेषी, कुटिल, विष वा श्र से हत; अतिक्रोधी; खोभी;, मण्डी, धनी, दूसरों का धन अपहरण कर लेने मं समथ दयभक्कत्य से विमुख, नीचकमा, ख्व, हानि तथा रोगों से दुःखी होता है ।

धलु–धनुराशि मे रानि दो तो जातक~व्यवहार, बोध, अध्ययन, तथा विन्या में निपुण, पु्बोंके गुणोंसे तथा अपने धमं मौर खंशीख्तासे लोकम विख्यात च्द्धावस्था मे उक्कृष्ट सम्पत्ति का भोग, खोक मे आदर, थोडा बोलने- वाख, बहुत से नामों से प्रसिद्ध तथा मृदुश्वमाव होता हे ।

मकर-मकर मे शनि दो तो परली तथा अन्य क्षेत्रों का अधिपति; वेद्‌- ज्ञाता, गुणी, शिस्पन्ञ, ष्ठ, कुल्पूस्य, दूसरे से आद्रपानेवाख; विख्यात, स्नान ओर अलंकारो का प्रेमी, काय॑चवुर, विदेशवासी तथा बहादुर होता है ।

कुम्भ-कुम्भ मेँ खनि हो तो वारतरार इड बोल्नेवाला, मदिरापायी तथा खरी के व्यसन मे अत्यन्त आसक्त, धूतं, ठग, मि्ोंकोभी धोखा देनेवाल; अतिक्रोधी, ज्ञान तथा कथास्मरण से दुर रहनेवाला; परखीगामौ, कटोरमाषी बहुत से कामों को प्रारभ करनेवाखा होता है ।

मीन- मीन मे शनि हो तो जातक यज्ञ तथा रित्पविद्या का प्रेमी, अपने `

धु यौर मित्रों मे प्रधान, शान्तस्वभाव, धनी; नीतिश्‌, रक परीश्चक, धममप्रधान

व्यवहार सें प्रेमी, विनय भौर गुणों से युक्त, बृद्धो जैसा विचारी होता हे ।

सामान्यतः तथा साधारणतः रानि के किए मेष, सिंह, धनु, कक; चशकः ` मीन अर मिथन राशि्यौ श्चम ई । वला ओर ुम्भ अश्चभ है । इष, कन्या सौर मकर बहुत अञ्चम ई। मेष वा बृश्िकस्थित शनि पर टृष्िफल–

रवि- की दृष्टि से–जातक खेती करनेवाला, अत्यन्त धनी, गाए, मंस, घोडे आदि चौपाए जानवरों से युक्त, भाग्यवान्‌ , कार्यो मेँ संल्म्र होता है ।

३९९ चमत्कारचिन्तामणि का तुखना्मक स्वाध्याय

चन्द्रमा की टष्टि से–चञ्चल, नीचस्वभाव, कुरूपा ओर कीला खी मं मासक्त, सुख ओर धन से हीन होता है ।

मङ्गल को दृष्टि से-दिसक, क्षुद्र, चोरो का सुखिया, खी, मांस, मदिरा सेवन करनेवाला होता है \

बुध की दृष्टि से-मिध्यावादी, अधर्मी, बहुभक्ची, नामीचोर, सख मोर घन से रहित होता है।

6 ध को दृष्टि से- खुली, धनी, भाग्यवान्‌ , राजा का प्रधानमन्नी

हेता इ

श॒क्र को दृष्टि से- चञ्चल, दुरूप परख्रीगामी, वेदयामक्त तथा सुखहीन होता हे । वृष-तुटास्थित शनि पर ग्रह दृष्टिफल –

ष वा ठलास्थित दानि पर सूर्यकी दृष्टि होतो जातक स्पष्टवक्ता, निधन, विद्वान्‌, परान्नभोजी, ओर मदु होता दै ।

चन्द्रमाकी दृष्टि से-ल्ियों के द्वाराबली, राजमन्त्री से सम्मानित, स्रियो का प्यारा, मौर कुडम्बयुक्त होता ह ।

मग की दृष्टि से-रणक्रिया मेँ कुल होता हआ भी युद्ध से पराञ्युख दोनेवाला, वक्ता, घन-जन से युक्त होता ह ।

बुधकौटष्टि से–दास्यप्रिय, नपुंसक जेसा, सियो का भक्त, र नौच प्रकृति होता है। -

इृदस्पति की दृष्टि से-दूसरो के खख से सुखी तथा दुम्ब से दुःखी हनेवाख, परोपकारी, लोगो का प्यारा, दाता तथा उयमशील होता है ।

सक्र की दृष्टि से- मदिरा तथा खियों से सुखी, रलयु क्त. महाबलो, राजा का प्रिय होता है। मिथुन-कन्या स्थित इनि पर्‌ ग्रहदष्टिफल–

मिथुन वा कन्या स्थित शनि प्र रविकी दृष्टि हो तो जातक सुखहीन, धनदीन धर्माः; क्रोध रहित, करंरसहिष्णु ओर पेर्टवान्‌ होता है ।

चन्द्रमाकी दृष्टि से- राजा के त॒स्य, कान्तिमान्‌, च्ियों से धन ओौर

सत्कार पानेवाला; तथा लियं का कार्यकर्ता होता ईै।

मंगलकी दृष्टि से- विख्यात योद्धा; स॒ग्धबुद्धि; मारवाही ओर विक्त देह होता है। । |

बुध की ष्ट से–धघनवान्‌., युद्ध मे निपुण, छ्य मौर गाने मे कुशल, दिव्प मं परम निपुण होता है ।

गुरु कीट से-राजकरुख मं विश्वस्त, सर्वगुणयुक्त, साधघुप्रिय, गुणों स धनाजन करनेवाला हाता है ।

श्निफड ३९७

शुक्र की दृष्टि से–चियों के शंगार बनाने मे निपुण, योगसाश्ज्ञ, वा योगक्रिया का ज्ञाता ओौर च्ियोंका प्यारा होता है।

ककराशि स्थित शनि पर प्रहटृष्टिफल–

ककं राशि रिथत शनि पर सूयंकी दृष्टि दो तो जातक बाल्यावस्था में पिवृहीन, धन, सुख ओर खी से मी रदित; कदन्नभोजी सौर पापी होता है ।

चन्द्रमा की रषि से- माता का अहित करनेवाला, धनी, सहोदरे से पीड़ित होता हे।

मंगल की दृष्टि से-राजा को धन॒ सम्ण करनेवाला, देह से विकल, परिवार सदित कलह कारकः बुरे सम्बन्धियों वाटी खरी का पति होता है ।

बुध की दृष्टि से- निडर, वाचाल, शत्तुञ्ञय, दाम्भिक, भौर उत्तमकाय करनेवाला होता है ।

गुरुकीदृष्टिसे- खेती, घर, मित्र; पुत्र, धन, रत्न तथा चख्री से युक्त होता हे।

शुक्त की दृष्टि से-उत्तमकुल मे जन्म लेकर रूप मौर चु से हीन होता हे । सिहरि स्थित इानि पर मरह दृष्टिफल

सिह स्थित शनि पर सूयं की दृष्टि हो तो जातक सुख आर धन से हीन, नीच; मिथ्यावादी, मचपायौ, विङ्ृतदेह, नौकरी करनेवाला, तथा दुभ्खी होता है ।

चन्द्रमा की दृष्टि से-विधिध रल, धन ओर सखी से युक्त, यदासी, अौर राजा का प्यारा होता है । |

संग की दृष्टि से-सदा घूमनेवाल, पयोर, वन वा पव॑त पर रहनेवाल, छुद्र, सखरी-पुच्र रहित होता है ।

बुधकी दृष्टि से- कपटी, आच्सी, निर्धन, खी क्म कर, मलिन भौर दुःखी होता है।

शुर की ष्टि से–रगोव-नगर तथा समाज का सुखिया, पु्वाय्‌ , विश्वास- पाज, ओर छश्लीट होता ई ।

शक्र की दष्ट से- खी देषी, सन्दर, मन्थर, खली, धनी, अर अन्त मे सद्गतिपानेवाल होता दै । धनु ओर भीन में स्थित छनि पर प्रह दृष्टिठल–

धनु वा मीन स्थित शनि पर सूयी दृष्टि हो तो जातक दत्तकयुत्र रखने- वाला, उसी के द्वारा धन, यञ्च ओर साद्रपानेवाला होता है ।

चन्द्रमाकी टरषटि-हो तो मानृहीन, सुश्शील, दो नामोंसे प्रसिद्ध तथा स््ी-पुत्र-धन से युक्त होता है ।

संगर कीं दृष्टि–ह तो बातरोगी, खोगोंका द्वेषी, पापी, क्षुद्र भौर

निय होता है ।

३.९८ चमर्कारचिन्तामणि का तुरखुनारमक्‌ स्वाध्याय

बुधकेटष्ि-हा तो राजा के समान, सुखी, शिक्षक, मान्य, धनी सुखी ओर सुन्द्र होता इ ।

गुरु को दृष्टि-होतो राजा वा राजवुल्य, वा राजमन्त्री, वा सेनापति, ओर आपत्ति से रदित होता हे।

रुक्रकीदृष्टि-होतोदो माता,वादो पितावालछ, वनों मे, पन्तोँमें जीविका करनेवाला, चञ्चल स्वमाव, ओर कायं को सम्पन्न करनेवाला होता हे । मकर ओर कुम्भस्थित शनिफट-

मकर वा ऊुम्भरस्थित शनि पर सूयेकी टृष्टिसे जातक रोगी, कुरूपा खी का पति, परान्नभोजी, यतिदुःखी, घूमने भौर भार उठानेवाखा दोता है ।

चन्द्रमाकोरष्टिदहोतो चञ्चल, मिथ्यामाषी, पापी, माता का द्वेषी, धनी, यर भ्रमणे दुःखी होता है।

मग्लकीटष्टिहो तो महावीर, पराक्रमी, विख्यात, बड़ों मे अञ्चगण्य; तरर ओर साहसी होता है ।

बुध को दृषदो तो भार सहन करनेवाढा; तामसी; सुन्दर, भ्रमणश्चील, विज्ञ; अस्पघनी तथा भाग्यवान्‌ होता दै |

गुरुकी दृष्टि से-णों से विख्यात, राजा, राज्वं्चज, दीर्घायु, ओर नीरोग होता है ।

शुक्र को टष्टि–दो तो धनी, परख्रीगामी, सुन्दर, सुखी; उपस्थित सुख का भोक्ताहोताहै।

शनेः लम्रदिद्वादन्ञभावफलम्‌

दानि के प्रथमस्थान के फलट- “धनेनातिपूर्णोऽतिदृष्णो विवादी तलुस्थेऽकंजे स्थूलदष्ट्नरः स्यात्‌ । विषं दृष्टिजं त्वाधिङ्कद्‌व्याधिवाधाः स्वयं पीडितो मत्सरावेश एव ॥ १॥

अन्वयः–अकजे तनुस्थे नरः धनेन अतिपू्णैः; अतिवष्णः विवादी स्थूल दृटिः ( स्यात्‌ ) तस्य दष्टिजंतु विषं ( स्यात्‌ ) व्याधिवाधाः (स्युः ) ( सः ) आधिज्रत्‌ ( स्यात्‌ ) मत्सरावेश एव स्वयं पीडितः स्यात्‌ ॥ १ ॥

सं टी<–अकजे ( खनो ) तनुस्थे धनेन अतिपूणः, अतित्रष्णः सन्तोष- हीनः, विवादी ( विषादी-इतिपाठः कर्सिमश्चित्‌ पुस्तके दइयते ) विवादकरणशीलः, “विषादी इतिपाठे प्रसन्नः स्थुलदष्टिः सुष्ष्मविचाराखमर्थः, तस्य इष्टिजं ठविषं स्यात्‌ + सः दृष्टया एव रिपुनाश्कृः स्यात्‌ , सः आधिङ्घृत्‌ स्यात्‌-सः मानसं दुःखं करोति, व्याधिबाधाः वातदाः पीडाः स्युः, मत्सरावेशः एव सयं पीड़तः स्यात्‌ परोत्क्षासदिष्णुः सन्‌ स्वयमेव पीडितः उदुवेगवान्‌ स्यात्‌ ॥ १॥

अथ– जिस मनुष्य के अन्म समय ल्श्रमे शनि हो वह धन से भरपूर हो जाता है, अर्थात्‌ बहुत धनवान्‌ होता है । किसी दूसरी पुस्तक में “धने

छ्लनिफल ३९९

नातिपूणेः शसा पाठ है, यदि णेसा पाठ स्वीकृत हो तो इसका अर्थं श्वन नदीं दोता-धन प्राप्ति के लिए भारी व्ष्णा बनी रहतीहै। धन पाकरमभी वृष्ण दूर नदीं होती प्रत्युत बटोत्री के विष्ट तृष्णा, इच्छा भौर खसा बदृतौ दी जाती है ओौर मनुष्य असन्तुष्ट रहता दै । ताप्पर्यं यह कि ,सन्तोषरूपी अमृत का पान न होने से चित्त अशान्त रहता है । खी परिस्थिति में नीति- कारों के वम्वन चरिताथं होते हैः–“अति वृष्णामिभूतस्य शिखा मवति मस्तके ।> “अशान्तस्य कुतः सुखम्‌ “सन्तोषामृतव्र्तानां यत्सुखंशान्तचेत- साम्‌ । कुतस्तद्धनङ्ग्धानां इतश्चेतश्च धावताम्‌ ।* तनुभाव का शनि मनुष्य को व्यथं का क्लगड़ा करनेवाला बनाता है। यदह विषादी अर्थात्‌ अप्रसन्न रदता है । यह स्थूटदष्टि-मोरी बुद्धि वाडा, अर्थात्‌ सृक््म विचार न करनेवाला होता दै। इसकी दृष्टि में विषं भरा रहता है अर्थात्‌ इसके शत्रु इसकी दृष्टि सेदह्ीनष्ट हो जातेर्है। इसे मानसी व्यथा सदा लगौ रहती है। वातजन्य रोगों से भी पीडित रहता है । पुसं का उत्कं देखकर इसके चित्त मे डा

पेदा होती दै भिससे यह स्वयं दुःखित होता है, अर्थात्‌ दूसरे की मलाई देख कर यह स्वतः ही जर मरता है। ।

“्यदि शनि दूषित होतो भ्रमरोग) हृदय मेँ ताप, कश्चि तथा सन्धये मे रोग, वात तथा कंप जन्य विकार, गुपेन्धिय मे पीड़ा, पाश्च ( बगल) में तथा शरीर में पीड़ा प्व श्वास्ररोगमभी होता है। “गदादली 1”

“यदि शनि अश्म होतो दरिद्रता के कारण, स्वकम्दोष से, पिक्चाचों भौर चोरो से, सन्धि रोगों से केश आर कष्ट उत्पन्न करता है । जात षपरिजाता तुखना–““यदा मन्दे लप्र गतवतिधनैरेव छ्खितो, |

विषादी वादेन प्रबलरिपुहा तोषरहितः। सदा व्यग्र्ण्डः.शानिखि तदा पश्यति नरः परोत्कषासद्यः कृशतनुरयं व्याधिगणतः ॥ जौवनाथ दैवन्न अथं–जिस मनुष्य के जन्म समयमे शनिल्धमें होतो वहधनसे खश्चोभित ( परिपूण ) विवाद से सेदित, बल्वान्‌ शक्रुओं को भी नष्ट करनेवाला, आर असन्तुष्ट होता हे । सद व्यग्र, क्रोधी, शनि के समान ८ दोषयुक्त ) दष्ट से देखनेवाा, परोत्कर्षांसदिष्णु मौर अनेक प्रकार की व्याधियोंसे दुर्बल दारीर वाखा होता है। ॥ “अदृष्टार्थो रोगी _ मदनवशगोऽस्यंतमलिनः यत्वे पीडात्तः सविव्रुयुत स्पनेत्यकसवाक्‌ । गुः स्वक्षोचस्ये -दपतिसदशेग्रामपुरषः सुविद्ाश्चावगो दिनकर समोऽन्यत्र कथितः ॥° वराहमिहिर अथे–शनिल्प्रमे होतोः व्यक्ति निधन, रोगी, कामुक, बहुत मलिन, बप्वपन मे रोगों से पीडित, तथा आलसी होता. है । यह शनि स्वह, उच, वा

०० ष्दमत्कारचिन्तामणि का तुखनात्मक्‌ स्वाध्याय

रुरु की रादि मे ( घनु-मीन-मकर-कुमवा वला) में दहो तो व्यक्ति राजा जेसा सम्पन्न, नगर वा गांव का मुखिया, विद्वान्‌ मौर सन्दर होता है। अन्य स्थानां मं शनि के फट, रवि के तुव्य होते है |

“षु नीसिकोच्द्धकख्चन रोगी मन्दे विल्ोपगतेगहीनः

महीपतुल्यः सुगुणाभिरामो जातः स्वतुंगोपगते चिरायुः ॥ वै्नाय

अथ यदिंशनिच्यमें होतोजातकके नाकमें दोषरहताहै। घ्री वृद्ध जेसी होती हे | यह व्यक्ति रोगी तथौ अंगहीन ( किसी अवयव मे दोष युक्त ) होता है । रानि स्वगृह वाउच्में हो तो राजा जैसा गुणवान्‌ तथा दीघोयु होता हं

वहु दुःखभाजम्‌ ।2 (सवनाशशः | वशिष्ठ अथ–यह रानि बहुत दुःख देनेवाल ओौर सर्वनाश करनेवाला होता ह । दष््र हृद्रोगी मलिनतनुमान्‌ कामवशगः रि्ुत्वे #डा्ताऽलसवदागर्तोऽगेऽक.तनये । हये मीने चक्रं घट वटमया तो यदि यम- स्तदानीं विद्धानीश्वर समतया युक्‌ श्युभतनुः || जयदेव

अथ–ल्म्रमं रदानिदहो तो दरिद्री, हृद्योगयुक्त;, मलिनदेह; ( ख्नानादि से इन ,) होतादै। यह कामातुर, वचपन में बीमार, तथा आलसी होता है | यदि शनि; धनु, मीन, मकर, कुभ अर तया राशि कादहो तो व्यक्ति पंडित राजा जैसा मौर सुन्दर देह वाटा होता | ल्ग्रे दानौ सदा रोगी कुरूपः कृपणोनरः । ऊुरीखः पाप बुद्धिश्च शटश्च मवति ध्रवम्‌ |’ कालिनाथ अय– जिसके जन्मच्य मं शनिदहो वह व्यक्ति सदेव रोगी रहता रै । वह देखने मे भदा, कंजूस, दुष्टाचारवान्‌ , पाप मति र शट दता है । ““प्रसूतिकाटेनलिनीदखद्‌नुः स्वोच्चे च्रिकोणक्षगते विच्छ । कुर्यान्नरं देद्पुराधिनाथं रोपे. स्वभद्रं सव्जं दद्द्रिम्‌ ॥) दण्ठिराज अथ-जिसङ जन्म ठ्य मं स्थित होकर शनि अपने उच्च वा अपनी राद्िकादहोतो वह पनुष्यदेदाका,वा किसी पुर कास्वामी होता ईै। यदि ल्य्रमं स्थित होकर अन्य राशिका दो तो वद मनुष्य दुमभ्खी, रोगी अौर दरिद्र होतादहै। | “स्वोचे स्वकीय्‌ भवने क्षितिपालतुस्यो ल्गरेऽक॑ञे भवति देख पुराधिनाथः | दोधेषु दुःखपरिपीडित एव बास्ये दादट्रियदुःखवशगौो मलिनोऽङसश्च ॥ सजेभ्वर अर्थ–यदि शनि अपनी उच्च रारि (वा) वा स्वराशि (मकरवा यभ) मं स्थित होकरल्यमें होतो राजा के समान किसी देशवां नगर कां

२६ शनिफड ६०१

स्वामी होता है । यदि शनि किसी . अन्य रा्िमे स्थित होकर ल्यर्मेदहोतो . व्यक्ति बचपन मे दुःख परिपीडित होता दै। ओरबादमें भौ दसि दुभ्खी मलिन ओर आलसी होता है । # नोट- कुछ अन्य अन्थकारों के मतसे यदि शनि धनुवामीन राशिं स्थित होकर ल्यमें दो तो बहुत उत्तमफर देता है-देखो मानसागरी । (तुला कोदण्डमीनानां ठ्स्थोऽपिदानैश्वरः । करोति भूपते्जन्म वंशो च उपतिभेवेत्‌ ॥ “स्वोचस्वकीयभवने क्षितिपाटतुय्ये व्गरेऽकजे भवति देशपुराधिनाथः दोषेषु दुःखगदपीडित एव बास्ये दाद्दरिचकर्मवशगोमलिनोऽलसुश्चः” ॥ | कल्याणवर्मा अथे- व्य में खोचवा खराशिख दनि हो तो व्यक्ति राजां के समान देश वा नगर का खामी होता दै। यदि अन्य राशिख शनिल्न मेहो तो व्यक्ति बाव्यावस्ा मेँ दी दुःखी ओौर तदनन्तर भी दरटरि;ः महिनि तथा आख्सी होता है। ‘“सततमत्पगति्म॑दपीडितस्तपनजे तनुगे खलं चाधमः । भवति हीनकषचः कराविग्रहो जितरिपूर्निजसद्यनि मानवः” ॥ भानस्तागर अथे- जन्मलग्न मे शनि होने से मनुष्य मन्दगति, कामपीडित, अधम, केशदीन तथा दुर्बल शरीर होता है । यदि शनि अपनी राशि (मकर वा कुंभ ) मेहो तो शत्रुविजेता होता हे। “प्रसुतिकाठे नविनीशसूनुः स्वोच्च त्रिकोणक्षगतोविग्ने । कुर्यान्नरं . देशपुराधिनाथं रशेषेष्वभद्रं सरजं दसिदरिम्‌” ॥ महेश अर्थ– जिसके जन्मसमय मे तनुभाव मे शनि खित होकर वुखा, मकर, कुभ राशिमेंदहोतो मनुष्य देश आौर नगर का स्वामी होता है यदिन का रानि वुखा, मकर, कुम से अन्य किसी राशिमेंद्ो तो मनुष्य नीच सख्रभाव का रोगी तथा दद्र दहोतादहै। “कण्डू तिपूर्णीगकपफप्रदत्तिः रग्ने शनौ स्यात्‌ सतते नराणाम्‌ । .. हीनाधिकांगत्वमधःप्रदेशो कर्णोतरे वातगदः सदैव. ॥ कमतेर्मदेऽथवाद्े कृखदेदश्च दुखितः मूर्खश्च मदनाचारो भिन्नवण्सनौ भवेत्‌ ॥ लोहादिभिः शिरःपीडा आत्मचिन्ता निरन्तरम्‌ । तखकोदण्डमीनानां लकग्नसंखे शनैश्वरे ॥ करोति भूपतिं जातं मन्यराशौ गतायुषम्‌ । सखविरौ सबलो ग्रस्य ग्रहो स्यातां विल्नगौ॥ प्रत्या स भवेद्‌ बद्धो मान्यः सवेजमेषु च? ॥ गगं थे-इसके सारे शरीर मे खुजली रहती है । कफप्रकृति होता है । नीचे के भागे को$ अंग कम वा अधिक होता दहे। कान के भीतर वातरोग

० षवमरकारण्िन्तामणि का तुरुनार्मक स्वाध्याय

पीड़ा सदैव होती रहती है । अशरीर कृश होता है । यह व्यक्ति दुःखी, मूरखे? कामार्तं ओर विवणं होता है। इसके शिर मे लोहा दि के आघात से पीडा होती दै । सदैव अपने विषय मेँ चिन्तित रहता है । यह अल्पायु होता हे । तुला, धनु वा मीन खगन मेँ यह शनि राजा जेसी सम्रृद्धिदेता दै भौर जातक दीर्घायु होता दै । यदि यद्ध लग्नस्य खनि किसी अन्य रारि कादोतो जातक अस्पायु होता है । यदि ख्ग्न में चद्धग्रह गुरुवा शनि दों तो व्यक्ते प्रोट॒प्रकृति ओर छोकमान्य होता हे ।

^’प्रसूति काले नलिनीयसूलौ स्वोचि कोणक्चंगते विलग्ने ।

कुयौल्रं देशपुराधिनाथं दोषक्च॑संस्थे सरुजं दरिद्रम्‌ ॥ वृहद्‌ यवनजातक

अर्थ–रगनस्थ रानि स्वगृह, मृल्त्रिकोण वा उचचराशि मं हो तो जातक

देश वा नगर का प्रमुख व्यक्ति होता है। अन्य रारियों मे व्यक्ति रोगी ओर दरिद्री होता है।

(“ताले य॒दि स्याजहखो वदञक्टश्च खागरो मनुजः । राठ कंबुरं वेदिकः वाममतिपूणः प्रभुः भवति? ॥ खानखाना अ्थै- यदि शनि क्नमें हो तो मनुष्य मूखं, दुवः, दुष्ट, कुरूपः निदंयीः कुटि ओर प्रमु होता है। ^“स्वोचे जीवये स्वाट्यखः खनिशवेत्‌ खगन कोणे भूपतुर्यं मनुष्यम्‌ । कुर्याच्छेषे संसितो योगयुक्तं दीनं दीनं दुःखभाजं दरिद्रम्‌? ॥ हरिवंश अ्भ- गन अथवा कोणे शनि वल, धन, मकर, कुभवा मीनमंहो तो राजा जेवा अधिकार मिल्ता है । अन्य राशियों का शनि हो तो व्यक्ति रोगी, दीन, निधन ओर दुभ्खी तथा दरिद्री होता हे। भगुसूत्र–द्ष्ययैव रिपुनाराकः, तनुसाने शनियस्य धनीपूणतृषान्वितः स्थूलदेहः, विप्रटष्टिः, वातपित्तदेहः । उच्चे पुरग्रामाधिपः घनधान्यसम्रद्धिः । स्वक्ष पित्रधनवान्‌ । वाहने कर्मश भाग्यकषेत्रे बहुभाग्यं महाराजयोगः । चन्द्रमसा इट परान्नमुक्‌ । श्ुभटष्टे निवृत्तिः | अर्थ–यदि तनखान अर्थात्‌ प्रथमभाव मे शनिदहो तो जातक टटिसे ही शत्रु का नाश करनेवाला, धनी, टोभी, मोटा, वातपित्त प्रति का होता ह । इसकी टष्टि विपी होती है! यह शनि यदि उचचमेहोतो जातकर्गोववा शहर का स्वामी होदा दै-इसे धनधान्य की समृद्धि प्राप्त होती हे | स्वगरह का ( मकर, कुम ) दनि होतो जातक को पैतृकसम्पत्ति मिलती दे । यह दानि -वाहनेश, दशमेद्य वा भाग्येश की राशि मँ हो तौ राजयोगकारक रोता हे। चन्द्रमाकीद्टिद्ो तो दृसरो के अन्न पर जीवन निवह करना होता है । अन्य किसौ शभग्रह कीदटष्टिहोतो इस दोष की निद्ृत्ति होती हे । पाञ्चात्यमत- यदह शनि श्चुभ सम्बन्ध में हो तो भाग्योदय कराता हे । पूवं आयु में संकट यर मुसीबत न्चेल्कर भारी उद्योग से, आत्मविश्वास तथा धीरज से अन्त मे सफलता प्राप्त देती है । यह दानि अश्चुभ सम्बन्धमंदहोतो

क्षनिफङ ७०३

शनिप्रषान रोग डरपोंक, बड़े कामों से दूर रहनेवाठे, दूसरों पर विश्वास रखने वाङ, दुष्ट, लोभी, मत्सरी, दीर्षदरेषी, ठग, दुःखी, उद्विग्न तथा एकान्तप्रिय होते है । निरा, कष्ट, कामों मे विघ्न तथा जीवन मँ असफरू होते है । रोगो मे अप्रिय होते रै पहिली उमर मेँ रोगौ रहतेरै। जुकाम; गिरनेसे शिर को चोट ख्गना आदि क्ष्टहोतेै। वृधिक रूगनमे बद्धकोष्ठता; सिह में रक्ताभिसरण मे दोष; ककं मेँ पाचनक्रिया म दोष, ठला मं मूत्राशय के रोग होते है । साधारणतः लगनस्थ शनि से प्रवृत्ति उदासीन, हरी, निशयी, एकान्त- प्रिय, ल्जासीक, एक दी बात पर अड़े रहने की मनोड्त्ति ्टोती है । यह सर्वप्रकार से स्वार्थं साघनेवाला;) ठोभी; किन्तु दुःखी भौर ठग होता है) धार्मिक आष्वार-विचार के बारे में इसके विष्वार अजीब से होते ्ह। रगनख शनि अग्निराचि में हो तो खभाव कुक मिलनसार, सरक तथा मरामाणिक होता है किन्तु साथमे साहस, क्रोध; ञ्चगड़ा भौर वाद-विवाद की सुचि होती है । पृथ्वीराशि मे र विशेषतः इषभ मे म॑ंदता, नीचता, ` दुष्ट ओर दीदी इत्ति रहती है । कन्या मं जरूरत से ज्यादह पूछताछ करना, विड्विड़ा मिजाज संशयी चृत्ति का स्वभाव होता हे । मकर म धूर्त, वाद-विवाद मँ कुट, खार्थ, परि्नमी, रोभी ओर कंजूस होता हे । |

वायुराि मे शनि वि्यारो, अभ्यासी, व्यासङ्गी, मेहनती; उन्योगी; व्यवहार कुशल, पैसों के बारे में भ्यवस्थित, अपनेहित मे{दक्ष, धार्मिक, सच बोलनेवाल् निष्कपट, आस्थापूरण, माबुक तथा कमंठ व्यक्तित्व देता है । मिथुन वा कुम्भ मे ये गुण अच्छी तरह देखे जाते है । ठला मे गर्विष्ट, अपना ही मत सच माननेवाला, दुराग्रदी, स्वार्थी, कञ्स स्वभाव होता है । शनि श्चुम सम्बन्ध में होतो फलों मे कुछ सुधार होता है । किन्तु अञ्युम सम्बन्धमें हो तो अञ्चम फलं अत्यन्त तीन्र होते है । ककं वा मीन मे मन्दुद्धि, दुःखी, वीभत्स; दुराचारी; पतित ओौर अधर्मी होता है। कचित्‌ धम के बारे मे अतिरिक्त उत्साह भी दिखलाया जाता है ।

बृधिक मे, अञ्चुभ सम्बन्ध मेँ शनि हो तो व्यक्ति धूर्त, दुष्ट, देषी) ्रतिश्चोध की भावना रखनेवाला, विश्वास के अयोग्य ओर ठग होता है यह मत्सरी डरपोक तथा सोचत्रिषवार करनेवालख होता है । अभिराशिमे काममे कुशल, किन्तु हमेशा असन्तुष्ट रहता है । प्रथ्वीराशि मे मूख, विष्वारद्ूल्य, होता है ।

कन्या में कदहानियोँ सुनने का शौक होता है । यह संशयी, कञ्चस भौर चोर

होता है ॥

विचार ओर अनुभव–पुराने मन्थकायो ने शनि के फलों मे एकान्त- प्रियता; आलस्य, निच्कियता; उदासीनता, प्रपञ्च से दूर रहना, जडता आदि ` फ वतार्णँ है । सौरमण्डल का शनि अन्तिमग्रह है । जेते सूर्यं उत्पत्ति का आर न्द्र स्थिति का अह मानागयाहे वैसे दी शनि विनासका कारकम्रह मान

€ ०७ दसच्छारचिन्तामणि का तुटनार्मक्‌ स्वाध्याय

गया ई । य्योतिभ्लख मे शनि के विषय मे “शनिः दुःखम्‌? यह प्रायोवाद हे । अतएव मूतः शनि के फल अञ्चुम भौर मारक समञ्च गए द । नेसर्मिक कुण्डली मे दद्म अौर लामस्थान का स्वामी होने पर भी शनि छम नदीं माना गया है ! इसके अदभपक वृष, कन्या, मकर तथा कुम्भ रारियों मं मिख्ते ईह | अन्य रारियोंमे श्ुभफक मी मिल्तेरहै। ठा ( उवरि) मकर-कुम्भ ( स्वह ) मे शनि के उन्तमफट वर्णित हए हं ।

मेष, सिह, धनु, कर्कं बृश्चिक तथा मीन में जिन व्यक्तियोंके दनिदहोतो वे प्रायः आपफिसमे नौकरी करते ्दै। ये उन्नति वडां से ज्लगड़ा करके प्राप्त करते ई । पेनदान के समय तक इनकी स्थिति अच्छी हो जाती है । अधिकार भी यच्छा रहता है । एक विवाह, पुत्र संतति स्वस्प;, अथवा अभावः किन्तु कन्या अधिक होती है । मेष, सिह तथा धनु में ओंखिं विदा किन्तु सदोष होती है । आवाज रौवीटी अर दृष्टि से अधिकार टपकता हे |

मिश्ुनमे शनि दो विवाह करवाता दै-किन्त॒ सन्तति का अभाव, पूवे आयु मे कष्ट ओर उत्तर आयु उत्तम, रिक्षा अच्छी; कानून कौ शिक्षावा डाक्टरी की्िक्षादोतीदै। कक, बृश्चिक ओर मीन में शनि होने से आवाज मीरी

ओर्‌ भ अपने. गुणों से दूसयों से काम केकर अपना जीवन सुखमय व्यतीत करते है ।

वृष, कन्या, तुला, मकर वा कुम्भ मं शनि हो तो व्यक्ति नौकरी मे अधिक सख मानते है । यदि व्यवसाय करं तो वड़ी मिहो वा फर्मो मे अधिकारी होते है । किन्त इसका घरेष्ट्‌ जीवन ठीक नदीं होता-दो विवाह; पल्ीसे छटा मखवौँ रहता है । इनकी दृष्टि विषयमयी होती हे । इनसे प्रशंसित व्यक्तिः शीघ ही नष्ट होते ई । लियो से अवैध सम्बन्ध रखते द । पलीरग्णा रहती है- वचपन मे मात्र-पिवरद्यीन होते है, प्रायः पिता की मूल्य होती है। परन्तु तखा के निमे माता-पिता लम्बी उमर में देखे गए है । बड़ा व्यवसाय; किन्तु असफलता पीछे पड़ी रहती है । पूर्णरिक्चा होती नदी, पेतरकसप्पत्ति मिख्ती नहीं, मिलनेपर टरस्टी ही मौज्ञ उड़ाते द॑ तापं यह कि जीवन सुखमय नहीं होता, जीवन मे प्रगति २६ व्॑से दोती है ३६ वे वषं से अच्छी सफलता मिख्ती है । ५६ वर्षतकं जीवनस्थिति अच्छी रहतीदहे। व्यवसाये वा जीवन मे २५ तथा ३१ वें वषमे आ्थिकहानि होती रै । ल्प्रस्थ शनि शक्र दूषित हो तो विवाहसुख अच्छा नदीं मिख्ताया तो विवाह नदीं दोता-यदि होतो लीकी मयु दहोतीदै। व्यभिचारी प्रदृत्तिदहोतौदै। धन हुभातो पु्राभाव होता है । कन्यासन्तति रहती है । व्यवसाय मे असफलता तथा धन की कमी रहती हे ।

ल्मस्थ शनि मङ्गल से दूषित हो तो अपघात होता है, माकस्मिक मृत्यु होती है । कारावास, स्थित लेने का आरोप आदि अश्चमफल होते है ।

श्निषर @०य््‌

यदि शनि चन्द्र के साथदहोतो दुष्टस्वभाव, चरििभ्र्टता आदि अ्यभफल भीदोतेर्है। सिंह तथा धनु मे शनि दहो तो कपडे अच्छे नदीं होते-फटेपुराने कपड़े तथा शरीर अत्यन्त मिन रहता दै-

कर्व, त॒श्चिक ओर मौन मे शनिदहोतो रदी; जुकाम-खांशी आदि रोग ९ ॥ है । वद्धकोष्टता होती है । उन्माद; मूत्रोग, बहुमूत्रता आदि रोग ह

मिथुन तथा कुम्भ मेँ साधारणतया ग्यक्ति अच्छा रहता है । किन्तु वातजन्य व्याधियों का प्रकोप दो सक्ता है। | |

वृष, कन्या, तथा मकर मेँ मृच्रङच्छ, कफ-तथा उपदंश आदि रोग भी

सम्भावित होतेर्है॥ `

कञ्मस्थ शनि प्रभावित व्यक्तियों का पिी मुखकात मे अच्छा प्रभाव पड़ता है । मेष, कर्व, सिह, इृधिक, धनु तथा मौन मेँ स्वभाव अच्छा होता दै । किन्त अच्छे वा वुरेस्वभाव का अनुभव पात करना होता है।

कन्या-मकर, कुम्भ तथा इष में व्यक्ति अपने स्वाथंके ठिएट दृसरोंका नुकसान करते पाए गए है । धनभावस्थ शनि के फठ– सुखापेक्षया वर्जितोऽसौ कुटुम्बात्‌ कुटुम्बे शनो वस्तु किं किंन भक्ते । समं वक्ति मित्रेण तिक्तं वचोऽपि भसक्ति विना टोहकं को छेत्‌ ॥२॥

अन्वयः–शनौ कुडुम्बे ( स्थिते सति ) युखापेक्चया कुडम्बात्‌ वर्जितः ( स्यात्‌ ) असौ किं किं वस्तु न ुक्ते प्रसक्तं बिना मित्रेण समं तिक्तं वचः अपि वक्तिः ( तेन बिना ) लोहक कः ख्मेत ॥ २॥

सं टी<-ङुडम्बे द्वितीये शनौ भसौ सरुषः युखापेश्चया खुखलमेच्छया कुडभ्बात्‌ स्व-जनात्‌ वर्जितः विसुक्तः अन्यदेशग्रासः, इत्यर्थः कि किं वस्तन यक्ते अपितु सर्व॑विषयभोगावान्‌ स्यात्‌ । तथा प्रसक्ति परिचर्योविना रोहकः घात- रख्पातादि अष्टधाठुः वा सुवण वा हिरण्य लोदमित्यादि निषदूक्ते; को ल्भेत किन्तु स एव-दइत्यथः, मित्रेण सम साद्ध तिक्त दुःसहं वष्वः वाक्ये वक्ति॥ २॥

अथे-जिस मनुष्य के जन्मल्प्मसे दुसरे स्थान मे अर्थात्‌ धनभाव में शनि हो वह सुख सम कौ इच्छा से कुडम्ब को छोड़कर स्वदेशमें ही दूर दूर स्थानों मे शदरों तथा नगरों मे, अथवा परदेश मे चला जाता है, भौर वँ पर रहता हुभा समी प्रकार कौ वस्व॒ओं का, समी प्रकार के विषयों का उपभोग करता है; अर्थात्‌ उसे उत्तम-उत्तम वस्तु प्राप्त होती ईै–बिना किसी प्रसंग के, व्यर्थं ही मित्रों से तौखे वचन ओरता है अर्थात्‌ व्यर्थं ही कटभाषण करता है मित्रोंसे मीठा बोलना तो दूर रहा; अप्रासंगिकः अनुचित तथा भस्य क्णंकडुशब्द बोलता है । किसी एक टीकाकारने प्रसक्ति शब्दका अर्थं (सुदामदः किया है अर “लोहक कः ल्मेतः के साथ श्रसक्तिं विना” को जोड़ा

७०६ ‘वमरक्छारचिन्तामणि चछा तुरुनारभक स्वाध्याय

हे ओर खसुचित अथ “विना खुखामद दी अष्टधातु खोहा आदि सभी वस्तुं इसे प्राप्त हो जाती ई’-एेसा किया है, प्रसक्तिशब्द्‌ “परिचर्या मे ८ खुशामद्‌ ) मे अप्रसिद्ध है–यव्यपि प्रसक्तिः शब्द्‌ अनेकार्थंक है। लोहक की व्युत्पत्ति “लोहः एव लोहकः एेसी है । लोह राब्दके भी कई एक अर्थं है| “हिन्दी खाब्द्‌ संग्रहः कोष मे “छोह’ के निम्नख्खित अथ॑ है -एक धातु, हथियार, धाक, युद्ध, लाल्वेल, खाक; इट्‌, सख्त, आपटे के कोश म “रोहः का अर्थं छुवण भी दिया गया है । ऊपर च्लि कोश प्रमाणसे लोहक शब्द्‌ का अथं “सोना आदि धावुँ की प्राप्ति?वा खेोहेसे बने दए तलवार दि तीक्ष्ण रास्नां के व्यापारसे धनप्राप्नि किया जा सक्तादहे। दानिका प्यारा धातु “लोहाः तो माना हा है । शनि की प्रसन्नता के किए दातव्य पदार्थो मे लोहा का निर्देश सक्र हे । अनुभव से भी शनि प्रभावित व्यक्ति यदि रोदे का व्यापार करं तो अद्रूट लभ उटातेर्है। अतः छोहे के व्यापारसे फायदा होता हे यह अथं सुसंगत है । अष्टधातु की गणना मे “लोहाः भी एक धातु हे। वन्दूक बनाकर वेचनेवाठे व्यापारी तो खखों मे खेकते नज्र आते ह ओौर यदह छपा शनिग्रह कौ दै-एेसा मानना टीक है । तुरखुना–“ुटम्बत्यक्तोऽपि प्रभवति कुडम्बे यदि शनौ ; विदेरो संगच्छन्‌ किमितनहियुंक्ते प्रियतमम्‌ । सदा मिष्टं मिचेरपि खद सदा तिक्तवष्वनं , „+ ` प्रवक्ति स्वाथना सपदिपरिण्हाति च शरम्‌ ॥ जीवनाय अथं–जिस मनुष्य के जन्म समयमे शनि धनभावमं हो बह कुटुम्ब ( परिवार ) से प्रथक्‌ होकर परदेश मं जाकर सदा मिष्टान्नादि प्रिय वस्तुओं का क्या भोग नदीं करता है १ अर्थात्‌ परिवार को छोडकर, परदेश में जाकर सब अभीष्ट वस्व॒ओंका लाम करतादहै। मि्ोंके साथ सदा कडवचन तथां दुर्वचन ही बोटता है | ओर स्वार्थंके लिए शीघ द्धी शास्र ्रहणमी करता है । अर्थात्‌ यह पराकाष्टाका स्वार्थी होतादहै जो अपनी स्वाथंसिद्धि केलिए दूखरो से मारकाट करने के छि एकदम तैय्यार हो जाता है । भूरदरव्यो शपहतधनो क्रोगी द्वितीये ॥> व याहनिह्र अथ– जिसके धनभाव में शनि हो वह व्यक्ति बहूुधनवान्‌, किन्तु राजा के कोपसे निधन होता है। इसे मुख के रोग होते है। | असत्यवादी चपलोऽटनोडधनः शनौ कुटुम्बोपगते व॒ वश्चकः ॥ वंयनाय अथे-कुडम्बभाव मे ( धनभाव में) शनि के होने से जातक ्चूठ बोलनेवाला; चपर, प्रवासी, निर्धन तथा ठग होता है । “दुःखावहो धन-विनाशकरः प्रदिष्टः ।” वक्षिष्ठ अथे–दितीयमाव का शनि दुःख देकर धन कानाश्च करता है। “घनहानिश्च | पराशर

शनिषफल ४०७

अथ-धनभाव क्रा शनि धन हानि कारक होता है।

८स्वजनपदगतोऽस्वोऽसो कुटुम्बो्चितः स्यात्‌ । परजनपदजातः - सवंसौख्योऽसितेस्वे ॥ जयदेव

अ्थे– जब तक अपने देशम रहता है निधन रहता है । जब कुडम्ब ( परिवार ) को छोड़कर परदेश जातादै तो इसे सब प्रकार के सुख प्राप्त होते ई । यद फर धनभाव के शनि काहे। “‘धनेमेदे धनैरदीनो . वातपित्तकफातुरः। ` देहास्थि पित्तरोगश्च गुणः स्व्पोऽपिजायते ॥ का्ीनाथ अथे-धनभावमे शनि के होने से जातक निधन; वात; पित्त, कफ तथा अस्थिरोग से पीडित तथा गुणहीन होता है। ‘धविकृतवदनोऽ्थभोक्ता जनरहितो न्यायङ्कत्‌ कुडम्बगते । पश्चात्‌ परदेशगतो धनवाहन भोगवान्‌ सौरे ।;* कल्याणवर्मा अर्थ-यदि शनि द्वितीयभावमें होतो जातक का मुख विक्त होता हे । घन का उपभोग करता है । यह न्यायद्चीक होता है । आयु के उत्तराध मं यह परदेश्च जाता है भौर वों पर इसे धन भौर वाहनों का सुख मिर्ता है । ‘धयन्यालयस्थो व्यसनामिभूतो जनोञ्द्ितः स्यान्‌ मनुजश्च पश्चात्‌ । देशान्तरे वाहनराजमानो धनाभिघाने भवनेऽकंसूनौ | महे अर्भ–उच्क्षे्र के भिना यदि धनभाव मे किंसी अन्य रारियों मे शनि स्थित होता है तो जातक व्यसनों से पीडित होता है–इसके परिवार के छोग इसका परित्याग कर देते ई । उत्तर भयु मेँ यद परदेश जाता है ओर वरहो पर वाहन का सुख मिक्ता दै ओर यह राजा का ृपापात्र होकर राजसम्मान पाता है । ८“काष्ठागाराह्छोह धनः कुकायौद्धनसंचयः । नीचविदानुरक्तश्च । धनेमन्दे धनै्हीनो निष्टुरोदुःखितोभवेत्‌ । मित्रखौम्येयुते इष्टे ध्म॑सत्यदयान्वितः ॥ मृतवत्साभागिन्यादिगर्भख्लावादिकं भवेत्‌ । प्रतिवेदयादि बालानां विपत्तिरपि कथ्यते ॥ गर्ग अर्थ- जिस जातक की कुण्डलीम श्निद्ो तो इसे कड़ी, कोयला; लोद्ा आदि के व्यापारसे ओर बुरे कामों से घन मिरुता ईै। यह नीच विया का सभ्यास करता है । इसके वहिन की सन्तति जीवित नहीं रहती, गर्मपात होता दै) धर आौर चोंकी हानि होती है। धनभावके शनि पर यदि मित्रमह वा श्चुमग्रहदकी दष्टिहोवामित्र वा सौम्यगप्रह की युति हो तो जातक धार्मिक, दयाल तथा सत्यप्रिय होता है । ‘धविमुखमधनमर्थऽन्यायवन्तं च पश्चात्‌ | इतरजनपदस्थं मानमोगाथयुक्तम्‌” ॥ म॑तरेश्वर अथे–यदि शनि दुसरे घरमे दो तो जातक का चेहरा देखने मे भच्छा न होगा ! रेखा व्यक्ति अन्याय मागे पर चलेगा ओर घनहीन शोगा । किन्तु

७०८ चवमर्कारचिन्तामणि का तुरुनाव्मक्‌ स्वाध्याय

वाद्‌ मे ८ जीवन के उत्तराद्धंमें ) वदद अपना निवासस्ान छोडकर किसी दूसरे स्थान पर चला जायेगा ओर वर्ह पर धन, सवारी तथा सुख के साघन प्रास्त करेगा | ““अन्यालयस्थो व्यसनामिभूतोजनोञ्ज्ितः स्यान्नानुजश्च पश्चात्‌ । देशान्तरे वाहन राजमान्ये धनाभिधाने भवनेऽकसूनौ? ॥ बृहद्‌ यवनजातक थे– यह जातक दूसरोंके घर रहता है। विपत्तियं से पीडित होता है । रोग इसे अपने से प्रथक्‌ करदेतेरै। इते छोटे भाई नदीं होते | जीवन के उत्तराधंमे विदेरामे जाकर यह व्यक्ति वाहनों का सुख तथा राजा द्वारा आदर पाता है। घनमिकेतनवर्तिनि भानुज भवति वाक्यसुदास्धनान्वितः | प्वपल लोचन संष्वयने रतो भवति चौ्य॑परोनियतं सदा? ॥ मानसरागर अर्थ- धनभाव में दानिके होने से जातक मधुरभाषी तथा धनवान्‌ होता है | इसकी दष्ट चंचल होती है । यह संग्रही तथा चौ्य॑कर्मपरायण होता है । ‘अन्याख्यसो व्यसनामिभूतो जनोञ्क्ितः स्यान्‌ मनुजश्च पश्चात्‌ । देशान्तरे वाहनराजमानो धनाभिघाने भवनेऽकसूनौ” ॥ द्ण्डिराज अथं- जिसके धनभावमे इनि दहो तो व्यक्ति का अपना घर नदीं होता ओर बह दूसरे के घर मे रहता दै-विपत्तियो इसका पटा नदीं छोडतीं, इसका बन्धु वगं इसे अपने से प्रथक्‌ कर देता है | यह व्यक्ति अपने जीवन के उत्तरार्धं मं परदेश जाता है ओौर वर्ह पर इसे वाद्रनों का सुख मिलता है भौर यह राजमान्य होता दहै नोट-“अन्याल्यखः’ विरोषण उस व्यक्ति के किए दिया गया है जिसके धनभाव मे शनि होता दै। यह विदोषण कद एक प्रामाणिक प्रंथोंमे सावा हे । मदेशदेवन्ञ रचित “रणवीरब्योतिर्निवंघः मं इसका अथं उच राशि से अन्व राशियों का रानि” एेसा किया दहै। रोष भंथकारों ने यह विरोषण “जातकः का माना है यओौर इसका अथं द्दुखरे के धर मं निवास करनेवाला” अर्थात्‌ “जिस व्यक्ति का अपना धर नदं दैः। एेसा किया दहे। बहुमत से दुसरेके घरमें रहनेवालाः यदी अथं ठीक जंचताहै। किन्तु दूसरा मथ भी अप्रासंगिक नदीं क्योकि तरा; धनु, मकर, कुंभ ओर मीन राशि का दानि श्चुभ फलदाता माना गया है ओर इन राशियों से अन्य राशियों का रानि अश्चुम फलदाता है। धर कान होना, दूसरों के धर में रहना-दूसरोँ की दया प्र अवलकम्वित रहना भादि फक अद्युभ ही है| ““धने पंगुना विद्यमाने सुखं किं कुडम्बात्‌ तथा द्खैखमाहुजनानाम्‌ । न भोक्ता न वक्ता वदेन्‌ निष्रं वै घनं छोहजातं न दात्रोमयं स्यात्‌? ॥ जागेश्वर अथ-जिस व्यक्ति के धनभावमें शनि हो वह अपने परिवारे किसी प्रकारका भी सुख प्राप्र न्दी करतादहै। इसेलेगोसे कष्ट दहोताहै। इसे

शनिरूट ७०९

कोद उपभोग प्राप्त नदीं होता.। यह अच्छा बोलनेवाला नदीं होता है-इसके वचन निष्टुर अर्थात्‌ कणेकड होते दै । इसे खोदे के व्यापार से धनप्राति होती है । इसे दात्तुभय नदीं होता है । | व ““यावागो वदहाखः कोतोदत्तश्च गुस्वरो जोहखः | जरखाने यदि मनुजो नान्यः परदेरागश्वापि” ॥ खानखाना

अथे–यदि रानैश्वर द्वितीयमावमें हो तो मनुष्य सर्वदा तंग रहनेवाख; खराब हालतवाटा; क्रोधी, निर्धन ओर परदेश मे रहनेवाला होता ३ ।

श्रगुसूत्र-द्रगव्याभावः | दाख््रिथं । पापयुते दारवंचना । मटाधिपः । अत्प- ्षे्रवान्‌ । नेत्ररोगी ।

अथे–यदि शनि धनभाव मेहो तो जातक धनहीनता है-इसके दो विवाह होते ्है। इसे ओंखोंके रोग होतेरहै। खेती कम रहती है । मटाधौडश हो सकता है । यदि शनि पापग्रह से युक्त हो तो चियोंको टगनेवाखा होता है। |

पाश्चात्यमत–धनभाव के शनि से धनहानि होती है तथा व्यापारमें नुकसान होता है । श्चुम सम्बन्ध मे हो तो खोकोपयोगी कार्य, कम्पनिर्यो, शोयर, सद्धा आदि मे अच्छा खभ होता है। अद्भत चित्ताकर्ष॑क प्चीजों तथा पुरानी प्वीजों के व्यापारसे खम हेता हं । श्युभ सम्बन्ध मे ओर विशेषतः (तुलाः में यह दानि पत्रक सम्पत्ति अच्छी देता है । यद्‌. जातक मितव्ययी, होशियार तथा दीर्घदर्शी होने से सम्पत्ति का विनियोग बड़े-बड़े सुरश्चित व्यवसायों के विकास मे करता है । इससे सम्पत्ति मं मच्छी बृद्धि होती है । व्यवसायों के लि पूजी देनेवाले भीमानों की कुण्डल्या मे यह योग अक्सर पाया जाता है । यदी रानि पीड़ित अर निबेख हो तो जीवन भर ददी रहना पड़ता है । इदर निर्वह भी बहुत कष्ट से होता हे । स्मार्थिक कष्ट होता रहता दै । व्यापार वा व्यवसाय मे हमेखा नुकसान होता है । बहुत भ्रम करने पर भी खम नदीं होता ।

विचार ओर अनुभव-धनभावयित शनि के विषयमे ग्रंथकारें तथा अन्य ठेखकों मे मतभेद पाया जाता है । कई एक ठेखकों ने बहुत अश्चभफल बतसखए ह ओर अन्य ठेखकों ने श्चम-अञ्चम दोनों प्रकार के फर बतल्ए ई । ` पूर्वजं की सम्पत्ति के विषय मे विचार धनभाव से करना चाहिए । प्राचीन गरंथकारों ने साधारणतया शुर भौर शक्र; इन दोनों प्रह को सम्पत्तिकारक माना है । क्योकि नैसर्गिक कुण्डली में शुक्र धनसथान का स्वामी होता है ओर भावकारक कुण्डली मे रुरु धनमावकारक होता है । किन्तु नैसर्गिक कुण्डली मेँ दद्यमस्थान का स्वामी सनिहै) वैयनाथ ने सखरबित जातकपारिजात में “सम्पत्यरदाता शानिः” एेसा टिखा है । “यायु्जीवन मृत्यु कारण विपत्‌ सम्पत्‌ प्रदाता शनिः” । यह शछोकाधं फलविशेषरचिन्ता मे दिया गया है । अर्थात्‌ वैद्रनाथ ने शनि को सम्पत्तिकारकत्वेन ग्रहण क्या है। गुरु के. कारकत्व के विषय अँ वैद्यनाथं का मत निश्नलिखित है–“भरज्ञा-नित्यदारीरपुष्टितनयज्ञानानि

९१० पवमरकारचिन्तवामणि का तुरख्नास्मक्‌ स्वाध्याय

वागीश्वरात्‌” । इससे गुरु ज्ञान कारणदहैः यहतो निःसन्दिग्धदहै। इसमें सम्पत्तिकारकत्व का अभाव है। उत्तर-काटामतकार कालिदास ने शुक्र के कारकत्व मे “यायः का सन्निवेश करिया है। सम्पत्ति मी सायसे भिन्न नहीं दै। इस तरह शुक्र ओर शनि दोनों भह धनकारक है-एेसा कहना अनुचित न दोगा । शक्र नकद रुपए-सोना-चोँदी का कारक है ओर स्थावर सम्पत्ति घर-जमीन आदि का कारक यह शनि है-वह मान्यता ठीक होगी । धनस्थान मे श्चम सम्बन्ध मं शनि पूवीजित सम्पत्ति कौ प्राप्ति कराता हे । यह कहना सुसंगत होगा । एक बात भौर है-“सौरिः स्वस्थानपाटः परमभयकरी दष्टिरस्य प्रणष्टाः यह एक ज्योतिष का नियम दहं! इसके अनुसार जिस स्थान मं शनि हो उसके श्युभफर मिक्ते ह । धनस्थान का शनि पूरवाजजित सम्पत्ति का पारक हे-इसकी रक्षा करता है-ओर जातक को इस सम्पत्ति का खाभ कराता है। “जिस पर शनि की दृष्टि पडती हं वह स्थान नष्ट होता हैः । यह दूसरा नियम दै । (शनि की दृष्टि विषमयी है” इस पर पहिले प्रकाश डालछाजा चुका है।

वृष, कन्या तथा मकर मं पूरव्राजित सम्पत्ति नहीं होती-हो तो उसका उपयोग नह्य होता । अपने श्रम तथा उद्योग से उपजीविका करनी पडती है । यौवन सुखपूणं नहीं होता । विवाह एक होता है-इनका व्यवहार घर के रोगो से मुसाफिरों जैसा होता है अर्थात्‌ घर के कामोंमें ओर घरके छोगोँं की तरफ ये निरपेक्च रहते है-इनकी खगन सार्वजनिक ओौर र्रीय कामों मे खूत्र होती है। ये रोग हठी ओर दुराग्रही होते ह । इन्द अपने खाने-पीने तथा कपड़ों कौभी फिक्र नहीं होती)

मेष, मिथुन, सिह तथा धनम दो विवाह होते ह-संतति; धन तथां सम्मान खूत्; किन्तु धनसंष्य नहीं होता घरवार पर, जमीनों की खरीदारी मे धन का खव्वं होता है। इन्द भोजनभडट होने से असन्तोष दही रहता है। मिष्टभाषणसे ये अपना काम आसानीसे निकाल्लेतेरहै। ये पती से विमुख रहते ह अतः घर में परस्पर छठा-यठा चला रहता है । टोगो के छिषए्‌ घन व्यय करते है अतः छोग इनकी मुष्टी में रहते द । इनकी उपजीविका टीक चलती रहती हे ।

कक, वृश्चिक तथा मीनमं ऊपर च्छि फक ही कुर कम अधिक माचा म अनुभव में आते हुए देखे गए है |

वला तथा कुममें द्िभार्या योग होता है। संतति कम, व्याज पर रुपया देने का व्यवसाय, इसमे दूसरों का धन हडप की प्रदृत्ति होती है । ये किसी के सहायक नहीं दहोते। आयुके १५वैतथा रण्वं वषमे धरका प्रमुख व्यक्तिं कारकवटित होता है । उपजीविका का प्रारम्भ प्रायः ररसे रण्वं वधं तक होताहै। इस योगम विवाहदेरसे होता है। ग्रन्थकारो ने स्वदेदा म अश्चमफलो का होना तथा देशान्तरमें श्चभफलों का होना बतलाया है।

च जिर ॑ ७११३

देशान्तरमेंदोवादो से अधिक विवाह होते दै। देशान्तर की दष्ट से निम्न प्रकारसे खभ होता दै मेष, सिंह तथा धनु मे उत्तर, वृष, कन्या, तथा मकर में पञ्चिम की भोर, ककं, बृधिक तथा मीनमें पूवंकी ओर, मिथुन; वला तथा कुंभ में उत्तर की ओर खाभ होता है। व्यवसाय की दृष्टि से धनभाव का शनिं निञ्नलिखित व्यवसायों मे लाभ- दायक है :-ल्कड़ी-कोयल, छो, खनिजपदाथ, धातु; पत्थर, चुना, बाट्‌ । तृतीयभावस्थ शनि के फट– “तृतीये हानौ रीतं नैव चित्तांजना दु्यमाल्नायते युक्तभाषी । अविघ्नं भवेत्‌ कर्दिचिन्नैवभाग्यं दढारः सुखी दुख: सत्कृेतोऽपि ॥ ३॥ अन्वयः– शनौ तृतीये ( स्थिति सति ) अनात्‌ उद्यमात्‌ ( च ) चित्तं शीतले न एव जायते । (सः) दटाराः सुखी, युक्तमाषी ( स्यात्‌ ) तस्य भाग्यं कर्दिचित्‌ अविन्नं न एवं मवेत्‌ । ( यसौ ) सक्तः अपि दुर्मुखः ८ भवति ) ॥३॥ सं° टी<– तृतीये शानौ जनात्‌ सहजाद्‌ उच्यमाच चित्त मनः शीतलं शांतं नैवजायते । भाग्यं लाभादिभदृष्टजं अविघ्नं विभ्नरहितं कर्दिचित्‌ कदापि नेव भवेत्‌ । युक्तभाषी मितवक्ता; दटाशः अवचलतृष्णः अतएव असुखी, सक्तोऽपि दुमुखो मुखरो भवेत्‌ ॥ ३ ॥ अथे- जिसका शनि तीसरेभाव मे हो उस जातकं कामन भाई-बन्धुओों आदिसे भी तथा पराक्रम करनेसे भी चान्त नदीं होता रै। माई-बन्धुओों से मनमुटाव होने से चित्त अशान्त तथा अस्वस्थ रहता है-यह अट्ट परिश्रम तथा उन्योग करता है किन्तु इसका मन सथान्त दी रहता रै क्योकि इसे उद्योगी होने पर भी सफट्ता प्राप्त नदीं होती । इसका भाग्य-भर्थात्‌ रेशर्य आर धनादि का लाभम निर्विप्न नदीं होता-अर्थात्‌ विघ्नोंके बाद दी इसका भाग्योदय होता है-अर्थात्‌ एेवय-षन-आादि की प्राति के पूर्वं इसे बहुत ही विघ्नो का सामना करना पडता है । यदह जातक मितभाषी होता है । यह सुखी भी होता है, किन्तु इसकी भाशाएं व्रष्णाएः अतृप्त रहती ह । जिस कारण यष कभी भी पूणंतया सुखी नीं रहता है । जव तक इदमू आशां का मूल नष्टनदहो तब तक सुखप्रासि-शान्तवित्तता क्योकर हो सक्तौ है। इस जातक का चाहे कितना दही आदर-सत्कारक्यों नक्रिया जाएटतौ भी यह असन्तुष्ट तथा अप्रस्न ही रहता है भौर मुखसे दुष्ट वचन ही बोरता है सम्मान तथा सत्कार करनेवालो से भी दुष्टता तथा कत्नता का ही व्यवहार करता है ॥३॥ तुखुना–“यदा भ्रातुः स्थानं गतवति शनौ जन्मसमये घनानां व्यापारा्नहि परमदर्षो जनिमताम्‌ । भवेद्‌ माम्य तेषां कथमिह महोत्पातरषठितं , कृते सत्कारेऽपि प्रसरति खलत्वं च परितः ॥ जीवनाथ

९१२ चमत्कारचिन्तामणि का तुलनात्मक स्वाध्याय

अथं- जिस मनुष्य के जन्मसमयमे दानि त्ृतीयभावमें हो उसे धन द्वारा किए गए व्यापार से अधिक आनन्द नहीं दहोता दै, अर्थात्‌ व्यापारसे यथेच्छ पूणं घन नहीं मिक्ता है । उसका भाग्य विन्न-वाधाओं से रहित कैसे हो सकता हे, अर्थात्‌ उखकी भाग्योन्नति मे अनेक विघ्न-वाधाएं आती ै। भौर सम्मान करने पर भी उसकी दुष्टता चारं ओर फैट्ती है, अर्थात्‌ वह सम्मान करनेवालो से मी दुष्टता ही करता है । इस लिए वह परम दुष्ट होता हे । „ मतिविक्रमवान्‌ तृतीयगे ।* भाचायं वराहमिहिर अथं–जिस मनुष्य के वृतीयभावमं शनि दो तो वह बुद्धिमान्‌ आौर पराक्रमशीर होता है | “इयामोऽसंस्कृत देहो नीचोऽखसपरिजनो मवति सौरे । दयूरोदानानुरक्तो दुश्चिक्यगे विपुख्बुद्धिः 2 कल्थाणवर्मा अ्थ–यदि जातक के तृतीयभावमं शनिदहो तो वह श्यामवणं होता. है। उसका दारीर गन्दा रहता है । यह नीच, शर-उदार ओर कुशाग्रबुद्धि होता है । दसके परिवार के लोग आलसी होते ई । “अहित-हित-जनानां पोषको भूपमान्यो | | गुणगण वल्शाखी विक्रमी विक्रमस्थ | जघदेव अ्थ–यदि जातक के तीसरे भावमें चनिदहो तो यह षादेशत्रु हों ओर चाहे मिहो विना किंसी मेदभाव के सभी का पाटन-पोषण करता ई । यह राज्ञासे आदर पाता. दै। यह शओौर्य-मौदार्यं आदि गुण समूह से युक्त होता हे-यह पराक्रमवान्‌ होता है । “सहेजमन्दिरगे तपनात्मजे भवति सर्वसहोदरनाशकः । तदनुक्रूल दपेण समोनरः स्वसुखपुत्रकट्त्र समन्वितः ॥* सानल्ागर अथ– जिसके भ्रातृस्थान में अर्थात्‌ व्रतीयमावमें शनि होतो यह सभी भादा के दिष्‌ मारक होता है, अर्थात्‌ बडे-छोटे दोनों भाहयों क लिए मारक होता हे । यह सुख, पुत्र ओर कलत्र युक्त ओर राजा जैसा भाग्यवान्‌ होता ३ । अल्पाशी धनश्चील दंश गुणवान्‌ श्रात्रस्थिते भानुजे। सौरिप्टतीयेऽनुजनाराकता ॥* वैद्यनाथ अथे- जिसके जन्म समय तीसरे भाव मे शनि हो तो जातक कम खाता है । यह धनवान्‌ , कुटीन तथा गुणवान्‌ होता हे | ततीय शनि छोरे भाईयों ऋ [ए मारक होता है । ““छायात्मजे वतीयस्थे प्रसन्ना गुणवत्सलः | रानुमर्दी द्णां मान्थो धनी द्रश्च जायते ॥* एाज्लीचाथ अथ-जिसके शनि तृतीयमाव मं हो उह प्रसन्नवित्त; गुणोंका प्यारा, शव्रुनाशक, खोगोँ मे आदरणीय, धनी ओौर श्ूर-वीर होता हे । “धराजमान्य श्चुभवाहनयुक्तो म्रामपो बहूुपराक्रमशाखी । पालको भवति भूरिजनानां मनवो रविजे सहजस्थे ॥” इण्डिराज

दशानिरर ५

अथ–यदि शनि वृतीयभाव में हो तो जातक राजमान्य, उत्तमवाहनयुक्त गौव का मुखिया अर्थात्‌ ग्राम का मुख्यपुरुष, बहुत पराक्रमी, बहुत से रोगों का पार्क होता है, अर्थात्‌ बहुत से रोग इसके आधित रहते हँ यद इन सब का पालक-परोषक होता है। “”विपुल्मतिमुदारं दारसौख्यं च शौय - जनयति रविपुच्श्चाल्संविङ्कव॑च ॥» स्मतरेश्वर अ्थ-यदि व्रतीय मे शनि हो तो जातक बहुत बुद्धिमान्‌ भौर उदार होता है। इसे स््रीसुख भी मिलता है । किन्तु यह आरुसौ ओर दुःखी होता रै । तृतीये मित्रवर्धनं धनलामम्‌ । पृष्ठे जातं शनैश्चरः ॥* पराह्ार अथै–जिसके तृतीयभाव मे शनि हो तो उसके मित्र बदृते ह । उसे धन कालम होता है। उसके छोटे भाई की मृद्युहोती है ॥ तथा तृतीयगे मन्दे ख नरो भाग्यवान्‌ भवेत्‌ । भवेद्‌ दोषस्थिता पीड़ा शरीरे तस्य सर्वदा । ्रात्रगो मन्दगः - कुयौद्‌. भ्रात्रस्वसविनाशनम्‌ । चपव॒स्यं च सुखिनं सततं कुर्ते नरम्‌ । सौरि गर्मविनाशनं च नियतं मन्नीश्वरो नान्यथा ॥ गर्ग अर्थ–यदि शनि तृतीयभावस्थ हो तो जातक भाग्यवान्‌ होता है । इसके शारीर में दोषजन्य पीड़ा रहती है । यह राजा जैसा सुखी मन्त्री होता दै | भाई- बहनों तथा संतति का नाश होता है । °धयदा विक्रमे मन्दगामी कदुष्णं भवेनूमानसं भाग्यविभ्नरः सदा स्यात्‌ । भवेत्‌ पाठको चै बहूनां नराणां रणेविक्रमी ` भाग्यवान्‌ हस्तरोगी । भवेद्‌ श्राव्रकष्टं॒विदेशे प्रयाणे येनो विराम ख्मेद्‌ बन्धुतोऽपि । भवेन्‌ नीच सक्तो विरक्तोऽथधमं यदा विक्रमे सूयसूनुः नराणाम्‌ ॥” ध ह व जागेश्वर अथं– रानि के तरतीयभावमें होने से जातक का मनं कटुषित अथ

साफ नदीं रहता । भाग्योदय में विश्नवाधार्ण आती है । यद बहुतसे लोगों को ` आश्रय देता है | यद रण्नूर, भौर हस्तरोगी होता रहै । भायां का कष्ट रहता दै। यह परदेशमे जातादहै। घरमे इसे आराम नदीं मिल्तादै। भाई बन्धुओं कैः साथ मनसुखाव रहता है । यह नीचो की सङ्गति में रहता है । धमं करने से तथा धन कमाने से विमुख रहता है अर्थान्‌ धमं गौर धन की पक्र नदीं करता है ॥ | धल्रीणां प्रियं रविजस्त्रतीये > वरिष्ठः अर्थ-जिखके वतीय में शनि हो वह लियो को प्रिय होता है ॥ ““राजमान्य श्चभवाहनयुक्तो ग्रामपो बहुपराक्रमशादी । पाको भवति भूरिजिनानां मानवो रवि सुतेऽनुज संस्थे ॥” वृहद्‌ थठनजातक

७१७ चम रारचिन्तामणि का सुखनाष्मक स्वाध्याय

अथं– यदह जातक राजभा में माननीय, उत्तम वाहनों से युक्त; गौव में भुख्य, पराक्रमी, बहतो का आश्रयदाता होता है यदि इसके वरतीय मे शनि होता हे ॥ | ‘धजोरावरो यद्धीखः खुरादाना च मानवः सभ्यः| अनुचर इन्द समेतो भवति यदा वै विरादरे जोहरः |} खानखाना अर्थ- यदि त्रतीयभाव सें शनि हो तो मनुष्य पहल्वान्‌ , यशस्वी, प्रसन्न चित्त; सभावचतुर ओर बहुत नौकर चाकरवाला होता है ॥ राजमान्य श्युभवाहनयुक्तो ग्रामपो बहूुपराक्रमशाटी । पाठको भवति भूरिजनानां मानवो हि रविजे सहजस्थे | महेश अथे– जिसके तीसरेभावमे शनि हो वह जातक राजमान्य होता ३ै। उसके पास उत्तम वाहन होते है । वह ग्राम का मुखिया होता हे। यह वहत पराक्रमरीक होता दै । “यह बहुत लोगों को आश्रय देता है, केवर इतना ही नहीं, यह इन रोगों का पाठक-पोषक मी होता है ॥ “भूपात्‌ सौख्यं चारकीर्तिः सुकान्तिः वित्ताधिक्यं वाहनानां समरद्धिः । नेख्जोगं पालनं मानवानां श्रावरस्थाने भानुजातः करोति ॥ हरिं अथं– जिस जातक के वृतीयभावमें शनिहोतो जातकको रानाते सुख प्राप्त होता है। यह अपनी कीर्ति से चारों दिशाओं को धवलित कर देता हे अर्थात्‌ जातक दिगेत कीर्तिं होता है । इसका शरीर सुन्द्र भौर नीरोग होता है । यह सेंकडो मनुष्यों को आश्रय देकर सुखी बनाता है ॥ धगुसूत्र-भराव्रहानि कारकः, अष्टः; दुठृत्तः । उच स्वक्षेत्रे भ्रातबद्धिः । तत्रपापयुते भ्रावरदेषी । प्रतापवान्‌ ॥” अथे- त्रतीयमावस्थ शनि भाइ को हानि पर्हैवाता है। इसका चित्त दुःखित रहता है । यह दुराचारी होता है । यदि शनि उच वा स्वक्षेत्रमे होतो भाइयां कौ वृद्धि होती दहै। यदि इस शनिके साथ पापग्रहदहोंतो भादयोंनें देष होता है । यह प्रतापी मानव होता रहै ॥ पाश्चात्यमत-यदह शनि श्युभसम्बन्ध मं बलवान्‌ होतो जातक का मन गम्भीर, स्थिर, शान्त विवेकी सौम्ब तथा विचारशील होता है। चित्त की एका्रता शीघ्र होती हे । अतः विचार, मनन, ओौर एकाग्रता की जिन्है जरूरत दोती हे-एेसे विषयों का अध्ययन मच्छी तरह कर सकते है । शनि के प्रमुख दभलक्षण न्याय; प्रामाणिक, चुर होनः-इनमे पाए जातेरै। वुद्धि गहरी यर सलाह अच्छी होती है यही शनि पीडित वा निर्व हो तो रदितेदार, माई वन्द्‌; पड़ोसी आदि से वनती नदीं, अतः उनसे सुख नहीं मिलता है । रिक्षा पूरी नदीं होती । प्रवास से सम नहीं होता । ठेखनः; ग्रन्थों के प्रकाशन आदि मं कावर आती है । प्रवास मेँ वरसात वा ठंडे मौसम के कारण अस्वस्थता

शनिशूर १५

होती है। मनपर विद्वत्ता वा उदात्त विचारों का संस्कार नहीं होता। दुखी विष्वारों से परेशान होते ह । आप्तमिन्नों से इनका बहुत नुकसान होता है । उयोतिष आदि गूढ शास्र मे खचि दोती है । इस शनि का मङ्गल से अश्चुभयोग विश्वासघात, वष्वना, ठगों के कामम कुराख्ताका कारणदहोतादहै। बुघसे सञ्चभयोग होतो चोरी की प्रवृत्ति निर्माण करतादहै। ्यक्रसे शुभयोग र्हैसी मजाक की प्रदृत्ति बनाता है। बन्धु वा र्दितेदायों से अच्छे सम्बन्ध नहीं रहते । उनसे मनमुटाव होता ई, भौर उनके कामो से नुकसान ही होता है ।

विचार ओर अनुभव-शनि पापग्रह है। मारक स्थान के अर्थात्‌ द्वितीय तथा सप्तम स्थानकेन केवल खामी दही मारक होते है अपितु इनसे सम्बन्ध रखनेवाठे ३, ६-११ के स्वामी यदि पापग्रहदहांतोवे भी अपनी दशा- अन्तर्दशा मे मारक प्रभाव दिखाते दहै। इस तरह त्रतीयस्थान भी अञ्चभ गिनाजा सकता है-पापग्रद्रोके ङ्श इस तरह तृतीय स्थान भच्छा माना गया है । इसलिए व्रतीयस्थ शनि के फर प्रायः श्चुभम बतलाएः गण रै । किन्तु समी भ्रन्थकारों ने मात्रनाश’ यदह महान्‌ अश्च॒म फल दिया है। छोटे भाई की मृत्यु पर विदोष बल दिया गया है । इसका कारण निम्नलिखित शोक ईै– ठेसा प्रतीत होता दै–““अग्रेजातं रविहति; पृष्ठे जातं शनैश्चरः ।» “अग्रजं ृष्ठजं हन्ति सहजस्थो धरासुतः । अर्थ–तरृतीयस्थ रवि से बडे भाई का, शनि से छोटेभादका अौरमंगल्से दोनोंका मृ्युयोग होता है। मानसागरीमे “भवति सर्व॑सहोदरनाशकः ।” एेखा पाट है–यर्थात्‌ तृतीयभावस्थ शनि बडे-खछोटे-दोनों भाईयों के लिट मारक होता है । गगंजी के अनुसार तृतीयस्थ

` शनि भाई-बहिनों का भौर सन्तति का नाशक है –“भातृगो मन्दगः कुत्‌

आवृस्वसविनाशनम्‌ । “गभविनाशनं च ¦” एेसा मूलपाठ है । इस तरह शानि के श्ुभ-अश्चभ-मिभितफरू होते ह । वृतीयस्थ शनि के श्चुभफर मेष, लिहः धनु-ककं, वृश्चिक तथा मीन मे अनुभवं मे गाते ईै। ओर. अश्चभफल इष, कन्या, वुला-मकर तथा कुम्म राशियों के है ।

पुरुषराशि का दानि भादइयों के लिए अञ्युम है-रेसा अनुभव है । बडे ओर एक छोटे भाई की म्र्यु होती है | बहिन विधवा होती है, अथवा इनका गृहस्थ जीवन कंयकमय होने से ये भाई के साथ रहनेमे बाध्यहोतीहै।

सतरीराशि का तृतीयस्य रानि भ्रातृनाशक नहींदहोता है अपितु मायो मे परस्पर वैमनस्य का कारण होता है । पाश्चात्य दैवज्ञ वरतीयस्थ शनि का फ - भाहयो, नन्धुभों भौर रिस्तेदायो मे मन मुटाव मानते है–इसे मृत्यु कारक नहीं मानते। इस दानि से भायों मे ईैयवारा होता है। एकत्र रहना नदीं होता, एकत्र रहै तो भाग्योदय मे खकावटं मती ई । आधिक स्थिति शोचनीय दो जातौ है।

७१६ चमरकार चिन्तामणि का तुटनात्मक स्वाध्याय

स्री रािमं सन्ततिदेरसे होती दै-पुरुप्रराशिमें सन्तति रीघ होती है, गर्भपात वा एकाध सन्तति कीमूल्युमी होती है। कन्या ओर तुला का वरृतीयस्थ डानि होतो विवाह के वाद आधिक कष्ट, व्यापारमें दानि होतो दै-उन्योग, उत्साद.कायंनिपुणता आदि सव निरर्थक होते है इस तरह के फल कन्या की अपेश्चा वुखा में अधिक तथा अनुभव में यतेर्ै। कक॑ंराशिका अनुभवीनेष्टद्ी होता दहे। यदह शनि माता का निधन प्रथम, तदनन्तर पिता का मृ्यु करातादहे। मकर, वाकुम्भका शनि टास्द्रिययोगकारक होता है | वरतीय दानि ययुपक्ष मं बुरा नदी-जातक शान्त, विचार शील्-साघक-वाधक युक्तयो से विचार करता है । जातक कीपूर्वमायु अच्छी नदीं दोती-अस्थिरता रहता दै । कक, वृश्चिक तथा मीन मे बहुतवेर प्रवास जाना पड़ता दहै । इन रारियोंमें जातक खोभी, निदयी तथा दुष्टस्वभाव का होता ईै-अपने परिश्रम से अधिकार पाता है पुरषसरि का शनि हो तो प्रायः चिश्चा नगण्यसी, किन्तु स्रीरादि मं शिक्षा यच्छी होती है- आत्मविश्वास भी बहुत रहतादहे। चतुथभावस्थ रानि के फट– “चतुर्थं दानो पेतृकं याति दूरं धनं मंदिरं वंघुवगोपवादः। पितुश्ापि मातुश्च संतापकारी गृहे वाहने हानयो बातरोगी।८॥ अन्वय :–रनो चथ पेतृकं धनं मन्दिर (च) दूरं याति | ( तस्य) चन्धुवर्गापवादः, णे वाहने च दानयः ( मवन्ति ) सः पितु. मातुः च अपि सन्तापकारी ( भवति ) वातरोगी च ( जायते ) ॥ ४॥ सं< दी– चतुथं शनौ वैत्रकं पिव्रखम्बन्धि धनं मन्दिरं गृहं दूरं याति नास्य स्वग्रहं हस्तगतं स्यात्‌ । बन्धुवर्गापवादः बन्धुनिन्दा, गदे वाहने ष ` हानयः नाशः ग्रहहानिः वाहनहानिश्च। पितः मावुश्चापि सन्तापकारी, वातरोगी स्यात्‌ इति रोषः ॥ ४ ॥ अथं- जिस जातककेल्से चतर्थमावमें रानिदहोतो उसे पिताका धन, पिता का धर प्राप्त नहीं होता है। इसे माद-बन्धुओंसे, विरादरीसे व्यथं का कटक लख्गता है । इसके घर मे-तथा घोडा आदि वाहनों मं हानियोँ होती है । यह अपने माता-पिता के टिएः सन्तापका कारणदहोतादहे। इसे यातजन्य रोग होते ह । तुखना-“यदा मातः स्थानं गतवतिदिवानाथतनये ; धनं यस्प्राचीनं ग्हमपि विदूरं त्रजतितत्‌। निजानां बन्धूनां सततमपवाद्‌ पञ्चमय स्वपित्रोः सन्तापः प्रभवति च वातातिरधिका | जीवनाय अ्थ- जिसके चतथ॑भाव मे शनि हो वह जातक उत्तराधिकारी के नाते मिल्नेवाटी पेत्रकसम्पत्ति से वञ्चित रहना पड़ता ई, नाहीं पित्रस॑चित धन

२७ शनिफलः ७१७

मिलता रै। ओर नाही स्थावर सम्पत्ति मे सुख्य घर ही मिर्ता है । अथात्‌ चतर्थभाव के निके प्रभाव म उत्पन्न जातक चल-अचल दोनों प्रकार कौ सम्पत्ति से वञ्चित रहता दै । उसके आप्तलोग भाईबंद उखकी निन्दा करते दं ञओरर्व्थंका कलङ्क लगाते रहते ह ओर यदह मिथ्यापवाद्‌ जातक के लि सस्य मानसिक पीडा का कारण होता है। इसे पश्चभय होता है| वहं माता पिता को सन्तापदेता रहता है । भौर इसे वातजन्य पीड़ा सदेव होती रहती दे । ‹“शनिः सुखवजितांगः (° वशिष्ठ अर्थ चतुर्थभाव मे शनि केदोनेसे जातक के रारीर मेँ सुखं नदीं होता । “सुखे सौख्यं शत्तुभिश्च समागम्‌ ॥* षराक्नर अथ–चतुर्थमावगत रानि से शत्रुओं से सम्पक होकर सुख मिल्ता दै । ““विसुखः पीडितमानसश्चतुथे 12 आचायं षराहुमिहिर अथे- चतुर्थमावस्थ दानि से जातक दुःखी आर चिन्तातुर होता है | ““भ्यासनोऽगहोनिव्यं विकलो दुःख पीडितः स्थान भ्रंशमवाग्नोति सौरे बन्धुगते नरः ॥” गर्भः अर्थ- चतर्थभाव गत शनि के होने तरैठने के लिए अच्छा आखन भौर रहने के लिए अच्छा घर नहीं मिल्ता है । हमेशा अस्वस्थ भौर दुःखी रहता है | इसे अपने स्थान पे हना पडता ह । ८पित्तानिलक्ष्मीणवलं कुशीटमाटस्य युक्तं कलिदुर्बलांगम्‌ । माटिन्यभाजंमनुजं विदध्यात्‌ रसातरस्थो नलिनीशजन्मा ॥ महेश

अथे– जिस जातक के वतुथ॑भावमे रानि स्थित होता है वह पित्त अओौर वायु दोष से निवल होता है उसका आचार अच्छा न होता ई-वह आल्खी होताहै। लडाई क्षगड़े से उखका शरीर दुर्वर होता है–यह मलिन रहता है | “मुत फक्िरो वेदोशः परितक्तो मानसो जोहलः | ॥ माद्रखाने यदि स्यात्‌ कमजोरशच छागरो भवति ॥ खानखातरा अथ–यदि वहुथभाव मंशनिहो तो जातक विता से युक्त, वेहोश मानसिक व्यथावाला, निव आौर दुवंङ शरीर होता है ॥ दुःखी स्याद्‌ खृह-यान मातव्रियुतो बास्ये सरूग्‌ वंघुमे |> म ्रे्वर अथे–यदि जन्भ कुंडली मे शनि चौथे घरमे होतो सनुष्य गृहदहीन, मानहीन ओर माव्रहीन होता है। एेसा व्यक्ते वपन में रोगीभी रहता हे । चतुर्थस्थान सुख स्थान है । यहां शनिं भैठकर सुख कौ नष्ट करता है । इसिए एेसा मनुष्य सदेव दुःखी रहता रै ॥ ““सुखे मंदे सुवेहीनो हृतार्थो बांधवैर्नरः | गुणस्वभावो दुःरुगेः ऊुजनेश्वाधृच्ः शठः ॥ काष्लीनाव

७१८ चमत्कछारचिन्तामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

अथे- यदि शनि चवुर्थभावमें हो तो मनुष्य सुखरदहित होता हे। उसका धन उसके माई चोर करे जाते है । यह गुणी स्वभाव वाला; दुष्टों की संगति में रहने वाखा ओर दुर्जनो से धिरा हुभा रहता है ॥ “वित्तानिलक्षीणवटं कुणील्माटस्ययुक्तं कलिट्व्रलांगम्‌ | मालिन्यभाजं मनुजे विदध्याद्‌ रसातटस्थो निनी्यजन्मा ॥› दुण्डिराज अर्थ–चतुर्थभावस्थ शनि हो तो मनुष्य पित्त ओौर बात के प्रकोपसे निर्बल, ऊुत्तित–स्वभाववाला, लखी, ज्गडाद्‌ अतएव निवल शरीर वाला तथा मलिन होता है॥ “पीडित हृदयो हिबुके निर्वाधववाहनाथेमतिसौख्यः । वास्ये व्याधित देहो नख रोम धरो भवेत्‌ सोरे” | कल्याणवर्षा अथे- चतुर्थस्य शनि होतो जातक हृदयरोग से दुःखित रहता दहै। यह वांधव, वाहन, धन, बुद्धि ओौर खखसे हीन होतादे। यह वचपन मं रोगी रहता है । इसके नःखून यौर रोम बडे-बडे होते द ॥ ध्वंघुस्ितो भानुसुतो नराणां कयेति वेघोः निधनं च रोगी । छ्रीपुत्रभृत्येन विनाक्ृतश्च ग्रामांतरे चासुखदः स वक्रौ” || मानसनगर अर्थ- चतर्थभाव का शनि यदि मार्ग होतो वघ नाश्चक होतार यौर जातक रोगी होता है) यदिव््रीहो तो सख्री-पुत्र ओर नौकर कामी नाश्च कारक होता| जातकः अपना गांव छोडकर दूसरे गांवमें जाता हे वहां पर भी वह दुभ्खीदहीरहतादे॥ “वहु वित्त वात सहितो विवलोऽलसकादयं दुःखसहितः सुखगे ? ॥ जयदेव अथे चतुर्थं शनि हो तो जातक व्हुत धनी ओर वातप्रधान प्रङ्ृति होता दै । यह निर्व, ङश तथा दुखी होता दहै ॥ ‘‘ञाचारहीनः कपरी च मात्र द्ेशान्वितो भानुसुत सुखस्थे ।।’> वेनः अर्भ चतुथख शनि होने से जातक दुराचारी यौर कपटी होता है। माता का कष्ट होता है इसे सुख नदीं मिलता है। “चतुथे दानौ वरुवरेश्ववैरं धनं नैव क्तं पितुवाहनाय्म्‌ । न गेहे तदीये तथा वायुरोमी न सौख्यं च पित्रोः स्वयं तप्यतेऽखो> | जानेश्वर अथं-चतुथंभावस् रानि के होने से जातक का अपने भाई-वटों द विरादरी के ठो्गा से वैर रहता है। उत्तराधिकार मं मिलनवाली संपत्ति पिता के वाहन आदि पिता का धर नदीं मिलते है । अथौत्‌ जातक पेतृक सम्पि से वंचित रहता रै । इसे वातडन्य रोग होते है यदह माता-पिता को संतत करता है, ओर स्वये भी संतप्त रहता है । भृगुस्‌ त्र-मातृहानिः। द्िमातृवान्‌ । सौख्यहीनः । निधनः। उच्च स्ववक्षेत्रेनदोषः । अश्वांदोल्नादयवयोद्ी । लग्नेदो मंदे माव्रदीर्घाबुः सौख्यवान्‌ प्रेश्चयुकते मात्र, सुखदानिः ।

क्षनिफख । हृष

अथं–चदथंभाव मे शनिके होने से जातक कीमाता की. मू्यु.होती है भौर विमाता ( सौतेटी मां) दोती है जातक सुखदीन ओर धनहीन होता है। शनि यदि उच वा स्क्षे्रमे होतो ऊपर ठ्खि दोष नहीं होते। घोडे वा पालकी की खवारी मिल्ती दै । यह शनि ठन्नेश हो तो माता दीर्घायु होती दै भौर जातक सुखी होता है । यदि शनि के साथ अष्टमेशभीदहोतो माता कौ मृत्यु होती है भौर जातक कोक्ष्ट होता है ॥

पाश्चात्यमत–यह शनि मकर, कुभवा वला में श्चम संवघमेषोतो पू्ार्जित इस्टेट अच्छी मिरती है । जमीन, षरार, खेती, खानों के व्यवहार में खभ होता हे । उत्तर वय मे अच्छा फायदा होता है। ये लोमी होते है। त्यु समय तक अधिक से अधिक धन प्रा करना चाहते ई । ~

यह शनि निवंख तथा पिड़तिहोतो मातावा पिताका मव्युयोग जब्दी होता है । गदसौख्य नहीं मिलता । जमीन, खेती, इरटेट, का नुकसान होता हे । जीवन के आखरी दिन बहुत अश्चम होते है । चतुर्थ मे यनि यभो, वा न हो उत्तर भयु में एकांतप्रिय भौर संन्याखी इत्ति होती है । यह कभी-कभी अपनी उन्नति के प्रतिकूर भी होती है । दैववशात्‌ किसी एक हौ स्यान में अटकना पड़ता ईै । |

विचार ओर अनुभव- जितने फल प्राचीनशाल ने वृतराए है वे प्रायः अञ्चमदी ह । एकाथ श्चुभफर भी इष्टिगोचर होता है एेसा प्रतीत होता हे कि पूजजन्म मे सू ही सुलोपमोग किया होगा आर यह जन्म केवल दुःख भागने के लिप ही हे । अश्चमफल का अनुभव सुख्यतः ्ीराशियों मे होता है मौर शुभफलो का अनुभव पुरुषराशिो मे होता ई ।. यह बात बहुत ही स्पष्ट हे कि वपन मे मी भौर बुढापे में भी कष्ट अवदय होता है । यह कहना .. भी अनुपयुक्त न होगा कि शनि अतिशय दुःखदाता होता हा मनुष्य को ््ुमुल मं जाने के रिट सुखनित करता.है, भिवत मनुष्य मृत्युका स्वागत करता दै ताकि दुःखदं प्ररिर्थिति से द्ुटकारा हो सङके |

चतुथभावस्थ दानि यदि पुरुषराशि में होता है तो पहिले पताकी रत्यु होती हे माव मष्यु कचित्‌ ही होती है । जिसकी मृ्यु बाद मे होती है उसके सध परिवार से ठीक नदीं रहते क्योकि उसके जीवित रहने पर भाग्यो- दय नहीं होता, समी प्रकार के कष्ट चङे रहते ह | |

पतुथंमावस्थ शनि मेष, कर्क, चिह, ठस्य; धनु, इश्चिके, मीन वा मिथुन मँ यदिदहोतो सरकारी नौकरी के लिए मच्छा होता है। मेजिस्द्रेट-सवजज आदि नौक्रियाः यच्छी रहती है । शिक्चाविमाग मँ बी-एस-सी, एम-एस-सी आदि उपाधियों की प्रापि के र्षि यह-रनि यच्छा हे। चौयेभावका शनि दिभायायोग करता है । यदि इख भाव का शनि कन्या, मकर तथा कुम्भ में होतो व्यापार के क्षि मच्छादहै। यदि इन राशियों के शनिमे नौकरी की

७२० प्वमस्कछारचिन्तामणि का तुरन[स्मक स्वाध्याय

जावे तो ब्रगति नद्धं होती-प्रायः बहत देरतक एकदी स्थान में पड़ारहना होता है । यैतृक सम्पत्ति भी नदीं मिल्ती-दकलौता लडका होते हूए भौ उत्तराधिकार से वंचित रहना पडता है । व्यापार मरेभी प्रारम्भ अस्थिरसा होता है कई प्रकार के भय लगे रहते है । चतुभ॑भावस्थ शनि सौतेटी मां का अस्ति सूचित करता हे। द्विभार्या योग होता है । पुरुषराशिर्यो मे साधारणतया ४८ से ५२ वषं में पत्ती का देदान्त सम्भावित होता दै) द्विमार्यायोग के कद एक अर्थं है :–१ एक का निर्याण- द्वितीया का यागमन, प्रथमा मे सन्तान के अभाव मे द्विताया का परिणय । २ एक दी समयमे जीवित दो लियांका धर म होना, ३ निर्धन माता-पिता का दो कन्यार्थोकोषएक ही वरसे विवाहसुत् से बांध देना। दुर्थभाव के शनि के परमाव में उत्पन्न हए लेग प्रायः उदारः, शान्तः गम्भीर, उदात्त, ेर्यसम्पन्न; निर्लोभी, न्यायी, व्यसनदहीन्‌–अतियि-सत्कार्‌ कत); बड़ी-बड़ी संस्थाओं के लिए सम्पत्ति अर्पण करनेवाले होते ह । अव्यन्त उदर ठोने से उत्तरावस्थामे दरिद्रिमीहो जाते द। किन्तु परोपकार से विमुख नदीं होते । चतर्थमाव का शानि यद्रि मेष, सिह, धनु, कक; दृशचिक वा मौन मेहो तो सन्तति विपुल होती ईह, मिथुन; वला; वा कुम्भ का द्रानि होतो सन्तति बहुत अद्य, अथवा सन्तति होती ह नहीं । वृष, कन्या वा मकरमें शनि हो तो सन्तति मध्यम प्रमाणम होती है । एक यौवन सम्पन्न पुत्र की मृत्यु भी इस शनि का फल होता दे । पूवीजित चल सम्पत्ति वा स्थावर सम्पत्तिका नाश्च भी इस रानि का फकडहै। कीं पर पूर्वा्जित इस्टेट के नष्ट हो जाने पर द भाग्योदय होता हे । इस स्थान के दानि से पूर्वै आयु में ३६ वें वषे तक कष्ट रहता हे, तदनन्तर ५६ वे वर्षं तक स्थिति अच्छी रदती है । चौयेभाव का शनि जातक के टि दत्तक पुत्र दहोने का योग बनाता हे। इस शनि के प्रभाव मे उत्पन्न ईए छोग किंस दूर देशान्तर मे प्रगति कर पाते ह । वृष, कन्या, मकर मेँ पश्चिम की भरः अन्यरारियों मे उत्तर की ओर के देशान्तर प्रगति के लिए अनुकूर होते ई । चतुथं शनि बहुत दूषित हो तो वष्वपन मे पिता की मृत्यु, सौतेखी माता से कष्ट, घन का संग्रह न होना, जन्मभूमि मं उन्नति का अभावः ये अश्चुभफल होते है। आयु के ८।१८।२२।२८।४०।५२ वै वषे में शारीरिक कष्ट बहुत होता है | १६।२२।२४।२७।३६ वृषं भाग्यकारक वर्षं ह | इन वर्घौ में नोकरी, विवाह, सन्तति आदि सम्मावित होते है, पद्चमभावस्थ रानि के फट– ङानो पञ्चमे च प्रजा देतु दुःखी विभूतिश्वला तस्यबुद्धिने शुद्धा । रति दैवते शब्दशाखे न तद्वत्‌ कलि्ित्रतो मन्त्रतः करोडपीड़ा ।! ५॥

क्षनिषसुक २१

अन्वयः- पश्चमे शनौ ( स्थितेसखति ) प्रजा देठ॒ दुखी ८ स्यात्‌ ) तस्य विभूतिः चला; ( तस्य ) बुद्धिः न शद्धा ( स्यात्‌ ) दैवते शब्दद्चास्रे ( च ) रतिः न ( जायते ) मित्रतः करिः ( स्यात्‌ ) मन्त्रतः करोडपीडा ( भवति ) ॥५॥ सं2 टी ०-पञ्चमे शनौ प्रजादेठदुःखी सन्ताननिपित्तङ्केशमागी; विभूतिः धनसमृद्धिः चखा अस्थिरा, बुद्धिः न श्चद्धा कुरिखा इत्यर्थः । देवते देवविषये शब्दशाखे धर्मप्रतिपादके वेदस्पृव्यादो न रतिः प्रीतिः विश्वास इति यावत्‌ | तद्त्‌ मन्त्रतः विष्वार विषयात्‌ मित्रतः मिन्नेण किः कलः, क्रोडपीड़ा ऊुश्चिविषये कराः तस्य स्यादिति रोषः ॥ ५ ॥ अथे- जिसके जन्मल्यय से पञ्चमभावमें रानि हो वह सन्तान नदहोनेसे ` नित्य दुःखी रहता दै । इसकी बिभूति-रेश्वयं अर्थात्‌ सम्पत्ति स्थिर नदीं रहती है अर्थात्‌ घरकती-बद्ती रहती है । इसकी बुद्धि शद नहीं होती है । अथात जातक निष्कपट हदय नदीं होता है। ओौर सबके साथ कुटिख्ता से व्यवहार करतारै। देवतामें तथा व्याकरणे, अर्थात्‌ घर्मप्रतिपादक बेदस्मरृति आदि मे जातक का प्रेम एवं विश्वास जैसा होना चादिएः वैसा नदीं होताहै। यरा पर शशब्दशाखरः वेद-स्मृति-तथा अन्य आर्यो के धमम॑मरन्थों का उपलक्षण मात्र दै। इस जातक की पूणं शद्धा न देवताओं मे होती है ओौर नादं अपने धमं तथा धार्मिक पुस्तकों पर होती है । इसका मित्र से वैर होता है। भौर अपनी नासमस्षी से इसके कल्ेजे मेँ पीडा होती है । से मन्त्विषय मे सिद्धि कम प्रप्त होती है| चकि जातक शद्धा भौर निष्ठा से अर्थात्‌ पू्णविश्वास से मन्त्र ज्ञाप आदि नदीं करता है तदनुसार इसे सिद्धि भीक्मद्ीदहोतीरै॥५॥ तुरना—“यदा मन्देऽपत्यं गतवति कथं पु्रजनितः सुखं श्रुद्धाबुद्धिः कथमपि विभूतिश्च परमा । कठिर्भित्रैः किं नो मवति जटरे किं नहिरुजः सपर्या देवानां कथमपि च वर्यां जनिमताम्‌ ॥ जीवनाथ अ्थ–जिस मनुष्य के जन्मसमय मे शनि पञ्चममाव मेँ हो तो उसे पूत्रजन्य घुख कैसे हो सकता है १? अर्थात्‌ उसे पुत्र नदीं होता है ।. निर्मल बुद्धि तथा अत्यधिक सम्प्रति भी क्योँकर दहो सक्ती है। मित्रके साथ क्या कलह नहीं होता १ पेय्में रोग क्या नदीं होता है १ अपितु पञ्चमभावस्थ दानिके होने से सभी प्रकारके अश्चुभफल होतेहीर्है। क्याइस जातक से देवताभोंकी उत्तम पूजा हो सकती रै १ अर्थात्‌ नदी हो सकती है क्योकि यह जातक नास्तिक होता हे ॥ - °’बदअक्को मुत्फकिरः सुतसुखरहितश्च काहिखो मनुजः । जोर्हः पंजुमसवाने कोतदह देदश्च जाहिलो भवति ॥ ख।नखाना अथे– यटि पञ्चमभाव मे शनि हो तो बह मनुष्य निबद्ध, चिन्तायुक्त, पु्रसुखरहित, आरूखी, छोय शरीर भोर मूखं होता है ॥

७२२ चवमरकारचिन्तामणि का तुरखुनारमक स्वाध्याय

'’सदागद्‌ क्षीणतरं शरीरं धनेन दीनत्वमनं गहानिम्‌ । प्रसूतिकाठे नलिनीशपुत्रः पुच्रस्थितः पुत्रभयं करोतिः? ॥ महेश अर्थ- जिसके ठन से पंचमस्थानमें शनिहो तो वह जातक सदेव रोगयुक्त होने से अतौवनिर्वल्यरीर होता है। यदह निधन होता हे। यद्‌ कामानल संतापरदहित होता है 1 यह पूर्चोँके लिए कष्टकारक होता हे, “असुतोधनवर्जितः ॥ आचायं वराहमिहिर अथे-सुतमावमें निके होने से जातक पुत्रहीन तथा धनदहीन होता है| “मत्तः चिरायुरसुखी चपट्श्च धर्मी

। जातोजितारिनिचयः सुतगेऽफःपुत्रे ॥ वैद्यनाथ अथे–रानि प्रचममावमें हो तो जातक मत्त; चिरायु, सुखरदित, चपल, शतु समूह विजेता तथा धर्मात्मा होता है । “धगत काम कांति सुतवित्तसुखः सगदो यदा रविसुतः सुतदे? । जयदेव अ्थ- यदि शानि सुतभाव मे, अर्थात्‌ पचमस्थानमें होतो जातक को कामचेष्टा थ)डी पुत्र-घन तथा रेशर्यं मी थोड़ा होता है-जातक रोगी रहता ई । ““दानेश्वरे पंचम शतरुगेहे पुत्राथेदीनो भवतीह दुःखी । „ ठंगे निजे मित्रग्हे च पंगौ पुत्रेकभागी भवतीति कश्चित्‌” ॥ मानसागर अथ–पंचममभाव में शनि यदि शत्रुगरहमें होतो जातक पुत्र ओौरधनसे

हीन दुःखी होता दै । यदि इस भाव का शनि अपने उच; स्वगृह तथा मित्य मेदहोतोषएक पुत्र वाला होता रहै । “सुख-सुत-मित्र-विहीनं मतिरदितमचेतसं त्रिकोणस्थः | सोन्मादं रवितनयः करोति पुरुषं सदा दीनम्‌” ॥ कल्याणवर्मा अथे-पंचमभावमें शनिदहोतो जातक को पुत्र-मित्र-तथा सुख नदीं होता हे | यह बुद्धिहीन तथा ह्ृदयदहीन दोता ै-दइसे उन्मादरोग होता दै ओौर यह सदैव दर््रि होता है॥ श्रातो ज्ञान-सुताथह षरहितो धीस्थे शटोदुर्मतिः” । मन्तरेश्वर अथं–यदिपचममें शनिदहोतो जातक शट ८ शैतान ) भौर दुष्टबुद्धि- वाल होता हे । ज्ञान-पुत्र-धन-तथा हर्ष, इन चारों मे रदित होता है, अर्थात्‌ यह शनि इन चीजों के सुख मेँ कमी करता है । एेसा जातक भ्रमण करता है अथग इसकी बुद्धि भ्रांत रहती है। “पपुत्रे मदे पुत्रहीनः क्रियाकीर्तिविवर्जितः। „ दीनकोशो ` विरूपश्चमानवोभवति रुवम्‌”? ॥ काशिनाथ अथे-यदि पेचममावमें शनिदहो तो जातक को पुत्रसुख, कीर्तिसुख, धनयुख, नहीं होता है । यह निकम्भा तथा कुरूप होता रै । “सदा ` गदक्षीणतरं शरीरं धनेनहीनत्वमनं गहानिम्‌ | प्रसूतिकाठे नलिनीशपुत्रः पुत्रस्थितः पुत्रभयं करोति” ॥ दण्डिरान

श निफट ७२३

अथे– जिसके पंचमभाव मेँ शनि दो वह जातक सदा रोगों से दुर्ब्॑देद- ` वाखा, निर्धन, बीयैरहित, भौर पुत्र सुख से रदित होता है । ^्पुत्रभयम्‌?’ का दूरा अथं पुत्रों को कष्टकारक दोता है” पिरे छिखा । इसका तीसरा अथंभी दहो सकता है निर्युण तथा व्यसनयुक्त पुत्ोंसे जातक को भय रहता है क्योकि एेसे पुत्र पितृता मी दो सकते है । ‘भुजजंरं श्चीणतरं वपुश्च धनेनदीनत्वमनंगदीनम्‌ । प्रसृति काले नलिनीशपुत्रः पुत्रस्थितः पुत्रभयं करोति? ॥ बृदद्थवनजातकः अथं–यदि पंचमभावमें शनि होतो जातक शरीर से दुर्बर ञ्ैर जजर होता है इसके पास धन नदीं होता रै। इसे कामेच्छा कम होती है। अनं गहीनम्‌ः । का अथं “”कामेच्छारहित” । ` सुसंगत नद्यं माना जा सकता है क्योंकि विना कामक्रीडाके स्री-गर्भिणी नहीं दहो सक्ती है गर्भस्थिति के अभाव में पुत्रजन्म कर्योकर दहो सकता है ओौर पुत्रों के यमाव मे पुत्रभय क्यो कर सेभव दो सकता है । “अनंगदहीन’ का शब्दार्थं “अतीव कामातुर नदीं होता है” ेसा प्रासंगिक होगा । | “पंचमे पुत्रलभंच बुद्धिमुचम सिद्धिकृत्‌” ॥ पराक्ञर अ्थे–जिसके प्वममाव मे शनि हो बह जातक बुद्धिमान्‌ , उद्योगी ` तथा पुत्रं से युक्त होता है। ‹धशानिस्तनुजगोऽपजम्‌ः व शिष्ठ अ्थ–पंचमस्थ शनि से पुत्र नदीं होते । ““सुतभवनगतोऽरिमेदिरस्थः सकट्षुतान्‌ विनिहंति मेदगामी । ससुदितकिरणः स्वतुगमस्थः कथमपि जनयेत्‌ सुतौश्मेकपुत्रम्‌”” ॥ गर्भ “शवटशनिः सुतगः सुतपंचकी मृगशनिश्वसुता्नयदस्तथा” । ‘ुद्धि कुटिला मंदः ॥ | गर्गः अ्थं–यदि पचमभाव का शनि धशतुण्हमें होतोसप्र पुत्रका नाश होता दै। यदि इसभाव का शनि तेजस्वी उच में वा स्वराशिमेद्ोतो किसी प्रकार एक अच्छा पुत्र होता है। बुद्धि कुटिल होती है । शनि यदि कुंभराशि मदहोतो पांच पुत्र होते ओर यह रानि मकरमें होतो तीन कन्या होती है। प शानिः प॑चमे संततिः दुःखिता स्यात्‌ तथा मंत्र दुःखी नीनां विरोधी । भवेद्‌ बुद्धिदीनस्तथा धमरोधी सदामित्रतः क्ेशकारी नरः स्यात्‌” ॥ जागेदइवर अथे–प॑चमभावस्थशनि के जातक की संतत्गि दुखी रहती है । यह दु्मत्रणा से दुखी होता है । यह जातक धनवानां का विरोध करनेवाल्य, मूर्ख, नास्तिक तथा मिनो से सदैव कष्टपानेवाखा होता है । मिथुन, कन्या, धनु वा मीन मे प॑चमस्थशनि होतो गोद ठेने वा िएजाने का योग होता है।

७२४ वचमरकारचिन्तामणि का ठउुखनारमक्‌ स्वाध्याय

शगुसूत्र–पुत्रदीनः । अतिदसरिद्रीः दंतः; दप्तपुत्रः । स्वक्षेत्रे स्री प्रजा- सिद्धिः, गुट स््रीदयम्‌ । तच्रप्रथमाऽपुत्रा, द्वितीयापुत्रवती । बलयुते मंदे खीमि्युंक्तः |

अर्थ पंचम स्थानमे निके होने से जातक पुत्रहीन, अतीव दचिदरि दुराचारी, दत्तक पुत्र होता है । स्वग शनि होतो कन्यार्णैँ होती है । गुरु की टष्टिहोतोढो विगाह होते एकखीके पुत्र होता है-पिखी खरी अपुत्रिणी होती है । बट्यी रानि हो तो जातक चि्यो से युक्त होता ह ।

पाश्चाव्यसमत- ररवा रविसे श्चुम सम्बन्धमें हो तो यदह खनि अपने कारकत्व के व्यवहारो-जमीन, खणे, घर आदि ॐ व्यवहारो मं सफख्ता देता है । सार्वजनिक अधिकारपद्‌ से लभदहोता दै) विदोषतः रिक्षाके क्षत्र में यह योग कामप्रद ई । यह चानि पीड़ित होतो प्रेम प्रकरणं मं असफर होना, अपने से मधिक यु वाले व्यक्तिसे प्रेम दोना, ये फल दोते ह । संतति नदीं होती अथवा होकर दुलोकिक की करणीभूत होती हे । चिरयो के पेट मे चू दोना, श्तु प्रासि के बाद बहुत वर्षो से संतति होना, दो सता मे ५।७।९।११।९३ वर्षो जितना दीर्घं अन्तर रहना; प्रसूति का समय बहुत देर से होना, ये फल इनि १।२।५।७।९।११, इन स्थानो मे हो तो पाए जात ह। ५।९।११ इन स्थानों मे विरोषतः ये फल मिरूते दै । हस पीड़ित शनि से से के व्यवहारमे, लायरीमे, तथारेसमें नुक्सान होता दहै। इस व्यक्ति की मृत्यु द्य विकारसे, वा द्खबनेसे होती है। संतति अनीतिमान, व्यसनी होती है ॥

विचार ओर अनुभव-देवक्ञ की दृष्टि मेँ चारों केन्द्र स्थान बडे महत्व के है-इखी तरह कोण स्थान भी बड़े महत्व केह । यदि इनमें श्म ग्रहोंकी स्थिति होतो देवज्ञकी दृष्टि म जन्म कुंडली भारी महत्व की होती हे । कोण स्थान से ताप्यं नवम-पञ्चम-स्थान का है-श्चुभ स्थानों की गणनामें प्रथम सआनेवाला पञ्चमभाव सर्वत्र सर्वप्रकार से अग्रगण्य होता है-एेसा क्यों १ क्योकि इससे पुत्रविषयक विचारः किया जाता है-अतषएव प्रायः प्राचीन अन्थकार एवं दैवज्ञ रोग इसे “पुत्रभाव’ कहते है । संतान का संतति शब्द दोनों प्रकार की संतति की बोधक दै.संतति से पुनः तथा (कन्याः दोनो का बोध होता है। तौ भी संतति भावन कहकर पुत्रभाव ही कथन में आतादहै। इससे स्पष्ट है किं प्राचीनकालसे अच्यावधि गृहस्थाश्रम में तथा सांसारिक व्यब्रहार मे पुत्र का महत कन्या की अपेक्चा अधिकाधिकर्दै। न्यायमुक्तावटी में मनः प्रसन्नता-जन्तरात्मा मे उत्पन्न हषं का अनुमान स्गानेके लिए ध्चेच्रः पुत्रश्तेजातः, यदह उदाहरण दिया गया है । पपुत्रस्तेजातः एेसा सुनते ही चेच के मुख पर प्रसाद्‌ चिह्न दृष्टिगोचर हो गए ये-प्रसन्नता क्ण लहर वेग प्रवाहितहो उटी्थीं। एेसाक्यों होता था क्योकि पुत्रजन्मसे ही कुल

शनिषर ७२९५

परम्परा अक्षुण्ण रह सक्तौ थी, पुत्रजन्म से दी संखार म माता-पिता का नाम उज्ज्वल दो सकता था । केवल न्यायशाल्री दी नही, अपितु वैयाकरण भी पुत्रजन्म को दर्षोह्टास का महान्‌ तथा प्रधान कारण मानते थे । ध्वैयाकरणाः अधं मात्रा लधवेन पु्रोत्छवं मन्यन्ते ।” एेसी धारणा व्याकरणशाचियों में टटभृल हो गयी थी । आजकलठ भी कन्या जन्म से मात्कुक मेँ तथा पिव्रकुर्मे इतनी प्रसन्नता नहीं होती है जितनी प्रसन्नता पुत्र जन्मसे होती है। अतएव पञ्चमभाव का प्रसिद्ध नाम पपत्रभावः सर्वत्र कर्णगोष्र होता है। श्राधान्ये दि व्यपदेशा भवन्तिः यह नियम प्रसिद्ध दै दी । यदपि पञ्चममाव से गर्भ, संतान ( पुत्र-कन्या ) नम्रता, विचार, मत्रीकरण, सद्बुद्धि-ग्ंथादि निर्माण, रा! खर, बुद्धि आदि सभी विषयों का विचार क्रिया जाता दै। तथापि प्रधानता पुत्रकीदहीदहै। अतः पश्चमभाव का नाम प्पुत्रभावः ही प्रख्यात ओर प्रसिद्ध है । प्राचीन म्रंथकारोने भी अधिकतया परिचारं पुत्र प्रसूतिपर ष्टीक्रिया हे । इन ग्रंथों मे पुत्रोत्पत्ति-पुत्र सुख यदि से सम्बन्ध रखनेवाङे योग पिरोषतः टश्िगोष्वर होते रै । किन्तु इनम -अंथकायों ने एक विरोषं विषय की अवदेकना की दहै । यहां (पुत्र सुख प्राप्तिः पुत्राभाव-पुत्रमृति आरिकका वर्णन कियाद वहां पर पुत्र कैसाहो, कौनसे गुण िरोष उमे हो” आदि-भरि विषयों पर कोई प्रकाश नदीं डाला गया है । परिणाम यह है कि इस महत्वपूर्ण विंषय को समञ्चने के लिए नीतिशाल्र की शरण ठेनी पडतीर्है। क्योकि नीति ग्रन्थों में (सुपुत्र प्र्॑साः (कुपुत्र निन्दाः आदि विषयों पर भारी प्रकाद्च डाल गया है । पूर्वं जन्मङृत श्चम कमं भूयस्व का योतक तथा सुचक श्रषठपुत्र से ही सुख प्रापि की श्चा कौ जा सकती है । “पुण्ध तीं कृतेयेनतपः क्राप्यति- दुष्करम्‌ । तस्य पुत्रों भवेद्‌ व्यः समृद्धो धार्मिकः सुधीः ।” स्मृतिकारों ने दश प्रकारके पंके नामदिष्ट दहै जिनमे प्रधानता आौरस पुत्र की है-णेसा कहा है। किन्तु ज्योतिषके ग्रन्थोमें एेसा वण्न मुख्यतया कीं परमभी नदीं दिया गया है । अस्तु परश्चर भदि एक दो प्रन्थकारों को छोड़कर अन्य समी आचार्यो वा प्राचीन अ्न्थकारो ने पञ्चमभावस्थ शनि का अद्म फल ही बतलाया है| पराशर ने पपत्रलाभः भादि श्भफल भी बतला ह। पञ्चमस्थान चल्वान त्रिकोण श्म स्थान है। रानि पापम्महहै। शुभ स्थानमें शानि जैसे पापग्रह की स्थिति अश्चुभ फल्दायक दही होगी, यह प्राचीन मारयो का मत है-एेसा प्रतीत होतादहै) विन्दु ्चुम्फल्मी मिलते है| भतः पञ्चम भाव का शनि मिभित फल देता है, एेसा कथन असंगत न होगा । मुख्यतः अद्म फल वृषः, कन्या, ठा; मकर तथा कुम्भ में मिकते ह । श्वभफल अन्य गशियों म अनुभव गोचर होते है । श्म सम्बन्धं का शनि श्चभ फलदाता भौर अश्चभसम्बन्ध का शनि अश्चमफल्दाता होगा । इस तरह श्चुम-भश्चम सम्बन्ध ही निर्णायक यौर नियामक मानने होगे । मेष ओर सिह मे पञ्चमस्थ रानि

3 चमरकारचिन्तामणि का तुखनात्मक स्वाध्याय

होतोरिक्षा पूरीहोती है। श्नि कारकत्वमें वर्णित विषयों मेँ निपुणता प्राप्त होती है ।

पञ्चमस्य शनि यदि धनुराशिमें होतो शिक्षा अधूरी रह जातीदहै। इन तीनों रारियों मे स्वभाव कुक विलक्षण-सा होता है। अपने विषारों को छुपाना, तथीयत मेँ संशय, दूसरों पर भविख्वास, मुंह पर प्ररांसा-पीछे निन्दा करना, धरमें पलीके आगो-पीरे फिरना-किन्तु धर से वादिर नितान्त भूल जाना आदि-आपरि अजब स्वभाव होता है। सन्तति बहुत होतीदै, किन्त जीवित नदीं रहती । कु पुत्र बडे होकर बापसे पदिलेदी मरजातेदहे। यन्तम एकवादो पुत्र भौर कन्याएं जीवित रहते । विवाह एक दही होता है ।

कर्व, दृश्चिक वा मीन मे सन्तति बहुत ओौर बहुत कम अन्तरसे होती है। इस दानिके प्रभावके छोग ञ्चगडाटू होते है । इनका स्वभाव अच्छा, नहीं होता । रेल-वैक, ब्रीमा कंपनी, मूनिसपैलिटी-जिला परिषद्‌ आदि ये मि- कारी ददो जातेर्है-ये छोगों पर प्रभाव डाल सकते ह|

चष, कन्या-मकर मे इनका स्वभाव सादा होता है । अपने काम से कामः दूसरे के कामम हस्तक्षेप नहीं करते। मौजी-चैनी-मित्रप्रिय होते ह । सन्तति सुख अत्पवा होता दी नहीं प्ली ख्रीरोगों सेरूग्णा रहती है । अतः दूसरा वा तीसरा विवाह करने पर बाध्य होते है । इनकी शिक्षाकम होती हे।

मिथुन, वला, कुम्भ मेँ पूर्णतया शिक्षा पाकर वकील; जज आदि ह सकते है । पञ्चमस्य शनि से जन्मदाता माता-पिता का सुख नहीं होता दत्तक पुत्र चन जाने का योग॒ सम्भाषित होता दै। पूर्वर्जित सम्पत्ति प्रास दोकर नष्ट हो सकती है । मेष, सिह, धनु, क्वौ, बृश्चिक, मीन मे शनि हो तो भाग्योदय कायोग होता दै। अपने बाहुबलसे उन्नति होती दहै । इष, कन्या, मकर मं प्राप्त है पूवाजित सम्पत्ति नष्ट होती दै । तदनन्तर किसी ओर की सम्पत्ति उत्तराधिकार के तौर मिल्तीदहै। मिथुन, ठट) कुम्भमें स्वयं दी कष्ट उठाना होता है तब ही उन्नति प्राप्च होती है। प्ञ्चमस्थशनि भापत्तिरं ज्ञेल- करौ सम्रृद्धहोने देताहै। दूषितशनि के फर आवार्या ने बिदोषतः चतरा ह-सन्तति का अनाव, बृद्धावस्था मे सन्तति का होना, सन्तति की प्रगति का अभाव, सन्तति से वैमनस्य-ये अश्चम फक । कभी-कभी एक सन्तान के वाद्‌ दूसरी सन्तान ५।७।९।१२ वर्षो के अन्तरसे होतीदरहै। कमी कभी गोद्‌ छिए जाने के बाद अौरस पुत्र की उत्पत्ति भी होती है। इसका योग पुरातन ग्रन्थकारो ने निम्नलिखित बतलाया है :-

““पचमेश दानि के नवमांश में हो, ओौर ुख-शुक्र स्वण्द मेदो तो पहिले दत्तक पुत्र होकर फिर भौरस पत्र होता दै ।

हानिफक २७

षष्ठस्थान के रानि के फठट– “अरेभूपतेश्चौरतो भीतयः किं यदीनस्य पुत्रो भवेद्‌ यस्य हातरौ । न युद्धे भवेर्संमुखे तस्य योद्धा महिष्यादिकं मातुखानां विनारः ॥६॥

अन्वयः–यस्य रात्रौ यदि इनस्य पुत्रः मवेत्‌ ( तस्य ) अरेः भूपते चौरतः भीतयः किं ८ स्युः) तस्य संमुखे युद्धे योद्धा न भवेत्‌ । ( तस्य ) मिष्यादिकं ( भवेत्‌ ) माठलानां (च ,) विनाश्चः ( स्यात्‌ )

सं०° टी<–यस्य षठ रिपुभवने इनस्य सूर्यस्य पुत्रो यदि भवेत्‌ तस्य अरेः दात्रोः भूपतेः राज्ञः चौरतः सकाशात्‌ भीतयः किं अपि नेव इत्यथः । युद्धे रणे वादेः वा योद्धा प्रतिवादी सम्मुखो न भवेत्‌ ““वलात्‌ बुद्धितः कोरणे तस्य जेता? इति वा पाटः, सुगमाथः ॥ महिष्यादिकं चतुष्पात्‌ सुखं, मावुलानां च विनाशा च भवेत्‌ ॥ ६ ॥

अथे– जिस जातक के जन्म ल्मनसेचटे स्थानमेंशनि हो उसे शत्रु से, राजा से, चोर से क्या भय हो सकता है। अर्थात्‌ कदापि नहीं । षष्ठस्य डानि प्रभावान्वित जातक महावरी होता है । अतः इसके शत्रु इससे भयाक्रात रहते ई । यह कुक्मकर्ता नहीं होता है । यह म्यपायिता, परस्ती सहवास, ग्रतकारिता-चौ्यं आदि-देशद्रोह-राजद्रोद आदि दंडाहैकर्मं नहीं. करता अतः इसे राजा से कोई दंडभय नदीं होता है । यह असदहाय- दीनया लोगो को ल्टकर, धनसंग्रह नहीं करता है| अपितु न्याय्यवृत्ति से जीवन निर्वाह करता है । अतः इसे चौरभय भी नहीं होता है । यह अद्वितीय योद्धा होता है । अतः संभ्राम में इससे कोई रोह नँ ठे सकता है । यह प्रगत्भ- वक्ता तथा तर्ककुशल होता है । अतः प्रतिवादियों के किए अतीव भर्यकर होता है| इसे महिषी आदि का सुख मिलता दै मदिषी शब्द से चौपाप जानवर भैँस-गाय-घोडा हाथी आदि का प्रण कर्तव्य है । शानि की परिय दान- वस्तुओं मेँ दुधारभेँसमभी दै रनि का वाहनर्मँसा है। अतः महिषी शब्द का विशेषतः प्रयोग तथा निर्देश किया गया है। शनि के प्रभावमें आए हुए व्यापारियों को जपे लोहे का क्रयविक्रयं लमदायक होता रै; इसी प्रकार महिष-मदहिषिथं से सवन्धित व्यापार मी लाभप्रद होता है। इसके धरें दूध देने वाटे भस आदि चौपाए जानवर रहते ई” यदह अथं भी सुसंगत दै । इस जातक के मामाकी मृत्यु होती है। यह आवद्यक नहीं करिमामाकी मृत्यु दही होः वैमनस्य मी मामा से प्राक्त होनेवाे सुख का बाधक दहो सकता है । अतः (नाशः ब्द का संकुचित अर्थं ही नहीं लिया जाना चादहिए- व्यापक अथ॑भी लिया जा सकता है। मातृक्ुलसे मामा आदि से वागयुद्ध; तजन्यं स्थावी वैमनस्य तजन्य सुखाभाव–एेसा अ्-एेसा अभिप्राय हो सकता है। जातक के छिषए मातरः पक्च के रोग पूजाहं तथा सम्मानास्पद्‌ गुरुजन होते ई । एनसे वाग्युद्ध, अपश्चन्द प्रयोग गाटी देना आदि एक प्रकार की उनकी मृ्युही

७२८ चमर्कारचिन्वामणि का तुरुनात्मक्‌ स्व(ध्याय

होतौ है जिसका ्रोतन नाशः शब्द्‌ के प्रयोगसे करिया है यह अन्तर्निहित अभिप्राय है। तुखना–“अरौ मंदे वचौरादपि दपक्रुलच्छत्नुगणतः 5 कथं भीतिः पुंसां जनन समये संभवति चेत्‌ । कथं योद्धा युद्धे महति पुरतस्तिष्ठति बलान्‌ , मरिष्यादे टोभः सततममितः कीर्तिरधिकाः || जी वनाथ अथं- जिस मनुष्य के जन्मघमयमे शानि षष्ठभाव मेदो उसे चोर से, राजकुक से, ओर तुभो से भयकैमे हो सक्ता है, अर्थात्‌ उसे इन तीनों मे से किसौसे भी भय नहीद्ोता है । भयंकर युद्ध में भी उसके आगे योद्धा खोग केसे ठहर सकते दहै । अर्थात्‌ यह परम चल्वान्‌ अद्वितीय योद्धा होता दै। इसे भख, गाय-बैक आदि का खभ ओौर सर्वदा चतुर्दिंशा्ओं में फेटनेवाखी अवतुल्कीर्तिं काठामहोतारहै। जीवनाथने ध्दिगंतकीर्तिं का खभ यह विहोष फल दिया हे- परन्तु छठेभाव का शनि मातृपक्च मे केसा रहेगाः इस विषय में कुक नहीं कहा दहै । नारायणभट् ने भामा का नाशः यह फलतो दिया है किन्तु (जातक यरास्वी होगावा नही इस विषय में मौन धारण किया है ॥ शेषफलोमें दोनो में समानता है । ““्दानीश्चवरं जलीलं जनयति मनुजं मुकरमं दृपतिम्‌ । निर्जितवेरिसमृहं दुदमनखाने स्थितो जोद्लः” ॥ खानखाना अथ–यदि षष्टमाव मे शनि होतो मनुष्य दानि म श्र, शत्रु को जीतनेवाा; राजां जेसा समृद्ध किन्तु किसी दुःख से पीडित होताहै॥ “धविनिजिता रातिगणो गुणज्ञः सुज्ञाभ्यनुज्ञा परिपाख्कः स्यात्‌ । पुष्टांगयष्टिः प्रबलोद रागनर्नसेर्कपुत्रे खति रशत्तुसंस्थेः । महेश अथे- जिस मनुष्य के जन्मसमय में शनि चछ्टेभाव मँ दो वह संपूरणं दतुगण को जीतनेवाला, गुणों का परीक्षक, श्रेष्ठ कर्मो के जाननेवाला, मनेकों को श्रय देनेवाला होता है । इसकी जटराग्नि प्रचल दोती हे ओर यह बहुत खानेवाला होता दै । इसका शरीर पुष्ट तथा बलवान्‌ होता हे । । “वलवान्‌ रातु जितश्च शतरुजातेः? ॥ आचायं वराहमिहिर अथं–यदि छटेभावमे शनिदहो तो मनुष्य बलवान्‌ दोकर शत्रुओं को जीतत। है ॥ ॥ ““पगुनरं रिपुख्देष्वति पूजनीयम्‌” ।। बज्ञिष्ठ अथ-यदि शनि रात्रुभावमेंदहो तो मनुभ्य शत्रुओंसे भी सम्मानित होता है। ॥ “ष्ष्ठे धनं जयं कुर्यात्‌? ।। षरक्ञर अथं–यदि शनि छट भाव में होतो जातक धनी ओौर विजेता होता है। “विनिञजिता रातिगगो गुण; स्वज्ञाति जानां परिपाढकश्च | पुषटटग यष्टिः प्रवोदराग्निः नरोऽकं पुत्रे सति शतरुसंस्थेः’ ॥ वृहद्यवनजातक

हानि ४२९ `

अथं–यदि जन्मकुंडली मे छ्ठेभाव मे शनि हो तो जातक शतनरुखमूह को जीतने वाखा, गुणों की कद्र करनेवाखा, अपने बंु-वांधर्वों का पाङ्क होता है । इसका देह पुष्ट तथा शक्तिशाली आओौर इसकी भूख बहुत तीव्र होती है जिससे यह बहत खानेवाखा भोजनमभड होता ““छायाञुतो भवेच्चैव शत्तु माठ नाश इत्‌? ॥ अ्थ- यदह जातक रातु ौर मामा का नाश करता ईै॥ ^“बब्हा शी द्रविणान्वितो रिवहतः धृष्टथ मानी रिपो ॥ सत्र वर थ- जिस जातक के जन्मकुण्डली मे शनि.ख्टेभावमे होतो जातक बहुत भोजनखानेवाल्ा भोजनम होता है। यह धनी, रिपुनाशक दीट. तथा अभिमानी होता है “धशात्ुस्थाने स्थिते मन्दे शनुहीनोमहाघनः पञ्चु-पुत्र यशोयुक्तो नीरोगी जायते नरः ॥ फाश्ीनाथ अथ–जिसके छठेभाव में शनि हो वह शनुरदित, धनाब्य ओर नीरोग होता है। इसे पञ्ुषुख, पुत्र सुख प्राप्त होता दै-इसका यशा चारों ओर केल्ता है । ‹०विनिजितारातिगणो गुणक्ञः यु्ञाभ्यनुज्ञा परिपालकः स्यात्‌ । पुष्टांगयष्टिः प्रबलोदरा्िः नरोऽकपुत्रे सतिशत्तुसंस्थे ॥ दण्डिराज अथं–जिसके षष्ठभाव मँ शनि हो वह रात्रुओं को जीतनेवाला, रुणो की कद्र करनेवाल्य पण्डितो की ाक्ञा का पालन करनेवाला; पुष्टशरीर अौर प्रवर जटराग्निवाला होता है ““बह्वारानो विषमशीरू सपन्लमीतः कामी धनी रविसुते सति शन्रुजाते ।* वंद्नाथ अर्थ-जिख जातक के छ्टेभावमे शनिदहोतो वह विष भोजन करने- वाला, विषमशील;, शत्तुभयभीत, कामी तथा धनवान्‌ होता है । “धविनलारि बोँघव कुदंबयुतः सगणो बलीरिपुगतेऽकंसुते” ॥ जयदेव अथे- षष्ठ शनि हो तो जातक निगेखरान्नुवाला, बन्धु-नान्धवों से युक्त,

बहुत ड नौकर-चाकर-प्ृष्टपोषक तथा अनुयायि्थों से युक्त ओौर स्वयं बलवान्‌ होता

““नीचेरिपोभं च कुटश्चयं च षष्ठे निगच्छति मानवानाम्‌ । अन्यत्र शचन्‌ विनिहन्ति वङ्गी पूणाथ कामान्‌ जनतां ददाति । भानक्षागर अर्थ–यदि षष्ठमाव मे शनि नीच वा शततुराशिमेहोतो कुर का नाशकः होता है। यदि अन्यराशिमेंदहदो तो शत्रु को जीतनेवाला, यदि उच्च वा स्वग मंद्ोतो अर्थं मौर कामको पुरे तौरपरदेतादै। ^प्रजलमदनं सुदेहं शरं बहारिन विरामशीटम्‌ | बहुरिपुपक्चक्षपितं रिपुभवनगतोऽकजः कुरते ॥ ` कल्याणवर्मा अथे-षष्ठभाव का रानि हो तो जातक कामुक, सुन्द्र, शर, बहत खाने- वाखा, कुरिख्चित्त तथा बहुत शात्रुभों को जीतनेवाडा होता है । |

७६० चमस्कारचिन्तामणि कां तुखनारमक्‌ स्वाध्याच

“4विद्धेषिपश्चपक्षपितः यूरो विषमचेष्टितः | बह्वाशी बहुकाव्यश्चारिदाहोरिपुगे शनौ ॥ षष्टे नीचगतः सौरिजंनयेन्‌ नीचवैरिणाम्‌ । अन्यथा वैरिणं हन्तिनिरवैरं स्वगे गतः | गर्भ अथे–यदि शनि रिपुभावमें हो तो जातक शत्रुओं का नाशक तथ उन रातुर्ओके पृष्टपोषर्कोका भी नाशक. होता है। यह गुर भौर विप भोजन करनेवाला होता है । यह कई एक काव्यो का रचयिताभी होता है। इसके प्रतापसे इसके शत्रु जक भरते है । यदि पष्टमाव का शनि नीचराशिमेंहोतो शत्रु मी नीच होते है यदि स्वण्ह मं दानि होतो जातक शतु रहित होता दै। अन्य राशियों मे शनि दहो तोरात्रुकानाशदहोता है। “शनौ शतुगे शत्रवः संञ्वठेति प्रतापानङे राजगेदेदिचारान्‌ | वलेबुद्धियोगेः भवेत्‌कस्तदग्रे परं वा प्रमेदी स रोगीनितम्बे”? ॥ जागेश्वर अथं–यदि त्रुभावमे शनिहोतो जातक की प्रतापरूपी असि में इसके नु तथा जनु के गुप्तचर नष्ट होते है । वल्वान्‌ तथा बुद्धिमान होने से इसके आगे अर्थात्‌ सम्मुख कोई उद्र नदीं सकता है । इसे प्रमेह तथा गुप्रेग हःते ह । “पुष्टिदंहे वीयमारेग्यता च भाग्ये भोगं मूप्रणं वाहनं वु | विद्यां वित्तं सोख्यव्ं तनोति श्रोत त्गोऽशनु पुत्रः ॥ “‘्रसादो भूमिपाल्तः स्त्रीपुत्रजनितं सौख्यं जन्मे षष्ठगते रानौः । हरि गं अथंः–यदि जातक के छ्ठेभावमें शनिद्यो तो इसका शरीर पुष्ट-नीयोग, तथा वीय॑शाली होता है । जातक भाग्यवान, मोगों, भूषणो तथा वाहनों से सम्पन्न, खरिष्चित, धनी, सुखी तथा रानुओं का नाश करनेवाला होता है। इस पर राजा कौ कृपा रहती है । तथा ख्री-पुतरों से युख मिलता है । शगुसूत्र–अस्पन्ञातिः शनुश्चयः, धनधान्य समृद्धिः, कुजयुते दे शांतरचाय । भस्पराजयोगः भग योगात्‌ कचित्‌ सौख्यम्‌ । क्चिदुयोग मंगः । रप्र मन्दे अरिष्टम्‌ । वातरोगी, शुख्बणदेही । अथै–यदि दानि षष्ठभावमें हो तो जातक के साथ सम्बनिधत लोग जातवरादर सत्पसंख्या मे होते है । इसके शनं का नाश होता है । धन- धान्य कौ समृद्धि होती ह । यदि शनि के साथमंगल्भीदहोतो जातक विदेशों मै घूमता फिरता है । यह अल्पमात्रा म राजपोग होता है। राजयोग का भंग होने से सुख कम विरूता है । कमी उद्योग करने पर मी सफर्ता नहीं मिलती । शनि अष्मेश होतो अरिष्ट होता है। जातक वातजन्य सेमोंसे पीड़ित होता है । इसे यर ओर वण से कष्ट होता है | पाश्चास्यमत–इस खान मेँ अश्म संबंधे निर्बल रानि बहुत म्यम फल देता ह । इससे दीर्घंकार चलनेवाले गन्दे रोगों से शरीर त्रस्त होता है ।

लनिषङ ४२१

प्रकृति सदा रोगी ओौर अशक्त रहती है । अन्न वख की कमी से अस्वस्थता रहती है । यह स्थिरराशि का शनि हृटयविकार, घटसपं, कण्ठविकारः मूत्र कच्छ, लसी, खवासनलिका का दाह आदि रोग उत्पन्न करता है । द्विखमाब राशियों मे कफेषफडों के विकार, दमा, आमाशय भौर पैरों के विकार होते दै। चरराशि्यों मे पेट, छाती, सन्धिवात आदिक रोग होते ह। तला राशिमं पित्ताशाय, यक्त के विकार, कन्या में दौषकारू के रोगों से अपंगता होती है । घष्ठमे शनि से आहार के बारे मे खचि बहुत तीतर होती है । इन्द नौकर अच्छे नहीं मिस्ते है, नौकरो से नुकसान होता है। इन्द नोकरी अच्छी नदीं मिलती-मिञे तौ मी उससे विशेष लाभ नदीं होता ह । |

घष्ठमाव में बल्वान्‌ , श्चभ सम्बन्ध मे शनि यशसी अधिकारी के गुण देता है। नोक्रयें दारा अनुशासन कायम रखकर अच्छा काम कराने की योग्यता प्रप्त होती दहै।

विचार ओर अनुभव- ष्टमावखित शनि के फल समी प्राचीन म्रन्थ- कारोने प्रायः श्चमदहीदिएटदै। षष्ठस्थान दुष्टस्थान दै। इसमें बैठा हुभा पापग्रह शनि श्चुभफल दाता होता है । आचाय कां यह अभिप्राय प्रतीत होता रै । को$-को$ अञ्चभफल भी वतल्मता है । मेष, सिह) धनु, मिथुन, कक; बृध्िक तथा मीन मे श्चमफल का अनुभव होता है । अन्य राशियों मे अञ्चमफर मिल्ता हे ।

घषठभाव में मुख्यतः विचारणीय विषय निश्नटिखित है -‘“मादुल;, रातु महिषी आदि परञ्च, कूरक्मं ( हिसादि) रोगः, भय, व्रण | यद षष्ठमाव का कारकत्व संक्षिप्त दै। उत्तरकालमृतकार-काल्दास ने षष्ठमाव का कारकत् विस्तारसे दिया दहै । प्राचीन आचार्यौ ने फल छ्खिते हुए शनि-कारकत्व भौर घष्ठभाव कारकत्व का ध्यान रला है- शोको मे इन दोनों की ज्चख्क देखने मे आती है-किसी आचार्यने श्येगः का विरो ध्यान रखा है-आवायं ने “दारुः पर विरोषध्यरानदियाहै।

घषटस्थान का शनि पूर्वं आयुर्मे बहुत क्ट देतादहै। कामम इकावटं आती ईै-किसी भी त्फ से सहायता नदीं मिख्ती; रोगों का अपवाद, णडी चोरी का जोर ख्गाना पड़ता है-दइस तरह भारी कष्ट से प्रगति करनी पडती दै । मामा, मौसियो के ङिष्‌ षष्ठस्थान बहुत अञ्चुम है- यह बात तो निःसंदिग्ध है । मामा, मौसियों का ग्रहस्थ ठीक-टीक नहीं चलता, सन्तति या तो हती नदी थवा होकर मृब्ुमुख मे जाती है | षष्टमावख शनि प्रभावान्वित लोग भैस पारकर लाभ उडा सकते ट । बृद्धावस्था में इन्दे भारी आर्थिक कष्ट होता है-यदि नौकगीमे होतो भसामयिक अवकाश प्राप्त करना पड़ता है ओर इसका कारण शारीरिक व्यंग होता है। न्द देशान्तर में भी सुख नदीं मिलता । स्थानान्तर मे भी प्रगति नहीं होती । मीन में शनिदहोतो शतु बहुत तेह

३.२ चमर्कारचिन्तामणि का तुकुनात्मक्‌ स्वाध्याय

किन्तु स्वय ही नष्ट भी होते र । इरन्द परिस्थिति से ठ्डना होतादहै, बादमे संसार मे अग्रसर होते तथा प्रगति करते र । इन्द एकसाथ कीर्ति, सम्परत्तिवा अधिकार नहीं मिक पाते ई यदि कीर्तिं है तो सम्पत्ति नदीं है ओौर यदि सम्पत्ति हे तो अधिकार नहींदहे। मेष, सिह; तथा धनु में सन्धिवात, घुटनों मे पीड़ा विशोषतः रेव वा ण्व वर्षमे होतीदै। वष; कन्या, मकरमें हदयविकार होते दै। कक, वृश्चिक, मीन में मधुमेह; बहुमूत्रता आदि रोगहोतेर्दै। रोगोँके विषयमं पाश्चात्यमत मनन करना उचित होगा। विवाहसे पदिखी यायुमं स्वास्थ्य अच्छा नदीं होता-विवाह के अनन्तर अच्छादहो जाता हे । छ्टेभाव का खानि यदि दूषित होतो दार्थ, अस्ाफस्य, स्थेयौभाव, शत्रु भूयस्तव, मपक्ीर्ति, बुद्धि देति हुए भी लोकटष्टि मे मखं होना, दीघंकालीन कारावास आदि अश्चुभफक अनुभव मं आतेरै। परषठभाव का नि सदेव अश्चुभफल दाता ही होता है-यह कहना भी ठीक नीं होगा । इसके विरुद्ध कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर भादि कडेएक प्रसिद्ध व्यक्तियों का ध्यान करत हुए यह कहनामभी टीक होगा कि षष्ठभाव का शनि कौतिं-घन तथा अधिकार क फल भीदेतादै) कारिनाथ आदि प्रन्थकारांने “कीर्तिमान्‌ , धनवान्‌ , शत्रुहन्ता आदि-भादि श्चुभफक दिए है । सप्रमस्थान मे इनि के फट– “सुदारा न मित्रं चिरं चारु वित्तं शनौ युनगे दम्पती रोगयुक्तौ । अनुरसाहसन्तप्रत्रद्‌ दीनचेताः कुतोबीयंवान बिहृखो सोद्टपः स्यात्‌ ॥ ॥ अस्वय :- शनौ दूनगे सुदाराः, मित्रे चार वित्तं (च) चिरं न (स्यात्‌ ) दम्पती रोगयुक्त ( स्याताम्‌ ) अनुत्साह सन्तसञ्त्‌ दीन चेताः विह्वलः लदुपश्च ( स्यात्‌ ) वीयवान्‌ कुतः ( स्यात्‌ ) ॥ ७ ॥ सं: टी<-शनौ यून गे सप्तमस्ये सुदाराः शोभनस्ियः चारु मिं सुदित- कारि, चारु वित्तं न्यायवर्जितं धनं चिरं वहुकालं न, एतत्‌ सुखं न भवेत्‌ इत्यथैः । दम्पती सख्री-पुखुषौ अपि रोगयुक्तौ स्यातामितिदोषः। तथा अनुत्साह सन्तप्तक्त्‌ निरन्तरं अनुत्साह, दीनचेताः दीन॑चेतः मानसं यस्य सखः, विव्हलः मकिच्चित्करः, कोटपः अतितृ्णः कुतः वीय॑वान्‌ स्यात्‌ इति सर्वत्र सम्बन्धः ॥७॥ अथ–जिस मनुष्य के जन्मल्यसे सप्षमसानमे शनिडोतो उसे सुन्दर श्री, योग्य हितकारी शुद्ध हृदय मित्र, अधिक धन का सुख बहूत समय नदीं मिता । खी-पुद्ष ब्दा रोगी रहते है । उत्साहदहीन दोने ते मनुष्य दुःखी रहता दै । उसका मन छोटा रहता दै । उसका मन खदा घबड़ाया हुभा रहता हे । यह वहत लोभी होता दै | तत्र यह प्रभावद्ाली क्यो कर हो सकता है ॥ दैव्ञ लोग सप्तमभाव से अर्थात्‌ कल्र्ान से प्रधानतः पति-पत्ी के विषय मं विचार करते ह । पति के लिए मनोरमा सुन्दरौ खी का होना महान्‌

२८ शनिफक 9्देद

भाग्य कां लक्षण है। किन्त यदि कल्त्रमावमें शनिदहोतो रीर की प्राति का भाग्य नदीं होता। | | ध्प्रिया च भायां प्रियवादिनीच । एेखा नीतिकारो का सुभाषित है। कुरूपा कंडभाषिणी-कर्दप्रिया खरी का होना पुरुष के ङि महान्‌ दुर्भाग्य है । ेसीखीकाधरमे न होना है श्रेयस्कार दै। शस भावकोध्यान मे रखकर भध नारायण ने सर्वप्रथम सुदाराः शब्द्‌ का प्रयोग किया दै। संसार में क एक एे्ी परिस्थितियों आती है, जिनका सामना करना असम्भव नदीं तो कृटिन अवश्य यी होता है| एेसे समयमे शुद्ध हृदय हितकारी सचे मित्र की आवश्यकता होती है, जिसकी सन्मन््रणा से मनुष्य रुकावरों कों पददक्ति करता हुआ सफल्ता के शिखर पर पर्हुचता है । किन्तु सप्तम शनि एेसे मित्र ` रज्ञ की प्राति मे बाधक होता है। संसार मे काम-धर्म तथा मोक्ष कीप्राप्िमें महान्‌ सहायक धन माना गया है-“खै गुणाः काञ्चन माभयन्ते णेस भर्तृंदरिजी का सुभाषित है-किन्तु न्यायवर्जित अर्थात्‌ अन्यायोषार्बित धन ध्म॑-काम तथा मोक्ष का साधक न होकर बाधक होतादहै, इसी भाव को लेकर नारायणम ने वित्त को “चारू विरोषण से विशेषित छ्ियारै। अन्तर्निहितभाव यह है रि न्यायोपार्जित धन ही चिरसायीहोतारै। इसीसे धर्म-काम तथा मोक्च प्राप्त हो सकते है। किन्तु सप्तमभाव का शनि न्यायघन की उपलन्धि होने नहीं देता ओौर न्यायवर्जित धन अधिक समय तक टिक नहीं सक्तादहै। सप्तमभावस्थित शनि प्रमावान्वित मनुष्य उत्वाह ओर उद्ममहीन अर्थात्‌ आरुप्यम्रस्त होता दै “भालस्य हि महान्‌ रिपुः” यह नीतिच्ाल्र का वचन है । यद मनुष्य व्यर्थं प्रयाख करता है-इसका चित्त चश्चल होता है । अतएव उद्योग करने पर भी असफल मनोरथ होता है। रोभी इतना होता है कि इसकी तृष्णा शान्त होती हयी नदीं । परिणाम यह होता है कि मनुम्य अतितृष्णामिभूत देकर सदेव दुःखी रहता है । तात्पयं यह है कं सप्तम शनिकं प्रभावसे मनुष्य दुः्टस्री-रत, दुष्ट मित्युक्त भन्याय-उपार्जितधनयुक्त-अति वृष्णाभिभूत होता हुआ संसार मे उन्मत्तवत्‌ म्यवहार कर्ता हुभा भटकता फिरत। है आर इसका मन अशान्त रहता है “अशान्तस्य कुतः सुखम्‌ ॥ ७ ॥ तुरुना–““यदा दारागारं गतवति दिनाधीडतनये गदैयर्तादारा बल्मपि कुतो वित्तमधिकरम्‌ । अनुत्साहः कृत्ये भवति कृरातातोवभकविनां ` गदानाभाधिकय खपदि चपलाबुद्धिरमित ॥ जौीवनाथ अर्थ- जिस मनुष्य के जन्म समयमे शनि सप्तममावमें होतो उसकी ल्ली सगो से पीडित रहती है । उसे बल तथा धिक धन कर्हसे हो सक्ता है ? अर्थात्‌ यह निर्बल ओौर धनरहित होता है। काय॑ मात्र मेँ अनुत्छाही, देह मे अत्यन्त कृशता, शीघ्र ही रोगों कौ अधिकता ओर बुद्धि चश्चल होती है ।

४३७ पवमर्कारचिन्तामणि का तुरुनारमक स्वाध्याय

“’वद्रोजनः कृच्ांगः कमफहमश्च मानवो हिजः। जानो वा स्याउजोष्ही हफतुमखाने यदा भवति” ॥ खानखाना अर्थ–यदि सप्तमभाव मे शनि हो तो मनुष्य खरा चाल्वाला, दुर्ल्देह, योड़ा बोल्नेवाला, निवंद्धि गौर पराधीन होता है। ‘‘अामयेन बलदहीनतांगतो हीनचव्ृत्तिजन चित्तसस्थितिः | कामिनीभवन. धान्यदुःखितः कामिनीभवनगे शनैश्वरे” || महेश अर्थ- यदि रानि सप्षमभावमें होतो मनुष्य रगसे निर्बख्शरीर होता है । यह उपजीविकादहीन होता है तथा लेगोंसे मिलाप नहीं करता है; ओौर इसका चित्त स्थिर नहीं होतादहै। इसे स्नीसुख;, गहसुख तथा अन्न का सुख नदीं होता है| “छ्रीमिर्गतः परिभवं मदगे” । आचायंगर!हमिहिर अथं- जिस जातक के सप्तमभावमें शनि हो खि उसका निरादर करती है | (“सगदः प्रियाल्य. धनैर्विमुखः परभाग्यवान्‌ भवति सप्तमगे । जयदेव अथे–यदि शनि सक्षमभावमेंदह्ोतो जातक रोगी ग्हता है । इसे स्रीसुख गृहयुख तथा धन का सुख नहीं मिट्ता है। यह दूसरे के भाग्यकाखाता है अर्थात्‌ स्वयं निकम्मा ओर नखद् होता है। कोए क्यीतरह दूसरों के इकडां पर पठता है । त भ्माराध्वश्रमतप्तधीरधनिको मदे मःस्थानगे | वेखनाय अथे-सप्तममें शनिके होनेसे जातक को बोश्चा उठाना पडता हैः; वोद्या उठाकर दूरतक चल्ने की थक्रावटसे मनमंदुःखखदहोताहे। जातक निधन होता दहै, “सतत मनायेग्यतनुं मृतदा ई धनविवर्बितं जनयेत्‌ । सूनेऽकजः कुवेषं पापं बहुनीच कर्माणम्‌? ॥ कल्याणवर्मा अथ–यदि शनि सप्तमभावमें हो तो जातक मण्ण रहता है । यह निर्धन गन्दे कपड़ा, पापी ओर नीचकर्मं करनेवाला होतादै। इसकीखरी की मृत्यु होती दहै) “वविश्रामभूत्तां विनिहंति जायां सूर्यात्मजः सप्तमगश्चरोगान्‌ । धत्ते पुनर्दम्भधरंगहीनां मित्रस्य वा वंद्यभवां मनुष्यः || भ,नघ्षागर अथे–सत्तममें शनैश्चर होतो जातक मुष्वदेनेवाटी प्रथम विवाहकी द्री का नाशक सौर स्वथं रोगी होता दै। तनंतर अभिमानिनी अंगहीनास्री से, अथवा अपने मित्रके कुल्कीकन्यासे दूसरा विवाह करता है। तास्प्यं यह्‌ कि सततम शनि से जातक विधुर होतांदै भौर उसे दूसरा विवाह करना होता हे । सप्तमभौम की तरह सक्तमशनि भी खरीन)शक है । ` कामस्य रविजे कुदारनिरते | निःस्वोऽध्वगो विह्वलः ॥ मन्त्रेरगर अथ–यदि सममं शनिहोतो जातक कुत्सित स्री अर्थात्‌ बद्‌ चलन ली में मासक्त रहता दै । यह निर्धन, मागं चल्नेवाला मौर दुःखी होता दै ।

शनिएङ ४२५५

णसा प्रतीत होता है कि प्राचीनकारमे वैद चल्नावा याघ्रा करना कष्ठ

का ठश्चण माना जाता था।  

““कलत्रस्ये मित्रपुत्र सकल्ोख्जान्वितः । बहुशनुर्विवणश्वकृशश्वमलिनो भवेत्‌ ॥ शाञश्लौनाथ अ्थे– यदि शनि सप्तम हो तो जातक सस्रीक; रोगी, रतुं से विराहा, कुरूप; करारारीर, गंदे कपड़े पदिरनेवाटा होता है । सकल विरोषण का तात्पयं स्पष्ट नहीं है । सप्तमशनि प्रथमा खरी का घातक, ओर द्वितीया खरीके आगमन का सप्वक है । इस परिस्थिति मे जातंक कभी खरीवियुक्त न रदेगा ओर एक स्री अवद्य रदेगी । यदी तात्पयं हो सकता है । किसी दीकाकारने “सकटन्नो खजान्वितः? इसका . अर्थं पतनी सहित रोगी रहता रै, पैसा किया ई । ‘‘अआमये बठदहीनतागतो ्वीनवृ्तिजनवचित्त संस्थितिः । कामिनीभवन धान्यदुखितः कामिनीमवनगे शनैश्वरे ॥ इण्डिराज अ्थ–शनि के सप्तमभाव मेँ स्थित होने से जातक रोगों से पीडित अतष्टव निर्जर देह हो जाता है। यह आजीविकारदित अथात्‌ गुजारे से ठंग होता है। यष ठो्गोके म॒न मे खटकता रहता है । इसे स्रीषुख, ग्रहयुख तथा धनयुख नदीं मिर्ता है । | विश्ामभूतां विनिहति जायां सूर्याजः सत्तमगश्वरोगान्‌ । धत्ते पुनः दंभषरांपीनं मित्रस्थवंशेन हुतासु ॥ भर्ग

अथै–यदि सत्तममें रनि होतो जातक्र की सुख देनेवाखी पली की मृप्यु होती है । जातक रोगी, दोगो, अंगहीन भौर मिं से मायाबी व्यवहार

करनेवालादहोता है।  

८“अामयेन बलद्ीनतांगजो दीनदृत्तिजनचित्तसंस्थितः । कामिनीभवन धान्य दुःखितः कामिनीमवनगे शनौ नरः ॥ बृहद यगनजातक अर्थ–सक्तमभाव मे शनि ध होने से मनुष्य रोगों से पीडित होकर दुख शरीर हो जाता है । इतका संसग तथा संपकं नीवृति के रोगों से रहता ह; १ र जीविकाहीन होता है भौर इसके मन में नीषचव्ं द दृत्तिहीन रोग रहते ई ओर इसका संसगं भी नीचव्गं के लोगों से रहता है । इसे स्री, घरवा धान्य का सुख नहीं मिल्ता। |

पाश्चात्यमत-इस व्यक्ति की पलनी ( वा पति ) उदाख, दु्खी, निराश, कम ब्रोकनेवाखौ होती है । यह सख्रीवियोग ( वा वैषभ्य ) का निधितयोग होता है । शनि द्विष्ठभाव राशिमें होतो बहुविवाह होने का योग होता है। शनि राशि बली सौर श्चमसंब॑घमे होतो विवाह से धन भौर दष्टे का खम होता दै । खिथांकी कुंडली मं यह शनि किसी विधुरः, आयुमे काफी बडे किन्तु संपन्न वसे विवाह का योग करता है। साधारणतः सप्तम मे शनि ध्चभ नद्यं होता। विवाहसुख रीक नहीं मिल्ता। व्यभिचार की प्रवृत्ति होती हे ।

४३६ पवमर्कछारचिन्तामणि का तुरनव्मक स्वाध्याय

बदमाश्च, छठ वोलनेवाठे विश्वासघाती लोगों से एकदम शत्रुता होती है । साञ्ची- दाश मे नुकसान होता है। कानून-कष्वहरी के मामो मे असफलता होती दै | दुखरोंके साथ किए हुए व्यवहारो मं वेकार क्षगडे होते दै-तकलीफ होती है । राशिबखी ओर श्चभ संवंध में यह रानि अश्यभफर नहीं देता प्रत्युत शनि के विकसित राणो से संयुक्त पत्नी मिख्ती है । विवाह से भाग्योदय होता हे । विदोषतः तुला राशि मे यह शनि पति-पत्नी म अच्छा प्रेम रखता हे । चन्द्र साथमेंदहोतो स॑सारयुख बिल्कुक नदीं मिक्ता । भगसूत्र-4शरीर दोषकरः । शकरः । वेद्या संभोगवान्‌ । अति दुःखी । उच्स्वक्षेत्रगते अनेक खरी सम्मोगी कुजयुते शिदनचुवनपरः । शक्रयुते भगचुवनपरः । परस्री सम्भोगी ॥ अ्थ- सत्तमभावमे शनिके होमे से जातक का शरीर दोषयुक्तं रहता है। दोषसे तात्पप प्तेगः का होसकतादहै। इसकी पली ङश होती हे। ( यद्य पर॒ छशता रोगजन्वा मन्तव्य हो सक्ती हं ) जातक वेद्यागामी होता दै । यद बहुत दुःखी होता है । यदि यदं शनि उच्च ब्रा स्वगृदी हो तो जातक अनेकः च्ियोंका उपभोग करता दै। यदह शनि मंगल से युक्त होतोस््री अस्यन्तं कामुकी होती दहै। कामानलसंतस्ा होकर खी-पुरुष को काम- क्रीड़ा के लिषए्‌ स्वयं उत्तेजित करती दै-यह भाव है । यदि शानि श्चक्र से युक्त हो तो पुरुष अतिकाय॒क होता है । जातक परख्रीगामी दोता हे | विचार ओर अलुभव-“स्तमभाव का शनि भश्ुमफल देनेवाला है-दस्को स्पष्ट करनेके किए चार्यो ने अञ्चभफल दही वर्णित किएदहै। इन अश्चुभफलो का अनुभव वृष, कन्या, मकर, वला तथा कुम्भरारि्यो में होता है। केन्द्र गत पापग्रह अश्युभफकूदही देते ईदै-ेसा अभिप्राय आष्ार्बो क्रा स्पष्टतया प्रतीत होता है। यदि सक्तमभाव का शनि मेष; सिह, मिथुन, कक, बृशिक, धनु तथा मीनमें होतो एक विवाह दहदोनेकायोगहोतादहै। इस योग मे पति-पल्ली परस्पर प्रेम बना रखते ै। वाग्युद्ध भी होदाहे तौमीप्रेम बना रहतारहै। एक शब्दम संसारया्राके चिर गृरहस्थच्छा पूणरूपेण व्यवहार चलाने के लिए इस योग मे स्री बहुत अच्छी प्राप्त होती हे । गादस्थ्य जीबन अच्छा चलता है । सिह तथा धनु में खीमोहक अकार की रोबदार होती ह । मेषमेंक्लीका वदन छरहरा, केश धने, नाक नुकीली; चेहरा रम्बा, ओं छोरी होती है | वृष, कन्या तथा मकरमेखीकारूप रंग ऊपर से विपरोत होता हे । मिथुन-वल, कुंभ मेंखी का चेहरा गोल ओौर तेजस्वी; केश षचमक्ीले रेशम जेसे रंग कुक गोरा, किन्तु स्वभाव अ्चगड़ादटू होता है ।

& निश ४३७

कर्व, ठृ्चिक-तथा मीन मे प्ली तो सवंप्रकारेण अच्छी किन्तु आर्थिक स्थिति दीन रहतौदहै। किसी तरह संसार तो चलता है। किन्तु व्यवसाय दो वा नौकरी मेँ उतार चटाउ-पयितंन होते रहते दै । २८ वषं मे जीविका के साधन मिक्ते ई । ३६ से ४२र्व वधं के अन्दर भाग्योदय भौर अच्छी प्रगति होती है।

वृष-कन्या-मकर, कुंभ में दो विवाह होते है।. दुसरे विबाह के अनन्तर भाग्योदय होता है। किन्तु स्री मनुकरू स्वभाव की नदीं होती अतः अच्छा सख्रीमुख नहीं मिख्ता । दमे लीतो अच्छी किन्तु आर्थिक स्थिति दीन रहती ई । स्री को उत्तमं भोजन तथा विषयोपभोग की इच्छा प्रबल होती है ।

रिश्चा के विषय म यदि शानि मेष; मिथुन, सिह, धनु, मकर तथा कुमर्मे हो तो शिश्वा उत्तम-वकील-मैजिष्टरेट आदि के-रूप मे यच्छी सफलता मिलती है। वृष, कन्या, वला, ककं; इृधिक तथा मीन मेंशनि होतो ठेकेदारी, कोयला-ोषहा आदि खानोँका काम, विदेशी माल की एरी दि कामों मे लाभ होता है

सिथुन, कन्या, धनु तथा मीन मे शिक्षक प्राध्यापक, गणक आदि ज्ञान- सम्बन्धी कामोंमें लाभ होता दै। कर्ही-कीं पर यह शनि गोद लिप जाने का योग बनाता है। बचपन में माता-पिता का वियोग, पत्ती की मृत्यु ५२-५३ की आयु मेये फल होते ह।

सन्तति के विषय में मिथुन; वख तथा कुम में जच्चोंकी पदाय में परस्पर काफी अन्तर रहता है । आजीविका के विषय मे-व्यवसाय अौर नौकरी दोनों टीक रहते है । ठला मेँ द्विमया योगम लभ होता है। वृष, तथा कन्या मेँ अविवाहित रहने कौ भोर च्छा होती है । सत्तमस्थ शनि से पति की मूल्यु पल्ली से पदिठे होतीरहै। ल्यमेंशनिहो तो पल्ली पिरे मरती ै। अथवा सदैव रोगी रहती हे । ॥ि

मेष, सिह, धनु, मिुन तथा तुला मे शनि हो तो पुरुष उदार, आनन्दी, खर्वील-कचित्‌ करोधी-परोपकारी ओर परस्री से विसुख होता है । अहंमन्य, अर अभिमानी होता दै। कन्या, तुला, धनु म सन्तति आयु के उत्तरार्धं मं होती है।

अषटमस्थान मेँ इनि के फट- “वियोगो जनानां स्वनौपाधिकानां विनाशो धनानां स को यस्य न स्यात्‌ । शानौ र॑घ्रगे व्याधितः शषुदरदशणी तदग्रे जनः केतवं कं करोतु ॥ ८॥

अन्वयः–रानौ र॑थगे ( सति ) सः कः यस्य तु अनौपाधिकानां जनानां वियोग न स्यात्‌, धनानां ( च) विनाशः (न) (स्यात्‌ ) सः व्याधितः ्षुद्रद्शीं ( च ) ( स्यात्‌ ) जनः तदग्रे किं कैतवं करोतु ॥ ८ ॥

७४३८ तमरकारचिन्वामणि का सुरखुषात्मरू स्वाध्याय

सं< टी<–र्रगे अष्टमस्थे शनौ अनौपाधिकानां उपाधि रहितानां जनानां वियोगः सत्संगाभाव इत्यथः । धनानां विनाशः यस्य न स्यात्‌ सः कः: । तथा व्याधितः क्युद्रदर्यो परदोषान्वेषी, तदग्रे अन्यः जनः कैतवं धूतंतां कि करोतु महाधूतंः अतिधूतंः सः स्यात्‌ इति भावः ॥ ८ ॥

अथे जिखके अष्टमभावमे दानिददोतो उसे उपाधिरदहित सत्संगी ज्ञानी मनुष्यों का वियोग होता है। अर्थात्‌ अष्टमस्थानस्थित शनि प्रभावान्वित मनुष्य त्रिकाल सत्य॒परन्रह्म के साथ संग करनेवाले मनुष्यों का सत्संग नहीं मिरुता है । वहतो दुष्टप्रकृति लोगों की संगति मे रहता ै। इसे अपने मनुर््यो का भी वियोग होताहै। किसीएक रीकाकार ने “अष्टमस्य शनि का जातक व्रिना कारण रोगों से विरोध करता है” एेसा अर्थं किया है-उपाधि शब्द्‌ का अथं कारणः कियाद । वियोगः दव्य का अर्थं (विरोध किया 9 अष्टमस्थ शनि के प्रभावमं आहुर जातककेधन का नाश्चभी होता ईै। यह जातक रोगी रहता है । यदह दूसरों के दोष निकालता रहता है, अर्थात्‌ यह परदोषान्वेषण करता है, इस . तरह यद उदारचेता न होकर, ्षुद्रहदय . तथा संचित दद्य होता है । यद जातक स्वयं धूर्तराट्‌ वंषचकन्तूडामणि होता है । मतः इसे कोद दूसरा मनुष्य ठग नदय सकता है ॥ ८ ॥

तुखना– “यदा रश्रस्थाने दिनकर सुते जन्मः समये,

विनाशो वित्तानां निजजनवियोगः सहजतः | सदा वक्राकारा मतिरतितरां वा चठुरता, ~ गद्त्रातातंकः प्रभवति करुकश्च भविनाम्‌ ॥ जौननाथ `

अथ–जिस मनुष्य के जन्मसमयमे शनि अष्टमभावमें हो तो उसके धन का विनाश होता है। ओौर अकारण दी आत्ीयजनों का वियोग होता दै । सर्वदा उसकी बुद्धि कुटिल रहती है । यह अत्यन्त चतुर, रोगो से भयभीत सौर कठंकी होता है ।

“वीमास्थ हरीयो दगाल्वाजश्च दोजखी मनुजः । जोह दस्तमखाने भवति वखीलः कृपालसो मीरः” ॥ खानखाना

अथे- यदि मष्टमभाव में रानि होतो मनष्य रोगी, भल्सी, दगाबाज,

पटू ) कृपण, दया ओर डरपोक होता है । “स्वर्पात्मजो निधनगे विकलेक्षणश्च ॥* अचायं व राहुमिहिर

अथे–यदि शनि अषटमभाव में हो तो जातक के पुत्र अस्पस॑ख्या मे

होते हं भौर मखे क्षीण होती है अर्थात्‌ जातक की दृष्टि कमजोर होती है । “अष्टमे व्याधिदहानिं च ।” पराक्ञर

अथं–शनिल्प्मसे अष्टम हो तो जातक रोगी होता है-तथा इसवगी हानि होती रह ।

श निर ७३९.

“सवग्रहा दिनकर प्रमुखा नितातं मृव्युभ्थिता बिदधते किल दुषटवुद्धिम्‌ । राख्रामिधात परिपीडित गाच्रभागं सौष्येर्विंहीनमदि रोगगणेरुपेतम्‌’» ॥ वशिष्ठ अथे–यदि जातक के जन्मल्घ्र से अष्टमस्थान में सूर्यं आदि अ्रहोमेंसे कोद भी होतो इसकौ बुद्धि दुष्ट होती है। शखर के प्रहार से इसके अवरयवों को पीड़ा होती है । इसे सुख नदी मिल्ता है | इसे बहुत से रोग होते रै । “छशतनुः ननुदद्रुविचर्चिकाप्रभवतोमयतोष विवर्चितः। अल्खतासदितो हे नरोभवेत्‌ निघनवेदमनि मानुपुतरे सिते ॥ महेश अथे– जिसके अष्टमभाव मँ शानि हो वह दुरु शरीर होता है, इसॐ शरीरम दद्रु ( दही-एक चमंरोग ) ओर फोडे-फुन्तिर्यौ निकठ्ते है जिनसे इसे पीड़ा होती है भर सन्तोष का नाश होता है । जातक आल्खी होता रै । ““कृरातनुः सगदोऽर्खभाग्‌ विहग विगततोष सुखोऽष्टमगेशनो ॥” जयदेव अथे–जातक के जन्मल्य से अष्टममाव मे यदि शनिदहदोतो यह दुर्बल देवाला; रोगी अल्सी तथा नेरहीन होतादहै। इमे सन्तोष भौर सुख नदीं होते । “यूरो रोषाग्रगण्यो विगतवबल्धनो भानुजे रन्धपाते” ॥ नैद्यनाथ अथे–शनि अष्टमस्थानमें होतो जातक रीर, बहुत क्रोधी; निबल ओर निर्धन होता है । “वुष्ठमगं दरयेगेरमितप्तं हस्वजीवितं निधने | सवारम्म विहीनं जनयति रग्रिनः सदापुरुषम्‌ः” ॥ कल्याणवर्भा अथं–यदि अष्टममाव मँ शनि हो तो जातक कोट-भगंदर आदि रोगों से दुम्खी होता है । यह अल्पायु तथा उत्साहदहीन होता है । “शदानेश्वरे चाष्टमगे मनुष्यो देशान्तरे तिष्ठति दुःखभागी । चौर्यापराघेन च नीचदस्तात्‌ पञ्चत्वमाप्रोत्यथ नेत्ररोगी ॥ मानसार अथ–अष्टमभावमे शनि होतो जातक परदेश मे रहता है ओर वहं पर मी दुःखित रहता है। चोरी करने के अपराध में दण्डित होकर नीच के हाथ से इसकी मृत्यु होती दै। | ““शनैश्वरे मृतिध्थिते मलीमसोऽदां षोऽवसुः । कराल्रीः बुसुक्षितः सुदटद्‌जनावमानितःः ॥ मन्त्रेहवर अथे–यदि अष्टनभाव म शनि हो तो जातक मिनि, ववासीर के रोग से पीड़ित, धनदीन, क्रुरबुद्धिगाला भौर मूला, होता है। इसके मित्र इसकी सवदेखना करते है| ‘क्रोधातुरोऽ्टमे मन्दे दद्रोवहूरोगवान्‌ । | मिथ्याविवादकतां स्यात्‌ वातरोगी मवेन्नरः” | काश्लिन।य अथे–शनि यदि अष्टममाव्रमेँ होतो जातक बहुत क्रोधी, ददि, रोगी, व्यथं ौर मिथ्या ज्लगड़नेवाला, तथा बात रोगी होता है ।

७० चमर्कछारचिन्तामणि का तुलनारमक््‌ स्वाध्याय

‘“करदातनः ननु टद्र पिचर्चिका प्रभवतो भयतोषर विवजितः। अलसतासहितोदहि नरोभवेन्‌ निधनवेदमनि मानुुते स्थिते? ॥ दुण्डिराज अर्थ–यदि अष्टमभावमें शनि दहो तो जातक का शरीर दुर्बल भौर पतटा होता है। इसे दाद ओौर खुजटीसे पीडा होती हे; यह असन्तुष्ट ओर

साल्सी होता हे । ष्‌ | “धविदेशतो नीच समीपतो वा सौरिप्रंति रन्ध्रगतो विधत्ते ।

हच्छोककासामयवद्‌ मिषरूची नानाविधं रोगगणं विधाय ॥> गर्ग अर्थ–विदेशमं या समीप के किसी हीनस्थान में जातक की मृत्यु होती है यदि इख्केल्यसे आर्र्वेभाव मे शनिदहो। शोक के कारण हुए-हूए हदय के रोग से, खोसी, कालरा मादि नानाविध रोगां के कारण जातक वी

मौत होती ह “वुमुक्षया टंवनेन तथा प्रायोपवेशन्तत्‌ । बन्धुवगाटरिकरात्‌ क्षयतः प्रद्रुतः

प्वटकै्रणकोपेन दयपादामिघाततः | हस्तितः खरतो । मृप्युमदे स्यान्‌ मप्युभावगे ॥ क’रयप

अथे- शनि के अष्टमभावमें होनेसे जातक को मृत्यु निम्नलिखित कारणो से होती है :–मेष में भूख से, वृष मं लद्घन से, मिशन मे उपवास से कर्क मे खितेदासें से, सिह मे शत्रओंके दहाथसे, कन्यामंक्षयसे, तुखामे श्रडो खुजली से, दृश्चिक मेँ चटकों से, धनु मे तव्र्णो से; मकर में घोडे की रंग (लात) से, कुम्भ में हाथी से ओर मीन में गधेसे। ‘वुमुक्षया ल्घनेन तथा च बहुभोजनात्‌ । संग्रहण्योः पाण्डुयेगात्‌ प्रमेहात्‌ सन्निपाततः ॥ कंटवैत्रंणकोपेन हस्तिपादाभिघाततः। हयतः खरतो मृघ्युः मन्देस्यान्‌ मत्युभावगे’? ॥ ज्योतिषहयामसंग्रह अभे–यदि ल्य से शनि अष्टमभावमेंद्ोतो जातक की मृत्यु नीचे छलि के अनुसार होती है :- भूख से, टंघन से; अधिक तथा माकण्ठ भोजन करने से, संग्रहणी से, पाण्डु रोग से, प्रमेह से, सनिपातसे, कँसे, व्रणो से, हाथीके पौव की चोटसे, घोडे तथा गघेसे मृल्यु होती हे। ‘करुरातनुः ननु टद्रुविचचिका प्रभवतो भयतोषविवजितः । “’अल्खतासदहितो हिं नयेभवेत्‌ निधनवेदमनि भागुसुते गते ॥’ ब्रहद्यवनजातक अर्थ–अष्टमभाव में शनि के होने से जातक कृश, खुजटी-फोड़ं से दुःखी असंतुष्ट निभंय तथा आल्सी होता है । “पर कष्टभाक्‌ कररवक्ता प्रकोपी मवेत्‌ क्षुद्रको धान्यकं नैव सत्वम्‌ | परं हासवातोदिक किं तदे यदा मंदगो मृ्युगो वे नराणाम्‌? ॥ जागेहवर अथे–यदि रानि अष्टमभावमें होतो जातक कष्ट भोगनेवाखा, निटर बोखनेवाखा, क्रोधी, क्षुद्र अथःत्‌ वुच्छप्रकृति-घन-धान्यदीन, निर्बल तथा हंसी मजाक मं शामिल न होनेवाखा होता है। |

शनिस्ड १

“सस्यादायुस्ये दद्रयुत्तो दरिद्र घावुहीनो दुबेलांगो ख्जानाम्‌ । सुतो धूतो भीरराल्स्य धीरो मानोः पुत्रो निंमागप्रगामी” ॥ हरिं

अ्थै–अष्टमभावमें शनिदोतो जातक दाद्‌ ( खुजली) वा धातु की कमी से कष्ट पाता है । यह दर्री, रोगों से दुबल, उरपोक, आलसी, निदनीय- मार्ग का अवल्म्बन करनेवाला होता है । इसके पुत्र धूतं होते है ।

श॒गुसूघ्र-त्रिपादायुः, दरिद्र, शुद्रललीरतः, सेवकः । उचेसवक्षेत्र दीघौयुः । अरिनोचगे भावाधिपे अल्पायुः, कष्टान्नमोगौ ।

अ्थ–शानि के अष्टमभावमें होने से जातक की आयु ७५ व्षकी होती है) यह टर्द्री, नौकरी करनेवाला; शुद्र खरी से सम्पकं रखनेवाला होता हे । उच्चे वा स्वक्षे्रमे शनिके होनेसे जातक दीर्घायु होता है। शनि यदि खतरुगइ की राशि में वा नीवरारिमें दहो तो जातक भस्पायु होता है । इसकी उपजीविका कठिनता से चल्ती ह । |

पाञ्चात्यमत-( अष्टमभावस्थ ) शनि मकर, कुम या वला में श्चुम संवधितदहोतो विवाह से आधिक खमदहोतादहे। वारिसके सूपमें जमीन आदि इस्टेट प्राप्त हाती दै । उसकी देखभाल भी अच्छो करते ह ।

अष्टम मे बल्वान रानि दीर्धायु देतादै। नैसर्गिक वृद्धत्वसे ही मृत्यु होतो दै | अष्टम मं पीडित शनि विवाह सेखाम नहीं कराता। दहेज आदि कुछ नदीं मिख्ता । विवाह के वाद्‌ आर्थिक संकट आते हं । दीर्घकाल रोग से कष्ट पाकर मयु होती है। पूवाजित धन नदीं मिल्ता। ककंयामेषमें अश्म शनि से ये फल विशेषस्प मं मिलते है । पौडित शनि से अकस्मात्‌ मृत्यु का योग होता है । जीवन मं हमेशा निराशा होती हे । गूदुशास््ो का अभ्यास करते ई।

विचार ओर अनुभव–प्राचीन म्रंथकारों के भनुसार अष्टमभावस्य दानि का फलक अश्चुभ दही है । ये अश्यमफल मुख्यतः वृष, कन्या, कुंभ, धनु, मीन तथा मिथुन राशियों के रहै । यदि शनि दृषमं होतो तुल ख्ग्न, ओर धनु मं होतो वृष रग्न होता है| इन रग्न के लिए शनि श्चम योग कारक दै । तौ भी यष्टमभाव में होने के कारण सुखदायक नहीं हो सकता। यदि कन्या होतो शनि व्वयेश होता है, इसलिए दुःख ओर दारदी होतेर्है। कुंभ वामीनमेदह्ोतो शनि सातवंओौरच्टे कास्वामी होता है| बृधिकमेंहोतो चतुर्थं वा त्रृतीयका स्वामी होता है-फल दुःखी होता हे । |

अष्टमस्थान निधन वा मूल्य स्थान कहलाता है। इस भाव से संकट~ कष्ट मृग्यु-मूत्यु का कारण आदि का विचार किया जाताहे। रनिकोमी प्राणियों का दुःख माना है-शनि के नामों मे यम-काक आदि नामभी आपत्ति सूचक है । इस तरह अष्टम भौर शनिका संयोग कष्टकारक दही हो सक्ता है ।

७७२ चमर्कारचिन्तामणि का तुखनार्मक स्वाध्याय

मेष, सिंह, व॒ल, वृश्चिक वामकरमं यटि शनिददो तो अधिकार वा संपति अधवा संतति इन तीनों मंसे किसी एकक विषयमं कष्टदहोता दहै | संतति यौर संपत्ति दोनों एक साथ नहीं मिक पाते। रिन्त ककंराशि कानि दोनों मे सुखदायक होता है । अकस्मात्‌ धनप्रामि भी होती दै। धनुराशि का दानि प्रिंवाह के अनंतर धनक्षीणता का देतु होता है-भाग्यक्षीण होता है क्योकि भाग्ये अष्टममें होता दै।

यदि शनि मेष, मिथुन, कक, सिंह) धनुवा मकरमें होतो स्वतंत्र व्यवसाय से आजीविका चल्तीदहै। इन रारियों से अन्यत्र शनि नौकरी के लिए ठीक होताहै। अष्टमस्य दानि पषिटी उमर मं कष्टकारक, किन्तु गिछिटी उमरमें सुख देता रै । इसते विपरीत फल भी होता है अथात्‌ पिके दुःख तो पीछे सुख ओौर पदिटे सुखतो बुदट। पेमेक्ष्ट होता दै। चत॒थेका शनि हो तो पारम कष्टमय) मध्यम में कुछ खुख किन्तु अंत में पूणं कष्टमय स्थिति रहती हे । |

अष्यमस्थ शनि ५४ वै वंके वाद अद्युम फट का योतक है | मेष, सिह, कर्क, वृश्चिक, मकर तथा तुलाम इानिदहो तो आयु, दीधं होती दै । विवाह के बाद स्थिति मं पमििर्तन होता है । ककं भौर वला मं अष्टमस्थ शनि अच्छी स्थिति रता है । पतनी अच्छी ओर इसका स्वभाव भी अच्छा होता है।

यदि शनि अष्टममेंहोतो प्राणी मन्यु के समय भी स्वस्थचित्त रहता दै। इमे मृत्यु होने वादी दै-ेषा आभास सत्यु से कुछ समय पूव दो जाता है | एेसा आभास तत्र होता दै जवर चतुथं वा अष्ट्ममें पापग्रह हो । इन्दी स्थानो में श्चमग्रहदहोतो मघ्युके समय वेहोशी रहती है । भाग्योदय ३६र्वे वषं के वाद, यदि शनिं बहुत दूषित होतो वंधनयोग ( कारावास ) होता दहै । छटे वषं मे माता-पिता की मूत्यु-वा पिताको आर्थिक संकट इस प्रकारका नुकसान होता दहै । ३२ वां वप्रं भी भापत्तिकारक होता दे।

नवमस्थान में चानि के फट– “धमतिस्तस्यत्तिक्ता न तिक्तं सुरीटं रतिर्योगदाखे गुणोराजसः स्यात्‌ । युद्टद्‌ ब्भेतो दुःखितो दीनवुद्धया दानि: ध्मगः कमेक्त्‌ संन्यसेद्रा ॥ ९ ॥

अन्वयः–यस्य शनिः धम्मंगः ( स्यात्‌ ) तस्य मतिः तिक्ता ( स्यात्‌ ) रीटतु न तिक्तं ( भवेत्‌ ) तस्य योगशास्त्रे रतिः ( स्यात्‌: ) राजसः गुणः ( च ) स्यात्‌ । दीनब्ुढया सुृद्वग॑तः दुःखितः ( स्यात्‌ ) सः कमंक्रत ( स्यात्‌ ) वा संन्यसेत्‌ । ९ ॥|

सं~–टी<—शनिः धर्मगः नवमश्यः चेत्‌ तदातस्यमतिः तिक्ता विषय विरक्ता ( स्यात्‌ ) यीटं तुन तिक्तं कटकं ( स्यात्‌ ) योगशास्त्रे योगप्रति- पादक ्रंये रतिः अभ्यासः ( स्थात्‌ ) राजसोगुणः रजः प्रकृतिः च स्यात्‌ ।

कशनिफल 1 ४४२

दीनज्ुद्धथा “एतेदीनाः मित्र वगः” इत्येवं रूपया बुद्धया खद्वगंतः दुःखितः करःपराधत्वात्‌ खिन्नमनाः अतएव कमंङ्कत सर्वषां सुखकारी स्यात्‌, वा अथवा सन्यसेत्‌ यतिरेव स्यात्‌ ॥ ९ ॥ | | | अ-स जातक के जन्मखग्न से नवममाव मे शनिप्थित हो उसकी बुद्धि तिक्त-तीक्षण अर्थात्‌ विषयवासना से भ्रिमुख ओर विरक्त होती है। ‘“संसार तत्वतः क्या है १ विषयवासना से प्राणी नीचे जाता ई वा सन्मार्गगामी ` होकर ऊँचा उटता है” इत्यादि का विचार विषय कुष्ठितबुद्धि मनुष्य नदी कर पाता. है। अपितु कुशाग्रबुद्धि दी तत्वान्वेषक हो सकता है । शनि दुभ्ख देकर मनुष्य को संसार से विरक्त करता है ओौर उसकी बुद्धि विषयोपभोग कीथरसे तिक्त अर्थात्‌ क्ड हदो जातीदरै। यह अर्थं अमिषाब्रत्ति लभ्य नदीं है । किसी अन्य टीकाकार ने “तिक्तः शब्द का अमिधालम्य अथं “कटुः ‘्कड्वाः ठेते हए निम्नलिखित अथं किया हैः– जिसके नवमस्थान मे शानि हो वह जातक दुष्ट बुद्धि वाला होता है । इसका शील-अर्थात्‌ आचरण ओौर दुःखो के प्रति व्यवहार तिक्त अर्थाव्‌ कड ( कड़वा ) नदीं होता है, अपति इसका स्वभाव मृदुर तथा सर्वाकरषंकं ओर मनोरम होता ै। यद योग प्रतिपादकम्रंथों मेँ खचि रखता है, अथोत्‌ योगासन का अभ्यास करता है ।. यह रजोगुणप्रधान व्यक्ति होता है । ध्ये मेरे मित्र भौर बांधव, छग दीन-हीन तथा शोचनीय दश्चामें है यह सोचकर इसका मन दुभ्ली हो जाता है भौर इनको दयनीय परिस्थिति से ऊपर उठाने के रए यह इनके युखके लिए कमनिष्टहो जाता है-इनको दीनता गतं से बाहिर निकाल्ने के लिए यथाशक्ति यत्नं करता है। अथवा सन्यस्त ही हो जाता है। अर्थात्‌ कमणा; मनखा, वाचा कम॑ करना छोड़कर ब्रह्मनिष्ट हो जाता दै। | तुखना–““यदा धमस्थानं गतवतिशनौजन्मसमये, सुद्‌ वर्गाद्‌ दुःखं प्रमवतिगतिस्तीथ॑विषये । गृहद्वारं -दीन द्विजपर्डितं शील्ममलं, वयोऽते वैराग्ये रतिरपि च योगे तनुभृताम्‌ ।।- जोवनाय ॥। अर्भ- जिस मनुभ्य के जन्मसमय मे शनि नवमभाव मेहो उसे मित्र वर्गो से दुःख होता है । अर्थात्‌ नवमशनि सुद्द्वगं से सुखप्रापि मेँ बाधक होता है | कारण यह किं मित्र भौ इसके प्रभाव से शत्रुवत्‌ व्यवहार करने गते रै । यह तीर्थयात्रा करने के लि उद्यत भौर यलशौल होता है। तीर्थयाज्ना यौवनावस्था में इन्दरियदमन का साधन दै, भौर नवमभावस्थ शनि का जातक इद्धिय दमनशील होता दै । इसके धरके दरवाजे पर दान छेनेके लिए दीन रोग खड़े रहते दै । अर्थात्‌ यह दानशील होतादहै। धन का

७७ चमरकारचिन्तामणि का तुखनास्मक स्वाध्याय

सख्य फल दान हैः दानंभोगोनाशः तिखोगतयो भवंति वित्तस्य । योन ददाति न अक्ते तस्य तरतियागति मवति यह सुभाष्रित है इसका स्वभाव निर्म होता है । अर्थात्‌ यह कुटिलक न होकर निमंल ओौर सरल चित्त होता है । यह बृद्धावस्था मं विरक्त होता है; ओर योगाभ्यास की ओर अग्रसर होता है। अर्थात्‌ नवमभाव का शनि बुदपिमें मनुष्यको संसार से षिरक्तं करता दहे ओर जातक विजयानंद से पराङ्‌ मुख होकर ब्रह्मानंद प्राति की ओर अदूट यत्न करता दै ओौर इसमे उसक्रा सदायक योगमागं होता है ।

‘%घर्मकर्मंसहितोविकटांगो दुमतिः हि मनुजोऽतिमनोक्ञः

संभवस्य समये यदिकोणः तरित्रिकोणभवने यदि संस्थः,   महेश

अथ- जिस जातक के जन्मल्यसे नवमभाव मं शनि दहो वह धमीसमा

अर श्चुम कर्मकर्ता होता दै। इसके शरीर क अंगों मे कदं पर विकार भौर हीनता होती दहै। इसका स्वभाव वा बुद्धि दुष्टहोतेर्दै। यह सुन्दर होता

है । ५ पर्यायवाचक नामों मं “कोणः एकनाम है । तित्रिकोण नवमभाव कानामहै।

““वख्तबुलदः श्रीमान्‌ शीरीखखुनश्च मानवो यदि वे। जोहो बख्तमकाने ` वेताख्श हि कपाङरपि भवति” ॥ खानखाना अर्थ–यदि नवमभाव मे शनि हो तो मनुष्य का समय च्छा होता है। जातक लक्ष्मीवान्‌ , मीटा बोरनेवाला, बुखौ ओौर दयालु होता है । “धर्म सुताथंयुखभा कः ॥ वराहमिहिर थे–यदि रानि धर्मभाव अथात्‌ नवम मं हो तो जातक पुत्रवान्‌ धनवान्‌ तथा सुखी होता है ““सुसुत वित्तसुखोबिवलांगभाग्‌ विमतिभाग्‌ विमना नवमेऽकजेः ॥ जयदेव अ्थे–यदि नवमभाव में शनि हो तो जातक पुत्र; धन तथा सुख से युक्त होता है। इसके रारीर में कीं दोष आओौर विकार होने से यद निर्बछ शारीर होता है-इसकी बुद्धि ओर चित्त दुष्ट होते ई । ““भाग्यार्थास्जतात धर्म॑रदहितो मंदे श्चुमे दुजंनः’ ॥ त्रो इवर अथे–यदि दानि नवमदहोतो जातक दुष्ट, माग्यहीनः, धनरहीन, धर्महीन पुत्रहीन तथा पिव्रहयीन होता है । नवमभावका पर्याय नाम श्ुमःमीदहै। श्ुभस्थान-नवमस्थान एकाथक हे | “धर्म मंदे धमम॑दयीनो विवेकी च रिपोर्व॑शः | नरृरांसो जायते रोके परदाररतः सदा? | काक्ीनाथ थे–यदि रानि नवमभावमें होतो जातक ध्मंहीन किन्तु विचारशील, शत्रुवशवतीं, रूर मौर सदेव परल्रीगामी होता दै । “शवमकमंसहितोविकलटंगो दुम॑तिर्दिं मनुजोऽतिमनोक्ञः संभवस्य समये किलकोणच्ित्रिकोणभवने यदि संस्थः | दण्डिराज

शनि रुक ष्य

अथ-यदि शनि नवममेंदहोतोजातक धार्मिक तथा श्चुम कमं करनेवाला विकल ग, कुबुद्धि तथा सुन्दर होता ह । (“मदे भाग्यगरहष्थिते रणतल्ख्यातो विदारो धनी ॥ वंखनाथ अ्थं– यदि शानि नवमभाव मे हो तो जातक रणवीर, धनवान्‌ तथा स्रीहीन होता है। | ८धर्मरदितोऽद्पधनिकः सहजसुत विवर्जितो नवमसंस्थे । रविजे सोख्यविहीनः परोपतापी च जायते मनुजः” ॥ कल्याणवर्मा अथे- यदि शनि नवममावमें हो जातक धर्म, धन, भ्राता-ुत से रहित हाता है । इसे सुख नदीं मिक्ता । यह दूसरों को संताप देनेवाला होता है । “कुर्वन्ति धमरहितं विमतिं कुशौलम्‌” बलिष्ठ अ्थ–यदि शनि नवमभावमेंदहो तो जातक धर्म, बुद्धि तथा शीसे

रहित होता है । ५ °’नवसे पित्रवधनं भाग्यहानिश्चः || षराक्षर

अथे-नवममे निदो तो जातक की भाग्य की हानि होती है तथा मित्रां को कारावाख होता दै। ““धर्मस्थपंगुः बहदं मकारी, धर्मार्थहीनः पित्रदचकशच । मदानुरक्तो विधनी च रोगी पापिष्ठ भार्यापरहीनवीर्यः ॥ सानसागर अथ–यदि शनि नवमस्थित हो तो जातक बहुत दांभिक, धर्महीन, धनहीन, मदांध; रोगी, पिता को भी टगनेवालख तथा पापौ पती के वशीभूत होकर वीर्यंहीन होनेवाला होता दै । सतत भार्योपभोग पुरुष को क्षीणवीय॑ करता है जिससे पुरुष रोगी होता है । “्द्‌भप्रधानः सुकृतः पित्रदैवतवंचकः | क्षीणभाग्यः सुधर्मां च स्यान्नो नवमे रनौ ॥ स्वेच्चे स्वभे शनौ भाग्ये वेकुटादागतोनरः ¦ राज्यं कृत्वां स्वधर्मेण पुनवैकुटमेष्यति ॥ नवमभावगतः स्वण्हे शानिभंवति चेत्‌ स महेश्वरयज्ञकृत्‌ । अतिशयं कुरुते जयसंयुतं दृपतिवाहन चिहसमन्वितम्‌? | गर्ग अर्थ– जिस जातक के नवमभाव मे शनि हो वह दांभिक, शुभ कर्म्त्‌ , परिता तथा देवता पर आस्था न रखनेवाल; माग्यदहीन तथा धार्धिक होता है । नवमस्य शनि यदि उचमेंवास्वक्षे्मं होतो यह वैकुःड से आकर धर्मपूवंक राज्य करके दवारा वैङकण्ट को जाता है। अर्थात्‌ जातक के पूर्वजन्म तथा पुनर्जन्म दोनो अच्छे होते ई, यदि शनि नवममाव में खण्ही हो तो जातक महेश्वर यज्ञ करनेवाला, विजयी, राजचिहो तथा राजा के वाहनों से युक्त होना है । “धर्मकर्मरहितो विकलांगो दुमतिर्दिं मनुजो विमना सः | संभवस्य खमये हि नरश्य भाग्यसद्मनि शनौ स्थिरचित्तः” ॥ वृहद्‌ थवनज।तक अथे- जिस जातक के नवमभाव मे शनि हो वह धर्म-करम-रहित, किसी अवयव से हीन; कुबुद्धि विमनस्क किन्तु स्थिरचित्त होता दहै |

७७६ चमटकारचिन्तामणि कछ तुरखनार्मक स्वाध्याय

“भवेत्‌ ऋूरवुद्धि स्तथा धममनाशः न तीथं न सौजन्यमेतस्यगेदे । तथा पुत्रश्डव्यादि चिन्तावुरः स्यात्‌ यदापुण्यगो म॑दगामी नर्यः ॥ जागेहवर अथ–यदि पुण्यस्थान अर्थात्‌ नवमभाव में गनि हो तो जातक क्रर स्वभाव का, घमंहीन, तीर्थो मे श्रद्धा ओर आस्थान रखनेवाला, पत्र तथा नौकरयो के लिए चिन्तित तथा सौजन्यरहित होता दै । “मेदप्रज्ञो मंदमानापमानो मंदप्रासिर्मन्दत्रिन्‌ मंदसौख्यः | मन्दस्त्यागी मंदसव्यप्रसूतौ भाग्ये मदे मंदभाग्योमनुष्यः? ॥ हरि ेज अथे–यदि माग्यस्थान-अर्थात्‌ नवम मेँ मंद अर्थात्‌ शनि होतो जातकं मन्दबुद्धि अर्थात्‌ मूखं होता हं । मान-सपमान कौ भावना भी मंद अर्थात्‌ तीत् नहीं होती । धनलाम भी कम होता है । शान मौर सुख भी कम होते है | यह दान मी थोड़ा करता है । यह सच्चादैपसन्द भी कम दी होता ईै-दसका भाग्य मीथोड़ाहो होता है। अर्थात्‌ मंद (शनि) के नवममें होने से जातक सभी प्रकारसेमंददही होता है| | श्रगुसुत्र–अधिपतिः । जीर्णोद्धारकर्ता । _ एकोनचल्वारिंशद्रपे तटाकगो पुर- निर्माणकर्ता । उच्-सवक्षत्रे पित्रदीर्घायुः । पापयुते दुवटे पि्ररिष्टवान्‌ । अथ–शनि के नवमभाव मेँ होने से जातक अयिकार पाता है! पुरानी इमारतों की मरम्मत आदि करवाता हे । रेश्वै वं मं तालाब-मन्दिर आदि साधारण जनता के दित के लिए बनवाता है । यदि शनि उचचवाख्हमें हो तो जातक का पिता दीर्घायु होता है। यदि इस शनि के साथ पापग्रह हे) अथवा यद्‌ स्वयं निर्वहोतो पिताको अणि होता है। । पाश्चात्यमत–इस स्थान मेँ तुला, मकर, कुम वा मिथुन मे ञ्यम सम्बंधित शनि हो तो जातक विच्राग्यासंगी, विचारी, शांत; धीरोदात्त, स्थिरवृत्ति तथा मितभाषी होता है । व्यक्ति कानून, दशनश्चात्र; वेदांत यादि जयिल विष मे खचि रखता है ओर प्रवीणता प्राप्त करता हं । न्यायदान, धार्मिक संस्थार्णँ | विद्यालय आदि मे अपनी पवित्रता तथा श्रेष्ठ बुद्धि से भच्छा स्थान प्रास्त करता दै | देवी धर्म॑संस्थापकों की कुंडली मं अकसर यह रोग देखा गया है-हसी स्थान मेँ पीड़ित दानि होतो व्यक्ति द्वेषी, कज स्वार्थौ, क्षुद्रबुदधि छदी, धर्म॑ क विषय में दुराग्रह तथा मर्मघातक बोल्ने बाला होता ई । इसे विवाद से सम्बन्धित रिदितेदारोँ से हानि होती हे। विदेश मे घूमने से, कानूनी व्यवहारे मे, लम्बे प्रवास से नुकसान होता है । अरन्य प्रकाशन मे असफलता मिलती ३ । इस स्थानम भ दनिहोतो विदेश भ्रमण के लिए अच्छा है । अञ्चम दानि से विदेशमं बहुत वष्टहोताहै। व्यक्ति का खभाव अभ्यासप्रिय) गम्भीर, दूख्ो का तिरस्कार करने वाला होता है। अञ्युभ सम्बन्ध से चित्तभ्रम, भटकना, पागलपन आदिं फल मिलते है । इस शनि से उ्योतिष भादि गूटु यासो म खचि रहती है ।

्षनिफले [र , 3

विचार ओर अनुभव–प्राचीन लेखकों ने नवमभावस्थ शनि के फठ मिश्रित रूप मं बतलार्‌ ै-किंसी ने श्म आौर किखी ने अदयम फक वतलाए ई । अद्चुभ फलों का अनुभव व्रृष, कन्या, वला, मकर तथा कुम मं आता है । मेष, मिथुन, कक, सिह, व्रश्चिक; धनु तथा मीन मं भ फर अनुभव गोचर होते ई ।

नवमभाव का दानिं यदि मेष, सिंह, धनु, मिथुन, कक, वृश्चिक तथा मीन राशियोंकादहो ता भाग्योदय ३६ वें वषं में सम्भावित होता ई ।

इस स्थान के दानि से साधारण लोग -० वे वषं से आगीविका का प्रारम्भ करते है किन्तु उचवरंके लोगांमं आजीविकाका प्रारम्भ २७द वर्ष॑से होता है । यह रानि वुलुर्गो की संपत्ति उत्तराधिकार से प्राप्त करता दहै अौर इसमं कुछ बटोत्री भी होती है । ऊपर सूचित रारियों से अन्य रारियोंमें ूरवार्जित संपत्ति नदीं होती, तौभी ३५ वे वषं तक अपने दही हाथोंसे नष्ट होती दहै। दष््रि होने का.योगव्रनता है। स्थिरता नदीं होती, आदर नहीं होता । पिता कीमृप्यु शी होतौहे) यदि पिता जीवित रहे तो परस्पर व्यक्तिगत वैमनस्य रहता है । माई-बदहिनों मे अनबन होती है । परस्पर ` स्थिति अच्छी नदीं रहती-विभाजन दोता है । विभाजन से स्थिति अच्छी होती है, विवाह के पिध्रय में अनियमितता होती दै। यातो विवाह करवाना पसन्द नहीं हाता अथवा रजिस्टर पद्धतिसे विवाह करकेते है। यदि षरिदेश यात्रा हुई तो विदेशीय युवति से विवाह कर लेते ह । मेषादि राशियों मे शिक्षा पूरी होती .हे-वी° एस-सी, एम-एम सी, भादि उपाधियों प्राप्त होती है । शिक्षक, वकील आटि क्र रूपमे सफल्ता मिलती हे।

यह शानि स्वतंत्र व्यवस्तायवा व्यापारकरच्िमी कूं पर अनुकूल होता है । यह शनि सौतेटी माँ होने का योग करता है|

कक; बृश्चिक, मीन मं यह्‌ रशनिदहो तो छोटे भाइयों केलिए द्म है। अन्य राशियों मे शनि होतो छोटे भाई नहीं रहते ।

द्ह्मस्थानमें डानि के फट– “अजातस्य माता-पिता बाहुरेव वृथा सवतो दुष्ट कमौधिपत्यात्‌ ¦ रानैरेधते कमेगः दामं मंदो जये विग्रहे जीविकानां तु यस्य ॥१<॥

अन्वयः–वस्य क्मगः मंदः ( तस्य ) जीविकानां ( तु) शर्म॑ नैः एधत, ( तस्य ) निग्रहे जयः ( स्यात्‌ ) सव॑तः आधिपव्यात्‌ दृथा दुष्टक्मं ( आचरेत्‌ ) ( तस्व ) माता अजा ( स्वात्‌ ) ( तस्य ) वाहुः एव पिता ( स्यात्‌ ) ॥१०॥

सं< टी<–यस्य कमगः दशमस्थः मंदः तस्य माता छागः मातुः अभावेन तस्थरा एव दुग्धपानं स्यात्‌ । वाहूरेव स्वभुजः एव धनोपाजकतवेन पिता, बाव्ये एव तत्‌पित्रोः नाशोभवेत्‌ इतिभावः तथा भाधिपत्यात्‌ कोष्टपाल्कत्वादेः

०७८ चमरकारचिन्तामणि का तुरखुनाव्मक स्वाध्याय

हेतोः चथा निष्कारणं स्रैतः सर्वेषु रोकेषु दुष्टकमं ताडन दंडनादि हनैः क्रमेण विग्रहे जयः खव॑सुखं एधते वर्द्धते । जीविका जीवनवृ्तिः तु स्वत्पा ॥१८॥ अ्थं– जिस मनुष्य के जन्मल्नसे दशम स्थानमें शनिदहोतो इसे जीविका का सुख धीरे-धीरे मिलता है । अर्थात्‌ इसे बहुत धीरे-धीरे सुख मिक्ता है । भाव यदह कि दशमस्य शनि का मनुष्य धीरे-धीरे जीवन को सुखमय बनाने के किए करिए हए कामों में प्रगति कर पाता दहै; भौर क्रमशः प्राप्त उन्नति से करमशः सुख प्राप्त करता है। तात्पयं यह है कि दशमभाव के दनि से मनुष्य सहसा उन्नत नहीं होता भौर नादी सहसा सुखी ही होता दै | यह मनुष्य युद्ध मे विजयी होता है । यदि यदह मनुष्य दशमस्थ शनि के प्रभावसे अधिकार प्राप्त करताहैतो निष्प्रयोजन ही दुष्टक्म करता है। अर्थात्‌ यदि इस मनष्य को निग्रह-अनुप्रह करने का अधिकार प्राप्त होता है तो यह इस अधिकार का दुरुपयोग करता दै ।-“जो निरपराधी होने से दडा्ह नदीं है उन्हे दंडदेतारै, गौरजो दुटक्मं करने से दण्डाहं दै उनपर अनुग्रह करता है। इस मनुष्य की माता बकरी होती हे भौर इसका पिता इसके दाथ होते । अर्थात्‌ बाव्यावस्था हीमे इसके माता-पिताका देदन्तदहो जाता है । इस कारण यह वकरी के दूध से पल्ता हे ओौर जीवनडृत्ति के लिए अपने बाहुबल काही आधार रखता दै। वरहो पर अजा शब्दसे दृध देने वाले गाए-भैस आदि पश्च म॑तव्य रै । प्राक्तन भारतमेंजो निधन लोग गाएकाैसका खर्व उठाने मँ असमर्थं होते ये, वे बकरी पार्ते ये; क्योकि बकरी इधर-उधर जंगल मे घूमकर पत्तियों से पेट भर छेती थी यौर इसके दिए चारे पर को$ विदोष खर्वं करना नदीं पड़ता था; यह बात पामर प्रसिद्ध दहैकिगाएका दुध गुरणोमे माताकेदूधके बराबर दोतादै तौ भी ग्रन्थकार ने “अजाः को पोता के तुल्य माना दै । कयो? क्योकि बकरी का दूध शीघ्र पाचन मे आता है ओर इसमें ओषधि शुण भी रहता है । बकरी काटेदार भौपिधियों का भी चवर्ण कर ठेती दै जिन्ह गाए आदि पञ्च॒ नहीं खाते ह॑ । य्ह पर अजा माता इव भवति? इव शब्द का रोप हमा है । अथवा (अजा एव माता” एेसा माना जा सकता है । यह पर (रवः कालोप हुआ है। प्राक्तन भारत मे माता अपने ही दूधसे वेको पाल्ती थी-गाए मख आदि पञ्चभों का दघ नही पिलाया जाता था-पाउ्डरकादूधतो होताद्ीनहींथा। वचपनमें माता की मृघ्यु एक भारी अनर्थं संकट माना जाताथा। गरहस्थी चलनेके ए पिता को धनोपार्जन करना होता था यदि वचपनृ में पिताकी मृत्यु होतीतो गहस्थी के लिए घोर संकट दहोताथा। मातां अनपदट्‌ होती थीं-नौकरी करने का टन न था-इसलिए छोटी उमरमें ददी वेच को अपने पाओं प्रर खड़ा होना डता था-मौर अपने शुजच्रल्से ही घर गृहध्थी चलने के लिए धन कमाना

२९ शनक ७४९

होता था। दशमभावमे शनिके होने से बचपनमें दी माता ओर पिता की मृत्यु होती है । अर्थात्‌ दशम शानि माता-पिता के लिए मारक है । आजीविका के लिए भी यह शनि शीघ्र प्रगति होने नहीं देता। ल्डई-क्षगडे मेँ विजय अवदय दिलाता दै। अधिकार भी दिलाता है-परन्त॒ श्नि की अंतःप्रेरणा से मनुष्य इसका दुरुपयोग करता है । जिससे अपकीर्ति होती है । यह समुचित

तात्य है ॥१०॥ ` तटना– “यजा माता बाहुजंनक उत कल्याणमभितः

दानौ राज्यस्थानं गतवति जयस्तस्य समरे । प्रसुत्वं कोषस्य क्षितिपतिण्दे दुश्दमनाधिकारो यस्य॒ स्वं नदि मिलति प्ार्जितमपि ॥ जीवनाय दैवज्ञं अथे– जिस मनुष्य के जन्म समय में शनि दशमभावमें होतो उसकी माता बकरी होती है । अर्थात्‌ बास्यावस्थामें ही वह मात्रसुखसे दीनो जाता है । उसका अपना बाहु दी उसका पिता होता है । अर्थात्‌ वह पितरसुख से दीन हो जाता दै तथा वह सपने पराक्रम से-अपने मुजवरू से ही सब कुछ करनेवाखा होता है । उसका सवंप्रकार से कल्याण होता है| राजा के धरते इसे कोषाध्यक्च का पद प्राप्त होताहै। इसे दुष्टं का दमन करनेके छ्िए द्ण्डाधिकार अर्थात्‌ न्यायाधीश का पद मिख्ता है। अर्थात्‌ यह मैजिस्टरेट बनाया जाता है आौर इसे चोरो, दगावाजों आदि को कारावास आदि दंड देने की शक्तिः प्राप्त होती है। परन्ध॒ दस पूवजों का धन, पूर्वजं की सम्पत्ति नदीं मिलते है । अजा ओर मातामें मतत्वरूपेण कोई समानता नहीं है, माता मे जननीत्व दै । किन्त यजाम वच्चे के किए इसका अभाव दै | दुग्धदातृत रूप सामान्य घर्मं दोनों मं अवद्य है । माताके दूधसे वच्चे का पालन-पोषण होता ईै- अजा (बकरी) के दूघसे मी बच्चे का पालन-पोषण दहो सकता है भौर होता भी है-इस प्रकार दोनों मँ समानता अर्थात्‌ सादृद्य है । इस भाव को लेदर “अजातस्य माता? कदा गया है ओर सुसंगत है । सादद्यवाचक शग्द्‌ का अभाव छन्द को ठीक रखने के लिए है-एेसा प्रतीत होता है । इसी प्रकार पिता मे ओौर जा मे जनकत्वरूपेण कोई साह्य नहीं; किन्तु इन दोनों में रक्षा कर्वत्वरूप मे साद्य है । पिता धनोपा्जन से बच्चे की मवद्यकताभों को पररा करता इभा बच्चे की र्चा करता है । इसी सूप मे मनुष्य की सुजा भी रक्षक होती ह । इस तरह रक्षकत्वरूप सादृश्य ध्म है, किन्तु इस सादय क्रा वाचक शब्द्‌ कोड नहीं है, भौर इसका कारण छन्द है | . अद्यतन भारत म शक्षितिपतिश्ेः का अथं गवनैमेट करना ठीक होगा वर्योकि इस समय राजा-महाराजा आदि का चलन नहीं रहा है । शक्ितिपतिः दन्द से जममींदारः भीष्य जा सकता दै। परन्तु जमीदार दंडाबिकार देने मे असमथं है । इसी तरह वादी-प्रतिवादी के विषय में न्याय करने की श्यति

७९९० चम र्कार चिन्तामणि का तुलनात्मक स्वाध्याय

जो न्यायाधीश मे निहित है, जमौंटार नदीं दे सकता है-अतः क्चितिपति भूमि- पति-भूपति यादि दाब्दांसे गवनंमेटका ग्रहण करना उचित होगा। जिस समय ज्योतिषम्न्थों का निर्माण हमा था उस्र समय राजा भूमिपति आदि गन्दा से प्रयुशत्ति.सम्पन्न-निग्रहानुग्रह शाक्तिं सम्पन्न व्यक्तियों का ग्रहण होता था; अतएव उयोतिंष ग्रन्थों मे राजयोगो का भारी महत्व था। समय परिवर्तन- शीर है-सम्रयानुसार ही लक्षणा आदि वृत्तियां से शब्दों का अर्थं करना उचित होगा| “शाहमकाने ओहट्व्वेषु दश्चापते च मानवः दाहः । अथवा भवेन्‌ मुशीरः खृशखुट्कः सुती गनी नेही ॥ खानखाना अथै-यदि दृशममावमें शनि हो तो मनुष्य राजा अथवा राजमंत्री, सवंदा खुदी, पुण्यका्यं करनेवाला; माननीय भौर स्नेह करनेवाला होता है । यह फल तव होता दहै जब दानि दशम दहो भौरश्निकीददीदद्ा दो “राज्ञः प्रधानमतिनीतियुतं विनीतं सद्प्रामच्रन्द पुरमेदनकाधिकारम्‌ | कुर्यान्नरं सुषतुरं द्रविणेनपूर्णं मेपूरणे दहि तरणेस्तनुजः करोति ॥ महेश देवन्न ` अर्थ- जिख मनुष्य के जन्मल्य से दद्म स्थानम शनिदह्ो तो व राज्ञा का मत्री, नीतिज्ञ, भौर नग्रस्वमाव होताहे। उसे श्रेष्ठ ग्राम भौर नगर म मेद न करने के अधिकार प्राप्त दाते है । यह चठुर भौर धनाढ्य होता है । ““सुखलौर्यभाक्‌ खे ॥ आचायं वराहमिहिर अथ–यदि जातक के दशमभाव मं इनि हो तो वह सुखी सौर यर दहोतादे। _ “बहू कुकमरतं कुपुत्रं दौमनस्यम्‌ ।।?> व शिष्ठ अर्थ–यदि शनि दशमं होतो जातक दुराचारी, दु्ुदधि तया दुष्ट प्रों से युक्त होता दै । द्दुष्टपुत्रः से एेसा पुत्र मन्तव्यदै जो पिता की आज्ञा कापालनन करे, समृद्धनदह), धार्मिक न हो ओर मूखं हो । चरसेको गुणी पुत्रो न च मृखंशतान्यपि । नीतिसुभाषित । दामे घनलामं युखं जयम्‌ । माने “च ` मीने यदि वाकौपुत्रः संन्यासयोगं प्रवदंति तस्य ॥ परार अथे- यदि शनि ददयमभाव में हो तो जातक धनी, सखी तथां विजेता होता दै। दशामभाव का शनि यदि मीन राशिमें होतो न्यास का योग होता है । (“मवेत्‌ बन्दपुर प्रामपतिर्वादंडनायकः। प्रा्ञः चरो घनी मंत्री नरः कम॑स्थिते शनौ ॥ सेवार्जित्तधनः कूरः कृपणः शत्रुघातकः | जंघारोगी नीचद्यत्रुराशिस्ये कर्मगे रनौ ॥ गर्ग

दरानिफर ७९११

अथ-यदि शनि जन्मल्य से दशम हो तो जातक बुद्धिमान्‌ ; चुर, धनी, यौर म्री होता है। जातक नगर, गांव भौर जनसमूह का नेता होता दै। यदि इस भाव का शनि नीचवा शतरुराशिमं होतो जातक नौकरी से घन कमाता है। यह क्रूर ( बेरहम ) कंजूस तथा शतुधातक होता है। इसकी जंघा में रोग होतेह । “शनौ कम॑गे पितृधातती नरः स्यात्‌ परं मावरकषटं कथं देहसौख्यं । तथा वाहनं मित्रसौख्यं कुतः स्यात्‌ ध्रुवे दुष्टकमौ मवेत्‌ नौचडक्तिः ॥» जागेश्वर

अ्थे- यदि जातक के दशमभाव मे शनि होतो यह पिताके छर घातक तथा मारक होता रै । तथामाताके लिए भी कष्टकारक होता है। ( दूसरे गरंथका्यो के अनुखार दशमशनि, माता-पिता दोनों का मारकं है) जातक को शरीरषुख, वाहनस॒ख, मित्रौ का सुख नदीं मिलता है। यह दुराचारी नीचकर्मकत ओर नीचवृत्ति से युक्त होता हे |

‘“राज्ञः प्रधानमतिनीतियुतं विनीतं सद्प्रामब्ेदपुरभेदनकाधिकारम्‌

य्या रं सुष्वतुरं द्रविणेन पुणे मेषूरणे हि तरणेस्तनुजः करोति ॥”

ब्हुद्‌ यवनजातक

अथे–यदि सुपुत्र शनि दशमभाव में होतो जातक राजमंत्री, बहत नीतिमान्‌, तथा नम्रस्वभाव होता है। अच्छे गव, नगर भौर जनसमूह में प्रमुख अधिकारी दोता है। जातक. चतुर भौर धन से पूणं अर्थात्‌

धनाठ्य होता ह । ॥ । | “वयुद्धियुक्तं पूर्णवित्तं मनुष्यं प्रामाधीशं राजमान्यं करोति)

स्वोचस्थो वां स्वास्थस्थो वा विदोषात्‌ रोषस्थशचेत्‌ वेरिभीत्यं शनिश्च ॥ हरिवंश अर्थ दशमभाव का शनि यदि उच वा स्वग्ह में हो तो जातक मतिमान्‌, धनी गांव का मुखिया भौर राजन्य होता हे । यदि इनसे अन्य राशिर्यो मे ठो तो जातक को शत्रुओं से भय रहता हे । मत्री वा व्रृपतिः धनी कृषिण्रः यरः प्रसिद्धोऽप्बरे | सत्रेश्वर अ्थै–यदि जन्म ख्यसे दशम शनि हो तो जातक राज अथवा मंत्री, धनी, शूर, विख्यात तथा चेती-बाड़ी मँ रुचि रखनेवाला होता है । “धनवान्‌ प्राज्ञः द्यूरो मंत्री वा दंडनायकों वापि । दशमस्थे रवितनये वृं द-पुस्ग्राम नेता च ॥ कल्यागवर्मा अथे-शनिके दशमभावमे होने से जातक धनी, बुद्धिमान्‌, यर, राजमंत्री वा सेनापति होता है। यह्‌ नगर, गांव भौर जनसमूह कानेता होता दै । सत्‌ क्या है भौर गसत्‌ क्या हे–इसका विचार जिससे हो उस बुद्धि का नाम प्रज्ञः है, एेसी प्रज्ञा वाला जातक ध्ाज्ञः होता है। दंडनायकं कां अर्थं ‘नजिष्टरेट भी किया जा सकता है | न्यायाधीर भी असंगत नदीं ।

(“मदे यदा दशमगे यदि दंडकत मानी धनी निजकट्प्रमवश्च शूरः निवासः ॥ चद्यतायथ

न्न

९१२ ‘वमस्कछारचिच्वामणि का तुरख्नास्मक स्वाध्याय

अथेः–यदि जन्मल्य से दश्शमस्थान मे शनि हो तो जातक धनी, मानी, श्र, व्यपने कुर मे प्रभावशाली ओौर शरेष्ठ, तथा शासक होता है । यह शनि संन्यासयोग भी करता ई ॥ “शनैश्वरे कर्मणे स्थितेऽपि महाघनी भृत्यजनानुरक्तः प्रासप्रवासे उपस्यवासी न शातुवगाद्‌ भयमेति मानी ॥ मानसागर अथे–यनि शनैश्चर क्मभाव-मर्थात्‌ दद्यमभाव में हो तो जातक धनाढ्य होता दै । यदह भ्रत्यवगं में प्रेम रखता दै-अर्थात्‌ नौकरो से मेम तथा विश्वास से काम करवाता है। विदेश में जाकर राजप्रासादों मे निवास करता है-र्थात विदेश मं मान-प्रतिष्ठासे रदताडहै। इसे शत्रुओं से भय नदीं होता दै ओौर यद मानी होता है । ‘“कर्मभवे सू्॑पुत्रे कुकर्मा धनवर्जितः । दयासत्यगुणेर्दीनः प्वंचरोऽपि भवेत्‌ सदा? ॥ काशिनाथ अथं–रानैश्वर यदि दशमभावमेंद्ोतो जातक दुराचारी, निर्धन, निर्दय, प्वञ्चल तथा अड बोल्नेवाला ओर गुणदीन होता है । ^धप्राज्ञः प्रधानमतिमान्‌, समयो विनीतो म्रामाधिकारसदहितः सघनोऽम्बरस्येःः ॥ जयदेव अथै- यदि शनि दशमस्थ हो तो जातक बुद्धिमान्‌ , प्रधान, नस्र, गौत का अधिकारी, धनी भौर भययुक्तं होता है । भृगुसुत्र–प॑ष्वविंशतिव्षं गङ्ञास्नायी । अति डन्धः । पित्तशरीरी । पाप- युते. कर्मविध्नकरः । श्चभयुते कम॑सिद्धिः । केन्द्रे मंदे परूत्रिंशदुपरि भाग्यबद्धिः । जनसेवकः । मित्रवृद्धिः । समाजकार्यं राजकायं च कुशलः । सन्मानलाभश्च 1 अथ- यदि शनि दजश्चमभावमेंदहोतो जातक २५ वै वषं गङ्खगास्नान करता है । लोभी ओौर पित्तप्रकृति होता हे । रानि के साथ पापग्रह होतो कामोँमें सकावटै आती ्दै। श्चुम अहसाथर्मेहोतो काम सफल होतेह । शनि यदि केन््रमे होतोरध्वैव्ष॑के बाद भाग्योदय होता है। जातक खोकसेवा करनेवाला, समाज के लिए काम करने तथा राजकाज करने के ङ्ए योग्य ओौर निपुण होता है । इसके बहुत मित्र होते है भर यद आदरपात्र होता दै । पाश्चात्यमत-यह इनि रारिवली-तुला, मकर, कुम्भ या मिधुनमेंदहो, या अन्य अ्रदोंसेश्चुभ संबन्धित होतो सत्ता; अधिकार, तथा माम्यके लिए उत्कषं कारक होता है । दीर्घं उद्योग, परिम; महत्वाकांक्चा; प्रामाणिकता, दुरदृष्टि, व्यवस्थितता सदि गुणो से ये रोग सहज ही महान्‌ पद्‌ प्राप्त करते है । दूसरों की मदद के निना पने दी रुणों तथा परिश्रम से इनकी उन्नति होती है। अधिकारपद, बडे उद्योगों के संष्वाखक, वैको के डाक्टर मादि उत्तरदायित्वपूणे पदों के लिए योग्य व्यक्ति होतेह । दशम मे बरुवान्‌ श्नि कानून के क्षे म अधिकार देता है । सबजज, जज, हाईैको के जरिटिस भादि

क्रनिषफर ७५३ -

होते दै । पीड़ित खनिसे प्राप्त अधिकारका दुरुपयोग करते ह । दुराचार टे षडयंत्र, अपामाणिक व्यवष्टार से सत्ता प्राप्त होती है, अतः उनका अधः- पात भी जब्दी ही होता है। इष॑, नेपच्यून, सूयै, मङ्गक या गुड से.अ्चम संबन्धित होने पर यह शनि बहत अश्चुम होवा है । बचपन मे माता-पिता का मृप्यु होना, बार अवस्था में दी स्थावर संपत्ति नष्ट होना, नौकरी मे असफठ होना, वरिष अधिकारी से ञ्चगड़ा होना, उचपद छोड़कर दरक पद पर नियुक्त होना, सामाजिक काम मे नुकसान दोना आदि फर पीडित शनि से प्राप्त होते ह । |

जीविकाके किए कठोर परिभम, ओर कष्टदायक काम करने पडते ह | वेइजती के अवसर बार-जार आते ई । स्वतंत्र व्यवसाय मे दिक्कतं आती ह। दशमस्य शनि से रवि अथवा चन्द्र॒ अशुभ संब्रैधघ मेहो तो अञ्चुभ फल बहुत तीन्र होते र्दै। यह योग हमेशा असफञ्ता, विध्न, दारिद्रय, अपमान, भौर अपकीतिं का कारण होता है। दशम में मेष; कके, बृधिक;, तथा मीन में शनि के फर बहुत अनिष्ट होते है| ।

विचार ओर अलुभव-दशमभावरिथत शनि के फठ मिभित ई । बूत से प्राचीन टेखकोंने श्चमफल ही बतलखएरह। इन श्युम फलोका अनुभव मेष्र, सिह, धनु, मिथुन, ककं, दृ्चिकः तथा मीन राशियों मे आता है । बयिष्ट, क। रिनाथ,. नारायणम ने भश्चुम फठ बतलए ह भौर इनका अनुभव इष; कन्या, तुला, मक्र तथा कुंभ मेँ मिल्ता है । |

दशामस्थ शानि माता-पिता का वियोग कराता है । यह वियोग मृष्युरूप मेँ अथवा गोदीपुत्र बनकर दूसरे के धर जाने के रूपमे होता है। अथवा विदेश मे जाने से भी वियोग होता है। बाप-बेग एकतर नहीं रह सकते ओौर यदि रहै तो पिता को सतत कष्ट का अनुभव होता है । व्यवसाय बदलना, नुकसान होना, कारोवार का बन्द हो जाना, बेकार रहना, कजं न चुका खकना ओर कारावास भादि बातें होती ह ।

नौकरी दो तो पदावनति ( [26०० ) होना, सस्पड होना, निवासित होना, फौजदारी से जेल भुगतना; असाध्य रोगों का होना आदि कष्ट होता दै ।

दशमस्य शनि का वालक बड़ा होने पर माता-पिता से वैमनस्य रखता है । इसकी उपजीविका नदीं चलती । वेकारी का शिकार होता है । अतएव अप- मानित भी दोतादहै। पत्रक स्पत्ति नहीं मिख्तौ-यदि मिली तो जब तक नष्ट- श्रष्टन दो किसी काम में सफलता नदीं मिलती । पिता-पुत्र एक साथ प्रगति नदीं कर पाते । विदेश म भाग्योदय भौर प्रगति होते .ई-जन्मभूमि मे भाग्योदय नहीं होता । दशमस्थ दानि यदि मेष; शह, धनु, वा मिथुन मेहो तो जातक प्राध्यापक, अधिकारी तथा गूदुशास्ं का अभ्यास करता है । वृष, कन्या, मकर, कर्क, वृश्चिक; मीनः; वला ओर कुम मेँ जातक संन्यासी, धर्मप्वर्तक, ज्योतिषी आदि द्योता है । मेष, सिह, धनु, मिथुन) ककं वृधिक तथा मीन मेँ शनि हो

७५५७ चमस्कारच्िन्तामणि का तुख्नास्मक स्वाध्याय

तो जातक एम० एञ आदि-उपाधिर्यो प्राप्त करता दै न्यायविभाग मे जज आदि का अधिकार प्राप्त करता है। इष, कन्या, वुख तथा कुम मे शनि होतो जातक ठेषखक होता है । परोपदेदो पाण्डित्य ओौर स्वयं अकर्मण्य होना जातक का स्वभाव होता है) दो विवाद से संभावित होते, किन्तु खीसुख का अमाव, पुर्नोँका अभाव; वा पुर्न से सुख का अभाव होता दहै। गोदीपुत्रसे पुत्रयुख प्रास होता है । दशमस्थ शनि का जातक िषयासक्त रहता रै । शुक्र ओर चन्द्रका यदि अ्यभमसव्र॑घदहोतो जातक किसी अवस्थामेबड़ीदीसे अवैधवंवंध जोड ङेता है । (वयसि गते कः कामविकारः इस उपदेश के विख्ड ` बृद्धावस्था मं भी इसे स्रीयुख कौ इच्छा बनी रहती है। दशमभावस्थ शनि के प्रभावमे आए दए दो प्रकार के खोग देखे जाते ईै- ( १ ) अत्यन्त कामासक्त; कामथाख्र करे उपदेशक । ( २) वेदान्ता क प्रवर्तक । इन दोनों प्रवृत्तियों के रोग कीर्तिं ओौर सम्मान पाते ईै-इन्दे धन भी निरता है । ठचमस्थ रानि अश्चमता ओर अति विपत्ति का कारण होता है- कष्टमय जीवन, जीविका की तंगी, पत्रक संपत्ति कान मिलना, नौकरी मे बहुत उतार षदाव बहूतवार परिवतंन आदि उखके साधारण फठ ह | दश्चमस्थ शनि मेष, सिद, धनु; मिथुन; ककं, बृश्चिक वा मीनमें दहो मौर रवि चन्द्र से केन्द्र योग करना हो तो सांखारिक कष्ट बहुत होते है | | दानौ व्योमगो विंदते किच माता युखं शेवं टृदयते किंतु पित्रा | निधिः स्थापितो वापिता वा कृषिश्च प्रणदयेत्‌ ध्रुवं द्दयतो देवतो वा॥१५॥ अन्वय–म्योमगे शनौ ( तस्य ) माता ष कि सुखं विन्दते, पित्रातु कि दोशवं उदयते, ( पित्रा ) स्थापितः निधिः, स्वयंवा पिता वा कृषिः च द्यतः देवतः वा धुवं प्रणद्येत्‌ ॥ १०॥ सं< टी<-सुबोधाथं दश्षमस्थशनेः मतांतरमादह । व्योमगे दशमस्थेशनौ माता सुखं धरिदते, किं पित्रा जनकेन च शैशवं शिशोः भावं करीडनादि दइ १ते किं पितु न इव्यथः । तथा तत्‌ पित्रा स्थापितः निधिः द्रव्याकरः, स्वयं वापिता सुजीज्ञैः उत्मादिता कृषिः च द्यतः दद्यनिमित्तेन स्वचक्र-परचक्रादिना, दैवतः जलाग्यारि मयेन वा ध्रु निश्चितं प्रणयेत्‌ ॥१०॥

अथ–दशम शनि का फल, जो दूसरे भाषवार्यो के मतसे है । प्रंथकारने यदह पर संग्रहीत किया रै-

जिख मनुष्य के जन्मल्ग्र से दशमस्थान मेँ छनि हो उसकी माताकोक्या कोई सुख होता हं १ अर्थात्‌ नहीं । बास्यावस्थामें ही माता की मृख्युदहो जने से किसी युख की संभावना नदी हो सकती दहै। इसी तरद बच्चे के पिताको बालक्रीडा देखने का क्या कोई सौभाग्य प्राप्त होता है १ अर्थात्‌ नहीं, क्योकि पिताकाभीदेदांत पदे ही-बवपनमेदहीहो जाता रै अर्थात्‌ दशमशनि

शनिशरक षषम

भाता-पिता के दिए मारक होता है। पिता कासंग्रह किया हुआ धन भौर उसकी बोई हद खेती प्रस्यश्च आपत्ति ( राजदंड आदि ) से अथवा बुरे भाग्यसे, जखकोपः अग्निकोप द्वारा निश्चय हयी नष्ट होती है। दश्चमभावस्थ शनि के जातक को पेठक धन-पेतृक-सम्पत्चि का कोई सुख नदीं मिल्ता है, क्योकि वह सम्प्रति राजदण्डसे नष्ट हो चुकी होती दहै। पिता दवारा अच्छे बीज डालकर योद हुदै सेतीका खभमभी नहीं होता है क्योकि समय पर जलसिचन भादि नदीं होता । दूसरे कारण खेती के नष्ट होने में-अतिवृष्टि-मनाब्ष्टि, यक्म- मूषक्र; पंछी सौर राजार्भमो का परस्पर युद्ध-सेना ( पदाति ) भौर धोडे-हाथी आदि पञ्युओं से पद्दल्ति होना आदि होते है; अग्निकोप से खेती की उपज का मस्मीभूत हो जाना यादि ये सब हदद्य-सदश्य कारण षि-उपभोग में वाधक्र होते ्है। इस तरह दशमभाव का शनि सभी तरह भाय मुसीबतों का कारण होता है।

दशामभाव के पर्याय नामो में ्योमः भी एकनाम है । वापिता “वप्‌, घातु काक्तान्तरूप है । त्वष्वक्रः से तात्पयं कषिकार का अपना आटस्व-यनवधानता समय पर पानौ से सिञ्चित न करना-गोड़ी न करना, घातक कीड़ को मारने के लिट ओषधि का सिंचन न करना आदि।

‘परष्वक्रः से तात्प (सात ईतियोः का है-समय पर वर्षा का अमाव अथवा वर्धा का लगातार पड़ते रहना आदि-आरि सातईतियोँ षिनाशक है | लाभभावगत शानि के फट– त्थिरं वित्तमायुः स्थिरं मानसं च स्थिरा नैव रोगाद्यो न स्थिराणि। अपत्यानि शूरः इातादेक एव प्रपंचाधिको खाभगे भानुपुत्रे ॥१९॥

अन्व य–भानुपुत्रे भगे ( तस्य ) वित्तं स्थिरम्‌, आयुः स्थिर, मानसं च ( स्थिरं स्यात्‌ ) तस्य रोगादयः रिथिरा न (स्युः) (तस्य) अपत्यानि स्थिराणि न ( मवंति ) ( सः ) शतात्‌ प्रपष्वाधिकः ( जायते ) एकः एव शरः (च) ( स्यात्‌ )॥ ११॥ `

सं< टी<- लाभगे भानुपुत्रे वित्तं स्थिरं निश्चलम्‌ , आयुः स्थिरं, बहुं, मानसं च स्थिरं स्वस्थं, रोगादयः नैव स्थिराः मारोग्यं स्वात्‌ इत्यर्थः, अपत्यानि सन्तानानि न स्थिराणि, संतानशोकः स्यात्‌ इतिभावः । शतात्‌ शतसंख्यमनुष्ये- भ्योपि प्रपष्वाभिकः रागदधेषोपायैः विशिष्टः, एकः मुख्यः चूर स्थात्‌ स्युरिति

यथार्थं रोषः ॥ ११॥ अथे–जिस मनुष्य के जन्मट्गन से एक्रादशमाव मे शनिहो वह सदैव

धनवान्‌, दीर्घायु, शूर ओर स्थिरबुद्धि बाला होता है। इसे दी्ध॑काल स्थायी. रोग नदीं होते-भर्थात्‌ इसे रोगभी होते ट चन्ुशीप्रहीशन्तभीष्टो जाते ह ओर जातक शौघ नीरोग दहो जाता है। इसकी सन्तान स्थिर नहीं रहती अर्थात्‌ सन्तति का नादश्च होता है। जातक सैकड़ों मनुष्यों से अधिक प्रप॑ची

( जाली ) होता है अर्थात्‌ रागदेषादि मेँ निपुण होता है।

७५५ वमस्कारचिन्तामणि का तुरुनात्मक स्वाध्याय

तुखुना–“यदा खाभस्थानं गतवति शनौ यस्य ननने; स्थिरं वित्त चित्तं स्थिरमपि चिरजीवति च सः। प्रपचस्याधिक्य रणसुविच दयुरत्वमधिकं; कुतो रोगाभोगः कुत उत सुतस्तस्य भवति ॥ जी वनाथ अथै- जिस मनुष्य के जन्मसमय मेँ रानि एकादद्यभाव में हो तो उसका धन, चित्त आौर आयु स्थिर होते दै। अर्थात्‌ वह सदेव धनी, स्थिरवुद्धि ओर चिरकाल तक जीवित रहनेवाला होता है। यह अधिक प्रपवी ओर संम्राममं विदोष पराक्रमी होता है । यह नीरोग होता दै। किन्तु इसे पुत्रसुख नदीं होता अर्थात्‌ यदह अपुत्र ही रहता दे । प्रभूतधनवान्‌?” ॥ आचाय वराहमिहिर अ्थ-जिस मनुष्य के छाभाव में शनि हो वह्‌ वदत धन-सम्पन्न होता दै | विजः सुकीर्तिम्‌”? ॥ वशिष्ठ अथे- जिसके एकाटश मे दानि हो वह यशस्वी होता है । ८कादरो धनानां च सिद्धि मित्रसमागमम्‌? ॥ पराशर भ- जिसके एकादश मे शनि हो वह धनी होता दै गौर इसे मित्रो की संगति मिलती है । (स्थिरसम्पत्तिभूक भीच्यूरः लित्पान्वितः सुखी । निर्लोभश्च शनौ केचित्‌ मृतप्रथमजीविकः” | गर्भ अथं- जिस मनुष्य के छाभाव मं शनि हो उसकी सम्पत्ति-जमौन आरि स्थिर रहते ई । यह चूर, शित्प से युक्त, सुखी एवं लोभदहीन होता है । इसकी पदिली सन्तान मृत होती हे ‘‘साहवदर्द नेकः रीरींसखुन स्तवंगरो ग स्यात्‌ । याप्तमकराने जोदह्दैशाः साविरो रिपुहन्ता ॥ खानखाना अ्भे–यदि शनि एकादशमावमें होतो मनुष्य बड़ा दयाल, उपकारी, मधुरभाषी, दुबला, संतोषी यौर शचुज्ञय होता ह । “ककरष्णाश्चानमिन्द्रनीखोणकानां नानाषंचदूवस्तु द॑ता्रलानाम्‌ | प्रां कुर्यान्‌ मानवानां बलीयान्‌ प्रात्िस्थाने वतमानेऽकसूनौः ॥ महेश अर्थ-जिस मन॒ष्यके एकादरभावमे वलीशनिस्थित हो तो इसके घर पर कालेरद्ध के घोडे, ओर नीलेरङ्ध की इन्द्रमणिर्यो, उनके सुन्दरवस्न, ौर हाथी होते है। मोगी भूपतिटन्ध वित्तविपुलः प्राति गते भावजे । „ दासौ दास ङृषिक्रियाजित धनं धान्यं समृद्धं शनिः? ॥ वेयनाथ अथं– जिसके एकाट्शभावमें शनि हो वह भोगी होता है अर्थात्‌ इसे नाना प्रकार के उपभोग प्राप्त होते ्ह। यह राजाकीङपा से प्रभूत धन प्राप्त करता है । इसके घरपर दास-दासि्योँ होते ई । इसे खेती से धन-धान्य मिक्ता है । मौर यह समृद्ध होता है ।

कनिफटे ६. 8९१ ॐ

“ङृष्णाश्वानामिन्द्रनीखोणंकानां नानापच॑चद्‌ वस्तुदन्तावखानाम्‌ । प्राचि कुर्यान्‌ मानवानां जटीयान्‌ प्राप्षिस्थाने वत॑मानोऽकसूनुः” ॥ बृहद्‌ यवनजातक ` अर्थ– जिसके एकादशभाव मे बल्वान्‌ शनि दो उसे काटे घोडे; इन्द्र

नीलमणि, ऊनके बने हुए नाना भ्रकार के वस्र, विविधवस्तु-हाथीदोत आदि प्रात होते । |

कृष्णाश्चानामिन्द्रनीरोर्णं कानां नानाचंचद्‌ वम्तुदन्तावलानाम्‌ । प्राि कुर्यान्‌ मानवानां बखीयान्‌ प्रा्तिस्थाने बतंमानोऽकसूनुः ।॥» दुण्डिराज अ्थ–यदि एकादशभावमे शनिदोतो श्यामवर्णं के घोडे, नौलमरक ऊन, अनेक सुन्दर वस्तु, भर हाथो का छाम हेता हे। सूर्यात्मजे चापगते मनुष्यो घनी विमृश्यो बहूभाग्यभोगी । मितानुरागी मुदितः सुशीलः सजाकभावे भवतीतिरोगी ॥”> भानक्षागर अथ–यदि शनि लाभभाव मे हो तो मनुष्य धनी, विचारशील, भाग्यवानः भोगी, तथा संतोषी होता है अर्थात्‌ थोडेमं ही सन्तुष्ट रहता है। यदि ‘‘छीतानुरागीः पाठ स्वीट्कत दहो तो शशीतप्रियः एेसा अथं करना होगा । इसे चचपन मेँ बहुत रोग होते ै। “धनं सुस्थिरं दन्तिनस्तस्यगेहे भयं वात्रिना जायते देहदु्खम्‌ । न रोगा गरिष्टास्तदगे कदाचिद्‌ यदाखाम गोमन्दगामी जनानाम्‌ ॥* जागेहवर अथे–जिसके लयभस्थानमे शनिदहोतो इसके घरपर हाथी शूलते है | इसे आग से भय भौर शवीरमं दुम्ब होता है । किन्तु इसे बड़े रोग नहीं होत, अर्थात इसे राजयेग नदीं होते । | ““छायात्जेतु लमस्थे सवेविद्याविरारदः । खरेष्रूमदिषिः पूरणा राजमान्योऽश्चचिर्भवेत्‌ ॥° काशिनाथ अथे–जिसके लाभमं शनिदहोतो वह सब विद्याभोंमें प्रवीण, राजमान्य किन्तु अपवित्र होता है इख्के धर मे गधे ऊंट-मैस मादि पञ्च॒ बहुत होते ई । अर्थात्‌ कभस्थ शनि की कृपा से इसके धर पञ्चुधन बहुत होता हे । ८“कुर्ष्णोर्णिकाश्चगजनील वखाढ्यतास्यात्‌ । सद्वस्तुता भवति लाभगतंऽकंसूलौ ॥* जयदेव अर्य-लसभभाव मे शनिके होने से मनुष्यके घरपर उन, धोड़े हाथी, नीली वस्तु तथा चेती की उपज मादि खृत्र होते ई, ओौर इनसे य समृद्ध होता हे। . (्रृथ्वीपालं मानलाभं धनं च विन्रामं पण्डितेभ्वःप्रसूतौ । नानाला्म स्तो मानवस्य खभस्थाने मानुपुत्रो विदध्यात्‌ ॥” हरिवंश अ्थे-जिसमनुष्य क जन्मसमय्‌ लामस्थान में शनि हो तो इसे राजा से सम्मान प्रास्नि धनलखाभ पण्डितं से षि्याटाम अर मभी कद प्रकारके खभदहतेर्है। “्बहवायुः स्थिरविभवः दूरः शित्पाश्रयो दिगतगेगः । आयम्ये भानुमुते धनजन संपदूयुतो मवति ॥ कत्याणवम

७५५८ चमरकारचिन्तामणि का तुरख्नाद्मक स्वाध्याय

अथे–यदि दानि लामभावमें होतो मनुष्य दीर्घायु, सदेव धनवान्‌,

यर, नीलः तथा परिवारवाख होता है। यह स्प दारा अपनी आजीविका चलता है |

““वहयायुः स्थिर सम्पदायसहितः श्रो विरोगोधनी 12 भन्त्रेहवर

अथं- जिसके ाभस्थान में चनि हो वह दीर्घायु, सैव धन-भौर सम्पत्ति- युक्त यर, ओर नीरोग होता है।

श्रगुसूत्र–“वहूघनी । विघ्नकरः। भूमिलाभः । राजपज्ञितः। उच्चे स्वक्षेत्र विद्वान्‌ महाभाग्ययोगः । वाहनयोगः |

अथे–लामस्थान के शानि से बहुत धन मिलता है। काम मेँ विघ्न होते ह । राजदयारसे मान तथा भूमिका लामहौतारहै, लभभाव का शनि ठा, मकरवा कुम्भमेंदहोतो मनुष्य विद्वान्‌; बहत भाग्यवान ओौर वाहन सम्पन्न होता है । |

पाश्चात्यमत–यह शनि ( लाभभावर्थित शनि) तुला, मकर वा कुम्भ मे जभ सम्बन्धित हो तो आयु के उत्तयाधं में सांप्रतिक सुख वहत च्छा मिटता है। धनप्रात्ति का प्रमाण यच्छाहोता हे ओौर संचयमभी होता रै) मित्र कम्‌ होते दै । यह रानि संतति के लिए अनुकरूर नहीं है। सरी बन्ध्या होती हे, अथवादेरसे संतति होतीदहे,या होकर नष्टहोतौदहे। संततिसे कष्ट होता दै । इस स्थान मं पीडित शानि के कारणमत्र से नुकसान होताहे। किसी की जमानत छेने वा पैसे उधार देने से नुकसान होता हे।

इस शनि से रवि-चन्द्र का अथ्भयोगहोतो दादि योग होता दै । यह पीडित शानि चरराशिमेंहोतो मित्रोँके कारण सर्वनाश्च होता है। स्थिरादि मेहोतो पृणं ववम बहुत कष्टहोतादहै। द्विस्वभावरा्िमें होतो सभी माश मग्र होकर सर्वत्र असफलता ही प्रास होती है । इस यनि में दिए दए कजं कभी वसु नहीं होते | |

विचार ओर अनुभव–प्राचीन ठेखकों ने लामभावगतशनि के पफल बहुत शुभ बतलाए्‌ ह । इनका अनुभव मेष, मिथुन, कक, सिह, बृधिक, धनु तथा मीन मे प्रात्त होता है । अन्य रारि अशभ फर का अनुभव प्राप्त होता है। मिशन, सिह, धनु मेँ लामगत शनि पुत्र संतति नहीं देता सम्मव हे एकपुत्र प्रास्त हो । अन्यरारि्यो मे संतान होती है । यदि पुत्रसन्तान हो तो परस्पर वैमनस्य रहता दे–वाप-बेटा एकत्र नहीं रहते । अलग-मख्ग रहते ह । आयु का पूवं ओर उत्तरकाल कष्टमय किन्तु मध्यकाल कुछ सुख से बीतता हे । पूज॑वय मे परिस्थिति मच्छी नहीं होती । उत्तरवय मे ख्री-पु्रो से कष्ट होता है।

व्ययस्थान मेँ शनि के फट – “्ययध्ये यदा सूयसूनो नरः स्यादशुरोऽथवा नियो मदनेन । प्रसन्नो वहिः नोगरहे छग्नपश्चेद्‌ व्ययस्थोरिपुध्वंसकरद्‌ यज्ञभोक्ता ।।१२॥

निष ` ४५९

अनग्वयः- तूयं सूनौ यदा व्ययस्थे ( तदा ) नरः अश्रः निखपः, अथवा मदनेत्रः स्यात्‌ । ( सः ) वहिः प्रसन्नः ( स्यात्‌ ) णे न ( प्रसन्नः ) स्यात्‌ । ( यदि सखः ) लम्मपः ( सन्‌ ) ग्ययस्थः ( चेत्‌ ) ( तदा ) रिपुष्वंसकरत्‌ , यश्चमोक्ता ( च ;) स्यात्‌ ॥१२॥ | सं< ठदी<–भ्ययस्ये द्वादशगे यदा सूय. सूनौ शनौ असरः कातरः, न निभंयः, निरपः, निरज, मंदनेजः मन्द्टष्टिः वहिः परदेशे प्रसन्नः गहे नो प्रसन्नः इत्यथः । च पुनः ठ्मपः ल्यनाथः ग्ययस्थंः द्वादश्स्थानगतः खन्‌ रिपुध्वंसक्त्‌ रा्रुनाद्करः, यन्चभोक्ता यशञद्रव्येन वैभव समृद्धिः इतिरोषः ॥१२॥ | अथे– जिस मनुष्य के जन्मलग्न से बारहवै यन मेँ शनि दो वह मनुष्य रोक, निरज, अथवा मंददश्टि होता दहै। बह प्रदेशमे प्रसन्न रहतादहै घर पर प्रसन्न नहीं रहता है । यदि यदह शनि र्गनेशशच होकर व्ययस्थानमें दो तो यष्ट मनुष्य शततुओं का नाश करता है भौर यश्च द्वारा संपत्तिमान्‌ होता ई ॥१२॥ वुखना–““न्ययस्थाने मंदः प्रभवति तदा कातर उत त्रपाहीनः शश्वचटुभकृतिविधौनिष्टुरमतिः । सचेदङ्ग स्वामी परविषयगामी प्रसुदितः खदाशततुष्वसी यजनङ्ृदसौ वित्तप॒ इव ॥ जीवनाथं अर्थ- जिस मनुष्य के जन्भसमयमे शनि द्वादशवै भाव मे होवह कातर, निल्ज, तथा श्चम कार्यमें कठोर बुद्धि दोतादै। शनि यदि लग्नेशः होकर व्ययस्थानमे होतो परदेश जाकर प्रसन्न रहता रै यह रात्रुहंता ओौर कुवेर के समान यश्च करने वाला होता ह । “तं गहाखो बदफेलः पापासक्तथ मुफटिसो मनुजः | जोह्छः खर्च॑मकाने भवति हरीः कपाङरेव स्यात्‌ ॥ खानखाना अथे–यदि द्वादशभाव मे शनि दो तो मनुष्य खष्वं .करने से तंग रहता

है । व्यथं ख्व करनेवाला; पापकम में भासक्त, किखी काम को न देनेवाला बलवान्‌ ओर दया होता

°’्दयाविदीनोविधष्ते व्ययातः, सदाङ्खोनीचजनानुयातः | नरोगभंगोभ््ित सवंसौख्यो व्ययरिथते भानुयुते प्रसूतौ ॥ महेश थ–जिसके जन्मलग्न से द्वादक्लभावमं शनि हो बह मनुष्य निद॑य, निधन, खनव से दुभ्खित, सदेव आसी; नीचदृत्ति लोगों की संगति मे रने वाखा, अगदहीन, ओर सुखद्ीन होता है । “”पतितस्तुरिः फे ।’ आचायं वराहमिहिर ` थे–यदि शानि लग्न से द्वादश होतो जातक पतित होता है । ढाददो धनहानिं च व्ययं वा कुक्षिङक्‌ क्रमात्‌ ॥> षराक्ञर थ- जिसके द्ादश्चभाव मे शनि हो वह निधन, खष्वं बट्‌ जाने से तंग, पसच्यों मे व्यथा बाला होता है।

७६० चमर्कारचिन्तासणि का तुरुनार्मक्‌ स्व!(ध्याय

रविजः सुतीत्रः 1” बेशिष्ठ अथे–जिसके शनि द्वादश दो वह बहुत तीखा होता है । “भेदे रिःफणहं गते विकठ्षीः सुखोऽधघनी वंचकः ॥ वं यनाय [र अथं–यदि शनि द्वाद होतो मनुष्य व्याकुल रहता दै । यद मूर्ख, निधन तथा वंचके ( ठग ) होता है। ““नीचकर्माभ्नितः पापो दीनांगो भोग लल्सः | व्ययस्थानगते मन्दे क्ररेषु कुरुते रुचिम्‌ ॥ गर्ग अथे– यि शनि व्यवस्थान मे होतो मनुष्य नीचकर्म॑करता है । पापी, हीनांग, तथा भोगों मे खालसा रखता ह । इसकी रचि करर कामों में होती है । “ध्दयाविहीनोविधनो व्ययात्तंः सदासो नीचजनानुयातः | नरोगमंगोज्छित सवंसौख्यो व्ययस्थिते भानुसुते प्रसूतौ ॥ बृहद्यवनजातक अथे- जन्मलग्न से द्वादश यदि शनि हो तो मनुष्य निर्दय, निर्धन, बहत ख्चंसे दुःखितः, आलसी, नीच लोगों की संगति में रहने वाला, किसी अंग के टूथ्ने से सदा दुभ्खी रहता है । “¶विकरः पतितोरोगी विषमाक्षोनिषरंणोविगतट्जः | व्ययभवनगते सौरे बहुव्ययः स्यात्‌ सुपरिभूतः? ॥ कल्याणगर्मा अ्थं–यदि रानि द्वादक्ञमाव में होतो मनुष्य, विकल ( व्याकुल ) पतित, रोगी, छोरी बड़ी आखों वाटा, निर्दय, निट॑ज, बहुत ख्चं करने वाला तथा लोगों से अपमानित होता है । “व्यये शनौ पंचगणाघनाथोगद्‌ान्वितो हीनवपुः स॒ुदुभ्खी | जंघाव्रणी क्रूरमतिः इशांगो वधेरतः पश्चिगणस्यनित्यम्‌ ॥?’ मानसागर अ्थ–यदि शनि व्ययभाव मं होतो मनुष्य जनघमूह का नेता, रोगी, हीनांग, दुभ्खी, दुव, क्रूर ौर प्रतिदिन पक्षियों को मारने बाला होता है, दसवी जंधामे तरण होता है। (“निर्टजाथसुतो व्ययऽगविकलो मूर्खोखिपूर्सारितः ॥”2 मत्रेश्वर अथ–यदि व्ययभाव मे श्नि होतो मनुष्व निज, निधन, पुत्रहीन, किसी अवयव में व्यंगयुक्त तथा रात्रुद्रारा पराजित होता है। “असद्व्ययी व्ययेमंदे कृतघ्नो वित्तवर्जितः | वंघुवेरी कुवेषःस्याच्‌ चंचल्श्च सदानरः ॥ काश्चीनाथ अथ–यदि शनि द्वादशाभावमें हो तो मनुष्य बुरे कामों मे धन का खच करता दै | यह्‌ कृतघ्न, निधन, प्वंचल, मलिन तथा अपने वांधवों से बेर करने वाला होता है । ८विद्‌यो विधनः स्वकर्महीनो विसुखो दीनतनुः व्ययेऽकपुत्रे |” जयदेव अथे- शनि के द्वादशस्य होने से मनुष्य दयादीन, धनहीन खकर्महीन, मुखहीन-तथा अंगहीन होता है ।

शनि ७६१

८“्यये संगप्रयुक्तोऽलसो नीष्सेवी कुतस्तस्य खौख्यं जनोयाति नाशम्‌ । यदा सौरिनामा गतश्वांस्यभावम्‌” ॥ जागेश्वर अर्थ- शनि के व्ययभावमें होने से मनुष्य आलसौ, नीचो का सेवक, सुखदहीन तथा खर्वीखा होता है । इसके स्वजनों का नाश होता है । ““स्वस्यदेशे खदाटस्ययुक्तो नरो बुद्धिदीनस्तथोद्‌ वि्यचित्तः। बुद्धिभ्रंदां मानभंगं कुसंगं मांदं शिस्पं देहजाड्यं नरस्य | वंधोर्वैरं वित्तहानिः प्रसूतौ कुयुराजान्दकुधरे व्ययस्थ” ॥ हरिवंश अर्थ- जिसके द्वादशमावमें दानि दो वह मनुष्य अपने देश में सदा आलसी रहता है । यह बुद्धिहीन भौर बुद्धिभ्रष्टः निराहत, उदूविग्न चित्त, कुसंगति मेँ रहनेवाखा, मन्द्‌, जड़ शरीरवाला, वधु वैरी तथा निधेन होता है । ‘्दया विहीनो त्रिधनो व्ययात्तः सदार्सो नीच जनानुयातः | नरेगगोज्ज्ितखवसौख्यो व्ययस्थिते भानुघुते प्रसूतौ? ॥ इण्डिराज अथै- जिसके द्वादशमाव मं शनि हो वह दयारहित, धनरदित, खन्च से पीडित, आलसी, नीर्चोँ का संग करनेवाला अंगहीन, तथा सब सुख से रहित होता है । श्रगसूत्र–“पतितः । विकर्टागः | पापयुते नेत्रच्छेदः । श्यभयुते सुखी सुनेचः । पुण्यलोक प्रापिः। पापयुते नरकप्रा्िः } अपात्रेव्ययकारी | निर्धनः | शुभयुते राजयोगकरः ॥* अ्थ- द्वाद मे शनि हो तो मनुष्य पतित भौर अंगदीन होता है। पापग्रह सायो तो मनुष्य खों सेअंधा होतादै। श्युभग्रह साथ होतो सुखी दोतां है ओर भिं अच्छी होतीर्है। मृष्युके बाद श्चुभगति मिख्ती है। पापग्रह साथ होतो र्बु के बाद नरकगामी होता है । यह अपव्य॒य करता है-बुरे कामों में. धन का खप्ये करता है । शरुभग्रह साथ होतो यह डानि राजयोग करता ह॑। । | पाश्चाव्यमत–इसकी परदृत्ति एकांतप्रिय, संन्यासी जेसी होती है । गु द्रो के कारण प्रगति में बारंबार रुकावट मातीर्है। किसी पशचुके कारण अपघात होता है। यदह अपने हाथ सं हो अपना नुकसान करता है | अन्ञात- वास, कारावास, विषध्रयोग, शटे इल्जामां से कैद मादि से कष्ट होता है । यदह शनि पापम्रह से पीड़ित ओर यशि से बल्हीम होतो ये अश्चुभफल तीत होते दै । यही श्चुभ सम्बन्धित होतो एकातप्रियता, ओौर जिन व्यवसायों मे लोगों से विरोष सम्बन्ध नहीं आता, उनसे छाम होता है । मिक्षागह, अस्पताल, कारागृह, दान संस्था आदि से सम्बन्ध रहतादै। ये खोग रुक्तरीति से धन संचय कस्ते र्दै। गप्त नौकरी, इल्के काम आदिसेलखमदहोतादहै। यह दानि बुधसे अश्चुभ सम्बन्धमें होतो पागल्पन की सम्भावना होती दै। मग से अश्म सम्बन्ध हो तो अपघात, खून, बा आत्महत्या दारा मृद्यु

४६२ चमरकारचिन्तामणि का तुरखनार्मक स्वाध्याय

दोतादै। देण से अश्म सम्बन्ध ददो तो अधिकारी ओर बडे लोगों से शत्तुता होने से अपभान ओर अपकीर्तिं होती है । रविचन्द्र से अद्म सम्बन्ध होतो प्रिय व्यक्तिकी मघ्युसेखेद्‌ होतादहै। इस शनिसे साधारणतः उदास अौर दोकपृणं प्रवर्ति होती है। विचार ओर अनुभव- प्राचीन म्रन्थकारां ने द्वादञश्चभावके रानि के फल बहुत अद्म बतखए है । दूषित दानि के एेसे फल होते दै | व्ययस्थान का दानि यदि मेष, पिशुन; ककं, सिह; व्ृध्िक, धनु ओौर मीनमं होतो द्यमफठ देतादै। इन राशिर्यो के शनि मे वकी, वैरिर्र, राजनीतिज्ञ मादि विद्धान्‌ होतेह । वष, कन्या, वुल, मक्र ओौर कुम्भमेंभी वकील, वेरिस्टर आदि होते ई | व्यवसाय के लिए भी यह योग अच्छा है। मिथुन, बृधचिकः कुम्भ मं इस रानि से करंन्तिकारी प्रवर्ति होती है । -~—*‡-+ अथ राहु-केतु विचार– प्रायः ज्योतिष ्रन्थकार राहूु-केठ को छायाग्रह मानते है । इनकी सत्ता कै विषय मं यदि किसी को जिज्ञासा दहो तो उसे ऋग्वेद; अमरकोश, महाभारत, वाच्चवस्कयस्मरृति तथा अथवेज्यातिष भादि का अध्ययन करना होगा-इनमे इन दानों को स्वमानुनामसे निर्दिष्ट कियाद ओौरक्हादै किये दोनों सूयं ओौर चन्द्रमा कौ प्रसित करते हं । इनके विषयमे पौराणिक क्या भीदै। का जाताहे करि देवों ओर दानर्वांको अग्रत देने के लिए भगवान्‌ विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया सौर अमृत पिखने ल्गे–इस पक्ति मेँ राहु-केतु भी छुप गये । चकि इन्द अमृत से वंचित कियाजारहा था, इन्होने समय का लाभम उटाति हए स्वयं ही अग्रतपान करना प्रारम्भ करदिया। इस तरफ सू अर चन्द्रने विष्ण्रु भगवान्‌ का ध्यान आकृष्ट किया-मोदिनीरूपमय भगवान्‌ जी ने इस अनाचार पर क्रद्ध होकर इन पर उसी कड्छी का प्रहार किया जिससे अमृत परोसा जा रहा था । इव प्रहारसे एक काथिर उड गथा सौर दूरे का धड़ ( कवंध-शरीर का अधोमाग ) उड़ गया । र्चूकि इन दोनों ने थोड़ा सा असूतास्वादन कर ल्या था-अतः इनकी मृत्यु नदो सकी । तदनन्तर तपस्या करने से इन्द भी ग्रहां मे सम्मिलित हो जाने का अधिकार दियः गया | चकि सूयं भौर चन्द्र के कारण विष्णु भगवान्‌ ने इन्द दण्डित क्ियाथा। ये दोनों सदेव के लिप इन दोनों के रात्र बन गये यौर सम्य पाकर इन्हे ग्रसित करने ल्ग गये । इन दोनों द्वारा इनका ग्रास ही प्रहण कहखता है | चंद्र का ग्रहण पूर्णिमाके पूरणंहोने पर हौ खक्तादहै। वद्र ओर राहु का अंतर खात अह्सेक्महोतो ग्रहण अवश्वहोतादहै। सातसे नौ अंशो तक अंतर होने पर अ्रहण कौ सम्भावना होती है। इससे अधिकतर दहो तो

ग्रहण नहीं होताहै। राहुकीपातकक्चा में चन्द्र हो भौर उसका रष्क या

राहु-केतु विचार ७६३

डेद्‌ अंशामेंदहोतो रहण होता है। सी स्थिति मे पृथ्वी भौर सूये की विष्दध दिखिामें चंद्र होता रहै, तथा पृथ्वी की छायासे चंद्र का कुछ भाग आच्छादित होता दै-इसी का नाम प्रहण हे । जव पृथ्वी आर सूर्यं के बीच चंद्र आता दहै तब सूयं का कु भाग नदीं दीखता है-यदी सूय॑ग्रहण ह । सूर्यग्रहण मेँ सूयै, चंद्र तथा राहु का विचार करना होता हे | चवदरगरहणमें वद्र ओर राहुकादही विष्वार किया जाता है। | राहु ओर केतु को प्रसज् करने के ठ्ि वेदिक साप्य मे राहु-केतु मंत्र भी प्राये जाते है मतः इनकी सत्ता के व्रिषय मँ संदेह करना अनावद्यक ई३ै- विसोत्तरी द्या में राहु-केव॒ का वणेन सभी रथो मेर; जो भाचायं केवल सात ही ग्रह ह भौर राहु-केतु को ग्रह नहीं भी मानते ै-जेसे वराहमिषिर, इनके गथ मे भी विंशोत्तरीदश्चा वणन विभाग मे राहु-केतु-दशा का वर्णन पाया जाता है । राहु-केठ के विषय मे मधिक शान प्रात करने कौ इच्छा हो तो निश्ननिर्दि्. गयो का परिशीटन आवश्यक दहै– ब्हत्‌पराशरदहोरा, जातकपारिजातः, सासवली, उत्तरकालाभ्र त, चहतसंहिता, दोरासार, फल्दीपिका; शिवसंहिता, संकेतनिधि; देवज्ञाभरण, उड्दायप्रदीपिका । | राहु-केतु का विष वणेन– | स्थान–अदिध्वजाः रौलाटवी संचरन्तः–ये पवतरिखरों तथा वनं मे संचार करते ह | | आयुः–भायु-शताग्द संख्याः राहुकेतवः- इनक आयु सौ वषे कौ हे । रन्न-गोमेद वैडूर्यके–राह का रत्र गोमेद तथा क्तु का रत्र वैद्यं है। दि द्ा-नैक्ऋव्य । | करीडास्थान-वेदमकोणे-राहु का क्रोड़ास्थान; धर तथा केतु का स्थान कोना है । दृष्टि–गधोक्िपातः तु अदिनाथः । नीचे देखते ह । बर के स्थान–“मेषाच्ंमतर्णी इषककटेषु मेपूरणे च बख्वानुर- गाविषः स्यात्‌ । कन्यावस्ान वृषष्वापधरे निकशायामुत्पातकेतु जनने च शिखी रखी स्यात्‌ ॥ | अर्थ-मेष, इृथिक, कुम, कन्या वृष तथा कक॑राशि मे, दशमस्यानमे राह बल्वान्‌ होता है । 7 कन्या के अंतमे, वृष तथाघनु मे; रात्रि मं तथा उत्पात एवं धूमकेतु के दर्शन के समय केतु बलवान्‌ होता है । दोष-राहुदोषं बुधो हन्योत्‌”-राहु के दोष को बुध दूर करता है । ( ऊपर का वर्णन तथा मत वनाथ का है|) |

७६७ चमत्कारचिन्तामणि का तुरख्नास्मक स्वाध्याय

स्थान-वनस्थः-वन में रहता है । रिखिनः स्वभनोः वद्मीकस्थान सुच्यते-इसका स्थान वामी रहै ।

जाति–चांडार

धातु-सीसा ।

रल्ल- केतु का रन्न नील्मणि ।

वसख्-चिच्रकन्या फणीन्द्रस्य केतोः छिद्रयुतं वस्त्रम्‌ ।

अथे–रंग-वरिरंगी गोदडी राह का, कटा हुआ वख्रक्तुकाहोता ह ।

काल~-“अष्टौ मासाः स्वभानोः, केतोः मासत्रयम्‌ ।

॥ ५. ^~

अथं- राहु का खमव आठ महीने तथाकेतु का तीन मास काल दै ।

( ऊपर का वृणन तथा मत पराशर का है।)

“सीसं जीणवसनं तमसस्तु केतोः मृदभाजनं विविध चिपटं प्रदिष्टम्‌”

अथे-राहका.धातु सीखा, वत्र जीर्णं ( पुराना) दै। केतु का पात्र मिट का, व्र रंगविरगा है ।

“गुल्म केतु रहितश्च शाब्द्रमाः” केतु छोटे वृको का कतं है।

राहू शाल्व का निर्माता दहे । ( यह वणन तथा मत सत्रेश्वर्‌ काह)

बर्ण–निषाद गुण–तामस, अवस्था–बृद्ध, टिग–पुरुष, रस–कषाय, स्थान–विवर-( वामी ) समय–दोपहरः भूमि–ऊषर, ` अपाद्‌-चरण रदित, धातु–रोहा; तत्व–उायुः पाप्रग्रहू–चरग्रह,

( यह मत नीलकंठ कादै। )

“सर्पस्थानं सेँहिकेयस्य ।”` अथ– स्थान सापरके वरि ।

रंग– नीला, चित्रविचित्र दे ¦ ( यह मत वकटेडवर शर्मा का है। )

“संध्यायां सुजंगमः {7 अथं–संन्वा समय मं राहु वली होता है ।

“राहुः सरीसृपः ।» अथ–राहु सरपट चलनेवाला है ।

दक्षिणतो मुखः ।’ अथे– राहू का मुख दक्षिण की भोर है।

८“मोगीन्द्रः प्रत्या दुःखदो बृणाम्‌ । अथं–राह स्वभावतःमनुष्यो को दुःख देनेवाला हे | (फणिनः स्थविराः ग्रहाः 12 अथे–यह वद्ध ग्रह हे।

( यह मत जयदेव का दै। )

श्धृप्रकारो नील्तनुः वनस्थोऽपि भयंकरः | वातप्रङतिको धीमान्‌ स्वर्मानुप्रतिमः शिखी ॥ अथे–राह धृ जैसा नीकरंग का, वनचर, मर्य॑कर, बातप्रकृति का, तथा वुद्धिमान्‌ होता है । एेसाहीकेतु है । ( यह वणन षराश्ञरका है) ) ““नीलुतिः दीघतनुः कुवणैः पापी सभापंडितः सदहिवकः | सत्यवादी कपटी च राहुः कुष्ठी परान्‌ निंदति बुद्धिहीनः ॥

३० शडू-केतु विचार ७६५

अथै–यह नटे रंग का, ऊचे कद का कुरूप, पापी; पंडितः, हिषक्यों से पीडित, छबोलनेवाला, कपटी, कोटी, परनिन्दिक तथा बुद्धिहीन राहु होता ह । “”क्तोग्रदष्टिः विवाक्‌ , उग्रदेहः सराखः पतितश्च केतः । धूम्रदयतिः धूमप एव निव्यं तराकिंतांगश्च इशोवरासः” ॥ थ-केतुकी दष्ट लाल, तथा वाणी उग्र; दीन शरीर, उग्रशा्रसहितः पतित, घुरँ जते रंग का, तरण सहित, दुबला, दुष्ट, नित्य धूम्रपान करनेवाला एेसा केतु दै। ( यह मत संत्वर्‌ का हे।) ‘अर्थकायं महावीयं चन्द्रादितव्य विमदनम्‌ | सिहिकागभंसभूतं तं राहुं प्रणमाम्यहम्‌ ॥ सेंदिकेयस्तमो राहुः कञ्जला चलसन्निभः | यः पर्वणि महाकायो ग्रसते षन्द्रमास्करौ ॥ प्रणमामि सदा राहुं सपाकारं किरीिनम्‌ | सँहिकेयं करालास्यं सवेलोकभयप्रदम्‌” |

अथे–राहु का शरीर भधा, महाबली, काजल के पहाड़ जैसा, अन्धकार स्वरूप, भयकर, सांप जैसा, मुकुटधारी तथा भयंकर मुख से युक्त है। यह सिंहिका राक्षसीका पुत्र रै, तथा पवंके समय सूर चन्द्र काग्राख करता है । एेसे राहु को नमस्कार है । ( यह वणेन रास्तोत्र का है । ) राहु-केतु का कारकत्व–

प्रयाण समय सपरात्रि सकल सुपस्ाथ कारको राहुः | व्रण रोग चममार्तिद्यूं स्फुट क्षुघार्तिकारकः केतः ॥ पराज्ञर अथै–प्रवास का समय, रात्रिसोए हूए प्राणी, जञा तथासापोका कारकग्रह राह दै । व्रण-चमरोग, च्ल, भूख, फोड़ा-फंसी का कारक केतु दै । ‘“यशाः प्रति्ठाच्छत्र कारको राहुः ॥” वेकटेहवर अथे–यदा-मान-तथा राजवैमव का कारक राहु है ।

“बौद्धा हि वण्डि खगराज इको्र्‌ सपान्‌ ध्वाक्षादयो मक्षकमदछुण कम्यल्काः । स्वर्भानुर्टदिताप कुष्ठ विमति व्यापि विषं कृतिम, पादातं च पिशाच पत्रगभयं ार्यातनूजापदम्‌ । ब्रह्मक्षत्र विरोध शतरुयजं केतस्तु संसूचयेत्‌ , प्रेतोत्थं च भयं विपेष्वगुलिको दे हार्तिमारौचजम्‌ ॥’” भतरेश्वर

अथै– बौद्ध, सपेरे, पक्षी, मेडिए, ऊंट, सांप, कौए-मच्छर, खटमल, कीडे, उल्दटू-ये राहु के अधिकार मंदहै । हृदयरोग, कोट्‌ बुद्धिभरंशः विष-बाधा; पैर के रोग, पिशाच-बाधा, पत्लीवा पुत्रे का दुःख, ब्राह्मण, क्षत्रियो मे विरोध, रात्र॒भयः प्रेतवाधा, शरीर कौ मलिनिता से रोगः ये केतु के भधिकारमेह।

‘“सर्पेणेव पितामहं व॒ शिखिना मातामहं चिन्तयेत्‌ ।*

४६६ चमर्कारचिन्तामणि का तुरुनार्मक स्वाध्याय

अथे-राहुसे दादा का विचार तथा केतु मे नाना का विचार करना उचित है करोव्यपस्मारमसूररज्ज॒ क्षुधाङ्कमिप्रेतपिशाचभूतेः । उद्वंधनाचाञ्यचिकुष्ररोगेः विधघुंवुदश्चाति भयं नराणाम्‌ ॥ अ्थै–अपष्मार, चेचक, नासूर, भूख, कमि, प्रेतवाधा, पिशाचवाधा, अर्चि, कैद, कोट्‌, वे राह के कारकत्व में है । “कण्ड्‌ मसूर रिपु छ्रत्रिम कम॑ रोगैः स्वाचारहीन ल्घुजाति गणेश्च केतुः ॥> अ्थ–खुजली, चेचक, दात्र का कपट, रोग, दीनजाति के लोग, ये केतु के कारकत्वमें है । वधंनाथ उत्तरकालागृतरचयिता कालिदास के अनुसार राहु ओर केतु का कारकत्व राहु–खछत्र-चामर ( राजचिन्ह ) देशकी समृद्धि, कुतकः, त्रूरभाषणः नीच जाति, पापी लियां, सीभाएं वाहन, शयद्रलोग, ज्‌आ, संध्याकाल, अयोग्य स्री से सम्बन्ध, बिदेशगमन, अपवित्रता, इड़ी वा गांठ के रोग, इड बोलना, नीचे की तथा उत्तरटिंशा, सपेरे, यम, म्लेच्छ आदि नीच दोग, बु गट, वन, पर्वत, बाहर के स्थान, नै्त्य दिशा, वात-कफ-पीडा, सांप, हवा, छोे- बदे-सरपर चटनेवाले जीव, सोये हए प्राणी; प्रवाससमय, वृद्ध, वाहन, नागरेग नाना बातद्यूल, खासी, श्वास, दुगा की उपासना, टीट्पना, पञ्समृद्धि-दार्प अओरसे च्खिी जाने वाटी टि (जेते उदू ) कूर भाषा। केतु—“शिव, विष्णु वा गणे आरि देवों की उपासना, वेदक, कुत्ते-मूरमे, गीदड़, क्य, उ्वर, सव॑विध श्रय, मुक्ति, गंगातट के स्थान, मदान्‌ तपश्चर्या, वायु, वनष्वर, स्ते, नौकर, पत्थर, व्रण; मंत्रास, चपलता, ब्रह्मज्ञान, पेट, वा आंख के रोग, जडता, कांटे, पञ्च, ज्ञान-मोन, वेदान्त सवंप्रकार के उपभोग, भाग्य, दादा, भयंकर चूल, फोडे-एुन्सिर्यो, चुद्ररोग नीच आस्माओं से कष्ट ।* दिवाकरजी दक्र ह्भ्भारा्ओं के अनुसार कारक्व- राहु-““सोप, चोर-लटेरे व्रिषवालिषएट ख्डारे-ञ्नगड़, दीद पना, चुवरदस्ती किसी को भ्र करना, दल्वंड, शुद्रलोग, नीचलोर्गोकी गुटी, धनको संचय करदे गुत्त स्वने मं प्रसन्नता; काल्ताजार, वा चोरवायुरी, टिच्छतोंसे भरा हुआ होना, मवंकर रोग; ज्वर, मूर्छित दोना, सन्निपात, कारा, आक- सिक प्राकृतिक घटना, साहस, यश, कायना, टूटजाना) छेद करना, सजादेना, उमशान घाट, वागृयुद्ध ( ञ्चगड़ा ) विवर; पवतः बृध्रपतन, इधर- उधर घूमना, जंगल सं निवास करना, भय॑कर युद्ध; वितंडा, ` मम॑भेदी भाषण, धर्म॑भ्रष्टता, जुञा खेलना, अपवित्रता, गुह्य बुराकमं, पञ्चुमेथुन-बात, कफ, पित्त-ये राहु के सधिकारमं ई।

राहु-केतु विचार ७६७

केतु-चट्रोग, कतत, सगे, गिद्ध, सौगोवाठे पञ्च, क्षयरोग, पीडा, ज्वर, व्रण, पिद्याचकमं, टीरपन; शत्रुओं को पीडित करना, धर्मान्धता, अंधविश्वास, दिखावा-तङ़क-भडक, भिश्चावृत्ति-तीथयात्रा, लोभ, ज्ुगटी करने की आदत, लडाई गडा करना, दूसरे से विरोध, अब्युत्मक्ञान, परित॑नशीठ कमं, गुफा मे निवास, अद्‌भुत काम; कीर्ति प्रसिद्धि) चमकीलापनः जंगल मं धूमना- भविष्यवाणी, सेगमोचन, ऋण से मुक्त कर देना, रिषोपासना-दोवगण, निधि, धनागार, कारावास, मठ में निवास करना, अद्युत्तम आददंरूप चिन्नचित्रण, ये केतु के अपिकारमंह। |

निस्नकिखित का विचार भी राह से किया जाना उचित हैः–

तर्व्॑ःखर, म्युनिसिपैलिरी, जिलापरिषद्‌ ; विधानसभा, लोकसभा, रेल्वे कर्मचारी, कमीडन एज, विज्ञापन एर्जट, र्ड का सामान, सड, विजली का खामान, गांजा, भांग, उन्मत्तता, मैस्मरिजुम) व रंग बदख्नेवाछे फूल, तथा इसी किस्म के प्राणी, बर्फ, सरकस, सिनिमा, सेस्युलाइड, दुराग्रह, ओद्धत्य, विनाद्यकारी वाते, ्रमामासत; भूत-पिशाचवाधा, दादा कौ स्थिति, कल्पना करने मे तथा संशोधन करने मे निपुणता; अफवाहं फेठाना, निराघार बात करना, कार्ये बरेरणा, प्राचीन तथा परंपरागत संसरति का अभिमान, अद्‌- भृत में रुचि, आकस्मिक विलक्षण वाते, अस्पष्ट-अन्यवस्थित बरताव, पवित्रता, विश्वरघुल, वासनारादित्यं, भक्तियोगः आध्यासिक उन्नति, ज्ञान, मोक्ष, घरेलू सेट-ताश आदि | ४

राह का विोष वणैन–राहु की दैनिक गति ३ कला भौर २१ विकला है | यद द्वादश राशियों मँ भ्रमण ६७८५ दिनः २० घड़ी, २५ पल, ७ विपल मे समाप्त कर्ता । यद समय उगभग १८ वधं, ७ मीने, ओर र दिनि होता दै। राहु के विषयमे पाश्चात्य देवज्ञ विल्ियमलिडी का विचार निम्न- लिखित ३ :- यद पुरुपर प्रकृति है। गुर तथा शक्र के मिश्रण जेसा स्वभाव ठै | यद्ध भाग्यदायी है| यह शुभ ग्रहों के साथ होतो उनके शुभफङ अधिक मिते ई । अश्चभ यहो के साथ द्योतो ये फल कप स्यम हेते ईं ।

केत यदि अश्युभग्रहोके खाय होतो अञ्चभफल अधिक तीव्र होते ई। भग्र से प्रात होने बाठे फलो म केव कौ युति से आकश्मिक्‌ विध्न आति ह भौर वना बनाया कान त्रिगड़ जाता हे। मग्र केन्द्र म बा बहुत अच्छ योगमय तभी केतु का यह दोष दूर हो सकता ई

राह के किए कौन-कौन रादियां छ्॒भ द ओर कौन-सो अ्वभ–

मेप– यह पुरुषराशि, दिनक, चरः रक्ष, उष्ण, तथा अग्नितखप्रधान दै । तामसी, पञ्च, उद्धतपन, मसंयत व्यवहार, ला्रग कौ योतक, यह रारि मंगल की प्रधान राधि दै। बहु राके लिए अशुभ दहै।

७६८ प्वसस्कारचिन्ताम्रणि कां तुरुनार्मक स्वाध्याय

वृष–यह खरी राशि, भूमितत्व प्रधान, शीतर, रुक्ष, उदासीन, स्थिर, रात्रि की, तथा निम्बू रंग की, शक्र की गौणराशि है । यह्‌ राहु के टिएङ्भहे। भिथ्ुन- पुरषराि, वायुतत्वप्रधान, उष्ण, आर लाढ्रंग, दिन की, यद बुध की प्रधानराचि है । यह राह की उच्चरारि है | राहु के टिए अशुभ ह। ककं–ख्रीरारि-जटतत्वप्रधान, श्ञीत, आद्र, कपप्रकृति, नारङ्धी रङ्ग की वा हरेरङ्ग की, रात्रिक, चर, चन्द्र की प्रधानराशिदहं। यह राहुके ङिषए अद्युभ है ॥ खिह-पुरुषराशि, अग्नितत्वप्रघान, उष्ण, रुक्ष, कोधी प्रकृति, दिन की पञ्च-व॑ध्या, लल वा हरेरन् की, सूये की प्रधानराशि दहै यह राहि राहु को बहुत प्रिय हं ॥ कञ्या–स्रीराशि, प्रथ्वीतत्व की, रीत, उदासीन; वन्या, रात्रि की, नीदटे- काटे, रङ्ख कौ, बुध की गौरि दै | इसमं राहु अन्ध माना गया दै । यह्‌ राहू के ट्षिअज्युमदहं॥ तुखा–पुरषराशि-ऊष्ण; आद्र, आरक्त, चर, मनुष्यप्रकृति दिन की, काला वा गहरापीला रङ्ग; शुक फी प्रधानरादिहे। यह रादि राहुके दिए अश्चम हं | व्िक- दखीराशि-शीत, जलतत्व की, रारि की, कफप्रकृति, स्थिर, गहरा पीला रद्ध, संगर की गोणरादि है यह्‌ राहु कौ प्रिय रादि दहै ॥ धनु– पुरषरारि; अग्नितत्वप्रधान; उष्ण; रुक्ष; तामसी, दिनि की, वंध्या पीटावा आरक्त हरार्ग; गुर्‌ की प्रधानराहिदहं राहुके छिए्‌ अतीव अङ्लुभ ह ॥ सकर-खीरालि, यत्रि की; शीत; रुक्ष; उदासीन; पृध्वीतत्वप्रधान, चर चदष्पाद्‌ ; काटा वा गहरा पीला रङ्गः रानि की गौणरादि ह यह्‌ रादि राहु को ञ्युमदहै॥ कुभ–पुरुषराशि, उष्णः, आद्र; दिनि कौ, रक्ताधिक्यं सूचक, रिथर, आस्मानी रङ्ग की, दानि की प्रधान राद्धिः ह यह राहु के दिए अङ्युभ है! सीन-लीराशि, कफप्रकृति, जल्तत्वप्रघान) द्विक्वभाव, चमकीला सफेद रद्ध, रात्रि की, गुरु की गोणरादि है । राहुके टिए यह्‌ रादि द्युभ दहै ॥ राहु-केतु का उचस्थान; नीव-स्थानः मूलत्रिकोण; स्वख्ह, मित्रह-शत्रु गृह कौन सी-रारि्योँ है इस विषय मेँ दैवन्ञो मे भारी मतभेद है- “राहोस्तु कन्यकागेहं मिथुनं स्वोच्चमं स्पतम्‌ । उव्वश्च मिथुने सिहका सुतः | रा हृथुग्येत॒ ष्वापे च तमोवत्‌केठजं फलम्‌ । अर्थ– राह का स्वह कन्या, तथा उचराशि मिथुन है । नीच राशि धनु है ॥ कछ वाचार्यं का ऊपर छलि मत है।

रदु-केतु विचार ७६९

“राहोस्तु इृषभं केतोः इृधिके तंग सितम्‌ । मूलत्रिकोणे कुंभं च _ प्रियं मिथुनसुच्यते” ॥ अथै अन्य आचार्यो के मत से राहु-की उ्चरायि वृषभः केतु की- उचरारि वृश्चिक, मूलत्रिकोण.कुंम अौर ककं प्रिय राशि हे । नारायणभट् ने राह का स्वण्ह कन्या, उचमिथुन; नीच. धनु, मूल त्रिकोण ककं माना है । बृहत्‌ पारादार होरा के अनुसार राहु का उच वृष, भौर केतु का उच- स्थान बृश्चिक, राह का मूटत्रिकोण ककं केठुका मूहत्रिकोण मिथुन ओर धनुः राह का स्वणह कन्या, केतु का स्वह मीनराशि हे | जातक पारिजात के अनुसार राहु का उच्च मिथुन, मूलत्रिकोण कुम, स्वश्ह कन्या रारि है। । फलदी पिका के अनुसार राहु मेष, वृष, कके, बृध्िक, ओर कुंभ राशि में ` वलवान्‌ होता है इसी तरह कठ, इष, कन्या, धनु अौर मीन के उत्तराधं मे चक्वान्‌ होता है । संकेतनिधि कै अनुखार राह का उच्च मिथुन, स्वग्रह कन्या; है इसी तरह केतु का उच धनु, स्वगरह मीन है । राहु का उच्च धिकः ओर केतु का उच्च कुंभ है-रेता भी एक मत है-यह मी सेकेतनिधिकारने कहा है ओर यह संकेत यवनमत की अर है। रामदमी के अनुसार उचचस्थान वृष, स्वण्ह कन्या, नीचयह बश्चिक मिथुन, कन्या, तुला, धनु, मकर ओर मीन मित्र; एवं मेष, ककं, सिंह, तथा कुम, शत्रुखह राहू केरहै। . केतु का उच्च मीन, स्वगृह कुभः कन्या नीचस्थान एवं मिथुन, तुला, ` वृधिक, मकर ओर मीन मित्रखह-तथा मेष, कक, भौर सिह शतुगह है । एक ओर मत भी है इसके अनुसार राहु का उच दृषभ, मूत्रिकोण कर्क, मित्रखह मेष हे । कई एक कहते है कि राहू के लिए सिंह; कन्या, धनु ओर मीन सग्रह दै ॥ राह-केतु के मित्र ओर दाच्रप्रहः- बुध-क्र भौर दानि राहु के मित्र्रह ह । सूर्य-मंगल अौर गुरु केव के मित्रग्रह है| राहु के लिए मंगल शत्रु, शनि सम्टवं रोषग्रह मित्रर्ै-रेसाभी एक मत ह । रशि–पराश्र- “सुतमद्न नवान्ते पूर्णहृष्टि तमस्य युगल दशमगेहे चाथ दृष्ट वदंति । सह जरिपुविपक्षान्‌ पाददृष्टिं स॒नीन्द्राः निजसुबन सुपेतोखोचनांधः प्रदिष्टः ॥ अथे-राहु की दष्ट ५-७-९-१२ स्थानो, पर पूणं हीती है । २-१० पर याधी होती है। ३-६ पर पाव १/४दष्टि होती है । सखग्हमें होतो दृष्टि नहीं होती है ॥

3७9 मत्कारचिन्तामणि का तुरखुनार्मक स्वाध्याय

राह ओर केतु वक्रगदि दहै-एेसी मान्यता है । परन्तु इस विषय में कोई स्पष्ठोकरण नहीं मिल्तादै | प्रायः दैवज्ञ रोग इनकी दृष्टि का विष्वार भी दुसरे ग्रहो की तरह ही करते ह| वक्र गति के अनुसार दृष्टिका वलन प्रायः नहीं है । टग्न-व्यय-खाम-दरम इस प्रकारसे भी इन अ्रहोंका विचार क्रिया नहीं जाता ह । मीन-कुभ-मकर दि राशियों के विष्वार का चलन भी अनुभव मे न्दी र्हा दै ॥ दिवा करी द॑कट श्चम्भारायोने राहु-तुकी ष्टि निम्नटिखित मानी है :– राहु—०-९-३-१०-४-८ केतु –५-७-९-३-१०-४-८ । राहुप्रधान व्यक्तिका बणेन–राहु प्रधानव्यक्ति स्नेहरीक होता है । विषवारपूटक, परीक्षा के वाद काम करता दै | प्रपचासक्त रहता हे, पहिले रवार्थ तदनंतर परोपकार करता दै । अभिमानी, मान काभूखा होता दहे | दसवी बुद्धि तीव्र, इच्छा र्ठ तथा उत्तम, इनकी पूति के ट्ट पृण यतन करता है ¦ मित- माषी किन्तु लेखन मं चतुर । इसका टेख सरस, यओजभरा तथा काव्यपूणं होता है | इसका स्वभाव सरल, स्वतंत्र व्यवस्थित भौर स्पष्ट होता है । स्वतंत्र कल्पना क्ति खूब, कितु इसका दुरुपयोग नहीं करता हं । अपने उन्ोग में मग्न, किसी की काम में दखल नही–स्वयं के काम किसी दृसरे का दखल नहीं होने देता है स्वयं प्रभावशाली, रेव से अपना काम निकाल ठेनेवाला, किन्तु दूसरों के प्रभाव मे आनेवाखा नहीं होता है । प्राचीन संस्कृति का अभिमानी, किन्तु पर धर्मो के बारे मेँ सहिष्णु होता है । परोपकारी; बड़ा से व्यवहार मँ नम्र, धीर, मतिमान्‌ तथा व्यदार दक्च होता दै।. । यदि राह छुट्टी मे अनुमव संव॑ध मे होतो व्यक्ति बुद्धिहीन, दुष्ट अत्यंत स्वार्थी, दरमिमानी मिथ्याचारी, उदण्ड, निक्ज, चिद्रान्वेषी, अहंमन्य होता हृथा दूसरों को व्यथं कोसने वाला, परोपकारकतौ, अत्यभिमानी होता दै दूसरे शब्दो. असद्‌ गुणागार होता दै। इस तरह राका छ्म-अश्चम फाल अग्य श्चुभ–अश्चभ.गरहों के सम्बन्ध पर निभर होता हे । फल–राह–शनिवत्‌ फङ्दायक :’ ॥ ( “केतुः भोमवत्‌ ।? ) ऊपरछ्िखा मत बहुत से देवलं कातयथा म्रन्थकारोकाहे। इसका अभिप्राय यही दहै कि इन दोनों के स्वतन्त्र फल नही रहै, कि जिनका स्वतंत्रतया कियाजासकेजेसे सूर्यादिग्रहोका अपना-मपना स्वतंत्र फल हे। किन्तु नाराथण मट्‌ कामत इसमत के अपवाद में रै) नारायणमट् ने चमत्कारचिन्तामणिमें राहु-केतु के प्रुथकू-परृथव्‌ भावफल च्खिर्ह। इसी प्रकार जीवनाथदेव्ञ ने भी स्वरवित मावप्रकाशः प्रथमे राहु, केतके प्रथक्‌ प्रथक्‌ भावफल दिए है । यदि इनकी स्वतंत्र फठ दातृत्वशक्तिन होतीती विरोत्तरीदशामे इन ग्रहों का समावेश व्यथं दही था, इसी तरह यह मत भी “केतुके फल राहुके ही फलानुसार समञ्चने चाहिए” सहृदय हृदयग्राही नहीं मानानजा सकता ।

राह्-फड ८७४१

अतः यह कना बहत ठीक होगा किं राहु भौर केतु मौ अन्य सात ग्रहोंकी भांति सव प्राणियों पर अपना प्रभाव डाकते हँ । अतएव इनके शान्तिमेत्र भी वैदिकः साहित्यमें पाए जतेदह॥ ं । राह के द्वाद राभाव फट “स्वव्राक्ये समर्थः परेषां भ्रतापात प्रभावात्‌ समाच्छ।दयेत्‌ स्वान्‌ पराथोन्‌ तसोयस्य ल्प्नेस सभ्मारसिवीयः कखत्रेऽधृति भूरिदारोऽपि यायात्‌ ॥ १॥ अन्वय :- यस्य लग्ने तमः ( वतंते ) सः भ्राखिीयैः ८ स्यात्‌ ) परेषां, प्रतापात्‌ स्ववाक्ये समर्थः ( स्यात्‌ ) (तथा) ( परेषां ) प्रतापात्‌ स्वान्‌ परार्थान्‌ ८ च ) समाच्छादयेत्‌ ! भूरिदारः मपि कलत्रे अधृति यायात्‌ ॥ १ ॥

सं टी०्-यस्य ल्ग्रे तमः राहुःस नरः भप्रारिीयंः पराभितशत्रुः 1

स्ववा क्यपाल्ने परेषां प्रतापात्‌ स्वतेजसा न समथः, परेषां प्रतापात्‌ सख्वान्‌ स्वजातीयान्‌ पयार्थान्‌ परं स्वामी च आच्छादयेत्‌ आतमसाधनं कुयात्‌ । भूरिदाः वद्रूखीकः अपि कलत्रे खरी विषये अधृतिं असन्तोषं यायात्‌ कामाधिकः कामी स्यात्‌ इति भावः| १॥

अ्– जिस मनुष्य के जन्मल्यमं राहु हो वह शतुषिजयी होता हे । वह दूसरों के प्रताप से अपनी बात पूरी कर सकता द । भौर दुसरो के प्रभाव से अपनी तथा दूसरों कौ इच्छा पूरी कर सकता है । बहुत लियो के होने पर भी उनसे यह ठृत नदीं होता है| सभृचितभाव-रुप्ममाव का राहु मनुष्य को इतना शक्तिदाटी करता दै किं वह अपने शतुभों पर विजय पा सकता दै । मनुष्य व्यावहारिक कामों में इतना निपुण होता है कि यह दूसरों से अप्रना काम निका टेता है– जो कुर जवान से निकाल्ता हे उसे पूरा करके छोडता है– भौर इसमें दूसरे की राक्ति का उपयोग कर ठेने मे इसमे निपुणता रहती दै । इतना दी नदी, भपित, दूसरों के प्रभाव से अपने काम, अपने बन्धु बान्धवो के काम तथा इनसे अन्यत्र दूसरोंके कामभी सिद्ध करने में निपुण तथा कुराल होता दै । ल्यका राहु शारीरिक नैरोग्य-शारीरिक बर इतना देता है कि यह अपने यौवन मे अनेक लियो का उपभोग लेने म समथं होता है । कथन का तात्पर्य ड कि तनुभाव मे राह के होने से यौवन बलाल्यता भी होती है ओर कामाधिक्य भी रहता दै अपनी खी से असंतुष्ट रहने से व्यमिवारो उत्ति भी होती है । अर्थात्‌ यह एक नारीव्रत नहीं होता हे ॥ १॥

तुखना-^प्रतापादन्यस्य प्रभवति समथेस्तनुगते

प्रमावादन्येषां तमसि सहसाच्छादयति सः निजा्थानन्थार्थानपि च विगतारिः ईइतिपरः । द्विभार्यो वर्थस्लीगणपसरिव्रितोवाद्‌ निरतः ॥ जोवनाथ

अथे– जिस मनुष्य के जन्म समयमेराहु ल्मे हो वह दूसरे के प्रताप

से सामथ्य॑वान्‌, तथादूसरेकेप्रमावसे दौ अपने ओर दूसरेके धनका

७७२ चमत्कारचिन्तामणि का तुरखुनास्मक स्वाध्यायं

सहसा उपयोग करता है । श्रु रहित होकर अपने कार्यं म तत्पर रहता है इसके दो च्य होती है, तथा अनेकानेक सुन्दरी छखियोंसे घिरा रहता है। ओर विवाद मे तत्पर रहता है । भट नारायण ओर जीवनाथ मे प्रायः शब्द अर सथं कौ समानता दै । जीवनाथ के अनुसार तनुभाव के राह से द्विभार्या मोग होता हे | व्यभिचारयोग मी होता दै । तनुभाव मँ गहु के होने से मनुष्य दुखरे के धन का उपयोग, स्वार्थं भौर पराथं सिद्धि के लिए करता दै ।

ल्ेतमो दुष्टमति स्वभावं नरं च कुयात्‌ स्वजनानुवंचकम्‌ । रीषन्यथा कामरसेन संयुतं करोति वादं विजयं सरोगम्‌ ॥ महे अथं–यदि किसी मनुष्य के जन्म खगन मं राहहोतो बह दुष्ट बुद्धिवाला दुष्ट स्वभाव का, अपने भाद-बन्दां को भी टगनेवालख होता है। इसे शिरो- वेदना पीड़ा देती हे | यह कामी, रोगी ओर वाद-विवाद मे विजय पाने वाला होता है । महेरा के अनुसार व्ययभाव का राहु अञ्युम फल्दाताहे। “’सअन्वल्खाने यदा राखः विस्मनाकश्च कादिकः। मनुजः स्वाथकतां स्याद्‌ भवेद्‌ वेरो जादिलः ॥ खानखाना अथे– जिसके ल्य में राहुहो वह दुःखी, आट्सौ, स्वार्थी, बदसूरत अर मूख होता है । (“क्ररोदयाधमं विदहीनरीखो राहौ विट्य्रो पगतंत॒ रोगी | रविक्षेत्रोदये राहौ राजमोगाय सम्पदि ॥ वेद्यनाथ अथे- जिसके ठ््भाव मं राह हो तो वह मनुष्य क्ररः दयारहित अधार्भिक, खीलरहित व रोगी होतादै। ल्यमें रिंह राशिमें राहुदो तो राजवैभव मिल्ता है। “येगी सदादेवसिपौ तनुस्थे कुलोपकारी बहुजस्पशीलः । रक्तक्षणः पापरतः कृतघ्नो नरः सदा साहस कर्म॑दश्चः ॥ मानक्षागर अथं-राहु व्यमावमंहो तो मनष्य कुक का उपकारी, व्यथं बोलनेवाखा ला नेत्र, पापी, कृतघ्न, किन्तु सदा साहस से कमे करने मे समथ होता है। मानखागर के अनसार तनभाव का राह मिधरितफल दाता है । “ध्लद्येतमां दुष्टमति स्वभावं नरं च कुर्यात्‌ स्वजनानव॑चकम्‌ । रीर्घव्यथा कामरसेन संयुतं करोति वादे विजयं सरोगम्‌ ॥ टण्टिराज

थे- जिसके ख्यमं राह हो वह मनुष्य दुष्ट स्वभाव ओर कुबुदि होता है । यद अपने जनों को टगनेवाला होता है । यह शीषपौडा युक्त, कामी, रोगी भौर बाद्‌-विवाद मे विजय पानेवाखा होता हे | महेश भौर दृण्टिराजमें पृणं समानता ह । ““्लद्नेऽहावचिरायुरथबल्वान्‌ ऊर्ध्वग रोगान्वितः ॥ मन्त्र इवर

राह-र्ट @.७३

अथै–यदि ल्य में राह होतो {मनुष्य की .मायु थोड़ी होती है । यह धनी ओर बलवान्‌ होता है । किन्तु इसके शरीर के ऊपर के हिस्सेमें कोई रोग होता है) | ८’अजचरषकर्किःणि लये रक्षति राहुः समस्तपीडाभ्यः । प्रय्वीपतिः प्रसन्नः शतापराधं यथा पुरुषम्‌ ॥ नारायण अर्थ- मेष, चष वा ककं मे ल््माव का राहु हो तो सम्पण पीडां को दूर करतादै। जते राजा यदि प्रसन्नो तो सेकड़ं अपराध करने पर भौ ुरुष की रक्षा होती हे। “सर्वगसेगी विकलः कुमूर्तिः कुवेषधारी कुणखी कुकमा । अधार्थिकः साहसकर्मदक्षं रतक्षणश्वद्र रिपौ तनुस्थे ॥ राही लग्मगते जातः संचयं कस्य कुत्र चित्‌ । सिह कर्किणी मेषस्ये स्वणेलामायः मङ्गलः । यस्य ट्येस्थितस्तस्यान्दोलिता प्रकृतिः भवेत्‌ । राहुः यतच्चस्थः तत्र कुष्णलांखनम्‌ ॥ गर्ग अ्थै–तनुभावमें यदिराहुहोतो मनुष्य सवौगरोगी, विकल, उुरूप, अधार्मिक, साहसी भौर लाटनेत्र वाला होता रै। इसके नाखून, तथा वेष ८ पोशाक आदि ) अच्छे नदीं होते। लद्मस्थराह किसी प्रकार से ओर कंसे धन कालाम्‌ कराता दे । सिंह, कर्क वा मेष राशि मे ल्मभाव का राहु होतो धन लभके शिष्‌ | बहत श्वम होता है । ल्य का रा होने से मनुष्य का स्वभाव चञ्चर होता है । | जिस स्थान मे राहो वो काला चिन्हहोताहे। ल्प्रमेंराहुके होनेसे चेहरे पर कालम चिन्ह होता है॥ “टे तमो दष्टमति स्वभावं नरं च कुयात्‌ स्वजनानुर्वचकम्‌ । शीरषव्यथां कामरसेन युक्तं करोति वादे विजयं सरोगम्‌ ॥ बृहृद्यननजातक अथे–ट्रस्य राह हयो तो मनुष्य, दुषटबद्धि तथा दुष्टस्वभाव का, अपने दी रोगों को उगनेवाला होता है । इसके रिर में वेदना होती है | यह कामुक, वाद मे विजयी ओौर रोगो होता ह । ‘“उच्चसस्थेऽपि कोणे तनौ मानवं भूपदुस्यं सद्रवव प्रकुयाद्‌ अहिः । रोषसंस्थो सुजाश्चीणदे हं शठं दुःखभाजं मयेनान्वितं संमवेत्‌ ॥ हरिवंश अथ-ल्घ्रमे उच्चस्य तथा नवमपञ्चममे यदि राहु ह) तो मनुष्य राज समान तथा धनी होता है। अन्यराशियों म होतो मनुष्य रोग से क्चीणदेह,

शठ, दुःखी मौर मेयभीत होता ई । यदि राहु मेष, वृष वा ककमे होतो सव दुःख होतेह, अन्यराशिमें

हो तो गजा से देष, रोग-चिन्ता होती है ।

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७४ चमस्कारचिन्तामणि का तुरुनारममक स्वाध्याय

लग्रभावस्थ राहू मेष; वृष, मिन, कक, सिह, कन्या तथा मकरमेंदहोतो राजयोग होता है । सुखी ओौर दया होता दै । अन्यरोरियोंमेंदह्ोतो मनुष्य पुत्रहीन होता है । अथवा मृतपुत्र होते रै। धृगुसूत्र-““मतप्रसूतिः । मेष, इृषम-ककं रारिस्थेदयावान्‌ बहुभागी, अद्यमे अद्ुभदृष्टे मुखेलांछनम्‌ । “(तनुस्थले यदा राहुः स्ववाक्यपरिपालकः। बहूुदाररतः पुंसः कामाधिक्यं सुवेषवान्‌ |“ अथं- जिस मनुष्य के ल्य्मभावमें राहो तो इसकी सन्तान मृत होती दै। यदि इस माव का राह मेष, बृषवा ककंमंहोतो मनुष्य दयालु मौर बहुत भोगों का उपभोग करनेवाला होता है । यह राहु यदि अश्चभग्रह से युक्तः हो अथवा अद्युभग्रहसे दष्टो तो मुखपर दाग रहता है। यह मनुष्य अपने वचन का पाटन करनेवाला ( अर्थात्‌ सव्यप्रतिज्ञ ) अनेक खियों मे आसक्त यतिकामुक, तथा सुन्दर वेष धारण करनेवालाहोता दहे । व्यम राहूुसेखरी तथा पुत्र का सुख नहीं मिल्ता | मित्र नदीं होते, मागम कष्ट, जल से भय रहता है। बातरोगसे पीडादहोतीदै। मनुष्य ्चगड़ादू; धन का क्षय करनेवाला होता है | राह स्वग्हमंहोतो खभदेतादै॥ “धने केतुः कच्तरादि न किञ्चित्‌ खखमाप्रयात्‌ | मार्गे चिन्ता जकेभीतिः स्वगरदे लाभदायकः देदे मरुव्लछती पडा कलहरी वैभवक्षयम्‌ | पुत्र-मिघ्राटिकं कष्टं राहौ जन्मनि ल्यगे ॥ पाश्चात्यमत–ल्यस्थ राह बहुत महत्पूणे होता है । यह व्यक्तिः अति- दीन दशा से अति उच दशातक पर्टचता है । लोगों कौ नजर मे श्रेष्ठता मिलती है। यह शक्तिमान्‌ , पराक्रमी, अभिमानी; जब्दी कीर्तिं प्राप्त करनेवाला, रोगो की परवाह न करनेवाला होता दहै । शिक्षाकौ आर इसका विरोषं ध्यान नहीं होता । यह प्राचीन संस्कृति का अभिमानी होता दै। नई वातोँंको जल्दी हण नदीं करता । इसका वदन छरदरा तथा कद्‌ ऊचा होता है । विचार ओर अनुभव-ख्स्थ राहु मिश्रितफल दाता दै-नारायण भह ओौर जीवनाय देवज्ञने प्रायः अच्छे द्यमफल बतलाए ह । उचस्थान का राहु कोण का अर्थात्‌ पञ्चम-नवम का राहू, सुयक्षेत्र स्थित राहु श्ुभफल्देता दहै, मेष-वरृष वा ककः राशि का राहु श्चुमफल दाता है; यदह मत मी बहत आवार्य का ईै–पाश्चाव्यमत के अनुसार लयस्य राहु मनुष्य कों अतिदहीन दशा से अति उचद्शातक पर्हुचाता दै । मन्त्रश्र, वेद्रनाथ अषद्रं के मतृसार लग्रख रादु अद्यभफल्दायक है । इम तरह लय्मभावस्थित राहु के श्चुभ-मश्चम दोनों प्रकार के फट दै ।

राह-फर ७७८१

पुरुषरािस्थित राहु के फर खीराशिस्थित राहु के फलों से भिन्न द । यदं पुरुषराशि का फल्वर्णन है वहां पर॒ रिहराशि को छोड़कर अन्यराशियो का ग्रहण करना उचित होगा । इसी तरह खीराशिर्थो मे धिक राशि का ग्रहण अनचित होगा । वृश्चिकराशि अपवाद में है । शुभ सम्बन्धस्थित रादु मनुष्य को रोगों के कल्याण के लिए यत्त करने के लिट अन्तःप्ेरणा देता ह । पुरुषराशिस्थित ल्य्यभाव का राहु हो तो प््विभाया योग होता है । ख्रीराशि स्थिति ल्सस्थ राहु से एक विवाह होता है । यह अस्पखरी सुख का योग हे | मेष, सिह, धनु म यदह राहु हो तो दत्तक योगः होता हे । मेष मे ल्स्थ राह का मनुष्य उदार होता है । सिह म द्यां होता हे । धनु गे राह होने से व्यक्ति दूसरों के व्यवहार से अटग रहनेवाखा व्यक्ति होता है। वृष-कक, कन्या, मकर वा मीन में राहुंहोतो मनुष्यरगोंके काममें दखल देनेवाला होता है | मिथन, वला, कुम्भ का राह मनुष्य को छिन्द्रान्वेषक बनाता हे । खीराशि स्थित याह मनुष्य को व्यवहार मँ अव्यवस्थित बनाता है । इृश्िकरारिष्थित राह मनुष्य को निष्कपटी बनाता है । यह द्विभाया योगः होता है। पहिली पुच्रसन्तति की मृत्यु होती दै । | “ष्ट्य ष्व दशमे राहुः जन्मकाले यदा मवेत्‌ । वे तु घोडरोक्तेयो बुधेमस्युनैरस्य च “’दर्शनभागेसौम्या; कराः त्वादद्यके प्रसवकाले । रादर्ट्नोपगतो यमोक्षयं॑ नयति पञ्चमिवंषेः ॥ “घट सिंहब्ृिकोदयङृतस्थिति जीवितं हरतिराहुः । पावैर्निरीक््यमाणः सप्तमितेर्िंधितं वैः ॥ ऊपर च्खि दटोकों से “टय्यस्थित राहु मघ्युकारक दहै एेसा प्रतीत होता है। किन्तु गम्भीर विवार यदि किया जावे तो यह निश्चय कियाजा सकेगा करि राह मत्युकारक ग्रह नहीं है। . मृत्यु शब्द भारी शारीरिक कष्ट का सूचक हे । अर्थात्‌ निर्दि वर्षो में * मृत्यु वस्य कष्ट होता है ॥ | धनभावगत राह के फटछ– | ‘कुदटुबे तमो नष्टभूतं कुटंबं सृषाभाषिता निभयो वित्तपाटः। स्ववगेप्रणाद्ो भयंशखतः चेदवदयं खेभ्यो रभेत्‌ पारबदयम्‌ ॥ २॥ अन्वय–८ यस्य ) कुटुबेतमः ( तदा ) ( तस्य ) कुडम्बं नष्टभूतं ( स्थात्‌ ) ( तस्य ) मृषाभाषिता ( भवेत्‌ ) ( सः ) निमेयः वित्तपालः ( च ) स्थात्‌ ( तस्य ) स्ववर्गं प्रणाशः, शसत्रतः मयं ( च ) स्यात्‌ ( सः ) खलेभ्यः पारवद्य अवद्य क्मेत्‌ ॥ २ ॥

8७६ चमरकारचिन्तामणि खा तुलनास्मक स्वाध्याय

सं< टी– ऊब द्वितीये तमः राहुः चेत्‌ कुडम्बं स्ववंधुजन भूतं दुर्जनं अतएव खलेभ्यः दुष्टजनेम्बः हेतोः अवद्यं पराधीनत्वं काराहनिवासित्वं वा, राख्रतः भयं च ठभेत्‌ , तथा मृषाभाषिता मिथ्याभाषितं निभेयः भयरहितः वित्तपालः दरव्यरश्चकः कृपणः इतियावत्‌ स्ववगं प्रणाशः वंघुनाशः भवेत्‌ इतिरोषः ॥ २॥ - अथे–जिख मनुष्य के जन्मल्य् से द्वितीय भावम राहो तो उसका कुडम्ब नष्ट होता ह । मनुष्य चठ बोलनेवाला होता दै । यह निर्भय होता है । यह द्रव्य का रक्षण करतादहै। यह अपने वांधर्वोंका नादशदेखताडहै। इसे दस्र से भय दाता है । यह दुष्ट रोगों के व मे अवदय रहता दै ॥ २॥ “कुट्म्बे राहुश्वेद्‌ भवति धनपालोऽपिविकलः सदामिथ्यावादी निजजन विरोधेन मनुजः । भये रा्रोः शस्रादपि च लभते निभयमतिः ; परा्थाधीनत्वं विषयन्रपदण्ड च खठतः | जीवनाय अथ– जिस मनुष्य के जन्म समयमे राहु धनभावमं होतो मनुष्य कुवेर के समान धनीदहोने परभी निधन होता दै। अपने बन्धु-षंघवोंमें विरोध के कारण सर्वदा मिथ्याभाषण करनेवाला होता दै । इसे शत्रु तथा रास से भी मय होता है। यह निर्भीक बुद्धिवाला; पराधीन, तथा दुजंनों के कारण कठिन राजदण्ड भी पाता है। ‘“घनगतो रविष्व॑द्रविमर्दनो यखरतांकित भावयथो भवेत्‌ । धनविनाशकरोहि दरिद्रतां खलं तदा लभते मनुजोऽटनः ॥° महेश अथं–जिस मनुष्य के जन्मल्य से द्वितीयभावमे याहूदहो वह अप्रिय भाषणकर्ता वातूनी वा मुंदजोर होता दहै। इस भाव का राह धन नाशक होता है-मनुष्य दरिद्र अर्थात्‌ निधन होता है| मनुष्य घुमक्ड होता है । कजीवाहासिदरासो माल्खाने च मुफटिसम्‌ । करोति मनुजं वान्यदेरो धनसमन्वितम्‌ ॥ खानखाना अथे–यदि राहु द्वितीय भावमें हो तो मनुष्य स्वार्थी होतादहै। वह अपनी जन्मभूमिमें बेकार भौर दुखी रहता है, किन्तु यदि परदेश जाता हैतो धनीद्ोतादै। धनभाव का राहु मनुष्य को धन-उपाजन करनेमें परदेश मे सहायक होता है, किन्तु स्वदेश मं वबरत्तिहीन तथा दुःखी करता है। (“विरोधवान्‌ वित्तगते विधुन्तुदे लनापराधी रिखिनि द्वितीयगे ॥› वे्यनाथ अथं- यदि धनभावमें राहुदहो तो मनुष्य का बहुत विरोध होता दै। दवितीयभाव काराहुदो तो मनुष्य किसीमी काम करनेको उद्तदहोतादहै इसके रास्तेमे भारी दकव आती मौर सफठ होने के ल्एि एड़ी-चोरी का जोर लगाना पड़ता है । ‘छन्नोक्ति्युखसग्‌ घ्राणी वरपधनविदेषः सुखी ॥’ मन्तरेहवर

राहु-ररू 8७७

अथे–यदि द्वितीय स्थान मेँ राहु दो तो मनुष्य अस्पष्ट . भाषणकर्त होता

दै-अर्थात्‌ मनुष्य अपने भाव को साफ तौर पर समन्चा नीं सकता है । इसके

मख में रोग होते ईै। इसकी नासिका बड़ी होती है, इसे राजा से धन प्राप्त होती है ओौर यह सुखी होताद्ै। मंतरश्वर के अनुखार दितीयमावस्थ राहु अश्चम-श्चभ-दोनों प्रकार के फट देनेवाला अह है । | ““राहौ धनस्थे कत्ोरवत्तिः सदाऽवलिपतो बहुढुःखमागी । मस्स्येन मांसेन सदाधनी च सदावसेन्‌ नीचगे मनुष्यः ॥* भानसागर अर्थ–यदि राहु धनभाव म हो तो मनुष्य चोरी करनेवाला, यमिमानौ ओर अतीव दुःखी द्योता है । मत्स्य मांस के व्यापार से धनवान्‌ होता रै । ओर य नीच जनों के धरमें रहनेवाल्म होता है। मानसागरी के अनुसार दवितीयस्थ राहू अश्चम फल्द दे । | | ^ध्धनगतो रविन्द्र विमरदनो सुखरतांकिंतमावमथोभवेत्‌ । धन विनाश्च करो हि दद्ितां खड तदा ल्मते मनुजोऽनम्‌ ॥” इष्डिराज ` अथे–राहु यदि द्वितीय भावस्य हो तो मनुष्य कंटोर बाणी वाल्नेवाल अर्थात्‌ कटभाषण करनेवाला दता ई । इस भाव का राहु धननाश्क है-मनुष्य दरिद्र ओर भ्रमण करनेवाला होता है–अन’ का तात्पयं अच्ांत ओर आजी-

विकाके लिए मारे-मारे फिरना भी हो सकताहै ओौर पययन करनेवाला

शौक से देश विदे भ्रमण करनेवाला भी हो सकता है- प्रथम तायं मे निर्धनता यौर जीविका राहित्य कारण होगि-ोर द्वितीय मे अतीव धनसम्पन्नता कारण हो सकती ह धनाभाव मे भानन्दप्राप्ति के लिए विदेश भ्रमण होना सम्भव नदीं हे। (धनगते रविचद्रविमर्दने मुखरतांकिंतभावयुतोमवेत्‌ । घन विनाशक हि दरिद्रतां स्वसुहदां न करोति वच्वग्रहम्‌ ॥° ब्ह॒द्थवनजातक अर्थ–घनभावमें राहु के होने से मनुष्य बहुत बोलनेवाला धन का नाश करनेवाला, दरिद्री तथा मिनो की बात न माननेबाख होता -है । बहुत बोलना, अप्रिय बोटना-कर्णकटभाषण, मिथ्यामाण, वितंडावाद्‌, व्यथं बकत्रक त्मा स्लना-ये सभी जिह्वा के दोषै । द्वितीयस्थान का राहु इन स दोरषोका कारकयह ईै-यह माव दै। ये दोष हर एक काम की सफर्ता मे रुकावट ओर अड्चने डालते है । मधुरं माषण कार्यसिद्धि मे प्रधान साधन होता है। न्नस्स्यमांसधनो नित्यं नख चमोदि विक्रयौ । „ _ जीविका चौरकृत्याचच राहौ धनगते नरः॥ शणं अथं–जिस मनुष्य के धनभाव में राहु हो वह मच्छढी के मांस को वेच. कर धन कमाता है। यदह नख भौर चमड़ा बेचकर आजीविका चलता दहै। यह चोरी के कामों से धन पराप्त करता है। - “स्याद्‌ दन्तुरो दंत गर्दितो वा रिहीमुते चेत्‌ घनभावसंस्ये | पंजराज

७७८ षवमरकारचिन्तामणि का तुकनारमक्‌ स्वाध्याय

अथे–यदि राह धनभाव में होतो व्यक्ति के दांत ऊचे-नीचे-टेड-मेढे होते लक्षणयाखर के अनुखार दन्तुरव्यक्ति चतुर दोता हे, कोई एक मूख भो होता है “दुन्तुरोऽपि कचिन्मूखंः |” कथन का तात्पयै यह है कि पुरूष के दान्त एक जेसे होतो मुख की शोभा होती है । अथवा द्वितीवस्थ राहु के होने से मनुष्य कोदान्तके रोग दहोते्ै। अद्यतन भारत म दन्तरोग भूयस्तव देखने मं आरहादे। “धने राहुणा वतमाने धनी स्यात्‌ कुटम्बस्यनाशो भवेद्‌ दुष्ट खेटः । स्थितिः वक्रघातस्तथा गोधनं स्याद्‌ धनंवधतेमादिषं श्ुनाशः ॥ जागेइवर अथे–धन भाव में राह होतो मनुष्य धनवान्‌ होता है-यदि इस भाव के राहु के साथ दुष्टग्रह भी डोतो मनुष्य के ऊुडम्बरका नाथ होता है | इसके विपरीत चलने वाटे शत्रुओं का नाश होता है। इसे गोधन प्राप्त होता है। सोके व्यापारसे इसके धन तथा गोंड-सम्बन्धि व्यापारसे इसके धन की रद्ध होती दै । अर्थात्‌ जिसके द्वितीय माव मेँ राहु होतो उसे गाए-भँंस पालन से तथा गाए सम्बन्धी व्यापारसे छाभदहोतादै। ८व्ित्तवाताधिक कांतिः कान्ताधिको गौरवाधिक्ययुतो नरः स्यात्‌ । अन्यदेरो महो्रोगः ॥ हरि गं अथं–यदि धनभावमं राहुहोतो मनुष्व धनवान्‌ बात-रोगवान्‌ तथा कांतिमान्‌ होता दहै–इसे गोप भौर आदर प्राप्त होता है | इसके घर मं एक से अधिक लियौ होती ह । ध्रमं एक से अधिक च्नियोँका होना शुभ है अथवा अद्यभ-दइस विषय मं प्रतिपुरुष भिन्न-मिन्न दृष्टिकोण हो सकते ई । प्राक्तन तथा समद्तन भारत में पुरषो के लिट बहुविवादप्रथा तथा अआद्रूप मं चिर्योके लिट एकपतिं व्रतधर्म बरावर चल्ते मए ईै। पुर्पोके च्एिभी आदगंषूपसे एकनारी व्रत पुराणो तथा यन्य धम्॑रर्थो म प्रतिपादित दै । यौवनारूढ गृहस्थियों के लिए वंडापरम्परा की धारा को अक्षुप्ण रखने के किए विवाह आवदयक था यर द्रै। परन्दु कामवासनातुधि बिवाद् कचा युख्य ध्येय ततथा आद्द्यं नहीं थाः-यद् एक दृष्टिकोण दै। विवाद तथा सखी कामवासना त॒तिका सख्य साधनदै। इस दृषटिकोणसे धन सम्पन्न यौवनाठ्य कामुक रोग अनेक लिया को घर मं रखते ये ओर विषरयोपभोगेच्छा शान्त करते थे–उनके छिए कामानल शान्ति दी जीवन का मुख्य उदेश था यह दूरा दृष्टिकोण है । शास्त्र सम्मत आदशं पुर्षके जिए एकनारो त्रत तथामारीके ट्एि एक्‌ पतित्रत होनाद्ी ठीकदै। दुसरा दृष्टिकोण, धन-यौवन-नाशक तथा रोगकारक दी नदीं अपितु बहुत सी आपकत्तिर्यो अौर विपत्तियो का कारण द्रौ कृता है । इस दृष्टिकोण से धर म अनेक लियो का डहोना-धनभावके राहु का यद्‌ अश्चुभ

राहफक ४७९

फल है । धन का दुरपयोग-स्ास्थ्यनाश-रोगप्रादुमाव, परस्पर वैमनस्य; दैनिक लड़ाई-स्गडे आदि-भादि, इसके अत्यन्त अञयुभ फल रै । ८“धन भुवनगतो विन्तनारं करोति ।°* बशिष्ठ

अध्रै–घनभवनगतराहु धननाश् करता दे ,

भगुसूत– निर्धनः । देहव्याधिः । पुत्रशोकः । सश्यामवणेः पापयुते कलनचयम्‌ । ज्युभयुते चुबुके लांछनम्‌ । घनव्ययमनासेग्यं चिन्ता बस्तादिपीडनम्‌। वक्त्रलोचनपीडा च धनस्थे सिंहिका सुते॥

अशथी-घनभावमे राहकेदोनेसे मनुष्य निर्धन, रोगी ओौर पुत्र को मृप्यु से दुभ्खी होता है । मनुष्य सौबले र्ग का होता दहे । राहु के साथ पाप्‌- ग्रह होतो इसके तीन विवाह होते ह । राहु म होतो दीडी पर चिन्ह (दाग ) होता है । इसे मुख में ओर ओंखों मं रोग होते हे ।

पाश्चात्यमत- यह्‌ दैववाला, धनवान, भ्यवहार मे व्यवस्थित, लोगों का विश्वासपात्र होता है। इस स्थानमेंकेठुसे पुत्र कौ मृघ्यु, भाग्य क्म होना, नुकसान के कारण घन्दा वन्द्‌ होना; दीवाख्या होना, बदनामी, ये फल मिते ई ॥

अज्ञात–यह राह हिमे होतो निजनप्रदेश म निवास होकर धन मिलता दै । यड मनुष्यों के जीवित हानि का कारण होता हे। धनस्थान में उच अथवा नीच गृह का कोह बुरा फल नदीं मिल्त। इस तरह यह्‌ राह मिथुन कन्यावाकुभमे होतोञ्चम फल देतादै। मनुष्य सकार्यं छोड्ने बाला, दुःखी, धनद्यीन, पुष्ट शरीरः कठोर तथा अविवेकी होता है | विदेश मेँ धन प्रस्त करता दै चोरी मे आसक्त दिखक यदपि ज्लगड़ाट्‌ मुख रोगी बांषव नाशक ठो सकता है। इसके दो लियो हो खकती ई ।

विचार ओर अनुभव–प्राचीन ठेखकां तथा पाश्चात्य ठेखकोँ ने द्भ- अथभ-दोनो प्रकार के फर बतलाए ई । शुभफल का अनुभव ल्रीरा्ियों मे प्राप्त होता दै।

धनभाव का राद्ध यदि अश्युभ सम्बन्ध मे पुरुष राशि का होतो पूयं पुरुषों दवारा शकटी की द्‌ संपत्ति नहीं होती-यदि होतो विवादग्रस्त होती है । अथवा अपने डी द्ाय से नष्ट होती ३। इन्दै अकस्मात्‌ अन्यायोपाजित संपत्ति मिख्ती दै अौर स्थिर भी होती रै। किन्तु इसके दुष्परिणाम आनेवाखी संतति को-पुत्र-पौत्रों को भोगने होते ई । पिता कौ मल्यु के वाद्‌ भाग्योदय होता है- य़ दिभा्याीयोग होता डै। हाथमे पेा आताहै किन्तु ख्चहो जाता है । धनप्रास्ि के समय बिघ्न आते ई। लोगों के रुपए का उपयोग करते से अपवाद कैकता है । प्रायः धनभावस्थ राहु के फल द्वितीय भावस्थ शनि जेते

ही समञ्चने प्वादहिप्‌ स्रीराशि मं शुभयोग मे राहू होतो प्रनुष्यं बडे व्यवसाय
करते की इच्छा से स्थावर सम्पत्ति गिरवी रखकर धन इक्छा क्ता है कभी

७८० ‘वमरकारचिन्तामणि का तुरखुनास्मक्‌ स्वाध्याय

दिवाल्या भी होता है । किन्तु दुबारा मेहनत करता है, ओौर बडे व्यवसाय में सफल होता दै भौर बाजारमें फिरसे नामपेदा करता दहै । यहनतोकृपण होता है भौर नांदी अपव्ययी होता है । आय के अनुसार खचं करता दे। यह्‌ धन की अपेक्षा कीर्तिं को अधिक मूल्यवान्‌ समन्चता हे | तृतीय भावस्थ राहु के फरू— न्‌ नागोऽथ सिंहो भुजाविक्रमेण प्रयाती ह सिही सुते तव्समत्वम्‌ । तृतीये जगत्सोदरत्वं समेति प्रयातोऽपि भाग्यं कुतो यलन हेतुः ॥३॥ अन्वय-इह सिंही सुते त्रतीये ( सती) नागः अथ सिहः भुजा विक्रमेण तत्‌ समत्य न प्रयाति ( तस्य ) जगत्‌ सोदरत्वं समेति । (सः ) भाग्यं प्रयातः अपि कुतः यत्न देः ( स्यात्‌ ) सं० टी<-इह जन्मनि व्रतीये सिंही सुते राहौ भुजाविक्रमेण वाहूवलेन नागः दस्ती अथवा सिंहः तत्समत्वं तुल्यतां न प्रयाति ] जगत्‌ तरेरोव् सोदरतवं श्रावरभाव समेति । तथा भाग्यं प्रयातः अपि प्राक्तमाग्योऽपि यत्न हेतुः यल्ञस्य उद्यमस्य देवुः कारणं कुतः कथं स्यात्‌ । अलाभः भवेत्‌ इधव्यथः।। ३॥ अ्थ–जिस सुनुष्य के जन्म ल्नसे तीसरे स्यानमें राहु दहोतो हाथी वां सिंह वाहुबल मे उसकी वरावरी नदीं कर सकते दै । अर्थात्‌ तृतीयस्य राह प्रभा- वान्वित मनुष्य का बाहुबल वहत वडा होता है | सारा संसार इसे सगे भाई के समान होता दै । अर्थात्‌ यह मनुष्य समीके साथ भादा जैसा आदर पूण व्यवहार करता है, किसी से मेदभाव नदीं करता ओौर श्चुद्ध अंतस्करण से समभाव का व्यवहार करता दहै॥ | यह भाग्योदय होने पर मी व्थर्थं उद्रोग करता है। अर्थात्‌ इसे भाग्योदय दारा द्रव्य खभ सहज ही होता है, ओर यत्न करने की आवदयकता नदीं रहती है । | तुखना – “यदा सिीपूत्रे भवति सहजे जन्म॒ समये जगन्मेत्री नित्यं प्रवरमपि माग्ये प्रभवति । मदाट्स्यं पुसामुपकृति विधानेन किमति + प्रताप प्रावव्याद्‌ ष्रिषम समरे सिंहसमता | जीवनाय | अ्थ-जिस मनुष्य के जन्म समय मेँ राह तृतीय मावमें हो उसे संसार में सर्वदा सव से मैत्री ओौर उत्तम भाग्य होता है । परोपकार करने मे आलस्य ओर कठिन संग्राममे मी प्रताप की प्रजल्तासे सिह के समान पराक्रमी होता दहै। “दुश्चिक्येऽरिभवोद्धवं विनिहते लखोकेयशस्वीनरः । श्रेयो वादि भवं तदादि लभते खौख्यं विखसादिकम्‌ ॥ भ्राव्रणां निधनं पशोश्च मरणं दाख्द्रिय–मातं। दवयुं निस्य सौख्यगणेः पराक्रमयुतं कुर्या च राहुः खदा ॥ महेश अथे–यदि मनुष्य के व्रतीयभावमें राह होतो शत्रुओं के एेयका नाश्च करता दै । संसारम कीर्तिमान होता है। वाद्‌ में बरिजयी होता है इसे

२९१ ` राहु-फछ ४८१

विलास आदि का सुख प्राप्त दोता दै। इसके भायां की मृत्यु होती ई ।

इसका पञ्यधन नष्ट होता हे | यह द्री होतादै। इसे नाना प्रकार के सुख प्रास्त होते ह जौर यह पराक्रम-युक्त होता है।

“पाकः शाहवलः स्याद्वै नेकनामो गनी सखी    
रीयुम्‌ खाने यदा रासः प्रभवेन्‌ मनुजो धनी   खानखाना ॥

अथे–यदि राह वृतीयमाव मं होतो मनुष्य पवि, राजवल से युक्त यरास्वी, प्रतिष्ठित, धनी ओर दानी होता है। |

८ “राहौ विक्रमगेऽतिवायं धनिकः ||” बंदनाथ अथे–जिखके तृतीयभाव मेँ राह दो वह पराक्रमी मौर घनवान होता है । “मानी भ्रातृवियोधको दृद्मतिः ओौयं चिरायुर्धनी ॥ सत्रेहवर ॥ अथे–जिसके वृतीयभाव में राह हो वह्‌ अभिमानी, धनी, दटविचार का दीर्घाय, तथा माइयों का विरोध करने वाला होता है ॥ ““भ्राठुर्विनारं प्रददाति रादुस्तरतीयगेदे मनुजस्य देदी। सौख्यं धनं पुत्रकल्त्रमित्रं ददाति ठुंगी गज वाजि श्त्यान्‌ ॥ भानसागर अ्थ- खगन से वरृतीयभाव में राहु होतो सहोद्र माई का नाश्च होता है । यदि रादु अपने उच मे होतो मनुष्य को सुख, घनः पुत्र–स्वी मित, षोडे-हाथी ओर नौकर प्राप्त होतेरहै। “’दुश्चिक्येऽरि भवभयं परिहरन्‌ रोके यशस्वीनरः। ्रेयो वादिभवं तदाहि लभते सौख्यं विलासादिकम्‌” ॥ भ्राव्रणां निधनं पशोश्वमरणं दारिद्रमावैर्युं | नित्यं सौख्यगणेः पराक्रमयुतं कुयौश्वराहुः सदा ॥ दुण्डिराज

अथै- जिसके वृतीयभाव मेँ राहु हो ह्‌ शनरुमय रहित, यशस्वी, बाद

विजयी, विलास के सुख तथा परक्रम युक्त होता है। इसके भाईयों कौ तथा पञ्चमो की गव्यु होती दै । मनुष्य दद्र अथीत्‌ भाल्सौ होता है यह कई प्रकार के सुखां का उपभोग करता दै । ‘ष्ुश्चिक्ये भूपपूञ्यः” ॥ बरिष्ठ अधथै- जिसके ठृतीयभाव में राहु हो तो बह राजा से सम्मानित होता दै। ““भ्रातरगेहन्ति वा व्यगमथवा भ्रातरतमः। लक्षश्वरं कष्टहीनं चिरं च तनुतेधनम्‌” !॥ गगं ` अथी-जिसके तृतीयभाव मेँ राहु हो तो बह व्यंग होता दै अर्थात्‌ इसके दारीरमे र्व्यग॒ रहता है। यह लक्षाधीशच, सुखी ओौर चिरकाट्तक धनप वाला होता है। न सिद्ो न नागो भुजा विक्रमेण प्रतापी सिंदीयुते तत्‌ समत्म्‌ । तृतीये जगत्‌ सोद्रत्वं समेति प्रभावेऽपि भाग्यं कुतोयत्र केतुः ||» वृहद्यवनज।तक

८२ ‘वमस्कारचिन्तामणि का तुरुनार्मकर्‌ स्व(ध्याय

अथो—यदि मनुष्य के तरतीयभावमें राहुदोतो मनुष्य हाथी वा सिंह से बटुकर पराक्रमी होता दै ¦ यह संसार मरको दही अपना माई समञ्चता है । संसार भर के मनुष्यों को अपने सगे भाई जैसा समञ्चना महान्‌ उदारता का लक्षण है | “उदारचरितानां ववसुधेव कुटम्बकम्‌ 2

“तमो विक्रमे विक्रमान्‌ नागयूथैः भजेत्‌ महछविांतु कमानु

तदा तेजसा तेजसां विविनाडं करोति स्वये पुण्यमार वियाति ॥ जागेश्वर

अथे–यदि राहु वरृतीयभावमेदहो तो मनुष्य हाथियोंसेभी कुदती ल्ड सकतादहे। अपने तेजसे शत्रु का तेज नष्ट करता है । स्वयं ्युभमार्ग पर चट्ता ई । |

““श्रात्रसोख्येन हीनो भवेत्‌ भ्रात्रगेहे शीतभानुरात्रौ ॥* इरिवंश

अ्थ–यदि राह वृतीयभावमें दो तो मनुष्य को मादयों का सुख नहीं

होता हं ।

भरगुसूत्र–“पराक्रमी । खादसोदमी । माग्येशव्यं सम्पन्नः । परदेश्युतः । राजभानस्तथेश्वय॑मायोग्यं विभवागम्‌ । शचृक्चयं सुहत्सौख्यं राहौ ल्पने तरतीयगे । ति निष्पावमुग्दकोद्रब समद्धिवान्‌ । छमभयुते कण्टलांछनम्‌ ॥°

` अथे-यदि राहु ल्यसे व्रृतीयभावमें होतो मनुष्य पराक्रमी, साहसी,

उद्योगी, भाग्यवान; धनवान, राजा द्वारा सम्मानित). नीरोग मिनत्रसुख सम्पन्न, होता दै। मनुष्य परदेशमं जातादहे। यह शवुओंका नाश करता है इसके घर मेँ तिक, निष्पाव, मूंग-कोद्रव आदि धान्य हति दै । निष्पाव एक प्रकार की दाल है।

नोट-क्सीषएककामतहै किराहु के फल पुणरूपेण तव मिलते ई

जवर यह उच्चः वा स्वण्हीवादात्रुकी राशिमं हदोताहै। ओर चिहमें राहु तेजस्वी होता है ।

पाश्चाव्यमत-व्रतीयभावगत राहु प्रभावान्वित व्यक्ति त्वरितवबुद्धि भौर चपल होते दै। इस स्थानमें क्ठ॒से जादू होने मं विश्वास होता दै। तथा उससे कृष्ट होता है । यह व्यक्ति संशयी वृत्ति का भौर मानसिक योगों से युक्त होता दै । इसे बहुत स्वभ्र माते है । अन्यग्रहके योगसे यह्‌ इृ्तपत्र सम्पादक वन सकता है ।

विचार ओर अनुभव-केलकों ने श्चमवा अश्भफल वतल्रए रै । शुभफल का अनुभव स्रीरारियोंमें प्राप्चहोतादहै। अश्युभफट का अनुभव पुरुषराशियों मे प्रास्त होगा । व्रतीयस्थराह भ्रातर मारक है-यातो माई होगे नदीं मौर यदि दहएतोये निरुद्यमी भौर ॒पुद्रहीन होगे । इख स्थान के राह से किसी भाई का संसार नहीं चटेगा किसी कौ अपघात से मूल्य होगी । कोई लापता होगा । किखीसे अदाल्त मेँ सुकदमे ठ्डने पडंगे ! इस तरह ततीयभावस्थाराहु भ्राठर सुखका बाधक दै। खीराशि का तृतो:

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राहू-एल ४८३

भादयों को मारक नहीं होता । बहनों को मारक होता है । इस स्थान के राह से दो भाई एक स्थान पर नहीं रह सकते । इस स्थान का राहू पिले पुत्र कोभी मारक है। चतुथेभावगत राहु के फल– “व्चतुथं कथं मातृनैरुभ्येदेहो हदिञ्बाख्या सीतटं कि वहिः स्यात्‌ । स॒ चेदूस्यथा मेषगः ककंगो वा बुधक्षंऽसुरो भूपतेवेन्धुरेव ॥ १॥ अन्वयः-असुरः प्वतुथं ( स्थितः ) ( चेत्‌ तदा सः मातृनैरुग्यदेहः कथं ८ स्यात्‌ ) हृदि ज्वालया वहिः शीतलं किं स्यात्‌ । सः मेषगः कक्गः बुधक्षं वा चेत्‌ अन्यथा ( स्यात्‌ ) ( सः ) भूपतेः बन्धुः एव ( मवेत्‌ ) ॥ १॥ सं टी०- चते असुरः राहुः चेत्‌ मातरनैरुग्यदेहः मातः देहारोग्यं कथं स्यात्‌ क्व इत्यर्थः । हृदि ज्वाल्या मनः सन्तापेन वहिः शरीरमपि शीतर किं स्यात्‌ स्वयं च आधियुतः इव्यथः । अथ मेषगः ककगः मेष-ककराशिस्थः बुधक्षं कन्यामिथुनयोः वा स॒ राहुः चेत्‌ अन्यथा तमः मफख्द्‌ः; तद्वद्‌ एव भूपतेः बन्धुः एव मतिप्रेयः स्यात्‌ इति पूवण न्वयः ॥ ६ ॥ अर्थं- यदि जन्मल्यसे चठुथभावमं राहु ददो तो मनुष्य की माता ङ्ग्णा रहती है । मनुप्य को मानसिक चिन्ता रहती है । यदि यह राहु मेष, ककः, मिथुन भौर कन्या का हो तो यह कहा हुमा फर नहीं होता ₹; अथात्‌ मनुष्य को माताका सुख होता है ओर चित्त को स्थिरता होती है। यहं राना का बन्धु दी होता दै, अर्थात्‌ यह राजा का प्रमपात्र होता हे ॥ तुटना-““सुखे मातुः कष्टं भवति यदि राहूस्तनुभूतः | सदान्तः सन्तापः कथमपि वहि शौतल्मलम्‌ , शरीरे राहश्चेद्गविब्ुधभ्रगोश्वन्द्रमवने । क्रियेऽपिक्चोणीरौः प्रभवति हितत्वं च परितः॥ जौवनाथ अर्थ- जिस मनुष्य के जन्मसमय में राहु चतुथंभावमें दो तो उसकी माताको कष्ट होता है। अपने शरीर में कदाचित्‌ वादिरी शीतल्ताहो भी सकती है किन्तु न्दर ( अन्तष्करण मे ) सदा सन्ताप रहता ६ै। यदि राट वृष, मिथुन, कन्या, क्क स्थवा मेष राधिका होकर घठुथमावमे होतो राजायं कं द्वारा हित दोता है। ““्ासश्वेद्‌ दोस्तखाने स्यात्‌ परेशानो मुसाफिरः। नादानोऽपि च वादी च सौख्यदीनो विरक्षकः ॥” खानखाना अर्थ–यदि राह च्ठथ॑भावमें होतो मनुष्य सदा दुःखी, प्रदेशमे र्‌ हनेवाटा मूख, सगड़ाल्‌ तथा सुखहीन होता है | सौर इसका हिती कोई

नदीं दोता । न ““सुखगते रविचन्द्र॒विमर्दने सुख विनाशनतां मनुजो ल्भेत्‌ ।

स्वजनतां सुत भित्र सखं नरो न कमते च षदा भ्रमणं दृणाम्‌ ॥ महेक्ष

८४ षवमरकारचिन्वामणि का तुख्नारमक्‌ स्वाध्याय

अथे–यदि व्तुथभावमें राहुहोतो मनुष्य का सुख नष्ट होता ई) मित्र भौर पुत्र का सख प्राप्त नदीं होता.दै । ओर यह मनुष्य घुमक्छड होता ई । “राहो कलचरादिजनावरोधीः, ॥ वैद्य नाय

अथे–यदि राह चतुथभावमेदहो तो ख्री-जन आदि को कष्ट होता है। ‘“राहौ चतुथं धनवेधुदहीनः म्रामेकदेरो वसति प्रकृष्टः । नौचानुरक्तः पिद्य॒नअ्र पापी पुत्रैकभागी कृशयोषिदीशः ॥ सानसागर अर्थ–चत्थभावमेराहुहो तो धन ओौर वंधुजनों से रदित, गोव के लोगों से प्रथक्‌ एक ज्िनारे मं रहनेवाला, नीच का साथी, चुगुरुखोर, पापी, एक पुत्रवाा, कश घ्री का पति होता है। “मूख वेदमनि दुःखकृत्‌ सयुददत्पायुः कदाचित्‌ सुखी” ॥ मन्त्रे इवर अथ–यदि चतुथे में राहु होतो मनुष्य मूर्खं, दुःख देनेवाला, किन्तु मितो खदित होता है । एेसा मनुष्य अल्पायु होता है ओर कभी दी सुखी होता ईै। ८सुखगते रविचन्द्रविमदंने सुखविनाशनतां मनुजो लभेत्‌ । स्वजनतां सुतमित्रसुखं नरो न च ठ्मेत सदाभ्रमणं वृणाम्‌” ॥ दुण्डिराज अथ- यदि रादु चठुथं हो तो मनुष्य दुःखी, पुत्र; मित्र तथा स्वजनोंसे रहित एवं सद्‌ धूमनेवाखा होता हे । ८्वतु्थै भवनेचेव मित्रभ्रातृविनाशक्रत्‌ । पिवु्मावः क्रंखकारी राहो सति सुनिधितम्‌? ॥ बृहद्‌ यवन जातक अर्थ–यदि रादु चठथमेदहो तो मनुष्यके माता-पिता को कष्ट होता है । इसके मित्र-मादयां का नाश होता हे । धसुदहदि न विनयो भ्राव्रमित्रादिहानिः” ॥ वशिष्ठ अर्थ–यदि रादु चठथं हो तो व्यक्ति उदृण्ड भौर उद्धत होता दै। इसके भाड-मित्र मादि नदीं दोते । “ववरघुस्थानगतो राहभुव॑घुपीडाकरो भवेत्‌ । गावे कर्किणि मेषे चस ष बन्धुप्रदो भवेत्‌? ॥ गर्भ र्थ–यदि राह चठथमेंदहदोतो बन्धुं कौ कष्ट देतादै। यदि यह राहु मेषः वघ वा ककं मे हो तो बन्धुं का बुखदेता है। धयुखेवा थवा सेँदिदेयोऽयकेवुस्तदा मातृपक्षे विषात्‌ क्षत्रषातात्‌ । व्यथा वा जनन्या मवेद्‌ बायुपरीड़ायवा काष्टपाषाणवातेहं तस्यात्‌? ॥ जागेडवर अर्थ-चतुर्धमेंराहुदहो तो मनुष्य की माताको वातरोग डोतादहै। अथवा लकड़ी वा पत्यर के आघात से गयु होतीदे। मामाके षर मं विष वा शखर से मृलयु दोते ई। | ्रधुगेदे तरिघोमदंके मानवो बधुवगंस्य वैरी कु-कामुतरः । आख्दी साहसी एजितेनिन्दिते सौख्यदहीनो भवेत्‌ सवेदा” ॥ हरिव अर्थ–यदि चतुथं में राहु दौ तो मनुष्य पने दी लोगों का शतु, अति कामुक, आलसी भौर साहसी होता है । यदि यद राहु मञ्चम सम्बन्ध मे ह तो कमी मी मनुष्य सुखी नदीं दोता ।

राह्रु-फक ४८५

भगुसूत्र–बहुभूषग्रसमृदध; । जायाद्वयम्‌ । सेवकाः । मातृहेशः। पापयुते निश्चयेन । श्भयुते दृष्टे वा न दोषः । चिन्तादुःखं प्रवासश्च प्रवादःस्वजनैः सह ।चतष्पदाः कषयं यान्ति राहुस्व॒येगतो यदि अ्थ–चदर्थभाव में राहु के होने से मनुष्य के पास बहुत भकंकार होते ह । दो सियो होतौ ई । नौकर होते ई अथवा स्वयं नौकरी करता ह । माता को कष्ट होता है । यदि को$ पापग्रह साथ हो तो यह दुष्टफट निश्चय ही होता है । यदि राहु के साथ शुभग्रह हो अथवा शचमग्रह कौ द्षटिदोतो ये दुष्टफल नदी होते । मनुष्य चिन्तित, दुःखी, प्रवासी ओर अपने लोगो से ज्ञगड़नेवाला रोता दहै-दसके चौपाए पञ्च न्ट होते ह । अज्ञात- ्ववर्थभाव का राह दो विवाह ओर सोतेली मोका योग करता दै । यदि इस भाव का राहु मेष, इष, मिथुनः कके वा कन्या मे हो तो उत्तम राजयोग होता है । प्रवास बहुत होता है । विविध ष्मत्कार देखने म आति ह । व्यक्ति साहसी होता दहै । यह राहु रवि के योगम होतो कष्टप्रद्‌ होता हे। राजयोग में ३६ से ५्वे वषं तक बहूत भाग्योदय होता हे | पाश्चात्यमत-राह चदथ मे भौर केतु दशममें हो तो अवैघ सम्बन्धसे सन्तति दोती ह । विचार ओर अलुभव-सभी केखको ने चत्थभावस्थ राहु के फ अशम वतलये ई । किन्त यदि इस भाव का राहु मेष, वृष, मिथुनः ककं वा कन्या में हो तो श्चभफल होते ईै-रेसा भी कथन किया हे । द्विभार्या वा द्विमाता योग॒ पुरुषराशि का है। दत्तकयोग म बन्धुृथकलत खम्भावित है । राहु के समीपवावेन्द्रमे निवा मंगल के युति-ग्रतियोग से खून होते है । राह के समीपवा युति मे मंगल होकर शनि-चनद्र का अयम योग हो तो विष प्रयोग वा आत्महत्या का योग होता है। २-४-६-७-८-१२ स्थानों मे यह योग होता ै। इष, चिः कुम ल्य मँ यह योगसम्भव हे। १-:-६-८-१२ मेँ राह हो, शनि से चन्द्र, रवि मंगल दूषित दो तो क्षय, कोः रक्तपित्त से कष्ट होता है। ल््राशि से चठर्थं राहु रवि-चन्द्र अथवा मंगल से दूषित दो, अथवा चतुर्थेशा के साय राहु दो वा केन्र म शनि-राह की युति दो तो दारिद्रय योग होता है| ये सब योग पुरुषराशि मेँ विरोषरूप से अनुभव- गोचर होते ह| ॑ स्रीराशि मे सन्ततभूयस््व से दार्टरिय वा सम्पत्ति व कौत मिख्ने पर सन्ततिहीन होने का फल मिल्ता हे । चतुर्थराह यदि पुरुषराशि मे हो तो जन्मसमय से ही पिता को सवेप्रकार से आर्थिक कष्ट देता है-दीवाल्ा हदोना-नौकरी चूटना आदि बुरेफल प्राप्त होते ई । चतुर्था विरोष उन्नतिदायक नदीं होता है नौकरी से जीवनणुख पैक कय्ता दहै। मिथुन, सिह भौर कुम मे सम्पत्तितो मिर्तौ है किन्तु सन्तति नदीं होती- जिसके लिए दूसरा विवाह करना पड़ता है ।

७८६ खमरक्ारचिन्तवामणि का तुकखनार्मक स्वाध्याय

पाता-पितामेंसे एक की मृत्यु वष्वपनमें होती है । इनमे एक की मर्य अकस्मात्‌ होता दे) सख्रीगशि मँ व्यवसाय में सफल्तौ नदीं मिलती, शील्के प्रतिकूल वरताव से द्धी धन मिल्तादहै। साद्चीदारी वा नौकरी मे सफलता दहो सकती दहै। यह योग दत्तक किए जाने कादो सकता दहै। स्रीराि मं राहु एक विवाह ओर तीनचार सन्तान देता है। पल्ली अच्छी सचचरि्रा; विपत्ति में धेयं रखनेवाली ओर सनेहभरी मिल्ती है पत्ती की मूत्यु पति से पदे होती हे । इसतरह चठयराहु अश्चुभदै। यदि यह राह शनि वागुरुकी युतिमे दहो अथवा अन्यग्रहां क श्ुभसम्बन्धमे होतो ३६ से ५६ वे वषतक अच्छा भाग्योदय करता है । पच्चमभावगतराहु के फट– “सुते तस्सुतोत्यति छत्‌ सिहिकायाः सुतोभामिनीचितया चित्ततापः। सति क्रोडरोगे किमाहारदेतुः प्रपव्वन किं प्रापकंदष्टवग्यैम्‌ ॥ ५ ॥ अन्वय–सिहिकायाः सुतः सुते ( स्थितः ) तत्‌ सुतोसत्तिकृत्‌ ८ भति ) ( तस्य ) भामिनीचितया चित्ततापः ( स्यात्‌) (तस्य) क्रोडरोरो सति आहारहेतः किं ( जेयः ) प्रापकादष्टवय्यं प्रपंचेन कि ( स्यात्‌ ) ॥ ५ ॥ सं टी खते पञ्चमेभावे सिंहिकायाः सुतः राहुः तत्‌ सुतोत्प्तिकृत्‌ , भामिन्याः सक्रोधायाः वनितायाः वितया चित्ततापः “कोपनासैवभामिनीः इत्यमरः । क्रोडरोगे कुक्षिम्याधौ सतिं यहारस्य देवः कारणे ओौषधादिकं किन किमपि; अर्थात्‌ कृक्षिरोगो अचरिमांं। प्रापकादृष्टवज्य लाभकारि देवे विना प्रप॑चेन यलविस्तारेणरकि, प्रयासः भूयान्‌ स्वल्पलाभः च भवेत्‌ इति सवत्र शोषः ॥ ५ ॥ अथं–जिस मनुष्य के जन्मल्सयसे पोच स्थानम राहुहोतो षह उसे पुत्रोप्पत्तिकारक होता दै । परन्तु पहिटी सन्तानमें देरवा कुछ वाघा होती है। उसे कोपनासल््नीकी चिन्तासे मनका सन्तापरहतारै। उते कटेजे की बीमारी रहने से भोननका देत अर्थात्‌ यौषधसे क्या दोगा, अर्थात्‌ क्ञेजे का रोग तो अखाध्य होतादहै। लाभदेने योग्य यदिन होतो बहुत यल करनेसेभी क्यालामदहदोगा। “भाग्यं फलति सव॑न चविद्ान च पौरुषम्‌? यह नीतिशाख्र सुभाषित इस संदभं मे मननीय दै । उद्यम आर्‌ दैव मसे कौनसा वल्वत्तर है-इस विषयमे देव की प्रधानता अवद्य है। किन्तु प्राक्तनजन्म मे किया भा यल्न-कमंवा उन्मदहीतो वत॑मानमेंदेव दै– यदह जानते हुए उद्यम भौ निभ्नकोटि मं नहीं गिनाजा सकता-वस्तुतवतः तो दोनों द्यी प्रधानता पाने योग्य ह ॥ ५॥

राह-फर ७८9

तुटन7–“सुतरसिहीपुत्रे जनुषि सुतलाभः प्रभवति ; सदावै कांताया उदरभवरोगेर्विकल्ता । तथा चिता तापः प्रसरति जनाना मतितरां , विनादेवं यल किमिति बहूखमः क्षितिपतेः ॥* जोवनाथ अर्य- जिस मनुष्य के जन्मसमय मे राहू पञ्चमभाव मे हो उसे पुत्रलम होता दै। स्रीसद्ापेटके रोगसे पीडित रहती है। चिन्ता ओर सन्ताप की अधिक च्रद्धि होती दै। विनाभाग्य के अनेक यत करने परमभी राजासे क्या कोई अधिकलाम हो सकता है १ अर्थात्‌ कोई लाम नदीं हो सकता ह । शवरिना भाग कुक मिलता नीं” कथन का तायं यह हे कि पैवमभावस्थराहु प्रभावास्वित मनुष्य प्रायः अभागा होता हे । गिखरखाने स्थितो रासः पुत्रसोख्यत्रिवर्जितम्‌ । वेहोरां ददशिकमं नादानं कुरुते नरम्‌ ॥” खानखाना अर्थ- यदि पचममे राह दहो तो मनुष्य पुत्रसुख से रदित, बेहोश, पे मे पीड़ावाल्म ओर मूखं होता है । ^’गतसखो नहिमित्रविवधंतामुदर अूलविखासनि पीडनम्‌ । खलु तदा लभते मनुजो ध्रमं सुतगते रिचन्द्रमरिमदने ॥” महेश्च अथे- जिसके पचमभावमें राहुदहोतो उसे खुख नहीं मिक्ता इसके मित्र थोडे होते है| इसे उदर मे शूल्रोग होता है–भानन्द ओर विलस मं ख्कावरे आती ह–यह राहु भ्रम उत्पन्न करता है । ““भीसः दयादरघनग सुतगेफणीरो ॥’’ वेचनाथ

अशी–जिसके पञ्चमभावमे राहू होतो मनुष्य डरपोक, “दया . ओर निधन होता है।

(“नासोद्यद्‌वचनोऽसुतः कटिनहृद्‌ राहोसुते कुक्षिरक्‌ ।* भन्त्रेवर अशे- जिसके प॑ष्वमभावमें राहुदहोतो बह नाक से बोख्तादहै। यह कटोरदव्य, होता रहै। इसे पुत्रसुख नहीं होता । इसके कलेजे मे पीड़ा होती हे । ““सुखगतो नहि मित्नरविवधंनं उदरद्यूखविलासविपीडनम्‌ । खलु तदा कमते मनुजो भ्रमं सुतगते रविचन्द्र विमदंने ॥ दुण्डिराज अथ- जिसके पञ्चमभावमे राह हो वह मनुष्य सुखहीन, मित्ररहित तथा भ्रमयुक्त होता दै इसके पेट मेँ शूल्रोग होता है । इसके आनन्द्‌ विलास म बाघाएें आती रै। “राहुः सुतस्थः शदिनानुगोहि पु्स्यहत कुपितः सदैव । ग हान्तरे सोऽपिसुतेकमात्रं दततेप्रमाणं मलिनं कुचैलम्‌ ॥” सानक्षःशर

८८ पवमस्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक स्वाध्याय

अशी- राहु पंचमभावमे चन्द्रमाके साथणएकरारिमेंहो तो मनुष्य पुत्रहीन होता ह | यदि प्वन्द्रमा के साथ नहीं हो तो एक पुत्र होता हे ओर वह्‌ भी ग॑दा अओौर गदे व्र पहिननेवाला होता इ । ““पम्वस्थे केतुरारौ क्रियच्रृषभवने ककंटे नो विलम्बः > गणेज्ञ दंवज्ञ अश–पञ्चमभाव मे मेष) वष, वाककमं राहुवाक्ठुहोतोरीघही सन्तान होती हे ॥ तनयं दीनमलिनं सुतश्च र्वयेत्‌ तमः , यदि ष्वन््रगदेतत्‌ स्यात्‌ तदानी संततिभंवेत्‌ | सिंहे कुटीर संस्थे राहुः पुत्रेऽथ पुत्रिणं कुरुते , अन्यस्मिन्नपि राशौ पुत्रविदहीनो भवेत्‌ मनुजः | गर्ग अथे-प॑चममें राहु हो तो इसका पुत्र दीन बव मलीन होता है| राहकव वारसंहमें होतो. पुत्र होताहे। अन्य रारियों मे पुत्र संतति नदीं होती है। ८ श्सुते सद्मनि स्यात्‌ तदा सदिक्रेयः सुतार्तिः चिरं चित्तसंतापनीया | भवेत्‌ कुक्षिपीडा मतिः क्षुतप्रगोधात्‌ यदिस्यादय स्वीयवर्गेण दृष्टः || बृहद्‌ एवनजातक अथ- पंचमभाव में राहू द्ोतो मनुष्य को चिरकाल तक चित्त को संतत रखनेवाटी पुत्रविषयिणी चिता रहती है । इसकी कोख में पीड़ा होती है। यदि इत भाव के राहु पर अपने वग कीद्ष्टिहोतो भूखसे मौत होती है । £ सुते संहि केयः सुतोतपत्तिकृत्‌स्यात्‌ परं जाठरािः स रोगा्दीप्तः | परं विद्या वैरभावं प्रयातः प्रयासेऽपि नोभ्यते काकिणी वा |° जागेहवर ` अथे-पंचममभावस्य राह पत्रोतपत्ति कारक होता दै । रोग के कारण मनुष्य को मन्दाग्नि रोग होता है, इसकी विद्या से शत्रुता रहती है । यह मनुष्य बहुतेरा पुरुषाथं करता है तौमी इसे धन प्रापि नहीं होती है । ^धपुत्रभ्रं शः | वशिष्ठ अथं-पंचम स्थान राह से पुत्र नष्ट होते दै। (“पुत्रमावगतेरसिदिकापुत्रे पुत्रसोख्येन हीनो मलिनो भवेत्‌ । नीचसंगी कुःगी दश्चामानहा मन्दविमंदुद्धिः मनुष्यो भवेत्‌ ॥7› हरिवंश अथ–पत्रभाव में राहुके होनेसे मनुष्य को पुत्र सुख नदीं मिक्ता ई । मनुष्य नीचो कौ संगति मेँ रहता है । गन्दा रहता है । इसकी बुद्धि अतीव मद्‌ होती है । इसके शरीर का रंग अच्छा नहीं होता । इस राह कीदद्ामें मनुष्य की मानहानि होती है। | “तीक्षणाप्यहो । अगुः कमिणानिलेनदपदा कष्टेन नीरेण वा ओैलेयेन । राहौ केतौ स्यात्‌ कुपुत्रो नरस्तु । पु जराज

राहु-एर ४८९

अथ-पचमभावमें राहो तो व्यक्ति की बुद्धि तीक्षण होती है। इस च्यक्ति की संतान की मृत्यु कमि, वायु, पत्यर, ख्कड़ी, पानीवा परवत संबेधी च््सी वस्ठसे होती हे। |

गुसूज–पुत्राभावः, खपंशापात्‌ सुतक्चयः । नागप्रतिष्टया पुत्रप्राततिः । फ्वनव्याधिः, दुर्मार्गी, राजकोपः, दुष्टमरामवासी ।

अथे–पंचममेंयदरि राहुदहोतो मनुष्य कोपुत्रसुख नहीं मिलता, सपं केश्ापसे पुत्रका नाशडहोतादहै। नागदेव की पूजा क्रे से पुत्र प्राति होती है। इसे वात रोग होते है–यह कुमागंगामी होता दहे। इसे राजकोप

` से राजदण्ड मिक्ता है । इनका निवास किसी नीच गांव मं होता हे ।

पाश्चात्यमत- कम्पनी के व्यवसाय में सफल होतारै। कोख में रेग होता हे । विचार ओर अनुभव–पुत्रमावस्थ राहु के फल कुछ ठेखकों ने पुत्र संतति होना आदि श्चुभ बतलाए ह । अन्य टेखकों ने पुत्राभाव, पुत्रों कारोगी , डोना–पुत्रनाद्च आदि अद्यभफल वतलए ह। अञ्चमफल पुरुषरारि में

सआनुभव गोचर होते ह | शुभफलो का अनुभव स्ीराशि मे प्राप्त होतादे।

प॑प्वमस्थ रादु, यदि पुरुषराशिमे होतो व्यक्ति बुद्धिमान्‌ ओर कीर्तिमान किन्त अभिमानी होते है । रिक्षा पश्च मे गलतियोँ दृष्टिगोचर होती है–योग्यता के अनुसार रिश्चा नदीं होती, व्यक्ति वकौल बनने की नैषर्मिक योग्यता रखता ₹ । किन्त उत्ते रिक्चा इंजनीयरी की होती है, अतः सफलता नदीं मितौ । ञ्यवखाय के लिए भी यह राह सफल्तादायक नहीं है । लीयुख तथा पुत्रसुख के लिए मी यदह रा अच्छा नदींहै। खी रुग्णा रहती है मासिक धम्मं ठीक नद्धं होता । अथवा किसी ओर कारण से पुत्रोप्पत्ति नहीं होती । अतः दूसरा विबाह करना होता है। यदि राह भारी अश्चुम योगमेंहो तो विवाह नदीं होता, यवैष स्री संबेध होता है । इस राहु के व्यक्ति खी-पुत्रसुख के मभाव मं संशोधन आदि कामों से मम रहते ई–दनकी संतान मन्थी होतेह इन्हींसे ये यशस्वी शौर प्रखिद्ध होते दहे । यद्‌ राहु खीराथिमेंद्ोतो व्यक्ति शांत; विवेकी ओर विरक्त होते ह। अच्छे रिक्षित होनेसेये ठेखनकटा कुशल होते ह । इससे इनकी विख्याति ओर कीति होती है । इनका परिणय दोदफा होता दहै । पुत्रभीदहोतेदै।

प्म के राहु से पदिखी संतति बहुधा कन्या होती है । संततिन होने का कारण प्रायः सर्पं स्व॑धी शाप होता है। संतानाभाव पूवजन्म के सपं संबंधी दछापका परिणाम रोता दै-भ्रगुसू्न के अनुसार नागदेव-पूजन शापोद्धारक हो सक्रतादहै।

४९० वमर्क्छारचिन्तामणि का तुखनारमक स्वाध्याय

षष्टभावगत राहु के फट– “वलं बुद्धिवीयं धनं तद्‌ वदोन स्थितो वेरिभावेऽयेषां जनानाम्‌ । रिपूणा मरण्यं दे देव राहुः स्थिरं मानसं तत्तदा नो प्रथिव्याम्‌॥ ६ ॥ अन्वयः–राहुः येषां जनानां वैरिभावे स्थितः (सः तेषां ) रिपूणां अरण्यं षि ददेत्‌ एक, तदवेशन वटं बुद्धिवीयं धनं मानसं च स्थिरं ( स्यात्‌ ) परथिन्यां तत्‌ तुला नँ ( अस्ति) ॥ ६॥ सं< टी– येषां जनानां वैरिभावे षष्टे स्थितः राहुः खः अरीणां अरण्यं अपि ददेत्‌ एव । शत्रुसधाते नाशयेत्‌ इव्यथः | तथा वे देहिकं बुद्धिवीर्यं चातुय्वं तद्रदोन वलाद्‌ दाक्षण्यात्‌ धनं घनाज॑नं स्थिरं मानसं च स्यात्‌ । प्रथिव्यां तत्‌ तला तत्वाहदयं नो भवेत्‌; सः अनुपमः स्यात्‌ ॥ ६ ॥ अथे–जिस मनुष्य के जन्मल्नसे च्टे स्थानमेंरहुदो तो वह्‌ उसके रचु्ओं के जंग को भी भस्मसात्‌ कर देता दै | अर्थात्‌ उसके शत्रु नष्टहो जाते है । छ्टे भाव के राहु से मनुष्य का बल, बुद्धि, पराक्रम भौर अन्तष्करण स्थिर रहता है । यित्री मं उसके जोड़ का दूसरा नहीं होता है ॥ ६ ॥ तुखना—“यदा सिहीपुत्रे गतवति जनुः शत्रुभवने प्रतापाग्नौ नित्यं ज्वलति रिपुन्न्दं जनिमताम्‌ । बर ज्ञानं वित्तं ॒ प्रभवति तदाधौनमधिकं पितर्यादेः माठः सहजगणतः कि सुखमपि” ॥ जीवनाय अथं–जिख मनुष्य के जन्म समय मे राहु क्टेभाव में हो उखकी प्रता- पाग्नि में शतरुसमूह नित्य जल्ते ह । अर्थात्‌ मनुष्य श्रमं को नाद्य करने

वाला होतादै। इस माव के राहु के प्रतापसे बल, ञान, घन विरोषतया प्राप्त होते दै । चाचा, मामा आदि से कोई सुख प्राप्त नहीं होता है|

“भ्लेच्छावन्नीराद्‌ द्रव्यातिः दिलं चं साहवं नरम्‌ | दखानास्थितो रासः करोति रिपुसंक्षयम्‌ः ॥ खानखाना अथ-यदि राहु छ्ठेभाव में होतो मनुष्य को म्लेच्छ राजा से धनाम होतादै यह वड़ा अमीर होता ह । भौर अपने शततमो का नाच करता है । शत्रु क्षयं द्रव्यसमागमं च पञ्यूषु पीडां करिपीडनं च। समागम म्टेच्छजनेमंदहावलं प्राप्नोति जन्त॒ः यदि षष्ठे तमे ॥ हेज अथे-यदि मनुष्य के च्टेभावमेराहदहो तो वह अपने शत्ुओंका नाश करता है। इसे धन प्रति होती दहे। इसकी कटि मे पीड़ा होती है-दइसके भो 41 होती है । यह म्ठेच्छों से संगति करता है । आर यह महान्‌ बली होता है | | ४ भरादौ रिपुस्थानगतेजितारिधिरयुरत्यन्त खंखी कुखीनः । बन्धुप्रियोदार रुण प्रसिद्धः विद्या यशस्वी रिपुगे च केतौ, ॥ वैच नाय अथे–यदि राहु छ्टेमाव मे हो तो मनुष्य शनरुओं को जीतनेवाखा › दीर्घायु बहुत सुखी ओौर कुलीन होता है ।

राइ-रल ४९१

“यरः सुभगः प्राज्ञो वरपतुस्वं। जायते मनुजः । रिपु भवनस्थो राहुजन्मनि मान्योति विख्यातः ॥ . राहुः शतरुगरहे कुयात्‌ रात्तुसंग्राममूधनि । हति सर्वाण्यरिष्टानि सवैग्रह निरीक्षितः॥ बलिष्ठं च तथा राहो शनो केतौ तथेव च| महिषाणां धनं तस्य बहुं जायते गृहे ॥ सदिकेयः शनिश्चैव माले भवने स्थितौ । प्रजादहीनो मातुः स्यात्‌ कन्यापत्योऽथवा तदा ॥ तस्य वंशचोद्भवः कोपि गतो देशान्तरं मृतः | मावष्वसा मृतापव्या रंडा देशांतरं गता ॥ गर्ग

अशथी–यदि राह छटेभाव मं दहो तो मनुष्य चूर, सुन्दर, मतिमान्‌, राजा जेखा मान्य ओर विख्यात होता रै। इस भाव का राहु युद्धम शत्र संघात करता है, यदि इस भाव के राहु पर अन्य सव ग्रहोंकीद््टिहोतो सब अरिष्ट दूर करता है| इस स्थान मेँ यदि राहु भौरशनि वा केतु बल्वान होतो घर मं से बहत होती है । शनि वा राहु यदिच्टाहोतो मामा निःसंतान होता है। अथवा सिफं कन्यार्णँ होती है । मामा के वंश का कोई व्यक्ति बिदेशमें मरता है । मौसी की संतान की मौत होती दै। वह विदेश जाती है, विधवा होती है । ८९द्न्ते दन्तच्छदेवा कुमुदपतिरिपुः संस्थितः षष्ठभावे ॥ गणेश्देवज्ञ; अथौ–चछ्टेमावमें राहदहदोतो मनुष्यकोदोतवा हठ केरोग होते ह। “व्षष्टे स्थितः शत्रुविनाद्यकारी ददाति पुत्रधनवित्तमोगान्‌ | स्वर्मानुरुचे रखिलाननर्थात्‌ दन्त्यन्ययोषिद्गमने करोतिः ॥ मानसागर अथी–यदि राहु छ्टेभावमे हो तो मनुष्य शततुभों का विनाश करनेवाला होता दै छ्टेभाव का राह पुत्र, धन ओौर भोगों को देतादहै। इस भावका राद यदि उचकादहो तो सव संकट न होतेरै। इख भाव के राहु से मनुष्य परस््रीगामी होता हे । “शशवुक्षयं द्रव्य समागमे च श्चुशप्रपीडां कविपीडनं च। समागमं म्ठेच्छजनेः महाबलं प्राप्नोतिजन्तुः यदि षष्ठ्वगस्तमः ॥ दृण्डिराज अथ-यदि राह छ्ठेभाव मे हो तो मनुष्य के शत्तुभों का नाश होता दै । इसे धनप्राि होतीरै। इसकी कमरमें पीडा होती है। इसके पश्चभों को कृष्ट होता हे, इसका सम्बन्ध म्टेच्छों से अथात्‌ मिदेरिरयो से होता है । मनष्य महान्‌ बलवान्‌ होता इहे | ॥ “स्यात्‌ कूरथ्रह पीडितः सगुद रक्‌ श्रीमान्‌ चिरायुः क्षते? ॥ मन्त्रे्वर अथ –यद्ि छ्टेभाव काराहु कुर्य्रह से पीडित हो तो मनुष्य गुदरोगी भीमाच ओर दीर्घायु होता ईै।

७९२ पवमत्कछारचिन्तामणि का तुरखुनाष्मक स्वाध्याय

““वलाद्‌ बुद्धिदहानिः धनं तद्वरोच स्थितो वैरिभावेऽपि येषां तनूनाम्‌ । सिपूणामरण्यं॑दहैदेकराहुः स्थिरं माठलं मानसे नो पितरम्यः ॥ | वृहुद्‌यवनजातक

अथे–यदि राहु छ्टेभाव मे दो तो मनुष्य वलदीन, बुद्धिदीन, शतरुदीन ओर धनवान्‌ होता है| इसके पिता वा मामा का चित्तस्थिर नहीं होता दहै)

“स्व्मानौ वा सूर्यजे शतुसंस्थे तत्‌ कय्यांस्याच छचयामठं लांछनं वा

शनिस्तमोवारिश्हस्थितश्चेत्‌ स्यादप्रजव्व खु मातुरकस्य ॥

काष्टारमधातेन चतुष्पदा वा तसप्रपातेन जलेन मृत्युः: ॥ पुञ्जराज

अथं-चछ्टेभावमें राहुदो वाशनिदहो तो मनुष्य कीकमरमे काला दाग होता है ( अन्य लेखको ने कमरमें परीडाका होना बतलाया है) मामा को सन्तान का अभाव रहतादहै। इस भावके राहुसे मनुष्य की मृत्यु, र्कड़ी; वा पत्थर के आधघातसे, चौपाए पश्च द्वारा, पेडपरसे गिरने से, अथवा पानी मे इबने से, होती रै ।

“°रिपुभवनगतेः दातन्रुखतापहानिम्‌ ॥7 वशिष्ठ

अथे-यदि राहु छ्टेभावमें दो तोशत्रुसे कष्ट नदहीदोतादै। यह राह शत्रु होता है । ध्यदा सेँंहिकेयोऽरिगेदे नराणां तथा माठुखानां तथा पित्रृभ्रावः। सुखे किं धनं माहिषं तस्यगेहे तथा वीय॑वान्‌ वीय॑शाटी नरः स्यात्‌”॥ जागेदवर

अथे–यदि राहु छ्टेमावमें होतो मनु्यको मामा, चाचा का सुख नदीं मिक्ता है। इस मनुष्य काधर भैंस आदि से समृद्ध होता है भौर यह महान्‌ बल्शाटी भौर पराक्रमी होता है ।

“प्रसूतौ तनोव्युग्रतामन्वये वाहनं भूषणे भाग्यम्थाधिकम्‌ ।

सौख्यमारोग्यतां शतुहानिं तथा शत्रुगेहं गतो मिच्ररातरु्रहः ॥» हरिवंश

अथं–यदि राहु छ्टेभावमें दहो तो मनुष्य उग्रकुल मे उन्न होता है। यह वाहन, भूषण, अधिक धन तथा भाग्यवान्‌ होता दै । इस भाव का राहू सुख, नेरोग्य तथा शत्नुराहित्य को देता है ।

भृगुसूत्र–“धीरवान्‌ ८ धेय॑वान्‌ इतिभाव्यम्‌ ) । अतिमुखी इन्दुयुते राज- खीभोगी । निधनः । चौरः । श्चुभयुते धनसोख्यम्‌ । द्रपप्रसाद्‌ मारोग्यं घनलभो रिपुक्चयः । कठत्र पुत्रजं सौख्यं ल्पे षषे विघुंतुदे ॥>

अथ–यदि छ्टेभाव मेँ राहु हो तो मनुष्य धैर्यवान्‌ यौर बहुत सुखी होता है। यदि इस राहू के साथ चन्द्रमा भीद्ोतो मनुष्यको राज्ख्री का उपभोग मिल्ता है| मनुष्य निर्धन ओर चोर होता है। यदि राहूके साथ श्चुभग्रह होतो धन का सुख मिल्तारहै। राजा की कृपा, नैरौग्य, धन; स््री-पुत्रसुख तथा शत्रुओं का नाश–इस भाव के राहु के फल मिलते ई |

राहू-फक ४९३

अज्ञात-ख्टेमे राहके होनेसे पेटमें व्रण होता दे। मनुष्य धनी स्थिरवितत तथा बुद्धिमान्‌ होता रै । प्लेच्छोंके साय रहता है] इसके शतु नष्ट होते र| इसकी कमर में पीडा होती है) यह मात्रपितृषेषौी दोता हे । इसके पुत्र मस्ते ई । पञ्चुभंको क््टहोता हे। य॒दि हस भाव का राहुं उच नैवा स्वगहमे होतो धन नाश होता है| व्यक्ति उदारहृदय; व्यभिचारी दीर्घायु, तथा सुखी होता ई । इसकी स्री कौ मृ्यु होती हे । | पाश्चास्यमत-यदि राहु च्ठेभावमे होतो मनुष्य नीचो के व्यवसाय करता ह | इसे सेना वा जदाजों की नौकरी से खतरा होता ह । विचार ओर अनुभव-ठेखकों ने छ्ठेमाव के राहु के फल शम-जश्चम दोनों प्रकार के प्रतिपादित किए ईै। श्मफलों का.अनुमच लरीरारियों मं प्राप्त होगा अश्चभफल पुरुषरारि्यो मे अनुभूत होगे । यदि पुरुषरारि का षष्ठराह दो तो खेलों म चोट लगती है–पोरो भादि मे अपघात से कष्ट होता ह । | । जचपन अच्छा नीं व्यतीत होता; नजर ल्ग जातौ है–पिराचवाधा होती रै, नखविष कैकता दै–मस्तिष्क के रोग मदिसे कष्ट होता है। कीं कदं पर मिरगी-कोट्‌ आदि उपद्रव भी दोते ईं । यदि राहुल्यमेंहो भौर मंगल्से दूषित होतो भौ इसी प्रकार केः फल होते दै । यदि षष्ठघ्थ राहु ख्रीराशिमें होतो खेलं मं जीत होती हे। यह योग मरल्विद्या के टिषए्‌ अच्छा है। ररीर नीरोगः खरी भी अच्छी, किन्तुसख्री की मृत्यु पिदाचपीड़ा से होती हे। ` यह राहु नौकरी के लिट अच्छा नहीं दे- प्रगति कटिनतासे हो पाती है । पेन्सन छेने से खुख होता दै । यदि छ्टेभाव का रादु श्चम योगमेंहो तो३०र्वे वषं से भाग्योदय संभा- वित ई–आजीविका का प्रारम्भतो २३ वें वषेसेहोजाताहै। संपादक के छठेभाव में राहु है । रततुनारा अनुभव में आता रहा दे । सप्तमभावगत राहु के फट– | “विनाशं ख्सेयुः दयुने तदूयुबत्यो स्जा धाठुपाकादिना चन्द्रमदीं । कटा यथा लोडयेत्‌ जातवेदा वियोगापवादाः दामं न प्रयान्ति? ॥। ७ ॥ अन्वय–( यदि ) चन्द्रम्दीं यूने ( स्यात्‌ ) ( तदा ) जातवेदाः कटाहे ( स्थिते ) यथा लोडयेत्‌ तथा तद्‌ युवत्यः धातुपाकादिना र्जा विनाशं लभेयुः, तस्य वियोगापवादाः दामं न प्रयान्ति ॥ ७ ॥ सं° टो<–यूने सप्तमे न्द्रमदौ राहुः चेत्‌ कटाहे स्थापितं इतिशेषः जातवेदाः अनिः यथालोडयेत्‌ संतापयेत्‌ एवं गठपाकादिना रुजा रोगेन तद्‌ युवस्यः विनाशं स्मेुः । तथा वियोगापवादाः वियोगाः बंधुविदलेषदुःखानि अपवादः लोकनिन्दा शमं शांतिं न प्रयान्ति ॥ ७ ॥

४ ५

४९४ चमस्कारचिन्ताम्णि का तुरुनार्मक स्वाध्याय

अथं–जिस मनुष्य के जन्मल्न्र से सात्वं स्थान में राहु होतो कडाहीमें चटा हद वस्व को जिस प्रकार अमि खौलखातादै उरी प्रकार उस मनुष्य की स्त्रियां घातुपाक आदिरोगों से नष्टदहो जातीरहै। इसे बन्धुवियोग तथा रोकर्निंदा सवंदा वने रहते है ॥ ७ ॥ तुखना–“ गते कान्तागारं जनुषि ररिमर्दिन्यपि यथा कटाहस्स्थं द्रव्यं ज्वख्दजखतो नद्यति तथा | विनाडेभामिन्याः सपदि चल्मेरन्‌ खटुरुजा विभागो बन्धूनां प्रसरति कटको जनि मताम्‌ ॥ जीवनाय अथे- जिस मनुष्य के जन्मसमय मं राहु स्तमभावमें दो उसकीषरीका रोगो से उसी प्रकार विनाशहो जाता हे जिस प्रकार कटाह (कड़ाहा) में रखा हया द्रव्य (चरत आदि) जख्ती है अच्रिक तापसेनष्टदहो जाता है बन्धु-वांधर्वां का वियाग अर कल्क का विस्तार हाता रहै ।॥ नोट- मूल्पार मं “विभागः शब्द्‌ प्रयोग में आया है जिसका अर्थं खावर- अस्थावर सम्पत्ति का विभाजन’ल्याजा सकता दै मर्थात्‌ विभाजन से बन्धु पथक्‌ पथक्‌ रहने लगते हँ जिससे भार्या में विदटेषण ओर तजन वियोग होतः है | “दिजगर्दश्च वेतालो गुखरो वद्‌जनो भवेत्‌ । हप्तखाने यदारासः कलठही मनुजस्तदा ॥’ खानख।ना अथे–यदि सतम में राह हो तो मनुष्य पाग, बेकार, घूमनेवाला, क्रोधी, बदचलन यओौर दूसरों से ्चगड़ा करनेवाला होता है ॥ नोट-कल्तभाव में कलत्रविषयक फलाभाव अवदय खटकता है । “जायाविरोधं खड वा प्रणाशं प्रचण्डरूपामथकोपयुक्ताम्‌ | विवादशीलामथरोगयुक्तां प्राप्रोतिजन्व॒ः मदनेतमेच ॥ भहैश्च अथे–यदि सप्तमभावमें राहुहोतो मनुष्य अपनी खरी से विरुद्ध रहता दे। अथवा इसकीच्रीकी मृत्युहो जातीदहै। अथवा इसमनुष्यकी ल्री प्रचण्डरूपा, मथवा कोपना, अथवा ज्लगड़ाल्‌ अयवा रोगयुक्ता होती है । अर्थात्‌ जिस व्यक्तिः पर सस॒मस्थ राहु का प्रभाव होता है उसे स्री सुख प्राप्त नदीं होता हे। यातो इसकौ खी कुरूपा होती दै अर्थात्‌ आकर्षकं रूपवती तथा मनोरमां नदीं होती हे इस कारण दोनों मे परस्पर षडष्टक योग वाद्‌ रहता दै । मथवा सदैव करद्ा-अतएव भञचान्त स्वभाव की होती दै, अतः वैमनस्य रहता है । अथवा विवादशील-ग्रत्येक काये मँ उद्कना करनेवाली अहंमन्या होती जिससे पतिप्रिया-पतिसन्तोषकरी नदीं होती है, जिससे शय्या सुख नहीं मिक्ता है । अथवा रजःलाव आदि सियो के रगो से दुःखी मौर पीडित होती हे, इस कारण भी रतिसुख प्राप्त नहीं होता है। दूसरे शब्दो मँ सप्तमभावस्थ राहु. उन्मत्त यौवनासूट्‌ युवकों को व्यभिचारी होने के लिष्ट अन्तःप्रेणा देता है । क्योकि इनकी ग्रदिणी मनोऽनुकूखा, मधुर- भाषिणी) सूप-यौवनसम्पन्ना ओर आाक्ञाकारिणी नहीं होती दै । अतएव अद्म्य

राहु-फङ ४९

कामान शान्तिके लिए ये युवक रूपाजीवा वेद्यां के पास जाते है । यदि ` परिणीता स्वकीया खिर ही सञ्था अनुकूढ चल्नेवाखी हों तो वेश्याबृत्ति ही भारतसे नष्ट-श्रष्ट होकर स्मूत्यवरोष हो जाए । किन्तु एेसा होना दष्टिगोषचर नहीं होता है । “ग्वं जारशिखामणिः फणिपतौ कामस्थिते रोगवान्‌ ॥ वंद्यनाय अथे- यदि राह सप्तममें हो तो मनुष्य गर्विष्ठ, बहुव्यभिचारी ओर रोगी होता है । “जायास्थराहूः शरिनानुगश्वेद्‌ ददातिनारींविविधंश्चभोगान्‌ । पापानुरक्तां कुट्टिं कुशीटखां ददाति रोषेण ग्रहेण युक्तः| मानसागर अथे-सप्तमभावं में राहू चन्द्रसे युक्तहोतो खी ओर विविधभोग देने-

वाला होता है। यदि अन्यग्रहोँ से युक्त दहो तो मनुष्य को पापिनी कुय्टि भौर कुरील स्रीदेता है ।

“स्री संगादधनोमदेऽथविधुरोऽवीयः स्वतन्तरोऽ्पधीः ॥* मन्त्रेऽवर अथे–यदि राहु सप्तमदहोतो मनुष्य खीसंगके कारण निर्धन होता ईै। यदह विधुर, अव्पपुंसत्ववाला-स्वतन्त्र भौर अल्पमति होता है ॥ ‘पक्लीवाराहो ॥* र्ग अथे–यदि सप्तममेंराहुदहोतो स्री कामेच्छा रदित होती है। °’जाया विरोधं खट वा प्रणाशं प्रचण्डरूपामथकोपयुक्ताम्‌ । विवादशौलामथरोगयुक्तां प्राोति जन्तुः मदनेतमेच ॥” दण्डिराज्‌ अथै-सप्तममे यदिराहुदोतो मनुष्य अरनी लखी से विरोध रखनेवाढा होता है । इसकील््री का नाशदहोतादहै। इसकी घ्री भयावह मुखवाटी-उग्र-

स्वभावा कोपना, अगड्ाद्‌ यथवा रोगयुक्ता होती है । विस्तृत रिप्पिण पहिले चखा गया ह ।

“विनाशं चरेत्‌ सप्तमेसेहिकेयः कल्तादिनाश्चं करोव्येवनित्यम्‌ । कृटादोयथालोदहजो वन्हितप्तस्तथा सोऽतिवादानशांतिप्रयाति ॥ वृहुद्‌यवनजातक्त

अ्थ–सप्तमराहु ख्रीयादिका नाश.करताहै। तषी हृद जेदेकौ कडाही जषा उग्रस्वभाव होता है अतः मनुष्य बादभिवाद्‌ मे कमी शांत नहीं रहे सकता है ।

(^काम्येकलत्रे रिपुल्य्रछिद्रे देन्द्रत्रिकोणे व्ययगे च राहुः

मन्ती च चशूरोजल्वान्‌ प्रतापी गजाश्वनायो उहूपुत्रयुक्तः ॥ नारायण

अआथ–यदि गह १-६-®-८- १ १- ९९ स्थानोंमे कन्दमेवा ्रिकोणमें होतो मनुष्य मन्त्री-ल्ूर, बलवान्‌ , प्रतापवान्‌ हाथी घोडे आदि सम्पत्ति

कास्वाम्रीवा बहत पु्रोंसे युक्त होता दै। काम्य शब्दका अर्थं लमस्थान सिया गया है।

४९४६ चमरकारचिन्तासणि का तुटनाव्मक स्वाध्याय

“सुखं नो वधूनां भवेद्‌दे द पीडा परंरा्रवो बुद्धिमन्तो भवेयुः ।

क्रयेविक्रये वा न वातीपि कि वा यदासप्तमे स्याद्य राहूखेटः ॥ 2 जागेक्वर

अथे-खसमराह होतो ख्रीुख नहीं मिलता, देहपीडा रहती है ! शत्रुओं की बृद्धि होती है-खरीद ौर विक्री से लाम नदीं दहोताहै।

““जायास्थे ख्रीविनाशः’ । वशिष्ठ

अथे-सप्रम राहु सखी का नादाक दै।

भ्रगुसूत्र-^दारद्रयं तन्मध्ये प्रथम स्रीनाशः। द्वितीयकखत्रे गुट्मव्याचिः । पापयुते गंडोत्तिः। छमयुते गंडनिवरत्तिः । नियमेनदारद्रयम्‌ । श्चभयुते एकमेव ।

प्रवावात्‌ पीडनंचेव सखीकष्टं पवनोत्थसुक्‌ | कटिबस्तिश्च जानुभ्यां सर्हिक्ये च सप्तमे॥

अथं–सत्तमराहू से मनुष्य के दो विवाह हाते दै। पदिटीखरी की मृच्यु होती दहै | दूसरीदी को गुव्मरेग (पेट का एक रोग-वायुगोलखा ) होता है} पापग्रह के साथ यह रादु दो तो गंडरोग गंट्माला-गिष्ड-गङे में सोजश पड़ना) होता है शमग्रह साथदहोतो गंड दूर होता है। घर में दो छि अवध्य होती है | श्चभयह साथ होतो विवाह एकी होताहे। प्रवा्में कष्ट, ्रीक् कष्ट, वातरोग, कमर, वस्ति (कटि से नीचे कामाग) षुं मे वातसोग-ये दुष्टफट सततमराहू क ह ।

८परानवानां प्रकु्यादभये खवंतो धर्महानिं दयादीनतां तीक्ष्णताम्‌ ।

कायकां कामिनीखौख्यदहानि भवेत्‌ मामिनीमावगः यामिनीं तुदः ॥ हरि कंका

अथ–सप्तममाव का राहु स्व ओरसे भय दिखाता है-ध्मकी दानि निर्द॑यता देता है । दैहिक तीक्ष्णता होती दै । सखरीषुख नष्ट होता है ।

अज्ञातमत–सपतमस्थराहु खी का नाश करता दै-एक से अधिक विवाह होते।खीकीो प्रद्ररोगदहोतादहे। पुरुष को मधुमेह दोता दै । विधवा संवघ होता है | बन्धुर्यो से विरोघ होता ह । सप्तमस्थराहु के होने से मनुष्य क्रोधी, दूसरों का नुकसान करनेवाला, व्यभिचारिणौ खी से संवंघ रखनेवाला गर्वीखा ओौर मसंवुष्ट होता हे । यदि इसभाव का राहु उच वा स्वगृह मे मथवा छ की राशिमें होतो प्रवास अच्छेहोते दहै भौरलभदहोतादहै। यह राद् पाप कार्यो से भाग्योदय कराता दै । यह मनुष्य जुञ्ना, सहा, खाय्यै तयारे्त मं प्रीण होत है। इषे ख्रीपुख नदीं मिल्ता । यद दुष्टों के सहवास से सजनो कोकष्टदेतादै। बुरी र्यो के सहवाश्च तथा संपकं से यह रोगी होता दै)

पाश्चात्यमत-सतममावस्थराहु के प्रभावमें आणहुएः व्यक्ति का कद्‌ बहुत नाया होता दै।

विचार ओर अनुभव- प्रायः समी ठेखक के मतम सप्तमभावका राह अश्चमफक दाता है । केव नारायण ने बहुत ही श्चुभफल वर्णित किए ई | मुख्यतः ये अश्चभफल पुरुषरारिर्यो के ह । सप्तमभाव का राह एक प्रकार से

३२ । राहु-फरु ४९७

पूर्वजन्म काशाप हीदहोता है) स्ीपश्च म ससमराह बहुत कष्टकारक है । इसते गरहस्थी मे असंतोष रहता है । व्यवसाय वा नौकरी दोनों मे हानि होती है-धनाल्पता बा धननाश्च होता है । अस्थिरता रहती है । प्रथमास्ी की मृव्यु सौर द्वितीया से वैमनस्य रहता है ।

यदि सत्तम राह मिथुन; कन्या, वुल वा धनुमें हो.तो प्रायः विवाह नदीं होता ईै-अन्य राशियों मे विवाह तो होता है, परन्तु जैसा परस्पर पति-पत्नी का आंतरिक प्रेम होना चादिए व्ह नहीं होता-। इनके ष्णि बिवाह का प्रयोजन ओर उदटेद्य केवर मानन शारीरिक संबध.दी होता है। मनुष्य स्वयं व्यभिचारी चत्तिका होता है-दूसयी कुटीनखियों को भी व्यभिचवारमागं पर ष्वटने के लिए प्रोत्साहित करता है । विवाच्ियों से अवैष संबन्ध जोड़ता है इस संबंध से गर्भं दहो तो गर्भपात भादि जघन्य कमं करने मे भी यलशीख होता है-इस तरह धन का दुरुपयोग करने से निधनता के चंगुर मे फँसता है-भ्यव- साय करे तो कसान, नौकरी करे तो ससपैड होता है डिगरेड होता है-इस- तरह कष्ट भोगता ह ।

स्रीराशि का स्मराहु अच्छा होता है। विवाह जर्दी होता है। ल्ली अच्छी परस्पर परेम रहता है । नौकरी ठीक चलती है । यदि भन्य ग्रहोके दमभ संबंध मे यह राह होतो व्यवसाय भी ठीक चठ्ता है । सामान्यतः दो विवाह, किन्तु कुम्भ का राहो तो एक विवाह होता है-संतति धिकः आदर-खम्मान भी परा । यदि मनुष्य वीमाकंपनौ आदि मे नौकरी करे तो सफल होता है । ओर भी काम जो राह के कारकत्व मे हो-सफञ्ता देते ई |

इख भाव के राह के फल साधारणतः बुरे ईहै-उदाहरण के लिए बहत देर से विवाह, अन्तर्जातीय विवाह; विधवा से वरिवाह-अपनी आयु से अधिक उभमरवाटीसखरी से विवाह, अवैध सवध जोडना-विवाह का समाव । पूर्वजन्म में किसीलखी को अकारण कष्ट दिया दो-भथवा किरीष्ीकी घर-गरहस्थी मे विध्न डाला दहो अथवा किसी स्री का सतीत्व भ्रष्टं किया होतो उस पाप के प्रायधित्त करूप मे सत्तमभाव का राहु होता है-विवाह होने पर भी परस्पर दाप्य प्रेम कान दोना-विबाह विच्छेद होना, अच्छी मनोऽनुकूखाश्जी का न मिख्ना-ये फट पर्वजन्मङृत पापस्वखूप शाप के ई जो युगतने पडते है ।

कई एक आचार्योने राह को मृ्युकारक ग्रह माना हे। सत्तम, नवम, दशम खानों को मूल्युकारक माना है-भौर क एक योग भी ल्विरह।नतो

` ये स्थान मारकस्थान ई ओौर नादी रामह मृ्युकारक मरह है। राद स्वर्यं

मारक नदीं दै-स्थान से संन॑धित व्यक्ति के ङिए राह मारक हो सकता है। जैसे ल्म में माता-पिता को, धनस्थान मं धर के किसी बडे व्यक्तिको, वृतीयमें भाई-बहन को, चवुर्थं मे माता-पिता को, पञ्चम मे पुत्र को, अष्टममें बहिनक

४९८ चमरकारचिन्तामणि का तुरखडार्मक स्व।ध्याय

नवम मे भाई-बदिनों को, दशाम में माता-पिता की, खाभमें बडे माद वा पुत्र को, तथा व्ययभावमें पल्ली वा चाचा को मारक हो सकता हे । अष्टमभावगत राहु के फट– धूपैः पण्डितैः बन्दितोनिन्दितःस्वेः सकृद्‌ भाग्यलाभोऽसक्रृद्‌ भरद एव । धनं जातकं तं जनाश्च त्यजंति श्रमग्रन्थि करद्‌रंध्रगो त्न्नरात्रः” | ८॥ अन्वय–रन्ध्रगः व्र्नरात्रः श्रमग्रन्थिकरृत्‌ ( जायते ) जातक तं धन, जनाः प्व त्यजन्ति, ( सः ) वपः पण्डितेः वन्दितः ( स्यात्‌ ) स्वैः निंदितः ( स्यात्‌ ) ( तस्य ) भाग्वलाभः सकृत्‌ ( स्यात्‌ ) असक्रत्‌ भ्रंशः एव ( स्यात्‌ ) ॥ सं टी—रन्ध्रगः अष्टमस्थः व्रघ्रशत्रः राहः श्रमग्रन्थिङ्कत्‌ श्रमेण बहप्रया- सेन ग्ररिंथ वातगोटकं करोतीतिक्रृत्‌ ; च पुनः तं नरं जनाः व्यजन्ति, जनकस्य इदं जातकं धनं पित्रद्रभ्यं, ठैः राजमिः पण्डितैः च बन्दितिः पूजितः, स्वैः स्वजनैः निचितः च भाग्यलाभः सङ्कत्‌ एकवारमेव, भ्रंशः कायंहानिः असङ्ृत्‌ महः भवेत्‌ इति दोषः ॥ ८ ॥ अथे–जिस मनुष्य के जन्मल्य से आय्य स्थानम राहदहोतो बहुत परिश्रम करनेसे इसके पेटमें वायुगोखा वा गुल्म आदि रोगदहोते्ै। इसे इसके कुटम्ब के छोग छोड़ जाते है । इसे पेतृक धन ओर पैतृक सम्पत्ति नहीं मिकती दै | . यह मनुष्य राजार्थं तथा पण्डितो से आदरणीय ओौर माननीय होता दै। इसका भाग्योदयतो एकवार दहोताहै किन्तु हानि बार-बार होती रहती दै ॥ ८ ॥ तुना–वदा मव्युस्थाने गतवति तमौनायकरिपौ | व्यजंति स्वेच्छातः तमपि सुजनावष्य जनने क्चिद्धुमीमवु परमघनलाभः क्चिदपि । ॥ प्रणा्ञश्चार्थानामनिकमवगोलोऽपि जटरे ॥* जौ नायं अथे- जिस मनुष्य के जन्मखमय मं राह अष्टमभावमेंदहो उसे सजन लोग अपनी इच्छा से अकारणदहीखछोडदेते ह। कदाचित्‌ राजासे प्रचुर धन कालाभमडोतादै सौर ख्मीधनका नाशमभी हदोतारै। इसके वाग्रु गो कारोगदहातादै। | नोर-भदट्रनारायण र जीवनाथमें थोड़ा सा मतभेद ै–पमानता अधिक ट| “ध्हस्तमखाने यदाराखः शरीरः स्यान्‌ मुशाफिरः । वेदीनः खिदमनाकः स्याद्‌ बदकार् मृफलिशः ॥›› खानलराना अथ–जिसके अष्टमभाव में राह हो वह शरीरसे पुष्ट प्रदेशमे रहने वाला, क्रोधो) कु्घ्य कर्ता, ओर दसि होता है। (“सनिष्टनारां खलु ॒गुह्यपीडां प्रमेदयोगं वृप्रणस्य वृद्धिम्‌ | प्राप्नोति जन्तुः विकटारि लाभंरसिदीष्ुते वा खढुमत्युगेदे ।।›› मेश

राहु-फछ ४९९

अथ–जिखके मष्टमभाव में राह दहो तो इसके निष्ट का नाश होता दे । इसे गुसरोग, प्रमेहरोग तथा वृषण्द्धि रोग होते ई। इसे व्याकुल अथात्‌ विजित शत्र से लाभ होता है) “भाहौ छेशापवादी परिभवयृहगे दीर्घसूत्री च रोगी ॥ वैचनाय अथो–यदि राह अष्टमभावमें होट) मनुष्यको कष्ट होताहै। लोग इसकी निन्दा करते है । यह दीघं सूत्री ओौर रोगी होता ₹ईै। “दुष्टचौ्यापवादेनः निधनं कुरुतेतमः। वह किल्मिषमाधत्ते धत्ते कटात्‌ स यातनाम्‌ ॥› गर्भ अथे–यदिरा ठ अष्टम हो तो मनुष्य दुष्ट होता हे। चोरी के इलजाम ( अपवाद ) से इसकी मृत्यु होती है । यह बहुत पापी होता रै | भौर इसे कष्ट ओर यातना होती रै। चोरी करना, पापकमं करना-कष्ट ओौर पीडा, अष्टमराहु के अश्चभफल ह | रौ. “व्पेः पण्डिते; वन्दितो निन्दितश्च सकृद्‌ भाग्यलाभः सङ्द्‌ भ्रंश एव । धनं जातकं तजनाश्च व्यजन्ति, श्रमग्रन्थिरुग्‌ रन्धरगश्ेद्‌ हि राइः | वृहद्यवं नजातह अथे–यदि अष्टम राह दो तो मनुष्य राजां ओर पण्डितो से प्रसित होता दै । कई एक इसकी निन्दाभी करते ह। कमी भाग्योदय तो कभी हानि होती हे । पूरवार्जित धन अर्थात्‌ पेतरकधन इसे नहीं मिक्ता है । इसके अपने खोग अर्थात्‌ भाई बन्धु तथा कुटप्बके लोग इसे छोड़ देते है अर्थात्‌ इसे अपने से प्रथक्‌ करदेते है । इसे भायै परिश्रम करना पड्तारहै जिस कारण इसके पेट सं वायुगोला वा गुल्मरोग-दोता दै । ‘(“अनिष्टनाशं खल्॒गुह्यपीडां प्रमेहरोगं इषणस्यव्रद्धिम्‌ । प्रा्ोति जन्तुः बिकलादि लाभं बिहीसते वा ख मूल्युगेहै ॥ दण्डिराज अथं–अष्टमभाव का राह अनिष्ट नाशक होता है। मनुष्य को गुप्तरोग ( गुदरोग ) से पीड़ा होती दै। इसे प्रमेह रोग ओौर वृषगब्द्धि रोग होते & । दरे शन से राम होता है। भराहः सदा षचाष्टममंदिरस्थो रोगान्वितं पापरतं प्रगर्मम्‌ । पौरं करं कापुरुप्रं धनाढ्यं मायासमेतं पुरुषं करोति ॥ भानागर अथे–अष्टन में राहु हयो तो मनुष्य रोगी, पापी, टीट, चोर, इरा, कातर मायावी किन्ठ॒ धनाव्यहोताहै। केवल धनान्य होना श्युभफल है शोष अश्चुम फर द । “°रं्रेऽत्पायुरश्द्धिकृचविकलो वातामयोऽव्पासमजः ॥ सन्तर कवर अथं–अष्टमराह्‌ से मनुष्य अस्पायु-अपवित्र काम करनेवाला, वातरेमी मौर विकल होता दै । इसे पुत्रसन्तति थोड़ी होती दै । “अचित्‌? का तात्पये कलुषित अन्तःकरण से दुष्ट व्यवहार करनेवारा” हो खकता है |

०० षवमस्कारचिन्तामणि का तुलखनाव्मकू स्वाध्याय

“धनिधनगते स्वेच्छया भूपपज्यः? || वशिष्ठ अथ–अष्टमभावमें राह दहो तो मनुष्य राजा द्वारा सम्मानित होता हे। ““य॒द्‌ाशरष्ठकर्माऽमवेदूरत्यक्तो भवेद्‌ गोधनं वाध॑के वै खुभाग्यम्‌ | कदाचित्‌ गादे करयोगा भवेयुः स्थितो राहनामा नराणां विनारो” । जागेश्वर अथ-अष्टममे राहदहोतो मनुष्य श्रष्टठकम करता हे । यह नीरोग होता है इसे गाय आदि पश्यं की समृद्धि प्राप्त होती हे। यह बुटापेमं सखी दोता है कटाचित्‌ इसे शुह्यरोग होते ई ॥। ।

“नैधने सिंहिकाजे नरो निधनो मीरराल्स्याधीरोऽतिधूरता भवेत्‌ ।

दुवंरोदेहदानश्च दुःखान्वितो निदयो दद्रयुक्तो दरिद्रोदयः” ॥ हरिवंश

अथं–वदि राहु अष्टमभाव मे हदो तो मनुष्य निधन, भीर्‌, आलसी उतावला, खतिधूर्त, दुवल्देद, दुःखी, निदंय, भाग्यहीन भौर दद्ररोग ( दाद्‌- खुजली की बीमारी ) से युक्त होता हं । सम्पूणं अञ्चभफल अष्टमराह के है ।

श्रगुसूत्र–अतिरोगी । द्वात्रिशद्रषायुष्मान्‌ । छ्भयुते पचचत्वारिंशद्रषौणि । भावाधिपे बलयुत स्वोच्चे षष्टिवर्षाणि जीवितम्‌ ।

“धधनव्ययस्त्वनारोग्यं विवादो बन्धुभिः सद । स्रीकष्टं च प्रवासश्च याद्वरष्टमगो यदि? |

अथे–यदि राहु अष्टमभावमें हदो तो मनुष्य बहत देर बीमार रहकर दरव वर्षम मरता है । शयुमग्रहकेसाथदहोतो ४५ वं तक जीवित रहता दै। अष्टमेदा वल्वान्‌ दो वा उचमेंहोतो ६० वर्ष॑की आयुहोतीदै। अष्टमे राहु के होने से मनुष्य खर््वीखा; रोगी, भादइयों से अ्गडनेवारा; प्रवासी तथा स्रीयुखहीन होता है । इस तरह अष्टम राह सवथा अश्चुम है ।

अज्ञात-अष्टमभाव में राहु हो तो ख्रीसुख-पुत्रसुख, मान ओर विच्यासुख नदीं मिख्ते । गुदारोग, प्रमेह, अन्तगंख वा श्नु होते द । यह राहु मिथुन मे हो तो मनुष्य महापराक्रमी ओौर यशस्वी होता है । र्व वषमे संकट घाता हे । श्मय्रहकेसाथहोतो पर्व वमे संकट दोताहै। यदि इस भाव का राह स्वण्ह वा उमे दहो तो श्चुभफलू देता है ।

पाश्चात्यमत-इस राह से स्रीघन, किसी सम्बन्धी केः वसीयत का धन प्राप्त दोतादहै। किन्तु इस धन की प्रापि मे करक उलश्चने भी याती है। फायदा तात्कालिक होता है | यह स्थान वैसे गौण सौर दुर्बरु ६ै। किन्तु उच्च का राहु विशेष फट दे सकता है |

विचार ओर अनुभव-गष्टमस्थान भद्युभ है अतः प्रायः सभी ठेखकों ने अञ्युम फरो का वणन कियादहै। क्एकने श्चुभफलठभी वर्णित किये है वहो पर छयुभग्रह सम्बन्ध कारण बतलाया है । स्वण्हीवा उच का राह श्म फर्दाता होता है-ेसा मी प्रतिपादन किया गयाहे। पुरुषराशिका राहू अच्छा नदीं होता, खी अच्छी नहीं मिख्ती-विश्वासपात्र नदीं होतौ-कटहग्रिया

राहू-षफर ९१० १

होती है । धनप्रासि नदीं होती । अदम्य धनपिपासासे रिश्वत टी जाती दहै किन्तु रहस्योद्धाय्न हो जाता है ओर बन्धन होता है। पती से प्रथम पुरुष ग्रत्यु पाता है-मरस्यु मय सावधानता नहीं रहती-वेहोशी मे मृत्यु होता है । अष्टम राह मिथुन्मेदोतो स्री कलहप्रिया होती है। यह निधन परिवार से आती है । भाग्योदय नहीं होता-स्वतन्न व्यवसायमें लभ न होने से नौकरी करनी पड़ती है| | स्रीराशि का राहु अच्छा होता दै। धेयेवती, धनसंग्रहकारिणी, विश्वाखयोग्य ल्ली मिल्तीदहै। इस स्री की मृत्यु पति से पिले होती है। मृघ्यु सावधानता मे होती है) मृत्यु काज्ञान कुछ काल पदिलेहो जाता दहै । स्रीराशि के राहु के प्रभाव में आया हुभा मनुष्य यदि रितलेलेताहै तो रहस्योद्‌घाटन नहीं होता-र६ से रैक्व वषे तक माग्योदय होता दै । अष्टमस्य राह से भयु का पहिला भाग कष्टकारक होता दै । अञ्युभ सम्बन्ध से यह राहु बुट्‌पि में भी कष्टकारक होता हे। नवमभावगत राहु के फठ– “मनीषी कृतं न त्यजेत्‌ वंघुवगं सदा पाटयेत्‌ पूजितः स्याद्गुणैः खैः सभावयोतको यस्य चेत्‌ चरित्निकोणे तमः कौतुकी देवतीथ’ दयालुः? ॥९॥ अन्वय–वस्य त्रित्रिकोणे तमः चेत्‌ ( सः ) मनीषी, स्वैः युणेः पूनितः, । सभाग्रोतकः कौतुकी, देवतीर्थे दयाः ( च ) स्यात्‌, ( सः ) कृतं न त्यजेत्‌ । सदा वंधुवगं पाख्येत्‌ ॥ ९ ॥ सं टी<-यस्य त्रित्रिकोणे नवमे राहुः चेत्‌ स नरो मनीषी, बुद्धिमान्‌, स्वैः गुणैः पूजितः, दयादधः दयावान्‌ देवतीथं कौतुकी, सभायां योतकः प्रकाशकः स्यात्‌ , कृतं उपकारं न त्यजेत्‌, सद्‌ा जन्धुवगे पाल्येत्‌ ॥ ९ ॥ अथै–नवमस्थ राहु का मनुष्य विद्वान्‌ होता है, अपने रुणो ते लोगों मेँ मान्य यर आदरपात्र होता रै । अपने चातुय्य॑ आदि गुणोंसे सभाकोभी प्रकारित अर्थात्‌ चमत्कृत करनेवाला होता है । यह सभ्य ओर सदय होता है। यह देवताओं भौर तीर्थो में श्रद्धा भौर विश्वास तथा भक्ति रखनेवाला होता दै । यह करिये हुए उपकार को भूलता नदीं है, अर्थात्‌ यद कृतर नदीं प्रदयुत कतकज्लतागुणसम्पन्न होता है । यह्‌ सव॑दा कुटुम्ब का पालन करता है ॥ ९॥ तुखना– “यदा सिहीपुत्रे नवमभवनेजन्मसमये, गुणेःपूञ्यो विज्ञो भवति च दयालुः क्षितितले । तदर्थानां दाता व्यजति न कृतं पुण्यङृदसौ, स्ववर्गीणां शश्वद्‌ गतिरमलकीर्तिः खलजनः” ॥ जीवनाथ अथे–जिस मनुष्य के जन्मसमय मे राहु नवममावमें हो वह रंसार मे अपने गार्णो से पूञ्य, विद्धान्‌ ओर दया होता है । यच्छे धनं का दान देने-

९०२ चमर्कारचिन्तामणि का तुख्नात्मक स्वाध्याय

वाखा, प्रारम्मित कायं कोन छोडनेवाला, पुण्य करनेवाला, अपने परिजनों के मागें पर चल्नेवाला ओर निम कीर्तिवाटा होता हे। नोट-मूल्पाठ मे सदर्थानांदाताः एक विदोष महत्व का विरोपण है । दान उख पदाथ का करना चादहिए-उस धन का दान करना चाहिए जो दातव्य हो, अर्थात्‌ देन योग्यदहो। जो धन टूट-मारकर खाया गया हो-जो घन | असहाय ओर दुःखात्तं तथा विपत्िग्रस्त मवला ओर वचो को मोत के घाट उतार कर इक्दट्रा क््यग्या हो वह धन सदथं नदीं होता, उसकादान श्रेयस्कर नदीं होता प्रत्युत नरक कोठे जानेवाला होता है। ““टातव्यमितियदानं दीयतेऽनुपकारिणे | देरी कालेच पात्रे च तदनं साविकं विदुः? | वर्तखाने यदारासः प्रभवेन्‌ मनुजस्तदा । जवाहिर्जकशीयुक्तः साहवः सौख्यवान्‌ नरः ॥” खानखाना अ्थं–वदिि नवमभावमें राहो तो मनुष्य विविधरत्त, जरीदारवस्त्रो से युक्त बहुतां का स्वामी भौर सुखी होता है | ““धर्मार्थनाशः कि धमंगेतमे सखास्पता वै भ्रमणं नरस्य | दारिद्रता वन्धुसुखात्पता च भवेचरोके किलर देदपीड़ा | महेश अथं–यदि नवमभाव मेँ राहू दहोतो मनुष्य धर्मभ्रष्ट र नदीन होता हे । इसे सुख नहीं होता । यह भ्रमणश्ील होतादै। यह दरिद्री होता है। दहसे बन्धुर्यो से प्राप्त नहीं होता है । इसके शरीर मं पीडा रहती ३ | „ भभाग्व्य दितिजेतुधमंजनक द्वेषीयशोविन्तवान्‌ ॥”› वैद्यनाथ अथं–यदि नवमभावमें राहूहोतोधम॑द्वेष्टा तथा पितासे द्वेष रखने वाला कीतिंमान ओर धनी होता दै । मदे देवज्ञ के मत मे नवम स्थान राहू चम्पूण्तया अञ्चम फल्दाता दै। वैद्यनाथ के मत से नवमस्थ राहके

मश्चित फल ह | नीच धमौनुरक्तः स्यात्‌ सत्यशौचविवर्जितः। | _ -माग्यहौनश्चमन्दश्च धमगे सिहकासुते ॥ गर्ग

अथ–यदि राहु नवमभावमेंहो तो मनुष्य नीचो के धर्म में आसक्त, सत्यहौन पवि्राचरणदीन, भाग्यहीन तथा मन्दमति होता ₹ै | ॥ ““धमस्थे धर्मनाशम्‌ ॥% वशिष्ठ अथे–नवमभाव का यदि राहूहोतो मनुष्य का धमंनष्ट होता है। ““तमोङ्गी इतं न त्यजेत्‌ वा वरतानि स्यजेत्‌ सोदरान्‌ नैव चाति प्रियत्वात्‌ । रतिः कौतुके सस्य तस्यास्ति मोग्यं शयानं सुखं वन्दिनो बोधयन्ति ॥ ” । | वहद्यबनजातक अथ-यदि राहु नवमभावमंद्ोतो मनुष्य प्रारम्भ किए हृष कामको अधूरा नहीं छोेडता हे । अर्थात्‌ नवमस्थ राह का व्यक्ति अपने हाथमे लिपि

राहु # र) ९१९०३

दए काम को सफल बनाने के टि उस समय तक उच्मशील रहता है जबतक काम फलोन्मुखन नहो | इसे अपने बन्धुजन बहुत प्यारे होते है अतः इन्र अपने से प्रथक्‌ नदीं होने देता प्रत्युत इन्द प्यार अौर दुलार से अपने साथ रखता है। कामक्रीड़ा मं उत्साह रखता दहै। इसके घर पर नौकर चाकर रहते दै । खुखपर्वक सोए हुए इसे बन्दी लोग-भाय आदि जगाते ह | प्राक्तन्‌ भारत में वन्दी लोग भाट आरि प्रातःकाल होने पर कवित्त आदि पदटृकर राजां ओौर महाराजार्यो को कतव्यपरायण करनेके किए जागृत करतेये। तुरी आदि का मंगल वादनमभी होताथा। व्राह्मूतंमे निद्रा से उठकर शौच आदि

करके नैत्तिकका्यं करने करा प्रचार ओौर सिाजथा। आजकेमारतमें `

परिस्थिति नितांत मिन्नदहे।

“”धर्मार्थनाश्ः किल धर्मगोतमे सुखास्पता वै भ्रमणे नरस्य ।

दरिद्रता बन्धुखुखात्पता च भवेच रोके किट्देहपीडा दृण्डिराज

अर्थ–नवममें राहुके होनेसे ध्मवाधनका नाश होता है। सुख कम पमिटता है मनुष्य घुमकड होता हे। यह दस्र होता ई। इसे बोँधवो से सुख कम मिलता है । इसके शरीर मं पीडा होती है ।

८ धर्म॑स्थिते चन्द्ररिपौ मनुष्यश्चाण्डालकमां पिद्चनः कुचैलः ।

ज्ञातिप्रमोदेऽनिरतश्च दीनः शत्रोः कुटाद्भीतिस्पेतिनिव्यम्‌ ॥ मानसागर

अथे–यदि राहु नवम मेदो तो मनुष्य चाण्डाल जसे नीव ओर भ्म काम करनेवाला होता है । यह चगुरु सौर गन्दे कपड़े पदिरनेवाखा होता है । इसे आपने जाति के लोगों के आमोद-प्रमोद में को$ उत्साह नदीं होता दै। इसे अपने शत्रुओं से भय होता है ।

“ध्यदा धम॑भावे भवेद्‌ राहूनामा भवेद्धमंदहीनस्तथा पापकारी ।

स्वय दु्टरंगं करोत्येव नूनं परे विक्रमात्‌ पाददेशे सातः ॥ जागेइगर

अथे- राह नवम हो तो मनुष्य धम॑हीन, पापी तथा दुष्टो की संगति में रहता है । युद्ध मे इसका पैर जखमी होता है ।

“व्घर्म॑स्ये प्रतिवूल्वाग्‌ गणपुर्यामोधिपोऽपुण्यवान्‌ ॥” मन्त्रेहवर

अ्थ-राहु के नवमभावमे होने से मनुष्य प्रतिकूल बाणी बोलनेवाा है। यह लोगोंकार्गोव वा नगरप्रस्ख होता दहै। यह पापाचरण करनेवाला होता है ।

“ध म्हीनः कर्महीनो निधंनोऽतिधूंतोधूतप्रियः सर्द॑सौस्येन हीनो भवेत्‌ सम्भवे दीनमभाग्यो नसो भाग्यगे भाखवरे॥* | ह्रिनजञ

अथे–यदि राहु नवममें दो तो मनुष्य धर्मदीन, कहन; निधन, धूतं धूतप्रिय, समी प्रकारके बुखों से हीन तथा अभागा होता है ।

भ्रगुसृत्र– “पुत्रहीनः द्री संभोगी सेवकः धर्महीनः ॥

५५०४ चमर्कारचिन्तामणि का तुरखुनात्मक्‌ स्वाध्याय

अथे-नवमस्थ राहु का मनुष्य पुत्रहीन, धर्मंहीन तथा नौकरी करनेवाला होता दै। यद दयुद्राल्ली का उपभोग करता है।

अज्ञातमत- सेवक बहुत दोतेदै। धनी, सुखी, देववान होता) घम पर श्रद्धा क्महोतीरै। शरीर कष्टी रहतादहे। सभामें विजयी होता है। स्रीकीइच्छाका पालन करता दहै। बन्धुर्थों में स्नेह करता दहै। यद सन्ततिदीन, जाति का अभिमानी, इट बोलनेवाला, धमं की निन्दा करनेवाखा तथा कतव्य रदित होता है। यह राहु वृष, मिथुन, ककं, कन्या वा मेष में होतो उत्तम यरादेतादहै। राह दूषित होतो अनिष्ट फकदेता दै। यद बहुत प्रवास करता है ।

पाश्चात्यमत-यह धन की इच्छासे विदेशसे व्यापार करे तो नुकसान होता है | विदेशी वको में धन वता है । स्वदेशीय उद्योगमें लाभहोता है इस स्थानम केवुदहोतो लोकमत के प्रतिकूल बोकते द| प्राचीनमत का प्रतिपादन कर तो ये जब्दी प्रगति कर खकते ह । ९-१०-६१ स्थानों मे केतु रोगो मे अप्रीति निर्माण करता दै। सुधारवादी विचार, उन्नत भत्मशक्ति, जगत के कल्याणक प्रयतनये इसक्तु के लक्षणरहै। किन्तु इस सत्रके फल स्वरूप इन्द खोकनिन्दा ओौरक्ष्टदही प्राप्त होतादै। कारण यह रैक इस स्थिति मं राह अनुदित भागम होता दै।

विचार ओर अनुभव-सभी ठेखकों ने नवममावगत राह के शभ-अघयुभ अर्यात्‌ निधित फर बतलाए है । अश्चुम फलो का अनुभव पुरुषरारियों में यता हे ओर श्चुमफठ छ्रीराशियों मे अनुभवगोचर होते ई ।

पुरषराशि मं नवमस्थ राहु हो तो मनुष्य वापका इकटौता वेदा होता है । अथवा सत्रसे बडावाषछोया होता है- इससे बड़ी वा छोटी बहिन होती है। बहिन न हों तो यह राहु भाई को मारक होता दै। सख्रीसम्बन्ध मे यह मनुष्य जाति वावगंका ख्याल नहीं रखता | विजातीय विवाह भी करता रै उग्रमें अधिक्स्री वा विधवा से विवाह मी अनुकर माना जाता दै। ये फल मिथुन, वला ओर कुम्भ राशिकेदहै;

मेष, सिंह; धनु मं खत्री के साथ व्यवहार अआदयपूर्वक होता है ।

मिथुन, दला, कुम्भ में खरी पर स्वामित्व की मावना रहती है । पुत्र संतति यातो होती नर्ही-होतो मृतदहोतीहै। संतानके लिए द्वितीय बरिवाह की आवदयकता होती हे । इस भाव के राहु विदेशगमन; विदेशीय घ्री से विवाह कायोगहोताह। ५ वें वर्षमे भ्रात्रमृप्यु ३६ वे वषं मे भाग्योदय होता दै।

खीराशि मे नवमस्य राहु हो तो संतति होती है- कुछ एक की मृ्यु भी होती है। कन्या संतति पदिलेहोतीर्है वा ब्ृद्धावस्थामें पुत्र होता है। बहनों के लिए यह राहु मारक होता है।

राहुर ` ५०७

सरीरा मे यदह राहो तो मनुष्य हनुमान की उपासना करता है । भायां की एकच प्रगति मे नवमभाव का राहु बाधक होता है । यदि विभाजन दो मौर एकत्र स्थितिनदहोतो दोनों माई प्रगति कर पाते हे । १६वे वषं से भाग्योदय, ९ वै वषं मे बन्धुकष्ट-बहिन की मृद्यु, ररव वषे मे बडे भाई की मृत्यु, ये फ नवमस्थ राहुकेर॥ | ददरामभावगत राहू के फट–

“’सद्‌ाम्लेच्छसंसगेतोऽतीवगर्वं रमेत्‌ मानिनो कामिनी भोगमुच्चेः। जनेव्यकुरोऽसौ सुखं नाधिरोते मदाथैग्ययी कऋररकमौ खगेऽगो ॥१८॥ अन्वयः–अगौ खगे ( स्थिते ) असौ मदाथम्ययी क्रूरकमो ( चः भवति ) ( अतः ) जनैः व्याकुलः (सन्‌ ) सुखं न अधिशेते । सदाम्टेच्छ संसगतः अतीव गवं रभते, मानिनी कामिनीमोगं उच्चैः ल्मते ॥ १० ॥ सं टी– खगे दशमस्ये अगौ रादौसति असौजनः मदे अनवधानसमये अर्थव्ययी, क्रूरकर्मा अतएव जनैः व्याकुलः सुखं न॒ अधिरोते शयनं कुर्यात्‌ । सदा म्ठेच्छ संसर्गतः अतीव ग्वं उच्चैः मानिनिकामिनीमोगं उन्मतयोवनरूप खावण्यगर्वित म्रटगी सी संभोगं मते ॥ १० ॥ | अ्थे- जिस मनुष्य के जन्मल्य से दशमस्थान मे राहु हो वह्‌ नशेके निमित्त द्रव्य का खम्बं करनेवाटा ओौर दुष्टकायं करनेवाला होता दै । अथात्‌ दशमभावस्य राहु का मनुष्य नशाबाजी में रया खचं करता है ओौर बुरे काम करता दै। अतएव इस्त रोगोंसे कष्टहोतादहैे इसि सुख से सोता नहीं है । सर्वदा म्केच्छयंकी संगति में रहकर बडा घमंडी होता है। अथवा विदे- रियो के सम्बन्ध से गर्विष्ट होता है। यदह उत्तमोत्तम यौवनगर्विता रूप- खावण्यसम्पन्ना कमनीयतमास्ियों के साथ सहवास करता है भौर रतिसुख प्राप्त करता है। तुरखुना– “अगो वित्तापायोऽधिकमनवधानेन दशमे; यदत्सौख्यम्ेच्छात्‌ प्रभवतिकुगव॑स्तनुभृतः । तथा चिन्ताधिक्यं स्वजनजनकेः किं सुखमलं । सदारण्डानारी सुरतयवरप्रीतिरमितः ॥ जीवनाय अ्थे- जिख मनुष्य के जन्मसमय मे राहु दशमभाव मे हो उसे भसावः धानी से अधिक धन का खर्वं करना पड़ताहे। इसे यवनादि हीन जातियों से अधिक सुख प्राप्त होता है। यह व्यथंका धमंड करताहै। इसे चिन्ता अधिक होती है। इसे अपने लोगोंसे तथापितासे पूणे सुख प्राप्त नहीं होत। है। यह विधवाच्ियों से सदा संभोग करता है मौर दुज॑नों से प्रेम करता है| `

५०६ चमरकारचिन्तामणि का तुखनास्मक स्वाध्याय

नोट-म्टेच्छ शब्द काथं कई एक दीकाकारोंने ध्विदेरीय’ वि.या है कद एकने धववनादि दीन जातिया” कियारहै। प्रकरणानुकूल अर अर्थ तो भनीचव्त्ति-नीचस्वभाव-के टोगः ही करना उचित होगा क्योकि उत्तम स्वभाव के सदाचारी लोग मद्यपायी तथा परकीया ख्रीरत नहीं दो सकते ईै- इस प्रकार के निद्यक््मं तो नीच संसगंका ही परिणाम होता है। “रासो वादशादहखाने भटजोरावरो गनी | विपक्षपक्चरदितो मृदशः पुतरदतः॥ खानखानः अथे-दशमभावमें राहो तो मनुष्य महावली, परोपकारी, शत्रु्ीन धनी ओर चिन्तायुक्त हृदयवाखा होता हे । “पितुः नो सुखं कमगोयस्य राहुः स्वयं दुर्भगः शत्रुनाशं करोति । रूजो वाहने वातपीडां च जन्तोः यदा सौसल्यगो मीनगः कष्टभाजम्‌ ॥ महेश अथे–यदि राह दशमभावमें होतो मनुष्य को पिताका सुख नहीं मिक्ता है यह स्वयं दुरमागी होता दहै । यदह शत्रुनाशक होता दै। इसे वाहनो

से क्ष्टहोतादहं। इसे वातरोग होतेह । यदि सुखभावगत मीन का यह राहू होतो कष्ट होता है।

““्वौर क्रिया नि पुणबुद्धिरतोविशीदलो मानं गते फणिपतौ तुरणोत्युकः स्यात्‌ ॥ नैयनाथं अथं-यदि राहु दशमभावमेंदोतो मनुष्य चोरी करने मे चतुर होता दे । यह मनुष्य शीठहीन होता है । यह युद्ध मे ल्डने के लिए उस्सुक रहता दे । अथवा दशमराहू का मनुष्य ज्चगड्ाटू होता रै ॥ “भवेद्‌ वृन्दपुरप्रामपतिर्वा दण्डनायकः ¦ कमंस्थिते तमे प्राज्ञः शूरो मंत्री धनाच्ितः॥ गर्म अशो–यदि राहु दशमभावमें होतो मनुष्व टोकसमूह, गांव वा नगर का अध्रिकारीः मंत्रीवा सेनापति, श्यूर वा बुद्धिमान वा धनवान्‌ होता ह। गगं के अनुसार दशमस्य राह श्चुभफल्दाता ई ॥ “धनाद्‌ न्यूनता च प्रतापे जनैः स्याकुरोऽसौ सुखंनाधिरोते। खुटद्‌ दुःखदग्धो जलाच्छीतल्व्वं पुनः चेत्तयेयस्य स त्रुरकर्मा ॥ हद यवनजातक अथी–जिसके दशमभावमें राहु हो वह धनसे दयन वथा पराक्रमसे हीन होताहे। लोग इसे पीड़ित करते है अतः यह सुख की नींद सो नदीं

५ । मित्रके दुभ्खसे दुभ्खी रहता दै। यह क्ररक्मं करनेवाला होता दै | त

‘दश्मभवनगे पापबुद्धिं ददाति ॥” वशिष्ठ अथो-यदि राहु दशममावमें दहो तो मनुष्य पापी विचार का होता ह)

राइ-रुक ५०७

“कामातुरः कमेगते च राहौ पदाथलोभी मुखरदीनः । म्लानोविरक्तः सुखवर्जितश्च विहारलीलश्वपलोऽतिदुष्टः?’ ॥ मानसागर अथे- राहू के दशमभावमे होने से मनुष्य; कामातुर) दूसरे काधन चाहनेवाला, वानाल, दीन, उत्साह हीन, विरक्त) सुखरहित, प्रवासी, चपल ओर अति दुष्ट होता दहः “ख्यातः खेऽत्पसुतोऽन्यकार्यनिरतः सखत्‌कम॑हीनोऽभयः | सत्कर्मविश्रमद्यचितवमवच्यङ्कत्वं तेजस्विनां नभसि शौयंमति प्रसिद्धम्‌? ॥ मन्त्रेहगर अ्थै–यदि राह दशमभावमे हौ तो मनुष्य विख्यात होता दै-इसे पुत्र संतान थोडी होती है | यदह दूसरों के काम करनेवाला, अच्छे कामन करने- वाखा ओर निडर होता है। “पितुः नो सुखं कर्मगोयस्यराहुः स्वयं दुभंगः शत्रुनाशं करोति । रूजोवा हने वातपीडा च जंतोः यदा सौख्यगो मीनगेः कष्टभाजम्‌” ॥दुण्डिराज अर्थ- यदि राद दञ्चमभावमे होतो मनुष्य को पिताका सुख नहीं मिख्ता, यद अभागा होता दै। दशमस्थराहु रानुओं का नाश करता दै। इसे वाहनों से कष्ट होता दै। इसे. वातरोग होते ह । यदि सुखभाव का रा मीनमेंद्ो तो कष्टकारक होता हे। ““भवेद्गव॑भंगो गरिष्ठो विदोषात्‌ तथा मातृकषटं कुठे धातपातः । पितुः बाथवा भ्रातरदुःखकरः स्माद्‌ यदापातनामा मवेत्‌ कमगोऽयम्‌ ॥ अथै–दशमभावगत राह से मनुष्य का गवं दूर होता है, माताको कष्ट तथा कुर मे अपघातसे म्॒युहोतादहै। पितावाभ्राताको दुःख होता हे । यह मनुष्य एक महान्‌ व्यक्ति होता है।

“व्युगमसंस्थोऽथवा कन्यकासंस्थितः कर्मभावे यदा सैंहिकेयो भवेत्‌ । राजमान्यः प्रकुर्यात्‌ स तापाधिकं शेषसंस्थोनरं वैपरीप्ये सदा” ॥ हरिनंश अ्थै– यदि दशमभाव का राहु मिथुनवा कन्याम होतो मनुष्य राज-

मान्य होता है। अधिक कष्ट देता है, अन्य राशियों का राहु सदा विपरीत फल देता है।

‘भ्राहौ च माने भागीरथी स्नान म॒शांतितज्ञाः विवर्जितः

स्यात्‌ शिखिराहु पापौ यज्ञस्य कता सभवेत्‌ तदानीम्‌” ॥ गे कटेशशार्मा

अथे-दशमभावमें राह होतो गङ्गास्नानं कालम मिक्तारै। यदि

यद राहु, वा केतु पापग्रहकेसाथन दहो तो मनुष्य यज्ञ करता दै ।

श्रगुसूत्र–वितन्वुसंगमः, दुग्रामवासः | श्चुमयुते न दोषः। काव्य- व्यसनः । दासीसंप्रदायी । भूमिनाशो भयान्‌ नित्यं देहपीडां धनक्षयः। इष्टस्वजनविदेषं राहौ वै दशमे स्थिते ॥

९१०८ चमर्कारचिन्वामणि चछा तुखनास्मक्‌ स्वाध्याय

अथे-दरामस्य राहु का मदुष्य विधवासे संबैध रखता दै । बुरे गोव में रहता है । इस राहु केसायद्युमग्रहदहोतोये दोष नदींदहोते। इसे काव्यमें रुचि होती है । दा्ि्यां रखता है । इसभाव के राहुसे भूमि का नाश, डर, निव्यशरीर को कष्ट; धननाश्; अपने इष्ट मि्ोँसे तथा अपने ठोगोँसे देष होता है ।

अनज्ञातमत– दशमस्य राहु का मनुष्य बल्वान रोगों का साहाय्य प्राप्त करता दहै। पिताका सुख नहीं परिल्ता। वातरोग होतेह । चतुर किन्तु चितित होता है। यह राहु मीनमें होतो प्राप्त स्थावर संपत्ति का उपभोग कर सकता है । अनेक चर्यो से संवंध रखता है । खर्चीला; राजवेभव से युक्त, दातु का नाश करनेवाला, अस्थिर चित्तका होता है। इसे कविता नाटक आदि मं रुचि रहती दै । युद्धप्रिय होता हे। यद प्रवासी, व्यापार में निपुण दोता है । यह राहुउचकाहोतो राजा का पद्‌ प्राप्त होता इे।

पाश्चात्यमत-यह राहु बहुत उत्तम फल देता है । परे जीवन में सफलता, सन्भान, कीतिं वा अमर्याद श्रेष्ठता मिक्ती हे ।

विचार ओौर अलुभव-दशमस्थ राहु के मिश्रित फल ह । गर्म, हरिवंश तथा पाश्चात्यमत मं ञ्यभफलोँ का वणन है । अन्य ठेखकों ने अश्चुभ फलो का प्रतिपादन क्रिया है। श्भफल खरीरारि के ओौर अश्चम फक पुरुषराशि के ह| दशमस्यान पुत्र से सम्बन्धित नहीं है । यदि इ स्थान में दूषित रवि, मंगल, गुर-दानि वा राहु होतो माता, पिता; भ्राता वा पुत्र के सम्बन्धसे शोक होता दे । ददामस्यान पिता का कारक, चतुर्थस्थान माताकरा कारक है। तृतीय स्थान जन्धुस्थान हे । इस स्थान में राहु अश्चुभयोगमें दहो तो माता-पिता तथा

नन्धु के सुख की हानि होतौदहै। पुत्रके युखकीदहानिमभी होती है स्योँकि

वह स्थान लामस्थानसे द्वादश ( वंश वा व्यय) एवं भाग्यस्थान से इूखरा (धन वा मारक ) स्थान होता है । “विधवा के साथ सम्बन्ध रखना” यह फल पुरुषरादि का हे । पुरषराशि मे राहु के दने से मनुष्य घमंड; वाचाट ओर ल्ग से प्रथक्‌ रहनेवाटा होता है । इस राहु से मनुष्य पुलिस, रेटविभाग, नीमा कम्पनी, वैक आदि मं नौकरी करे तो सफल होगा । इस राह से मनुष्य लागा का विश्वासपात्र नहँ होता है। जन्म से ही यह राह माता-पिता को यारारिक वा आर्थिक क्ष्टदेतादै। पिता पंगु होकर पैन्शन ठेताहै। माता वापिता की मृत्यु वचपनमे होती दै।

दशमभाव का राहु यदि ख्रीराशि मेँ हो तो पूवजों की सम्पत्ति से वंचित होना पड़ता है ! यदि यह सम्पत्ति मिल ही जावे तो मनुष्य स्वयं इसे नष्ट कर देताहे। इस भाव क राहु से मनुष्य पूवं अवस्था मे बहूत कष्ट भोगकर प्रगति करता हे । प्रद अवस्था में सन्तान, धन, कीर्ति, सन्मान आदि प्राप्त होते ई ।

राहू-फख ९१०९

पुत्र सन्तति भूयस्त्व, कोटं के कामों म विजय, केखन-सम्पादन आदि मं निपुणता प्राप्त होती है । यह्‌ मनुष्य मिल्नसार, स्तेह शील, परोपकारी स्वभाव का होता ईै। यह अपने काम में विन्नकर्ताओं को बरदादत नहीं करतादै। इस भावके राह से ३र्वै वधेमाताको, ७वे वषे पिता को, <्वे वष पेव्रक सम्पत्ति को गम्भीर खतरा होता है। रश्व वषमे भाग्योदय का प्रारम्भ होता है । ३६ वषं पूर्णं उन्नति होती है । ४२बें वषं सावंजनिक आदर-सम्मान की प्रासि होती हे। एकाद दास्थानगत राहु का फट–

‘“सद्‌ा स्ठटेच्छतोऽथ कभेत्‌ साभिमानः चरेत्‌ किंकरेण व्रजेत्‌ किं विदे राम्‌ पराथीननर्थी हरेद्‌ धूतेबन्धुः सुतो्पत्तिसोख्यं तमो दाभगश्चेत्‌ः ॥११॥ अन्वय–( यदि ) तमः खाभगः चेत्‌ ( तदा ) सदा स्लेच्छतः अथं ट्मेत्‌, ( सः ) किंकरेण ( खद्‌ ) सामिमानः चरेत्‌, विदेशं किं व्रजेत्‌ › सः धूतबन्धु अनर्थो परार्थान्‌ हरेत्‌ । ( तस्य ) सुतोप्िसौख्यं ( स्यात्‌ ) ॥ १५ ॥ सं: टी<लाभगः तमः राह; चेत्‌ सुतोत्पत्तिसौख्यं सदा म्ठेच्छतः अथं द्रव्यं च ल्येत्‌, किंकरेण सेवकेन सह साभिमानः चरेत्‌ येः विना न कुत्रापि गच्छेत्‌ इत्यर्थः । विदेशं कं तरजेत्‌ किमथं गच्छेत्‌ येस्थित एव सर्वं॑लूमेत्‌ इति भावः। धूर्ताबन्धवः मि्ाणियस्य सः धूर्तानां बन्धु वर्ग॑तएव अनर्थौ वैश्यूल्येन सर्वानथ॑कारी पराथौन्‌ हरेत्‌ गहीयात्‌- तद्धिया सर्वै ददतीव्यारायः ॥ ११॥ ्थ– जिस मनुष्य के जन्मल्य ते एकादश स्थानमें राहु हदो तो बह सर्वदा म्लेच्छों से धन पाता है। यह नौकरोंके साथ अभिमानपूबेक फिरता है। इसे विदेश से जाने की क्या आवद्यकता है जबकि इसे स्वदेशमे भी किसी वस्व॒ की कमी नहीं रहती । यह धूर्तो का मित्र तथा अनथं करनेवाला होता है । अतः दुसरे के धन को टगी से हथिया केता है। इसे पुत्रजन्म का सुख पिता हं) तखना-“अगौ कामस्थानं जनुषि भविनां म्टलेच्छकुकत सदा वित्तप्रा्िश्चदठुरजनमेनी च परमा। खतानामुत्पत्तिः सपदिपरवित्तापहरणे $ पतिश्च गर्वः प्रभवति गतिः किंकरगणेःःः | जीवना अर्थ जिख मनुष्य के लामस्थान ( एकादशस्थान ) में राहुहो तो उसे खदा म्टेच्छोंसे धन का लाम होता दै। यह चतुर पुरुषों के साथ मित्रता स्थापित करता दै । इसे पुत्र सन्तति होती हे । इसकी बुद्धि दूसरे का धन अपहरण करने में लगी रहती है । यह एकं अभिमानी व्यक्ति होता है । यह तेवकों को साथ टेकर चलता हे ।

५१० चमर्कारचिन्तामणि का तुखनात्मक्‌ स्वाध्याय

““शाक्तखाने भवेद्‌ रासोनायते नहि साहबः | वेकारश्च कजमन्दः कलद्ीमनुजस्तदा” ॥ खानखाना अथे–जिसके एकादशभाव में राहु हो वह वड़ा मदमी नहीं होता है । यह वेकार समय त्रितानेवाद्य; कर्जा ठेनेवाला भौर श्चगड़ा करने वादा होता है। “ध्लामे गते यदि तमे सकटार्थं लाभ, सोख्याधिकं दरपगणाद्‌ विविधं च मानम्‌ | वस्रादि-कांचन-चतुष्पद्‌ सोख्यभावं, प्राप्रोति सौख्यविजयं च मनोरथं चः ॥ मह्न अथ–जिस मनुष्य के लामस्थानमें राहु हो उसे सम्पूणं धन कालाभ टोता हं । इसे राजा्ओं से मान ओौर खुख प्रात होता है । इसे व की प्राति,

कंचन का लाम ओर चौपाये पञ्च से सुख भौर लाभ होता है-इसकी विजय होती है | इसके मनोरथ पूरे होते ईै।

“राह श्रोचबिनाशको रणतल्छछाघो धनी पण्डितः । वैद्यनाथ

अथे–यदि राद एकादश भावमे होतो मनुष्य बहरा दोता है यद

युद्ध मे प्रसित, धनी भौर विद्वान्‌ होता है | “यस्य लामगतो राहुः कामो मवति निश्चयात्‌ | म्ठेच्छादिपतितेः नूनं गजवाजिरथादिकम्‌ ॥ भर्म

अथे–जिसके लाभभाव मेँ राहु हो उसे लाभ होता है। इसे विरेशियो ओर पतितो से हाथी; घोड़े, रथ आदि की प्राप्ति होती है ।

““लाभस्थाने विलासो भवति सुकविता वा सुलक्षम्यादि भोगम्‌ ॥*. व शिष्ठ

अथ–सभभाव मं राहु होतो मनुष्व विलासी, कवी, घनवान्‌ आर भोगी होता है ।

““लमेद्‌ वाक्यतोऽ्थं चरेत्‌ किंकिरेण व्रजेत्‌ किंच देशं लमेत प्रतिष्ठाम्‌

दयोः प्चयोः विश्रुतः सतपरजावान्‌ नताः शत्रवः स्युः तमोखामगस्चेत्‌ ॥

बरइदयवनजातक

अथय वक्ता होकर धन प्रात करता है । सेवको के साय पता है। देरामें इसकी प्रतिष्ठा होती है। यदह दोनों पर्चो को मान्यदोताहै। इसे 4 सन्तान अच्छी होती है| इसके शतु भी नप्र होते ई ।

“आयस्थिते सोमरिपौ मनुष्यो दान्तो भवेत्‌ नीख्वपुः सुपूर्विः ।

वाच्तास्पयुक्तः परदेशवासौ शओआखकवेत्ता चपल्नोविल्जः ॥ भानतागर

अथ जिसके एकादश्चमाव म राह हो मनुष्य इन्दरि्थो का दमन करने वाला होता हे यह सोवले रंग का, सुन्दर मितभाषी, विदेश म रहनेवाखा, रासो का ज्ञाता, चपल गौर नि्टज होता दै |

राहु-फ ५५११

ध्लामेगते यदि तसे सकलार्थलामं सौख्याधिकं दृपगणाद्‌ विविधं च मानम्‌ । वखरा दि कांचन षचवष्पद सौख्यभावं प्राप्रोति सौख्य विजयं च मनोरथं च ॥ ° दृण्डिराज अर्भ– जिसके छाभस्थानमे राहहो तो इसे सखव प्रकार का खभ अविक्र सुख, राजा द्वारा विविध सम्मान) वस्र, भूषण वा पञ्च आदि कौ समृद्धि, सुख सौर बरिजय प्राप्त दोत हे । | “शश्रीमान्नातिस॒तथिरायुरसरे मे सकणामयः ॥” सन्त्र इवर अशी–वदि कामम राहु दहो तो मनुष्व श्रीमान्‌, थोडे पुर््रोवाखः दौघायु अर कानके रोगसे युक्त होता हे। ‹भवेन्‌ मानवो मानयुक्तः सदेव प्रतापानटेस्तापयेच्‌ छतरवगंम्‌ । सुतैः कष्टभाग्‌ गोत्रचितासुयुक्तः सदा चेकेयोनराणां च लभे ॥’’ जागेडनर अशी–यदि राहु लभमावमें दो तो मनुष्य सम्मानितः प्रताप से शतु को सन्तस्त करनेवाला होतादै। इसे पुत्र तथा कुडम्ब की चिन्तासे कष्ट होता ह । | ^’ख्ायभावस्थितः कायहीनग्रहः सवदाय तनोव्यगपुष्टि गृणाम्‌ । भूषतो गौरवं रचरुहानिं वलं वाहनं भूषणं माग्वम्थागम्‌ ॥ हरिवंश अधशी–यदि राह काभभावमेंदहयो तो मनुष्यका शरौर्‌ पुष्ट होता हे। राजास आदर सम्मान प्राक्च होता हे) इसके शत्र न्ट होतेह । इसे बल; वाहन, भूषण, धन तथा भाग्योदय प्रात होता हे। भ्रगुसूत्र- पुत्रैः समृद्धः, धन-घान्य सब्रृद्धः | शरीरायेग्यमेश्वयै छीसुखं मिभवागमः। संकीर्णं वर्ण॑ती कामो राहुः लाभगतो यि ॥ अ्यै–यदि लामभावगत राहुदहोतो मनुष्यको पत्र धन तथा धान्य की समर्धि प्राप्त होती दै । शरीर नीरोग, रएेश्वय, स्रीसुख;, धनलाभ, नीच जाति के लोगों से लाभ-ये फल एकादश राहू के है । पास्पात्यमत-यहः व्यक्ति श्रेष्ट होता है । जिसका व्यवसाय किसी दूसरे पर अवख्मजित हो उसे यह टाभदायकर दे । रेस, सद्धा, ख्य मे इसे लम नहीं डोता अन्य बातों मे भाग्यशाली होता ३ । ३-६-११ स्थानों मे यह राहु अरि दूर करता दै। ` अज्ञातमत-इसका व्यवसाय टीतेनहीं चलता, कजं रहता हे । यदं राहु उच्च वा स्वग्रहकादहोतो राजाद्वारा मदर पाता हे। सुखी तथा धनी होता दै। बिदेशियों से धनवा कीतिं मिर्ती हे। मनुष्य विद्वान्‌; विनोदी, ल्जाल्ीक, शाखज्ञ, युद्ध मे विजयी आर बहरा ( वेधिर ) होता हे । सन्तति कम दोती हे। विचार ओर अलुभव-ठेखकों ने प्रायः एकादश राहु के फल शभ डौ वतलाए है-ये ख्रीरारियो म मिलते. है। भश्चुमफल पुरुषराशियो में

५५१२ चमत्कारचिन्तामणि का तुरुनास्मक्‌ स्वाध्याय

अनुभव मेँ आते ई। पुरुषराशिमं एकादशा राहु दहो तो पुत्र सन्तति बाधा पड़ती है ओौर इसका कारण पूवेजन्म का शाप होता है। इस शाप का अनुभव कई प्रकारसे होता ईै–जेसे पुत्रमरण, ग्भ॑पात, चरी को सन्तति प्रतिबन्धक रोग का होना आदि । सहसा श्रीमान्‌ हो जाजं-इस अमिराषा से एकादश्भाव गत राह का मनुष्य रेस, सद्वा-लटरी-जू्ा आदि मेँ धन का खष्वं करता है। इसी काश्चा से, अधिकारी होतो अन्धाधुन्ध रिधत केता है ओौर कानन के रिकञ्जेमेञा जाता है। इसी कारण यह लोभी, परद्रव्यापहारी भौर वरताव अनियमित होता है-मित्रांसे हानि, भाग्योदय में रुकावट आती र| यह राहु ्नीराशिमें दहो तो प्रथम सन्तान कन्या; बहुतका के अनन्तर पुत्र होता है । कन्याएं अधिक होती है–मित्र अच्छे-उनके साहाय्य से जीवन अच्छा मित्र ज्योतिषी वा मंत्रशास््रवेत्ता होतेर्दै। मनुष्य अधिकारी होकर रिश्वत खातादै किन्तु कानन की गिरिप्तमें नदीं आता । व्यवसाय करेवा नौकरी करे-दोनों दी सफल होतेर्दै। बडे भाई की मृत्यु-वा इसकी वेकारी से कुदम्ब का वोञ्च स्वयं उटानाहोतादै। ्रर्व वष्मेँं सहसा धन प्राप्ति सम्भावित होती दहै। २८ वँ वषं जीविका का आरम्भ होना सम्भावित है। २७र्व व्ष॑मे विवाह सम्भावित होता है। द्वाद दाभावगत राहु के फट- ८८तमो” द्वाददो दीनतांषाश्वराटं प्रयत्ने कृतेऽनथेतामातनोति । खलः मित्रतां साधुरोके रिपुत्वं विरामे मनोवांछिताथस्य सिद्धिम्‌ ॥१२॥ अन्वय :– द्वादशे ( स्थितः ) तमः दीनतां पाश्वद्यूलं ( च करोति )) प्रयज्ञे कृते ( अपि ) अनथतां ( ददाति ) खद: मित्रतां, साधुरोके रिपुत्व, विरामे मनो- वांछिताथंस्य सिद्धिं (च ) आतनोति ॥ १२॥ सं< टी<-द्राददो तमः दीनतां) पाश्वं क्रोडे वातपीडा, खलः मित्रतां, साधुरोके सजने रिपुस्वं शत्रुत्वभावं, प्रयते कृते अनर्थतां स्वेष्टकायं वैपरीत्ये परि णामे मनध्िन्तितार्थस्य शिद्धिं आतनोति हव्यस्य सर्वत्र यन्वयः ॥ १२॥ अथे- जिस मनुष्य के जन्मल्य्रसे द्वादश्भाव मे राहू हो वह दीन दोता है। इसकी पसलीमें शूल होता है । वाहे जितना उद्योग किया जावे काममें सफकता नदीं मिल्ती-उल्टे काम विगड्ता है । यह दुष्टँ का मित्र ओौर सजनां काशत होता है । अन्त में इसकी इच्छां प्ूरीहोतीदह॥ तलना- “यदा रिष्फे राहुः जनुषिभविनां दैन्यमधिकं , तथा दूटं पाश्च हृदयकमले चानिल्कृतम्‌ । कते यत्तेऽन्थः प्रभवति द्विरामे भफलं , खकः म्री शश्वत्‌ परमरिपुता सजनगणेः ॥ जीवनाय

३३ राहु-फङ ५५१३

अथै– जिस मनुष्य के जन्मकाल मेँ राहू दवादशभाव मे हो उसे अधिक दीनता, पार्श्वं ओौर हृदय में वातञन्य च्यू होता रै) प्रयत्न करनेपर भी ( आदिमे ) अनिष्टफल तथा अन्त मेँ श्चुभफल होता है! इसकी दुष्टो से नैत्री एवं सञ्जनं तरे परमखुता निरन्तर बनी रहती है ॥ ““रासः स्थितो यदा यस्य खच॑खाने भवेत्तदा । कलदप्रियवेकारः कज॑मन्दश्च सुफ़ल्शिः ॥* खान्खाना अथे–यदि राहु द्वादश्चभावमं होतो मनुष्य कठहुप्रिय, व्यथं समय वितानेवाखा, कजा करनेवाला भौर दरिद्र होता है ॥ “नेत्रेच रोगं किल्पाद्‌ घातं प्रपञ्चभावं किंल्वात्सल्तम्‌ दुष्टे रतिं मध्यमरेवनं च करोति जातं व्ययो तमे वा |” भहेज्ञ अथै- जिस मनुष्य के जन्मकार मे राहु द्ाद्यभावमे हो उसे नेत्ररोग होते ई । इसके पैर मे खम होता है । यह प्रपञ्ची होता है । यह भीति करने वाखा होता है । यह बुरे खोगों से प्रीति करता है-यह उ्मकोटि ॐ मनुष्यो का सेवन नदीं करता है, प्रत्युत मध्यमकोटि के मनुष्यों की सङ्खति मे रहता ६ै। ““विधुतुदे रिःफगते विशीलः सम्पत्तिखाटी विकलश्च साधुः ॥» वैद्यनाथ अ्थे– यदि गह द्वादशम होतो मनुष्य शीरुहीन, धनौ, व्यंग से युक्त अर परोपकारी होता है ॥ धव्ययस्थान गते राहौ नीचकमरतः सटा । असद्ब्ययी पापबुद्धिः कपटी कुलदूषकः ॥* गं अर्थ– यदि राहू द्वादशयभाव मे होतो मनुष्य नीचकर्मं करनेवाला, बुरे कामोसमें धन का ख्व करनेवाला, पापी विचारों का, कपर-छल करनेवाला, अर कुर को कलत करनेवाला होता हे ॥ “ध्तये द्वाददो विग्रहे संग्रहेपिप्रपातात्‌ प्रयातोऽथ संजायते हि। नरोश्राम्यतीतस्ततो नासिद्धिः विरामे मनोवांखितिस्य प्रबद्ध | वृहद्थवनजातक अ्थ–दादशाभाव मे यदि राहु होतो मनुष्य षर में ्षगड़ा करता ईै- गिर पड़ता है । इधर-उधर धूमता फिरता है किन्तु इसे धन प्राप्त नहीं होता प्रत्युत इसके काम्‌ जिगङ़ जाते ह। किन्तु यदि यह एक गह स्थिर होकर ` चैटता है तो इख इच्छा्प पूरी होती है ॥ ‹°्ययस्थिते सोमरिपौ नराणां धममौथहीनो बहूदुःखतप्तः । कान्ता वियुक्त विदेशवासी सुखैश्वदीनः कुनखी कुवेषः ॥’ सानसागर अथे-दादशभाव में राहुदो तो मलष्य धमं ओर धनसे हीन, हुत दुःख खली से दूर रहनेगाला, विदेश मेँ जानेवाखा, युखरदित, बुरे नखवाल्य ओर गन्दे कपडे पदिननेवाल होता है ॥

५११४७ चमरस्कारचिन्तामणि का तुकूनारमक्‌ स्वाध्याय

न्लेत्रे च रोगं किट्पाद्घातं प्रपञ्चभावं किर बत्सक्त्वम्‌ । दुष्टे रतिं मध्यमसेवनं च करोति जातं व्ययगे तमेवा ॥ ढण्डिराजञ अथ–ओंँख में रोग पौव पर जखम होते है यदि राहु द्वादशभावमें होता ई! मनुष्य प्रपञ्चमं खगा रहता है । यह स्नेहरील होता है। इस मनुष्य का वेम दुर्ोमे होता है। यह मध्यमदजके -लोगों कौ सेवा मं रहता दे उत्तम सौर श्रे टोगो की सङ्धति में रहना पसन्द नदीं करता हे ॥ ““प्रच्छन्ादयरतो बहुग्ययकरो रिःफेऽम्बुदक्‌ पीडितः ।› मन्त्रेवर अथे–यदि रा द्वादश्शभावमे होतो मनुष्य गुसरूपसे पाप करता दहै बहुत खच करता है । जलोदार रोण से पीडित होता हे ॥ (तथा राद्ुणा बुदबुदं नेत्रयुग्मम्‌ , यदा सेहिकेयस्तथः पातनामा व्ययेचेन्नराणां सदा म्टेच्छभिद्धेः । घनं भुज्यते मावुकेवे कुठारः स्वय॑तप्यते क्रोधयुक्तोजनेषु ॥ जागेहवर अथे–यदि राहू द्रादशभावमे होतो मनुष्य कीर्मर्खोमे रोग होते दहै। पका धन स्टेच्छ ओौर भील ट्ट्तेहै। मामाकी मृत्यु होती है। लोगों पर रोध करके स्वयं सन्तत्त होता है । “धलुद्धिमदः कृशांगाभिभूतस्तथा वंधुवेरी विरोधीशटो दुवः | कुःव्ययेनःन्वितो मानवः संभवेत्‌ भानुभावस्थितो भानुशत्रुः भवेत्‌ ॥ हरिवंश अर्थ—यदि राह द्वाद्याभाव मेदो तो मनुष्य मंदवुद्धि, दुर्बल, अपने बाधर्वां कां वरेरी, शट, विरोधी, बुरे कामों मे धन खर्च करनेवाला होता है। “रूपत्वं द्वाद शस्थः सुखमतिनितरां चक्चुरोगं प्रसूतौ ॥” व शिष्ठ अथे–यदि राहू द्वादशमावमे दो तौ मनुष्य रूपवान्‌ बहुत सुखी किन्तु प्वक्षुरोगी होता है । भ्रगुसूत्र–अस्पपुत्रः । नेत्ररोगौ । पापगतिः । धनव्ययं च कष्टं ष्ठ राज- पीटां रिपृक्षयम्‌ जायापीडा मवेननिव्यं स्वभानुः द्वाददो यदि । अश–यदि राहू द्वादशमेंदहोतो मनुष्य को पुत्र संतान कमदहोतीदहै। आंखमंरोग होतादहे। इसका आचरण पापमयदहोतादै। धन का खर्व, क्र; राजासे पीड) शत्रुनाश ओौरेलखरी कोक्ष्ट-ये दुष्ट मौर अश्म फल द्वादशा राहुकेहोतंरह। पाञ्चात्यमत–सावजनिक संस्थाथोंसे लाम ददोता है। अध्यालमङ्ञान के चिए यह दयुभरै। यह राहु अवैध सम्बन्ध से जन्म सूचित करता है इस स्थानम मिशरुन, धनु, वामीनमें राहु सक्तिदायक्र होतादै। यह राहु उच्च वास्वग्रहमेंदहोतोश्चुमफल्देताहे। विचार ओर अनुभव–दवादशभावगत राहु के प्रायः अघम फल है-इस मत क टेखक गणना मं अधिक दोएकने न्युभफल बतलाए है । वैद्यनाथ ने “घनप्रापितोदोप ने दाशर फल बतलाया है। ने्ररोग होते ई “यह

केतु-फङ ५५१९यद्‌

फर सभी ने कहा हे । धनस्थान ओर व्ययस्थान ने्रकारक स्थान है । यह कारण है किं नेत्रोगका होना समीने बतलाया है। पुत्र कम होते है। यदह फल अनुभवगम्य है, ययपि द्वादशमाव का सम्बन्ध पुत्रां से नदीं 8 । पुरुषराि में राह होतो नेत्ररोग सम्मवहै। एकवा दोही संतति होती हे। दो विवाह होते ै। परिणीताख्जी से असंतोष व्यभिचारी प्रवृत्ति का कारण दाताहं । स्रीका सदेव रुग्णा रहना अथवा माता-पिता के घर अधिक समय तक निवास भौ व्यभिचारी प्रइृत्ि को प्रोत्साहित करता है ।

सत्ीराशि का राहु खरीखुल साधारणतया अच्छा देताहै। तौभी विवाह दो होतेह । ख्ीराशि का राहु नेत्ररोग नहींकरता। दष्टिमांय नहीं होता संतति अधिक । पदी उमर मेँ स्थिरता नदीं होती, कुम्ब छोडकर दुर उत्तर की ओर जीविका के एटि जाना. पड़ता है। यह राहु जन्मभूमि मे लम नदीं देता, बाहिर भाग्योदय होता है । यह राहु मनुष्य को पराक्रमी अर यरास्वी बनाता हे–यद बहुत कमाता दै। खचं मी बहुत करता है । इस राहु का व्यक्ति महत्वाकांक्षी, उदार, _उचादशेवाला, वाङ्मयप्रेमी ओर मिल्नसार दोता दे । वेदान्त को रचि दी तो साघुतति होता है । दवादश्चावस्थराह से निम्नटिखित बातें सम्भावित होती र्हैर वे वषम मातावा पिताक मृत्यु; २१-२२्‌ वँ वधं में जीविका का प्रारम्भ, १६ वें वं मे पैतृक धन कालाम्‌ ३५ वर्ध्र भाग्योदय, बचपन मेँ परिखा विवाह हुभा होतो २१ दे वर्ष दुसरा विवाह होता है। अथवा ३२ से३६ वै वर्षं तकं दूसरे विवाह की सम्भावना होती है।

केतु के द्वादशभावफल-प्रथम स्थानस्थ केतु फल– ““तुस्थः शिखी बां धवछ्कशाकतो तथा दुजनेभ्यो भयं व्याङ्कखत्वम्‌ । कलत्रादिचिता सदोदूवेगता च शरीरे व्यथा नैकधा मारुती स्यात्‌ ॥ १ ॥

अन्वय–तनुस्थः शिखी बांधवङ्केशकर्तां ( स्वात्‌ ) तथा दु जनेभ्यः भयं व्याकुरत्वं च, करोति । ( तस्य ) कलत्रादि चिता सदाउद्वेरता च, शरीरे न एकधा मास्ती व्यथा स्यात्‌ ॥ १॥ |

< से<—अथ केतोः भावफलान्याह । यस्व जन्मकाले शिखी केतुः

तनुस्थः लग्नस्थः बांधवः भ्रात्रमिः क्टेशकतौ कलह कारकः, दु्जनेभ्यः दु्टजनेभ्यः भयं व्याुखत्वं मनोव्वग्रता, कछतरादि चिता, सदा उद्वेगता उद्वेगः, शरीरे देहे माख्ती वायुसंवंधिनी पीडा अनेकधा स्यात्‌ इव्यर्थः ॥ १ ॥

अधो–जिस मनुष्य के जन्मल्रमेंकेत॒ हो उसे वांधवों का वलेश होता है । यह केत दुर्जनो स भय, सौर चित्त म षनराहट भी करता है। मनुष्य को सत्ी-पुत्र मादि की चिता, सवदा चित्त मँ भ्रम ओौर रीर मे भनेकं प्रकार से वातरोग कौ पीडा होती है ॥ १॥

९५१६ ‘वमर्कछारष्िन्वामणि का तुरुनाप्मक्‌ स्वाध्याय

तुरखुना- “यदा केतुः लग्रे जननसमये वांधवजनैः | महाक्टेशः शश्वद्‌ भयमपि सदा दुजंन कुलात्‌ ॥ मनश्चिताधिक्यं प्रभवति कल्चार्तिरधिका | जनानां वैकस्य सततमुदो कष्टमधिकम्‌ ॥> जीवनाय अर्थ- जिस मनुष्य के जन्मकारमें केतुच्यमेंदहो उसे अपने बंघुजनां से निरंतर मदान्‌ क्लेशा ओर दुर्जनो से सदा भव होता रै। मानसिक चिता कौ अधिकता, खीको कष्ट, विकलता भौर पेटमें ददं आदि पीडा अधिक होती ह । नोट-खानखानाने केठ॒के फल पृथक्‌ नहीं कथन किए दह । इसके मत में राहूवत्‌ केतु के भावफल है । धध्यद्‌ा ल्य्यगश्चे च छिखी सूत्रकतां सरोगादि भोगोभयं व्यग्रता च। कलत्रादिचिता महोद्‌ वेगता च शरीरे प्रवाधा व्यथा माख्तस्य |° महे अथं- जिसके स्यभाव मं केत हो वह रोगी, उरपोक, चितावुर, स्री यादि की चिताते युक्त, शरीर कष्ट से पीडित, वातरोगी ओौर उदवि् होता हे । “स्थिरार्थ. पुत्रवान्‌ कुरते म॑दक्षेत्रोदये शिखी ।2 वै्यनाय अथ–ल्यमे सिंह राशिमेंराहूहोतो रानवैमवमिल्तारै। मकरवा कुंभे; च्यम, केतु हो तो स्थिर संपत्ति तथा पुत्रखुख मिल्ता दे । “ध्यस्य ल्य्रोपदाः केतुः तस्य भायां विनइयति । वाहूरोगस्तथान्याधिर्मिथ्याबादी च जायते? ॥ गर्म अथ-ल्म्मेक्ेठदो तो मनुष्य की पत्ती कीमृघ्युहोतौदहै। बाहुका रोग होता है ] व्यक्ति शठ बोलनेवाखा होता है | “लग्ने कृतध्नमयुखं पिद्यनं विवरणं स्थानच्युतं विकख्दे हमसत्वमाजम्‌ ॥” मन्त्र इवर अभे-ल्यरमेंकेतु दहो तो मनुष्य कृतघ्न, दुःखी, दुष्ट, निस्तेज, पदच्युत शरीर मे विकल तथा बुरी गति से युक्त होता दै। केतुः यदा लप्रगः द्गेशकत सरोगाद्‌ विभागाद्‌भयं व्यग्रता च | कलत्रादिचिता महोद्वेगता च दारीरेऽपि बाधा व्यथामावुल्स्य ॥ वृहदथवनजातक अथी–च्छमें केतुहोतो कके, रोग, व्यग्रता, उद्वेगः स्री की चिन्ता, भोगसे भी भय, तथा मामा को कष्ट होता है। “तनुस्थः शिखी वांधवङ्केशकता तथा दुजंनेभ्योभयं व्याकुलत्वम्‌ | कलटत्रादिविन्ता सदोदूवेगता च शरीरे व्यथा नैकदा मारुतौ स्यात्‌” ॥ मानसागर

केतु-फरु ५५१७

अभी-ल्यमे केतुदहोतो बांधवोंको कष्ट होता हे। दुजनों से भयः, व्याकुलता, खत्री आदि की चिन्ता, उद्वेग, रोग तथा कह बार वात से पीडा दोती है।

“भयदा छञ्रगः चेत्‌ शिखी सूत्रकतां सरोगादिभोगं य॑ व्यग्रता च । कलत्रादिचिन्ता महोद्वेगता च ररीरेप्रवाधा व्यथा माखतस्यः ॥ दुण्डिराज

अभी- जिसके ल्यमें केतु हो वह सूत बनानेवाला, रोगी, भय से व्याकुल स्री आटि की चिन्ता करनेवाला, बडे उद्वेग ओर वातरोग से युक्त होता ह ।

नोटर- भ्रगसूत्रकर्ता ने प्रथक्‌ केतु के फल नदीं छ्वि है

“ध्यदा केतवो ख्य्मगोभग्नता च तद्‌ा रोगब्रद्धिः भवेद्घातपातः ॥”› अज्ञात

अशी–यदिकेतु व्यमेंदहोतो मनुष्य के शरीर का अवयव टूटता है। रोग बढता है ओौर अपघात होता है।

विचार ओर अनुभव-ल्यमावमे स्थितकेतुके फ सर्वथा अश्चुम द–संपूर्णं छेखकों का यही मत हे । द्वितीयभावस्थिद केतु के फल– | “धने केतुरव्यग्रता किं नरेशात्‌ - धनेधान्यनाश्ो मुखेरोगङचच । कुटंवाद्‌ विरोधो वचः सत्छृतं वा भवेत्‌ स्वगृहे सोम्यगेदेऽतिसोख्यम्‌॥२॥

अन्वय–धने (वतमानः ) केवः सुखेरोगङृत्‌ › धने नरेशात्‌ अव्यग्रा किं ( स्यात्‌ ) धान्यनाशः कुटम्बात्‌ विरोधः ( च ) भवेत्‌ , ( तस्य ) वषः सक्कृतं वाक्रिम्‌ १ स्वेगहे सखौमण्े ( च ) अतिसोख्यं ( स्यात्‌ )

सं< टी °–घने द्वितीये केतुः चेत्‌ तदा धने द्रभ्यविषये नरेशात्‌ राज्ञः सकारात्‌ अव्यग्रता किं भवेत्‌ १ अपितुन इत्यथः। धान्यस्य आशितनस्य नाशः स्यात्‌ । मुखे रोगक्ृत्‌ रोगकरः कुटम्बरात्‌ मित्रादिभिः सह॒ विरोधः, किं सक्रतेवचः रोभनवाक्यं भपि न; स्वेगोमेषगते सोम्यणहे कन्यामिथुनयोः अति सौख्यं च भवेत्‌ ॥ २ ॥

अशै–करेतु दूसरेभावमं होतो धनके विषयमे राजपक्षसे व्यग्रता अर्थात्‌ डर ख्गा रहता दै । अथात्‌ राजा किसी कारण से हमारा धन दण्डकूप मेन दले मनमें इस प्रकार कौ उधेड-बुन लगी रहती है मौर वित्त अराति रहता है, अन्न का नाश होता है। अथात्‌ अन्न की नित्य चिन्ता रहती ३। अथवा जिस स्थान से आभरयप्राति को आदा होती है उस आश्रयस्थान का ही नाद्य होता दै भोर व्यक्ति दाने-दाने के लि मुहताज ओर दूसरे का सुख ताकता दहै ‘ इस भावके केतुसे व्यक्ति का कुडम्बकेखोगोँसे तथापित्रोंसे विरोध होता है । आद्र-सत्कार का वचन भी उसके सुख से नहीं निकलता है । परन्तु यदि इस भावका क्त॒मेषवा मिन वा कन्याराशिका हौतो अत्यन्त सुख प्राक्च होता है॥ २॥

५१८ वमर्कारचिन्वासणि खा त्ुलनाष्मक्‌ स्वाध्याय

तुर्ना-““मतिः व्यग्रानिस्यं भवति वपतेरथभवने । तमः पुच्छे धान्यक्षतिरपिकलिः बांघवजनैः ॥

तथारूक्षावाणी सदसि निजपक्षार्तिरमितः। स्वभे सद्धेतस्मिन्नमितदुवमथंश्च मविनाम्‌? ॥ जौीगनाय अर्थ- जिख मनष्य के जन्मसमयमें केतु धनभावमें होतो मनुष्य की मति निस्य व्य्ररहतीदहै। राजासे धन की हानि होती दहै। बान्धवजनो के साथ कलह होता है। सभाम इसका भाषण सरस नहींहोता दै प्रत्युत खराब होता दै । अपने पक्षवा्खोको षारांओरसे क्ष्टदहोतादहे। धनभाव का यह केतु यदि मेषरारि मे अथवा मिश्ुनवा कन्यारा्चिका हो, अथवा शुभग्रह कीशिराकादो तो भपितसुख तथा धन कालभमदहोतादहै। ८’जनापराधी शिखिनि द्ितीययो ॥» वेद्यनाय अर्थ–यदि केतु द्वितीयभावमें हो तो मनुष्य खछोगों के अपराध करता है । ८’द्वितीयभवने केतुः धनहा्निं प्रयच्छति । नीचसंगी च दुष्टात्मा सुखसोमाग्य वितः |> गगं अथ–घनस्थान का केतु घनानि करता है। मनुष्य नीचो की संगति म रहता दै । यह दुष्ट, दुःखी तथा भाग्यहीन होता हे। घने केतुगे धान्यनार धने च कुडम्बाद्‌ विरोधो दृपाद्‌द्रव्यचिता | मुदधेरोगता संततं स्यात्‌ तथा च यद्‌स्वेश्े सौम्यगेदे च सौख्यम्‌? ॥ वृहुद्‌यवनजातक अ्थे–घनस्थान का केतु धन-धान्य का नादश्च करता दै। कुटुम्नियों से द्मगडे दोते है । धनविषय में राजा से भयदहोतादै । मुखके रोगदहोते है। केतु स्वग मे अथवा दछ्भग्रह कीराशिमेहोतोदीयुखदेतारहै) धध्विद्याथंदयीनमघमोक्तियुतं कुदष्टिपातः परान्ननिरतं कुरूते धनस्थः ॥ भन्त्रेहवर अथी-केतु के धनस्थदहदोनेसे मनुष्यको विद्या ओौर धन का अभाव रहता है । यद नीचो जेसा बोढता है । यह बुरी नजरसे देखता दै । यह दूसरों के अन्न पर अवलम्बित रहता है–अर्थात्‌ दूसरों के इकंडों पर॒ पलता है । “परधन्नपुष्ाः परान्नपुष्टाः ।› ेसा काव्यसुभाषित प्रसंगानुकूक है । ““वनेचेत्‌ शिखी धान्यनाशो धनं च कुडुवात्‌ प्रिरोधो द्रपाद्‌ द्रभ्यधिता । मुखेरोगता खुं ततंस्यात्‌ तथा च यदास्वेगरहे सौप्यगोदेति सौख्यम्‌” ॥ महश्च अथै-धनभावका केतुहोतो घन का नाश) धान्वका नाश; वु से विरोध, द्रभ्य के विषय मेँ राजा से भय, सुखम रोग होता दहै। यदि धनभाव काकेतु स्वश ( मेष) मेवा सौमणश्रह ( मिथुन-कन्या ) मेहो, वा शुभग्रह को रािमेंहोतो बहुत सुख देता है। “वने केतुरव्यग्रता किं नरेशणहे धान्यनाशो म॒खेरोगङरच । कुडवाद्‌ विरोधःवचः सल्कृतं वा भवेत्‌ स्वेग्रदे सौम्यगोहेऽतिसौख्यम्‌? ॥ भानसागर

केतु-फङ ५५१९३

अथी-दितीयभाव मे केव होतो दुष्टराजा के द्वारा धन-घान्य का नाश, मुख में रोग, कुटंजियो से विरोध होता है। यदि धनभाव का केतु स्वण्हमें वा श्चमग्रहइ की राशिमेंदो तो मनुष्य परिय तथा मधुरवचनवक्ता भौर सुखी होता है । “धने चेत्‌ शिखी धान्यनाशो जनानां कुडम्बादूिरोधो दृपाद्‌ द्रव्यता । मुखेरोगता संततं स्यात्‌ तथासौ यदास्वेग्दे सौम्यगेदेऽतिसौख्यम्‌, ॥ इण्डिराज अथी- जिसके धनभाव मे कठ हो उसका घन-धान्य का नाश; कुंब से विरोध, राजासे धन की हानि भौर सदा खमे रोग होता है | यदि यह केतु अपने ख्दमेवा श्चुमग्रहके दमेंहो तो अति सुख होता ई ॥ ^’धनस्थोऽचकेतः मतिभ्रंशदेवः लियः सोख्यहारी तथा विभ्नकारी । मनस्तापकारी उपाद्‌ भीतिकष्टं सदा दुःखभागी द्विषत्‌ सज्िभाषी” ॥ बज्ञात अभी–घनभाव काकु होतो मनुष्य बुद्धिभ्रम से युक्त; स्ीयुख.से रहित अओौर विश्नयुक्त होता है। श्खके मन कोतापहोतादहै। इसे राजास भय आर कष्ट होता है । यह सदा दुःखित रहता है । यह शतु समान बोक्ता है । यदह धर्मनाद्य करता है । बोलना बहत तीखा ता है । य केतु स्वयह वाश्चुभग्रहकी राक्िमे होतो बहुत सुखदेताहै। मित्रमह की राशिमें होतो श्चुमफल देता दै। मेष, मिधुनवा कन्याम हो तो व्यक्ति रूपवान्‌वा सुखी होता दै। व्रतीयस्थकरेतु के फट-

“दिखी विक्रमे श्रना द्यां विवादं धनं भोगमेश्वयतेजोऽधिकं च । सुद्टद्‌ वर्ग नाशं सदा बाहुपीडां भयोदुवेगचिताऽङ्ुखत्वं विधत्ते ॥ २॥ अन्वयः-दिखी पिक्रमे ( स्थितः) शन्नुनाशं विवादं धनं भोगं एेर्व-

तेजोऽधिकं, खुद्धद्वर्गनाशं सदा बाहुपीडां भयोद्वेगचिताऽकुलत्वं च विधत्ते ॥३॥ सं< टी<–विक्रमे वतीये शिखी केतुः चेत्‌; धनं मोगं भोगविषयसुखं रेश्वर्य॑तेजः एतत्त्रयं अपि अधिकं, शतुनाशं च पुनः विवादं सुदधद्ूबग॑नाशं बाहु- पीडां, सदा भयोदूवेग चितामिः भङ्ुख्तवं बिषत्ते ॥ ३ ॥ अथ-यदि केतु त्रतीयभावमें होतो यह शत्तुभोंका नाश्च करतादै। व्यर्थं का विवाद होता दहै। मनुष्य को विषयभोग, एय मौर तेज अधिक माश्रा मे प्राप होते ई । मनुष्यके भित्रोंकानाश होता है। भुजां मे पीड़ा होती है | भयः; चित्त में भ्रम ौर चिन्तासे व्याकुख्ता मी होते ह। तुरखुना–““वरृतीये चेत्‌ केतुः मवतिसुलदेवः तनुभृतां , . धनानां भोगानां परममष्सां चापि जनने। ` विनाश्चः शत्रुणां प्रवरखमरे बाहुयुगले , व्यथा भीतिः विता, निजयुद्टदि पीडा च परितः” ॥ जीकषनाय

५२० चसर्कारचिन्तामणि का तुरखुना्मक स्वाध्याय

अथे- यदि केतु त्रतीयभावमें दहो तो मनुष्य को सुख मिक्ता है-इस भाव के केतु से धन, मोग मीर परमतेज प्राप्त होते है । भीषणयुद्ध मं शत्रुओं का नाद होता हे। मनुष्यकी ञजार्यमें व्यथा, भय, चिता तथापित्रोँंको कष्ट होता है। “दिखी विक्रमे दातुनायं च वादं धनं भोगमेश्वर्यतेजोऽधि कंच । मवेद्‌ बधुनाञ्चः सदावाहुपाडा सुखं स्वोचगेदे भवोदूवेगता च” ॥ महेश अथे-यदि केतु वरतीयभावमे होतो श्च्रओंका नाञ्च होतादै। इस मनुष्य का वाद-विवाद शतरुर्ओं से होता है । इसे धन, भोग, रेश्ववं भौर अधिक तेज प्राप्त होते है। इखके भ्राता्भोंका नाद्दहोतारै। इसकी भुजाभोंमें सद्‌ा पीडा होती है | यह संसारमें उदासीन रहता है। यदि यह्‌ केतु स्वग्दी वाउच्चकादो तो सुख मिलता दै । “केतौ गुणी वित्तवान्‌” ॥ वंद्यनाय अथ–तृतीयभावमें केतु हो तो मनुष्य गुणौ ओौर धनी होता है । “भभायुः बं घनयज्चः प्रमदान्सौख्यं केतो वरतीयभवयने सह जप्रणाशम्‌ “° ॥ मन्तरेश्गर अथे–यदि केतु तृतीयभावमें होतो मनुष्यको आयु, वल धन, यड, छरी तथा खानपान का सुख मिक्ता है । किन्तु मादो का नाञ्च दहोतादहै। “श्डिखी विक्रमे शा्रनारं च वाद धनस्याभिलाभं भयं मित्रतोऽपि | करोतीह नाद्यं सदाबाहुपीडां भयोदूरेगतां मानवोद्‌वेगतांचः ॥ ब्रृददूय बनज तक शे-तृतीयमावकाकेवुशत्रुका नाद करता दै। इमे धनलाभ होता है क््ठिमित्रसेमीदहानिका डर रहतादहे। विवाद होते दहै । बाहूओंमें कष्ट होता दै। समाजसे उद्वेग भौर भवदहोतादै “शिखी विक्रमे शत्रुनाशं विवादं धनं भोगमेश्ववरतेनोऽधिकं च | खुद्टद्वगनारा सदाबाहुपीडां भयोद्‌वेगर्धितां कुठे तां विधत्ते ॥ मानसागर अशै-त्रतीयकेतु रतु कानाश्च करके घन, मोग, शव्यं ओर अधिक

तेज देता हे | इसे ऊुर की चित, उद्वेग, बाहु मे पौड़, मि्रोकी हानि तथा विवादसे कष्टहोता है

“शिखी विक्रमे शतरुनारो विवादं धनं मोगमैश्वयं तेजोऽधिकं च । वेद्‌ बन्धुनाशः सदा बाहुपीडा सुखं स्वोचगेदे भयोद्रेगता चः’ ॥ दुण्डिराज अध -ठृतीयमेंकेत॒ होतोशत्रुका नाश, विवाद, धन, मोग, रे. ओर अधिक तेज, ये फल होते है । मनुष्य को भादयों का नाश, सदैव भुजाभों मं पीड़ा, भय यौर उदासीनता ये फट मिलते है । यदि केतु स्वग्रह भौर उच्में हो तो सुख मिलता हे । यदाकंतुगस्ते कुहस्तोऽत्ररोगौ मेत्‌ शतरुनोमंतिनीनां च मोक्ता । भवेन्‌ मान 1 दुःखितं वंतुकष्ठं विशिठं फ विकरपरे तंत्रिधततेः | जगेऽवर अश्र-ठृतीयमें केत से हाथ अच्छा नहीं होता, रोगी, शत्रु की लिप का उपभोग करनेवाला, मन मं दुःखी तथा मादर्यो के कष्ट से युक्त होता है।

केसु-षूक ५५२१

<^तृतीयस्थितो यस्य म्यस्य केतुः सदा धीरतां शनरुनाशं करोति । घनस्यागमं वीर्य॑वृद्धि सदैव तथा दानञ्चौादिम्ये विलासी ॥ अज्ञात अथे–वृतीयभाव में क्ठ॒हो तो मनुष्य धैर्यवान्‌, शत्तु का नाश करने वाटा धनवान्‌, बलवान्‌ तथा दानी पुरुषों के साथ रहनेवाख होता रै । केतु भरारि में, स्वणहमे वा उच्राशिमें हो तो सुख मिक्ता है ।-नीच रारिमेंदहोतो सुख नहीं मिल्ताहै। सिंहवाधनुमें केतुदहो तो हृदयरोग, वहरापन, कन्धे पर आधात से कष्टहोताहै। मीनमें यहकेतु दहो तो व्यक्ति अध्यात्म विद्या में कुशल होता है। चतुथेस्थानगत केतु के फल- “चतुर्थे च मातुः सुखेनो कदाचित्‌ सुद्‌ बगेतः पैठृकं नाङयेति । दिखी बर्घुवगोत्‌ सुखं स्वोच्चगे चिरं नो वसेत्‌ स्वेगृहे थ्यग्रताचेत्‌ ॥४। अन्वयः–( यदा ) रिखी चतुर्थे ( स्यात्‌ , तदा ) मातुः सुदद्गतः ( च ) कदाचित्‌ सुखं न ( स्यात्‌ ) ( तस्य ) पत्रकं ( धनं ) नाशं एति, (खः) स्वे्डे चिरं नो वसेत्‌ ( तस्य) व्यग्रता ( स्यात्‌ ) (चेत्‌ ) स्वोच्चगे चन्धु वरात्‌ सुखं ( भवेत्‌ ) । ४। सं> टी<- चतुथं शिखी चेत्‌ माठुः नो सुखं, युदद्वर्गात्‌ कदाचित्‌ नो सुखं, पेत्रकं पिव्रसम्बन्धि धनादिवस्वुनाद्ं एति, स्वण्हे चिरं नो वसेत्‌ । वासः चेत्‌ व्यग्रता व्याकुलत्वं स्वोचगेहे स्वोच्चे धनुषि, स्वगेहे मीने शिखी ८ स्यात्‌ ) तदा बन्धुवर्गात्‌ सुखं भवेत्‌ इति रोषः सर्वत्र ॥ ४ ॥ अथे-जिस मनुष्य के जन्मल्य से चौयेस्थानमें केतु दहो उसे माता आर मिचों से कभी सुख नहीं होता है। उसके पिता का धन न्ट होता ३ै। वद अपने घर मेँ बहुत रहता नहीं है । यदि रहे तो उसके चित्त मे ध्रराहट ङोती है । यदि केतु अपने स्वग्रह (मीन) मेंदहो, वा अपनी उरि में ( धनुषमें) हो तो बान्धव लोगों से सुख होता है॥ ४॥ तुखना–“ुखे केतुः पुसां भवति नहि मातुः सुखम सुदृद्रगदिव वरजति विल्यं पेतृक धनम्‌ । स्वगेहे नो वासः सपदि च निवासेन कलहो , निजोचे स्वक्षेत्रे सतुभवतिं बन्धोः सुखमलम्‌ ॥ जीव नाथ अथै जिस मनुष्य के जन्मसमयमें केतु चतुर्थभावमें हो उसे माता का पू्णसुख नहीं होतादहै। मित्र वर्गोकेद्वाराही पैतृक धन का नाश होता है । उसका वास अपने धरम कभी नदीं होता। यदि बह वास करता रै तो शीघ्र ही घरमे कलह होतादहै। यदि केतु चतुथभाव मे होकर अपने उचमेदहोवा अपने ण्हमेंदहो तो बन्धुभों का पृणं सुख होता है। (“केतौ सुखस्थे च परापवादी 1 वेयनाथ अथे- चतु्थभावमे वेतुहो तो मनुष्य दूसरों की निन्दा करता है।

५५२ प्वम स्कारचिन्तामणि का तुङूनास्मक स्वाध्याय

“चतुर्थं भवने केतुः मातापित्रोष्ठकष्टकत्‌ । अतिचिता महाकष्टं सुद्द्धिः युखवजिनम्‌ ॥ गर्ग | अथ–चतुर्थभावमें कुहो तोमाता-पिताको कष्टदेतादै। मित्रों का चुख नहीं मिक्ता | बहुत चिता ओौर बहुत कष्ट होता हे | म क्षत्र यान जननी खुख जन्मभूमि नाशं सुखे परग्रहस्थितिमेव दन्ते ॥ मंओेऽवर अथे–यदििं चतुर्धमें कवुददोतो मनुष्यदूसरेके घरमे रहता दै। इसक्रौ अपनी भूम्नि, खेत; माता, सुख, आदि नष्ट हो जाते हँ । इसे जन्मभूमि भी छोडनी पड़ती है । “न्वतुर्थं च मातुः सुखं नो कदाचित्‌ युहद्रगंतः पित्रतो नाशमेति । शिखी बन्धुदीनः खं स्वोचगेदे चिरं नेति सर्वैः सदा व्यग्रताच ॥” दुण्डिराज अथे– जिसके चठुथंभावमें केत दो उसको माता आओौर मिच्रवर्म से सुख , नहीं मिल्ताडईै। पिताके द्वारा हानि दहोतीदै। बन्धुर्ओके सुख से रहित टोतादहे। यदि केतु अपने ग्रह, वा अपने उचमेंदहदो तो थोड़ा समय सुखी पर॑च सदा व्यग्रतायुक्तं होता है। “वतु ठु केतौ मवेन्‌ मातरकष्टं तथामित्रसौख्यं न पत्यं नराणाम्‌ । खदा चितया चितितं नेव सभ्यं यदा चोचगो नैव वादं विद्ध्वम्‌ ॥ जागेडवर अर्थ-चदुथंभावके केवुसे माताकोक्ष्ट होता दहै। यित्रोंका सुख तथा पेतृकधन नहीं मिल्ता । हमेशा चिता रहती दै । सभा मे अयोग्य सिद्ध होता दै । केठुउचकादहोतो बाद नहीं करना चादहिये। “वतुं न मातुः सुखं नो कदाचित्‌ चुदद्रगगतः पत्रकं नाशमेति । दिखी बन्धुवरगौत्‌ सुख स्वोचगेहे चिरं नो वपेत्‌ स्वेदे व्यग्रताचेत्‌ ॥ मानसागर अथे–चतर्थमावमेंकेतुहो तोमातातथा मित्रवर्म से सुख नदीं होता दे । तथा पिता द्वारा उपार्जित धन का नाश होता दै। यदि स्वगृह वा उच्च मृदहोतो बन्धुओं ते सुख होता दै। किन्तु अपने घरमे चिरकाल वास नहीं होता; सदा व्यग्रता वनी रहती है । “चतुथं च मातुः सुखं नो कदाचित्‌ सुहृद्र्ग॑तः पित्रतो नाशमेति , दिखी बन्धुहीनः सुखं स्वोचगेदे चिरं तैति सर्वैः सदा ग्यग्रता च |° भेह अ्थं–चतुथमाव मं क्ठुदहोतो मनुष्यको माता का सुख नहीं होता ह–मित्रव्ग से तथा पिलरव्गं से हानि होती है। बन्धु सुख नहीं मिल्ता है । यदिके॒ सुखभावका होकर अपने हमे वा अपने उमे होतो सुख मिक्ता हे किन्तु यह सुख चिरकालस्थायी नयं होता, सदेव चित्त व्यग्र रहता दै । “”ाव्रदुभ्खी नरः द्यूरः सत्यवादी प्रियंवदः । । धनधान्यसमरद्धिश्च यस्य केतुः चतुथंगः” ॥ अज्ञात अथ–यि केतु चतुथमावमेंदहोतो माताकौ मृघ्युदहोती है। मनष्य श्र, सत्यवादी-मधुरमाषी, धन यौर धान्य से समृद्ध होता दै । चतुर्थभाव का केतु इश्चिकवा चिहमें हो तो माता-पिता वा मित्रों का बुख अच्छा मिल्ता

केतु-फल ५५२३

है । नीचराशिमेंदहो तो धनष्टानि, देशान्तरका योग होतादहै। माता रोगौ रहती है । सोतेखी माँ से कष्ट होता है । उचराशि में हो तो वाहनसुख मिक्ता है-राजयोग होतादै। ध्नुवामीन महो तो अकस्मात्‌ उत्तम सुख मिलता है । स्थावर सम्पत्तिके वारे मे उदासीनता होती है। दुसरोौ की आलोचना वहत करता है । अतः छोग इसे कुत्सितचत्ति का मानव समञ्चते द । विषवराधा का मय रहता है । दुर्ब॑क, पित्तप्रकृेति ओर वितंडावादी होता है । अज्ञातमत पंचमस्थान के केतु का फठ- “यदा पंचमे राहपुच्छं प्रयाति तदा सोदरे घातवातादिकष्टम्‌ । स्ववुद्धिव्यथा संततं स्वस्पपुत्ः स दासो भवेद्‌ वीययुक्तो नरोऽपि । ५॥ अन्वय–राह पुच्छं यदा पंचमे प्रयाति तदा सोदरे घातवातारिकष्ट, संततं बुद्धिशष्यथा, स्वत्पपुत्रः ( च ) स्यात्‌ वीययुक्तः अपि स नरः दासः भवेत्‌ ॥ ५ ॥ सं < टी– पंचमे राहुपुच्छं केवुः प्रयाति, तदा सोदरे भ्रात्रविषये घातवातादिकष्टं घातेन शख्घातादिना वातादिरोगेण च कष्टं छरेशः भवति, स्ववुध्या व्यथा पीडा, स्वत्पपुत्रः अस्पसंततिः भवेत्‌ । सः नरः वीयेयुक्तीऽपि दासो भवेत्‌ ॥ “^ ॥ अर्थ- जिस मनुष्य के जन्मलश्र से पौव स्थान में केतुहो तो उसके सगे भाहूयों को शखर से अथवा वायुरोग से कष्ट होता है| अपने ही भअरमामक ज्ञान से-अपनी ही गल्तीसे रारीरमें छ्ेश होतादै। इपेएकवादो पुत्र होते है । यह बड़ा पराक्रमी होकर भी दरों का नौकर बनकर रहता दै ॥५॥ तुखना–““यदा राहोः पुच्छः भवति किलसंतानभवने सहोरथानां शत्रक्षतजनितकष्टं हि बहुधा | स्वबुध्यापीड़ापि प्रभवति जनानामतितरां, तथापव्यादस्पं सुखमन॒दिनं तत्कलहतः ॥ जीवनाय अथे- जिस मनुष्य के जन्मकाल मे केतु पंचमभावमे हो उसके सगे भादयों को रखरध।तजन्य कष्ट॒वार-बार होता है । अपने भ्रमातसक ज्ञान से अव्यधिक पीड़ामभी होती दहै। निरन्तर पुत्रके साथ कल्ह्‌ होने के कारण पुत्रसुख नहीं होता है| °ध्यदा प्॑मे यस्य केवुश्चजातः स्वयं सोदरे घातवातादिकषटम्‌ । सुवंधुप्रिया संततिः स्वस्पपुत्रः सदा संभवेद्‌ वीययुक्तो नरश्च”? ॥ महेश अ्थ– जिसके प॑वमभावमें केतु दो उसके अपने शरीर ( पेट आदि ) पर अओौर अपने सगे भादयों के शरीर पर श्रधात से अथवा ऊँचे स्थान पर से गिर पड़ने के कारण कष्ट होता दहै। इसकी सन्तति इसके बान्धवो को प्यारी होती दहै । इसे एक वा दोद्ी पुत्र होते है। यह मनुष्य वीर्यवान्‌ अर्थात्‌ वलख्वान्‌ होता ई । (“केतौ शठः सलिलमीररतीवरोगीः ॥ वै नाथ

५५२४ च मर्कारचिन्ताषणि का तुख्नारमकू स्व!ध्याय

अथे-प॑वममंकेतुदहो तो मनुष्य शठ, खदेव रोगी भौर परानीसे डरने वाला होता है। । “पुत्रे केतौ प्रजाहानिः विदाज्ञानविवर्जितः | भयत्रासी सदा दुःखी विदेशगमने रतः ॥ गर्ग अ्थै–पंचमभावमें केतु से सन्ततिहानि होती दै अर्थात्‌ यातो सन्तति हाती नहीं आओौर यदि हो तो नष्ट हो जातीदहै। यह मनुष्य विद्या ओर ज्ञान से ठचित रहता है । य उरपोक;, सदैव दुःखी तथा विदेश जने का इच्छुक होता हे। “भयदा पंचमे जन्मतः यस्य केतुः स्वकीयोदरे वातघातादिकष्टम्‌ । स्वबुद्धिम्यथा सन्ततिः स्वव्पपुत्रः सदा घेनुखाभादि युक्तो भवेच” ॥ बृहद्‌ थवनजात क अथे-पंचममेंकेतुहोतो मनुष्यके पेट में वातरोग होते ईै-शख्रधात से कष्ट होता है। श्सकी बुद्धि दूषित होती दै इससे व्यथा मानसिक वा शारीरिक कष्ट होता है। सन्तान थोडी दहोतीदहे-एक वा दो पुत्रष्ठोतेर्ह। गार्य आदि पश्ओं का छाभ होता दहै अर्थात्‌ इसे पश्चुघन प्राप्त रहता हे । ^पुतरक्षयं जठररोग पिशाष्पीड़ं दुवुद्धिमात्मनि खलप्रकृतिं च पातः?” ॥ भन्ते वर अथे–प॑चममें केतु दहो तो पुत्र नष्ट होते ह। पेट मे रोगतथा पिशाचसे पीडा होतीहै। पंचमभाव मे केतु से मनुष्य खलगप्रकृति ओर दुवुद्धि होता हे । “यदा पंचमेयस्यकेवुश्चजातः स्वयं सोदरे घातपातादिकष्टम्‌ | स बन्धुप्रियः सन्मतिः स्वस्पपुत्रः सदा स्वं भवेद्‌ वीयंयुक्तो नर” ॥ दृण्डिराज अ्थे- जिसके पम में केतु हो उसके उदरमें घातपात आदि से कष्ट होता दै। यह बन्धुर्ओं का प्यार, सुबुद्धि, अस्प सन्तान वाखा ौर बली होता है। “यदा पवमे राहुपुच्छंप्रयाति तद्‌ सोदरे घातवातादिकष्टम्‌ । सवबुद्धव्यया सन्ततं स्वल्पपुत्रः सदासः भवेद्‌ वीय॑युक्तो नरोऽसौ” ॥ माभसागर अथ–पचमभावमंकेनहो तो सदहोदरों मे श्षगड़ा ओर वाद-विवाद से कष्ट होता है । पनी बुद्धिसे दी व्यथादोतीदै। पुत्र थोडे दोते रै, यह बली ओर नौकर से युक्त होता रै। यह कपटी मत्सरी, दुव॑, डरपोक ओर घेय॑हीन होता दै । इसे पुत्र थोडे ओर कन्या अधिक होती । बन्धु सुखी दहोतेदहै। पेटमें रोग होते ई। कपटसे लामहोताह। मंत्र-तंत्र से यह भाईयों का धात करता रै। सिह, धनु; मीन वा बृश्चिक में यह केतु अच्छासुख वारेश्वर्यदेतादै। उच्चवा स्वग्रह में स्वतन्त्र भौर बख्वान्‌ केतु हो तो राजयोगवा मठाधीश होने का योग होता है । प॑चमभावगत राहु के प्रभाव में मनुष्य के उपदेश प्रभावी होते ह । तोथंयात्रा वा विदेश में रहने की प्रवृत्ति होती है । भज्ञातमत

कै तु-फर ५२८५

षष्ठभावगत केतु के फर– तमः षष्ठभागोगते षष्ठभावे भवेत्‌ मातुखान्‌ मानभंगो रिपूणाम्‌ । विना दाश्चतुष्पात्‌ सुखं उच्छवित्तं शरीरं सदानामयं व्याधिनाराः ॥६॥ अन्वय :-तमः षष्ठभागे षष्ठमावेगते ( सति ) मातुलान्‌ मानभंगः, सिपूणां विनाशः, चतुष्पात्‌ सुखं, तच्छतरित्त, शरीरे सदा अनामर्य, व्याधिनाशः च भवेत्‌ ॥ £ ॥ सं< टी<-तमः षष्ठभागे षष्ठभावेगते केतौ षष्टभावे ( सति ) मात॒खात्‌

मातरसह जात्‌ मानभंगः स्वादरहानिः, रिपूणां विनाशः चतुष्पदा गोमहिष्यादिना वा सुखं, वच्छवित्तं स्वत्पवित्तं शरीरे सदा अनामयं आरोग्यं व्याधिनाशः च भवेत्‌ ॥ £ ॥

अथे– जिस मनुष्य के जन्मल्य्से छटेस्थानमे केतु हो उसका मानमंग

मामा से होता है-अर्थात्‌ मामा परस्पर वैमनस्य होने से उसका आदरमान नहीं करता दै। रत्नओं का नाश होता है। गाए-भेस, बकरी आदि चौपारए जानवो का द्से सुख मिलता है। “तुच्छवित्तः पाटदहोतो (इसका मन छोटा होता है “ध्यह अर्थं है। यदि “तुच्छवित्त’ पाठ हो तो ध्यह धनाव्य नदीं होता दै यह्‌ अर्थं है| इसका शरीर रोगदीन होता है । कदाचित्‌ कोई रोग उन्न होतो व्रह रीघ्रदूरदहोतादहे। तखना–‹ तमः पुच्छे षष्टे जननसमये मातुल्कुखात्‌ सदा मानात्पत्वं प्रभवति चतष्पात्‌ सुखमलम्‌ । तथाऽऽरोग्यं व्याधिक्चय उत धनानामपचयः प्रचण्डारेः नाशाः सपदि समरे बादकरणात्‌ ॥. जीवनाथ अथे– जिस मनुष्य के जन्मसमयमे केतु छ्टेमावमेंदहोतो इसे मातृकुलं से सुख ( सम्मान ) सत्प मिलता है। गाए-भंस, घोड़ा भादि से पूणैसुख होता दै आरोग्य, व्याधिनाश, धन की हानि, अर वाद-विवादस्प संग्राममे विवाद्‌ करने से भयकररशत्रुकाभीनाशदहोता हे ॥ ८बन्धुप्रियोदार गुणप्रसिद्धो वियायशस्वौ रिपुगे च केतौ ॥ वनाथ अथै–यदिकेतुचछ्ठादहोतो बेघु को प्रिय, उदार गुणवान्‌, प्रसिद्ध; तथा विद्या के कारण यशस्वी होता टं। दानवः अधर दन्तश्जाय रिखीरिपौ | गर्ग अथे-च्टेकेतुहोतो मनुष्यके दांत वा होट के रोग उत्पन्न होते है। “दते दन्तच्छदे वा कुमुद पति रिपुः संस्थितः षष्ठभावे केतुरवा | गणेक्च देवज्ञ अथे-छटेभावमेंकेठहोतो्दातवाहोटकेरोगरहोतेरै॥ ^धदिखीयस्य षष्टे स्थितो वैरिनाशः भवेत्‌ माव॒लात्‌ पक्षतो मानभंगः। प्वतुष्पात्‌ सुखं द्रव्यलाभो नितान्तं न रोगोऽस्य देदे सदा व्याधिनाश्चः ॥’ महेश अथे-खछ्टेभाव मे यदि केत होतो मनुष्यों के शत्रुओं का नाश्च होता है। माच्पश्च से ओौरमामासे इसे आद्र प्रापि नहीं होती है। इसे गाए-भेस

५५२६ चमर्कारचिन्वामणि का तुरनार्मक्‌ स्वाध्याय

आदि चोपाए जानवरों से लाभ मिल्ता है। इसे द्रन्यलाभ होता रहता दै। इसका शारीर नीरोग रहता है । कदाचित्‌ कोई व्याधिहोतो इसका नाश्य हो जाता है । “तमः षष्ठमावेगतः षष्ठभागे भवेत्‌ मातुलात्‌ मानभंगो रिपूणाम्‌ । त्रिनाशः चव॒ष्पात्‌ सुख वच्छचित्तं शरीरे खदानामयं व्याधिनाशः” ॥ मानसागर अशे–यदि प्ष्ठमावमे, षष्ठनवमांशमें कैतुहोतो मामा से अनादर, दात्रुओं का नाश, चोपाए पद्यर्थो से सुख, मन में दुवंल्ता, शरीर मे आयोग्य, सौर रोगों का नाश होता है ॥। (अौदा यमुत्तमगुणं दृदतां प्रविद्धि षष्ठे प्रञुत्वमरिमदनमिष्ट सिद्धिम्‌ । मन्त्र इवर अथ-यदि षष्ठमे केतु हो तो मनुष्य उदार, उत्तमगुणवाल, हट, प्रसिद्ध, रेष्ठपद प्राप्त करनेवाला, शत्नुभों को पराजित करनेवाला होता है । ेसे मनुष्य की प्रायः इष्टसिद्धि होती इ ॥। “धशिखीयस्य प्रष्ठ स्थितो वेरिनाशः भवेन्मातृपश्चाच्च तन्मानभंगः। चतुष्पात्‌ सुखं द्रव्यलाभो नितान्तं न रोगोस्य देदे खदा न्याधिनाशः’ ॥ इण्डिराज अथे-जिखके छ्ठेभाव मं केतु हो उसके रात्रुभं का नार; माव्रपक्च से अनादर, पञ्युओं का सुख; बहुन लाभ, आरोग्य भौर सदा व्याधि का नाश होता है। ध्यदा केतवः रातरुगेहे नराणां तदा शत्रवः संग्रयान्ति विदूरम्‌ । परं माठुलाः तूख्वद्‌भोगताः स्युः पञ्चूलां सुखं संवदेत्‌ साधुभावः”; ॥ जागेदवर अथे- केतु यदिच्छेहोतादैतोशतु दूरमभाग जातेर्दै। मामा का सुख कम मिक्ता है पश्च धन विपु होता है । सप्रमस्थानगत केतु का फट- ““क्िखो सप्तमे भूयसी मागेचिन्ता निव्त्तः स्वनादोऽथवा वारिभीतिः। भवेत्‌ कीटगः स्वेंदाटाभकारी कल्त्रादिषीड़ा व्ययोग्यग्रता चेत्‌ ॥५॥ अन्वय :–रिखी सप्तमे ( चेत्‌ ) भूयसी मार्गचिन्ता ( भवेत्‌ ) ( सः ) निदत्त: स्वनाशश्च स्यात्‌ अथवा ( तस्य) वारिभीतिः ( भवेत्‌ ) ८ तस्य ) कलत्रादिचिन्ता व्ययः) व्यत्रता (च) (भवेत्‌ ) कीय्गः सव॑दा लाभकारी ( स्यात्‌ ) ॥ ७ ॥ | सं> टी —सतमे रिखौ चेत्‌ मार्गचिन्ता भूयसी वन्ही, निदृ्तः स्वनाद्यः धनस्यनाशः; अथवा वारिभीतिः जल्भयं, कल््रादिपीड़ा; व्ययः अर्थस्य, व्वग्रता मनखः, कीटगः इश्चिकराशिस्थः केतुः सर्वदा लाभकारी स्यात्‌ ॥ ७ ॥ अभे–जिस मनुष्य के जन्मल्यसे सातदे स्थानम केतुहोउसे मागं सम्बन्धी चिन्ता बहुत होती है। यह लौटकर आता है। इसके धन कानाश्च होता है । मथवा इसे जर से भय होता है। इसे ख्री-पुत्र आदि का क्लेश होता है । इसका धन खचं मे अधिक जाता दै। इसके चित्त मे घबराहट रहती है । यदि इस भाव का केतु बृश्चिकरारिमे हो तो सर्वदा धनलाम कयाता है ॥ ७॥

केतु-रुक ५५२५

तुखुना—““तमः पुच्छे नारीभवनमुपयाते जनिमतां, तदा मागीद्भीतिः जल्जनितभीतिश्वपरमा, प्रा्ृत्तार्थानां प्रभवति विरामोऽलिभवने, सदाकांताकष्टं व्यपचयउताथामल्सुखम्‌ ॥” जौ वनाथ अथे- जिस मनुष्यकेल्यसे सप्तमभावमें केतु हो उसे मागं तथा जङ से भी अधिक भय दहोता दै। यदि समप्तमभाव का होकर वृश्चिक रािमें होतो लौटा हा धन स्थिर रहतादहै। सदासी को कष्ट, खच॑कीौ वृद्धि होती है किव घन से उत्तम सुख अवश्य प्राप्त होता है) “अनं गभावोपगते तु केतौ कुट्ारको वा विकल्त्रमोगः। निद्री विशीलः परिदीन वाक्यः सखदाटनो मृखंजनाग्रगण्यः | नैष्ठनाथं थ–सप्तमभावमे केतु दोने से ल्रीयुख नदीं मिलता, अथवा खरी बुरी मिक्ती ई मनुष्य रीठदीन, बहुत सोनेवाखा, दीनवचन, सदाप्रवासी, तथा मूर्खराट्‌ होतादहै। “शिखी सस्तमे भूयसीमार्ग चिता, निव्त्तः स्वनाशोऽथवा वैरिभीतिः। भवेत्‌ कीटगः सर्वदा छामकारी कठ्त्रादिपीडा व्ययोव्यग्रता चः | मानसाभर अथ-सप्तमभावमे केठहो तो याचाकी चिता, यात्राका स्थगित होना, धननाशश्च ओर शघ्नओं का मयदहोता दै यदि सप्तमभाव में वृधिक राशिमेंकेतुदहोतो सदा लाभकारी होतादहै इसकी छरी को पीडा, धनका खर्वं ओौर व्यग्रता वनी रहती ह । ^°शिखी सस्तमेचाध्वनिक्टेशकारी कल्त्रादिवगे सदा व्यग्रता च। निव्र्तिश्च सौख्यस्य वै प्वौरभीतिः यदाकीटगः सवेदा लाभकारी ॥ बृहद यननजातक अथं-यदि केतुसप्तममें हो तो प्रवास में कष्ट, घ्री आदि की धिता, सुखाभाव, प्वोरी का डर, ये फल होते रै | इृधिकराशि मे यह केतु खमदायक होता है । “शिखी सप्तमे मागतः चित्तवृत्ति सदा वित्तनाशोऽथवारातिभूतः। भवेत्‌ कौटगे सर्वदा खछाभकारी कल्त्रादिपीड़ा व्ययोव्यग्रता षः ॥ दृण्डिराज अर्थ–सत्तममेक्ठ॒दो तो मनुष्य फो यात्रा की विता, शत्रुओं से घन का नाद होता हं) यदि सप्तमभाव का केतु इृधिक मंहोतो सदा खभ स्रीकष्ट ओर व्यग्रता होती ह । द्रनेऽवमानमसतीरतिमां रोगं पातः सखदारवियुतिं मदधाठुहानिम्‌ ॥° सत्रे गर अर्थ- यदि सत्तम केतुहो तो मनुष्यका अपमान होता है। यह मनुष्य व्यभिचारिणीखियों से रति करता है । स्वयं अपनौ पती से वियुक्त होता है । अंतडियों के रोग ओर वीयके रोग होते हं। “वने च केतौ सुखं नोरमण्या न पानलभो वातादिरोगः। न मानं प्रभूणां कृपा विहृता च भयं वैरिवगौत्‌ भवेत्‌ मानवानाम्‌?” ॥ अज्ञात

९५२८ खमरकारचिन्तामणि का तुरुनाव्मक स्वाध्याय

अथे-स्तममेंक्ेतुदो तो ख्रीसुख नदीं मिख्ता है । वातरोग, अपमान ) राजा कौ अकृपा तथा शवुर्ओं से भय होता है। अष्टसमभावगत केतु के फट- ““गुदा पीञ्यतेऽदगीदिरोगेरवदयं भयं वाहनादेः स्व द्रव्यस्यरोधः। भवेदष्टमे राहूयुच्छेऽशैटाभः सदा कौटकन्याऽजगो युग्मगे तु ॥ ८ ॥ अन्वय–राहुपुच्छे अष्टमे ( स्थिते ) ( तस्य ) अर्शादिरोगेः गुदं अवद्य पीड्यते, वाहनादेः भये, स्वद्रव्यस्य रोधः, (च) भवेत्‌ | कीटकन्याजगः। युग्मगे तु अर्थलाभः ( स्यात्‌ ) ॥ ८ ॥ सं टी–गष्टमे राहुपुच्छे वेतो सति गुदं अर्शादिरोगेः अवद्यं पीड्यते वाहनादेः भयं; द्रव्यस्यरोधः इत्यत्र छन्दोभंगव्वात्‌ वसूनां विरोधः ।* इत्येव पाटः। कीट-कन्याऽजगः युग्मगे तु वृश्चिक कन्या मेष वृष मिथुनस्थकेतौ सद अथंलाभमः मवेत्‌ इत्यः | ८ ॥ अथं- जिस मनुष्य के जन्मल्य्रसे अष्टमकेतु दहो उसे ववासीर-भ्दर आदि रोगां से गुदास्थानमं पीडा रहतीदहै। इसे घोड़ा आदि सवारीसे गिरने का भय रहता दै । दूसरों को दिए हए अपने द्रव्य के मिलने मे रुकावट दोती ह । यह केतु बृथिक, कन्या-मेष भौर मिथुन रादिमे होकर अष्टमभाव मेदोतोद्रव्यलाभ करतादहै॥ ८॥ तुख्ना– “यदा केतौ रेग्रे जननसमयेऽर्लादि जनितं, गुदे कष्टं नित्यं ॒प्रभवतिप्चूनामपिभयम्‌ | स्ववित्तानांरोधः खलु मि्ुन कन्या ्यजवृषे, तदासिः द्रव्याणां क्षितिपति कुखदेवभविताम्‌ ॥ जीवनाथ अथो–जिस मनुष्य के जन्मकाठमें केतु अष्टमभाव मेँ हो उते सर्दा गुदा में बवाखीर, भगंद्र आदि रोगजनित क्षटदहोतादहै। पर्चो को भय, सपने घन के अगमम स्कावट होतीदै। यदिकेतु अष्टपमाव का होकर मिथुन-कन्या, बृश्चिक, मेष, वृष, इनमे से किसी एकर राशि काडहोतो निधित राज्कुलसे ही धन प्राप्त होतादै। ध्केतो यदा र्रग्रहोपयाते जातः परदरव्यवधूरतेच्छुः । रोगी दु गचाररतोऽतिदधन्धः सौम्येक्षितेऽतीव धनी चिरायुः” | सैद्यनाथ अथी-यदि केतु अ्टमभावमें होतो मनुष्य दूखरेके धन ओौर दूसरे कीषश्चीमें आ्क्त होता दै। यह योगी; दुराचारी, अति लोभी होतार) किसी सौम्य्रह कीदृषिहोतो दीर्घायु वा धनीदहोताहे। “रुट्‌ पीड्यते वा जनैः द्रव्ययोधः यदा कटके कन्यके युग्मके वा | भवेत्‌ चाष्टमे राहु छायास्जेऽपि व्रं चाभियाते चुताथस्य यभः>॥ बृहद्‌ ययनजातक अशथी–अष्टमस्थानमेंकेवुदहो तो गुदरोग होता दै। यह केतु वृश्चिक, कन्यावामिथुनमेंदोतोधनलाभदहोतादहै | वरृषमेंदहोधनवा पुत्र प्रास्त होतेह,

२३४ केतु-फरु प्रद्‌

“गुदे पीडनं वाहनैः द्रव्यलाभः यदा कीरे कन्यके युग्मगे वा। भवेत्‌ छिद्रगे रहुकछ।या यद्‌ास्यात्‌ अजेगोऽलिगे जायतेचातिखामः?? 1 दुण्डिराज अशी–अष्टम में राहु हो तो इसे गुदरोग होता है । वाहनं से धन मिल्ता दै यदि केतु कक-कन्यावा मिथुनमेदहो। अष्टमका केतु यदि मेष) बृश्चिक वा बरृषमें होतो अति लाम होता हे। “भदे पीञ्यतेऽ्शादि रोगेरवदये भ्यं वाहनादेः स्वद्रव्यस्यरोघः । भवेदश्मे रादु पुच्छेऽथलाभमः सदा कौटकन्याजगो युग्म केतुः” ॥ सानसागर अशै–अष्टममे केतुदो तो ववासीर आदिसे गुदा में कष्ट दोतादै। वाहन से मय होता है। अपनेदीधन की प्राप्ति में बाधा आती दै । मिथुन, मेष, चुश्थिक, चष, कन्याम हो तो धनलाम होता हे। “भस्वत्पायुरिष्टविरहं कलहं च रपरे शख्रक्षतं सकल कायविरोधमेव ॥» भन्तरेहव र अशो-अष्टममें केव हो तो मनुष्य अस्पायु, होता है । इष्ट-मित्नों से वियोग, कठह, राख से जखम दोना ओर सब कामों में विरोध, ये फल अष्टम केतु के है | ^“यदागुह्यदेदो कु ततुः कु धातुः तथा वक्ररोगी तथा दन्तघाती । परे सप्रतापी यतेत्‌ सवकालं यदा केतुनामा येमृद्यु से” ॥ जागेहवर अथे-अष्टम में केतु हो तो गुह्ययोग, मखयोग, वा द॑तरोग होते है । किन्तु मनुष्य पराक्रमी वा सतत उद्यम करनेवाला होता है। ““सहोदारकमा सहोदारशमा सदाभाति केतः यदा मूत्युभावे । सहोदारखालः सदहोदारशीखः सदहोदारभूषामणिः मानवानाम्‌ ॥ अन्ञाव अशो-अष्ममंके॒होतो मनुष्य के काम; सुख, खे, शील आभूषण के समान श्रेष्ठ होते है। नवमभावगत केतु के फठ– शिखी धमेभावे यद्‌ाङ्केशना शः सुतार्थी भवेत्‌ स्टेच्छतोभाग्यवृद्धिः । सहोत्थल्यथां वाहुरोगं विधत्ते तपोदानतो हास्यवद्धि तदानीम्‌ ॥ ९॥ अन्वय-यदा धर्मभावे शिखी ( स्यात्‌ ) (तदा) छ्ेखनाशः ( भवेत्‌ ) (सः) खतार्थी ( स्यात्‌ ) म्टेच्छतः भाग्यवृद्धिः, सदहोव्थव्यथां, बाहुरेगं, तपोदानतो- हास्यबरद्धिं ( च ) विधत्ते ॥ ९॥ सं <-टी <-यदा धमंभावे नवमे शिखी तदानीं सहोत्थानां भ्रात्रणां व्यथां पीडां, बा हुरोगं युजे व्याधि, तपोदानतो हास्यबृद्धि तपसादानेन लोकोपहास्यतां विधत्त, तथा क्रेदानाशः म्लेच्छतो भाग्यब्रद्धिः ( स्यात्‌ ) (सः) युतार्थौ च भवेत्‌ ॥ ९ ॥ अथे- जिस मनष्य के जन्मल्य्यसे नवमस्थान मे केतुहो तो मनुष्य के क्रेों का नाश होता हे। उसे पुत्र प्राप्ति की इच्छा रहती है। अथात्‌ इसे पुत्र संतान का अभाव रहता है। इसका भाग्योदय स्लेच्छों द्वारा होता है, इसे सगे भादयों से पीड़ा भौर थुजाभों म रोग होता है। लोग इसकी तपश्चयां तथा ठान के विषय में रहसी-खि्ी उड़ाते ई । अर्थात्‌ इषका तप भौर दान ट्म ( दोंग ) समन्चाजाता दै।

५५३० चमरकारचिन्तामणि का तुटनातव्मक्‌ स्वाध्याय

तुखटना–““तमः पुच्छे माग्यं गतवति सुताथस्तनुथतां, सदाम्टेच्छात्‌ लाभः खदु निखिल्कष्टापहणाम्‌ | सहोत्थानां कष्टं बहूविधगदो बवाहूयुगटे, तपश्चयीं दानप्रमव उषहासश्च सततम्‌” | जीवनाय अशथ–जिस मनुष्य के जन्भकाकमें केतु नवमभावमें होतो उसे पत्र आओौर धनका लाभदहोता है। सदा म्टेच्छोंसे खाभयौरसवकष्टांका नाश होतादहै। सहोदर माइयोंको कष्टओौर दोनों अजां मं अनेक प्रकारके रोग होते है । तपस्या ओर दान आदि धार्मिक-करव्यों मं सदा उपहास होता है । अर्थात्‌ उसकी तपश्चयां तथा दान शासविधि कं अनुसार न होन से उपहासास्पद होता है । (“कतौ गुरस्थानगते ठ कोपी वाग्मो, विधम परनिदकः^स्यात्‌ । शूरः पितृद्रेप करोऽतिदंभाचारी निखुत्साहरतोऽभिमानी ॥* देद्यनाय अथं- क्तु ञ्मदातो मनुष्य क्रोधी, वक्ता; धर्मपरिवितैन करनेवाला, परनिन्दकः, शर, पितर द्वेष्टा, बहत दम्भी, निरत्साही तथा अभिमानी होता है । “नवमस्थानगत$ केतुः वाद्त्वे पित्रकष्टक्रत्‌ । माग्यहीनो विधमंश्च म्टेच्छाद्‌ भाग्योदयो भवेत्‌ ॥° गर्ग अथ–नवममेकेठहो तो बचपन में पिता को क्ट, माग्योद्य न होना, धमातर करना, विदेरियों से लमः ये फल प्रात होते ्दै। ` ध्यदाधर्मगः केतरोधर्मनाशं सुतीर्थऽमतिं म्टेच्छतो काभवुद्धिम्‌ | दारीरे व्यथां बाह्रोगं विधत्ते तपोदानतो हासब्रद्धि करोति?” ॥ बृहद्‌ घवनजातक अथे-नवमक्व॒हो तो धर्मनष्टहोतादहै। तीर्थयात्रा की इच्छा नहीं होती । विधर्मी ते लाभपाने कौ इच्छा होती है, शरीर ओर बाह्म रोग होते ह । तप ओौरदानसे हानि ौरब्रद्धि होती दहै, “दिखी धर्मभावे यदा छ्ेरानाशः सुतार्थी भवेत्‌ म्ठेच्छतो भाग्यवृद्धिः । सहोत्थव्यथां वाहुरोगं बिधत तपोदानतो हास्यवृद्धिः तदानीम्‌ |” मानसागर अथे-नवममेंकेतुसे द्रे दुर होते रहै। पुत्र की इच्छा रहती है। बिदेरिर्या द्वारा भाग्योदय होतादै। भादयोंकोक्ष्टदहोताहै। वाहू में रोग डइोताहे। मनुष्यतपवादानकरेतोलोगोंमे हंखी होती दरै। भवेद्‌ विक्रमी शाख्रपाणिश्चमित्र धनैः घर्मश्ीठेः सदा वर्जितः स्यात्‌ । तथाश्रात्पुत्राटिचितायुतः स्याद्‌ यदापातछाया गतापुण्यभावेः | जागेइनर अथे-नवममें केत॒होतो मनुष्य पराक्रमी, सदा शल्नधारण करनेवाला होता है । मित्र, धन, धमं वा शीलसे रहित ओर बन्धु ओर पुत्र के विषय मे वितित होता है। ““पापप्रवृत्तिमद्यमं पितरभाग्यहीनं दाद्रयमार्यजनद्‌षणमादह धर्म ॥2 संतरश्वर अभी-ेतठनवमदहो तो यह पापी पिताकेयुखसे हीन, दरी, वा सच्छे लोगों से निन्दित होता है।

केतु-फक ५३१

“यदा घमंगः केतुकः क्रेरानाराः सुतार्थ भवेत्‌ म्लेच्छतो माग्यब्द्धिः । सदेतु व्यथां बाहूरोगं विधत्ते तपोदानतो हषन्रद्धि करोति ॥° दृण्डिराज अथे–नदमभावमं केतुहोतो मनुष्य को कष्टनाश, पु्नयुख, म्टेच्छं के द्वारा भाग्य की व्द्धि; कारणव पीडा, बाहु मे रोग तपस्या भौर दान से इषं आनन्द्‌ की ब्द्धि ये फर प्राप्त होते है। “श्गृहे केतुनाम्नि स्थिते धर्मभावे श्रियो राजराजाधिपो देवमंत्री | नरः कान्ति की््यादिबुद्धयादिदानैः कृपावान्‌ नरो धर्मकमंप्रवृद्धः’ ॥ अज्ञात

अथ-नवममं केठके होने से मनुष्य राजा अयवा राजमंत्री होता डै। इसे कांति, कीर्ति, बुद्धि, उदारता, दयाङता धार्मिकता प्रप्र होती है |

राममावगत केतु के फट– ““पितुर्नो सुखी कमंगः य्य केतुः यदा दुभगं कष्टभाजे करोति । तदा वाहने पीडितं जातु जन्म बषाजाल्किन्याञ् चेत्‌ शात्रनारम्‌ ॥१०॥ न्वय :- यदा यस्य कमगः केतुः तदा (तं) दुर्भगं कष्टभाजं (च) करोति; ( सः) पितु; ( सकाशात्‌ ) सुखौ न (स्यात्‌ ) वाहने ( स्थितं ) (तं) पीडितं करोति, दृषाजाछि कन्या सुजाठचेत्‌ जन्म तदा रुनार करोति ॥१०॥ सं° टी<-यदा कमगः दशमस्थः यस्य केतुः तदा तं दुभ॑गं असुन्दरं, कष्ट- भाजं-छ्ेदाभा गिनं जातु कदाचित्‌ वाहने बाहननिमिन्त, पितुः नो सुखं दुःखमिव्य्थं जन्मनि वृष मेष वृश्चिक कन्यासु च शत्रुनाशं करोति; इति सव॑त्रान्वयः॥ १०॥ अशे-जिस मनुष्य के जन्मल्य से दशमभावमेकेतु होतो उसे भाग्यहीन अओौर कष्ट भोगनेवाखा करता है । यह मनुष्य पिता से सुखी नहीं रहता है ¦ इसे घोडा आदि सवारी से गिरकर कष्ट होता है । इस मनुष्य का जन्म यदि वृष, मेष, वृश्चिक ओौर कन्याल्यमंहोतो इसके रत्नओं का नाश होता रै ॥ १०॥ तुखना-““यदा सिदहीपुत्रे दशमभवने यस्य॒ जनने पेतुः कष्टं नित्यं प्रभवति कुरूपत्वमथवा । अवद्यं दौर्भाग्यं तुरगगजगोमिः भयमटोौ तषे षष्ठे मेषे व्रजति विल्यं सतरुपयटी | जीननाथ अशे— जिस मनुष्य के जन्मसमय मं केतु दशममाव मेहो उसके पिता को कृष्ट होता है। अथवा यदह स्वयं कुरूप होता है । निश्चय ही इसका भाग्य बुरा होता है| इसे घोडा, हाथी, गाए-बेठ आदि से मयदहोतारै। किन्तु यदि केतु दशमभाव का होकर शिकः वृष; कन्या, मेष, इनमे से किसी राशि का हो तो राच्रुओंका नाश होता है। “सुधी बलो शिदत्प विदाल्मबोधी जनानुरागी च विरोधक्त्तिः। कफात्मकः गुरजनाग्रणीः स्यात्‌ सदाटनः क्मंगते च केतौ ॥` गैद्यनाथ अशथे–यदि केत दशममे होतो मनुष्य बुद्धिमान्‌, वटी, शि्पक्, आत्मज्ञानी, मिटनसार, विरोधी इत्ति का, कफप्रकृति का, शरं मे सख्य ओर सदा प्रवासी होता दै।

५३२ वम र्छारचिन्तामणि का तुरुनात्मक्‌ स्वाध्याय

““गुदामयः शछेष्मन्त्तिः स्लेच्छकर्मा च मानवः । परदाररतो निव्यं केतो दशमगे गहे || गर्म अशी–दरामस्थकेतु का व्यक्तिहोतो इसे गुदा रोगदहोता दै । यह कफ प्रति म्टेच्छकर्मा, तथा परछ्री मं आसक्त होता ₹है। ““पितुर्ना सुखं कर्मगो यस्य केतुः स्वयं दमगो मातरृनाशें करोति, तथा वाहनः पीडितेरुभैवेत्‌ स यदा वैणिकः कन्यकास्थोऽसितष्रःःः ॥ ब्रटद्‌यननजातक अथी–दशमस्थ केठ॒दहोतो पितामाताका सुख नदीं मट्ता, यह कुरूप होता दै । क्न्यामंहोतो वाहनसे जोधमें पीडा होती दै । यह वीणा बजाता दै । काटे पदार्थं क सुचि होती दै । ““सत्क्मं विध्नमद्युत्ित्वमवन्यङ्घ्यं तेजस्विनो नभसि रौ्य॑मति प्रसिद्धम्‌ ॥ मन्त्रे श्नर अभी-उ्शममेंक्तु दो तो यच्छे काममें विश्न करता है। पापकम करता दे । तेजस्वी, प्रसिद्ध सौर रार होता हे । पितुः नो सुखं कर्मगो यस्व केतुः स्वयं दुमगः शत्रुनाशं करोति । रजो वाहने वातपीडां च जन्तोः यदा कन्यकास्थः सुखी द्रव्यभाक्‌ च? ॥ दुण्डिराज अथे–जिसके दशमभावमें केत॒हो वहपिताके सुख से रदित, स्वयं भाग्यहीन होत हए भी शत्रुं को नाश करनेवाला, वाहनों को रोग, स्वयं बातसे पीडित दहीतादहै। यदि दशममें होकर केतु कन्या यशिमेंद्ोतो मनुष्य सुखी भौर धनी होता है । “पितः नो युखं कर्मगो यस्य केतुः तदा दुर्भगं कष्टमाजं करोति । तदा वाहन पीडितं जातुजन्म बृषाजाल्किन्यासु चेत्‌ शञ्चुनाशम्‌”” ॥ मानसागर अथं- दरामभावमें केव हो तो मनुष्य पित्रृसुख से दीन, दुग, कष्ट भोगी वाहनों से पी पनेवाा यदि वृष, मेष, कन्या, वृश्चिक राशिमेदहोतो शत्र को जीतनेवाल होता है । “कथं ये सुखं पेटक वे जनानां तथा कम॑लाभः कथं हुत्सुखं स्वात्‌ । परं पाददेरो भवेत्‌ बोर पीडा यदा केतुनामा गतः कम॑भावे || जागेडवर अथे-दरम केत होतो पिता का सुख नदं मिल्ता। काम से कुछ लाम नदीं होता, मन मं सुख नहीं होता, पौबिमें रोगतथा चोरोसे कष्ठ होता ह। “नभस्थो भवेद्‌ यस्य मत्सस्य केतुः न तत्‌ स्योप मेयः पभावो ुविस्यात्‌ । गडुं डिडिमाडवरे शत्रवोऽपि रणप्रांगणे तस्य गायन्ति कीर्तिम्‌, ॥ अज्ञात अथे–दशमभावमेकेतुहो तो मनुष्य का प्रभाव यवल्नीय होता दै । युद्ध मं शत्र मौ इरकौ कीर्तिं गातेहै। यह मीनवां धनुमे दहतो उत्तमयश्च वा वैभव पिख्ता है| मिथुने वैभवपद से घ्ना पड़ता है । बुद्धिमान, शाखक्ञ, प्रवासी तथा विज होता ई । यह केतु कुम्भ; कन्या, मिथुन; दृषभमेंहो तो कुछ सौभ्य होता है। भौर

केतु-फर ५३३

साधारण फलदेता है । यह केतु व्यापारके छि श्चुम नहीं दहै। चरराशि में थह केतु हो तो प्रवास से भाग्योदय होता हे। खाभ भावगत केतु के फट-

“सु भाग्यः सुविद्याधिको ददोनीयः सुगाच्रः सुवखः सुनेजोऽपितस्य । दरे पोड्यते संततिः दर्भगा च रिखी छाभगः सगेखामे करोति ॥११॥

अन्वय-कामगः शिखी सवंलाभं करोति, ( सः ) सुमाग्यः, सुवि्याधिकः, दर्खानीयः; सुगाचः, सुव्रस्लः, सखतेजः (च ) भवेत्‌; तस्य संततिः दुभगा, (सती) दरे पीड्यते ॥ १९१ ॥

सं दी—लखामगः शिखी केतुः सवषां वस्तूनां मं करोति, तथा सः नरः सभाग्यः, सुविन्याधिकः,-सुगा्रः शोभनांगः अतएव ददानीयः मनोहरः स॒तेजाः शोभन प्रतापः सुवस््रोऽपिस्यात्‌ इति शेषः । तस्य संततिः दुर्भगा भाग्य-

हीनां । दरे मये पीड्यते च ॥ ११॥ अथे–जिस मनुष्य के जन्मल्य से एकादशभाव में केतु हो तो उस मनुष्य

को सर्वप्रकारसे छाम होता है। यह मनुष्य उत्तम भाग्यवान्‌, उत्तम विद्धान्‌, रूप में सुन्दर, उत्तम शरीरवाला) उत्तमवख्र धारण करनेवाला, ओर बड़ा तेजस्वी होता है । इसकी सन्तान अभागा होती ह भौर भय से पीडित होती है ॥११॥ तुखना– “शिखी लाम्याने जनुषि भविनां माग्यमधिक, प्रभायिक्यं विद्यां सततमनवद्या कृतिरपि। प्रास्तं वसं च प्रभवति गुदे कष्टमनिरं तथा नानार्थािः परम विकला संततिततिः” ॥ जीवनाष अथ– जिस मनुष्य के जन्मकालमे केतु एकादशमभावमें हो तो वह पूणं भाग्यवान्‌ होता है । विरोष कान्ति, उत्तम त्रिदा, निमल मङ्ृति भौर उत्तम वद्लधारण करनेवाला होता है । गुदा मे सतत कष्ट होता है। अनेक प्रकार के धन का लाभ ओर सन्तान वगं अत्यन्त विकल होता है। “न्सुभाषी सुविद्ाधिको दशंनीयः सुभोगः सुतेजाः सुवस््रेऽपि यस्य | गुदे पीड्यते सन्ततेः दुभंग्वं दिखी लाभगः सव॑कार करोति” ॥ महेश अभे- यदि केत एकादशमाव में हो तो मनुष्य अच्छा भाषण देता है अर्थात इक्षकी वाणी स्रस्त ओौर मधुर होती दहै क्योकि कणक्डु भाषण तो असभ्यता तथा मूर्खता का लक्षण माना गयां हे । यह्‌ च्छा विदान्‌, दरानीय अर्थात्‌ देखने मं आकषक ओर मनोहर, यच्छे भोग भोगनेवाला, प्रतापी भौर अच्छे वख पहिननेवालख होता है । इसकी गुदा में पीडा रहती है अथात्‌ इते सीर-भ्गंदर आटि गुदा के रोग होते ह । इसकी सन्तान अभागा होती है। लाभभाव का केतु सदेव लाभकारी होता रै। उपान्त्ययाते शिखिनि प्रतापी परपियश्ान्यजनामिववंद्यः | सछशचित्तः म्रभुरद्पभोगो श्चभक्रिया चाररतः प्रजातः” || वैदनाथ

५५३४ चमत्कारचिन्वामणि का तुरुनात्मक्‌ स्व।(ध्याय

अथे– यदि केतु एकादशभाव मे दहो तो मनुष्य पराक्रमी; लोकप्रिय, दूसरों द्वारा प्रशंसितः, सन्वुष्ट;, अधिकारी, अव्पमोग करनेवाला ौर अच्छे काम करनेवाला होता है। | ““सुभाषी सुविद्याधिकोदर्शनीयः सुभोगः सुतेजाः सुवस््नोऽपि यस्य । मवेदौदरार्तिः घता दुर्भगाश्च शिखी लाभगः सवेलछाभं करोति? ॥ तरह॒दयवनजातक अथं– जिसके एकादशभावमें कतुदहो तो इसका बोलना, रिक्षा, रूप, भोग, तेज ओर व्र स्र गच्छे होते र्द । पेटमेंरोग होता है। पुत्र माग्यहीन होते है । सदा लकामदहोताहै। “भवेत्‌ पर्वराचता धनं तस्यगेदे कथं स्यात्‌ सुतानां च चिता विरोषात्‌ | मवेत्‌ जाठरे तस्य वातप्रकोपः यदा केतवः कामगाः स्युः नराणाम्‌? || जागेक्वर अ्थ–यदि केत एकादशमावमे होतो धन यौर पुत्र की विरोष चिन्ता रहती है । पेट में वातरोग होते है| “”लाभेऽथंसंचयमने कगुणं सुभोगं सद्रव्यसोपकरणं सकलार्थसिद्धिम्‌? ॥ मन्त्रो शवर अथ –लाभभावगत कुहो तो घन का संचय, अनेक गुण, अच्छे भोग, सव अर्थो की सिद्धिः द्रभ्य तथा उपकरणों की प्रापि होती है। ‘ सुमाघी सुव्रिद्याधिकोददनीयः सुभोगः सुतेजाः सुवस््रोऽपि यस्य । गुदेपीञ्चते सन्ततेः दुमगलं शिखी लभगः सर्व॑काठे करोति”? ॥ दृण्ठिराज अथं–जिसके एकादशमाव मे केठ॒ हो वह सरस ओर मधुर बोलनेवाखा, खरिक्षित ओर सुविद्यः संदर, अच्छे भोग मोगने वाला, सुन्दर वस्रं बाट, गुदारोग वाला ओर निन्दित सन्तान वाला होता है | एकादश केतु सद्‌ा लाभकारी होता है । ““सुभाग्यः सुवि्याधिकोदशनीयः सुगात्रः सुवखरः सुतेजाश्च तस्य । द्रः पीठ्यते शनुवर्गः सदेव रिखी लाभगः सवंलछाभं करोतिः? ॥ मानसागर अथे–एकादशमाव मं केतु के होने से मनुष्य माग्यवान्‌, विद्वान्‌, ददीनीय, मुन्दुर स्वरूप, तेजस्वी तथा खनच्छवख्रधारी होता दै । इसके भय से शतु पीडित रहते हें । लाममावगत क्तु सर्वप्रकार कालामदेताहै। “धयदेकादरो केतुरतिप्रतिष्ठां नरं सुन्दरं मन्दिरं भूरिभोगान्‌ | सदादारश्रगारशाख्प्रवीणः सुधर धनुधारिणां मानकीर्व्या” || अज्ञात अथे–एकादश क्तु से मनुष्य प्रतिष्ठित, सुन्दर, घर-बार वाला, उपभोग से समृद्ध, उदारः. श्रेगार-शाख्र मेँ निपुण अर धनुर्धरं मे सम्मानित तथा कीर्तिमान्‌ होता हे, ।

एकाद्शभावगत केतु प्रभावान्वित मनुष्य मीडा बोक्ता है । विनोदी, विद्वान्‌, एेयसम्पन्न, तेजस्वी, वखराभूष्णों से युक्त तथा लाभयुक्त होता है । इसे गुदरोग होते्है। मन म सदा चिन्ता रहती है। परोपकारी, दयाट्, खोकप्रिय, शाक्लरसिक, सन्तुष्ट भौर राजा द्वारा आदत होता है । यह केतु मेष, वृपः कन्या, धनुवामीनमं हो अथवा इसपरगुरु वाश्ु्रकीदृष्टि होतो

दमफलर विंदोषरतवा मिलते है बुधका योग दहो तो व्यापार मे अच्छा यश
कैतु-फर ५६५

मिख्तादहै। इसके के प्रभाव से मनुष्य कवि, ठेखकः; राजमान्य, पञ्चधन

सम्नृद्ध सर्वं मनोरथ सिद्धि प्राप्त करनेवाला होता दै । इसका धन अच्छे कामों

मे खष्वं होता है। इसे लाम मी शीघ्र होता है-यह मनुष्य आरस्यद्यीन होता

है| हाथमे रिष्ट हए काम को अधूरा नदीं छोडता है । बज्ञतमत ज्ययस्थानगत केतु के फट– `

. ‘द्धिखीरिःफगो वरस्तिगह्यांधिनेत्रे स्जापीडनं मातुखान्नैव शमे ।

सदा राजतुस्यं नरं सद्‌ ब्ययं तद्‌ रिपूणां विनां रणेऽसौ करोति ॥१२॥ अन्वय :-असौ रिःफगः शिखी नर राजतुस्यं, सदव्यये, रणे तद्विपूणां

विनां वस्तिगुह्यांधिनेत्रे खजा पीडनं ( च ) करोति । ( तस्य ) मातुखत्‌ शमः

न ( स्यात्‌ )॥ १२८॥

सं= टी<–रिःफगः द्वादशस्थः असौ शिखी के तुः नरं सदा राजवुस्यं राजवत्‌

सुसैश्वर्य भोक्तारं सद्व्ययं सन्मां धनभ्ययकरं रणे तद्रिपूणां विनाशं वस्ति गुह्यांधिनेत्रे खजा पीडनं ष्व करोति । मातुखात्‌ शमं सुखं नैव करोति ॥ १२॥ अर्थ– जिस मनभ्य के जन्मल्य्रसे द्वादश्चभावमेंकेतु हो यह मनुष्य को राजा के समान सुख-एे्वयं देता है-इस व्यक्ति का धन अच्छे कामों मे खं होता रै। इसके शत्रुओं का संग्राम में पराजय होता हे। इसे नामि के नीचे

के स्थानम, गृह्यागमें, पावो भौर ओंखोंमे रोगसे पीड़ा कराताहै। इस

व्यक्ति को मामासे सुख नीं मिलता हे॥ १२॥ . | तु.-यदाऽपापागा ‡ जनुषि यदि केताुपगते महापीडा गुह्ये पद्नयनयोःनामिनिकरे। जयो वादे निध्यं नरपतिवदेवामर्खुखं नराणां कल्याणं मवति च नमाठुः सह जतः॥ जीवना अथी-जिस मनुष्य के जन्मकाल में केत द्वाद्श्चभावमं हो तो उसे गु, पैर, नेजन यर नाभि के निकट अधिक पीडा होती हे । वाद-विवाद मे सव॑दा विजय; र राजा के समान पूर्णं सुख होता है । किन्तु मामा से सुख नीं होता है । ““पुराणवित्तस्थितिनाशकः स्यात्‌ चरो विशः शिखिनिष्ययस्थे |” वंनाय अशी–व्ययभावमेंकेतु दो तो पुरानी संपत्ति को नष्ट करनेवाला; चंचल ओर शंालरदित होता हे। | | | ध्द्राखी रिःफ: चास्नेत्र, सुशिक्च; स्वयं राजतुस्यो व्ययं सत्कथेति ।

रिपोः न।रनं मावुखान्‌ नैवशमं खजापौड्यते वसितगुह्यं सदैव ॥” बृहुद्यवनंजातक

अथी– द्वादशमे कठ होतो अखं सन्द्र होती है, . रिक्षा अच्छी होती है । यद अच्छे कामों मे राजा जैसा सवं करता है | रात्नुका नाश करता ह।

इसे मामा का सुख नहीं मिख्ता है । इसे ुदा मँ वा गुह्यमाग मे रोग होते दै ।

८“हिखी रिःफगः पाटनेत्रे “च पीडां स्वये राजतुस्योव्ययं वै करोति ।

रिपोः नाशनं मानसे नैवशमं रुजापीड्यते वसितिगुह्यांगरोगम्‌ ॥” महच

अभी-यदि द्वादरभावमे केतुदहोतो पाभों र आंखोंमे पीडा होती है । मनष्य राजा समान श्वय सम्पन्न होकर राजा जैसा खष्वं करता ै।

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५५३ & चमच्कारचिन्तामणि का तुखनारमक स्वाध्याय

त्रुनाद्य करता है। इसे मन भ॑ अशांति रहती है । इसे वस्ति ओर गुह्यांग मेरेगदहोने से पीडा दोती डे) “दिली सिफगः पाटनेत्रेषु पीडा स्वयं राजतुल्यो व्ययं वै करोति | रिपो नाशनं मानसे नैवम, सजापीञ्यते वस्तिगु्यं सगेगम्‌? ॥ दृण्डिराज अशै- जिसके द्वाददाभावमें कठ हो; उसको पांव रने मं पीडा, स्वयं साजा के समान खर्वं करनेवाला, शचरुओं का नाद करनेवाला, चित्तम अरांत ओर अस्थिर, गुदा ओौर वस्तिमं योगसे पीडित होता है | (“शिखी रिःफमो वस्तिगह्यांघधिकाये सजापीडनं मात॒लान्ेवश्मं | सदा राजतुल्यं नरं सद्व्यय तद्रिपूणां विनाशं रणेऽसौ करोति ॥ मानसागर अभी-द्वादश्यभावमं क्तु दहो तो मनुष्य को वस्ति, गुदामार्गं ओौरपैरमें रोगसे पीडा, मामासे सुखका न मिख्ना;, राजा के तुल्य सतव्कायंमें व्यय करना, रण मेँ शत्रुओं को परोडित करना, ये फर मिलते ह | “प्रच्छन्न पापमघमं व्ययमथनारां रिःफे विरुद्धगतिमक्षिरुजं च पातः ॥2 सत्रे इवर अशे-द्रादशभावमें केतुहा तो व्यक्ति गुप्तपाप करनेवाला, अघम, खर्चील, निर्धन, उच्टे मार्ग से चलनेवाल्प्, आंख के रोग से पीडित होता ₹ै। ८ ध्यदायाति केवुव्यये मानवोऽसतप्रयोगात्‌ विधत्ते व्ययं द्रव्यरारोः | नृपाणां वरं संगरं कातरः स्यात्‌ श्ुभाचारदहीनोऽतिदीनो न दाता ॥*’ अज्ञात अशै-द्वादामावमें क्ेवुदहोतो मनुष्य बुरे कामोंमं खव्चं करता ३। खड़ा मे उरपोकः शभ काम से रहित, दीन ओर कंजूस होता है । दवादशस्थ केतु प्रभावयुक्त व्यक्ति बहुत प्रवास करता है। चंचल, उदार, खर्चीखा-ऋणग्रस्त दाता है । बुधसे युक्तं होतो व्यापारमें सफठदहोतादै। कवि-शाखज्ञ गौर राजा जेसा संपन्न होताहे। उच्ववा स्वग्रह मे हो, अथवा राख्के साथदहो तो विदोष योग्य, साघु भौर जितेन्द्रिय इत्ति काहोता दहै) शक्र के साथ वच्वान होतो रशक्तिमागका साधक होतादहै। श्चुक्र वा चन्द्र साथदहोतो व्यभिचारीवा पापी होता है। भट्टनारायण ग्रंथकार कृत आशीवादात्मक मंगलाचरण- “मत्कारवितामणौ यतूवगानांफलंकीर्तितं भदनारायणेन । परटेद्यो द्विजः तस्यराज्ञोसमायां समक्षे प्रवक्तुं न चाभ्ये समर्थाः ॥ अथै–श्रीनारायण भद्र ने चमत्कारचितामणि नामकम्रंथमे अरहो का जो फट कहा है इसे जो व्राह्मण पटृता है । वह राजसभा मे राजा-महाराजाभों के आगे सम्मानपूत्क बेठता है, ओौर इसकी बराबरी में दूसरा मनुष्य बोलने मं समथं नदी हो सकता है, अर्थात्‌ यह मनुष्य सर्वत्र विजयी होता है | पमाःकारचितामणि रीकाकार का समाप्तिसुचक दटोक– “ वमत्कारचितामणेः चारुटीकां चकारान्वयाथं प्रबोधप्रदीपाम्‌ | सुदेवक्ञ धर्मश्वरो मालवीयः प्रमोदायभूदेव विद्द्जनानाम्‌ ॥ अभे-माख्वीय दैवक्ञ धर्मेशवर ने चमत्कारवितामणि नामक प्र॑थ की अन्वया प्रबोध प्रदीपा नामक सुन्दर भौर हृदयरंजिनी टीका विद्रननों को आनन्दित ओर प्रसन्न करने के छिषए ल्खिी दै जो समाप्त है | द्यभम्‌ ॥

श्रीभद्रूनारायणकृतः ` चमत्ारचिन्तामणिः ब्रजविहारीलाल शर्मा

प्रस्त॒त ग्रन्थ भाव-चिन्तामणि’ ` नाम से भी विख्यात हे । इस ग्रन्थ के रचयिता व्रिस्कन्धवेत्ता ज्योतिर्विद्‌ नारायण भद्र महाराघ् के निवासी थे । उन्होने फलित ज्योतिष के अनेक ग्रन्थो का स्वाध्याय करके ज्योतिषशास्त्र के जातकः-प्रकरण प्रे भावस्थित ग्रहों का फल बताने के लिए इस ग्रन्थ को रचना को । यद ग्रन्थ संस्कृत भाषा मे भुजद्धप्रयात छन्द मे लिखा गया हे ओर इस पर मालवीय दैवज्ञ धर्मश्चर ने संस्कृत. भाषा में ‘ अन्वयार्थ-प्रनोध-प्रदीप’ ‘ नामक सरल टीका लिखी हे । १

मूल एवं टीका के सम्पादक पण्डित ब्रजबिहारीलाल शर्मा हे जिन्होने कुशल सम्पादन के अतिरिक्तं इसमें विस्तरत टिप्पणियां भी जोड दी हे । ये टिप्पणियां हिन्दी भाषा में है, ओर ये मूल एवं टीका को स्पष्ठ, सरल ओर सुगम बना देती दै । इनमें वराहमिहिर, गग, पराण्टार, वसिष्ठ, कश्यप, नारद तथा अन्य प्राचीन आचार्यो के मतो पर तलनात्मक विवेचन किया गया हे ओर उपयोगी स्थलों पर यवनमत ओर पाश्चात्य मत भी दे दिए गए हे; ग्रहों का गण, स्वभाव, स्वरूप, कारकत्व आदि का कहीं समास से ओर कहीं व्यास से वर्णन क्या गया हे ओर उनके राशिफल, दृष्टिफल ओर युतिफल विस्तृत रूप मे दिए गए ह।

मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली ° मुम्बरं ° चेन ° कोलकाता लंगलौर ° वाराणसी ° पुणे ° पटना

{-11211: 111004४5111.60770 +€ 0511€: प .711100.6071

“` 4. च ० 445 ( सजिल्द) कोड : 24973 मूल्यः र० 245 कोड : 24980

वि. 1.

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